सोमवार, अक्तूबर 31, 2005

कामसूत्र का नया अध्याय

वात्स्यायन अभी जीवित होते तो शायद अपनी लोकप्रिय किताब कामसूत्र में एक नया चैप्टर जोड़ने पर विचार कर रहे होते. यह अध्याय यौन-क्रीड़ा के विभिन्न आसनों से ही जुड़ा होता, लेकिन बिल्कुल ही नए क़िस्म के आसन. क्योंकि बात अंतरिक्षयात्रा के दौरान सेक्स की संभावनाओं की हो रही है.

अंतरिक्षयात्री भी मानव ही हैं, लेकिन हमारे जैसे मामूली लोगों की तरह उनके पाँव सतह पर मज़बूती से नहीं पड़ते. अंतरिक्ष यात्राओं के दौरान उन्हें भारहीनता की स्थिति में रहना पड़ता है, क्योंकि वे धरती के गुरुत्वाकर्षण के बिना रह रहे होते हैं. जब आपके पाँव सतह पर टिक नहीं रहे हों, वैसी स्थिति में कामसूत्र के लोकप्रिय आसनों का कोई ख़ास महत्व नहीं रह जाता है.

ये जाना-माना तथ्य है कि अंतरिक्षयात्रियों को किसी मिशन के दौरान सेक्स की मनाही होती है. हो भी क्यों नहीं. किसी एस्ट्रोनॉट के दिल की एक-एक धड़कन पर मिशन कंट्रोल वालों की निगरानी रहती है क्योंकि न सिर्फ़ महत्वपूर्ण प्रयोगों को पूरा करने, बल्कि ख़ुद एस्ट्रोनॉट को सही-सलामत रखने की चुनौती जो होती है. और सेक्स के दौरान मानव शरीर में होने वाली उथल-पुथल ना जाने अंतरिक्ष में क्या स्थिति बना दे.

एक और समस्या है:- वैज्ञानिकों को अभी इस बात का ज़्यादा अंदाज़ा नहीं है कि अंतरिक्ष में ठहरा गर्भ धरती पर किस तरह के गुण-अवगुण वाले बच्चे के जन्म का कारण बन सकता है. आप कह सकते हैं कि अंतरिक्ष यात्री सेक्स के दौरान गर्भनिरोधक का सहारा ले सकते हैं, लेकिन जब सेक्स हार्मोन्स ज़ोर मार रहे हों तो कई बार गर्भनिरोधकों की बात याद नहीं रख जाती. आप कहेंगे, यदि गर्भ ठहर ही जाता है तो धरती पर आने के बाद उससे मुक्ति पा ली जाएगी. सैद्धांतिक रूप से ऐसा संभव है, लेकिन सिद्धांतत: ही सही, समान मानवाधिकारों के इस युग में कोई एस्ट्रोनॉट-युगल बच्चा जनने के अधिकार को लेकर अदालत की राह भी तो पकड़ सकता है.


चित्र: भारहीनता का खेल

ख़ैर, आइए इस सारे विवाद की जड़ पर. अमरीका के नेशनल एकेडमी ऑफ़ साइंसेज के एक अध्ययन में कहा गया है कि अंतरिक्ष में सेक्स के सवाल से समय रहते नहीं निपटा गया तो चाँद और मंगल पर भविष्य में भेजे जाने वाले मानव मिशनों के दौरान गड़बड़ियाँ सामने आ सकती हैं. न्यू साइंटिस्ट के ताज़ा अंक में इस अध्ययन का ज़िक्र किया गया है.

अमरीकी अंतरिक्ष एजेंसी, नासा से इस मसले पर गंभीरता से विचार करने की अपील करते हुए नेशनल एकेडमी ऑफ़ साइंसेज की रिपोर्ट लिखने वाली टीम के सदस्य और यूनिवर्सिटि ऑफ़ साउदर्न कैलिफ़ोर्निया के मेडिकल एंथ्रोपोलोजिस्ट लॉरेंस पैलिंकस कहते हैं, "दीर्घावधि के अंतरिक्ष मिशनों की संभावनाओं को देखते हुए सेक्सुअल्टि के सवाल को नज़रअंदाज़ करना मुश्किल है."

पैलिंकस की चिंताओं से सहमति जताते हुए कैलिफ़ोर्निया में ही ओकलैंड स्थित यौन संबंधों से जुड़े मसलों के विशेषज्ञ मनोविश्लेषक रिन्क्लेब एलिसन कहते हैं, "पार्टनर बनाने और सेक्स से जुड़ी मूल भावनाओं की बात करें तो मानव आदिमकालीन स्थिति से आगे नहीं जा पाया है."

एलिसन का मतलब साफ़ है कि मानवीय यौन भावनाओं को पूरी तरह नियंत्रित करना लगभग असंभव है. इसका उदाहरण 2000 की उस घटना में देखा भी जा सकता है जब अंतरिक्ष यात्रा के लिए भारहीनता की आठ महीने तक चलने वाली ट्रेनिंग के दौरान एक रूसी(पुरुष) और एक कनाडियन(महिला) वैज्ञानिकों को अलग-अलग कक्षों में अभ्यास कराने की व्यवस्था करनी पड़ी थी. दरअसल दो बार रूसी वैज्ञानिक को कनाडियन रिसर्चर को चूमने की अनधिकृत कोशिश करते पकड़ा गया था.

पैलिंकस और ऐलिसन दोनों ही लंबे अंतरिक्ष मिशनों के दौरान सेक्स की संभावनाओं को तलाशने के पक्षधर हैं. पैलिंकस का मानना है कि सेक्स के सहारे अंतरिक्ष यात्रियों में स्थायित्व और सब कुछ सामान्य होने की भावना घर कर सकेगी. इसी तरह ऐलिसन का मानना है कि सेक्स और अन्य यौन-क्रीड़ाओं के ज़रिए एस्ट्रोनॉट्स लंबी यात्राओं के दौरान बोरियत और चिंताओं से निज़ात पा सकेंगे.

ऐलिसन ने कहा है कि नासा को दुनिया से बाहर दुनियादारी की व्यावहारिक समस्याओं पर विचार शुरू कर देना चाहिए. उन्होंने समस्याओं में से कुछ का उदाहरण दिया, "भारहीनता की स्थिति में कैसे सेक्स किया जा सकता है? प्राइवेसी भी एक समस्या होगी क्योंकि हर अंतरिक्ष यात्री के दिल की धड़कन और शरीर के तापमान तक पर भी हमेशा निगरानी रहती है."

यहाँ नासा के सलाहकार रहे जी. हैरी स्टाइन की किताब लिविंग इन स्पेस का ज़िक्र करना उचित होगा.स्टाइन ने लिखा है कि अल्बामा के मार्शल स्पेस फ़्लाइट सेंटर में प्रयोगों के दौरान पाया गया कि भारहीनता की स्थित में सेक्स संभव तो है, लेकिन यह बहुत ही मुश्किल काम है. उनकी माने तो कोई तीसरा अंतरिक्ष यात्री सेक्स करने के इच्छुक जोड़ी में से एक को सहारा दे तब शायद काम कुछ आसान हो जाएगा. वैसे यह भी बताता चलूँ कि स्टाइन अल्बामा में जिन आधिकारिक और ग़ैरआधिकारिक प्रयोगों की बात करते हैं उनकी सच्चाई संदिग्ध मानी जाती है.

इसी तरह विज्ञान से जुड़ी रिपोर्टों के लिए मशहूर फ़्रांसीसी लेखक पिएरे कोहलर ने कुछ वर्ष पहले इस कथित रहस्योदघाटन से सनसनी फैला दी थी कि अमरीकी और रूसी वैज्ञानिकों ने भारहीनता की स्थिति में सेक्स के ऊपर प्रयोग किया है. कोहलर ने द फ़ाइनल मिशन: मीर, द ह्यूमैन एडवेंचर में अमरीका और रूस सरकारों के गोपनीय आवरण को छिन्न-भिन्न करने की भूमिका बनाते हुए लिखा है कि 1996 में एक शटल मिशन के दौरान कुल 20 सेक्स आसनों को आजमाया गया ताकि टॉप-टेन पोज़ीशन्स चुने जा सकें. कोहलर की मानें तो चुने गए 10 आसनों में से मात्र चार ऐसे थे जो कि बिना किसी तीसरे व्यक्ति या मेकेनिकल उपकरणों(स्पेशल बेल्ट, नली आदि) की सहायता के संभव हैं. उन्होंने एक और सनसनीखेज बात बताई है कि धरती पर सबसे लोकप्रिय मिशनरी सेक्स पोज़ीशन को भारहीनता की स्थिति में आज़माना संभव नहीं है. न तो रूसी और न ही अमरीकी सरकार ने इस रहस्योदघाटन की सच्चाई की पुष्टि की है.

बुधवार, अक्तूबर 26, 2005

जब धन बन जाता है धेला

कहते हैं कि बुरा दिन आता है तो सारी धन-दौलत रखी रह जाती है. इसका ताज़ा उदाहरण है कुछ महीनों पहले तक रूस के सबसे धनी व्यक्ति मिखाइल खोदरकोव्स्की का. माना जाता है कि अब भी यूकोस तेल कंपनी के इस पूर्व प्रमुख के दुनिया भर के बैंक खातों में कई अरब डॉलर हैं.

राजधानी मास्को में एक किलेनुमा घर में रहने वाले खोदरकोव्स्की इन दिनों हैं तो रूस में ही लेकिन अपने परिजनों से लगभग 5,000 किलोमीटर दूर. दरअसल, वित्तीय अनियमितताओं के आरोप में दोषी पाए गए खोदरकोव्स्की दो साल से जेल में हैं और पिछले दिनों उन्हें चीन की सीमा से सटे शहर क्रैसनोकामेन्सक की एक जेल में डाल दिया गया है. खोदरकोव्स्की बाकी छह साल की सजा YaG 14/10 नामक जेल में छोटे स्तर के चोरों और गिरहकटों के साथ गुजारेंगे. हालाँकि भाग्य ने उनका साथ दिया तो वे चार साल बाद पैरोल पर रिहा भी हो सकते हैं.

पश्चिमी देशों की माने तो खोदरकोव्स्की को सरकार पर रूसी पाइपलाइनों के निजीकरण का अनुचित दबाव बनाने और राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के राजनीतिक विरोधियों पर धनवर्षा करने का ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ा है. हालाँकि आम रूसियों(मास्को और सेंट पीटर्सबर्ग से बाहर रहने वाले) से बात करें तो वे एक सुर से कहेंगे कि 42 वर्षीय खोदरकोव्स्की जैसे धनकुबेरों ने राष्ट्रपति बोरिस येल्तिसन के कार्यकाल के अंतिम दिनों में सरकारी संसाधनों की लूट से अपना साम्राज्य खड़ा किया है. इस सरकारी लूट की मार रूस के ग़रीबों पर पड़ी है. सरकार के हाथों से भारी मात्रा में संसाधन निकल जाने के बाद जनता को मिलने वाली सरकारी सहायता में लगातार कटौती होती गई है.

ख़ैर, खोदरकोव्स्की के पास अब भी बहुत धन है और उनकी पत्नी इना और माँ मेरिना निजी जेट से पाँच हज़ार किलोमीटर की यात्रा कुछ घंटों में तय कर नियमित रूप से उनसे मिल सकती हैं. वकीलों की फ़ौज तो क्रैसनोकामेन्सक शहर में डेरा डाले रहेगी ही. लेकिन ख़ुद खोदरकोव्स्की क्या कर रहे होंगे? तो भई, अधिकारियों ने उनके साथ थोड़ी नरमी बरती है और उन्हें दर्जनों पत्र-पत्रिकाएँ और जर्नल्स मँगाने की अनुमति दी है. कहा जा रहा है खोदरकोव्स्की साहब किसी विषय(बताया नहीं है) पर पीएचडी की तैयारी करेंगे.

लेकिन खोदरकोव्स्की को पढ़ाई के लिए समय निकालना होगा क्योंकि उन्हें जेल(जो कि ज़ार निकोलस के ज़माने का श्रम शिविर है) में बाकी क़ैदियों के समान काम करना पड़ेगा. काम के बदले उन्हें रोज़ 65 रूबल मिलेंगे यानि क़रीब 100 रुपये. इसमें से आधा उनकी ख़ुराक पर ख़र्च होगा. बाकी 30-35 रूबल से वो जेल के अंदर की दुकान से कुछ ख़रीद सकेंगे. काम उन्हें कुछ भी करना पड़ सकता है- वर्दी सीना, गाय पालना या फिर सूअरों की देखभाल करना. अभी वहाँ पाँच डिग्री सेल्सियस तापमान है जो कि कुछ ही दिनों में माइनस में चला जाएगा और ज़ोरदार सर्दी के दिनों में -40 सेल्सियस तक.

चित्र: YaG 14/10 जेल, क्रैसनोकामेन्स्क, रूस

यहाँ अपने देश की स्थिति से तुलना करें तो सबसे धनी आदमी की तो बात ही छोड़िए, घोटालों पर घोटाला करने वाले एक छुटभैया नेता तक का बाल बाँका नहीं हो पाता. और धनकुबेरों की तो छोड़िए, दो नंबर के कामों से पैसा कमाने वाला कोई धनपशु अपनी गाड़ी से चार-छह लाचार ग़रीबों को बिना कारण कुचल कर मार दे तो भी उसका कुछ नहीं होता.

(भारत में विस्तृत क़ानूनी प्रावधान उपलब्ध हैं, लेकिन वो दिन कब आएगा जब क़ानून समदृष्टि से न्याय करेगा? शायद अभी वक़्त लगेगा जब भारत में भी ग़रीब-अमीर, वोटर-नेता और निर्बल-बाहुबली क़ानून की नज़र में एक समान अधिकारों वाले हो सकेंगे.)

शनिवार, अक्तूबर 22, 2005

एपोफ़िस और तोरिनो पैमाना


अभी कश्मीर में भयानक भूकंप आया और एक बार फिर आम लोगों की ज़ुबान पर रिक्टर पैमाने का नाम चढ़ गया. कोई मुज़फ़्फ़राबाद के पास केंद्रित इस भूकंप को रिक्टर पैमाने पर 7.6 बता रहा था तो कोई 7.8 या और ज़्यादा.

इसी तरह अमरीका में तबाही मचाने वाले कैटरीना तूफ़ान ने जनसामान्य को फिर से याद दिलाया कि तूफ़ानों की एक से पाँच तक की कैटगरी के क्या मायने होते हैं.

लेकिन हमें नहीं लगता प्राकृतिक आपदा के एक और अहम पैमाने 'तोरिनो' की आमलोगों को ज़्यादा जानकारी है. जानकारी हो भी कैसे, क्योंकि इस पैमाने से जुड़ी कोई तबाही अभी हमें देखने को जो नहीं मिली है. भगवान न करे ऐसा कभी हो क्योंकि ऐसी तबाही में हज़ारों या लाखों में नहीं, बल्कि करोड़ों की संख्या में लोगों के मरने की आशंका होगी. और एक महाटक्कर से होने वाली इस तबाही के कारण पर्यावरण में होने वाला बदलाव भी बाद के वर्षों में करोड़ों अन्य लोगों की मौत का सीधा कारण बनेगा.

तोरिनो पैमाना है क्या बला? पहले तो ये बता दूँ कि तोरिनो नाम इटली के मशहूर शहर तूरिन से लिया गया है जिसे पश्चिमोत्तर इटली में तोरिनो नाम से ही जाना जाता है.(आपको आश्चर्य होगा कि इटली में मिलान को मिलानो, रोम को रोमा, फ़्लोरेंस को फ़िरेंज़ी और वेनिस को वेनित्सिया नाम से जाना जाता है.) तोरिनो से जुड़ी एक और रोचक बात यह है कि भारत की कांग्रेस पार्टी की भाग्य-विधाता पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की विधवा सोनिया का ताल्लुक इसी शहर से है.

तो, तोरिनो में 1999 में खगोल भौतिकशास्त्रियों की एक बैठक हुई एस्टेरॉयड या उल्का-पिंडों और पुच्छल तारों के ख़तरे पर विचार के लिए.(एस्टेरॉयड मंगल और बृहस्पति के बीच लाखों की संख्या में मौजूद पत्थर और धातु के उन पिंडों को कहा जाता है जो कि एक ग्रह के समान ही सूर्य का चक्कर लगा रहे हैं. क्या पता किसी बड़े ग्रह से ही टूट कर बिखरे हों. इनमें से कुछ तो 1,000 किलोमीटर व्यास के हैं तो अनेक साधारण कंकड़-पत्थर जितने बड़े.)

पुच्छल तारों और एस्टेरॉयड के अपनी कक्षा से भटक कर धरती की ओर आने का ख़तरा हमेशा से बना रहा है. इस ख़तरे को हॉलीवुड ने बढ़ा-चढ़ाकर डीप इम्पैक्ट जैसी फ़िल्मों के ज़रिए बेचा भी है. हाल के इतिहास में तो ऐसी किसी टक्कर का ज़िक्र नहीं है, लेकिन माना जाता है कि ऐसी ही टक्करों से धरती के कई बड़ी झीलें बनी हैं और ऐसी ही किसी बड़ी टक्कर ने डायनोसोरों का काम तमाम किया होगा.

तो भैया, तोरिनो के सम्मेलन में एमआईट के वैज्ञानिक रिचर्ड बिन्ज़ेल द्वारा कुछ साल पहले प्रतिपादित पैमाने को स्वीकार कर लिया गया और उसे तोरिनो पैमाने के नाम से जाना जाने लगा. जहाँ तक एस्टेरॉयड के ख़तरे की बात है तो 1994 में ऐसी किसी टक्कर में मारे जाने की आशंका को किसी भयावह भूकंप के ख़तरे से ज़्यादा प्रबल बताया गया यानि 20 हज़ार में एक. लेकिन चार साल बाद अमरीकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने ऐसे सारे संभावित ख़तरों की गिनती की. नासा ने बताया कि कोई 700 एस्टेरॉयड ऐसे हैं जो कभी न कभी धरती का रुख़ कर सकते हैं. ऐसे में एस्टेरॉयड की टक्कर से मरने की आशंका घट कर 2,00,000 में एक कर दी गई. हालाँकि इस तरह की वैज्ञानिक गणनाओं पर पूरी तरह भरोसा भी नहीं किया जा सकता.

ख़ैर, दिसंबर 2004 में वैज्ञानिकों ने पाया कि 400 मीटर आकार का एक उल्का-पिंड वर्ष 2029 में धरती से टकरा सकता है. इस एस्टेरॉयड को विनाश के ग्रीक देवता एपोफ़िस का नाम दिया गया. और तोरिनो पैमाने पर इसे नंबर दिया गया 4. विश्वास करें कि किसी भी उल्का-पिंड को ख़तरे की दृष्टि से दिया गया यह सबसे बड़ा नंबर है. हालाँकि हाल के महीनों में ज़्यादा सही गणना का दावा करते हुए कहा गया है कि शायद एपोफ़िस धरती के बगल से गुजर जाए. लेकिन बेफ़िक्र होने की कोई ज़रूरत नहीं क्योंकि वैज्ञानिकों को मालूम नहीं कि 2029 में धरती के पास गुजरते वक़्त धरती की गुरुत्वाकर्षण शक्ति एपोफ़िस की कक्षा और गति पर क्या असर करेगी. और भगवान न करे, कुछ गड़बड़ हुआ तो एपोफ़िस 2035-36 में एक बार फिर धरती माता को टक्कर देने की स्थिति में होगा.

भगवान बचाए. शुभ-शुभ!

चलते-चलते प्रस्तुत हैं 'गूगल अर्थ' के सौजन्य से दो अंतरराष्ट्रीय सामरिक ठिकानों के चित्र. (चित्र भारतीय सनसनी मीडिया के लिए हैं, न कि चरमपंथियों के लिए)-

पेंटागन, वाशिंग्टन, डीसी


बकिंघम पैलेस, लंदन

सोमवार, अक्तूबर 17, 2005

सनसनी चैनल की ख़बर, महामहिम की मुहर

कुछ विवाद ऐसे होते हैं जिनमें बड़ों का कूदना शोभा नहीं देता. ऐसा ही एक विवाद है गूगल अर्थ की सेवाओं का. लेकिन भारत में इस विवाद में स्वयं महामहिम राष्ट्रपति कूद पड़े हैं.

भारत में अक्सर ही किसी अधकचरी जानकारी को सनसनीखेज ख़बर का रूप दे दिया जाता है. टीवी चैनल ख़ास कर टीआरपी रेटिंग की लड़ाई में इस हथकंडे का उपयोग करते हैं. इस समय का नंबर एक समाचार चैनल कहलाने वाले 'स्टार न्यूज़' के एक स्वनामधन्य पत्रकार ने पिछले सप्ताह दूर की कौड़ी लाते हुए ख़बर दी कि गूगल अर्थ ने भारतीय सुरक्षा व्यवस्था को ख़तरे में डाल दिया है. 'ये ख़बर सिर्फ़ स्टार न्यूज़ के पास है' की बार-बार दुहाई देते हुए बताया गया कि गूगल की इस नई सेवा में राष्ट्रपति भवन और संसद को साफ़-साफ़ देखा जा सकता है.

चलो भई, ये भारतीय पत्रकार और ख़ास कर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पत्रकार तो ख़बरों की सनसनी की कमाई ही खाते हैं, इसलिए उनकी चाल(नादानी भी हो सकती है) को नज़रअंदाज़ कर दिया जाए. लेकिन नहीं जनाब, राष्ट्रपति एपीजी अब्दुल कलाम भला विवाद में क्यों न कूदते. तो उन्होंने 15 अक्तूबर 2005 को मीडिया की लगाई आग में हवा डाल दी कि गूगल ठीक नहीं कर रहा...इस संबंध में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय क़ानून पर्याप्त नहीं हैं. उन्होंने भी दूर की कौड़ी लाई कि विकासशील देश पहले से ही आतंकवादी ख़तरों का सामना कर रहे हैं और इन्हीं के संवेदनशील प्रतिष्ठानों को ख़ास कर स्पष्ट चित्रित किया गया है.

जबकि ऐसी बात बिल्कुल ही नहीं है. महामहिम ने गूगल अर्थ पर दो-चार मिनट दिए होते तो उन्हें व्हाइट हाउस और क्रेमलिन भी राष्ट्रपति भवन के समान ही स्पष्ट दिखते. प्रस्तुत हैं व्हाइट हाउस और क्रेमलिन के चित्र जो कि ज़ाहिर है गूगल अर्थ पर बहुत ही साफ़ नज़र आते हैं.


व्हाइट हाउस, वाशिंग्टन, डीसी


क्रेमलिन, रेड स्क़्वायर, मास्को


राष्ट्रपति भवन की बात आ ही गई तो क्या ये ठीक नहीं होगा कि इस आधार पर इसे म्यूज़ियम में बदल दिया जाना चाहिए कि इसके 100 से ज़्यादा कमरों का कभी कोई उपयोग होता ही नहीं है? क्या ये ठीक नहीं होगा कि महामहिम भी प्रधानमंत्री की तरह ही अपेक्षाकृत छोटे भवन में रहें? एक सवाल यह भी कि हमेशा ओपन-सोर्सिंग की तरफ़दारी करते रहे महामहिम इस मामले में क्यों सूचना के खुले प्रवाह पर लगाम लगाना चाहते हैं?

वर्षों से मैकडोनल्ड्स जीपीएस सुविधा का इस्तेमाल दुनिया के प्रमुख शहरों में अपने रेस्तराँ की लोकेशन चुनने में करता रहा है, क्या ग़लत है जो लाखों अन्य लोगों को भी विभिन्न रूपों में उपयोग के लिए मुफ़्त में विस्तृत भौगोलिक सूचनाएँ मिलती हों?

रही बात आतंकवाद के ख़तरे की, तो उससे सूचना प्रवाह रोकने के प्रयास से तो निज़ात नहीं ही पाई जा सकती है क्योंकि इस युग में सूचना प्रवाह रोकने की कोशिश करना मुट्ठी में बालू भरने के समान है.

रविवार, अक्तूबर 16, 2005

ईरानी मुल्ला से सीख लेंगे हमारे नेता?

ईरान का नाम लेते ही हमारे दिमाग में पश्चिमी मीडिया द्वारा निर्मित एक देश और उसके लोगों की छवि बन जाती है. यह छवि कमोबेश ये होती है कि वहाँ एक मुल्ला तंत्र सत्ता में है, वहाँ के युवा इस तंत्र से आज़ादी चाहते हैं लेकिन बहुमत अभी भी देश को इस्लामी तंत्र के रूप में देखने वालों की है.

इसी ईरान के एक मुल्ला का विस्तृत साक्षात्कार विज्ञान पत्रिका न्यू साइंटिस्ट के 15 अक्टूबर 2005 के अंक में छपा है. इस मुल्ला का नाम है मोहम्मद अली अबताही. बहुत दिनों तक ये सांसद रहने के अलावा राष्ट्रपति मोहम्मद खातमी के शासन में ये उपराष्ट्रपति के पद पर थे, खातमी के प्रमुख सलाहकारों में माने जाते थे. लेकिन न्यू साइंटिस्ट ने उनका साक्षात्कार एक प्रगतिशील राजनेता के रूप में नहीं बल्कि एक ब्लॉगर के रूप में छापा है.

जी हाँ, ईरान वही देश है जहाँ सबसे ज़्यादा संख्या में ब्लॉगरों पर पुलिस की मार पड़ती है. ऐसे में अभी भी सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़ा एक हाई-प्रोफ़ाइल मुल्ला ब्लॉग लिखे और वो ब्लॉग ईरान के सबसे लोकप्रिय ब्लॉग के रूप में जाना जाता हो, तो ज़रूर ही कोई विशेष बात होगी.

जी हाँ, 48 साल के मोहम्मद अबताही का ब्लॉग वेबनेवेश्तेहा ईरान का सबसे लोकप्रिय ब्लॉग माना जाता है. यह अंग्रेज़ी समेत तीन भाषाओं में है.

प्रस्तुत है मोहम्मद अली अबताही का साक्षात्कार-


आपने ब्लॉग क्यों शुरू किया?
मैं अपने आधिकारिक और सरकारी दायित्वों से अलग रहते हुए अपने विचार व्यक्त करना चाहता था. ब्लॉग की कोई विरासत नहीं होती और वो किसी के बाप की अमानत भी नहीं होता. कोई भी, किसी भी तरह के विचार वाला ब्लॉगों में लिख सकता है. लोगों की इसमें दिलचस्पी है.

आपके राजनीतिक सहयोगी इस बारे में क्या सोचते हैं?
अधिकतर को मेरे ब्लॉगिंग करने की बात तब तक नहीं पता चलती जब तक उनके बच्चों को इस बात का पता न चल जाता हो और बच्चे उन्हें जाकर यह बात बताते न हों...कई बार मेरा यह कार्य विवादास्पद भी बना. मैं अधिकारियों की तस्वीर लेकर इंटरनेट पर डाल देता हूँ. मेरे ब्लॉग को शासन के तरफ़ से कई बार चुनौती मिली, हालाँकि मैंने स्पष्ट कर रखा है कि ये मेरे व्यक्तिगत विचार हैं और सरकार की राजनीति से इसका कुछ लेना-देना नहीं है.

आपको अपने ब्लॉग के चलते कोई नुक़सान भी हुआ?
मुझे बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ी. ईरानी सत्ता के रूढ़ीवादी तत्वों ने कई आरोप लगाए और मेरी व्यक्तिगत ज़िंदगी के बारे में कई झूठी बातें फैलाई. मसलन, पिछले साल उन्होंने ये अफ़वाह फैलाई कि मैंने उपराष्ट्रपति का पद छोड़ दिया है, क्यों..क्योंकि मैंने तेहरान के एक ऐसे स्विमिंग-पूल में तैराकी की जिसमें कि औरतें भी तैर रही थीं. आपको भले ही यह आरोप गंभीर नहीं लग रहा हो, ईरान में यह बहुत ही गंभीर बात है.

इससे पहले इसी साल सुरक्षा बलों ने सात दिनों के लिए मेरे ब्लॉग को हैक कर लिया था. ये इसलिए कि क्योंकि मैं अपने विचार व्यक्त करने के कारण जेल भेजे गए ब्लॉगरों की आवाज़ बन गया था. मैंने यह लिखा था कि कैसे उन ब्लॉगरों को प्रताड़ित किया गया.

हैकिंग की इस घटना के बाद मैं ईरान से बाहर के एक वेब-सर्वर की सेवाएँ लेने को बाध्य हो गया ताकि सुरक्षा बल फिर से परेशानी खड़ा नहीं कर सकें.

कौन से तत्व आपकी वेबसाइट को निशाना बनाते हैं?
सारा दबाव रूढ़ीवाद शासन का है. हमेशा से यही स्थिति रही है. जनता साथ देती है, लेकिन अधिकतर ब्लॉगर युवा हैं और जल्दी डर जाते हैं. ब्लॉगरों को जले भेजे जाने का असर उन पर गहरा होता है. मैं वेबसाइटों को सेंसर किए जाने के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता रहा हूँ. अभी भी ईरान में इंटरनेट की फ़िल्टरिंग होती है. सर्विस प्रोवाइडर्स को सरकार की बात माननी पड़ती है वरना उन्हें बंद कर दिया जाएगा.

लेकिन इतनी निगरानी के बाद भी आप बिना ज़्यादा परेशानी के कैसे बच निकलते हैं?
मैं बच जाता हूँ राजनीतिक एक्टिविस्ट की अपनी पृष्ठभूमि के कारण. मैं इस कारण बच जाता हूँ कि मुझे सब जानते हैं. यदि शासन मेरे ब्लॉग को सेंसर करने की कोशिश करेगा तो जनता के विरोध के रूप में उन्हें ख़ामियाज़ा भुगतना होगा.

ईरानी समाज और राजनीति पर ब्लॉगिंग का क्या असर हो रहा है?
सुधार पहले समाज में होता है, फिर सरकार में. राष्ट्रपति खातमी के शासन में ईरान में कुछ सुधार हुआ, लेकिन सुधार की गति से लोग ख़ुश नहीं थे. नेट भी समाज द्वारा उपयोग में लाया जा रहा एक माध्यम है. इसका विकास हो रहा है और यह बदलाव भी ला रहा है. नेट प्रभावशाली है और यह परिवर्तन के लिए और ज़्यादा दबाव पैदा करेगा. यह नई पीढ़ी का औजार है, और चूँकि युवा वर्ग ख़ुद को विश्वव्यापी समाज का हिस्सा मानता हो सो उनकी आकांक्षाएँ बड़ी हैं.

एक एक्टिविस्ट के रूप में अपनी पृष्ठभूमि के बारे में कुछ बताएँ?
मैं एक धार्मिक परिवार से हूँ. मेरे पिता एक धार्मिक विद्वान थे. ईरान की 1979 की क्रांति से पहले जब मैं एक किशोर था, मेरे पास एक सुपर8 कैमरा हुआ करता था. जहाँ भी मैं जाता था शॉर्ट फ़िल्में बना लेता. मेरी सहायता से मेरे पिता इन फ़िल्मों और स्लाइडों को अपनी धार्मिक तक़रीरों के दौरान इस्तेमाल करते थे. उस समय के माहौल में ये बिल्कुल ही अस्वाभाविक चीज़ थी.

क्रांति के दौरान मैं बहुत सक्रिय रहा. मैंने भाषण दिए, फ़िल्में बनाईं और पर्चे बाँटे. सड़क पर निकल कर आंदोलन में शामिल होना बड़ा ही उत्तेजक अनुभव होता था. मैं शाह के शासन को अन्यायपूर्ण मानता था और मैं बहुत ही आदर्शवादी था, लोगों को आज़ादी दिलाना चाहता था.

जब मैं 18 साल का था, अयातुल्ला खुमैनी के भाषण प्रकाशित करने और ख़ुद के भाषण के कारण मुझे गिरफ़्तार भी होना पड़ा था.

मैं ख़ुद को क्रांति की संतान मानता हूँ. मुझे लगता है मौजूदा शासन उन सिद्धांतों के ख़िलाफ़ काम कर रहा है, जिनके लिए मैंने आंदोलन में भाग लिया था. सुधार होगा, लेकिन 1979 के जैसा ही जनता की अगुआई में. जनता खेल में आगे है और नेट समाज सुधार के सबसे महत्वपूर्ण माध्यमों में शामिल है.

लोग आपके ब्लॉग पर कैसी प्रतिक्रिया देते हैं?
मैं बड़ी मुश्किल स्थिति में हूँ. क्योंकि मैं एक मीडिया शख़्सियत हूँ, कुछ रूढ़ीवादी मुझे रैडिकल मानते हैं. दूसरी ओर जनता का एक वर्ग मुझे सत्ता प्रतिष्ठान का हिस्सा मानता है. हालाँकि सार्वजनिक जीवन में सक्रिय एक व्यक्ति के साथ इंटरएक्ट करना लोगों को उत्साहित करता है. ब्लॉग पर मैंने एक सवाल-जवाब का हिस्सा बना रखा है जहाँ लोग आपस में बहस करते हैं- राजनीति पर, शासन पर और बाकी विषयों पर जिनमें से कुछ मैं उन्हें देता हूँ. वे सवाल पूछते हैं, वे मेरा अपमान भी करते हैं, वे रूढ़ीवादियों का भी अपमान करते हैं, लेकिन बहुमत मेरे साथ सहानुभूति रखता है. मैं अपने ब्लॉग पर सबकी राय छापता हूँ जब तक कि वो अनैतिक न हो.

(ज़रूरत है कि भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़े कुछ लोग मोहम्मद अली अबताही जैसा ही साहस दिखाएँ और देश के युवा वर्ग से सीधा संवाद क़ायम करें. वरना मौजूदा माहौल में लोकतंत्र के दंभ और तकनीकी विकास के हमारे दावे का क्या मतलब?)

बुधवार, अक्तूबर 12, 2005

अरबपतियों की अलग तरह की सूची

हर साल दुनिया के कई संस्थान, ख़ास कर मीडिया संस्थान, अरबपतियों की सूची तैयार करते हैं. इसी कड़ी में पिछले साल जुड़ा आर्थिक जगत के मशहूर अख़बार लंदन से प्रकाशित 'फ़ाइनेंशियल टाइम्स' का नाम.

लेकिन 'फ़ाइनेंशियल टाइम्स' की सूची इस मायने में अलग है कि इसमें शामिल होने की पात्रता सिर्फ़ धन को ही नहीं, बल्कि समाज पर अरबपतियों के सकारात्मक प्रभाव को भी बनाया गया है. एक अंतर और है कि इस सूची में मात्र 25 लोगों को जगह मिलती है.

इसी सप्ताह 'फ़ाइनेंशियल टाइम्स' ने अरबपतियों की इस साल की अपनी सूची प्रकाशित की है. पिछले साल की ही तरह पहले नंबर पर बिल गेट्स हैं. कारण साफ़ है उनकी 51 अरब डॉलर की संपत्ति और 28 अरब डॉलर की उनकी चैरिटी बिल एंड मेलिंडा गेट्स फ़ाउंडेशन. गेट्स ने भले ही दूसरी कंपनियों को अवैध रूप से प्रतियोगिता से दूर रख कर संपत्ति बनाई हो लेकिन अब उनका ध्येय बिल्कुल साफ़ है. वह कहते हैं, "दस साल पहले मैंने महसूस किया कि मेरा धन समाज की सेवा में लगना चाहिए. इस तरह की असीमित संपत्ति किसी को अपने बच्चे को नहीं सौंपना चाहिए क्योंकि यह बच्चे के लिए रचनात्मक बात नहीं होगी."

सूची में दूसरे नंबर पर हैं एप्पल कंप्यूटर्स के सीईओ स्टीव जॉब्स. संपत्ति तीन अरब डॉलर. उनका काम है- उपयोगी, ख़ूबसूरत और प्रयोग में आसान इलेक्ट्रॉनिक्स उपकरण मुहैया कराना. उन्होंने गेट्स जैसे अरबपतियों को बताया कि प्रौद्योगिकी में ख़ूबसूरती भी हो सकती है. पिक्सर एनिमेशन स्टूडियोज़ के चेयरमैन के रूप में कई रोचक और स्वस्थ मनोरंजन वाली एनिमेटेड फ़िल्में जनता तक पहुँचाने में भी उनका अहम योगदान रहा है.

तीसरे नंबर पर ईबे के चेयरमैन पीयर ओमिडयर हैं. उनके पास 10 अरब डॉलर की संपत्ति है. समाज सेवा के कार्यों में खुल कर पैसा लगाने वाले ओमिडयर ने घोषणा कर रखी है कि 2020 ईस्वी तक वह अपनी 99 फ़ीसदी संपत्ति समाज को समर्पित कर देंगे.

दो भारतीय अरबपतियों को भी सूची में जगह मिली है. दसवें नंबर पर हैं विप्रो के चेयरमैन अज़ीम प्रेमजी और ग्यारहवें नंबर पर हैं मित्तल स्टील के चेयरमैन लक्ष्मी मित्तल. अज़ीम प्रेमजी की संपत्ति है 9.3 अरब डॉलर और उनके नाम से चलाया जा रहा फ़ाउंडेशन हर साल भारत के ग्रामीण इलाक़ों में शिक्षा के क्षेत्र में 50 लाख डॉलर ख़र्च करता है. मित्तल के समाज सेवा कार्यों का कोई ज़िक्र अख़बार ने नहीं किया है, लेकिन इस बात को ज़रूर दर्शाया है कि कैसे मित्तल ने दुनिया भर में मरणासन्न इस्पात कारखानों को मुनाफ़ा पैदा करने की मशीन बना दिया है.

रविवार, अक्तूबर 09, 2005

दो ब्लॉगरों को जेल की सजा


ये तो पहले से ही स्पष्ट होता जा रहा था कि आने वाले दिनों में इंटरनेट पर निगरानी बढ़ती ही जाएगी. लेकिन किसी को ब्लॉग में लिखी बात के आधार पर जेल भेज दिया जाएगा...किसी को अनुमान नहीं था कि ऐसा भी हो सकता है.

तो जनाब पुलिसिया राष्ट्र सिंगापुर में दो ब्लॉगरों को जेल भेजा गया. सजा देश के राजद्रोह क़ानून के तहत दी गई. याद रहे कि यह क़ानून ब्रितानी शासकों ने 1948 में कम्युनिस्ट विद्रोहियों के ख़िलाफ़ बनाया था.

चीनी मूल के 27 वर्षीय बेंजामिन कोह और 25 वर्षीय निकोलस लिम दोस्त हैं. दोनों ब्लॉगिंग भी करते हैं. कोह को एक महीने की क़ैद मिली है, जबकि लिम को एक दिन की जेल और पाँच हज़ार सिंगापुरी डॉलर के ज़ुर्माने की सजा.

मामला शुरू हुआ था इसी साल जून में. कोह अपने कुत्तों को घुमा रहे थे जब मलय मूल के मुस्लिम अल्पसंख्यकों का एक समूह उनके कुत्ते से बचने के लिए इधर-उधर भागा. कोह साहब ने कुत्तों से दूर भागने की इस क़वायद की जड़ मलय संस्कृति और इस्लाम में देखी और अपने ब्लॉग पर ग़ुस्से में बहुत कुछ लिख डाला. बाद में कुत्तों के देखभाल करने वाली एक संस्था के लिए काम करने वाले उनके मित्र लिम ने भी मुसलमानों और मलय मूल के लोगों के ख़िलाफ़ उनके सुर में सुर मिलाया.

सिंगापुर के ब्लॉग जगत में कोह के ग़ुस्से भरे लेखन की तीव्र प्रतिक्रिया हुई और किसी मलय ब्लॉगर ने पुलिस में रिपोर्ट लिखा दिया.

मामले की सुनवाई करने वाले जज ने सिंगापुर की बहुसांस्कृतिक समाज में कोह को एक नस्लवादी क़रार दिया. लिम को भी कोह के अपराध में भागीदार बताया गया. चूंकि नस्लवाद सिंगापुर के राजद्रोह संबंधी क़ानून के तहत आता है सो दोनों को सजा मिलनी ही थी. वो तो अदालत की दया-दृष्टि थी, वरना लगाए गए आरोप के तहत दोनों को तीन-तीन साल की क़ैद और पाँच-पाँच हज़ार सिंगापुरी डॉलर का ज़ुर्माने की सजा भी मिल सकती थी.

उल्लेखनीय है कि इंटरनेट पर नियंत्रण की कोशिशें शुरू से ही होती रही हैं और अलग-अलग देश अलग-अलग उपाय करते रहे हैं. मसलन चीन और सिंगापुर की तुलना करते हैं. चीन जहाँ टेक्नोलॉजी का उपयोग करते हुए तथाकथित हानिकारक वेबसाइटों को जनता की नज़रों से दूर रखने की कोशिश करता है, वहीं सिंगापुर ने दिखा दिया कि वो इंटरनेट पुलिसिंग भी क़ानून की आड़ लेकर ही करेगा.

मंगलवार, अक्तूबर 04, 2005

एक विशेषांक, पाँच मुखपृष्ठ

अभी दो अक्तूबर की शाम भारत की एकमात्र विश्वसनीय समाचार एजेंसी पीटीआई(दूसरी है यूएनआई) ने एक ख़बर चलाई. ख़बर को अगले दिन अधिकतर अख़बारों में कमोबेश यही हेडलाइन दी गई थी- ''मशहूर अंतरराष्ट्रीय साप्ताहिक टाइम ने अपने ताज़ा अंक के मुखपृष्ठ पर सानिया मिर्ज़ा को स्थान दिया''.

शब्दजाल से यह भी साबित करने की कोशिश की गई भारतीय टेनिस बाला सानिया के लिए ये अब तक सबसे बड़ा सम्मान है. सीना फुला कर ये भी कहा गया कि टाइम ने उन्हें एशियाई नायक-नायिकाओं की सूची में भी शामिल किया गया है.(सानिया के चयन पर तो कोई सवाल ही नहीं उठा सकता, लेकिन पिछले साल के 'टाइम नायक' आइएएस अधिकारी गौतम गोस्वामी के पीछे लगी पुलिस से उनके कथित कारनामों के बारे में पूछें तो पता चलेगा टाइम की कसौटी के स्टैंडर्ड का.)

ख़ैर, गूगल करने पर पता चला कि अकेले अंग्रेज़ी में 36 समाचार संस्थानों ने इस ख़बर को पीटीआई के हवाले से पूरा का पूरा उठाया. पता नहीं हिंदी और अन्य भाषाओं के कितने समाचार संस्थाओं ने इस ख़बर को हूबहू लिया होगा.

समस्या ये है कि पीटीआई ने ख़बर अधूरी दी थी, सो सारे समाचार माध्यमों ने अर्द्ध-सत्य को ही पूर्ण-सत्य के रूप में परोसा. अब पीटीआई को टाइम के मीडिया-संपर्क विभाग ने अधूरी ख़बर दी थी या यह भारतीय समाचार एजेंसी की चूक थी, ये तो इन दोनों प्रतिष्ठित संचार माध्यमों को ही पता होगा.

तो भला पूर्ण सत्य क्या है? पूरी सच्चाई ये है कि टाइम ने अपने 10 अक्तूबर 2005 के अंक के एशिया संस्करण के पाँच अलग-अलग मुखपृष्ठ बनाए हैं. बाज़ार को ध्यान में रख कर एक चीन के ग्राहकों के लिए, एक भारत के ग्राहकों के लिए, एक इंडोनेशिया वालों के लिए, एक जापान वालों के लिए और एक दक्षिण कोरिया को ध्यान में रख कर. तो पीटीआई की ख़बर इसलिए अधूरी थी कि उसने ये नहीं बताया कि पाँच में से एक मुखपृष्ठ पर सानिया मिर्ज़ा को स्थान दिया गया है. कहने की ज़रूरत नहीं कि कोई सानिया, ऐश्वर्या या सचिन जैसे भारतीय नायक-नायिका दक्षिण एशिया में बिकने वाली किसी भी पत्रिका के कवर पर स्थान पाने की पात्रता रखते हैं. लेकिन कोई इन्हें मुखपृष्ठ पर स्थान देकर इस बात ढिंढोरा पीट रहा हो तो भारतीय बाज़ार पर उसकी नज़र की अनदेखी नहीं होनी चाहिए.

बहरहाल, आइए पाँचों मुखपृष्ठों पर एक नज़र डालें-






तो ये कहा जाए कि पीटीआई को टाइम की प्रचार मशीन ने अपना मोहरा बनाया? (जहाँ तक मुझे याद आता है टाइम का भारतीय कार्यालय संसद मार्ग पर पीटीआई बिल्डिंग में ही है.)

शनिवार, अक्तूबर 01, 2005

वेनिस को बचाने की महती योजना


यदि मुझे कहा जाए कि सबसे अदभुत कौन-सा शहर है, मैं हमेशा कहूँगा- वेनिस. दो बार वेनिस जा चुका हूँ और पैसा हो तो और कई बार जाऊँ.

लेकिन यदि मुझे पूछा जाए कि आप वेनिस में ही बस जाना चाहेंगे, थोड़ी शर्मिंदगी के साथ मैं कहूँगा- नहीं.

अपने सपनों के शहर में मैं इसलिए नहीं बसना चाहता कि वहाँ हाल के वर्षों में बाढ़ आने की घटनाएँ काफ़ी बढ़ गई हैं.(भारत के एक बाढ़ प्रभावित इलाक़े से होने के कारण मुझे बाढ़ की विभीषिका का पूरा अहसास है.) वेनिस में हर साल क़रीब 200 दिन ऐसे होते हैं जब पानी का स्तर सामान्य से ऊँचा होता है. यानी लोगों के घरों में पानी घुस जाता है या घुसने की आशंका होती है.(तभी तो वेनिस के घरों का ग्राउंड फ़्लोर आमतौर पर खाली ही रखा जाता है.)

पहले ऐसा नहीं था. तुलना के लिए वेनिस के मुख्य चौराहे सेंट मार्क्स स्क़्वायर की बात करें. सौ साल पहले साल में दस दिन ही ऐसे होते थे जब सेंट मार्क्स स्क़्वायर पर झील का पानी आ जाता था, लेकिन अब की बात करें तो साल में कोई सौ दिन ऐसा देखा जा सकता है.

अब जैसे बाढ़ का ख़तरा ही डराने के लिए काफ़ी नहीं था, कि यह बात भी सामने आई कि पिछले सौ साल में वेनिस 20 सेंटीमीटर नीचे धँसा है. और मानो इससे भी मेरे जैसे वेनिसप्रेमी नहीं डर रहे हों, कि मौसम विशेषज्ञों ने ये भविष्यवाणी कर डाली कि इस शताब्दी के अंत तक समुद्र का स्तर 60 सेंटीमीटर तक बढ़ने वाला है.

कुल मिला कर ये कि यदि अभी वेनिस को बचाने के लिए कुछ नहीं किया गया तो इस सदी के अंत तक नहरों के इस प्राचीन शहर का अस्तित्व ख़त्म हो जाएगा.

हालाँकि वेनिस को बचाने के लिए गंभीर रूप से सोचने की शुरूआत 1966 में ही हो गई थी जब एक भयानक बाढ़ ने वहाँ कहर बरपा दिया. सैंकड़ो लोग मारे गए, हज़ारों बेघर हो गए.

लेकिन आज तक बात बन नहीं पाई थी क्योंकि पर्यावरणवादियों को वेनिस को बचाने के लिए बाँध खड़े करने जैसे उपायों पर आपत्ति है. उनका कहना है कि वेनिस के आसपास का बड़ा ही अनूठा ईको-सिस्टम है, बेजोड़ पारिस्थितिकी है. यदि बाँध खड़े किए गए तो इस पारिस्थिकी का सत्यानाश हो जाएगा. इन पर्यावरणवादियों की सलाह है कि वेनिस से मालवाहक जहाज़ों के बंदरगाह हटा दिए जाएँ और बड़े यात्री जहाज़ों यानी लाइनर्स को वेनिस तक नहीं आने दिया जाए, तो सब कुछ सँभल जाएगा.

लेकिन जीत आख़िरकार बाँध समर्थकों की हुई, जब इसी सप्ताह इतालवी प्रधानमंत्री सिल्वियो बर्लुस्कोनी ने वेनिस को बाढ़ से बचाने के लिए साढ़े चार अरब यूरो लागत की परियोजना की घोषणा की है. कई वर्षों से लंबित इस परियोजना को मोज़े नाम दिया गया है जो कि बाइबिल के एक प्रमुख पात्र मोज़ेज का इतालवी नाम है.

मोज़े बाढ़ सुरक्षा योजना के तहत वेनिस लैगून को समुद्र से अलग करने वाले द्वीप लीडो के दोनों छोरों पर और छियोजिया नामक संकरे चैनल में कुल 78 बाँध या गेट बनाए जाएँगे. लेकिन सामान्य दिनों में ये विचित्र से गेट पानी के भीतर तलहटी में सोए रहेंगे. इन 28 मीटर ऊँचे और 20 मीटर चौड़े बाँधों को तब जगाया जाएगा, यानी खड़ा किया जाएगा जब ऊँची लहरें उठने का ख़तरा हो. इनमें हरेक बाँध 300 टन वज़नी होगा और इसे खड़ा करने और लिटाने के लिए इसके खोखले पेट में हवा और पानी भर कर काम लिया जाएगा. यानी खड़ा करने के लिए बाँध के खोखले पेट में तेज़ दबाव की हवा भरी जाएगी, जब लहरें उठनी बंद हो जाएँगी तो हवा को निकलने दिया जाएगा ताकि इसमें पानी भर कर लिटाया जा सके.

अब तो 2011 में मोज़े परियोजना के पूरा होने के बाद ही पता चलेगा कि बाँध समर्थक(मौजूदा सरकार भी)ठीक कह रहे हैं, या पर्यावरणवादी. अभी तो मेरे जैसे वेनिसप्रेमी ख़ुश ही होंगे कि चलो वेनिस की सुरक्षा के लक्ष्य के साथ कुछ किया तो जा रहा है.