गुरुवार, अप्रैल 26, 2007

'जापानी नौसेना' के बदलते अंदाज़

जापानी नौसैनिक
द्वितीय विश्व युद्ध में पराजित होने के बाद अमरीका के निर्देश पर जापान का जो संविधान रचा गया था उसमें सशस्त्र सेना की कोई जगह नहीं है. सशस्त्र सेनाओं की जगह जापान का आत्मरक्षा बल या सेल्फ़ डिफ़ेंस फ़ोर्स (SDF) है. इसकी सशस्त्र सेनाओं की तरह ही थल, जल और वायु की तीन शाखाएँ हैं. यानि आधिकारिक रूप से जापान की कोई नौसेना भी नहीं है, और उसके समुद्री बल का नाम है- MSDF या Maritime Self-Defence Force.

दरअसल 1947 में जापान का जो संविधान रचा गया, या अमरीका ने उसके लिए जो संविधान तैयार किया, उस पर द्वितीय विश्व युद्ध के उन दिनों के छाया स्पष्ट दिखती है जब जापानी सैनिक चीन समेत पूर्वी एशिया और प्रशांतीय क्षेत्र के देशों को रौंद रहे थे. उसके ख़ौफ़ से ब्रितानी साम्राज्यवादी भी थरथरा रहे थे. इसलिए अंतत: एटम बम की मार के साथ हुई जापान की पराजय के बाद विजयी ताक़तों की सलाह पर अमरीका ने उसके संविधान में 'अनुच्छेद 9' नामक ऐसा पेंच डाल दिया कि वह कभी दोबारा हमला नहीं कर सके. बदले में अमरीका ने उसकी सुरक्षा की पूरी ज़िम्मेवारी अपने कंधों पर लेने का काम भी किया.

जापानी संविधान के नौवें अनुच्छेद में दोटूक शब्दों में लिखा गया है कि 'जापानी जनता हमेशा के लिए राष्ट्र के युद्ध करने के संप्रभु अधिकार, और अंतरराष्ट्रीय विवादों को ताक़त के ज़ोर पर हल करने की धमकी का त्याग करती है...जापान जल, थल और वायु सेना के साथ-साथ युद्ध का कारक बनने वाले किसी भी बल को धारण नहीं करेगा.'

जापानी संविधान के इस नौवें अनुच्छेद को 'शांति अनुच्छेद' के नाम से जाना जाता है. और, विश्ववास नहीं होता कि संविधान लागू होने के कई साल बाद तक जापान का कोई अपना सशस्त्र बल नहीं था. लेकिन 1950 के दशक के शुरू में अमरीका को लगने लगा कि निहत्था जापान कोई अच्छी बात नहीं है. दरअसल तब शीतयुद्ध शुरू हो चुका था, और सोवियत साम्यवाद दुनिया भर में पसरने लगा था. ऐसे ही माहौल में जापान में अमरीकी प्रशासन के कमांडर जनरल डगलस मैकआर्थर ने वहाँ एक सशस्त्र National Police Reserve के गठन का आदेश दिया. और, यही NPR आगे चल कर Self-Defence Forces के रूप में विकसित हुआ.

जैसा कि इस लेख के शुरू में ज़िक्र किया गया है, जापान की सुरक्षा की पूरी गारंटी अमरीका ने उठा रखी है. अमरीका-जापान सुरक्षा संधि के तहत जापान में क़रीब 40 हज़ार अमरीकी सैनिक तैनात हैं. इसी के साथ अमरीका ने जापान के ऊपर घोषित तौर पर आणविक सुरक्षा छतरी भी तान रखी है.

इसलिए एसडीएफ़ के गठन पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय, ख़ास कर पूर्वी एशिया के देशों की चिंता स्वभाविक ही थी. लेकिन तब अमरीका ने जापान की वकालत करते हुए अंतरराष्ट्रीय समुदाय को समझाया कि SDF के गठन से जापानी संविधान का कोई उल्लंघन नहीं होता क्योंकि इसका एकमात्र उद्देश्य रक्षात्मक है.

लेकिन उसके बाद जापनी आत्मरक्षा बल का आकार और उसकी क्षमता में लगातार बढ़ोत्तरी ही होती गई है. आज जापान दुनिया की बड़ी और संपन्न सैनिक ताक़तों की पहली पंक्ति में खड़ा है. यदि बजट की बात करें तो पिछले साल जापान सरकार ने ढाई लाख थल सैनिकों, नौसैनिकों और वायुसैनिकों वाले एसडीएफ़ पर क़रीब 50 अरब डॉलर ख़र्च किए. राष्ट्रीय सेना पर इससे ज़्यादा ख़र्च सिर्फ़ दो और देश करते हैं- अमरीका और चीन.

जापानी आत्मरक्षा बल के ज़मीनी रक्षा विभाग में कोई डेढ़ लाख सैनिक हैं. उनके पास एक हज़ार अत्याधुनिक टैंक और अन्य समुन्नत साज़ोसामान हैं. इसी तरह वायु रक्षा विभाग में 373 लड़ाकू विमान के साथ क़रीब 50 हज़ार वायु सैनिक हैं. जहाँ तक जलीय रक्षा बल की बात है तो यह विभाग तुलनात्मक रूप से सर्वाधिक समृद्ध है. जापानी की जलीय रक्षा बल में कार्यरत कोई 45 हज़ार नौसैनिकों के ज़िम्मे 16 पनडुब्बियों और 53 विध्वंसक पोत समेत कुल 151 युद्धक पोत हैं. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देखें तो ये एक बहुत ही बड़ी नौसैनिक ताक़त है.

इतनी समुन्नत सेना होने के बावजूद पाँच साल पहले तक जापानी सैनिकों के बारे में कहीं कोई चर्चा नहीं होती थी, न उनकी तस्वीरें छपती थीं. संविधान की कड़ी शर्तों से बंधे जापानी आत्मरक्षा बल की पूरी ऊर्जा जापानी द्वीपों के इर्दगिर्द ही केंद्रित रही हैं.

लेकिन 11 सितंबर 2001 में न्यूयॉर्क और वाशिंग्टन में हुए हमलों के तुरंत बाद अमरीका ने जापान की सैनिक ताक़त को लेकर थोड़ी और नरमी दिखाने का संकेत दिया. आतंकवाद के ख़तरे की आड़ में जापानी संसद ने अक्तूबर 2001 में जो क़ानून पारित किया उसमें यह व्यवस्था है कि आंतकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में जापान अमरीका का साथ दे सकेगा. हालाँकि हमले की कार्रवाइयों में जापानी बलों को लगाने की इजाज़त अब भी नहीं होगी. इसके दो साल बाद एक और क़ानून पारित किया गया जिसमें जापानी बलों को इराक़ में अनाक्रमक भूमिका में तैनात करने की छूट है. और तीसरा महत्वपूर्ण क़ानून इस साल पारित किया गया है. इसमें देश की 'रक्षा एजेंसी' का नाम बदल कर 'रक्षा मंत्रालय' करने का फ़ैसला किया गया है.

कहने को तो ये क़दम सांकेतिक हो सकते हैं, लेकिन इसमें अनिष्ट की आशंका देखने वालों की संख्या कम नहीं है. ज़ाहिर है, सबसे ज़्यादा आपत्ति चीन और उत्तर कोरिया को है. क्योंकि अमरीका से छत्तीस का आंकड़ा रखने वाले ये देश अपने इलाक़े में मौजूद उसके परम-मित्र राष्ट्र जापान के बदलते तौर-तरीकों को लेकर चिंतित हैं.

कहने को तो जापान में रक्षा बजट को देश के सकल घरेलू उत्पाद के एक प्रतिशत से ज़्यादा नहीं करने का बंधन है. लेकिन यदि जापान को खुला छोड़ दिया जाए, या फिर चीन के बढ़ते प्रभुत्व की काट के नाम पर उसे अमरीका की शह मिलने लगे तो उसके अग्रणी आक्रामक ताक़त के रूप में परिवर्तित होने में दशक भर का भी समय नहीं लगेगा. और, यदि ऐसा हुआ तो अभी मलक्का जलडरमरुमध्य इलाक़े में जलदस्यु गिरोहों के ख़िलाफ़ गश्त लगाने वाले जापानी MSDF के, साम्राज्यवादी Imperial Navy में तब्दील होते क्या देर लगेगी!

मंगलवार, अप्रैल 03, 2007

'चीन गणतंत्र' के डाक-टिकट पर 'ताइवान'

ताइवान के नाम का डाक-टिकटचीन नाम से दो देश हैं. पहला है चीन लोकतांत्रिक गणराज्य, जिसे कि आमतौर पर सिर्फ़ चीन कहा जाता है. दूसरा है चीन गणतंत्र, जिसे आमतौर पर ताइवान के नाम से जाना जाता है.

संपूर्ण चीन के प्रतिनिधि के रूप में ताइवान (चीन गणतंत्र) संयुक्त राष्ट्र के संस्थापक राष्ट्रों में से एक था. सुरक्षा परिषद का सदस्य था. लेकिन 1971 में संयुक्त राष्ट्र में ताइवान की जगह चीन (चीन लोकतांत्रिक गणराज्य) को दे दी गई. इतना ही नहीं चीन ने अपनी 'एक चीन' नीति पर सख़्ती से अमल करते हुए ताइवान के स्वतंत्र अस्तित्व को अवैध करार दिया. चीन ने खुलेआम घोषणा कर दी कि जो कोई देश ताइवान को स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता देगा, उसके साथ चीन कोई संबंध नहीं रखेगा. अब आलम ये है कि मात्र 24 देशों का ताइवान के साथ कूटनीतिक रिश्ता है. यानि, दो दर्जन देश ही ताइवान को एक अलग देश के रूप में मान्यता देते हैं. इन देशों में से कुछ इतने पिद्दी हैं कि चीन उनके ताइवान को मान्यता देने की बात पर गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत ही नहीं समझता. इसके बाद भी कोई संदेह नहीं कि आने वाले महीनों और वर्षों में 24 देशों की ये सूची छोटी होती जाएगी.

चीन ने संयुक्त राष्ट्र ही नहीं, बल्कि उन सभी अंतरराष्ट्रीय संगठनों से ताइवान को बाहर करा रखा है, जिनका थोड़ा-सा भी महत्व है. स्काउट आंदोलन के विश्व संगठन में ताइवान को चीनी प्रतिनिधि के रूप में जगह सिर्फ़ इसलिए मिली हुई है, क्योंकि ख़ुद चीन इस संगठन का सदस्य नहीं है.

ओलंपिक खेलों में ताइवान की टीम चीनी टीम से अलग जाती तो है, लेकिन उसे 'चीन गणतंत्र' या 'ताइवान' के नाम से भाग नहीं लेने दिया जाता. ओलंपिक में ताइवान की टीम 'चीनी ताइपेई' की टीम के नाम से जानी जाती है. ताइपेई ताइवान का सबसे बड़ा नगर और राजधानी है. ओलंपिक खेलों में चीनी ताइपेई के नाम से भाग लेने वाले ताइवानी खिलाड़ी अपना राष्ट्रीय ध्वज नहीं फहरा सकते हैं, अपना राष्ट्रगान नहीं गा सकते हैं. इतना ही नहीं ताइवानी दर्शक भी ओलंपिक खेलों के दौरान अपने खिलाड़ियों के समर्थन में राष्ट्र ध्वज नहीं लहरा सकते.

अमरीका और जापान के ताइवान के साथ घनिष्ठ संबंध हैं, लेकिन ये दोनों देश भी चीन को नाराज़ नहीं करना चाहते, और ताइवान को परोक्ष रूप से ही मान्यता देते हैं. मसलन, ताइवान में अमरीका की मौजूदगी 'अमेरिकन इंस्टीट्यूट इन ताइवान' के नाम से है, जबकि अमरीका में ताइवान की उपस्थिति 'ताइपेई इकॉनोमिक एंड कल्चरल रिप्रेजेन्टेटिव ऑफ़िस' के मुखौटे के साथ है.

अमरीका को नाम से कोई ख़ास मतलब नहीं है. उसे तो बस इस बात से मतलब है कि चीन की नाक के नीचे ताइवान रूपी उसका चेला खड़ा है. अमरीका ताइवान पर चीन का क़ब्ज़ा बिल्कुल नहीं चाहता, लेकिन वह ये भी नहीं चाहता कि ताइवान ख़ुलेआम अपनी स्वतंत्रता की घोषणा करे. मतलब अमरीका अभी तक तो यथास्थिति के पक्ष में है. लेकिन, तेज़ी से बदलती भूराजनैतिक परिस्थितियों के मद्देनज़र पता नहीं कितने वर्षों तक वह ताइवान के ख़िलाफ़ चीन के शक्ति-प्रदर्शन को टाल पाएगा.

जहाँ तक चीन सरकार की बात है तो वह ताइवान को 'चीन गणतंत्र' के बजाय 'ताइवान प्रांत' के रूप में प्रचारित करती है. चीन के सरकारी नक्शों में उसे ताइवान प्रांत के रूप में ही चित्रित किया जाता है. यानि 'प्रांत' शब्द के साथ जुड़ा हो तो चीन को 'ताइवान' शब्द से चिढ़ नहीं है. लेकिन सिर्फ़ 'ताइवान' या फिर 'ताइवान गणतंत्र' जैसे नाम चीन को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं.

इसके बावजूद पिछले कुछ महीनों से ताइवानी सरकार ताइवान शब्द का प्रयोग बढ़ाते जा रही है. कई मामलों में तो नामों में चीन शब्द की जगह ताइवान शब्द डाला गया है. सरकारी डाक-विभाग को पहले 'चाइना पोस्ट' के नाम से जाना जाता था, जो अब 'ताइवान पोस्ट' है. सरकारी पेट्रोलियम और जहाज़रानी कंपनियों के नामों में भी चीन की जगह ताइवान डाल दिया गया है. इसी तरह ताइपेई के 'चियांग काइ-शेक स्मारक' का नाम बदल कर 'ताइवान लोकतंत्र स्मारक' कर दिया गया है.

ज़ाहिर है ताइवान शब्द का प्रचलन कर मौजूदा ताइवानी सरकार सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को धार दे रही है, चीन के आगे सीना फुलाने की कोशिश कर रही है. ताइवानी सरकार के इसी नए रवैये का उदाहरण है फ़रवरी में जारी डाक-टिकट जिसमें पहली बार चीन गणतंत्र की जगह ताइवान शब्द छापा गया है. ताइवानी सरकार ने विदेश में स्थित अपने अनौपचारिक कूटनीतिक केंद्रों के नामों में भी ताइवान शब्द डालने की मंशा जताई है.

चीन गणतंत्र के नाम से ताइवानी डाक-टिकटलेकिन चीन की बढ़ती ताक़त को देखते हुए लगता नहीं कि अपने नए रूप में ताइवानी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ज़्यादा ऊँची उड़ान भर पाएगा. ताइवान के नाम से डाक-टिकट जारी किए जाने को चीन के विरोध की थाह लेने की एक कोशिश के रूप में देखा जाना ही ज़्यादा उचित लगता है.