बुधवार, जून 28, 2006

भारत, अमरीका और अपराध

सप्ताह भर से हिंदी ब्लॉग जगत में भारत और अमरीका को लेकर तीखी बहस जारी है. रीडर्स डाइजेस्ट के सर्वे के बहाने शुरू बहस ने दुर्भाग्य से देसी बनाम अमरीकावासी ब्लॉगरों के बीच नोंकझोंक का रूप ले लिया.

बहस में शामिल देसी ब्लॉगरों ने दीनहीन भाव से इतना मात्र कहना चाहा कि भारत समस्याओं से भरा है, लेकिन अमरीकी समाज में भी विसंगतियाँ होंगी. बदले में अमरीकावासी ब्लॉगरों में से कुछ ने भारत की छवि भिखमंगों, असभ्यों, बलात्कारियों के समाज के रूप में अंकित करनी चाही(भले ही अनचाहे ऐसा हुआ हो). इतना ही नहीं अमरीका को भारत के मुक़ाबले झंझटमुक्त और स्वर्गिक समाज घोषित करने की भी चेष्टा हुई(तथ्यों से ज़्यादा भावनात्मक दलीलों के सहारे).

मेरी टिप्पणियों को या तो दरकिनार किया गया या फिर उसे एक सिरे से खारिज करने का प्रयास हुआ. बहस के दौरान एक पोस्ट से टीपे सूत्रों पर कुछ घंटे लगा कर मैंने दो महान देशों(अमरीका के साथ ही भारत को भी महान कह रहा हूँ, जिनकी भावनाओं को चोट पहुँचे कृपया माफ़ करेंगे) में अपराध की स्थिति की तुलना की है.

अच्छी बात तो यह रही कि हिंदी ब्लॉग जगत में इस बहस के दौरान ही सर्वशक्तिमान एफ़बीआई ने अमरीका में अपराध के ताज़ा आँकड़े जारी कर दिए हैं. इसमें अमरीका में अपराध की शहरवार स्थिति देखी जा सकती हैं. आँकड़े आरंभिक हैं, यानि मुकम्मल तस्वीर सितंबर-अक्तूबर तक उभरेगी, लेकिन एफ़बीआई ने साफ़ कर दिया है कि दुनिया में अपराध के सबसे बड़े केंद्रों में से एक अमरीका में क़ानून-व्यवस्था की चुनौती दिनोंदिन गंभीर बनती जा रही है. एफ़बीआई ने नस्ली अपराधों की सूची अलग से देना ज़रूरी समझा है.

आँकड़ों में जाने से पहले दो दिलचस्प तथ्यों पर ग़ौर करें: अमरीका में रूस से आठ गुना ज़्यादा आपराधिक घटनाएँ होती हैं, लेकिन रूस के मुक़ाबले वहाँ जजों और मजिस्ट्रेटों की संख्या लगभग आधी है; अमरीका में प्रति हज़ार व्यक्ति में से सात जेल में बंद हैं.

भारत और अमरीका में अपराध का तुलनात्मक अध्ययन:

कुल अपराध- भारत 1.633 अमरीका 80.064 (प्रति 1,000 व्यक्ति)

हत्या- भारत 0.034 अमरीका 0.042 (प्रति 1,000 व्यक्ति)

बलात्कार- भारत 0.014 अमरीका 0.301 (प्रति 1,000 व्यक्ति)

डाका- भारत 0.026 अमरीका 1.385 (प्रति 1,000 व्यक्ति)

धोखाधड़ी- भारत 0.038 अमरीका 1.257 (प्रति 1,000 व्यक्ति)

गबन- भारत 0.014 अमरीका 0.058 (प्रति 1,000 व्यक्ति)

सेंधमारी- भारत 0.103 अमरीका 7.099 (प्रति 1,000 व्यक्ति)

मारपीट- भारत 0.218 अमरीका 7.569 (प्रति 1,000 व्यक्ति)

क़ैदी- भारत 29 अमरीका 715 (प्रति 100,000 व्यक्ति)


आँकड़ों के स्रोत:
1. Seventh United Nations Survey of Crime Trends and Operations of Criminal Justice Systems, covering the period 1998 - 2000 (United Nations Office on Drugs and Crime, Centre for International Crime Prevention)
2. CIA World Factbook

सोमवार, जून 26, 2006

इंडिक ब्लॉगर्स अवार्ड्स में छाई हिंदी

बंधुओं इंडिक ब्लॉगर्स अवार्ड्स घोषित हो चुके हैं. कब हुई घोषणा पता नहीं. ख़बर पुरानी हो चुकी हो, तो माफ़ी चाहूँगा. मुझ तक यह ख़बर आज ही पहुँची है.

रवि रतलामी जी को बहुत-बहुत बधाई, सर्वश्रेष्ठ हिंदी ब्लॉग का लेखक होने के लिए!

ख़ुशी की बात है कि हिंदी वालों ने तमिलभाषियों को कड़ी टक्कर दी है. मतलब ज़्यादा लिखें या नहीं, विजेताओं की सूची में ऊपर. (चलो कहीं तो सक्रिय हैं हिंदी से प्यार करने वाले!)

रमन जी को बधाई पुरस्कार जीतने के लिए, और धन्यवाद इस आयोजन की ख़बर ब्लॉगिस्तान में फैलाने के लिए. सर्वाधिक सक्रिय ब्लॉगर डॉ. सुनील को बधाई जो न कह सके के चुने जाने पर. डॉ. जगदीश व्योम जी को भी बधाई हिंदी साहित्य के पुरस्कृत होने पर. आशा है, ब्लॉग जगत में उनकी सक्रियता दोबारा देखने को मिलेगी. संत जनों ने देश-दुनिया को भी एक अवार्ड दिला दिया है. धन्यवाद!


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शनिवार, जून 17, 2006

पहले अरबपति व्यवसायी, अब संतुष्ट किसान

स्टर्लिगोफ़इस बार एक और सच्ची कहानी जो धन और धन के बल पर हासिल झूठी प्रतिष्ठा को सुख-शांति छीन लेने वाला मायाजाल साबित करती है.

यह कहानी है गेरमान स्टर्लिगोफ़ की. पिछले कुछ महीनों से स्टर्लिगोफ़ की कहानी मीडिया, ख़ास कर रूसी मीडिया में आ रही थी. लेकिन अब लंदन से प्रकाशित संडे टाइम्स में छपने के बाद दुनिया भर में इसे चर्चा मिली है.

गेरमान स्टर्लिगोफ़ को रूस का पहला अरबपति माना जाता है. जब गोर्बाच्येव की नीतियों के चलते सोवियत संघ का विखंडन हुआ और रूस में कम्युनिस्ट नियंत्रण का अंत हुआ, तो अफ़रातफ़री और लूट-खसोट के उस माहौल में निर्धन पृष्ठभूमि वाले स्टर्लिगोफ़ ने देश का पहला कमॉडिटीज़ एक्सचेंज शुरू किया. इस उद्यम ने 24 साल की उम्र में ही उन्हें एक अरबपति बना दिया.

जल्दी ही स्टर्लिगोफ़ की कंपनी के दफ़्तर न्यूयॉर्क और लंदन में भी खुल गए. स्टर्लिगोफ़ अपने परिवार के साथ रूसी राजधानी मॉस्को के सबसे महंगे इलाक़े में चार मंज़िले बंगले में रहने लगे. उनके पास महंगी कारों का काफ़िला था, स्वयं के दो जेट विमान थे. मॉस्को में किसी के पास इतना पैसा हो और वह खुलेआम घूम सके ऐसा तो संभव ही नहीं. स्टर्लिगोफ़ को भी कुख़्यात रूसी माफ़िया ने अपना निशाना बनाया और मोटी रकम की माँग लगातार आने लगी. ऐसे में स्टर्लिगोफ़ ने पैसे देकर रूसी सुरक्षा बल के 60 कमांडो सैनिकों को अपनी सुरक्षा का भार सौंपा.

स्टर्लिगोफ़ ने देश का राष्ट्रपति बनने का भी प्रयास किया और व्लादिमीर पुतिन के ख़िलाफ़ चुनावपूर्व प्रचार अभियान में करोड़ों रूबल ख़र्च भी किए. हालाँकि उनके नामांकन को तकनीकी आधार पर रद्द कर दिया गया, और पुतिन को टक्कर देने की हसरत उनके दिल में ही रह गई. बाद में उन्होंने रूस के साइबेरियाई भाग के एक प्रांत का गवर्नर बनने की भी नाकाम कोशिश की.

आज स्टर्लिगोफ़ 39 साल के हैं और मॉस्को से 100 मील दूर एक निर्जन स्थान पर रहते हैं. तीन बेडरूम वाले उनके लकड़ी के घर में न बिजली है और न गैस आपूर्ति. यहाँ तक की खेत के बीचोंबीच पेड़ों के झुरमुट के बीच बने उनके घर तक पहुँचने के लिए सड़क तक नहीं है. पत्नी एलेना और पाँच बच्चों के साथ निकटतम पड़ोसी से सात मील दूर रह रहे स्टर्लिगोफ़ किसान की ज़िंदगी अपना कर बहुत ख़ुश हैं.

छात्र जीवन में कॉलेज की पढ़ाई छोड़ एक फ़ैक्ट्री में काम करने को मजबूर होने वाले स्टर्लिगोफ़ ने कहा, "जब साम्यवाद का अंत हुआ, मैं पैसा बनाना चाहता था. इतना पैसा जितना की बनाया जाना संभव हो."

उन्होंने कहा, "जब मैंने करोड़ों की रकम बना ली तो मुझे महसूस हुआ कि मॉस्को में धनपतियों का जीवन ग़ुलामी वाला है. दिन का हर मिनट तनावपूर्ण सौदेबाज़ी में या फ़ालतू की बैठकों में लग जाता था. ऐसी ज़िंदगी का कोई मतलब नहीं था."

स्टर्लिगोफ़ ने आगे कहा, "हम सोने के पिंजड़े में रह रहे थे. मैं अपने बच्चों को उस अनैतिक ज़िंदगी से दूर पालना चाहता हूँ. मैंने उस बनावटी ज़िंदगी से सदा के लिए मुँह मोड़ लिया है क्योंकि मैं चाहता हूँ कि मेरे बच्चे जीवन के सच्चे मूल्यों को जानें."

आज शहरी यहाँ तक कि गाँव के शोरगुल से भी दूर रह रहे स्टर्लिगोफ़ परिवार ने ख़ुद को जानबूझकर बाहरी दुनिया से काट रखा है. उनके घर में टेलीफ़ोन, टेलीविज़न, यहाँ तक कि रेडियो तक नहीं है. वह अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजते. पास के गाँव के शिक्षक बच्चों को पढ़ाने घर पर आते हैं. ऑर्थोडॉक्स ईसाई स्टर्लिगोफ़ स्वयं अपने बच्चों को धार्मिक शिक्षा भी देते हैं.

ट्रैक्टर, घोड़ा और मशीनगन

खेती के साथ-साथ गाय, सूअर और मुर्गी पालन करने वाले स्टर्लिगोफ़ परिवार के पास एक ट्रैक्टर है, एक घोड़ा है और एक मशीनगन है.

स्टर्लिगोफ़ और एलेनाशायद मशीनगन का नाम आने पर आप चौंकें. इस बारे में स्टर्लिगोफ़ का कहना है कि मॉस्को स्थित अपना महलनुमा मकान बेचने के बाद मिले पैसे से जब उन्होंने गाँव में एक बढ़िया आरामदेह फ़ार्महाउस बनाया तो पड़ोस के गाँव के कुछ शरारती तत्वों ने एक रात उसे जला कर राख में बदल दिया. स्टर्लिगोफ़ के अनुसार धनपतियों से रूसी किसानों की घृणा के कारण हमला किया गया होगा. अब एक पिस्टल तो हमेशा स्टर्लिगोफ़ के साथ रहता है और घर में एक मशीनगन ताकि आइंदा किसी हमले से निपटा जा सके. घर में सुरक्षा की एक और व्यवस्था भी है- स्टर्लिगोफ़ की सबसे बड़ी संतान 15 वर्षीया बेटी पलगया ने भी तीर-कमान के प्रयोग में कुशलता हासिल कर ली है.

एक समय 2500 लोगों को अपनी कंपनियों में नौकरी देने वाले स्टर्लिगोफ़ के खेत में उनके परिवार के अलावा तीन नौकर काम करते हैं. स्टर्लिगोफ़ ने अपना रहन-सहन बदलने से पहले अपनी पत्नी एलेना की राय नहीं ली, लेकिन नए माहौल से एलेना को कोई शिकायत नहीं है. वह कहती हैं कि वह स्टर्लिगोफ़ की पत्नी हैं, ये अलग बात है कि पहले वह व्यवसायी थे और अब एक किसान. एलेना को एकमात्र शिकायत घर में गर्म पानी की आपूर्ति नहीं होने को लेकर है.

स्टर्लिगोफ़ ने अपनी ज़िंदगी को अब गंभीरता से लेना शुरू किया है या नहीं, इस पर भले ही विवाद हो. लेकिन उन्होंने अपने बिज़नेस को कभी गंभीरता से नहीं लिया. स्टर्लिगोफ़ ने अपने कमॉडिटीज़ एक्सचेंज को अपने प्यारे कुत्ते एलिसा के नाम पर शुरू किया था. एक्सचेंज के कई विज्ञापनों में उन्होंने एलिसा से काम भी लिया. इससे पहले और बाद में भी उन्होंने कई अटपटे लेकिन मुनाफ़े वाले धंधे चलाए. स्टर्लिगोफ़ ने मॉस्को में सार्वजनिक स्थलों और स्टेशनों पर संगीत या कला के ज़रिए पैसा माँगने वाले कलाकारों की एक कोऑपरेटिव बनाई थी. इसी तरह उन्होंने ताबूत बनाने की एक कंपनी भी चलाई.

उनकी ताबूत कंपनी के विज्ञापनों ने रूसी समाज को हिला दिया था. देखिए कुछ नमूने- 'हमारे ताबूत में समाने के लिए आपको कसरत करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी.' 'ताज़ा लकड़ी से बने सुगंधित ताबूत.' 'सारे रास्ते हमारी ओर आते हैं.' 'यह आपका ताबूत है, इसे आपका इंतज़ार है.'

स्टर्लिगोफ़ के पैसे कहाँ गए? इस सवाल का स्पष्ट जवाब नहीं क्योंकि स्टर्लिगोफ़ ख़ुद पैसे और धन-संपत्ति के बारे में बात करने में दिलचस्पी नहीं लेते. सुनी-सुनाई बातों को मानें तो एक उत्तर है- राष्ट्रपति और गवर्नर बनने की तैयारी में उन्होंने पानी की तरह पैसे बहाए और कर्ज़ के चंगुल में फंस गए. एक और जवाब है- उन्हीं के कुछ कर्मचारियों ने घोटाला कर उन्हें कर्ज़ में डूबने पर मज़बूर कर दिया.

गुरुवार, जून 08, 2006

फ़ुटबॉल का विज्ञान (भाग- 3)

'हाउ टू स्कोर' में फ़ुटबॉल विशेषज्ञ केन ब्रे के अनुसार बड़े-बड़े मैचों में जीत-हार का फ़ैसला अक्सर 'सेट पीस' तय करते हैं.

सेट पीस यानि 'थ्रो-इन', 'कॉर्नर', 'फ़्री किक' और 'पेनाल्टी'. सेट पीस या सेट प्ले की व्यवस्था क्षणिक व्यवधानों के बाद खेल को दोबार पटरी पर लाने या खेल में रफ़्तार देने के लिए की गई है. हालाँकि अच्छी टीमें इसके आधार पर ही बड़े-बड़े मैच जीतती हैं.

यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि निरंतर अभ्यास से कोई टीम सेट पीस का भरपूर फ़ायदा उठा सकती है, और काँटे के मुक़ाबलों में गोल करने के अवसर बना सकती है. सेट पीस में सबसे रोचक है फ़्री किक, और गोल में बदलने वाली हर फ़्री किक के पीछे है शुद्ध विज्ञान.

यदि अटैक एरिया में कोई स्ट्राइकर सही फ़्री किक लेने में सफल रहता है तो गेंद को गोल में बदलने से रोकना लगभग असंभव ही होगा. किसी मैच जिताऊ डाइरेक्ट फ़्री किक में गेंद की गति 60 से 70 मील प्रति घंटा होनी चाहिए, गेंद की स्पिन पाँच से दस चक्कर प्रति सेकेंड की होनी चाहिए और गेंद की उठान 16 से 17 डिग्री की होनी चाहिए. यदि इन विशेषताओं वाली फ़्री किक ली गई तो गेंद पर एरोडायनमिक बलों के जादू के कारण 900 मिलिसेकेंड यानि एक सेकेंड से भी कम समय में गेद को नेट में पहुँचने से शायद ही रोका जा सकता है.


कोई फ़्री किक किस स्तर की है यानि उसके गोल में बदलने की संभावना है या नहीं, यह पहले 15 मिलिसेकेंड में ही तय हो जाता है जबकि बूट और गेंद का संपर्क होता है. फ़्री किक ले रहे स्ट्राइकर के सामने विरोधी टीम के खिलाड़ी 'वॉल' बन कर खड़े होते हैं. ऐसे में गोलकीपर को गेंद के दर्शन पहली बार जब होते हैं तो 400 मिलिसेकेंड का समय गुजर चुका होता है, और गेंद वॉल के ऊपर निकल रही होती है. गोलकीपर गेंद की दिशा और गति का अनुमान लगाने में कितनी भी जल्दी करे उसका दिमाग़ सारी सूचनाओं को प्रोसेस करने में कम से कम 200 मिलिसेकेंड का समय ले लेता है. इसके बाद नेट और गेंद के बीच अवरोध बनने के लिए उसके पास बचते हैं मात्र 300 मिलिसेकेंड. यदि सटीक फ़्री किक ली गई हो तो इतने कम समय में गोलकीपर के लिए गेंद को रोकना लगभग नामुमकिन हो जाता है.

अंतरराष्ट्रीय मैचों में 15 प्रतिशत फ़्री किक गोल में तब्दील हो जाते हैं क्योंकि वहाँ थियरी ऑनरि और डेविड बेकम जैसे फ़ुटबॉल के जादूगर जो होते हैं. (यहाँ एक रोचक तथ्य ये है कि अधिकतर स्ट्राइकर फ़्री किक में गेंद को साइड-स्पिन कराते हैं. लेकिन बेकम गेंद को हल्का टॉप-स्पिन दिलाने में सक्षम हैं. दूसरी ओर ऑनरि जैसे कुछ खिलाड़ी गेंद को वर्टिकल-स्पिन दिलाते हैं.)

जहाँ तक पेनाल्टी शॉट की बात है तो इसके पीछे भी विज्ञान है. पहले पेनाल्टी शॉट की सफलता दर की बात करते हैं: किसी मैच में निर्धारित अवधि के दौरान पेनाल्टी शॉट के गोल में बदलने की दर 80 प्रतिशत होती है. लेकिन अतिरिक्त समय में, ख़ास कर पेनाल्टी शूट आउट के समय यह दर गिर कर 75 प्रतिशत रह जाती है. (खेल आगे बढ़ते जाने के साथ-साथ गोलकीपर स्ट्राइकरों की चाल भाँपने लगते हैं, शायद इसीलिए बाद में पेनाल्टी शॉट को रोकने में उन्हें पहले से ज़्यादा सफलता मिलने की संभावना रहती है.)

लेकिन केन ब्रे की मानें तो गोलकीपर चाहे ओलिवर कान ही क्यों न हों, उनके पेनाल्टी शॉट रोकने की संभावना नहीं के बराबर रहती है, बशर्ते स्ट्राइकर गेंद को गोल एरिया के बचावरहित माने जाने वाले 28 प्रतिशत इलाक़े में डाले.


हो सकता है गोलपोस्ट के पास के निचले हिस्से में डाली गई गेंद को तेज़ी से छलांग लगाकर रोकना किसी सुपरफ़ास्ट गोलकीपर के लिए संभव हो जाए. लेकिन यदि गोल एरिया के बचावरहित हिस्से में गेंद कंधे की ऊँचाई पर डाली जाए, तो उसे रोकना लगभग नामुमकिन होगा.

सोमवार, जून 05, 2006

फ़ुटबॉल का विज्ञान (भाग-2)


फ़ुटबॉल विश्व कप शुरू होने को है लेकिन अभी भी प्रतियोगिता में भाग लेने वाली 32 टीमों में से कई यह तय नहीं कर पाई है कि वह किस फ़ॉर्मेशन पर भरोसा करे. पिछले सप्ताह ही इंग्लैंड ने हंगरी के ख़िलाफ़ दोस्ताना मुक़ाबले में अपने पारंपरिक 4-4-2 फ़ॉर्मेशन की जगह 4-5-1 को अपनाया.

फ़ॉर्मेशन यानि किसी टीम के लिए पूरे मैदान को तीन काल्पनिक भागों या ज़ोन्स (डिफ़ेंस, मिडफ़िल्ड और अटैक) में बाँटने के बाद हर भाग में तैनात खिलाड़ियों की गिनती. ज़ाहिर है इस गणित में गोलकीपर को छोड़ कर बाक़ी 10 खिलाड़ियों को शामिल किया जाता है.

लोकप्रिय फ़ॉर्मेशन हैं: 4-4-2, 4-3-3 और 4-5-1. इसके अलावा भी कई फ़ॉर्मेशन हो सकते हैं, मसलन 4-2-4, 3-5-2, 5-3-2 आदि.

फ़ॉर्मेशन के आधार पर ही खेल विशेषज्ञ ये आकलन करते हैं कि कोई टीम आक्रामक खेल खेलने में भरोसा रखती है, या रक्षात्मक खेल में.

किसी भी टीम के लिए मैदान के तीन काल्पनिक भागों में से हरेक में गेंद को अपने क़ब्ज़े में लेना महत्वपूर्ण होता है. लेकिन आख़िरी भाग यानि अटैकिंग ज़ोन में गेंद पर क़ब्ज़े का महत्व सबसे ज़्यादा है, क्योंकि यहाँ गेंद पर नियंत्रण से गोल की संभावना सबसे ज़्यादा होती है.

इसलिए बेहतरीन फ़ॉर्मेशन उसी को माना जाएगा जिसमें किसी टीम को गेंद पर क़ब्ज़ा रखने और उसे अटैकिंग थर्ड तक पहुँचाने के ज़्यादा अवसर होते हैं.

गेंद पर क़ब्ज़ा बनाए रखना संभव होता है पासिंग के ज़रिए.

'हाउ टू स्कोर' के लेखक केन ब्रे ने अपने रिसर्च में विभिन्न फ़ॉर्मेशनों में उपलब्ध पासिंग विकल्पों पर ग़ौर किया. (उन्होंने इस गणना में 40 मीटर से ज़्यादा दूर के पास को शामिल नहीं किया.) उन्होंने पाया कि 4-4-2 फ़ॉर्मेशन में 10 खिलाड़ियों के बीच कुल 66 तरह के पासिंग विकल्प मौज़ूद होते हैं. यह संख्या 4-3-3 फ़ॉर्मेशन के लिए 56, 4-2-4 के लिए 54 और 4-5-1 के लिए 62 होती है.(जहाँ तक कुल पासिंग की बात है तो एक मैच में कोई टीम औसतन 650 पास बनाती है.)


जहाँ तक गेंद को अटैकिंग थर्ड में पहुँचाने की बात है तो 4-2-4 फ़ॉर्मेशन में क़ब्ज़े में आने के बाद गेंद को अटैकिंग थर्ड में डालना औसत 15 प्रतिशत मामलों में संभव होता है. 4-3-3 फ़ॉर्मेशन में यह प्रतिशत होता है 13, जबकि 4-4-2 में 12 और 4-5-1 में 8 प्रतिशत. ज़ाहिर है 4-2-4 अटैकिंग खेल के लिहाज़ से सबसे उपयुक्त फ़ॉर्मेशन है लेकिन आजकल के तेज़ गति वाले खेल में कोई टीम मिडफ़िल्ड को कमज़ोर रखने की ज़ोख़िम मोल नहीं लेना चाहती है.


सबसे ज़्यादा लोकप्रिय फ़ॉर्मेशन 4-4-2 को माना जाता है. टीमें इस फ़ॉर्मेशन को इसलिए अपनाती हैं, कि इसमें भरपूर रक्षात्मक संभावनाएँ होने के साथ-साथ हमला करने के भी पर्याप्त मौक़े होते हैं. हालाँकि केन ब्रे की मानें तो उन टीमों की सफलता की ज़्यादा संभावना रहती है जो कि परिस्थितियों को देखते हुए एक फ़ॉर्मेशन से दूसरे में स्विच करने में सक्षम होती हैं.

शनिवार, जून 03, 2006

फ़ुटबॉल का विज्ञान (भाग-1)

फ़ुटबॉल विश्व कप 2006 के शुरू होने में सप्ताह भर भी नहीं बचे हैं. अगले एक महीने तक पूरी दुनिया फ़ुटबॉल के ज्वर में तपेगी. हर बार की तरह इस बार भी संभावित चैंपियन की सूची में ब्राज़ील की टीम को सबसे ऊपर रखा जा रहा है.

ब्राज़ील की टीम की बात हो तो इस बात का ज़रूर ज़िक्र किया जाता है कि यह टीम सही मायने में कलात्मक फ़ुटबॉल खेलती है. ब्राज़ील के खिलाड़ी मैदान पर गेंद के साथ डांस करते हैं, और ऐसा करते हुए विरोधी टीम के खिलाड़ियों को अपने इशारे पर नचाते भी हैं. यानि फ़ुटबॉल को एक लयबद्ध कलात्मक खेल के रूप में देखा जा सकता है, लेकिन इसका एक विस्तृत वैज्ञानिक आधार भी है. ब्रिटेन के बाथ विश्वविद्यालय से जुड़े विशेषज्ञ केन ब्रे की किताब 'हाउ टू स्कोर: साइंस एंड द ब्यूटिफ़ुल गेम' में इसी बात को रेखांकित किया है.

केन ब्रे सफल फ़ुटबॉल खिलाड़ियों के शारीरिक रूप से चुस्त-दुरुस्त रहने को सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं. उनका कहना है कि फ़ुटबॉल में किसी खिलाड़ी की कुशलता या स्टाइल का कोई मतलब नहीं, यदि वह बिना थके 90 मिनट तक खेल नहीं सके. और अब जबकि अतिरिक्त समय में मैच का खिंचना आम बात हो चली है, पूरी क्षमता से खेलने के लिए खिलाड़ियों में दमखम होना ज़रूरी है.

फ़ुटबॉल दौड़भाग वाला खेल है और कोई खिलाड़ी कितना दौड़ पाता है ये सीधे-सीधे इस बात पर निर्भर करता है कि वो कितना दमदार है. किस पोज़ीशन पर खेलने वाले खिलाड़ी को ज़्यादा दौड़ना पड़ता है इस बारे में पहली बार 1976 में ब्रिटेन के लिवरपुल जॉन मूरस विश्वविद्यालय में अध्ययन किया गया था. अध्ययन में पाया गया कि सर्वाधिक शारीरिक मेहनत मिडफ़िल्डर को करनी होती है. इस अध्ययन के अनुसार एक मिडफ़िल्डर 90 मिनट के खेल में 9.8 किलोमीटर दौड़ता है, एक स्ट्राइकर 8.4 किलोमीटर की दूरी तय करता है जबकि फ़ुलबैक खिलाड़ी 8.2 किलोमीटर भागता है. इसके अलावा सेंटरबैक डिफ़ेंडर 7.8 किलोमीटर दौड़ता है, जबकि मैदान के एक छोर पर डटे रहने को मज़बूर गोलकीपर भी मैच के दौरान आमतौर पर 4 किलोमीटर भाग लेता है.

ये तो बात थी तीन दशक पहले हुए एक अध्ययन की. इसे आज की स्थिति पर लागू किया जाए तो खिलाड़ियों के दमखम का महत्व और बढ़ा नज़र आता है. केन ब्रे की मानें तो मौज़ूदा तेज़ गति वाले फ़ुटबॉल में हर खिलाड़ी को तीन दशक पहले की तुलना में 30 प्रतिशत ज़्यादा दूरी तय करनी पड़ती है. मतलब एक तेज़-तर्रार मिडफ़िल्डर को आज एक मैच में 12.5 से 13 किलोमीटर तक भागना पड़ता है. (यहाँ एक रोचक तथ्य यह कि इतनी दूरी भागने के दौरान मात्र दो प्रतिशत दूरी में गेंद भी खिलाड़ी के साथ होती है.)


बात सिर्फ़ दौड़ने-भागने की ही रहती तो डेढ़ घंटे में 13 किलोमीटर दूरी तय करना कोई बड़ी बात नहीं. केन ब्रे पाँच दशक के फ़ुटबॉल पर नज़र डालने के बाद बताते हैं कि किसी मैच में एक खिलाड़ी तेज़ दौड़ने, टैकल करने, हेडर मारने, थ्रो करने और रुकने जैसे अलग-अलग एक्शन में एक हज़ार से ज़्यादा बार आता है. मतलब एक खिलाड़ी को हर पाँच से छह सेकेंड में एक अलग शारीरिक एक्शन से गुजरना होता है, और उसे औसतन हर डेढ़ मिनट में एक बार तेज़ गति से भागने की ज़रूरत पड़ती है. जहाँ तक क्षणिक आराम की बात है तो इसके लिए औसतन हर दो मिनट में तीन सेकेंड का मौक़ा मिलता है.

एक खिलाड़ी पूरे मैच के दौरान औसत व्यक्ति की दैनिक ज़रूरत की 66 प्रतिशत ऊर्जा या कैलोरी ख़र्च कर देता है. ऐसा शरीर में ग्लाइकोजेन की मौज़ूदगी के कारण ही संभव हो पाता है. ग्लाइकोजेन भोजन में मौज़ूद कार्बोहाइड्रेट्स से बनता है. खेल के दौरान दौड़भाग के चलते लीवर और माँसपेशियों में मौज़ूद ग्लाइकोजेन लगभग ख़त्म हो जाता है. लेकिन संतुलित आहार का सेवन करने और कार्बोहाइड्रेट की प्रचूरता वाले पेय पदार्थ पीने से चुक गए ग्लाइकोजेन की भरपाई 24 घंटे के भीतर की जा सकती है.