गुरुवार, दिसंबर 29, 2005

नववर्ष मंगलमय हो

देश-दुनिया के पाठकों और हिंदी ब्लॉग जगत के सभी लेखकों को नए साल की असीम शुभकामनाएँ! नया साल आपके जीवन में नई-नई ख़ुशियाँ लेकर आए...आप सपरिवार स्वस्थ और सानंद रहें...आपको सदैव सफलता मिले!!

मकरसंक्रांति के बाद नियमित पोस्ट लिखने के वायदे के साथ,
-हिंदी ब्लॉगर

बुधवार, दिसंबर 21, 2005

वर्ष 2005 के चर्चित शब्दों की बानगी

हमारे जीवन में मीडिया मीडिया की चौबीसों घंटे मौजूदगी के कारण हर साल हमें कुछ नए शब्द सीखने को मिलते हैं. नए शब्दों में कुछ तो बिल्कुल भोलेभाले होते हैं तो कइयों से शरारत की महक आती है. बीते वर्षों से इस तरह के शब्दों के उदाहरण ढूँढे जाएँ तो मिखाइल गोर्वाच्योफ़ के ज़माने के ग्लास्नोस्त(खुलापन) और पेरेस्त्रोइका(पुनर्निर्माण) हमारा ध्यान तुरंत आकर्षित करते हैं. सूचना प्रौद्योगिकी के मौजूदा युग में आउटसोर्सिंग,साइबर वर्ल्ड और ब्लॉग जैसे शब्दों के अवतरित हुए भी ज़्यादा दिन नहीं बीते हैं.

आइए एक नज़र डालें वर्ष 2005 के चर्चित शब्दों और परिभाषाओं पर. मैंने इन्हें वर्षांत पर प्रकाशित रोचक जानकारियों की एक किताब से लिया है. ये शब्द और मुहावरे अंग्रेज़ी के हैं, ज़ाहिर है हर साल विभिन्न भाषाओं से ऐसे सैंकड़ो उदाहरण जुटाए जा सकते हैं.

HAPPY SLAPPING/BANGING OUT: अनजान लोगों के ख़िलाफ़ अकारण की जाने वाली हिंसा की घटना को वीडियो फ़ोन पर रिकॉर्ड करना और ऐसी वीडियो क्लिप दोस्तों को टेक्स्ट करना.

CLEANSKINS: आपराधिक मामले में संदिग्ध वे लोग जिनका अब तक कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं रहा हो. लंदन में सात जुलाई के बम हमलों के लिए ज़िम्मेवार माने जाने वाले चरमपंथियों के लिए इस शब्द का जमकर इस्तेमाल हुआ.

RENDITION: क़ैदियों को अवैध रूप से उन देशों में भेजना जहाँ उन्हें प्रताड़ित किया जाना क़ानून के ख़िलाफ़ नहीं हो. अमरीकी ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए पर आरोप है कि उसने दुनिया भर में पकड़े गए हज़ारों संदिग्ध चरमपंथियों को मिस्र, रोमानिया, पोलैंड जैसे देशों में रखकर प्रताड़ित किया.

SANTO SUBITO: तुरंत संत बनाया जाना. पोप जॉन पॉल द्वितीय की मौत के बाद वेटिकन के सेंट पीटर्स स्क़्वायर में जुटी भीड़ उन्हें संत घोषित किए जाने की माँग करते हुए 'सैंतो सुबितो' का नारा लगा रही थी.

DEFERRED SUCCESS: नाकामी के लिए प्रयोग में लाया जाने वाला आशावादी मुहावरा.

BATHROOM BREAK: संयुक्त राष्ट्र शिखर सम्मेलन के दौरान अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश द्वारा विदेश मंत्री कोंडोलीज़ा राइस के नाम लिखे नोट से लिए गए शब्द. रॉयटर्स के एक फ़ोटोग्राफ़र के कैमरे में क़ैद दो पंक्तियों के इस नोट में बुश ने लिखा है- "मैं समझता हूँ मुझे बाथरूम ब्रेक की ज़रूरत है. क्या ये संभव है?"

ISRAELISATION: इसके तीन प्रमुख उपयोग हैं-(क)अरब-इसराइल संघर्ष का विश्व राजनीति पर प्रभाव. (ख)9/11, मैड्रिड और 7/7 के हमलों के बाद बनी यह मान्यता कि पश्चिमी जगत भी अब आत्मघाती हमलों के ख़तरे के साथ जी रहा है. (ख)आतंकवाद से निपटने के लिए इसराइली तौर-तरीक़ों को अपनाना.

गुरुवार, दिसंबर 15, 2005

ख़ुश पाई गई है मोनालिसा

किसी भी व्यक्ति के मुस्कान के कई अर्थ निकाले जा सकते हैं. और जब मुस्कान सबसे प्रसिद्ध यानि मोनालिसा की मुस्कान हो, तो उसके न जाने कितने अर्थ निकाले जाते रहेंगे. आइए देखें ताज़ा अर्थ क्या निकाला गया है.

विज्ञान पत्रिका न्यू साइंटिस्ट के 17 दिसंबर 2005 के अंक में नीदरलैंड्स के एम्सटर्डम विश्वविद्यालय के नीसू सीबी नामक वैज्ञानिक द्वारा किए गए अध्ययन के बारे में एक रिपोर्ट छपी है.

सीबी साहब ने लियोनार्दो दा विंची की प्रसिद्ध कृति मोनालिसा की मुस्कान से रहस्य का आवरण हटाने के लिए एक विशेष सॉफ़्टवेयर का प्रयोग किया जो कि चेहरे के भावों को पढ़ने के लिए ही प्रोग्रैम किया गया है. इलिनोइस विश्वविद्यालय के सहयोग से विकसित इस सॉफ़्टवेयर में होठों के घुमाव और आँखों के किनारे के संकुचन जैसे चेहरे की कई प्रमुख विशेषताओं की पड़ताल करने की क्षमता है. कंप्यूटर इन विशेषताओं के आधार पर चेहरे की तुलना छह मूल भावों से करता है. इसी के साथ नीसू सीबी ने अनेक युवतियों के चेहरे से जुड़े आँकड़े कंप्यूटर में जमा कर एक औसत 'न्यूट्रल' चेहरे का ख़ाका बनाया. कंप्यूटर द्वारा चिंहित मोनालिसा के चेहरे के भावों का न्यूट्रल चेहरे से मिलान करने पर पाया गया कि लियोनार्दो दा विंची की मोनालिसा बहुत ही ख़ुश है.

इस अध्ययन की पूरी रिपोर्ट को गणितीय भाषा में रखें, तो मोनालिसा के चेहरे के भाव को प्रतिशत में कुछ इस तरह व्यक्त किया जा सकता है:

ख़ुशी- 83
विरक्ति- 9
भय- 6
क्रोध- 2

पेरिस के लूव्र संग्रहालय में बुलेटप्रूफ़ शीशे के पीछे से मुस्करा रही मोनालिसा की मुस्कान 500 वर्षों से एक रहस्य बनी हुई है. मैं तो चाहूँगा यह रहस्य आगे भी बना रहे. अच्छा लगता है कुछ रहस्यों का बेपर्दा न होना!

क्लिक करें. देखें मोनालिसा को मिली नई जगह. सौजन्य:बीबीसी हिंदी

शनिवार, दिसंबर 10, 2005

हार नहीं माने हैं दिएगो गार्सिया के लोग

इस सप्ताह एक ऐसी ख़बर को मीडिया की उपेक्षा सहनी पड़ी जिसे कि नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ एक लंबी लड़ाई के रूप में प्रमुखता से प्रसारित से किया जाना चाहिए था. डेअर श्पीगल और बीबीसी जैसी गिनीचुनी समाचार संस्थाओं ने ही इस ख़बर को कवर किया. ख़बर थी दिएगो गार्सिया के मूल निवासियों की ब्रितानी सरकार से क़ानूनी लड़ाई की. मुट्ठी भर लोग कैसे सबसे बड़े साम्राज्यवादी देश से लड़ाई लड़ रहे हैं, यह एक मिसाल है.

दिएगो गार्सिया हिंद महासागर का एक द्वीप है. छोटे-बड़े कुल 52 टापूओं वाले चैगोस द्वीप समूह के इस सबसे बड़े द्वीप पर अमरीका का सबसे महत्वपूर्ण सैनिक अड्डा है. हालाँकि यह द्वीप अमरीका के बगल-बच्चे की तरह व्यवहार करने वाले ब्रिटेन का है. दिएगो गार्सिया को उसने अमरीका को पट्टे पर दे रखा है. अमरीका ने 1966 में 50 साल की इस लीज़ के बदले ब्रिटेन को परोक्ष रूप से 1.4 करोड़ डॉलर का भुगतान किया था. अमरीकी सैनिक भाषा में इसे '7.20S, 72.25E' यानि इसकी भौगोलिक स्थिति के नाम से जाता है. इस द्वीप का नाम दिएगो गार्सिया शायद सोलहवीं सदी में इसे खोजने वाले किसी पुर्तगाली अन्वेषक के नाम पर पड़ा होगा.

अमरीका 23 वर्ग मील क्षेत्र वाले छोटे से द्वीप दिएगो गार्सिया से ही भारत और चीन समेत पूरे एशिया और मध्य-पूर्व पर नज़र रखता है. कहने को तो यह इराक़ से 3000 मील दूर है, लेकिन इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान पर हमलों के दौरान अमरीकी बी-52 बमवर्षकों की अधिकतर उड़ान यहीं से हुई थी. (अमरीकी सेना को इसमें कोई कठिनाई नहीं हुई क्योंकि विनाशकारी बी-52 विमानों की क्षमता अपने अड्डे से अधिकतम 8800 मील दूर तक मार करने की है. सच्चाई तो ये है कि अनेक बी-52 विमानों ने इराक़ पर बम बरसाने के लिए अमरीका स्थित अड्डों से भी उड़ान भरी, और मिशन पूरा कर वापस अपने अड्डों पर लौटे- मतलब लगातार 30-35 घंटों तक उड़ते रहे. उड़ते-उड़ते ही उनकी रिफ़िलींग हुई होगी.)दिएगो गार्सिया में अमरीकी नौसेना के दर्जनों बड़े जहाज़ साजो-सामान और रसद के साथ सालों भर लंगर डाले रहते हैं कि पता नहीं कब किस देश को डराने और दबाने की ज़रूरत पड़ जाए.

दिएगो गार्सिया के इस सप्ताह फिर से ख़बरों में आने की वज़ह है यहाँ से बेदखल किए गए मूल निवासियों यानि चैगोसियनों(उनकी मूल क्रेओल भाषा में 'इलोइस' यानि आइलैंडर) के एक संगठन का ब्रितानी सर्वोच्च अदालत में अपील करना कि उन्हें अपनी ज़मीन पर लौटने दिया जाए. दरअसल ब्रिटेन ने जब दिएगो गार्सिया को अमरीका को सौंपा तो अमरीकी आग्रह पर उसने वहाँ से 2000 मूल निवासियों को भी बेदखल कर मारीशस(कुछ को सेशल्स में भी) में ले जाकर पटक दिया. यह घिनौना काम 1971-73 के दौरान किया गया. आज अपनी ज़मीन से दूर लाकर रखे गए चैगोसियन समाज के क़रीब 8000 लोग घोर ग़रीबी और उपेक्षा की ज़िंदगी जी रहे हैं.

चैगोसियोनों की व्यथा पर प्रसिद्ध पत्रकार जॉन पिल्जर की बनाई डॉक्युमेंट्री 'स्टीलिंग ए नेशन' को पिछले साल कई अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं. इस डॉक्यूमेंट्री में दिखाया गया है ब्रितानी सरकार ने दिएगो गार्सिया को खाली कराने के लिए क्या-क्या हथकंडे अपनाए, कैसे-कैसे सफेद झूठों का सहारा लिया. उल्लेखनीय है कि पहले ब्रितानी अधिकारियों ने एक बार दावा किया था कि दिएगो गार्सिया पर कभी कोई मूल निवासी रहे ही नहीं थे, और वहाँ के लोग वास्तव में बगानों में काम करने के लिए मारीशस, सेशल्स और दक्षिण भारत से लाए गए बंधुआ मज़दूर हैं जिन्हें बेदखल करना पूरी तरह वैध है. लेकिन बाद में वैज्ञानिक परीक्षणों से यह साबित होने पर कि चैगोसियन कई पीढ़ियों से वहाँ रहते आए हैं, सरकार ने कभी इस दावे पर ज़ोर नहीं दिया.

चित्र: सुनामी को चकमा देने के बाद का दिएगो गार्सिया

चैगोसियनों के पक्ष में फ़ैसला सुनाते हुए पाँच साल पहले ब्रितानी हाइकोर्ट ने ब्रितानी सरकार की कार्रवाई को अवैध क़रार दिया था. लेकिन इसके जवाब में सरकार ने महारानी की तरफ़ से असाधारण आदेश निकलवा दिया कि चैगोसियनों को उनकी ज़मीन पर लौटने नहीं दिया जाएगा. इस तरह के आदेश पर संसद में बहस की भी गुंज़ाइश नहीं होती.

अब चैगोसियनों के प्रतिनिधि ओलिवर बैन्कोल्ट ने मामले को नए सिरे से ब्रितानी हाई कोर्ट में पेश किया है. उनका कहना है कि जब दिएगो गार्सिया में क़रीब 3500 अमरीकी सैनिक और ठेका कर्मचारी रह सकते हैं तो वहाँ के मूल निवासियों को क्यों नहीं जगह मिल सकती. उनकी करुण प्रार्थना है कि उन्हें दिएगो गार्सिया में नहीं तो कम-से-कम चैगोस द्वीप समूह के बाकी टापूओं पर तो रहने की इजाज़त दी जाए जैसा कि पाँच साल पहले तत्कालीन ब्रितानी विदेश मंत्री रॉबिन कुक ने आश्वासन दिया था. लेकिन ब्रिटेन सरकार और उसके अमरीकी आका को ये भी मंज़ूर नहीं. दुनिया की नज़रों से दूर चैगोसियन कुछ गैरसरकारी संस्थाओं और साहसी पत्रकारों के सहारे ही अपनी लड़ाई लड़े जा रहे हैं.

बुधवार, दिसंबर 07, 2005

तीसरा कौन?

अल-क़ायदा के शीर्ष नेतृत्व ने वर्षों बाद पहली बार खुल कर कहा है कि ओसामा बिल लादेन जीवित हैं. वरिष्ठ अल-क़ायदा नेता अयमन अल-ज़वाहिरी ने कहा कि ओसामा न सिर्फ जीवित हैं बल्कि वह पश्चिम के ख़िलाफ़ धर्मयुद्ध का नेतृत्व कर रहे हैं.

उल्लेखनीय है कि अमरीका सरकार ओसामा को अल-क़ायदा का मुखिया मानती है और अल-ज़वाहिरी को उनका डिप्टी या दाहिना हाथ. मतलब ओसामा और अल-ज़वाहिरी कुख्यात आतंकवादी संगठन में क्रमश: पहले और दूसरे नंबर के नेता हुए. अमरीका सरकार ऐसा कहती है और दुनिया भी इस बात को मानती है.

चित्र: ओसामा और अल-ज़वाहिरी

लेकिन मसला अल-क़ायदा नेतृत्व में तीसरे नंबर के नेता को लेकर है. अल-क़ायदा संगठन में ओसामा और अल-ज़वाहिरी के बाद कौन सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है?

इस सवाल के जवाब में अमरीका पिछले तीन वर्षों के दौरान तीन चरमपंथियों का नाम ले चुका है. तीन साल पहले पाकिस्तान में खालिद शेख़ मोहम्मद की गिरफ़्तारी हुई. अमरीका ने अपनी पीठ थपथपाई कि अल-क़ायदा का नंबर तीन उसके हाथ लग गया है और अब तो उससे मिली जानकारी के आधार पर संगठन को तहस-नहस कर दिया जाएगा. तीन साल बीत गए अल-क़ायदा की गतिविधियाँ बढ़ी ही हैं.

ख़ैर, बात हो रही है अल-क़ायदा के नंबर-थ्री की. इसी साल मई में पाकिस्तान में ही अबू फ़राज अल-लिब्बी नामक आतंकवादी की गिरफ़्तारी हुई. अमरीका ने पूरी दुनिया को बताया कि अल-क़ायदा नेतृत्व का नंबर तीन पकड़ा गया है. दुनिया ने लीबिया के इस आतंकवादी के ख़ूंखार चरित्र के बारे में अमरीकी ब्यौरे को मान भी लिया.

लेकिन नहीं, इसी सप्ताह अमरीकी अधिकारियों ने अल-क़ायदा के एक और तीसरे नंबर के नेता का नाम लिया है. पाकिस्तान में एक विवादास्पद हमले में मारे गए अबू हमज़ा राबिया को अल-क़ायदा लीडरशिप में नंबर तीन बताया गया है.

मतलब अमरीका की माने तो तीन साल के भीतर पाकिस्तान में सक्रिय उसके एजेंटों ने अल-क़ायदा के दो नंबर-थ्री आतंकवादियों को पकड़ा है ओर एक को मारा है.

ऐसे में सीआईए और एफ़बीआई के साहिबान एक ही बार क्यों नहीं बता देते कि अल-क़ायदा के नंबर तीन की पहेली है क्या? क्या अल-क़ायदा में तीसरे नंबर के अनेक नेता हैं? क्या तीसरे नंबर की जगह के लिए अल-क़ायदा ने कोई पैनल बना रखा है? क्या तीसरे नंबर के आतंकवादी के पकड़े जाने या मारे जाने पर ओसामा तुरंत चौथे नंबर वाले को प्रोमोशन दे देते हैं?

मंगलवार, दिसंबर 06, 2005

कहानी एक ग्लोबल टूथब्रश की

ग्लोबलाइज़ेशन या भूमंडलीकरण की बात होती है तो सबसे अच्छा उदाहरण होता है चीनी उत्पादों का. भारत में पिछले कुछ वर्षों से जो उदाहरण सबसे ज़्यादा पेश किया जाता रहा है वो यह कि कैसे होली के दौरान उत्तर भारत के कस्बाई बाज़ार चीन में बनी पिचकारियों से पटे पड़े होते हैं, जबकि चीन में होली जैसा कोई त्योहार है भी नहीं. लेकिन हम यहाँ चर्चा करते हैं एक टूथब्रश की.

जर्मनी की प्रतिष्ठित पत्रिका डेअर श्पीगल (द मिरर या दर्पण) ने ग्लोबलाइज़ेशन पर अपना विशेषांक निकाला है. इसने श्रम के विश्वव्यापी वितरण को उजागर करने के लिए एक 'ग्लोबल टूथब्रश' का उदाहरण लिया है.

नीदरलैंड्स की कंपनी फ़िलिप्स निर्मित इलेक्ट्रॉनिक टूथब्रशों में सबसे अच्छे माने जाते हैं सोनीकेयर इलीट सिरीज़ के टूथब्रश- मसलन इलीट 7000, इलीट 7300 और इलीट 7500. इलेक्ट्रॉनिक टूथब्रश के बाज़ार के 8 प्रतिशत हिस्से पर इनका क़ब्ज़ा है, यानि दो करोड़ लोग इनका इस्तेमाल कर रहे हैं.

फ़िलिप्स के सोनीकेयर इलीट टूथब्रश की औसत क़ीमत होती है क़रीब 160 डॉलर. ज़ाहिर है फ़िलिप्स को इसकी बिक्री से बढ़िया मुनाफ़ा होता है. मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए ज़रूरी है बिक्री बढ़ाना. और बिक्री बढ़ाने के लिए आकर्षक प्रचार के अतिरिक्त ज़रूरी होता है क़ीमत को नियंत्रित रखना. ऐसी स्थिति में सामने आता है ग्लोबलाइज़ेशन या भूमंडलीकरण. गुणवत्ता बनाए रखते हुए क़ीमत पर नियंत्रण की गुंज़ाइश हो तो फ़िलिप्स जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनी दुनिया के किसी भी कोने में अपने कारखाने लगा सकती है या फिर अपना काम आउटसोर्स कर सकती है.

सोनीकेयर इलीट टूथब्रश के निर्माण की प्रक्रिया में 10 देशों में 4,500 लोगों को रोज़गार मिला हुआ है. किसी सुपर मार्केट में पहुँचने से पहले लगभग 160 ग्राम वज़न वाला एक टूथब्रश टुकड़ों-टुकड़ों में 28,000 किलोमीटर की यात्रा कर चुका होता है, यानि धरती की परिधि का क़रीब दो तिहाई हिस्सा.

छोटे से सोनीकेयर इलीट टूथब्रश कुल 38 हिस्सों से मिलकर बनता है. आइए देखें कहाँ से क्या आता है, कहाँ क्या होता है-

चीन(शेनझ़ेन)- तांबे के तार
जापान(टोक्यो)- निकेल-कैडमियम सेल
फ़्रांस(रैम्बोइले)- सेल चार्जिंग वाले हिस्से
चीन(झुहाई)- सर्किट-बोर्ड का ख़ाका तैयार करने का काम
ताइवान(ताइपे के पास)- निकेल-कैडमियम सेल और सर्किट-बोर्ड के उपकरण
मलेशिया(कुआलालंपुर)- सर्किट-बोर्ड के हिस्से
फिलिपींस(मनीला)- सर्किट-बोर्ड पर लगे 49 ट्रांजिस्टर और रेज़िस्टर की जाँच
स्वीडन(सैंडविकेन)- टूथब्रश की बॉडी में इस्तेमाल विशेष स्टील
ऑस्ट्रिया(क्लागेनफ़ुर्ट)- विशेष स्टील को उपयुक्त आकार में काटने का काम और प्लास्टिक के हिस्सों का निर्माण
अमरीका(स्नोक़ाल्मी)- प्लास्टिक के हिस्सों को जोड़ने का काम
अमरीका(सिएटल)- पैकेजिंग का काम

ये तो हुई अभी की स्थिति. फ़िलिप्स को अच्छी तरह पता है कि उसके सोनीकेयर इलीट उत्पादों को ब्राउन के 3डी एक्सेल उत्पादों से प्रतियोगिता का सामना करना पड़ रहा है. उसकी नज़र 30 करोड़ उपभोक्ता वाले इलेक्ट्रॉनिक टूथब्रश बाज़ार के पाँच से दस वर्षों के भीतर तीन-गुना फैलने की भविष्यवाणी पर पहले से ही टिकी है. मतलब अपने टूथब्रश की क़ीमत नियंत्रित रखने और ज़्यादा से ज़्यादा ग्राहकों को पकड़ने के लिए डच बहुराष्ट्रीय कंपनी भूमंडलीकरण की प्रक्रिया को और गहराई से आत्मसात करने के लिए तैयार ही बैठी है, विवश है.

शनिवार, दिसंबर 03, 2005

P57 खाओ, भूख मिटाओ, मोटापा भगाओ

आज चर्चा सुर्खियों में मौजूद एक चमत्कारी औषधि की. कहते हैं P57 नामक यह औषधि भूख को शरीर पर कोई बुरा असर डाले बिना बहुत हद तक ख़त्म करने में सफल रहती है. ज़ाहिर है भुखमरी से जूझ रही दुनिया की एक बड़ी आबादी को तो इससे फ़ायदा होगा ही, ज़्यादा आरामदायक ज़िंदगी के कारण या फिर अनियमित जीवनचर्या के कारण मोटापे की बीमारी झेल रहे लोग भी इससे लाभांवित होंगे.

चित्र: हूदिया गोर्दोनी

ऐसा नहीं है कि P57 को पहली बार मीडिया में छाने का मौक़ा मिला है. दस वर्ष पहले इसका लाइसेंस ब्रिटेन की दवा कंपनी फ़ायटोफ़ार्म को मिलने के बाद से इसे न जाने कितनी बार मीडिया में सुर्खियाँ मिली है.

आश्चर्य की बात तो यह है कि अफ़्रीका के कालाहारी रेगिस्तान में खानाबदोश ज़िंदगी जीने वाली सान जनजाति को हज़ारों वर्षों से इस औषधि की जानकारी रही है. दरअसल इन्हें जब खाने के लिए कुछ नहीं मिलता तो ये हूदिया गोर्दोनी(hoodia gordonii) नामक कैकटस प्रजाति के पौधे को चबाते हैं. इस कँटीले पौधे के कड़वे रस की कुछ बूँदें उदर में गई नहीं कि भूख ग़ायब. बहुत कड़वा स्वाद होने के कारण वे भुखमरी की नौबत आने पर ही इसका सेवन करते हैं.

पहली बार दक्षिण अफ़्रीका के वैज्ञानिकों के एक दल ने जनजातियों द्वारा प्रयुक्त उपचारों पर केंद्रित एक अध्ययन के दौरान हूदिया गोर्दोनी में ऐसे रसायन पाए जिनकी जानकारी पहले से नहीं थी. वैज्ञानिकों ने भूख मिटाने के जादू की वज़ह रसायनों के इसी मिश्रण को माना और इसे नाम दिया गया P57.

दक्षिण अफ़्रीका की सरकारी अनुसंधान संस्था काउंसिल फ़ॉर साइंटिफ़िक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च(CSIR) ने इसका पेटेंट कराने में देर नहीं की, और बाद में ब्रिटेन के फ़ायटोफ़ार्म कंपनी ने P57 के व्यावसायिक उपयोग का एकमात्र लाइसेंस प्राप्त किया. इस सौदे के साथ ही एक अच्छी बात यह हुई कि सान जनजाति का प्रतिनिधित्व करने वाली एक संस्था के साथ भी क़रार किया गया. क़रार इस बात का कि P57 के व्यावसायिक उपयोग का लाइसेंस बाँटने से CSIR जो भी आय होगी उसका एक बड़ा हिस्सा सान जनजाति के हित में ख़र्च किया जाएगा. यह व्यवस्था इसलिए अत्यंत ज़रूरी थी कि आख़िर सान जनजाति की पारंपरिक जानकारी के आधार पर ही P57 का पता चला और इसके उपयोग के लिए हूदिया गोर्दोनी पौधे भी तो उन्हीं की पारिस्थितिकी से उखाड़े जाएँगे.

शुरुआती परीक्षणों में फॉयटोफ़ार्म ने पाया कि P57 के सेवन से शरीर को रोज़ाना की ख़ुराक में 1,000 कैलोरी कम की ज़रूरत रह जाती है. परीक्षण में शरीर पर इसका कोई नकारात्मक असर भी नहीं दिखा.

फ़ायटोफ़ार्म ने P57 उत्पादों के अपने एक्सक्लुसिव लाइसेंस के आधार पर फ़ाइजर कंपनी के साथ क़रार किया ताकि इसे गोलियों के रूप में उत्पादित किया जा सके. लेकिन ढाई करोड़ डॉलर और कई साल की मेहनत ख़र्च करने के बाद फ़ाइजर ने पाया कि P57 के जटिल रसायनों को कृत्रिम रूप से फ़ैक्ट्री में बनाना संभव नहीं है. ऐसे में पिछले साल उपभोक्ता बाज़ार की अगुआ कंपनी यूनीलीवर सामने आई. फ़ॉयटोफ़ार्म के साथ हुए क़रार के मुताबिक यूनीलीवर गोलियों के बजाय P57 का उत्पादन खाद्य-उत्पाद या खाद्य-मिश्रण के रूप में करेगी. ज़ाहिर है यूनीलीवर P57 से कड़वापन निकालने का कोई उपाय खोजने में लगी होगी.

यूनीलीवर का कहना है कि अभी P57 के प्रायोगिक परीक्षण शुरू करने की ही तैयारी हो रही है. मतलब इस उत्पाद के घरों में पहुँचने में कुछ साल लग सकते हैं. लेकिन इंटरनेट पर हूदिया गोर्दोनी और P57 के नाम पर बाज़ार खुला हुआ है, वो क्या बेच रहे हैं? इस सवाल के जवाब में यूनीलीवर के एक प्रवक्ता ने लंदन से प्रकाशित अख़बार गार्डियन को बताया कि ज़्यादातर मामलों में ऐसे किसी उत्पाद के नाम पर लोगों को बेवकूफ़ बनाया जा रहा है, लेकिन यदि किसी उत्पाद में सचमुच में P57 रसायन पाया गया तो यूनीलीवर उसकी निर्माता कंपनी को अदालत में घसीटेगी.

चित्र: सान जनजाति

मतलब सारा मामला मुनाफ़े का है. बहुराष्ट्रीय कंपनियों से और क्या उम्मीद की जा सकती है? सान जनजाति की भलाई और लुप्तप्राय कैकटस प्रजाति हूदिया गोर्दोनी के बगान लगाने के इनके दावे कितने सही होते हैं ये तो वर्षों बाद ही पता चलेगा!

शुक्रवार, दिसंबर 02, 2005

CNN और BBC World के बाद CFII

अंतत: फ़्रांसीसी राष्ट्रपति ज्याक़ शिराक का एक सपना पूरा हो रहा है. शिराक न जाने कितने मौक़े पर अपनी हसरत का इज़हार कर चुके हैं कि अमरीकी टेलीविज़न नेटवर्क सीएनएन और ब्रितानी बीबीसी वर्ल्ड की तरह फ़्रांस का भी अपना अंतरराष्ट्रीय न्यूज़ चैनल हो. लेकिन वित्तीय या अन्य कारणों से अब तक उनकी हसरत पूरी नहीं हो पाई थी. इराक़ पर हमले से पहले और इराक़ में लड़ाई के दौरान एंग्लो-अमेरिकी दुष्प्रचार को काउंटर करने के लिए उन्हें फ़्रांसीसी लोकतांत्रिक अवधारणा में भरोसा रखने वाले चैनल की ज़रूरत ख़ास तौर पर महसूस हुई थी.

तो भाइयों और बहनों हो जाइए तैयार, दुनिया को अनवरत समाचार देने वाले एक फ़्रांसीसी चैनल के लिए. नाम होगा- फ़्रेंच इंटरनेशनल न्यूज़ नेटवर्क या फ़्रांसीसी में कहें तो ला शेन फ़्रैंश्चे द'इन्फ़ॉर्मेशन इंतरनाशनेल या CFII.

फ़्रांसीसी संस्कृति मंत्री आरडी द'वैबरे ने कहा है कि सीएफ़आईआई साल भर के भीतर आपके घरों में होगा. उन्होंने कहा कि सीएफ़आईआई के ज़रिए फ़्रांस अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम को मुक्त, आधुनिक और बहुपक्षीय रूप में प्रस्तुत कर सकेगा. द'वैबरे ने कहा कि सीएफ़आईआई की प्रस्तुतियों में फ़्रांसीसी मूल्यों का ख्याल रखा जाएगा. उन्होंने कहा, "कौन ऐसा होगा जिसने लोकतांत्रिक मूल्यों से सराबोर समाचार के फ़्रांसीसी विचार की रक्षा करने की ज़रूरत नहीं महसूस की हो?"

सीएफ़आईआई सरकार यानि जनता के पैसे से चलेगा. हालाँकि इसके प्रबंधन में सरकारी फ़्रांस टेलीविजन्स और निजी क्षेत्र के सबसे लोकप्रिय फ़्रेंच चैनल टीएफ़1 की बराबर की भागीदारी होगी. दोनों चैनलों के बीच छत्तीस का आँकड़ा रहा है, सो ये देखने वाली बात होगी कि उनका सहयोग कैसा रहता है.

फ़्रांसीसी सरकार ने CFII पर इस साल 1.5 करोड़ यूरो, वर्ष 2006 में 6.5 करोड़ यूरो और उसके बाद हर वर्ष सात करोड़ यूरो ख़र्च करने का मन बनाया है. शुरू में यह यूरोप, मध्य-पूर्व और अफ़्रीका के लिए कार्यक्रमों का प्रसारण करेगा. आरंभ में चार घंटे के अंगरेज़ी स्लॉट को छोड़ कर बाकी कार्यक्रम फ़्रेंच में होंगे. बाद में स्पेनिश और अरबी भाषाओं में कार्यक्रम प्रस्तुत किए जाएँगे.

राष्ट्रपति शिराक का कहना है कि फ़्रांस को छवि की अंतरराष्ट्रीय लड़ाई में अगली पंक्ति में रहना ज़रूरी है. फ़्रांस के हाल के दंगों से दुनिया भर में बिगड़ी फ़्रेंच छवि के लिहाज़ से शिराक का कथन और भी सही लगने लगा है. लेकिन क्या उनकी बात भारत पर भी नहीं लागू होती?

बुधवार, नवंबर 30, 2005

प्रेम से बोलिए एस्पेरांतो

पहली बार कुछ साल पहले सुना था एस्पेरांतो का नाम. अब इस सप्ताह एक नामी अख़बार में भूली-बिसरी ख़बरों के कॉलम में इसके बारे में दोबारा पढ़ा तो सोचा क्यों न इसके बारे में जानकारी जुटाई जाए.

जिन्होंने पहली बार इस इस शब्द एस्पेरांतो(esperanto) के बारे में सुना है, उन्हें पहले बता दें कि ये एक भाषा का नाम है. एक कृत्रिम भाषा यानि कन्सट्रक्टेड लैंग्वेज. एक अनुमान के अनुसार इस समय सौ से ज़्यादा देशों में 16 लाख लोग ढंग से एस्पेरांतो पढ़-लिख-बोल लेते हैं. गूगल में यह शब्द डालें तो क़रीब साढ़े पाँच करोड़ पेज सामने आते हैं.

एस्पेरांतो पोलैंड के एक नेत्र विशेषज्ञ और भाषा विज्ञानी डॉ. लुडविक लाज़ारुस ज़ैमनहॉफ़ की एक दशक के परिश्रम का परिणाम है. उन्होंने एक सार्वभौम उपभाषा या यूनीवर्सल सेकेंड लैंग्वेज के रूप में इसे 1887 में दुनिया के समक्ष पेश किया. वह स्वनिर्मित भाषा को बढ़ाने के लिए डॉ. एस्पेरांतो या डॉ. आशावादी नाम से लेख लिखा करते थे. और इसी से उनकी बनाई अंतरराष्ट्रीय भाषा को नाम मिला. ज़ैमनहॉफ़ ख़ुद नौ भाषाओं के जानकार थे और उनका मानना था कि अगर दुनिया के हर कोने के लोगों की दूसरी भाषा एक ही हो तो इससे शांति और सदभाव को बढ़ावा मिलेगा, और अंतरराष्ट्रीय सहयोग आसान बन सकेगा.

ज़ैमनहॉफ़ ने पश्चिमी यूरोप और अफ़्रीका की कुछ भाषाओं को आधार बनाकर एस्पेरांतो का विकास किया. उनका मुख्य उद्देश्य था इसे सीखने और उपयोग में ज़्यादा से ज़्यादा आसान बनाना. एस्पेरांतो 23 व्यंजन और 5 स्वर वर्णों से बना है. यह हिंदी की तरह ही एक फ़ोनेटिक भाषा है यानि इसमें जो लिखा हुआ है वही बोला जाता है. इसके अतिरिक्त एस्पेरांतो में क्रिया के विभिन्न रूपों और स्त्रीलिंग-पुल्लिंग का भी झमेला नहीं है.

ज़ैमनहॉफ़ का प्रयास शुरू में तो रंग लाते दिखा जब रूस और पूर्वी यूरोप के अन्य देशों में इसे अपनाने का रुझान दिखा. बीसवीं सदी के पहले दशक में पश्चिमी यूरोप के कुछ देशों और अमरीका में भी लोगों ने एस्पेरांतो में दिलचस्पी दिखाई. बाद में चीन और जापान में इसे जानने-समझने वालों की संख्या बढ़ी. लेकिन ज़ैमनहॉफ़ की यूनीवर्सल सेकेंड लैंग्वेज की कल्पना सच्चाई में तब्दील नहीं हो पाई.

एक सार्वभौम द्वितीय भाषा का काम अब तक अंगरेज़ी नहीं कर पाई है तो एस्पेरांतो से कितनी उम्मीद रखी जा सकती है, यह स्पष्ट है. लेकिन सौ से ज़्यादा देशों में इसके चाहने वालों का लाखों की संख्या में मौजूदा होना भी कोई मामूली उपलब्धि नहीं है. चीन, हंगरी और बुल्गारिया में कई स्कूलों में इसे पढ़ाया जाता है. जापान के ऊममोत संप्रदाय के अलावा बहाई संप्रदाय में भी एस्पेरांतो को बढ़ावा दिया जाता है. इस भाषा में हज़ारों किताबें उपलब्ध हैं, और सौ से ऊपर पत्रिकाएँ छपती हैं. एस्पेरांतो के प्रशंसकों की इंटरनेट पर भारी मौजूदगी है.

उल्लेखनीय है कि इतनी लोकप्रियता के बावजूद एस्पेरांतो को किसी भी देश में आधिकारिक भाषा का दर्जा प्राप्त नहीं है. लेकिन सैंकड़ों राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संस्थाएँ एस्पेरांतो को बढ़ावा देने के लिए हर स्तर पर काम कर रही हैं. एस्पेरांतो अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में हर साल दुनिया भर के हज़ारों भाषा प्रेमी भाग लेते हैं. वर्ष 2006 का एस्पेरांतो वर्ल्ड कांग्रेस इटली के फ़्लोरेंस में आयोजित किया जाएगा. और तो और लगातार दो वर्ष 1999 और 2000 में स्कॉटलैंड के एस्पेरांतो कवि विलियम ऑल्ड को साहित्य के नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित किया जा चुका है.

यह बात भी ग़ौर करने की है कि यूनीवर्सल एस्पेरांतो एसोसिएशन का संयुक्त राष्ट्र की यूनेस्को और यूनीसेफ़ जैसी महत्वपूर्ण संस्थाओं के साथ औपचारिक रिश्ता है.

वैज्ञानिकों की राय की बात करें तो कहते हैं एस्पेरांतो को 'स्प्रिंगबोर्ड टू लैंग्वेजेज़' के रूप में इस्तेमाल करना अच्छी बात है. मतलब एक छोटे बच्चे को किसी और भाषा से पहले एस्पेरांतो सिखाई जाए तो वह बाकी भाषाएँ कहीं ज़्यादा आसानी से सीख सकेगा.

<<<एस्पेरांतो का अनुभव पाने के लिए इस पंक्ति को क्लिक करें>>>

गुरुवार, नवंबर 24, 2005

रेल हो तो ऐसी!

देखिए इन तस्वीरों को. आज ही खींची है जर्मनी में फ़्रांकफ़ुर्ट के पास रेल यात्रा के दौरान. यूरोप में बहुत रेल यात्राएँ करने का मौक़ा मिला है लेकिन ब्लॉग जगत में सक्रिय होने के बाद पहली बार कोई लंबी रेल यात्रा कर रहा था तो सोचा कि क्यों न कुछ तस्वीरें खींची जाए. इन तस्वीरों को देख कर यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं कि दुनिया के सबसे बड़े रेल नेटवर्क को यानि भारतीय रेल को अभी शताब्दी एक्सप्रेस और राजधानी एक्सप्रेस से कहीं आगे का सफ़र तय करना है.





ये चारों तस्वीरें जर्मनी की प्रसिद्ध इंटरसिटी एक्सप्रेस में से एक की हैं. इन ट्रेनों को जर्मनी में ICE नाम से जाना जाता है. पहली आईसीई ट्रेन 1991 में जनता की सेवा में आई थी और ऐसी 150 से ज़्यादा ट्रेनें आज औसत 270 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से जर्मनी के कोने-कोने में जाती हैं. तीसरी पीढ़ी की आईसीई ट्रेनों को सिद्धांतत: 330 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से दौड़ाने की इजाज़त है. मैं म्यूनिख़-डोर्टमुंड रूट पर ट्रेन संख्या ICE 612 पर यात्रा कर रहा था. हमारी ट्रेन कभी-कभी ही 250 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से नीचे आती थी वो भी स्टॉप के क़रीब आने पर रूकने की तैयारी में.

जैसा कि आप तस्वीर में पाएँगे आईसीई का सेकेंड क्लास भी आपको फ़र्स्ट क्लास में होने की ग़लतफ़हमी में डाल सकता है. चाहे लेग-रूम की बात हो, सुविधाओं की बात हो या फिर बात हो साज-सज्जा की.

आईसीई ट्रेनों को प्रमुख शहरों के बीच विशेष रूप से तैयार ट्रैक पर पूरी स्पीड से दौड़ाया जाता है. हालाँकि आम ट्रैकों पर भी इन्हें 200 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से चलाया जाता है. जर्मनी से ऑस्ट्रिया, स्विटज़रलैंड और इटली तक की यात्राओं में भी इन ट्रेनों की सेवाएँ ली जा सकती हैं.

जहाँ तक सुरक्षा की बात है तो पिछले पंद्रह साल में मात्र एक दुर्घटना आईसीई ट्रेनों के नाम है. इस दृष्टि से यह फ़्रांस की TGV ट्रेनों से पिछड़ जाती हैं क्योंकि पिछले दो दशकों के दौरान टीजीवी(Train à Grande Vitesse या High Speed Train) ट्रेनें किसी बड़ी दुर्घटना का शिकार नहीं बनी हैं. उल्लेखनीय है कि विशेष पटरियों की व्यवस्था के कारण आईसीई और टीजीवी जैसी ट्रेनों की गति पर ख़राब मौसम यानि कोहरा, हिमपात, बारिश आदि का कोई असर नहीं पड़ता है.

बाकी मामलों में तुलना करें तो ICE और TGV दोनों ही अमूमन अधिकतम 300 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से पटरियों को नापती हैं. लेकिन प्रायोगिक परिस्थितियों में जहाँ आईसीई 400 का आँकड़ा पार कर एक समय दुनिया की सबसे तेज़ ट्रेन घोषित हुई थी, वहीं टीजीवी 515 की गिनती गिन कर आज भी सिद्धांतत: दुनिया की सबसे तेज़ ट्रेन बनी हुई है. ( हालाँकि परीक्षण अवस्था की बात न करते हुए दिन-प्रतिदिन की सेवा में रफ़्तार की बात करें तो यूरोप की ट्रेनों को कहीं पीछे छोड़ती हैं 350 का आँकड़ा छूने वाली जापान की बुलेट ट्रेन और शंघाई के एक छोटे-से रूट पर क़रीब 450 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से पटरी छोड़ कर दौड़ने वाली मैगलेव ट्रेन.)

अपने अनुभव से मैं कह सकता हूँ कि सुविधा और आराम के मामले में आईसीई निश्चय ही टीजीवी से आगे है, और इसे यूरोप की बेहतरीन ट्रेन कहा जा सकता है.

लेकिन यूरोप की रेल यात्राओं में मुझे मिलान-ज़्यूरिख़ रूट पर चार महीने पहले की गई यात्रा की याद सबसे ज़्यादा रोमांचित करती है. दरअसल मैं पहली बार किसी टिल्टिंग ट्रेन की सवारी कर रहा था, हालाँकि यूरोप के कुछ रूट पर ऐसी ट्रेनें पिछले छह-सात साल से चल रही हैं. स्विटज़रलैंड की नैसर्गिक ख़ूबसूरती को निहारते हुए टिल्टिंग ट्रेन की सवारी करने के अनुभव को तो अदभुत कहा ही जा सकता है. इन अत्याधुनिक ट्रेनों के बारे में फिर कभी चर्चा होगी.

अपने अनुभव के आधार पर ही चलते-चलते ये भी बताता चलूँ कि ब्रिटेन की रेल-व्यवस्था बाकी यूरोप से बहुत-बहुत पीछे है,...यों कहें कि भारत से थोड़ा ही आगे!

शुक्रवार, नवंबर 18, 2005

इंटरनेट पर अमरीकी निगरानी

कुछ महीनों से अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के विभिन्न मोर्चों पर झटके खाती अमरीकी सरकार को इस सप्ताह एक महत्वपूर्ण सफलता मिली है. दरअसल अमरीकी सरकार इंटरनेट पर अपने परोक्ष नियंत्रण पर विश्व समुदाय की मुहर लगवाने में सफल रही है.

कई महीनों से इस बात की आशंका जताई जा रही थी कि ट्यूनीशिया में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा आयोजित सूचना समाज विश्व शिखर सम्मेलन(WSIS) में सिर्फ़ एक ही मुद्दा हावी रहेगा कि इंटरनेट को अमरीका की निगरानी में छोड़ दिया जाए या फिर उस पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय की निगरानी रहे. विभिन्न देशों, ख़ास कर चीन और यूरोपीय संघ ने दो साल पहले WSIS के जिनीवा सम्मेलन के बाद से ही इंटरनेट को अमरीका के पहलू से दूर ले जाने के प्रयास शुरू कर दिए थे.

इंटरनेट के विकास में अमरीका की भूमिका से कोई इनकार नहीं करता, लेकिन कई देश ये मानने को तैयार नहीं कि सिर्फ़ इस कारण उस पर परोक्ष ही सही, लेकिन मात्र अमरीका का नियंत्रण हो. दरअसल कैलीफ़ोर्निया स्थित अलाभकारी संगठन इंटरनेट कॉर्पोरेशन फ़ॉर असाइन्ड नेम्स एंड नंबर्स(Icann) यानी आइकैन को इंटरनेट के डोमेन नेम प्रबंधन की ज़िम्मेवारी मिली हुई है. आइकैन के पास अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्यापक नियामक अधिकार होने के कारण इसे किसी न किसी सरकार के प्रति जवाबदेह होना ही था. ऐसे में 1998 में आइकैन के गठन के समय ही अमरीका सरकार ने इसे अमरीकी वाणिज्य विभाग के प्रति जवाबदेह बना दिया.

बात इतने तक ही सीमित रहती तब तो कोई विवाद ही नहीं होता क्योंकि हाल तक आइकैन ख़ुद को अमरीकी सरकार या उसकी नीतियों से दूर रखने में सफल रहा था और इसके के प्रबंधन बोर्ड में चार विदेशी निदेशकों की व्यवस्था से दुनिया आश्वस्त थी. लेकिन आइकैन के अमरीका सरकार के प्रभाव में आ जाने की आशंका ने तब ज़ोर पकड़ी जब अमरीकी वाणिज्य विभाग ने आइकैन को लिखा कि वो पोर्नोग्राफ़िक वेबसाइटों के लिए विशेष .xxx डोमेन की अपनी योजना पर पुनर्विचार करे. वाणिज्य विभाग ने रूढ़ीवादी ईसाई गुटों की शिकायत पर यह पहल की थी. और ये किसे नहीं पता कि बुश प्रशासन और रूढ़ीवादी ईसाई गुटों के बीच कितने प्रगाढ़ आत्मीय संबंध हैं. तो आकाओं के आँखें तरेरते ही आइकैन ने अपनी .xxx योजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया, भले ही उसका दावा है कि पहले से ही इस योजना से किनारा किए जाने पर विचार चल रहा था.

निश्चय ही .xxx डोमेन नेम विवाद ने आइकैन पर अमरीकी प्रभुत्व का विरोध करने वालों को एक ठोस आधार दे दिया. इनका कहना है कि अगले साल जब आइकैन अपने 'लाइसेंस' की अवधि समाप्त होने के बाद अमरीकी सरकार के साथ भावी तौर-तरीकों पर बातचीत शुरू करेगा तो बुश प्रशासन अपनी मर्ज़ी घुसेड़ने का कोई भी मौक़ा शायद ही छोड़ेगा.

दूसरी ओर अमरीका सरकार का दावा है कि वो आइकैन के कामकाज़ को प्रभावित करने की कोशिश नहीं करती. आइकैन का भी यही कहना है. न्यू साइंटिस्ट के 12 नवंबर 2005 अंक में एक विशेष लेख में आइकैन के प्रमुख पॉल ट्वोमी कहते हैं, "आइकैन सहयोग और भागीदारी के मौजूदा इंटरनेट मॉडल पर काम करता है. यह ग्लोबल इंटरनेट समुदाय के सभी सदस्यों को इसके विकास में और ज़्यादा भागीदारी करने के लिए प्रोत्साहित करता है. यह व्यवस्था बहुत अच्छे तरीके से काम कर रही है. लेकिन ये मल्टी-स्टेकहोल्डर तरीका कई सरकारों के लिए अब भी अजूबा है. कम से कम इन सरकारों के कूटनीतिक प्रतिनिधियों के बारे में तो ऐसा कहा ही जा सकता है. वो इसे समझने में नाकाम रहे हैं इसका उदाहरण उनके इस बात की रट लगाने से ज़ाहिर हो जाता है कि 'आइकैन को इंटरनेट चलाने देना नहीं चाहिए.' जबकि आइकैन ऐसा कोई काम कर ही नहीं रहा है. न ही आइकैन अमरीकी हितों का प्रतिनिधित्व करता है, जैसाकि आरोप लगाया जाता रहा है."

ट्वोमी आगे लिखते हैं, "आइकैन का अमरीकी वाणिज्य विभाग के साथ क़रार है जो कि इसके काम का ऑडिट करता है. लेकिन वाणिज्य विभाग ने कभी आइकैन के कामकाज़ में दखल देने की कोशिश नहीं की है."

अब ये सवाल उठता है कि जब आइकैन इंटरनेट नहीं चला रहा तो कर क्या रहा है? जवाब इसके प्रमुख पॉल ट्वोमी इन शब्दों में देते हैं- "यदि इंटरनेट की कल्पना एक डाक व्यवस्था के रूप में करें तो आइकैन समुदाय यह सुनिश्चित करता है कि लिफ़ाफ़े पर लिखे पते काम करें. यह इस बात में दखल नहीं देता कि लिफ़ाफ़े में है क्या, या फिर लिफ़ाफ़ा किसे सौंपा जाए या फ़िर चिट्ठी कौन पढ़े. आइकैन के गंभीर काम का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि यह इस बात को सुनिश्चित करता है कि परस्पर जुड़े क़रीब 250,000 निजी नेटवर्क करोड़ों उपयोगकर्ताओं को एकल इंटरनेट के रूप में दिखें."

ट्वोमी चार बातों पर ज़ोर देते हैं- 1. आइकैन की अगुआई में इंटरनेट व्यवस्था भलीभाँति काम कर रही है, 2. हमें इंटरनेट में स्थायित्व, भरोसे व सुरक्षा पर ध्यान देना चाहिए, 3. इंटरनेट को दिन-प्रतिदिन की राजनीति से दूर रखा जाना चाहिए, 4. सरकारों को इस तथ्य को स्वीकार करना चाहिए कि इंटरनेट से जुड़े तकनीकी सहयोग में इस बात की कोई जगह नहीं है कि विश्वव्यापी वेब पर किस तरह की सामग्री प्रसारित होती है.

ये तो हुआ आइकैन प्रमुख का तर्क, लेकिन सवाल उठता है कि इसके विरोध में खड़ी सरकारों ने आख़िर क्यों मौजूदा व्यवस्था को जारी रहने देने की हामी भरी. दरअसल, इंटरनेट प्रबंधन के मुद्दे पर अमरीका और उसके ख़िलाफ़ खड़े देशों के बीच जिस दस्तावेज़ पर सहमति हुई है उसमें संयुक्त राष्ट्र के तत्वाधान में एक अंतरराष्ट्रीय फ़ोरम के गठन की बात है. ये फ़ोरम इंटरनेट प्रबंधन से जुड़े विषयों पर विचार करेगा. आइकैन की मौजूदा व्यवस्था के विरोधी देश दस्तावेज़ में ऐसे वाक्य डलवाने में क़ामयाब रहे जो कि पहली बार इंटरनेट प्रबंधन में सभी राष्ट्रों की बराबर की भूमिका और ज़िम्मेदारी की बात करता है. इसमें स्थायित्व, सुरक्षा और निरंतरता बनाए रखने में भी सभी राष्ट्रों की समान जवाबदेही की भी बात है.

अंतरराष्ट्रीय समुदाय को भरोसा है कि भले ही अमरीका एक बार फिर इंटरनेट पर अपना परोक्ष नियंत्रण बनाए रखने में सफल रहा हो लेकिन 16 नवंबर 2005 को WSIS के ट्यूनिश सम्मेलन के औपचारिक उदघाटन से कुछ घंटे पूर्व जिस दस्तावेज़ पर सहमति बनी वो आगे चल कर यह सुनिश्चत करेगा कि भविष्य में 'इंटरनेट एड्रेसिंग एंड ट्रैफ़िक डायरेक्शन सिस्टम' के विकास में अमरीका के अलावा अन्य राष्ट्रों को भी शामिल होने का मौक़ा मिल सके.

बुधवार, नवंबर 16, 2005

पॉज़िटिव से निगेटिव बनने का मामला

समझ में नहीं आने वाला यह चित्र किसी समकालीन पेंटर का बनाया मॉडर्न आर्ट हो सकता है. लेकिन नहीं, ये तो हाल के वर्षों में मानव जाति के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन कर उभरे वायरस एचआईवी का चित्रण है. एचआईवी यानि जानलेवा बीमारी एड्स का जनक.


...और ये हैं एंड्रयू स्टिम्पसन. लंदन में रहते हैं. उम्र है 25 साल. जनाब पिछले सप्ताह पश्चिमी समाचार जगत में छाए रहे. इनकी उपलब्धि है बिना किसी इलाज के एचआईवी पॉज़िटिव से एचआईवी निगेटिव बन जाना.

एक अनुमान के अनुसार इस वक़्त दुनिया भर में साढ़े तीन करोड़ से ज़्यादा लोग एचआईवी संक्रमित यानि एचआईवी पॉज़िटिव हैं. और स्टिम्पसन का मामला एकमात्र मामला है जिसमें किसी व्यक्ति ने एचआईवी को हराया हो. जड़ी-बूटियों से एचआईवी का सामना करने की ख़बरे दुनिया भर से आती रहती हैं, लेकिन उनका कोई रिकॉर्ड नहीं होता जिससे पता चले कि दावे में कितना दम है. दूसरी ओर स्टिम्पसन का मामला लंदन के एक अस्पताल में होने के कारण पूरे रिकॉर्ड के साथ उपलब्ध है.

एंड्रयू स्टिम्पसन अगस्त 2002 का वो दिन कभी नहीं भूलते जब लंदन के एक अस्पताल ने उन्हें एचआईवी-ग्रसित होने की ख़बर दी. लेकिन डॉक्टरों ने स्टिम्पसन के शरीर पर एचआईवी के किसी नकारात्मक असर को नहीं पाया तो साल भर बाद अक्टूबर 2003 में उनकी फिर से जाँच की गई. और इसमें स्टिम्पसन को एचआईवी निगेटिव पाया गया, मतलब ख़तरनाक वायरस उनके शरीर से ग़ायब हो चुका थे.

स्टिम्पसन ने एचआईवी पॉज़िटिव ठहराने वाले अस्पताल पर मुआवज़े का दावा ठोक दिया. अपने पॉज़िटिव से निगेटिव तक के सफ़र पर सवाल उठाते हुए उन्होंने आशंका जताई कि शायद अस्पताल ने ग़लत रिपोर्ट देते हुए उन्हें एचआईवी ग्रसित क़रार दिया होगा. लेकिन अस्पताल विक्टोरिया क्लिनिक फ़ॉर सेक्सुअल हेल्थ ने उनके दावे को ठुकराते हुए अपने टेस्ट को हर तरह से सही बताया.

ख़ैर, इसी क़ानूनी खेल के कारण ये मामला मीडिया की पकड़ में आया वरना ऐसे मामलों में रोगी को शत-प्रतिशत गोपनीयता की गारंटी होती है. और अब जब मामला दुनिया के सामने है, एचआईवी-एड्स पीड़ितों के लिए काम करने वाले संगठन और ख़ुद ब्रितानी सरकार भी चाहती है कि स्टिम्पसन अपने ऊपर अध्ययन किए जाने की अनुमित दें ताकि इस बात का खुलासा हो सके कि आख़िर कैसे उनके शरीर ने एचआईवी को निकाल बाहर किया. डॉक्टरों का कहना है कि वायरस एचआईवी की चाल-ढाल और उससे लड़ने की मानव शरीर की प्रक्रिया को अब भी पूरी तरह नहीं समझा जा सका है, ऐसे में स्टिम्पसन का शरीर संभव है कोई नई और क्रांतिकारी जानकारी दे दे.

लेकिन स्टिम्पसन भाई साहब अड़ गए हैं कि नहीं, अब कोई टेस्ट नहीं. उनका कहना है कि वो पहले ही पॉज़िटिव-निगेटिव के खेल में अपना चैन गँवा चुके हैं. स्टिम्पसन का दावा है कि उन्होंने भोजन में पौष्टिक आहार की मात्रा बढ़ाने और कुछ अतिरिक्त विटामिन लेने के अलावा इलाज के नाम पर कुछ नहीं किया है. मतलब उन्होंने एचआईवी रोगियों को दी जाने वाली कोई एंटीरेट्रोवाइरल दवाई नहीं ली.

कई मेडिकल जर्नल में स्टिम्पसन के मामले को संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है, जैसा कि ख़ुद स्टिम्पसन भी देखते हैं. इन संदेहियों को लगता है चूक उन्हें पॉज़िटिव ठहराने वाले अस्पताल से हुई होगी. लेकिन अस्पताल है कि सारे टेस्ट को सौ फ़ीसदी सही ठहरा रहा है. क्या पता, लाखों पाउंड का मुआवज़ा चुकाने के डर से अस्पताल ऐसा कर रहा हो.

विशेषज्ञों के अनुसार जाँच में गड़बड़ी आमतौर पर होती नहीं है. हालाँकि एचआईवी की पड़ताल का मूल सिद्धांत ही थोड़ा अटपटा होता है. किसी व्यक्ति को उसके शरीर में एचआईवी से लड़ने वाले तत्वों या एंटीबॉडी की उपस्थिति के आधार एचआईवी पॉज़िटिव बताया जाता है. मतलब ख़ून के नमूने में एचआईवी को नहीं, बल्कि उससे लड़ने वाली ख़ास एंटीबॉडी को ढूंढा जाता है. वो ख़ास एंटीबॉडी उपस्थित है तो व्यक्ति एचआईवी ग्रसित हुआ, नहीं है तो टेस्ट निगेटिव माना जाएगा.

क्या पता स्टिम्पसन के शरीर में वो विशेष एंटीबॉडी किसी अन्य कारण से हो, या क्या पता कि अस्पताल में उनके ख़ून के नमूने की फेरबदल हो गई हो. क्या पता?

शनिवार, नवंबर 12, 2005

साढ़े-सात-सितारा होटल

बात जब आलीशान होटलों की आती है तो सबसे पहले दिमाग़ में कौंधते हैं फ़ाइव-स्टार या पाँच-सितारा होटल. हालाँकि पिछले कुछ वर्षों में कई होटल छह-सितारा होने के दावे के साथ सामने आए हैं. इतना ही नहीं, दो होटलों की दावेदारी सात-सितारा होने की है.

चित्र: बुर्ज अल अरब होटल
लेकिन चर्चा एक ऐसे होटल की हो रही है जिसकी अभी योजना भर ही बनी है, लेकिन अभी से उसके साढ़े-सात-सितारा होने के दावे किए जा रहे हैं.

यहाँ इस बात का ज़िक्र करना उचित होगा कि होटलों की स्टार रेटिंग कोई सर्वमान्य व्यवस्था नहीं है, क्योंकि इसके लिए कोई अंतरराष्ट्रीय संस्था नहीं है. दरअसल विभिन्न देशों में वहाँ की सरकार या फिर किसी एक संगठन की यह ज़िम्मेवारी होती है कि वो सुविधाओं, सेवाओं और रेट के हिसाब से किसी होटल को स्टार या सितारा आवंटित करे. मतलब किसी एक शहर में एक तीन-सितारा और एक चार-सितारा होटल की तुलना की जाए तो आमतौर पर चार-सितारा होटल हर तरह से बेहतर होगा.(हालाँकि लोकेशन या आसपास के माहौल के हिसाब से कई बार एक तीन-सितारा होटल भी किसी पाँच-सितारा होटल से बेहतर स्थिति में मिल सकता है.)

सामान्य तौर पर वन-स्टार होटल में आप साफ़-सुथरे कमरे की अपेक्षा कर सकते हैं. टू-स्टार में कुछ कमरे अटैच्ड बाथ के साथ हो सकते हैं, संभव है होटल परिसर में नाश्ते की भी व्यवस्था हो. थ्री-स्टार में सारे कमरे अटैच्ड बाथ के साथ मिलेंगे, होटल की अपनी रसोई होगी और इस कारण लंच-डिनर की व्यवस्था, साथ ही चौबीसों घंटे कार्यरत रिसेप्शन भी होगा ताकि देर-सबेर लौटने में आपको कोई असुविधा नहीं हो. फ़ोर-स्टार होटल में इन सुविधाओं के अलावा चौबीसों घंटे रूम-सर्विस की भी गारंटी पा सकते हैं, कमरे में मिनी-बार भी होगा, और होटल की लॉबी का आकार अपेक्षाकृत बड़ा होगा. और आगे चलें तो फ़ाइव-स्टार होटल में आपको ज़्यादा बड़े और सजे-सँवरे कमरे मिलेंगे, आधुनिक संचार सुविधाएँ होंगी, कांफ़्रेंस रूम होंगे, स्विमिंग पूल होगा और एक से ज़्यादा रेस्तराँ भी मिल सकते हैं.

फ़ाइव-स्टार से ऊँचे दर्ज़े के होटलों का चलन हाल के वर्षों में ही शुरू हुआ है और आमतौर पर नामी होटल कंपनियाँ ख़ुद से अपने किसी होटल को बढ़ी सुविधाओं के आधार पर सिक्स-स्टार बताया करती हैं. आपको आश्चर्य नहीं होना चाहिए जब किसी ट्रैवल गाइड में आप किसी कथित सिक्स-स्टार होटल को फ़ाइव-स्टार के रूप में अंकित पाएँ. माना जाता है कि स्वघोषित सिक्स-स्टार होटलों में आपका अपना यानि पर्सनल बटलर होगा, पर्सनल पूल होगा और संभव है आपका अपना छोटा-सा जिम भी हो.

चित्र: एमीरैट्स पैलेस होटल
जहाँ एक ओर ट्रैवल इंडस्ट्री कुछ होटलों के सिक्स-स्टार स्टेटस को ही पचा नहीं पा रही हैं, वहीं दो होटलों ने ख़ुद को सेवन-स्टार बता रखा है. दोनों खाड़ी के देशों में हैं. पहला है दुबई स्थित नाव के पाल के आकार का बुर्ज अल अरब होटल, जबकि दूसरा है इसी साल अबू धाबी में खुला महलनुमा एमीरैट्स पैलेस होटल. एक कृत्रिम टापू पर बने बुर्ज अल अरब होटल की बनावट और तड़क-भड़क ऐसी है कि रहना तो दूर मात्र टूर करने के लिए 55 डॉलर वसूले जाते हैं. दूसरी ओर एमीरैट्स पैलेस की चकाचौंध की बात करें तो यहाँ हर गेस्ट को चार-चार पर्सनल स्टॉफ़ दिए जाते हैं और इसके बीस अलग-अलग रेस्तराँ तक आने-जाने के लिए बस सेवा चलाई जाती है. इन दोनों होटलों के किसी कमरे में एक रात बिताने के लिए कम से कम 1,000 डॉलर तो ज़रूर ही ख़र्च करने पड़ेंगे.

लेकिन बात तो शुरू हुई थी साढ़े-सात-सितारा होटल की. तो जनाब, ये होटल बनेगा दुनिया के सबसे ख़तरनाक शहर में. जी, सही सोचा आपने- इराक़ की राजधानी बग़दाद में बनेगा ये होटल. पता नहीं क्या नाम दिया जाएगा इसे. बग़दाद के क़िलेबंद इलाक़े ग्रीन ज़ोन में बनेगा कथित साढ़े-सात-सितारा होटल. सुरक्षा कारणों से अमरीकी सेना कुछ प्राइवेट निवेशकों की इस साढ़े-सात-सितारा होटल की योजना के बारे में संपूर्ण जानकारी बाहर आने नहीं दे रही. हालाँकि इराक़ी निवेश आयोग ने इतना ज़रूर बताया है कि ग्रीन ज़ोन में 23 मंज़िला होटल के निर्माण पर 80 करोड़ डॉलर का ख़र्च आएगा. पता नहीं इसमें क्या-क्या सुविधाएँ होंगी.(कहीं सात से आधा सितारा ज़्यादा करने के चक्कर में हर मंज़िल पर स्विमिंग पूल न बना दें भाई लोग!...और बग़दाद एयरपोर्ट से ग्रीन ज़ोन का रास्ता दुनिया की सबसे ख़तरनाक राह के रूप में बदनाम है तो शायद अमरीका और अन्य पश्चिमी देशों के ठेकेदारों को होटल तक पहुँचाने के लिए कोई हेलीकॉप्टर सेवा भी चलाई जाए!!)

चित्र: नक्शे पर ग्रीन ज़ोन


बात ग्रीन ज़ोन की करें तो, इसे 'बग़दाद में अमरीका' के रूप में जाना जाता है. इसे इंटरनेशनल ज़ोन के नाम से भी प्रचारित करने की नाकाम कोशिशें की जा चुकी हैं. इसी गोपनीय और किलेबंद इलाक़े के भीतर इराक़ को चला रही अमरीकी सेना की कमान और इराक़ की अंतरिम सरकार काम करती है. अंतरराष्ट्रीय मीडिया के लोग भी सद्दाम हुसैन के शासन की हृदयस्थली रहे इस इलाक़े में रह कर ही काम करते हैं. हालाँकि इतना महत्वपूर्ण होने के बावजूद यह पूरी तरह सुरक्षित जगह हो ऐसा भी नहीं कहा जा सकता. ग्रीन ज़ोन में भी आत्मघाती हमले हुए हैं और जब भी मौक़ा मिलता है इराक़ी विद्रोही ग्रीन ज़ोन की ओर रॉकेट भी दागते हैं.

गुरुवार, नवंबर 10, 2005

पड़ोसी देश की नई राजधानी

संभव है बहुत से लोग अब भी पीनमना का नाम पहली बार सुन रहे हों, लेकिन इस बात की पूरी संभावना है कि कुछ महीनों के भीतर यह बच्चे-बच्चे की ज़ुबान पर हो. बात यह है कि भारत के पड़ोसी देश बर्मा की सैनिक सरकार ने अचानक रंगून से अपना डेरा-डंडा उठाना शुरू कर दिया है. सरकारी मशीनरी रंगून से 400 किलोमीटर उत्तर पीनमना को अपना नया ठिकाना बना रही है.

आपको तो पता ही है कि सामान्य ज्ञान के नाम पर भारत के स्कूलों में बच्चों को जो बातें सिखाई जाती है, उनमें से एक है दुनिया के प्रमुख देशों और उनकी राजधानियों के नाम. जहाँ तक मेरी बात है मैं अभी तक इस बात को आत्मसात नहीं कर पाया हूँ कि हमारे पड़ोसी बर्मा का आधिकारिक नाम म्यांमार और उसकी राजधानी रंगून का आधिकारिक नाम यांगून है. भारत में तो म्यांमार-यांगून काफ़ी हद तक प्रचलित भी है, लेकिन पश्चिमी मीडिया में अब भी बर्मा-रंगून का ही प्रयोग होता है.

बर्मा की सैनिक सरकार ने क्यों रंगून छोड़ने का फ़ैसला किया ये बात किसी को समझ नहीं आ रही है. पहले से न तो इस बात के स्पष्ट संकेत दिए गए, न ही पड़ोसी देशों को ख़बर दी गई और न ही अंतरराष्ट्रीय संगठनों को बताया गया. कई मंत्रालयों के कारिंदे फ़ाइलों के साथ जब पीनमना पहुँच गए और बात धीरे-धीरे मीडिया तक पहुँच गई, तब इस सप्ताह एक सैनिक अधिकारी ने स्वीकार किया कि बर्मा की सरकार रंगून छोड़ कर पीनमना को अपना नया ठिकाना बना रही है. अधिकारी ने यह भी कहा कि पीनमना के देश के बीच में होने के कारण शासन की सुविधा के लिए ऐसा किया जा रहा है.

लेकिन बात इतनी सरल लगती नहीं है. सरकार के स्पष्ट कारण नहीं देने के कारण तरह-तरह की चर्चाएँ चल रही हैं. उनमें से एक यह भी है कि हो सकता है कि बर्मा में सत्तारूढ़ सैनिक जुंटा के वरिष्ठ जनरल थान श्वे ने किसी ज्योतिषीय सलाह के अनुरूप यह फ़ैसला किया हो. एक धारणा यह भी है कि जब से अमरीकी विदेश मंत्री कोंडोलीज़ा राइस ने बर्मा को उत्तर कोरिया, क्यूबा, ईरान, ज़िम्बाब्वे और बेलारूस के साथ रखते हुए दुनिया की बचीखुची तानाशाही सरकारों में से एक बताया है, सैनिक सरकार को अमरीकी हमले का डर सता रहा है. और चूँकि बर्मा की नौसेना उसकी थल सेना से कहीं कमज़ोर है, इसलिए समुद्र के पास राजधानी रखना कोई बुद्धिमानी नहीं होगी.

चित्र- जनरल थान श्वे
पीनमना चूँकि जंगलों के बीच है सो किसी भी बाह्य हमले की स्थिति में गुरिल्ला लड़ाई छेड़कर दुश्मनों से लोहा लेना ज़्यादा आसान होगा. वैसे विश्लेषकों को ये नहीं लगता कि अमरीका को बर्मा पर हमला करने में कोई रूचि है. और यदि अचानक बदले सामरिक समीकरणों के कारण कभी अमरीका हमले की सोचता भी है तो ज़ाहिर है अपनी बेजोड़ एयर पॉवर के दम पर वह किसी भी शहर को मरघट में बदल सकता है, अब चाहे वो समुद्र के किनारे का शहर हो, पहाड़ों के बीच बसा शहर हो या फिर जंगलों में बसा कोई सैनिक मुख्यालय.

पीनमना में 10 वर्गकिलोमीटर के एक इलाक़े में पिछले कुछ महीनों से सैनिक सरकार के मुख्यालय के लिए ताबड़तोड़ निर्माण कार्य चल रहा था. देश से बाहर रह कर प्रचार अभियान चलाने वाले बर्मी असंतुष्टों की मानें तो वहाँ सुरंगों और बंकरों का जाल बिछाया गया है. ये बात तो तय है कि पीनमना को चुनने के पीछे इस शहर के ऐतिहासिक महत्व को भी ध्यान में रखा गया होगा क्योंकि इसी स्थान से जनरल आंग सान(पिछले एक दशक से नज़रबंद रखी गईं लोकतंत्रवादी बर्मी नेता आंग सान सू ची के पिता) ने आज़ादी की लड़ाई का बिगुल फूंका था.

पीनमना की मौजूदा स्थिति के बारे में सारी जानकारी शायद तभी मिलेगी जब विदेशी दूतावासों को वहाँ अपने केंद्र खोलने की इजाज़त दी जाएगी. जो भी हो हमारे स्कूलों के सामान्य ज्ञान के पाठ में दो शब्द और जुड़ जाना तय है. पहला शब्द है बर्मा की नई राजधानी पीनमना, और दूसरा शब्द है यांलोन जो कि पीनमना का आधिकारिक नाम होगा. बर्मी भाषा में यांलोन का मतलब होता है संघर्ष से सुरक्षित. (मौजूदा राजधानी के लिए प्रयुक्त नाम यांगून का मतलब है संघर्ष की समाप्ति.)

सोमवार, अक्टूबर 31, 2005

कामसूत्र का नया अध्याय

वात्स्यायन अभी जीवित होते तो शायद अपनी लोकप्रिय किताब कामसूत्र में एक नया चैप्टर जोड़ने पर विचार कर रहे होते. यह अध्याय यौन-क्रीड़ा के विभिन्न आसनों से ही जुड़ा होता, लेकिन बिल्कुल ही नए क़िस्म के आसन. क्योंकि बात अंतरिक्षयात्रा के दौरान सेक्स की संभावनाओं की हो रही है.

अंतरिक्षयात्री भी मानव ही हैं, लेकिन हमारे जैसे मामूली लोगों की तरह उनके पाँव सतह पर मज़बूती से नहीं पड़ते. अंतरिक्ष यात्राओं के दौरान उन्हें भारहीनता की स्थिति में रहना पड़ता है, क्योंकि वे धरती के गुरुत्वाकर्षण के बिना रह रहे होते हैं. जब आपके पाँव सतह पर टिक नहीं रहे हों, वैसी स्थिति में कामसूत्र के लोकप्रिय आसनों का कोई ख़ास महत्व नहीं रह जाता है.

ये जाना-माना तथ्य है कि अंतरिक्षयात्रियों को किसी मिशन के दौरान सेक्स की मनाही होती है. हो भी क्यों नहीं. किसी एस्ट्रोनॉट के दिल की एक-एक धड़कन पर मिशन कंट्रोल वालों की निगरानी रहती है क्योंकि न सिर्फ़ महत्वपूर्ण प्रयोगों को पूरा करने, बल्कि ख़ुद एस्ट्रोनॉट को सही-सलामत रखने की चुनौती जो होती है. और सेक्स के दौरान मानव शरीर में होने वाली उथल-पुथल ना जाने अंतरिक्ष में क्या स्थिति बना दे.

एक और समस्या है:- वैज्ञानिकों को अभी इस बात का ज़्यादा अंदाज़ा नहीं है कि अंतरिक्ष में ठहरा गर्भ धरती पर किस तरह के गुण-अवगुण वाले बच्चे के जन्म का कारण बन सकता है. आप कह सकते हैं कि अंतरिक्ष यात्री सेक्स के दौरान गर्भनिरोधक का सहारा ले सकते हैं, लेकिन जब सेक्स हार्मोन्स ज़ोर मार रहे हों तो कई बार गर्भनिरोधकों की बात याद नहीं रख जाती. आप कहेंगे, यदि गर्भ ठहर ही जाता है तो धरती पर आने के बाद उससे मुक्ति पा ली जाएगी. सैद्धांतिक रूप से ऐसा संभव है, लेकिन सिद्धांतत: ही सही, समान मानवाधिकारों के इस युग में कोई एस्ट्रोनॉट-युगल बच्चा जनने के अधिकार को लेकर अदालत की राह भी तो पकड़ सकता है.


चित्र: भारहीनता का खेल

ख़ैर, आइए इस सारे विवाद की जड़ पर. अमरीका के नेशनल एकेडमी ऑफ़ साइंसेज के एक अध्ययन में कहा गया है कि अंतरिक्ष में सेक्स के सवाल से समय रहते नहीं निपटा गया तो चाँद और मंगल पर भविष्य में भेजे जाने वाले मानव मिशनों के दौरान गड़बड़ियाँ सामने आ सकती हैं. न्यू साइंटिस्ट के ताज़ा अंक में इस अध्ययन का ज़िक्र किया गया है.

अमरीकी अंतरिक्ष एजेंसी, नासा से इस मसले पर गंभीरता से विचार करने की अपील करते हुए नेशनल एकेडमी ऑफ़ साइंसेज की रिपोर्ट लिखने वाली टीम के सदस्य और यूनिवर्सिटि ऑफ़ साउदर्न कैलिफ़ोर्निया के मेडिकल एंथ्रोपोलोजिस्ट लॉरेंस पैलिंकस कहते हैं, "दीर्घावधि के अंतरिक्ष मिशनों की संभावनाओं को देखते हुए सेक्सुअल्टि के सवाल को नज़रअंदाज़ करना मुश्किल है."

पैलिंकस की चिंताओं से सहमति जताते हुए कैलिफ़ोर्निया में ही ओकलैंड स्थित यौन संबंधों से जुड़े मसलों के विशेषज्ञ मनोविश्लेषक रिन्क्लेब एलिसन कहते हैं, "पार्टनर बनाने और सेक्स से जुड़ी मूल भावनाओं की बात करें तो मानव आदिमकालीन स्थिति से आगे नहीं जा पाया है."

एलिसन का मतलब साफ़ है कि मानवीय यौन भावनाओं को पूरी तरह नियंत्रित करना लगभग असंभव है. इसका उदाहरण 2000 की उस घटना में देखा भी जा सकता है जब अंतरिक्ष यात्रा के लिए भारहीनता की आठ महीने तक चलने वाली ट्रेनिंग के दौरान एक रूसी(पुरुष) और एक कनाडियन(महिला) वैज्ञानिकों को अलग-अलग कक्षों में अभ्यास कराने की व्यवस्था करनी पड़ी थी. दरअसल दो बार रूसी वैज्ञानिक को कनाडियन रिसर्चर को चूमने की अनधिकृत कोशिश करते पकड़ा गया था.

पैलिंकस और ऐलिसन दोनों ही लंबे अंतरिक्ष मिशनों के दौरान सेक्स की संभावनाओं को तलाशने के पक्षधर हैं. पैलिंकस का मानना है कि सेक्स के सहारे अंतरिक्ष यात्रियों में स्थायित्व और सब कुछ सामान्य होने की भावना घर कर सकेगी. इसी तरह ऐलिसन का मानना है कि सेक्स और अन्य यौन-क्रीड़ाओं के ज़रिए एस्ट्रोनॉट्स लंबी यात्राओं के दौरान बोरियत और चिंताओं से निज़ात पा सकेंगे.

ऐलिसन ने कहा है कि नासा को दुनिया से बाहर दुनियादारी की व्यावहारिक समस्याओं पर विचार शुरू कर देना चाहिए. उन्होंने समस्याओं में से कुछ का उदाहरण दिया, "भारहीनता की स्थिति में कैसे सेक्स किया जा सकता है? प्राइवेसी भी एक समस्या होगी क्योंकि हर अंतरिक्ष यात्री के दिल की धड़कन और शरीर के तापमान तक पर भी हमेशा निगरानी रहती है."

यहाँ नासा के सलाहकार रहे जी. हैरी स्टाइन की किताब लिविंग इन स्पेस का ज़िक्र करना उचित होगा.स्टाइन ने लिखा है कि अल्बामा के मार्शल स्पेस फ़्लाइट सेंटर में प्रयोगों के दौरान पाया गया कि भारहीनता की स्थित में सेक्स संभव तो है, लेकिन यह बहुत ही मुश्किल काम है. उनकी माने तो कोई तीसरा अंतरिक्ष यात्री सेक्स करने के इच्छुक जोड़ी में से एक को सहारा दे तब शायद काम कुछ आसान हो जाएगा. वैसे यह भी बताता चलूँ कि स्टाइन अल्बामा में जिन आधिकारिक और ग़ैरआधिकारिक प्रयोगों की बात करते हैं उनकी सच्चाई संदिग्ध मानी जाती है.

इसी तरह विज्ञान से जुड़ी रिपोर्टों के लिए मशहूर फ़्रांसीसी लेखक पिएरे कोहलर ने कुछ वर्ष पहले इस कथित रहस्योदघाटन से सनसनी फैला दी थी कि अमरीकी और रूसी वैज्ञानिकों ने भारहीनता की स्थिति में सेक्स के ऊपर प्रयोग किया है. कोहलर ने द फ़ाइनल मिशन: मीर, द ह्यूमैन एडवेंचर में अमरीका और रूस सरकारों के गोपनीय आवरण को छिन्न-भिन्न करने की भूमिका बनाते हुए लिखा है कि 1996 में एक शटल मिशन के दौरान कुल 20 सेक्स आसनों को आजमाया गया ताकि टॉप-टेन पोज़ीशन्स चुने जा सकें. कोहलर की मानें तो चुने गए 10 आसनों में से मात्र चार ऐसे थे जो कि बिना किसी तीसरे व्यक्ति या मेकेनिकल उपकरणों(स्पेशल बेल्ट, नली आदि) की सहायता के संभव हैं. उन्होंने एक और सनसनीखेज बात बताई है कि धरती पर सबसे लोकप्रिय मिशनरी सेक्स पोज़ीशन को भारहीनता की स्थिति में आज़माना संभव नहीं है. न तो रूसी और न ही अमरीकी सरकार ने इस रहस्योदघाटन की सच्चाई की पुष्टि की है.

बुधवार, अक्टूबर 26, 2005

जब धन बन जाता है धेला

कहते हैं कि बुरा दिन आता है तो सारी धन-दौलत रखी रह जाती है. इसका ताज़ा उदाहरण है कुछ महीनों पहले तक रूस के सबसे धनी व्यक्ति मिखाइल खोदरकोव्स्की का. माना जाता है कि अब भी यूकोस तेल कंपनी के इस पूर्व प्रमुख के दुनिया भर के बैंक खातों में कई अरब डॉलर हैं.

राजधानी मास्को में एक किलेनुमा घर में रहने वाले खोदरकोव्स्की इन दिनों हैं तो रूस में ही लेकिन अपने परिजनों से लगभग 5,000 किलोमीटर दूर. दरअसल, वित्तीय अनियमितताओं के आरोप में दोषी पाए गए खोदरकोव्स्की दो साल से जेल में हैं और पिछले दिनों उन्हें चीन की सीमा से सटे शहर क्रैसनोकामेन्सक की एक जेल में डाल दिया गया है. खोदरकोव्स्की बाकी छह साल की सजा YaG 14/10 नामक जेल में छोटे स्तर के चोरों और गिरहकटों के साथ गुजारेंगे. हालाँकि भाग्य ने उनका साथ दिया तो वे चार साल बाद पैरोल पर रिहा भी हो सकते हैं.

पश्चिमी देशों की माने तो खोदरकोव्स्की को सरकार पर रूसी पाइपलाइनों के निजीकरण का अनुचित दबाव बनाने और राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के राजनीतिक विरोधियों पर धनवर्षा करने का ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ा है. हालाँकि आम रूसियों(मास्को और सेंट पीटर्सबर्ग से बाहर रहने वाले) से बात करें तो वे एक सुर से कहेंगे कि 42 वर्षीय खोदरकोव्स्की जैसे धनकुबेरों ने राष्ट्रपति बोरिस येल्तिसन के कार्यकाल के अंतिम दिनों में सरकारी संसाधनों की लूट से अपना साम्राज्य खड़ा किया है. इस सरकारी लूट की मार रूस के ग़रीबों पर पड़ी है. सरकार के हाथों से भारी मात्रा में संसाधन निकल जाने के बाद जनता को मिलने वाली सरकारी सहायता में लगातार कटौती होती गई है.

ख़ैर, खोदरकोव्स्की के पास अब भी बहुत धन है और उनकी पत्नी इना और माँ मेरिना निजी जेट से पाँच हज़ार किलोमीटर की यात्रा कुछ घंटों में तय कर नियमित रूप से उनसे मिल सकती हैं. वकीलों की फ़ौज तो क्रैसनोकामेन्सक शहर में डेरा डाले रहेगी ही. लेकिन ख़ुद खोदरकोव्स्की क्या कर रहे होंगे? तो भई, अधिकारियों ने उनके साथ थोड़ी नरमी बरती है और उन्हें दर्जनों पत्र-पत्रिकाएँ और जर्नल्स मँगाने की अनुमति दी है. कहा जा रहा है खोदरकोव्स्की साहब किसी विषय(बताया नहीं है) पर पीएचडी की तैयारी करेंगे.

लेकिन खोदरकोव्स्की को पढ़ाई के लिए समय निकालना होगा क्योंकि उन्हें जेल(जो कि ज़ार निकोलस के ज़माने का श्रम शिविर है) में बाकी क़ैदियों के समान काम करना पड़ेगा. काम के बदले उन्हें रोज़ 65 रूबल मिलेंगे यानि क़रीब 100 रुपये. इसमें से आधा उनकी ख़ुराक पर ख़र्च होगा. बाकी 30-35 रूबल से वो जेल के अंदर की दुकान से कुछ ख़रीद सकेंगे. काम उन्हें कुछ भी करना पड़ सकता है- वर्दी सीना, गाय पालना या फिर सूअरों की देखभाल करना. अभी वहाँ पाँच डिग्री सेल्सियस तापमान है जो कि कुछ ही दिनों में माइनस में चला जाएगा और ज़ोरदार सर्दी के दिनों में -40 सेल्सियस तक.

चित्र: YaG 14/10 जेल, क्रैसनोकामेन्स्क, रूस

यहाँ अपने देश की स्थिति से तुलना करें तो सबसे धनी आदमी की तो बात ही छोड़िए, घोटालों पर घोटाला करने वाले एक छुटभैया नेता तक का बाल बाँका नहीं हो पाता. और धनकुबेरों की तो छोड़िए, दो नंबर के कामों से पैसा कमाने वाला कोई धनपशु अपनी गाड़ी से चार-छह लाचार ग़रीबों को बिना कारण कुचल कर मार दे तो भी उसका कुछ नहीं होता.

(भारत में विस्तृत क़ानूनी प्रावधान उपलब्ध हैं, लेकिन वो दिन कब आएगा जब क़ानून समदृष्टि से न्याय करेगा? शायद अभी वक़्त लगेगा जब भारत में भी ग़रीब-अमीर, वोटर-नेता और निर्बल-बाहुबली क़ानून की नज़र में एक समान अधिकारों वाले हो सकेंगे.)

शनिवार, अक्टूबर 22, 2005

एपोफ़िस और तोरिनो पैमाना


अभी कश्मीर में भयानक भूकंप आया और एक बार फिर आम लोगों की ज़ुबान पर रिक्टर पैमाने का नाम चढ़ गया. कोई मुज़फ़्फ़राबाद के पास केंद्रित इस भूकंप को रिक्टर पैमाने पर 7.6 बता रहा था तो कोई 7.8 या और ज़्यादा.

इसी तरह अमरीका में तबाही मचाने वाले कैटरीना तूफ़ान ने जनसामान्य को फिर से याद दिलाया कि तूफ़ानों की एक से पाँच तक की कैटगरी के क्या मायने होते हैं.

लेकिन हमें नहीं लगता प्राकृतिक आपदा के एक और अहम पैमाने 'तोरिनो' की आमलोगों को ज़्यादा जानकारी है. जानकारी हो भी कैसे, क्योंकि इस पैमाने से जुड़ी कोई तबाही अभी हमें देखने को जो नहीं मिली है. भगवान न करे ऐसा कभी हो क्योंकि ऐसी तबाही में हज़ारों या लाखों में नहीं, बल्कि करोड़ों की संख्या में लोगों के मरने की आशंका होगी. और एक महाटक्कर से होने वाली इस तबाही के कारण पर्यावरण में होने वाला बदलाव भी बाद के वर्षों में करोड़ों अन्य लोगों की मौत का सीधा कारण बनेगा.

तोरिनो पैमाना है क्या बला? पहले तो ये बता दूँ कि तोरिनो नाम इटली के मशहूर शहर तूरिन से लिया गया है जिसे पश्चिमोत्तर इटली में तोरिनो नाम से ही जाना जाता है.(आपको आश्चर्य होगा कि इटली में मिलान को मिलानो, रोम को रोमा, फ़्लोरेंस को फ़िरेंज़ी और वेनिस को वेनित्सिया नाम से जाना जाता है.) तोरिनो से जुड़ी एक और रोचक बात यह है कि भारत की कांग्रेस पार्टी की भाग्य-विधाता पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की विधवा सोनिया का ताल्लुक इसी शहर से है.

तो, तोरिनो में 1999 में खगोल भौतिकशास्त्रियों की एक बैठक हुई एस्टेरॉयड या उल्का-पिंडों और पुच्छल तारों के ख़तरे पर विचार के लिए.(एस्टेरॉयड मंगल और बृहस्पति के बीच लाखों की संख्या में मौजूद पत्थर और धातु के उन पिंडों को कहा जाता है जो कि एक ग्रह के समान ही सूर्य का चक्कर लगा रहे हैं. क्या पता किसी बड़े ग्रह से ही टूट कर बिखरे हों. इनमें से कुछ तो 1,000 किलोमीटर व्यास के हैं तो अनेक साधारण कंकड़-पत्थर जितने बड़े.)

पुच्छल तारों और एस्टेरॉयड के अपनी कक्षा से भटक कर धरती की ओर आने का ख़तरा हमेशा से बना रहा है. इस ख़तरे को हॉलीवुड ने बढ़ा-चढ़ाकर डीप इम्पैक्ट जैसी फ़िल्मों के ज़रिए बेचा भी है. हाल के इतिहास में तो ऐसी किसी टक्कर का ज़िक्र नहीं है, लेकिन माना जाता है कि ऐसी ही टक्करों से धरती के कई बड़ी झीलें बनी हैं और ऐसी ही किसी बड़ी टक्कर ने डायनोसोरों का काम तमाम किया होगा.

तो भैया, तोरिनो के सम्मेलन में एमआईट के वैज्ञानिक रिचर्ड बिन्ज़ेल द्वारा कुछ साल पहले प्रतिपादित पैमाने को स्वीकार कर लिया गया और उसे तोरिनो पैमाने के नाम से जाना जाने लगा. जहाँ तक एस्टेरॉयड के ख़तरे की बात है तो 1994 में ऐसी किसी टक्कर में मारे जाने की आशंका को किसी भयावह भूकंप के ख़तरे से ज़्यादा प्रबल बताया गया यानि 20 हज़ार में एक. लेकिन चार साल बाद अमरीकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने ऐसे सारे संभावित ख़तरों की गिनती की. नासा ने बताया कि कोई 700 एस्टेरॉयड ऐसे हैं जो कभी न कभी धरती का रुख़ कर सकते हैं. ऐसे में एस्टेरॉयड की टक्कर से मरने की आशंका घट कर 2,00,000 में एक कर दी गई. हालाँकि इस तरह की वैज्ञानिक गणनाओं पर पूरी तरह भरोसा भी नहीं किया जा सकता.

ख़ैर, दिसंबर 2004 में वैज्ञानिकों ने पाया कि 400 मीटर आकार का एक उल्का-पिंड वर्ष 2029 में धरती से टकरा सकता है. इस एस्टेरॉयड को विनाश के ग्रीक देवता एपोफ़िस का नाम दिया गया. और तोरिनो पैमाने पर इसे नंबर दिया गया 4. विश्वास करें कि किसी भी उल्का-पिंड को ख़तरे की दृष्टि से दिया गया यह सबसे बड़ा नंबर है. हालाँकि हाल के महीनों में ज़्यादा सही गणना का दावा करते हुए कहा गया है कि शायद एपोफ़िस धरती के बगल से गुजर जाए. लेकिन बेफ़िक्र होने की कोई ज़रूरत नहीं क्योंकि वैज्ञानिकों को मालूम नहीं कि 2029 में धरती के पास गुजरते वक़्त धरती की गुरुत्वाकर्षण शक्ति एपोफ़िस की कक्षा और गति पर क्या असर करेगी. और भगवान न करे, कुछ गड़बड़ हुआ तो एपोफ़िस 2035-36 में एक बार फिर धरती माता को टक्कर देने की स्थिति में होगा.

भगवान बचाए. शुभ-शुभ!

चलते-चलते प्रस्तुत हैं 'गूगल अर्थ' के सौजन्य से दो अंतरराष्ट्रीय सामरिक ठिकानों के चित्र. (चित्र भारतीय सनसनी मीडिया के लिए हैं, न कि चरमपंथियों के लिए)-

पेंटागन, वाशिंग्टन, डीसी


बकिंघम पैलेस, लंदन

सोमवार, अक्टूबर 17, 2005

सनसनी चैनल की ख़बर, महामहिम की मुहर

कुछ विवाद ऐसे होते हैं जिनमें बड़ों का कूदना शोभा नहीं देता. ऐसा ही एक विवाद है गूगल अर्थ की सेवाओं का. लेकिन भारत में इस विवाद में स्वयं महामहिम राष्ट्रपति कूद पड़े हैं.

भारत में अक्सर ही किसी अधकचरी जानकारी को सनसनीखेज ख़बर का रूप दे दिया जाता है. टीवी चैनल ख़ास कर टीआरपी रेटिंग की लड़ाई में इस हथकंडे का उपयोग करते हैं. इस समय का नंबर एक समाचार चैनल कहलाने वाले 'स्टार न्यूज़' के एक स्वनामधन्य पत्रकार ने पिछले सप्ताह दूर की कौड़ी लाते हुए ख़बर दी कि गूगल अर्थ ने भारतीय सुरक्षा व्यवस्था को ख़तरे में डाल दिया है. 'ये ख़बर सिर्फ़ स्टार न्यूज़ के पास है' की बार-बार दुहाई देते हुए बताया गया कि गूगल की इस नई सेवा में राष्ट्रपति भवन और संसद को साफ़-साफ़ देखा जा सकता है.

चलो भई, ये भारतीय पत्रकार और ख़ास कर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पत्रकार तो ख़बरों की सनसनी की कमाई ही खाते हैं, इसलिए उनकी चाल(नादानी भी हो सकती है) को नज़रअंदाज़ कर दिया जाए. लेकिन नहीं जनाब, राष्ट्रपति एपीजी अब्दुल कलाम भला विवाद में क्यों न कूदते. तो उन्होंने 15 अक्तूबर 2005 को मीडिया की लगाई आग में हवा डाल दी कि गूगल ठीक नहीं कर रहा...इस संबंध में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय क़ानून पर्याप्त नहीं हैं. उन्होंने भी दूर की कौड़ी लाई कि विकासशील देश पहले से ही आतंकवादी ख़तरों का सामना कर रहे हैं और इन्हीं के संवेदनशील प्रतिष्ठानों को ख़ास कर स्पष्ट चित्रित किया गया है.

जबकि ऐसी बात बिल्कुल ही नहीं है. महामहिम ने गूगल अर्थ पर दो-चार मिनट दिए होते तो उन्हें व्हाइट हाउस और क्रेमलिन भी राष्ट्रपति भवन के समान ही स्पष्ट दिखते. प्रस्तुत हैं व्हाइट हाउस और क्रेमलिन के चित्र जो कि ज़ाहिर है गूगल अर्थ पर बहुत ही साफ़ नज़र आते हैं.


व्हाइट हाउस, वाशिंग्टन, डीसी


क्रेमलिन, रेड स्क़्वायर, मास्को


राष्ट्रपति भवन की बात आ ही गई तो क्या ये ठीक नहीं होगा कि इस आधार पर इसे म्यूज़ियम में बदल दिया जाना चाहिए कि इसके 100 से ज़्यादा कमरों का कभी कोई उपयोग होता ही नहीं है? क्या ये ठीक नहीं होगा कि महामहिम भी प्रधानमंत्री की तरह ही अपेक्षाकृत छोटे भवन में रहें? एक सवाल यह भी कि हमेशा ओपन-सोर्सिंग की तरफ़दारी करते रहे महामहिम इस मामले में क्यों सूचना के खुले प्रवाह पर लगाम लगाना चाहते हैं?

वर्षों से मैकडोनल्ड्स जीपीएस सुविधा का इस्तेमाल दुनिया के प्रमुख शहरों में अपने रेस्तराँ की लोकेशन चुनने में करता रहा है, क्या ग़लत है जो लाखों अन्य लोगों को भी विभिन्न रूपों में उपयोग के लिए मुफ़्त में विस्तृत भौगोलिक सूचनाएँ मिलती हों?

रही बात आतंकवाद के ख़तरे की, तो उससे सूचना प्रवाह रोकने के प्रयास से तो निज़ात नहीं ही पाई जा सकती है क्योंकि इस युग में सूचना प्रवाह रोकने की कोशिश करना मुट्ठी में बालू भरने के समान है.

रविवार, अक्टूबर 16, 2005

ईरानी मुल्ला से सीख लेंगे हमारे नेता?

ईरान का नाम लेते ही हमारे दिमाग में पश्चिमी मीडिया द्वारा निर्मित एक देश और उसके लोगों की छवि बन जाती है. यह छवि कमोबेश ये होती है कि वहाँ एक मुल्ला तंत्र सत्ता में है, वहाँ के युवा इस तंत्र से आज़ादी चाहते हैं लेकिन बहुमत अभी भी देश को इस्लामी तंत्र के रूप में देखने वालों की है.

इसी ईरान के एक मुल्ला का विस्तृत साक्षात्कार विज्ञान पत्रिका न्यू साइंटिस्ट के 15 अक्टूबर 2005 के अंक में छपा है. इस मुल्ला का नाम है मोहम्मद अली अबताही. बहुत दिनों तक ये सांसद रहने के अलावा राष्ट्रपति मोहम्मद खातमी के शासन में ये उपराष्ट्रपति के पद पर थे, खातमी के प्रमुख सलाहकारों में माने जाते थे. लेकिन न्यू साइंटिस्ट ने उनका साक्षात्कार एक प्रगतिशील राजनेता के रूप में नहीं बल्कि एक ब्लॉगर के रूप में छापा है.

जी हाँ, ईरान वही देश है जहाँ सबसे ज़्यादा संख्या में ब्लॉगरों पर पुलिस की मार पड़ती है. ऐसे में अभी भी सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़ा एक हाई-प्रोफ़ाइल मुल्ला ब्लॉग लिखे और वो ब्लॉग ईरान के सबसे लोकप्रिय ब्लॉग के रूप में जाना जाता हो, तो ज़रूर ही कोई विशेष बात होगी.

जी हाँ, 48 साल के मोहम्मद अबताही का ब्लॉग वेबनेवेश्तेहा ईरान का सबसे लोकप्रिय ब्लॉग माना जाता है. यह अंग्रेज़ी समेत तीन भाषाओं में है.

प्रस्तुत है मोहम्मद अली अबताही का साक्षात्कार-


आपने ब्लॉग क्यों शुरू किया?
मैं अपने आधिकारिक और सरकारी दायित्वों से अलग रहते हुए अपने विचार व्यक्त करना चाहता था. ब्लॉग की कोई विरासत नहीं होती और वो किसी के बाप की अमानत भी नहीं होता. कोई भी, किसी भी तरह के विचार वाला ब्लॉगों में लिख सकता है. लोगों की इसमें दिलचस्पी है.

आपके राजनीतिक सहयोगी इस बारे में क्या सोचते हैं?
अधिकतर को मेरे ब्लॉगिंग करने की बात तब तक नहीं पता चलती जब तक उनके बच्चों को इस बात का पता न चल जाता हो और बच्चे उन्हें जाकर यह बात बताते न हों...कई बार मेरा यह कार्य विवादास्पद भी बना. मैं अधिकारियों की तस्वीर लेकर इंटरनेट पर डाल देता हूँ. मेरे ब्लॉग को शासन के तरफ़ से कई बार चुनौती मिली, हालाँकि मैंने स्पष्ट कर रखा है कि ये मेरे व्यक्तिगत विचार हैं और सरकार की राजनीति से इसका कुछ लेना-देना नहीं है.

आपको अपने ब्लॉग के चलते कोई नुक़सान भी हुआ?
मुझे बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ी. ईरानी सत्ता के रूढ़ीवादी तत्वों ने कई आरोप लगाए और मेरी व्यक्तिगत ज़िंदगी के बारे में कई झूठी बातें फैलाई. मसलन, पिछले साल उन्होंने ये अफ़वाह फैलाई कि मैंने उपराष्ट्रपति का पद छोड़ दिया है, क्यों..क्योंकि मैंने तेहरान के एक ऐसे स्विमिंग-पूल में तैराकी की जिसमें कि औरतें भी तैर रही थीं. आपको भले ही यह आरोप गंभीर नहीं लग रहा हो, ईरान में यह बहुत ही गंभीर बात है.

इससे पहले इसी साल सुरक्षा बलों ने सात दिनों के लिए मेरे ब्लॉग को हैक कर लिया था. ये इसलिए कि क्योंकि मैं अपने विचार व्यक्त करने के कारण जेल भेजे गए ब्लॉगरों की आवाज़ बन गया था. मैंने यह लिखा था कि कैसे उन ब्लॉगरों को प्रताड़ित किया गया.

हैकिंग की इस घटना के बाद मैं ईरान से बाहर के एक वेब-सर्वर की सेवाएँ लेने को बाध्य हो गया ताकि सुरक्षा बल फिर से परेशानी खड़ा नहीं कर सकें.

कौन से तत्व आपकी वेबसाइट को निशाना बनाते हैं?
सारा दबाव रूढ़ीवाद शासन का है. हमेशा से यही स्थिति रही है. जनता साथ देती है, लेकिन अधिकतर ब्लॉगर युवा हैं और जल्दी डर जाते हैं. ब्लॉगरों को जले भेजे जाने का असर उन पर गहरा होता है. मैं वेबसाइटों को सेंसर किए जाने के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता रहा हूँ. अभी भी ईरान में इंटरनेट की फ़िल्टरिंग होती है. सर्विस प्रोवाइडर्स को सरकार की बात माननी पड़ती है वरना उन्हें बंद कर दिया जाएगा.

लेकिन इतनी निगरानी के बाद भी आप बिना ज़्यादा परेशानी के कैसे बच निकलते हैं?
मैं बच जाता हूँ राजनीतिक एक्टिविस्ट की अपनी पृष्ठभूमि के कारण. मैं इस कारण बच जाता हूँ कि मुझे सब जानते हैं. यदि शासन मेरे ब्लॉग को सेंसर करने की कोशिश करेगा तो जनता के विरोध के रूप में उन्हें ख़ामियाज़ा भुगतना होगा.

ईरानी समाज और राजनीति पर ब्लॉगिंग का क्या असर हो रहा है?
सुधार पहले समाज में होता है, फिर सरकार में. राष्ट्रपति खातमी के शासन में ईरान में कुछ सुधार हुआ, लेकिन सुधार की गति से लोग ख़ुश नहीं थे. नेट भी समाज द्वारा उपयोग में लाया जा रहा एक माध्यम है. इसका विकास हो रहा है और यह बदलाव भी ला रहा है. नेट प्रभावशाली है और यह परिवर्तन के लिए और ज़्यादा दबाव पैदा करेगा. यह नई पीढ़ी का औजार है, और चूँकि युवा वर्ग ख़ुद को विश्वव्यापी समाज का हिस्सा मानता हो सो उनकी आकांक्षाएँ बड़ी हैं.

एक एक्टिविस्ट के रूप में अपनी पृष्ठभूमि के बारे में कुछ बताएँ?
मैं एक धार्मिक परिवार से हूँ. मेरे पिता एक धार्मिक विद्वान थे. ईरान की 1979 की क्रांति से पहले जब मैं एक किशोर था, मेरे पास एक सुपर8 कैमरा हुआ करता था. जहाँ भी मैं जाता था शॉर्ट फ़िल्में बना लेता. मेरी सहायता से मेरे पिता इन फ़िल्मों और स्लाइडों को अपनी धार्मिक तक़रीरों के दौरान इस्तेमाल करते थे. उस समय के माहौल में ये बिल्कुल ही अस्वाभाविक चीज़ थी.

क्रांति के दौरान मैं बहुत सक्रिय रहा. मैंने भाषण दिए, फ़िल्में बनाईं और पर्चे बाँटे. सड़क पर निकल कर आंदोलन में शामिल होना बड़ा ही उत्तेजक अनुभव होता था. मैं शाह के शासन को अन्यायपूर्ण मानता था और मैं बहुत ही आदर्शवादी था, लोगों को आज़ादी दिलाना चाहता था.

जब मैं 18 साल का था, अयातुल्ला खुमैनी के भाषण प्रकाशित करने और ख़ुद के भाषण के कारण मुझे गिरफ़्तार भी होना पड़ा था.

मैं ख़ुद को क्रांति की संतान मानता हूँ. मुझे लगता है मौजूदा शासन उन सिद्धांतों के ख़िलाफ़ काम कर रहा है, जिनके लिए मैंने आंदोलन में भाग लिया था. सुधार होगा, लेकिन 1979 के जैसा ही जनता की अगुआई में. जनता खेल में आगे है और नेट समाज सुधार के सबसे महत्वपूर्ण माध्यमों में शामिल है.

लोग आपके ब्लॉग पर कैसी प्रतिक्रिया देते हैं?
मैं बड़ी मुश्किल स्थिति में हूँ. क्योंकि मैं एक मीडिया शख़्सियत हूँ, कुछ रूढ़ीवादी मुझे रैडिकल मानते हैं. दूसरी ओर जनता का एक वर्ग मुझे सत्ता प्रतिष्ठान का हिस्सा मानता है. हालाँकि सार्वजनिक जीवन में सक्रिय एक व्यक्ति के साथ इंटरएक्ट करना लोगों को उत्साहित करता है. ब्लॉग पर मैंने एक सवाल-जवाब का हिस्सा बना रखा है जहाँ लोग आपस में बहस करते हैं- राजनीति पर, शासन पर और बाकी विषयों पर जिनमें से कुछ मैं उन्हें देता हूँ. वे सवाल पूछते हैं, वे मेरा अपमान भी करते हैं, वे रूढ़ीवादियों का भी अपमान करते हैं, लेकिन बहुमत मेरे साथ सहानुभूति रखता है. मैं अपने ब्लॉग पर सबकी राय छापता हूँ जब तक कि वो अनैतिक न हो.

(ज़रूरत है कि भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़े कुछ लोग मोहम्मद अली अबताही जैसा ही साहस दिखाएँ और देश के युवा वर्ग से सीधा संवाद क़ायम करें. वरना मौजूदा माहौल में लोकतंत्र के दंभ और तकनीकी विकास के हमारे दावे का क्या मतलब?)

बुधवार, अक्टूबर 12, 2005

अरबपतियों की अलग तरह की सूची

हर साल दुनिया के कई संस्थान, ख़ास कर मीडिया संस्थान, अरबपतियों की सूची तैयार करते हैं. इसी कड़ी में पिछले साल जुड़ा आर्थिक जगत के मशहूर अख़बार लंदन से प्रकाशित 'फ़ाइनेंशियल टाइम्स' का नाम.

लेकिन 'फ़ाइनेंशियल टाइम्स' की सूची इस मायने में अलग है कि इसमें शामिल होने की पात्रता सिर्फ़ धन को ही नहीं, बल्कि समाज पर अरबपतियों के सकारात्मक प्रभाव को भी बनाया गया है. एक अंतर और है कि इस सूची में मात्र 25 लोगों को जगह मिलती है.

इसी सप्ताह 'फ़ाइनेंशियल टाइम्स' ने अरबपतियों की इस साल की अपनी सूची प्रकाशित की है. पिछले साल की ही तरह पहले नंबर पर बिल गेट्स हैं. कारण साफ़ है उनकी 51 अरब डॉलर की संपत्ति और 28 अरब डॉलर की उनकी चैरिटी बिल एंड मेलिंडा गेट्स फ़ाउंडेशन. गेट्स ने भले ही दूसरी कंपनियों को अवैध रूप से प्रतियोगिता से दूर रख कर संपत्ति बनाई हो लेकिन अब उनका ध्येय बिल्कुल साफ़ है. वह कहते हैं, "दस साल पहले मैंने महसूस किया कि मेरा धन समाज की सेवा में लगना चाहिए. इस तरह की असीमित संपत्ति किसी को अपने बच्चे को नहीं सौंपना चाहिए क्योंकि यह बच्चे के लिए रचनात्मक बात नहीं होगी."

सूची में दूसरे नंबर पर हैं एप्पल कंप्यूटर्स के सीईओ स्टीव जॉब्स. संपत्ति तीन अरब डॉलर. उनका काम है- उपयोगी, ख़ूबसूरत और प्रयोग में आसान इलेक्ट्रॉनिक्स उपकरण मुहैया कराना. उन्होंने गेट्स जैसे अरबपतियों को बताया कि प्रौद्योगिकी में ख़ूबसूरती भी हो सकती है. पिक्सर एनिमेशन स्टूडियोज़ के चेयरमैन के रूप में कई रोचक और स्वस्थ मनोरंजन वाली एनिमेटेड फ़िल्में जनता तक पहुँचाने में भी उनका अहम योगदान रहा है.

तीसरे नंबर पर ईबे के चेयरमैन पीयर ओमिडयर हैं. उनके पास 10 अरब डॉलर की संपत्ति है. समाज सेवा के कार्यों में खुल कर पैसा लगाने वाले ओमिडयर ने घोषणा कर रखी है कि 2020 ईस्वी तक वह अपनी 99 फ़ीसदी संपत्ति समाज को समर्पित कर देंगे.

दो भारतीय अरबपतियों को भी सूची में जगह मिली है. दसवें नंबर पर हैं विप्रो के चेयरमैन अज़ीम प्रेमजी और ग्यारहवें नंबर पर हैं मित्तल स्टील के चेयरमैन लक्ष्मी मित्तल. अज़ीम प्रेमजी की संपत्ति है 9.3 अरब डॉलर और उनके नाम से चलाया जा रहा फ़ाउंडेशन हर साल भारत के ग्रामीण इलाक़ों में शिक्षा के क्षेत्र में 50 लाख डॉलर ख़र्च करता है. मित्तल के समाज सेवा कार्यों का कोई ज़िक्र अख़बार ने नहीं किया है, लेकिन इस बात को ज़रूर दर्शाया है कि कैसे मित्तल ने दुनिया भर में मरणासन्न इस्पात कारखानों को मुनाफ़ा पैदा करने की मशीन बना दिया है.

रविवार, अक्टूबर 09, 2005

दो ब्लॉगरों को जेल की सजा


ये तो पहले से ही स्पष्ट होता जा रहा था कि आने वाले दिनों में इंटरनेट पर निगरानी बढ़ती ही जाएगी. लेकिन किसी को ब्लॉग में लिखी बात के आधार पर जेल भेज दिया जाएगा...किसी को अनुमान नहीं था कि ऐसा भी हो सकता है.

तो जनाब पुलिसिया राष्ट्र सिंगापुर में दो ब्लॉगरों को जेल भेजा गया. सजा देश के राजद्रोह क़ानून के तहत दी गई. याद रहे कि यह क़ानून ब्रितानी शासकों ने 1948 में कम्युनिस्ट विद्रोहियों के ख़िलाफ़ बनाया था.

चीनी मूल के 27 वर्षीय बेंजामिन कोह और 25 वर्षीय निकोलस लिम दोस्त हैं. दोनों ब्लॉगिंग भी करते हैं. कोह को एक महीने की क़ैद मिली है, जबकि लिम को एक दिन की जेल और पाँच हज़ार सिंगापुरी डॉलर के ज़ुर्माने की सजा.

मामला शुरू हुआ था इसी साल जून में. कोह अपने कुत्तों को घुमा रहे थे जब मलय मूल के मुस्लिम अल्पसंख्यकों का एक समूह उनके कुत्ते से बचने के लिए इधर-उधर भागा. कोह साहब ने कुत्तों से दूर भागने की इस क़वायद की जड़ मलय संस्कृति और इस्लाम में देखी और अपने ब्लॉग पर ग़ुस्से में बहुत कुछ लिख डाला. बाद में कुत्तों के देखभाल करने वाली एक संस्था के लिए काम करने वाले उनके मित्र लिम ने भी मुसलमानों और मलय मूल के लोगों के ख़िलाफ़ उनके सुर में सुर मिलाया.

सिंगापुर के ब्लॉग जगत में कोह के ग़ुस्से भरे लेखन की तीव्र प्रतिक्रिया हुई और किसी मलय ब्लॉगर ने पुलिस में रिपोर्ट लिखा दिया.

मामले की सुनवाई करने वाले जज ने सिंगापुर की बहुसांस्कृतिक समाज में कोह को एक नस्लवादी क़रार दिया. लिम को भी कोह के अपराध में भागीदार बताया गया. चूंकि नस्लवाद सिंगापुर के राजद्रोह संबंधी क़ानून के तहत आता है सो दोनों को सजा मिलनी ही थी. वो तो अदालत की दया-दृष्टि थी, वरना लगाए गए आरोप के तहत दोनों को तीन-तीन साल की क़ैद और पाँच-पाँच हज़ार सिंगापुरी डॉलर का ज़ुर्माने की सजा भी मिल सकती थी.

उल्लेखनीय है कि इंटरनेट पर नियंत्रण की कोशिशें शुरू से ही होती रही हैं और अलग-अलग देश अलग-अलग उपाय करते रहे हैं. मसलन चीन और सिंगापुर की तुलना करते हैं. चीन जहाँ टेक्नोलॉजी का उपयोग करते हुए तथाकथित हानिकारक वेबसाइटों को जनता की नज़रों से दूर रखने की कोशिश करता है, वहीं सिंगापुर ने दिखा दिया कि वो इंटरनेट पुलिसिंग भी क़ानून की आड़ लेकर ही करेगा.

मंगलवार, अक्टूबर 04, 2005

एक विशेषांक, पाँच मुखपृष्ठ

अभी दो अक्तूबर की शाम भारत की एकमात्र विश्वसनीय समाचार एजेंसी पीटीआई(दूसरी है यूएनआई) ने एक ख़बर चलाई. ख़बर को अगले दिन अधिकतर अख़बारों में कमोबेश यही हेडलाइन दी गई थी- ''मशहूर अंतरराष्ट्रीय साप्ताहिक टाइम ने अपने ताज़ा अंक के मुखपृष्ठ पर सानिया मिर्ज़ा को स्थान दिया''.

शब्दजाल से यह भी साबित करने की कोशिश की गई भारतीय टेनिस बाला सानिया के लिए ये अब तक सबसे बड़ा सम्मान है. सीना फुला कर ये भी कहा गया कि टाइम ने उन्हें एशियाई नायक-नायिकाओं की सूची में भी शामिल किया गया है.(सानिया के चयन पर तो कोई सवाल ही नहीं उठा सकता, लेकिन पिछले साल के 'टाइम नायक' आइएएस अधिकारी गौतम गोस्वामी के पीछे लगी पुलिस से उनके कथित कारनामों के बारे में पूछें तो पता चलेगा टाइम की कसौटी के स्टैंडर्ड का.)

ख़ैर, गूगल करने पर पता चला कि अकेले अंग्रेज़ी में 36 समाचार संस्थानों ने इस ख़बर को पीटीआई के हवाले से पूरा का पूरा उठाया. पता नहीं हिंदी और अन्य भाषाओं के कितने समाचार संस्थाओं ने इस ख़बर को हूबहू लिया होगा.

समस्या ये है कि पीटीआई ने ख़बर अधूरी दी थी, सो सारे समाचार माध्यमों ने अर्द्ध-सत्य को ही पूर्ण-सत्य के रूप में परोसा. अब पीटीआई को टाइम के मीडिया-संपर्क विभाग ने अधूरी ख़बर दी थी या यह भारतीय समाचार एजेंसी की चूक थी, ये तो इन दोनों प्रतिष्ठित संचार माध्यमों को ही पता होगा.

तो भला पूर्ण सत्य क्या है? पूरी सच्चाई ये है कि टाइम ने अपने 10 अक्तूबर 2005 के अंक के एशिया संस्करण के पाँच अलग-अलग मुखपृष्ठ बनाए हैं. बाज़ार को ध्यान में रख कर एक चीन के ग्राहकों के लिए, एक भारत के ग्राहकों के लिए, एक इंडोनेशिया वालों के लिए, एक जापान वालों के लिए और एक दक्षिण कोरिया को ध्यान में रख कर. तो पीटीआई की ख़बर इसलिए अधूरी थी कि उसने ये नहीं बताया कि पाँच में से एक मुखपृष्ठ पर सानिया मिर्ज़ा को स्थान दिया गया है. कहने की ज़रूरत नहीं कि कोई सानिया, ऐश्वर्या या सचिन जैसे भारतीय नायक-नायिका दक्षिण एशिया में बिकने वाली किसी भी पत्रिका के कवर पर स्थान पाने की पात्रता रखते हैं. लेकिन कोई इन्हें मुखपृष्ठ पर स्थान देकर इस बात ढिंढोरा पीट रहा हो तो भारतीय बाज़ार पर उसकी नज़र की अनदेखी नहीं होनी चाहिए.

बहरहाल, आइए पाँचों मुखपृष्ठों पर एक नज़र डालें-






तो ये कहा जाए कि पीटीआई को टाइम की प्रचार मशीन ने अपना मोहरा बनाया? (जहाँ तक मुझे याद आता है टाइम का भारतीय कार्यालय संसद मार्ग पर पीटीआई बिल्डिंग में ही है.)