शुक्रवार, मार्च 31, 2006

आयो रे दिन परमाणु ऊर्जा के!

दुनिया एक बार फिर परमाणु ऊर्जा की ओर उम्मीदों भरी नज़र से देख रखी है. ये हसरत भरी नज़र सिर्फ़ भारत की ही नहीं है, बल्कि चीन, इंग्लैंड और अमरीका जैसे देश भी परमाणु ऊर्जा के विकल्प पर विचार कर रहे हैं. ऐसा सिर्फ़ ग्रीनहाउस गैस रहित ऊर्जा पर ज़ोर होने के कारण ही नहीं है, बल्कि अन्य कई आर्थिक, सामरिक और व्यावहारिक कारण भी हैं.

तो क्या समझा जाए, हम परमाणु ऊर्जा की दूसरी लहर को देखने वाले हैं. यदि परम विश्वसनीय माने जाने वाली पत्रिका नेशनल ज्यॉग्राफ़िक के अप्रैल 2006 अंक में छपे एक विशेष लेख की बात करें तो इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि अगले कुछ वर्षों में हमें कई बड़े और शक्तिशाली देश परमाणु ऊर्जा के विकल्प पर तेज़ी से काम करते नज़र आएँगे.

परमाणु ऊर्जा की बात की जाए तो सबसे बढ़िया उदाहरण फ़्रांस का है. फ़्रांस की कुल बिजली ज़रूरतों का क़रीब 80 प्रतिशत परमाणु रिएक्टरों से पूरा होता है. अमरीका तो ऊर्जा का सबसे बड़ा उपयोगकर्ता रहा है, और वहाँ भी 20 प्रतिशत बिजली परमाणु बिजली ही है. अमरीका में 103 परमाणु रिएक्टर सक्रिया हैं यानि दुनिया के कुल रिएक्टरों का एक चौथाई. तूफ़ानी गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था वाले भारत और चीन जैसे देश तो ऊर्जा के हर विकल्प पर हाथ डालने को मज़बूर हैं, लेकिन आपको जान कर आश्चर्य होगा कि नन्हें से देश में फ़िनलैंड में न सिर्फ़ एक परमाणु रिएक्टर निर्माणाधीन है, बल्कि फ़िनलैंड के ऊर्जा उत्पादन का क़रीब एक तिहाई परमाणु ऊर्जा के रूप में आता है.

नेशनल ज्यॉग्राफ़िक के लेख का शीर्षक परमाणु ऊर्जा से जुड़े उधेड़बुन के बारे में सब कुछ बता देता है- 'यह भयावह है. यह महँगी है. यह धरती को बचा सकती है.'

ग़ौरतलब है कि परमाणु ऊर्जा का विरोध या फिर इसे लेकर उत्साह की कमी तीन कारणों के चलते है- बहुत ज़्यादा लागत, दुर्घटना की आशंका और रेडियोधर्मी कचरे को ठिकाने लगाने की समस्या. ग्रीनपीस जैसे संगठनों के विरोध को चौथा कारण बताया जा सकता है, हालाँकि आर्थिक और सामरिक रणनीति पर निगाह रखने वाली सरकारें इस तरह के विरोध को ज़्यादा गंभीरता से नहीं लेती हैं.

कहने की ज़रूरत नहीं कि एक परमाणु रिएक्टर को स्थापित करना अब भी भारी लागत वाला काम है, इसीलिए तो ज़्यादा मामलों में सरकारें स्वयं इसका ख़र्च वहन करती है यानि इस बाबत पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप वाली चीज़ कम ही दिखती है. लेकिन इसका तोड़ यह है कि रिएक्टर पर काम करने वाली कंपनियों(ज़्यादातर प्राइवेट) ने पहले से कहीं ज़्यादा सक्षम रिएक्टरों के डिज़ायन बना रखे हैं. मतलब ऐसे रिएक्टर जो कम ख़र्च पर ज़्यादा उत्पादन करे, और कचरा भी कम निकाले.

नए डिज़ायनों वाले रिएक्टर की बात छोड़ भी दें तो अनुभव के आधार पर पुराने रिएक्टरों को भी ज़्यादा सुरक्षित, ज़्यादा उत्पादक बनाया जा रहा है. उदाहरण के तौर पर अमरीका की बात करें तो वहाँ कुल विद्युत उत्पादन में परमाणु बिजली का हिस्सा 20 प्रतिशत बना हुआ है. ये आश्चर्यजनक बात लग सकती है क्योंकि क़रीब तीन दशकों से अमरीका में कोई नया परमाणु रिएक्टर स्थापित नहीं किया गया है, और इस दौरान हाइड्रोकार्बन आधारित बिजली उत्पादन में 15 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है. तो फिर परमाणु बिजली का योगदान 20 प्रतिशत कैसे बना रहा. सीधी-सी बात है, पहले परमाणु रिएक्टरों को मरम्मत के लिए या सावधानीवश हर दूसरे-तीसरे दिन शटडॉउन करना पड़ता था और ऐसे में रिएक्टरों की 65 प्रतिशत क्षमता का ही दोहन हो पाता था. अब वैसी बात नहीं रही, रिएक्टर कम ही बंद करने पड़ते हैं और उनकी औसत 90 प्रतिशत क्षमता का दोहन होता है.

जहाँ तक ख़तरे की बात है तो पूरी दुनिया में अभी तक तीन ही परमाणु दुर्घटनाओं को याद किया जाता है- बीस साल पहले 1986 की चेर्नोबिल(यूक्रेन) की दुर्घटना, 1979 में थ्री माइल्स आइलैंड(अमरीका) की दुर्घटना और 1957 में विंडस्केल(ब्रिटेन) की दुर्घटना. याद रहे की इन दुर्घटनाओं में जानमाल की उतनी क्षति नहीं हुई जितना हर साल ऊर्जा के तथाकथित सुरक्षित विकल्पों के दोहन के दौरान कोयला खानों और तेल उत्पादन केंद्रों में होती है. नेशनल ज्यॉग्राफ़िक के इसी अंक की कवर स्टोरी को देखने से पता चलता है कि चेर्नोबिल परमाणु दुर्घटना ने पूरी दुनिया को स्तब्ध कर दिया था क्योंकि इस तरह की किसी दुर्घटना से निपटने की कोई तैयारी नहीं थी. लेकिन अब वैसी बात नहीं रही. बीते बीस साल में विभिन्न देश परमाणु दुर्घटनाओं से निपटने की कारगर रणनीतियाँ तैयार कर चुके हैं.

और रही परमाणु कचरे को ठिकाने लगाने की बात तो नए समुन्नत परमाणु रिएक्टर बिजली के लिए यूरेनियम जैसे ईंधन में समाई ऊर्जा के अंतिम अंश तक का दोहन करने की कोशिश करते हैं. मतलब पहले की तुलना में काफ़ी कम कचरा जमा होने की आशंका है. इसके अलावा अमरीका, फ़्रांस और ब्रिटेन जैसे देशों की कंपनियाँ परमाणु कचरे को ठिकाने लगाने की ज़्यादा सुरक्षित, ज़्यादा आसान और कम ख़र्चीले तरीक़े पर लगातार काम कर रही हैं.

रही बात परमाणु ऊर्जा के उज्जवल भविष्य की, तो फ़िनलैंड जैसे छोटे से देश का उदाहरण तो इस लेख के शुरू में ही है. अमरीका की चौथी सबसे बड़ी बिजली उत्पादक कंपनी एनटर्जी कॉरपोरेशन ने 2008 में नए रिएक्टर की स्थापना की अनुमति के लिए संघीय सरकार को आवेदन सौंपने की योजना बनाई है. दो साल बाद इसलिए, क्योंकि जेनरल इलेक्ट्रिक और वेस्टिंगहाउस नामक कंपनियों ने नए ज़माने के ज़्यादा सुरक्षित और ज़्यादा सक्षम परमाणु रिएक्टर का डिज़ायन तैयार करने के लिए इतना समय और माँगा है. माना जाता है कि 2010 तक संघीय सरकार नए रिएक्टरों की स्थापना का फ़ैसला सुना देगी. परमाणु ऊर्जा को जन्म देने वाले देश की नीति में यह परिवर्तन निश्चय ही भारत जैसे महत्वाकांक्षी देश के लिए प्रेरणा का स्रोत बन सकेगा, और यदि भारत-अमरीका परमाणु सहयोग की ताज़ा संधि अमरीकी संसद में स्वीकृत हो गई- तब तो भैया समझ लो, भारत के लिए सोने पे सुहागा!

ब्रिटेन की बात करें तो परमाणु ऊर्जा से कुल बिजली ज़रूरतों का 20 प्रतिशत जुटाने वाला यह देश अपनी परमाणु नीति पर पुनर्विचार करने वाला है. वरना अभी तक की स्थिति ये है कि उसे 2023 तक सारे रिएक्टर बंद करने होंगे(जर्मनी की पिछली सरकार ने तो अपने सारे रिएक्टर 2020 तक बंद करने का फ़ैसला भी कर लिया है. मेरे विचार से श्रोएडर सरकार में शामिल ग्रीन पार्टी का दबाव असर कर गया होगा). अब ब्लेयर सरकार ने इस नीति को बदलने का मन बना लिया है. कहा जाता है सामरिक और आर्थिक ज़रूरतों के अलावा यहाँ सरकार पर परमाणु धंधे से जुड़ी कंपनियों का दबाव भी काम कर रहा है.

और अंत में भारत की बात करें तो नेशनल ज्यॉग्राफ़िक का लेख पढ़ कर गर्व की अनुभूति होती है. इसलिए नहीं कि इस समय दुनिया में सर्वाधिक आठ परमाणु रिएक्टर भारत में निर्माणाधीन हैं. भारत की परमाणु क्षमता के बारे में क्या लिखा है, एक बानगी प्रस्तुत है-

"भारत की परमाणु क्षमता पर बाहरी ताक़तों का नहीं के बराबर प्रभाव है. कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो यह पूरी तरह स्वदेश में विकसित है. भारत के पास 'एकला चलो रे' के अलावा कोई विकल्प नहीं था. इसने 1974 में भूमिगत परमाणु धमाका किया. इसमें संभवत: 1950 के दशक में कनाडा की सहायता से निर्मित परीक्षण परमाणु रिएक्टर से ग़ायब किए गए प्लूटोनियम का इस्तेमाल किया गया. धमाके के बाद विश्व समुदाय ने भारत को अलग-थलग कर दिया. विभिन्न देशों ने भारत को तकनीकी सहयोग देना बंद कर दिया. राजस्थान के रिएक्टर पर काम कर रहे कनाडा के इंजीनियर वापस लौट गए. ऐसे में भारत ने अपने दम पर रिएक्टर निर्माण का काम पूरा कर दिखाया. अब तो यह स्थिति है कि भारत परमाणु तकनीक से जुड़े हर काम का माहिर है. कैगा के रिएक्टर के लिए यूरेनियम ईंधन कोलकाता से पश्चिम स्थित खदानों(मेरे विचार से झारखंड) से आता है, दक्षिण भारत स्थित एक कारखाने(मेरे विचार से भेल) ने 65 फ़ीट ऊँचे और 110 टन वज़नी स्टीम जेनेरेटर की आपूर्ति का काम सँभाला. कंट्रोल सिस्टम, ज़िरकोनियम मिश्र धातु के बने ईंधन ट्यूब और 22 टन वज़नी रिएक्टर के उपकरण हैदराबाद से आए."

पत्रिका में भारतीय अधिकारियों के कुछ बयान में भी हैं. देखिए बानगी कितने आत्मविश्वास भरे बयान हैं:

चेन्नई के पास इंदिरा गांधी परमाणु अनुसंधान केंद्र के निदेशक बलदेव राज कहते हैं-'हमारी ऊर्जा नीति एकदम सरल है. यदि बिजली बनाने की कोई जुगत मौज़ूद है, तो उसकी सहायता से जितनी बिजली बना सकते हो बनाओ.'

भारतीय परमाणु ऊर्जा विभाग के प्रवक्ता स्वपनेश मलहोत्रा कहते हैं-'हम पीछे नहीं जा सकते. हम सिर्फ़ आगे ही बढ़ेंगे. ज़िंदगी ऊर्जा पर निर्भर करती है. कहाँ से लाएँगे ऊर्जा? कहीं न कहीं से तो लाना ही पड़ेगा.'

मंगलवार, मार्च 28, 2006

ग़रीबी उन्मूलन का योगी फ़ार्मूला

कंप्यूटर पेशेवरों के निर्यात के ताज़ा चलन के बहुत पहले से ही आधुनिक भारत एक अन्य प्रकार के विशेषज्ञों के निर्यात के लिए पूरी दुनिया, ख़ास कर पश्चिमी जगत में जाना जाता रहा है. विशेषज्ञों का यह प्रकार है- आध्यात्मिक गुरुओं का. भारत से बाहर जाकर किसी न किसी कारण से चर्चित हुए गुरुओं में प्रमुख हैं महर्षि महेश योगी. हॉलैंड में जमे महर्षि अपनी उम्र के ढलान पर हैं, लेकिन अब भी हर दूसरे-तीसरे महीने किसी न किसी कारण सुर्खियों में आ ही जाते हैं.

पिछले दिनों उन्होंने ब्रिटेन में अपने आश्रम को बंद करने की घोषणा कर अपने हज़ारों ब्रितानी शिष्यों का दिल तोड़ा. जानना चाहेंगे क्यों? महर्षि ने ब्रितानी प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर में शैतान की छवि देखी क्योंकि वह इराक़ में हज़ारों निर्दोष लोगों की मौत का प्रमुख कारण हैं. महर्षि ने यह कहते हुए अपने चेलों से आश्रम बंद करने को कहा कि 'शैतान के देश में अच्छे काम करने का कोई मतलब नहीं.'

महर्षि महेश योगी से जुड़ी अनेक संस्थाओं में से एक है महर्षि ग्लोबल फ़ाइनेंसिंग. इस संस्था ने पिछले दिनों इंटरनेशनल हेराल्ड ट्रिब्यून अख़बार में कई दिनों तक बड़े-बड़े विज्ञापन देकर दुनिया से ग़रीबी का नामोनिशान मिटा देने के लिए एक योजना की घोषणा की. ग़रीबी का सत्यानाश करने के लिए इसकी सीधी-सादी योजना है- दुनिया भर में उस ज़मीन पर खेती करवाना जो अभी उपयोग में नहीं हैं.

अपने विज्ञापनों के ज़रिए महर्षि ग्लोबल फ़ाइनेंसिंग ने बाँड बेचकर 8,000 अरब यूरो जुटाने की घोषणा की. इसे नाम दिया गया है वर्ल्ड पीस बाँड. हर बाँड 50 हज़ार यूरो मूल्य का है.(आज की तिथि में एक यूरो लगभग 53.50 रुपये के बराबर है.) बाबाजी की संस्था का दावा है कि बाँड में कम से कम तीन साल के लिए निवेश करने पर हर साल 10 से 15 प्रतिशत का मुनाफ़ा पाया जा सकता है.

महर्षि महेश योगी की वित्त संस्था बाँड बेच कर जुटाई गई रकम से दो अरब हेक्टेयर ज़मीन पर ऑर्गेनिक खेती करेगी. महर्षि ग्लोबल फ़ाइनेंसिंग का कहना है कि यह ज़मीन 100 देशों में है और प्रति हेक्टेयर ज़मीन पर आर्गेनिक खेती की शुरुआत पर चार हज़ार यूरो की लागत आएगी.

वित्तीय मीडिया सेवा ब्लूमबर्ग ने महर्षि ग्लोबल फ़ाइनेंसिंग के इस उद्यम की जाँच की. ब्लूमबर्ग को इस बात के कोई सबूत नहीं मिले कि वर्ल्ड पीस बाँड में निवेश से हर साल 10-15 प्रतिशत मुनाफ़ा कमाने की कोई भी संभावना हो सकती है. पहली बात तो यह कि जिस भूभाग पर खेती की बात की जा रही है वो बहुत ही बड़ा है, यानि खेती की थोड़ी भी संभावना वाली दुनिया की कुल ज़मीन का आठवाँ हिस्सा. कहने की ज़रूरत नहीं कि अच्छी ज़मीन पर हर जगह पहले से ही खेती हो रही है, और महर्षि की संस्था उपयोग में नहीं लाई जा रही ज़मीन पर खेती की बात कर रही है, जो कि निश्चय ही दूसरे दर्जे की ज़मीन होगी. दूसरी बात यह कि खेती में निवेश को कभी भी पूरी तरह सुरक्षित नहीं कहा जा सकता है क्योंकि खेती को प्रतिकूल मौसमी दशाओं और कीटजनति बीमारियों जैसे ख़तरों का हमेशा सामना करना पड़ता है. अत्यधिक बारिश, सूखा, ओलावृष्टि, गर्मी, सर्दी और न जाने कैसी-कैसी विपरीत मौसमी दशाएँ खेती को पूरी तरह चौपट करने में सक्षम होती हैं.

ब्लूमबर्ग के पत्रकार ने इस आशंका को महर्षि ग्लोबल फ़ाइनेंसिंग के कर्ताधर्ता बेंजामिन फ़ेल्डमैन के सामने पेश किया. फ़ेल्डमैन कोई स्पष्ट जवाब देने की स्थिति में नहीं थे. उन्होंने मात्र इतना कहा कि वे निर्यातोन्मुख खेती कराएँगे. उनका यह भी कहना था कि विपरीत मौसमी दशाएँ एक बार में ज़्यादा से ज़्यादा दो-एक देशों में खेती पर बुरा असर डालेगी, सभी सौ देशों में नहीं. लेकिन जब अत्यंत उपजाऊ ज़मीन पर अत्याधुनिक वैज्ञानिक तरीक़े से की जा रही खेती में भी लगातार 15 प्रतिशत रिटर्न मिलने के उदाहरण कम ही मिलते हों, तो महर्षि ग्लोबल फ़ाइनेंसिंग किस दम पर ऐसा दावा कर रही है कहना मुश्किल है.


यहाँ उल्लेखनीय यह है कि नीदरलैंड्स के अधिकारी महर्षि बाँड की बिक्री पर रोक भी नहीं लगा सकते क्योंकि वहाँ के क़ानून के हिसाब से योजना में कोई खोट नहीं है. नीदरलैंड्स के वित्तीय क़ानून कुछ ज़्यादा ही उदार हैं तभी तो महर्षि महेश योगी साढ़े तीन साल पहले राम नामक अपनी अलग मुद्रा जारी करने में सफल रहे थे.

गुरुवार, मार्च 23, 2006

त्याग के खेल में फिर पिटी भाजपा

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के लोकसभा की सदस्यता और राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की अध्यक्षता से इस्तीफ़े को भारतीय मीडिया में 'सोनिया ने त्याग का ब्रह्मास्त्र फेंका', 'सोनिया के त्याग की ताक़त' और 'सोनिया ने भाजपा के नहले पर दहला मारा' जैसी सुर्खियाँ मिल रही हैं. भारतीय जनता पार्टी के नेता चीख-चीखकर टेलीविज़न कैमरों के सामने कह रहे हैं कि 'सोनिया ढोंगी है', 'सोनिया अपने ही जाल में फंस गई है', 'सोनिया की पोल खुल गई' आदि-आदि. कांग्रेसियों की प्रतिक्रिया वैसी ही है जैसा कि आप उनसे अपेक्षा करते हैं, यानि 'सोनियाजी त्याग की प्रतिमूर्ति हैं', 'सोनियाजी ने नेहरू-गांधी परंपरा का एक बार फिर निर्वाह किया', 'सोनियाजी के आदर्शवाद की दुनिया में कोई मिसाल नहीं' आदि-आदि.

कहने की ज़रूरत नहीं की ऊपर के सारे नारे, सारी सुर्खियाँ सच्चाई से बहुत दूर हैं. न तो सोनिया महात्मा गांधी की नारी-अवतार हैं, और न ही भाजपाई दूध के धुले हैं.

बहुत सरल बात है: जब मुख्य विपक्षी पार्टी की अंदरूनी राजनीति में ऑफ़-द-रिकॉर्ड ब्रीफ़िंग से लेकर जूतम-पैजार तक, और धरना-प्रदर्शन से लेकर पदयात्रा तक की नौबत हो, तो ऐसे में सत्तारूढ़ दल के शीर्ष नेता के पद-त्याग के छोटे से क़दम को भी बहुत बड़े त्याग के रूप में भुनाया जा सकता है.

बात सापेक्षिक महत्व की है. किसी भी दल या नेता की छवि उसके प्रतिद्वंद्वियों की छवि के मुक़ाबले ही तय होती है. यदि प्रतिद्वंद्वी पार्टियों में नीचे से ऊपर तक पदलोलुपता के उदाहरण भरे पड़े हों, तो ऐसे में कांग्रेस पार्टी दूध की धुली ही नज़र आएगी. यदि भाजपा और सपा जैसी पार्टियों के नेता आपसी टांग-खिंचाई और टुच्ची बयानबाज़ी से आगे नहीं जा पाते हैं तो सोनिया गांधी त्याग की प्रतिमूर्ति ही नज़र आएंगी.

एक और बात बिल्कुल स्पष्ट है- जैसे कांग्रेस के बजाय कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया को निशाना बनाने की भाजपा की नीति आम चुनाव में नाकाम साबित हुई थी, उसी तरह यूपीए सरकार की नीतियों के बज़ाय यूपीए प्रमुख सोनिया को निशाना बनाने की उसकी नीति भी शायद ही कभी सफल हो.

ये बात भी साफ़ है कि सोनिया गांधी किसी पद पर रहें या नहीं, जब तक वो राजनीति में सक्रिय हैं कांग्रेस पार्टी पर सर्वाधिक दबदबा उन्हीं का रहेगा. क्योंकि बात कांग्रेस संस्कृति की है. कांग्रेसियों की आज़ादी के बाद की पीढ़ी ने हमेशा महसूस किया है कि नेहरू-गांधी परिवार की छत्रछाया में ही उनका राजनीतिक लालन-पालन बेहतर ढंग से हो सकता है.

सोनिया या उनके बच्चों को नहीं पसंद करने वाले भाजपाइयों या संघ परिवार के पास दो ही उपाय हैं- या तो वे कांग्रेसियों के दिमाग की सर्किट बदलने का इंतज़ाम करें, या फिर अपने कुनबे को सँभालते हुए बेहतर वैकल्पिक नीतियों के साथ सामने आएँ. पहला उपाय तो संभव है नहीं, सो दूसरे पर जितना प्रभावी ढंग से काम कर सकें उतना बेहतर.

यदि हर साल बोफ़ोर्स एक्स्क्लुसिव ख़बरें लाने का दावा करने वाले और पिछले दिनों भारत-अमरीका परमाणु सहयोग से सर्वाधिक फ़ायदा पाकिस्तान को होने की बात करने वाले एमजे अकबर जैसे पत्रकार भी ताज़ा नाटक के बाद सोनिया के पहले से ज़्यादा मज़बूत होकर उभरने की बात करने लगे हों, तो कहने की ज़रूरत नहीं कि आने वाले दिनों में भाजपा की हताशा और बढ़ने ही वाली है.

गुरुवार, मार्च 16, 2006

कमज़ोर पड़ रही है अमरीकी पकड़

प्रख्यात विचारक नोम चोम्स्की का मानना है कि दुनिया (ख़ास कर लैटिन अमरीकी और एशियाई देश) अंतत: अमरीकी प्रभाव से मुक्त होने की राह पर है.

चोम्स्की मूलत: एक भाषाविद हैं. उनके भाषा की उत्पत्ति और व्याकरण संबंधी कार्यों का फ़ायदा मनोविज्ञान और कंप्यूटर विज्ञान के क्षेत्र में भी उठाया जा रहा है. हालाँकि मैसेच्यूसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी में भाषा विज्ञान के प्रोफ़ेसर चोम्स्की की ख्याति एक समाजवादी विचारक, युद्ध विरोधी और अमरीकी नीतियों के मुखर विरोधी के रूप में ज़्यादा है.

गार्डियन में छपे चोम्स्की के संक्षिप्त लेख की मानें तो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से ही अमरीका की सबसे बड़ी चिंता रही है यूरोप और एशिया का आत्मनिर्भरता की ओर क़दम बढ़ाना. अमरीका की यह चिंता हाल के दिनों में और बढ़ गई है क्योंकि एक त्रिध्रुवीय व्यवस्था का आकार लेना जारी है. उभर रहे ये तीन ध्रुव हैं- यूरोप, उत्तर अमरीका और एशिया.

चोम्स्की कहते हैं कि बात इतने पर ही थमी नहीं है बल्कि अमरीका की चिंता को और बढ़ा रहा है दिन-प्रतिदिन लैटिन अमरीकी देशों का भी आत्मनिर्भरता की राह पर आगे बढ़ना. आज एक ओर अमरीका मध्य-पूर्व में पूरी तरह उलझा पड़ा है, वहीं एशिया और लैटिन अमरीका के देश लगातार परस्पर क़रीब आ रहे हैं.

चोम्स्की कहते हैं कि वर्तमान में अमरीका के लिए एक बहुत ही बड़ी चिंता का सबब है एशिया और लैटिन अमरीका के भीतर चल रहा क्षेत्रीय एकजुटता का प्रयास. और इस नए भौगोलिक समीकरण के बीच में है ऊर्जा यानि तेल.

बात एशिया से शुरू करें तो अमरीका को सर्वाधिक सिरदर्द दे रहा है चीन. उसने जता दिया है कि वह कोई यूरोप नहीं कि अमरीकी ठसक स्वीकार कर ले. अमरीका की मज़बूरी है कि वह चीन से खुला टकराव मोल नहीं ले सकता क्योंकि उसकी अर्थव्यवस्था चाहे-अनचाहे ड्रैगन राष्ट्र पर बुरी तरह आश्रित हो गई है. इसके अलावा चीन का वित्तीय रिज़र्व मात्रा में जापान के रिज़र्व के बराबर पहुँच चुका है, इसे देखते हुए भी अमरीका उससे सीधे पंगा लेने की नहीं सोच सकता.

ख़ैर, बात हो रही थी क्षेत्रीय एकजुटता और इस प्रक्रिया में तेल की भूमिका की. इसी साल जनवरी में सउदी अरब के शाह ने चीन की यात्रा कर द्विपक्षीय आर्थिक संबंधों को नई दिशा देने वाले समझौते किए. इसमें तेल, प्राकृतिक गैस और निवेश के क्षेत्रों में संबंधों को प्रगाढ़ करने वाले उपाय शामिल हैं. याद रखें कि मध्यपूर्व में अमरीका का सबसे क़रीबी रहा है सउदी अरब. जहाँ तक ईरान की बात है तो पहले से ही उसके तेल उत्पादन का सबसे बड़ा हिस्सा चीन को जा रहा है, बदले में उसे चीन से लड़ाई के साजोसामान मिल रहे हैं.

चोम्स्की के अनुसार एशिया के एक और बड़े देश भारत के पास भी विकल्प हैं- या तो वह अमरीका से प्रगाढ़ता बढ़ाए, या फिर पूर्वी एशियाई देशों के संगठन आसियान से जिनके मध्य-पूर्व के तेल उत्पादक देशों से निकट संबंध लगातार मज़बूत होते जा रहे हैं. यहाँ जनवरी में भारत और चीन के बीच हुए समझौते का ज़िक्र करना ज़रूरी होगा. इस समझौते के बाद न सिर्फ़ दोनों देश प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में सहयोग बढ़ा रहे हैं बल्कि दोनों ने तेल और गैस की खोज और उत्पादन के क्षेत्र में भी हाथ मिला लिए हैं. यह समझौता तेल और प्राकृतिक गैस के अंतरराष्ट्रीय सेक्टर का चेहरा बदल कर रख सकता है. चोम्स्की मानते हैं कि नए बनते समीकरणों को देखते हुए बुश का भारत जाना और उसे अपने साथ रखने के लिए परमाणु सहयोग और अन्य तरह की साझेदारी का चारा डालना आश्चर्यजनक नहीं है.

लैटिन अमरीका में क्षेत्रीय एकजुटता के बारे में चोम्स्की लिखते हैं कि वेनेज़ुएला से अर्जेंटीना तक वामपंथी रूझान वाली सरकारें सत्ता में आ चुकी हैं. इन देशों, ख़ास कर बोलीविया और इक्वाडोर, में मूल निवासी बहुत ज़्यादा प्रभावी हो गए हैं और उनकी माँग है कि तेल और गैस सेक्टर में दूसरे देशों या बहुराष्ट्रीय कंपनियों की दखल बिल्कुल नहीं हो. लैटिन अमरीकी देश एक मज़बूत क्षेत्रीय आर्थिक ब्लॉक के विकास की दिशा में भी क़दम बढ़ाते जा रहे हैं, ताकि अमरीकी प्रभाव वाले अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों पर निर्भरता कम हो. इस संबंध में चोम्स्की वेनेज़ुएला-अर्जेंटीना और बोलीविया-वेनेज़ुएला के साथ-साथ क्यूबा-वेनेज़ुएला निकट संबंधों का भी ज़िक्र करते हैं.

जहाँ तक एशिया से लैटिन अमरीका के बढ़ते संबंधों की बात है तो इस क्षेत्र के सबसे बड़े तेल उत्पादक वेनेज़ुएला ने चीन के साथ बहुत ही प्रगाढ़ता विकसित कर ली है. वेनेज़ुएला ज़्यादा से ज़्यादा मात्रा में तेल चीन को बेचना चाहता है ताकि खुली शत्रुता रखने वाले अमरीका पर उसकी निर्भरता कम हो सके. (यहाँ चोम्स्की के लेख में विश्व व्यापार संगठन जैसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत और ब्राज़ील की प्रभावपूर्ण एकजुटता की बात भी जोड़ी जा सकती है.)

रविवार, मार्च 12, 2006

रनों का बादल फटा, इच्छाशक्ति जीती

हर महत्वपूर्ण व्यक्ति, घटना या अवसर के लिए साल का एक दिन तय होता है. क्या ही अच्छा होता जो खेलों के लिए भी ऐसी व्यवस्था होती. और कभी ऐसी व्यवस्था होती है तो निश्चय ही क्रिकेट के लिए तय होगा 12 मार्च का दिन.

ग़ैरक्रिकेटिंग दुनिया में निठल्ले दर्शकों की पसंद के रूप में जानी जाती क्रिकेट ने रविवार 12 मार्च 2006 को दिखा दिया कि आख़िर क्या ख़ूबसूरती है इस खेल में. जोहानसबर्ग एकदिवसीय मैच में ऑस्ट्रेलिया ने मेज़बान दक्षिण अफ़्रीका के सामने क्रिकेट इतिहास में अब तक का सबसे बड़ा लक्ष्य पेश किया- 435 रनों का लक्ष्य. और निर्धारित पचास ओवरों में एक गेंद शेष रहते दक्षिण अफ़्रीका ने यह लक्ष्य हासिल कर दिखाया- नौ विकेट पर 438 रन बना कर. इसी के साथ दक्षिण अफ़्रीका ने पाँच एकदिवसीय मैचों की सिरीज़ 3-2 से अपने नाम कर ली. क्या ही ऐतिहासिक स्कोरकार्ड है इस मैच का.

जोहानसबर्ग में रनों की बरसात नहीं हुई, बल्कि रनों का बादल फट पड़ा. जैसे हिमाचल प्रदेश में बादल फटने की घटना में कुछ मिनटों के दौरान कई सौ मिलीमीटर बारिश हो जाती है, उसी तरह जोहानसबर्ग में रनों का बादल फटा और एक ही दिन में बन गए 872 रन. ऑस्ट्रेलियाई गेंदबाज़ एमएल लुइस से सबको सहानुभूति होगी- बेचारे ने निर्धारित दस ओवरों में 113 रन दिए, बिना कोई विकेट लिए. जोहानसबर्ग में गेंदबाज़ों की बेचारगी की क़ीमत पर मज़े किए रिकी पोंटिंग और हर्शेल गिब्स जैसे बल्लेबाज़ों ने- पोंटिंग ने नौ छक्कों और 12 चौकों की सहायता से बनाए 105 गेंदों पर 164 रन, जबकि गिब्स ने 21 चौकों और सात छक्कों के सहारे बनाए 111 गेंदों पर 175 रन.

क्रिकेट भले ही गेंद और बल्लों से खेला जाता हो, लेकिन अन्य खेलों की तरह इसमें भी बड़े अवसरों पर जीत होती है सिर्फ़ अटल इरादे और दृढ़ इच्छाशक्ति की. 12 मार्च 2006 को जोहानसबर्ग में दक्षिण अफ़्रीकी बल्लेबाज़ों के माध्यम से इसी जुझारूपन, दृढ़ निश्चय की जीत हुई. वरना पोंटिंग और उनके बल्लाधारियों ने जितनी बड़ी चुनौती पेश की थी उससे आज तक किसी भी टीम का सामना नहीं हुआ था.

ज़ाहिर है यह मैच अगले साल के विश्व कप क्रिकेट मुक़ाबले तक सभी प्रतिभागी टीमों के लिए एक मापदंड का काम करेगा. भारतीय टीम(टीवी चैनलों की 'टीम इंडिया') को विश्व कप का दावेदार बताने वाले निश्चय ही अपने दावे को दोबारा ठोक-बजाकर देखेंगे. जहाँ तक मेरी राय है, जोहानसबर्ग के इस ऐतिहासिक मैच से मौजूदा भारतीय टीम पर भरोसा बढ़ना ही चाहिए. कम से कम इस दृष्टि से तो ज़रूर ही, कि बड़े लक्ष्यों का पीछा करने के मामले में हमारा रिकॉर्ड हाल के दिनों में बहुत बढ़िया रहा है.

शनिवार, मार्च 11, 2006

इकोनोमिस्ट का बेसुरा राग

लंदन से प्रकाशित साप्ताहिक इकोनोमिस्ट ने जैसे भारत-अमरीका परमाणु समझौते को पटरी से उतारने के लिए एड़ी-चोटी एक करने की ठान ली है. बुश की यात्रा से पहले अपने संपादकीय में इसने अमरीकी राष्ट्रपति को आगाह किया कि भारत को परमाणु सौगात देना उनकी नासमझी होगी. और एक पखवाड़े की भीतर इसी मुद्दे पर दूसरी कवर स्टोरी करते हुए इसने अमरीकी संसद को सलाह दी है कि वो समझौते को नकार कर बुश को अँगूठा दिखा दे.

(इकोनोमिस्ट की नैतिकता का ढोंग मात्र एक तथ्य से स्पष्ट हो जाता है कि इसने इराक़ पर हमले के बुश के फ़ैसले के समर्थन में कई पृष्ठों का संपादकीय लिखा था, ये जानते हुए भी कि हमला सारे अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों के ख़िलाफ़ तथा संयुक्त राष्ट्र और विश्व जनमत को ठेंगा दिखाते हुए हो रहा है.)

अच्छा है कि अमरीकी राष्ट्रपति न्यूयॉर्क टाइम्स या इकोनोमिस्ट जैसे प्रकाशनों के विद्वान संपादकों की नहीं, बल्कि दशकों आगे की सामरिक परिस्थिति पर नज़र रखने वाले रणनीतिक सलाहकारों की सुनते हैं. साथ ही, ताज़ा समझौते का एक पहलू शुद्ध धंधे का भी है क्योंकि परमाणु साजोसमान की आपूर्ति करने वाली कंपनियों में सबसे ज़्यादा अमरीकी कंपनियाँ हैं.

ताज़ा संपादकीय में इकोनोमिस्ट ने डॉ. स्ट्रैंजडील कह कर बुश की खिल्ली उड़ाई है और इशारों ही इशारों में कहा है कि भारतीय परमाणु संयंत्रों को प्लूटोनियम और यूरेनियम ईंधन के बिना तड़प-तड़प कर मरने के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए. इकोनोमिस्ट के विद्वानों ने सवा पेज के संपादकीय में इस बात का ज़िक्र तक नहीं किया है कि रॉकेट गति से आगे भागती भारतीय अर्थव्यवस्था को भारी मात्रा में बिजली की ज़रूरत है.

भगवान की दया से भारत में अगले सौ वर्षों के लिए पर्याप्त कोयला भंडार है, लेकिन यदि हमें साफ-सुथरी परमाणु बिजली जुटाने में मदद नहीं दी जाती है तो थर्मल पावर स्टेशनों से निकलने वाली ग्रीनहाउस गैसों से होने वाला नुक़सान भारत तक ही सीमित नहीं रहेगा, बल्कि उससे पूरी दुनिया की जलवायु प्रभावित होगी. फ़्रांस के राष्ट्रपति ज्याक शिराक़ ने पिछले महीने अपनी भारत यात्रा के ठीक पहले एक बेबाक बयान में भारत की इस चिंता को सही स्वर दिया था- "यदि हम भारत को परमाणु बिजली पैदा करने में मदद नहीं देते हैं तो यह देश ग्रीनहाउस गैसों की चिमनी में तब्दील हो जाएगा."

इकोनोमिस्ट का बेसुरा अलाप निंदनीय तो है ही, दुख की बात है कि इसके सुर में सुर मिलाने के लिए भारत के वामपंथी और दक्षिणपंथी दोनों तैयार बैठे हैं. मौजूदा भारत-अमरीका संबंध अमरीका-इसराइल या अमरीका-ब्रिटेन जैसी पक्की दोस्ती की नींव बनता है तो इसमें नुक़सान क्या है? क्या इसराइल या ब्रिटेन को अमरीका की दोस्ती के एवज़ में अपने हितों को ताक पर रखना पड़ा है?

कृपया अपनी राय अंग्रेज़ी में इस पते पर भेजें: letters@economist.com

गुरुवार, मार्च 09, 2006

वर्तमान में महिलाएँ

साल का एक दिन महिलाओं के नाम किया गया है. ये दिन है आठ मार्च का. इस बार भी महिला दिवस पर नारी के प्रति सहानुभूति भरे लेख छपे, भाषणबाज़ी हुई और वायदे किए गए.

आइए देखें आज आँकड़ों में महिलाओं की क्या स्थिति है-

दुनिया की निजी मिल्कियत वाली ज़मीन का मात्र एक प्रतिशत महिलाओं के नाम है.

प्रति मिनट एक महिला बच्चे को जन्म देते समय भगवान को प्यारी हो जाती है.

निरक्षर बालिगों में से 67 प्रतिशत महिलाएँ हैं.

ग़रीबी में जी रही 120 करोड़ की आबादी का 70 प्रतिशत महिलाएँ हैं.

दुनिया के 80 साल से ज़्यादा उम्र के लोगों में 65 प्रतिशत महिलाएँ हैं.

संयुक्त राष्ट्र के 191 सदस्य राष्ट्रों में से मात्र 12 की कमान महिलाओं के हाथों में है.(सोनिया गांधी को नहीं गिना गया है.)

दस में से एक फ़िल्म का ही निर्देशन कोई महिला करती है.

नारी स्वतंत्रता का नारा लगाने वाले यूरोपीय संघ की प्रमुख कंपनियों में मात्र तीन प्रतिशत की कमान महिलाओं के हाथों में है.


(स्रोत:महिला दिवस पर प्रकाशित विभिन्न लेख)

गुरुवार, मार्च 02, 2006

एक ऑडियो, एक वीडियो

इंटरनेट पर हिंदी-उर्दू में काफ़ी ऑडियो-वीडियो मौजूद हैं. इनमें से अधिकतर आम वेब-सर्फ़र के लिए अनदेखे-अनसुने रह जाते हैं. इस सप्ताह संयोग से हमें ऐसी दो ताज़ातरीन प्रस्तुतियों के अवलोकन का मौक़ा मिला.

पहली प्रस्तुति है अपनी हिंदी भाषा में. यह एक ऑडियो इंटरव्यू है. प्रख्यात कथाकार कमलेश्वर के इस इंटरव्यू को प्रसारित किया रेडियो डॉयचे वेले की हिंदी सेवा ने. इस बेबाक इंटरव्यू में कमलेश्वर जी अपने लेखन की चर्चा तो करते ही हैं, अपने पसंदीदा लेखकों के बारे में भी बात करते हैं. पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के जीवन पर बन रही फ़िल्म की पटकथा लिखने वाले कमलेश्वर जी ने बॉलीवुड से जुड़े अपने अनुभवों का भी ज़िक्र किया है. इंटरव्यू निश्चय ही सुनने योग्य है. यहाँ क्लिक तो करें.

दूसरी प्रस्तुति है अपनी परिचित भाषा उर्दू में. यह एक टॉक-शो है. पाकिस्तान के निर्वासित प्रधानमंत्री मियाँ नवाज़ शरीफ़ से की गई इस बेबाक बातचीत को बीबीसी की उर्दू सेवा ने प्रसारित किया. इसमें शरीफ़ एक जगह बताते हैं कि कैसे तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें कारगिल में पाकिस्तानी घुसपैठ की सूचना दी थी. देखने योग्य प्रस्तुति है. (वीडियो में बातचीत तीन मिनट के बाद शुरू होती है.)