सोमवार, जनवरी 30, 2006

मौत के मुहाने से ब्लॉगिंग

ज़िंदगी की राह किसी निराशावादी के लिए मौत की राह होती है. मौत से सबका वास्ता पड़ना ही है. लेकिन मौत कब आएगी ये तो किसी को पता नहीं, इसलिए ज़िंदगी पर भरोसा रखने वाले, मेरी दृष्टि में, ज़्यादा सही हैं.

इसके उलट अगर मौत का दिन मुक़र्रर हो तो ज़िंदगी कैसे जीया जाए? -'ब्लॉगिंग करते हुए.' कम से कम यह जवाब तो किसी ने नहीं सोचा होगा. लेकिन अमरीका में बाल्टिमोर के वेरनॉन ली इवान्स ठीक यही कर रहे हैं. वेरनॉन की ज़िंदगी की सीमा तय की जा चुकी है. यदि कोई क़ानूनी अवरोध नहीं रहा तो उन्हें 6 फ़रवरी 2006 से शुरू होने वाले सप्ताह में किसी दिन मौत की नींद सुला दिया जाएगा.

दरअसल 1983 में दो लोगों को मौत के घाट उतार चुके वेरनॉन पिछले 22 साल से जेल में रहते हुए ज़िंदगी-मौत की क़ानूनी लड़ाई देख रहे हैं. वह लगातार कहते रहे हैं कि बंदूक का ट्रिगर उन्होंने नहीं दबाया था, लेकिन उनकी गर्ल-फ़्रैंड समेत कई प्रत्यक्षदर्शियों ने अदालत में उनके असल अपराधी होने के पक्ष में बयान दिया है. अदालत को इस आरोप में सच्चाई दिखी कि वेरनॉन ने ही एक मोटेल में इस हत्याकांड को अंज़ाम दिया था, और उन्होंने इसके लिए 9,000 डॉलर की सुपारी ली थी. मृतकों में से एक व्यक्ति नशीली दवाओं के एक मामले में गवाह बन सकता था, यानि वेरनॉन का गुनाह कहीं ज़्यादा गंभीर माना गया.

वेरनॉन का ब्लॉग मीट वेरनॉन मार्च 2005 में शुरू हुआ था. क़ानूनी लड़ाई प्रभावित होने के डर से बीच में इसे अपडेट नहीं किया जा रहा था, लेकिन अब सज़ा-ए-मौत लगभग तय हो जाने के बाद इस ब्लॉग में फिर से जान आ गई है.

वेरनॉन को जेल में इंटरनेट की सुविधा नहीं है. ऐसे में एक सज़ा-ए-मौत विरोधी कार्यकर्ता वर्जीनिया साइमन्स इस ब्लॉग का प्रबंधन करती हैं. ब्लॉग इंटरएक्टिव है. मतलब आप वेरनॉन से सवाल-जवाब कर सकते हैं. पाठकों के सवाल का प्रिंट वेरनॉन तक पहुँचाने और उनके जवाब ब्लॉग पर डालने का काम साइमन्स का है.

अदालत ने इससे पहले पिछले साल अप्रैल में वेरनॉन को मौत की नींद सुलाना तय किया था, लेकिन सफल अपील के बाद इसे टाल दिया गया. वेरनॉन के लिए काम कर रहे वकील एक बार फिर पूरी ताक़त झोंक चुके हैं. इन वकीलों की सफलता पर ही निर्भर करता है वेरनॉन का ज़िंदा रह पाना और एक अनूठे ब्लॉग का 10 फ़रवरी से आगे चल पाना.

शुक्रवार, जनवरी 27, 2006

चीन की दीवार में गूगल की ईंट

गूगल कंपनी नियमित रूप से सुर्खियों में रहती है. ज़्यादातर अपनी विशेषताओं के कारण, लेकिन कभी-कभी अपनी कमियों के कारण भी है. इस सप्ताह उसके हिस्से में ज़्यादातर नकारात्मक सुर्खियाँ ही रही हैं.

ऐसा होना ही था, क्योंकि उच्च नैतिक मूल्यों का दम भरने वाली कंपनी चीन सरकार के सामने घुटने टेकते हुए सर्च रिजल्टों की चुनिंदा फ़िल्टरिंग को तैयार हो गई. नैतिकता पर व्यावसायिक मज़बूरियाँ हावी हुईं और शुरूआत हुई चीन केंद्रित गूगल साइट www.google.cn की. इसी के साथ नकारात्मक सुर्खियों में नहाई गूगल ने दुनिया के सबसे तेज़ी से फैलते इंटरनेट बाज़ार में क़दम रख दिया है.

सवाल यह है कि क्या इससे किसी का नुक़सान हुआ है? इसका जवाब देती है नीचे की दो तस्वीरें- पहले में है google.com का सर्च रिजल्ट, और दूसरे में google.cn का. मैंने एक ऐसा सर्च टर्म चुना था जिससे चीन सरकार को मिर्ची लगती है यानि Falun Gong. जैसा कि हम जानते हैं फ़ालुन गोंग योग जैसे व्यायाम को बढ़ावा देने वाला एक संप्रदाय है जिसे चीन ने प्रतिबंधित कर रखा है.



एक ही सर्च टर्म के लिए जहाँ google.com ने 27.6 लाख परिणाम दिए, वहीं google.cn ने बहुत-बहुत कम यानि मात्र 12,300. इतना ही नहीं सर्च की क़्वालिटी में भी भारी अंतर है- google.com ने जहाँ फ़ालुन गोंग समर्थकों के पृष्ठों को ऊँची रैंकिंग दी है, वहीं google.cn में हर पेज पर इस अहिंसक संप्रदाय के विरोधी ही विरोधी नज़र आते हैं.

तो क्या 'बुरा मत बनो' और 'सबके लिए उपयोगी सूचना' जैसे सूत्र वाक्यों का सहारा लेने वाली गूगल ने माइक्रोसॉफ़्ट और याहू जैसी मुनाफ़ाखोर कंपनियों की पंक्ति में रहना स्वीकार कर लिया है? मेरे ख़्याल से अभी इसका दोटूक जवाब देने का वक़्त नहीं आया है. कोई शक नहीं कि स्वतंत्र इंटरनेट का पर्याय बनी गूगल के पाँव डगमगाए हैं. लेकिन जब तक गूगल के नैतिकता भरे नारों के बिल्कुल बेमानी हो जाने और मुनाफ़ाखोरी उसका एकमात्र लक्ष्य होने की बात बिल्कुल स्पष्ट नहीं हो जाती है उसे संदेह का लाभ मिलना चाहिए.

सोमवार, जनवरी 23, 2006

राष्ट्रपति का स्वेटर

बोलीविया में एवो मोरालेस का राष्ट्रपति बनना कई दृष्टि से महत्वपूर्ण है. एवो ज़मीन से जुड़े नेता हैं, वो देश में अमीरी-ग़रीबी की खाई को पाटने का सपना देखते हैं, वो अमरीकी चौधराहट के ख़िलाफ़ सीना ठोंक कर बोलने की हिम्मत रखते हैं, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के षड़यंत्र को समझने की दृष्टि है उनमें और इससे भी ऊपर वो देश की सत्ता संभालने वाले पहले मूल बोलीवियाई(इंडियन या आदिवासी) हैं.

अमरीका चाहता है कि बोलीविया के किसान कोका का उत्पान पूरी तरह रोक दें क्योंकि इसका कोकीन बनाने में प्रयोग होता है. एवो का तर्क है कि बोलीवियाई कोका की कितनी मात्रा कोकीन में बदलती है ये तो अध्ययन का विषय हो सकता है, लेकिन इस तथ्य से कोई इनकार नहीं कर सकता कि बोलीविया के मूल निवासियों के जीवन में कोका पत्तियों के दर्जनों उपयोग हैं. उनका एक तर्क ये भी है कि कोका के हानिकारक उपयोग के प्रति जागरूक अमरीका अपने यहाँ वर्जीनिया में तंबाकू की खेती और कैलीफ़ोर्निया में अंगूर की खेती(शराब उद्योग का कच्चा माल) क्यों नहीं बंद कराता.

लेकिन आपको आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि पश्चिमी लोकप्रिय मीडिया ने उनकी इन ख़ासियतों पर विश्लेषणात्मक रिपोर्ट देने के बजाय पिछले दिनों इस बात को तूल दिया कि एवो मोरालेस राष्ट्रपति चुने जाने के बावजूद आमलोगों जैसा पहनावा धारण करते हैं, सूट-बूट की जगह स्वेटर पहनते हैं.

थोड़ा पीछे मुड़कर देखें तो भारतीय प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के देसी पहनावे को लेकर भी इसी तरह चटखारे लेकर ख़बरें लिखी जाती थीं. ख़ासकर जूते की जगह चप्पल पहनने की उनकी आदत भारतीय आभिजात्य वर्ग को भी मज़ाक लगता था. थोड़ा और पीछे मुड़कर देखें तो गांधीजी के पहनावे पर चर्चिल की अनेक भद्दी टिप्पणियाँ किताबों में दिख जाएँगी. (बड़े और महान लोगों को छोड़ अपनी ही बात करूँ तो शर्ट को पैंट में खोंसकर नहीं पहनने की आदत के कारण कई दोस्तों को मैं थोड़ा गँवार-सा दिखता हूँ. ये शुभचिंतक ऐसा खुलकर तो नहीं कहते लेकिन उनकी जलेबीनुमा टिप्पणियों को सीधा करके देखने पर उनकी राय स्पष्ट हो जाती है.)

ख़ैर, अभी बात एवो मोरालेस पर ही केंद्रित रखते हैं. लैटिन अमरीका के सबसे ग़रीब देश का राष्ट्रपति चुने जाने के बाद उन्होंने विभिन्न देशों के राष्ट्राध्यक्षों और नेताओं से मुलाक़ात की. इन नेताओं में वेनेज़ुएला के राष्ट्रपति ह्यूगो शावेज़, क्यूबा के राष्ट्रपति फ़िडेल कैस्ट्रो, चीन के प्रधानमंत्री हु जिंताओ और स्पेन के प्रधानमंत्री होज़े लुइस रोड्रिग्ज़ ज़पातेरो शामिल हैं. ज़ाहिर है इन मुलाक़ातों में एवो मोरालेस वही बने रहे जो कि वो हैं यानि एक आम बोलीवियाई. उन्होंने सूट-बूट के बजाय स्वेटर पहनने की अपनी आदत को क़ायम रखा.

लेकिन जब स्पेन के राजा हुआन कार्लोस द्वितीय से मुलाक़ात के दौरान भी एवो ने ख़ुद को ऑरिजनल एवो बनाए रखा तो स्पेन के दक्षिणपंथी मीडिया का सब्र का पैमाना छलक गया. रूढ़ीवादी अख़बार एबीसी में एक लेखक ने टिप्पणी की- क्या मोरालेस को गहरे रंग का एक सूट उधार देने वाला कोई नहीं है? संतोष की बात है कि इस बेहूदे सवाल का जवाब दिया स्पेन के ही वामपंथी रुझान वाले अख़बार अल पेइस ने यह कह कर कि एवो का स्वेटर गुमनामी के ख़िलाफ़ एक बुना हुआ ऐलान है. एल पेइस के स्तंभकार मैनुएल राइवस लिखते हैं- लैटिन अमरीकी नेताओं की पीढ़ियाँ अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक की नीतियों को ओढ़ती रही हैं, ऐसे में मोरालेस ने दिखा दिया है कि वो जनता के प्रतिनिधि हैं.

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि एवो मोरालेस के स्वेटरों में लाल, धूसर, नीली और सफ़ेद पट्टियों वाला स्वेटर उनका ट्रेडमार्क बन गया है. बाज़ार पर नज़र रखने वाले गिद्धों को यह बात तुरंत समझ में आ गई और एक अमरीकी परिधान कंपनी ने एवो फ़ैशन सिरीज़ शुरू करने की खुली इच्छा ज़ाहिर की है. कंपनी ने एवो स्वेटर बनाना शुरू भी कर दिया. लेकिन अमरीकी एवो स्वेटर पहनने वाले उपभोक्ताओं को शायद पता नहीं होगा कि बोलीवियाई राष्ट्रपति का स्वेटर एंडीज़ पहाड़ों की ऊँचाइयों(जहाँ एक गाँव में उनका जन्म हुआ था) से आने वाले अलपासा ऊन का बना और हाथ से बुना होता है, न कि फ़ैक्ट्रियों में सिंथेटिक धागों से बना स्वेटर.

एवो मोरालेस कितने निर्धन परिवार से हैं यह इस तथ्य से जाना जा सकता है कि उनके सात में से चार भाई-बहन शैशवावस्था में ही कुपोषण के कारण दुनिया छोड़ गए. एक ग़रीब देश के राष्ट्रपति के रूप में एवो मोरालेस दुनिया के स्वयंभू चौधरी अमरीका से कितने दिनों तक पंगा ले सकते हैं ये तो देखने वाली बात होगी, लेकिन उनके बुलंद इरादों की दाद देनी ही पड़ेगी.

शनिवार, जनवरी 21, 2006

आबादी का रोचक गणित

दुनिया की बढ़ती आबादी से चिंतित रहने वालों के लिए एक अच्छी ख़बर...बहुत ही अच्छी ख़बर यह कि हम 10 अरब के आँकड़े से आगे नहीं बढ़ेंगे. मतलब दुनिया की आबादी में स्थायित्व आने वाला है. ये कोई दूर की कौड़ी नहीं है, बल्कि संयुक्त राष्ट्र के जनसंख्या प्रकोष्ठ का आकलन है. इस आकलन के अनुसार अगली दो शताब्दी में मानव आबादी बढ़ते-बढ़ते 10 अरब तक पहुँच जाएगी, लेकिन उससे आगे नहीं बढ़ेगी.

आबादी के बारे में पिछले दिनों ब्रिटेन के एक आर्थिक विशेषज्ञ गैविन डेविस का रोचक विश्लेषण पढ़ने को मिला. उनकी मानें तो लंबे दौर मे यानि आज से सैंकड़ो साल बाद जब इतिहासकार पीछे मुड़ कर देखेंगे तो बीसवीं सदी को सबसे ज़्यादा जिस बात के लिए याद किया जाएगा वो है जनसंख्या वृद्धि. मतलब विश्व युद्ध, चंद्रयात्रा, गांधी, आइंस्टाइन, माओ, पेले, तेंदुलकर, चर्चिल, हिटलर, स्तालिन, बुश आदि व्यापक मानव इतिहास के किसी कोने में होंगे जबकि आबादी बढ़ने की घटना बिना शक पहले नंबर पर होगी.

हो भी क्यों नहीं मानव इतिहास में बीसवीं सदी जितनी जनसंख्या वृद्धि न तो कभी हुई थी और न ही आगे कभी होगी.

आँकड़ों को देखें तो दुनिया की जनसंख्या ने 1800 ईस्वी में एक अरब का आँकड़ा पार किया. एक से दो अरब पहुँचने में लगे 127 साल, दो से तीन अरब का आँकड़ा अगले 34 साल में पूरा हुआ. दुनिया तीन से चार अरब की आबादी तक पहुँची 13 साल में, चार से पाँच अरब पहुँचने में भी 13 साल ही लगे, इसके बाद की एक अरब आबादी जुड़ी 12 साल में. मतलब 1999 ईस्वी में हम छह अरब का आँकड़ा पार कर चुके थे.

इस तरह बीसवीं सदी में दुनिया की आबादी में 4.31 अरब की बढ़ोत्तरी हुई. यह इससे ठीक पहले यानि 19वीं सदी में हुई बढ़ोत्तरी से सात गुना ज़्यादा है.

अब आगे का पैटर्न क्या रहेगा? इस सवाल का जवाब संयुक्त राष्ट्र के जनसंख्या विशेषज्ञ इस तरह देते हैं- आबादी के छह से सात अरब होने में लगेंगे 14 साल. लेकिन इसके बाद यह अंतराल बढ़ने लगेगा. सात से आठ अरब होने में लगेंगे एक साल ज़्यादा यानि 15 साल, आठ से नौ अरब तक पहुँचा जाएगा 26 वर्षों में, जबकि नौ से दस अरब तक पहुँचने में लगेंगे कोई 129 साल. मतलब जितनी आबादी पिछली सदी में बढ़ी, आगे उतनी बढ़ोत्तरी होने में दो शताब्दी लगने वाली है.

संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि 10 अरब तक पहुँचने के बाद दुनिया की आबादी में स्थायित्व आ जाएगा. ऐसा क्यों होगा? इसके पीछे एक सरल सिद्धांत है- किसी भी विकासशील देश में सबसे पहले मृत्यु दर में कमी देखने को मिलती है, फिर दीर्घावधि के विकास के साथ जन्म दर में कमी आती है. जब जन्म दर प्रति महिला दो बच्चे की दर पर आ जाती है तो आबादी के बढ़ने की रफ़्तार कम होनी शुरू हो जाती है. कई दशकों तक यह स्थिति बने रहने पर अंतत: उस देश की आबादी में स्थायित्व आ जाता है.

अधिकांश विकसित देशों में जनसंख्या स्थायित्व की प्रक्रिया में आ चुकी है. इटली जैसे देश में तो औसत जन्म दर प्रति महिला 1.3 तक आ पहुँची है. अधिकांश विकासशील देशों में भी जन्म दर घटने लगी है लेकिन अब भी कमी की यह दर बहुत धीमी है. विशेषज्ञों की मानें तो 2050 तक विकसित देशों की कुल जनसंख्या अपरिवर्तित ही रहेगी यानि 1.2 अरब. लेकिन विकासशील देशों की कुल आबादी इस दौरान 5.2 अरब से आगे बढ़ कर 7.8 अरब तक पहुँच सकती है.

बुधवार, जनवरी 18, 2006

गूगल का मुक़ाबला

सर्च इंजन की दुनिया पर गूगल के आधिपत्य से कोई इनकार नहीं कर सकता. ताज़ा आंकड़े को ही देखें तो पिछले नवंबर में अमरीका में सर्च इंजन सेक्टर का 40 फ़ीसदी हिस्सा गूगल के क़ब्ज़े में था. माना जाता है कि अमरीका से बाहर गूगल का झंडा इससे भी कहीं ज़्यादा बुलंद है.

अमरीका की ही याहू और माइक्रोसॉफ़्ट जैसी कंपनियाँ करोड़ों डॉलर ख़र्च करने के बावजूद गूगल का बाल बाँका नहीं कर पाई हैं. लेकिन सब कुछ योजनानुसार चला तो अगले दो-एक हफ़्ते में गूगल को पहली वास्तविक चुनौती मिल सकती है. और चुनौती देने का काम करेंगे यूरोप के दो बड़े देश फ़्रांस और जर्मनी, और इन दोनों देशों की शक्तिशाली कंपनियाँ.

चर्चा के केंद्र में है क़्वैरो परियोजना. लैटिन भाषा के शब्द क़्वैरो(Quaero) का मतलब होता है- ढूंढना, खोजना या तलाश करना. क़्वैरो परियोजना को फ़्रांस के राष्ट्रपति ज्यॉक शिराक़ की अमरीकी प्रौद्योगिकी का सामना करने की दृढ़ इच्छा का मूर्त रूप माना जा सकता है. पिछले साल उन्होंने यूरोपीय सर्च इंजन का विचार सामने रखा था लेकिन इसके बारे में थोड़ी-बहुत जानकारी अब जाकर बाहर आनी शुरू हुई है. और छन कर आ रही ख़बरों की मानें तो अगले दो-एक सप्ताह में क़्वैरो के बारे में विस्तृत जानकारी सामने आ सकती है.

अब तक मिली जानकारी के आधार पर यह कहा जा सकता है कि फ़्रांस और जर्मनी की इस परियोजना को सरकारी क्षेत्र और निजी क्षेत्र की साझेदारी के आधार पर चलाया जाएगा जो कि यूरोप की बड़ी योजनाओं के लिए कोई नई बात नहीं है. दोनों देशों की सार्वजनिक क्षेत्र की दूरसंचार कंपनियों फ़्रांस टेलीकॉम और डॉयच टेलीकॉम के अलावा थॉमसन और सीमेन्स जैसी निजी क्षेत्र की शक्तिशाली कंपनियाँ भी इसमें बराबर की साझीदार होंगी. क़्वैरो एक टेक्स्ट आधारित सर्च इंजन न होकर मल्टीमीडिया आधारित सर्च इंजन होगा. मतलब इसमें स्पीच और इमेज रिकॉग्निशन तकनीक का खुल कर प्रयोग होगा. यानि क़्वैरो चित्र, वीडियो, ऑडियो और टेक्स्ट के अनुवाद और इंडेक्सिंग का काम बख़ूबी कर सकेगा.

अभी तक उपलब्ध जानकारी के अनुसार क़्वैरो परियोजना पर अगले दो से चार वर्षों में एक से दो अरब यूरो ख़र्च किया जाएगा. फ़्रांस की तरफ़ से तो क़्वैरो के लिए पूरी तैयारी है. इंतजार है जर्मन कंपनियों और वहाँ की सरकार की पूर्ण सहमति, तथा यूरोपीय संघ से हरी झंडी मिलने भर का.

यूरोपीय देश पहले भी जीएसएम मोबाइल प्लेटफ़ॉर्म और एयरबस जैसी कई प्रमुख परियोजनाओं को पूरा कर अमरीका और अमरीकी कंपनियों के प्रभुत्व को सफलतापूर्वक चुनौती दे चुके हैं. अभी पिछले महीने ही यूरोप की अपनी जीपीएस प्रणाली गैलीलियो के निर्माण की शुरूआत हो चुकी है. ऐसे में क़्वैरो परियोजना को संदेह की दृष्टि से देखने वालों की संख्या ज़्यादा नहीं होनी चाहिए.