सोमवार, जुलाई 24, 2006

ब्रितानी साम्राज्य की ख़ूनी विरासत

आधुनिक इतिहास में जितना विवादास्पद अध्याय ब्रितानी साम्राज्य का है, उतना और कुछ नहीं. ब्रितानी साम्राज्य की अच्छाइयों और बुराइयों की लंबी सूची लिए लोग आपको पूरी दुनिया में मिल जाएँगे. इस मुद्दे पर सबसे ज़्यादा विवाद या बहस ब्रिटेन और भारत में देखने को मिलती है.

नियल फ़र्गुसनब्रिटेन के एक अत्यंत ही प्रतिभाशाली इतिहासकार हैं- प्रोफ़ेसर नियल फ़र्गुसन. मात्र 42 साल के हैं, यानि इतनी उम्र जब आमतौर पर इतिहासकारों के दूध के दाँत टूटते हैं. फ़र्गुसन के लेखन पर दुनिया भर में बहस छिड़ जाती है. वो ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में पढ़ाते थे. लेकिन जब ब्रिटेन में उतना भाव नहीं मिला तो अटलांटिक पार का रुख़ किया और अमरीका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय में जा टिके. वहाँ इतिहास के प्रोफ़ेसर हैं, हालाँकि अब भी किसी न किसी रूप में ऑक्सफ़ोर्ड से भी नाता जोड़ रखा है. स्टैनफ़ोर्ड विश्वविद्यालय से भी रिश्ता है.

अब नियल फ़र्गुसन की ताज़ा किताब द वार ऑफ़ द वर्ल्ड चर्चा में है. इसे लेकर उन्होंने चैनल4 के लिए एक धांसू डॉक्यूमेंट्री भी बना डाली है. प्रोफ़ेसर फ़र्गुसन ने अपनी ताज़ा किताब में इस बात को जम कर उछाला है कि पिछली सदी मानव इतिहास की सबसे ख़ूनी सदी थी. इस बात पर किसी को ज़्यादा आपत्ति भी नहीं. लेकिन अनेक लोगों को फ़र्गुसन की किताब में ब्रितानी साम्राज्य की तारीफ़ किए जाने पर आपत्ति है.

ब्रितानी साम्राज्य के बारे में फ़र्गुसन से बिल्कुल विपरीत मान्यता रखने वाले ब्रिटेन के ही एक इतिहासकार हैं- रिचर्ड गॉट. रिचर्ड गॉटवो ब्रितानी साम्राज्य का प्रतिरोध करने वालों को केंद्र में रख कर एक किताब लिख रहे हैं. अभी पिछले दिनों उन्होंने गार्डियन अख़बार में एक लेख में ब्रितानी साम्राज्य की ख़ूनी विरासत की चर्चा की. रिचर्ड गॉट का कहते हैं कि दुनिया में अनेकों मौज़ूदा संघर्ष उन क्षेत्रों में हो रहे हैं जो पहले ब्रितानी साम्राज्य का हिस्सा थे, और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद थके और लुटे-पिटे साम्राज्यवादियों ने जहाँ से निकलने में अपनी भलाई समझी थी. उन इलाकों में से अधिकांश आज दुनिया में हिंसा और अस्थिरता के स्रोत माने जाते हैं.

ये रही ब्रितानी साम्राज्य की ख़ूनी विरासत की एक संक्षिप्त सूची:

1. फ़लस्तीनी क्षेत्र- एक ब्रितानी उपनिवेश जिसे उसने मात्र 30 वर्षों के शासन के बाद 1947 में छोड़ दिया. अपने अधिकतर उपनिवेशों की तरह यहाँ भी अंग्रेज़ों ने यूरोपीय लोगों को लाकर बसाया. दुर्भाग्य से बाहर लाकर थोपे गए लोगों के पास इतना समय नहीं था कि वे स्थानीय लोगों पर पूरी तरह काबू पा सकें(जैसा कि ऑस्ट्रेलिया के मामले में हुआ था), क्योंकि उस दौरान ब्रितानी साम्राज्य का सूरज अस्ताचलगामी हो चुका था. ऑस्ट्रेलिया के स्थानीय लोगों यानि आदिवासियों के विपरीत फ़लस्तीनियों ने साम्राज्यवादियों द्वारा लाकर पटके गए यहूदियों का प्रतिरोध पहले दिन से ही शुरू कर दिया. अरब जगत के समर्थन और अपनी धार्मिक परंपराओं से ली गई प्रेरणा के बल पर उनका प्रतिरोध लगातार चलता रहा, और आगे भी जारी रहेगा.

2. सियरालियोन- अपनी नीति के अनुरूप ब्रितानी साम्राज्यवादियों ने यहाँ भी बाहर से लाकर लोगों को बसाया. बाहर से लाए गए लोग थे तो अश्वेत ही, लेकिन मुख्य तौर पर ईसाई. दूसरी ओर जब ये सब हो रहा था सियरालियोन के स्थानीय लोग इस्लाम के प्रभाव में पूरी तरह आ चुके थे. सियरालियोन में ब्रितानी शासकों का ज़ोरदार प्रतिरोध हुआ. और अब स्थानीय लोगों और बाहर से लाकर बसाई गई आबादी के बीच संघर्ष रह-रह कर गृहयुद्ध का रूप ले लेता है.

3. अन्य अफ़्रीकी देश- दक्षिणी अफ़्रीका, ज़िम्बाब्वे और कीनिया में भी बाहर से लाकर बसाए गए लोगों और स्थानीय आबादी के बीच मनमुटाव बना हुआ है. हालाँकि इन देशों में बसाए गए लोग अब रक्षात्मक मुद्रा में आने को मज़बूर हो चुके हैं.

4. श्रीलंका और फ़िजी- इन दो देशों में अंग्रेज़ों ने अलग तरह का खेल खेला. यहाँ भारत से मज़दूर बना कर लाए गए लोगों को स्थानीय आबादी पर थोपा गया. हालाँकि ब्रितानी साम्राज्यवादी भारत से लोगों को अपने बगानों में काम कराने के लिए लाए थे, लेकिन उपनिवेश के ख़ात्मे के बाद स्थानीय आबादी और भारत से लाए गए लोगों के बीच जो मनमुटाव शुरू हुआ, वो आज भी बहुत तल्ख़ है. श्रीलंका में सैंकड़ो लोग हर साल इस ख़ूनी विरासत की भेंट चढ़ते हैं.

5. उत्तरी आयरलैंड- ब्रिटेन का हिस्सा बने उत्तरी आयरलैंड में स्थानीय कैथोलिक आबादी पर प्रोटेस्टेंट ईसाइयों को थोपा गया. कोई आश्चर्य नहीं कि आधुनिक आतंकवाद का जन्म वहीं उत्तरी आयरलैंड में ही हुआ.

6. भारत- द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद के काल में साम्राज्यवादियों ने जिस हड़बड़ी में भारत को विभाजित करते हुए छोड़ा. विलायती शासकों ने ये भी नहीं सोचा कि जिस उपमहाद्वीप को दो शताब्दियों तक एकजुट रखने का श्रेय उन्हें दिया जाता हो, उसे सांप्रदायिक आधार पर बाँटते हुए भागना कितना उचित था. इतनी हड़बड़ी थी कि कश्मीर पर कोई सर्वमान्य फ़ैसला करने की भी ज़रूरत नहीं समझी गई. भारत और पाकिस्तान एक-दूसरे पर कितना संदेह करते हैं, और कश्मीर का नासूर भारत की कितनी ऊर्जा खींचता है, बयान करने की ज़रूरत नहीं.

7. साइप्रस- भारत की तरह ही ब्रितानी साम्राज्यवादियों ने साइप्रस को भी बुरी तरह दो हिस्सों में बाँट दिया. दोनों हिस्सों की आबादी एक-दूसरे पर कभी भरोसा नहीं कर सकी. शर्मनाक रूप से ब्रिटेन अब भी साइप्रस में दो संप्रभु सैनिक अड्डे बनाए हुए हैं, विभाजित साइप्रस पर निगरानी रखने के लिए.

8. नाइजीरिया और सोमालिया- अंग्रेज़ साम्राज्यवादियों ने नाइजीरिया को अपनी ज़रूरतों के हिसाब से कृत्रिम रूप से एक राष्ट्र का रूप दिया, जबकि सोमालिया को अपनी सुविधा के लिए पहले उपनिवेश बनाया और बाद में अपनी ज़रूरतों के अनुरूप ही उसे उसके हाल पर छोड़ा. दोनों देशों के भीतर आबादी के बीच स्पष्ट विभाजन और परस्पर घृणा देखी जा सकती है.

9. इराक़- इराक़ ब्रितानी साम्राज्य में शामिल होने वाला अंतिम क्षेत्र था, और साम्राज्य की पकड़ से बाहर होने वाला पहला देश. इराक़ से ब्रितानी सैनिक अड्डे 1950 के दशक में जाकर हटाए गए. आज इराक़ में अघोषित गृहयुद्ध चल रहा है, और विडंबना देखिए कि बसरा वाले इलाक़े में सुरक्षा स्थापित करने का ज़िम्मा ब्रिटेन के हाथों में है.

10. अफ़ग़ानिस्तान- ब्रितानी साम्राज्य के दिनों में कहने को तो अफ़ग़ानिस्तान स्वतंत्र रहा, लेकिन असल में उस पर साम्राज्यवादियों की पूरी पकड़ रही. अंग्रेज़ों ने अफ़ग़ानों से तीन ख़ूनी युद्ध लड़े. चौथे युद्ध के लिए एक बार फिर ब्रितानी सैनिक अफ़ग़ानिस्तान में हैं, और लगता नहीं कि पिछले तीन मौक़ों के विपरीत उन्हें इस बार जीत नसीब होगी.

शुक्रवार, जुलाई 21, 2006

आईआईटी-मुंबई का कमाल 'हिंदी शब्दतंत्र'

इंटरनेट में अचानक ही कई बेजोड़ चीज़ें मिल जाती हैं. ऐसी ही एक बेजोड़ चीज़ है- हिंदी शब्दतंत्र और उसी से जुड़ा बेहतरीन हिंदी शब्दकोश.

जैसा कि हमारी सरकारी एजेंसियों के अधिकतर अच्छे कामों के बारे में होता आया है, हिंदी शब्दतंत्र के बारे में भी ढंग से कोई प्रचार नहीं किया गया. कुछ वैज्ञानिक गोष्ठियों में इस पर चर्चा ज़रूर हुई होगी.

थोड़ी छानबीन के बाद पता चला कि हिंदी शब्दतंत्र और कुछ नहीं बल्कि भविष्य के एक चमत्कार का आधारभूत ढाँचा है. आने वाले वर्षों में जब एक भाषा से दूसरे में ढंग का मशीनी अनुवाद संभव हो पाएगा, तब हम हिंदी शब्दतंत्र के महत्व को ठीक से समझ सकेंगे.

ज़्यादा तकनीकी ब्यौरे में नहीं जाते हुए बताया जाए तो शब्दतंत्र या WORDNET भाषा और कंप्यूटर प्रोग्राम का ऐसा सुमेल है, जो कि एक भाषा के माल को दूसरी भाषा में ढालने का कारखाना साबित हो सकता है. भारत जैसे बहुभाषी राष्ट्र में ये कितना उपयोगी साबित हो सकता है, इसकी सहज कल्पना भी संभव नहीं है.

शब्दतंत्र को बाकी मशीनी शब्दकोशों से इस मामले में अलग माना जा सकता है कि यह सिर्फ़ पारिभाषिक अर्थों पर नहीं, बल्कि शब्द विशेष के विभिन्न उपयोगों पर भी गौर फ़रमाता है. कंप्यूटर किसी शब्द का इतना वास्तविक वर्गीकरण SYNSET के सिद्धांत पर करता है. SYNSET यानि a set of one or more synonyms, मतलब समानार्थक शब्दों का वर्ग या मुद्रिका.

आइए हिंदी शब्दतंत्र में एक शब्द 'आम' के उदाहरण के ज़रिए SYNSET के कमाल को देखते हैं.


आम...

Noun(2)
(R) आम, रसाल, आम्र, अंब, अम्ब - एक फल जो खाया या चूसा जाता है "तोता पेड़ पर बैठकर आम खा रहा है / शास्त्रों ने आम को इंद्रासनी फल की संज्ञा दी है"
(R) आम, आम वृक्ष, पिकप्रिय, पिकदेव, पिकबंधु, पिकबन्धु, पिकबंधुर, पिकबन्धुर, पिकराग - एक बड़ा पेड़ जिसके फल खाए या चूसे जाते हैं "आम की लकड़ी का उपयोग साज-सज्जा की वस्तुएँ बनाने में किया जाता है"

Adjective(2)
(R) सामान्य, आम, साधारण, कामचलाऊ, मामूली, अविशिष्ट, अविशेष, अदिव्य - जिसमें कोई विशेषता न हो या अच्छे से कुछ हल्के दरज़े का "यह सामान्य साड़ी है"
(R) सामूहिक, आम, सार्वजनिक, सामुदायिक, सामान्य - प्रायः सभी व्यक्तियों,अवसरों,अवस्थाओं आदि में पाया जानेवाला या उनसे संबंध रखनेवाला "साक्षरता पर विचार-विमर्श हेतु एक सामूहिक सभा का आयोजन किया गया"

ऊपरोक्त विवरण में हरे में है समानार्थक शब्दों का समूह, नीले में है परिभाषा और बैंगनी में है वाक्य के रूप में उदाहरण.

आज 22 जुलाई 2006 की बात करें तो हिंदी शब्दतंत्र में 47076 अलग-अलग शब्द, और 22469 SYNSETs हैं.

मुंबई के भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के भारतीय भाषा प्रौद्योगिकी केन्द्र ने हिंदी शब्दतंत्र का विकास किया है. इसका आधार प्रिंसटन विश्वविद्यालय के वर्डनेट को माना जा सकता है. जहाँ तक मुझे पता चला है शब्दतंत्र के विकास में ढाई साल लगे और इसी साल दो अप्रैल को आईआईटी-मुंबई में ही एक वैज्ञानिक संगोष्ठी में इसका लोकार्पण किया गया. आईआईटी-मुंबई ने हिंदी के साथ ही मराठी भाषा के लिए भी मराठी शाब्दबंध नाम से एक शब्दतंत्र का विकास किया है.

बात यहीं पर आकर अटक नहीं जाती आईआईटी-मुंबई के विशेषज्ञों ने एक बेहतरीन शब्दकोश भी बना डाला है. इसमें अंग्रेज़ी-हिंदी के अलावा हिंदी-अंग्रेज़ी में भी शब्दों के अर्थ देखने की सुविधा है. यूनीवर्सल वर्ड- हिंदी लेक्सिकन नामक यह शब्दकोश कई विशेषताएँ लिए हैं. मसलन EXACT के साथ-साथ LIKE श्रेणी में भी अर्थ ढूँढने की सुविधा. और आपने LIKE श्रेणी में अर्थ ढूँढे तो शब्द से जुड़े मुहावरे भी सामने आ सकते हैं. इसी तरह यहाँ हिंदी टंकण के लिए झंझटमुक्त की-बोर्ड की भी व्यवस्था की गई है.

शब्दतंत्र और शब्दकोश दोनों विकास की अवस्था में हैं. इसलिए हमारी राय आईआईटी-मुंबई के विशेषज्ञों के लिए ख़ास महत्व रखती है. शब्दकोश पर मैंने भी एक सलाह दी कि वैसी व्यवस्था ज़रूर की जाए जिसमें पूरा शब्द टाइप करने की ज़रूरत नहीं हो. यानि दो-तीन मात्राएँ टाइप करते ही संभावित शब्दों के विकल्प सामने आ जाएँ, जिनमें से इच्छित पर क्लिक करने मात्र से ही काम बन जाए.

हमलोगों में से कई लोग कंप्यूटर के महारथी और सच्चे अर्थों में हिंदी सेवी हैं. आप महानुभावों से अनुरोध है कि आईआईटी-मुंबई के कर्मयोगियों को अपनी सलाह उपलब्ध कराने की कृपा करें.

सोमवार, जुलाई 10, 2006

विदेश मंत्रालय ने हिंदी को भुलाया

इस आलेख का शीर्षक पढ़ कर हो सकता है आपको कोई आश्चर्य नहीं हो. ठीक भी है, क्योंकि लगता नहीं कि विदेश मंत्रालय ने कभी हिंदी को याद भी किया होगा.

दरअसल यह आलेख विदेश मंत्रालय (या Ministry of External Affairs की तर्ज़ पर भारत के बाह्य मामलों का मंत्रालय?) की वेबसाइट पर केंद्रित है. इस वेबसाइट का एक पेज हिंदी में है. परंपरा (कम-से-कम पिछले दो साल से) यह थी कि विदेश मंत्रालय के अतिसक्रिय नौकरशाह इस पेज को साल में तीन बार हिलाते थे या थोड़ी तकनीकी भाषा में कहें तो अपडेट करते थे.

अपडेट क्या होता था, उस पेज पर तीन भारी-भरकम भाषण डाल दिए जाते थे. ज़ाहिर है, भाषण का बोझ पड़ने के कारण पेज हिल जाता था.

ये तीन भाषण हैं: गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति का भाषण, स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति का भाषण और स्वतंत्रता दिवस के दिन प्रधानमंत्री का भाषण.

लेकिन पता नहीं करोड़ों की प्यारी (लेकिन बेचारी) हिंदी से क्या गुस्ताख़ी हो गई, कि विदेश मंत्रालय के बाबुओं ने इस साल गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति के भाषण को अपनी वेबसाइट के हिंदी पेज पर जगह नहीं देने का फ़ैसला कर लिया. विश्वास नहीं हो नीचे दिए गए 'स्क्रीन ग्रैब' को देखें जो कि मैंने भारतीय समयानुसार 10 जुलाई की आधी रात को लिया है.


फ़ॉरेन सर्विस वाले बाबुओं से विनती है कि कम-से-कम स्वतंत्रता दिवस के मौक़े पर हिंदी को नहीं भूलें. माना हिंदी ने कोई ग़लती कर दी होगी, लेकिन इस साल गणतंत्र दिवस के मौक़े पर आपके हाथों उपेक्षित होकर वह सज़ा भी तो काट चुकी है.

अन्य विभाग और कार्यालय

विदेश मंत्रालय के हिंदी से नाममात्र का भी राजनयिक संबंध नहीं रखने के फ़ैसले की जानकारी मिलने के बाद मैंने बाक़ी मंत्रालयों, विभागों और कार्यालयों की वेबसाइटों का भी औचक निरीक्षण किया. प्रस्तुत हैं कुछ रोचक तथ्य:-

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की वेबसाइट पर एक ही जगह हिंदी है. वो जगह है अशोक स्तंभ के चित्र नीचे का स्थल जहाँ देवनागरी में 'सत्यमेव जयते' लिखा है. लेकिन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम की वेबसाइट पर तो हिंदी की एक झलक तक नहीं मिलती.

रक्षा मंत्रालय और गृह मंत्रालय की वेबसाइटों पर हिंदी को जगह नहीं दी गई है.

मुझे लगा देहाती शैली में हिंदी बोलने वाले रघुवंश प्रसाद सिंह के ग्रामीण विकास मंत्रालय की वेबसाइट पर हिंदी होगी. इस सरकारी लिंक http://rural.nic.in/ ने काम नहीं किया तो दूसरे रास्ते से रघुवंश बाबू के मंत्रालय की वेबसाइट पर जाकर अपनी उम्मीदों पर पानी फेरा.

निरक्षरों को पढ़ना-लिखना सिखाने वाले राष्ट्रीय साक्षरता मिशन की वेबसाइट पर भी हिंदी नहीं है. उम्मीद के अनुरूप रेल मंत्रालय की वेबसाइट हिंदी में भी है. लेकिन उसके कुछ हिस्से में 'कार्य प्रगति पर है.' का बोर्ड लगा मिला.

भारत के राष्ट्रीय पोर्टल पर हिंदी के नाम पर प्रेस विज्ञप्तियों का एक लिंक मात्र है. दूसरी ओर प्रेस विज्ञप्तियाँ जारी करने वाले पत्र सूचना कार्यालय की वेबसाइट पर मुझे 10 जुलाई को अंग्रेजी में जहाँ कुल 10 सरकारी बयान मिले, वहीं हिंदी में मात्र तीन.

भारत के राष्ट्रीय पोर्टल पर ही संविधान के हिंदी पेज का लिंक ढूँढा. वहाँ गया तो पहली नज़र में सब कुछ अंग्रेज़ी में ही दिखा. हालाँकि पेज पर कई अघोषित लिंक हैं जिन्हें क्लिक करने पर हिंदी दिखती है.

सर्वोच्च न्यायालय की वेबसाइट पर हिंदी नहीं है. दूरदर्शन की वेबसाइट पर भी हिंदी दर्शन नहीं होता.

लोकसभा की वेबसाइट पर हिंदी नहीं है. कुछ बहसों के अंश हिंदी में देखने के लिए हिंदी फ़ोंट डाउनलोड करने के लिए एक लिंक ज़रूर है. राज्यसभा की वेबसाइट का सीमित हिंदी संस्करण है, लेकिन योगेश और सुरेख नामक फ़ोंट डाउनलोड करने होंगे.

इसी तरह आकाशवाणी की वेबसाइट के हिंदी संस्करण को देखने के लिए कृतिदेव020 फ़ोंट डाउनलोड करना पड़ा. हालाँकि इसके बाद भी वहाँ ज़्यादातर अंग्रेज़ी माल ही दिखा या फिर खाली डिब्बा.

राजभाषा विभाग की वेबसाइट पर हिंदी को लेकर बहुत अच्छी-अच्छी बातें की गई हैं. लेकिन वहाँ उसकी हिंदी पत्रिका राजभाषा भारती के लेखों के बज़ाय, उनकी सूची मात्र से काम चलाइए.

सोमवार, जुलाई 03, 2006

मिलियन-बिलियन दूर नहीं

मेरे पिछले पोस्ट पर आई टिप्पणियों में आलोक भाई की टिप्पणी सबसे अलग हट कर है. उन्होंने लिखा है- "800 अरब डॉलर- यानी आठ खरब, न? ये अखबार वालो ने - ख़ासतौर पर अङ्ग्रेज़ी अखबार वालो ने - ये मान्यता फैला दी है कि करोड़ के ऊपर हिन्दुस्तानी गिनती में कुछ नहीं होता है। कम से कम अरब की सङ्ख्या देख के तो खुशी हुई, पर इसे भी 8 खरब लिखा जा सकता है।"

मैं आलोक जी से पूरी तरह सहमत हूँ. लेकिन ख़ुद को असहाय पाता हूँ.

सच कहें तो अब तो मुझे मात्र धार्मिक साहित्य में ही खरब का ज़िक्र नज़र आता है(जैसे: अरबों-खरबों जीवों में से प्रत्येक में ईश्वर का अंश है), या फिर खगोल विज्ञान के कतिपय लेखों में(जैसे: हमारी आकाशगंगा में खरबों की संख्या में तारे हैं).

ग़लती जनसंचार की शिक्षा देने वाले संस्थानों और मीडिया प्रतिष्ठानों की है. मीडिया संस्थानों में पढ़ाया जाता है- 'करोड़ से ऊपर जाने से बचो क्योंकि लोग अरब-खरब में कन्फ़्यूज़ हो जाते हैं.' कहने का मतलब एक अरब की जगह सौ करोड़ लिख मारो. अब जब पढ़ाई के दौरान ही इस तरह की घुट्टी पिलाई जाती हो, तब भला क्या किया जाए!

इसी तरह भारतीय प्रकाशनों में भारत से जुड़े आर्थिक आँकड़े भी डॉलरों में देने का चलन भी बहुत ख़राब माना जा सकता है. भारत में उपलब्ध अंतरराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में डॉलर का प्रयोग बिल्कुल सही है. यहाँ तक कि भारतीय पाठकों के लिए ही लेकिन अंतरराष्ट्रीय आँकड़ों के साथ लिखे गए लेखों में भी डॉलर चलेगा. लेकिन भारत में खपत के लिए, भारत से जुड़े विषयों पर, भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में छपे लेखों में डॉलर लिखने की बाध्यता से तो बचा जा सकता है.

मुझे तो लगता है स्थिति और बुरी होने वाली है. मैंने ख़ुद कई समाचार प्रतिष्ठानों में अनेक पत्रकारों को 'मिलियन' को 'लाख' में बदलते हुए झल्लाते देखा है. हिंदी मीडिया में अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़े लोगों की बढ़ती घुसपैठ को देखते हुए कुछ वर्षों के भीतर हिंदी लेखन में 'मिलियन' का महामारी की तरह फैलना तय माना जाना चाहिए.

हमें नहीं लगता इस तरह के चलन को रोकना आसान होगा क्योंकि सूचना की बौछार के बीच काम करते लोग डॉलर को रुपये में और मिलियन को लाख में बदलने का अतिरक्त बोझ उठाने को तैयार नहीं दीखते. ('टाइट डेडलाइन' में काम करते हुए उन्हें मिलियन-लाख के खेल में दशमलव के सही जगह से इधर-उधर खिसकने का भी डर रहता है.) जब मीडिया का रवैया ऐसा है तो हमारे पास इसके अलावा कोई चारा नहीं कि हम आने वाले वर्षों में हिंदी में भी मिलियन-बिलियन झेलने के लिए ख़ुद को तैयार रखें.

स्टार न्यूज़, ज़ी न्यूज़, नवभारत टाइम्स जैसे कई स्वनामधन्य मीडिया प्रतिष्ठान हिंदी के अंग्रेज़ीकरण के सबल वाहक बने हैं. स्वास्थ्य, विज्ञान और कुछ हद तक आर्थिक ख़बरों में अंग्रेज़ी के शब्दों का बढ़ता प्रचलन तो समझ में आता है क्योंकि नए-नए पारिभाषिक शब्द आ रहे हैं. लेकिन जानबूझकर हिंदी की जगह अंग्रेज़ी लिखना क्यों ज़रूरी होता जा रहा है, पता नहीं. एक छोटा-सा उदाहरण: आज 'स्टार न्यूज़' पर कोई प्रस्तुतकर्ता या संवाददाता 'टीम इंडिया' की जगह 'भारतीय टीम' कहने की ज़ुर्रत नहीं कर सकता!

रविवार, जुलाई 02, 2006

दुनिया को बदलता भारत

दुनिया भर की शायद ही कोई प्रतिष्ठित पत्रिका बची हो जिसने पिछले कुछ महीनों में भारत से आ रही अच्छी ख़बरों पर केंद्रित विशेषांक न निकाला हो. सारे प्रतिष्ठित अख़बार भी इस मुद्दे पर हर दूसरे-तीसरे महीने विशेष परिशिष्ट निकालते रहते हैं. प्रतिष्ठित अमरीकी साप्ताहिक 'टाइम' के तीन जुलाई के अंक में तेज़ी से बदल रहे भारत पर नज़र डाली गई है.

'टाइम' के भारत केंद्रित इस अंक की एक छोटी-सी प्रस्तुति मुझे बहुत दिलचस्प लगी. इसका शीर्षक है- 10 WAYS, INDIA IS CHANGING THE WORLD. इसमें भारत के बारे में ज़्यादातर अच्छे तथ्य ही हैं.

'टाइम' द्वारा जुटाए आँकड़ों के स्रोत भी कुल मिला कर अत्यंत विश्वसनीय कहे जा सकते हैं. ये हैं: संयुक्त राष्ट्र, विश्व बैंक, भारत सरकार, ब्रिटेन का राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय, फ़ोर्ब्स, मैकेन्ज़ी एंड कंपनी और प्राइसवाटरहाउसकूपर्स.


दुनिया को 10 तरह से बदलता भारत

1. अर्थव्यवस्था: भारत का सकल घरेलू उत्पाद(जीडीपी) 2005 में 800 अरब डॉलर से ज़्यादा रहा. भारत की अर्थव्यवस्था पिछले तीन वर्षों से सालाना 8 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है. मतलब भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया भर में दूसरी सबसे तेज़ गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था है.

2. इंटरनेट: भारत के इंटरनेट प्रौद्योगिकी उद्योग(अन्य आउटसोर्सिंग सेवाएँ शामिल) ने वर्ष 2005 में 36 अरब डॉलर का व्यवसाय किया. साल भर पहले के मुक़ाबले यह 28 प्रतिशत ज़्यादा है.

3. धनकुबेर: शेयर बाज़ार में तेज़ी के कारण भारत में अरबपतियों की संख्या बढ़ कर 23 हो गई है. इनमें से 10 व्यक्ति इस साल भारतीय अरबपति क्लब में शामिल हुए. (चीन में अरबपतियों की संख्या मात्र आठ है.) भारत के अरबपतियों के पास हैं कुल 99 अरब डॉलर. साल भर पहले की तुलना में यह 60 प्रतिशत ज़्यादा है.

4. उपभोक्ता: वर्ष 1996 के बाद से भारत में विमान यात्रियों की संख्या में छह गुना बढ़ोत्तरी हुई है. मतलब हर साल भारत में क़रीब पाँच करोड़ यात्री हवाई मार्ग का उपयोग करते हैं. इन दस वर्षों में भारत में मोटरसाइकिल और कारों की बिक्री दोगुनी हो चुकी है.

5. मनोरंजन उद्योग: भारत का फ़िल्म उद्योग डेढ़ अरब डॉलर का है. निर्मित फ़िल्मों की संख्या और टिकट बिक्री, दोनों ही लिहाज़ से भारतीय फ़िल्म उद्योग दुनिया में पहले नंबर पर है. भारत में सालाना हॉलीवुड के मुक़ाबले पाँच गुना ज़्यादा यानि क़रीब 1,000 फ़िल्में बनती हैं.

6. अंतरराष्ट्रीय पर्यटन: पिछले दो वर्षों में भारतीय पर्यटन उद्योग में 20 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है. पिछले साल ब्रिटेन, फ़्रांस और जर्मनी के 9,93,000 पर्यटक भारत पहुँचे. यानि भारत पहुँचे कुल विदेशी पर्यटकों में से 24 प्रतिशत इन तीन देशों से थे.

7. प्रतिभा निर्यात: भारतीय मूल के क़रीब 20 लाख व्यक्ति अमरीका में और क़रीब 10 लाख ब्रिटेन में रहते हैं. अमरीका में भारतीय प्रवासियों की औसत घरेलू आय वहाँ किसी भी जातीय समूह में सबसे ज़्यादा है.

8. जनापूर्ति: भारत में एक अरब से ज़्यादा लोग रहते हैं. दूसरे शब्दों में दुनिया का हर छठा व्यक्ति भारत में रहता है. अनुमान हैं कि दस वर्षों के भीतर भारत दुनिया का सबसे ज़्यादा आबादी वाला राष्ट्र होगा.

9. संकट केंद्र: एड्स से जुड़े वायरस एचआईवी से संक्रमित सबसे ज़्यादा लोग भारत में हैं. विभिन्न अनुमानों के अनुसार कोई 57 लाख.

10. चीन को चुनौती: भारत सकल घरेलू उत्पाद और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के मामलों में चीन से पीछे है. लेकिन भारतीय समाज ज़्यादा मुक्त है और अर्थव्यवस्था सरपट आगे भाग रही है- ऐसे में लंबी अवधि में वह चीन से आगे जा सकता है.