कुछ विवाद ऐसे होते हैं जिनमें बड़ों का कूदना शोभा नहीं देता. ऐसा ही एक विवाद है गूगल अर्थ की सेवाओं का. लेकिन भारत में इस विवाद में स्वयं महामहिम राष्ट्रपति कूद पड़े हैं.
भारत में अक्सर ही किसी अधकचरी जानकारी को सनसनीखेज ख़बर का रूप दे दिया जाता है. टीवी चैनल ख़ास कर टीआरपी रेटिंग की लड़ाई में इस हथकंडे का उपयोग करते हैं. इस समय का नंबर एक समाचार चैनल कहलाने वाले 'स्टार न्यूज़' के एक स्वनामधन्य पत्रकार ने पिछले सप्ताह दूर की कौड़ी लाते हुए ख़बर दी कि गूगल अर्थ ने भारतीय सुरक्षा व्यवस्था को ख़तरे में डाल दिया है. 'ये ख़बर सिर्फ़ स्टार न्यूज़ के पास है' की बार-बार दुहाई देते हुए बताया गया कि गूगल की इस नई सेवा में राष्ट्रपति भवन और संसद को साफ़-साफ़ देखा जा सकता है.
चलो भई, ये भारतीय पत्रकार और ख़ास कर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पत्रकार तो ख़बरों की सनसनी की कमाई ही खाते हैं, इसलिए उनकी चाल(नादानी भी हो सकती है) को नज़रअंदाज़ कर दिया जाए. लेकिन नहीं जनाब, राष्ट्रपति एपीजी अब्दुल कलाम भला विवाद में क्यों न कूदते. तो उन्होंने 15 अक्तूबर 2005 को मीडिया की लगाई आग में हवा डाल दी कि गूगल ठीक नहीं कर रहा...इस संबंध में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय क़ानून पर्याप्त नहीं हैं. उन्होंने भी दूर की कौड़ी लाई कि विकासशील देश पहले से ही आतंकवादी ख़तरों का सामना कर रहे हैं और इन्हीं के संवेदनशील प्रतिष्ठानों को ख़ास कर स्पष्ट चित्रित किया गया है.
जबकि ऐसी बात बिल्कुल ही नहीं है. महामहिम ने गूगल अर्थ पर दो-चार मिनट दिए होते तो उन्हें व्हाइट हाउस और क्रेमलिन भी राष्ट्रपति भवन के समान ही स्पष्ट दिखते. प्रस्तुत हैं व्हाइट हाउस और क्रेमलिन के चित्र जो कि ज़ाहिर है गूगल अर्थ पर बहुत ही साफ़ नज़र आते हैं.
व्हाइट हाउस, वाशिंग्टन, डीसी
क्रेमलिन, रेड स्क़्वायर, मास्को
राष्ट्रपति भवन की बात आ ही गई तो क्या ये ठीक नहीं होगा कि इस आधार पर इसे म्यूज़ियम में बदल दिया जाना चाहिए कि इसके 100 से ज़्यादा कमरों का कभी कोई उपयोग होता ही नहीं है? क्या ये ठीक नहीं होगा कि महामहिम भी प्रधानमंत्री की तरह ही अपेक्षाकृत छोटे भवन में रहें? एक सवाल यह भी कि हमेशा ओपन-सोर्सिंग की तरफ़दारी करते रहे महामहिम इस मामले में क्यों सूचना के खुले प्रवाह पर लगाम लगाना चाहते हैं?
वर्षों से मैकडोनल्ड्स जीपीएस सुविधा का इस्तेमाल दुनिया के प्रमुख शहरों में अपने रेस्तराँ की लोकेशन चुनने में करता रहा है, क्या ग़लत है जो लाखों अन्य लोगों को भी विभिन्न रूपों में उपयोग के लिए मुफ़्त में विस्तृत भौगोलिक सूचनाएँ मिलती हों?
रही बात आतंकवाद के ख़तरे की, तो उससे सूचना प्रवाह रोकने के प्रयास से तो निज़ात नहीं ही पाई जा सकती है क्योंकि इस युग में सूचना प्रवाह रोकने की कोशिश करना मुट्ठी में बालू भरने के समान है.
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5 टिप्पणियां:
मैं आपकी बात से पूर्णतः सहमत नहीं हूँ। हालाँकि मेरे ख्याल से गूगल ने कतई यह नहीं सोचा होगा कि इनका दुरुपयोग भी हो सकता है। हमारी सेना ने कूछ दिन पहले की खबर पर यह कहा था कि खतरा बढाचढा कर बताया जा रहा है क्योंकि ये सेटेलाईट चित्र नवीनतम नहीं होते और अपडेट होते होते तो सामरिक स्थिति बदलती जाती है। किसी भी माडर्न सेना से यह तो उम्मीद की ही जा सकती है कि वह सेटेलाईट के ज़रिये की जा रही जासूसी से निबटते रहते होंगे, मिसाईल और सामरिक जानकारी कोई खुले में तो रखने से रहा।
पर १. इन चित्रों से आतंकवाद की संभावना से पूरी तरह इंकार भी नहीं किया जा सकता और २. भारत सरकार की चिंता से पहले अन्य देश भी आपत्ति जता चुके हैं, ये चित्र तो संभवतः अमरीकी सेटेलाईट के जरिये खींचे गये होंगे और वहाँ की सरकार ने यह ज़रूर सुनिश्चित किया होगा की क्लासीफाईड जानकारी न बाहर जाने पाये, पर यह दूसरी सरकारों ने नहीं किया होगा। वैसे यह सोचना भि गलत नहीं कि सरकारें शायद ज्यादा चिंतित इसलिये हैं कि जनता को ज़रूरत से ज्यादा जानकारी मिलती जा रही है।
Dear Hindi Blogger,
I agree with your post whole heartedly and have written about it at Saara Aakash earlier - in my two posts: first at Trash Tabloids and Luddites and more recently, at Asato ma sad gamaya; Tamso ma jyotir gamaya.
And Devashish, the imagery is not only from US government's satellites but also from privately owned ones so the chances of any one government selectively removing "classified information" are minimial, if any.
With best regards,
Nikhil
PS: Kripya mujhe hindi tankan ki vidhi se avagat karayen. Is blog par angrezi mein comment daalna sahi nahin lagta hai. Dhanyawad.
देबाशीष और निखिल की टिप्पणियों का स्वागत है.
ये बात सही है कि इस समय धरती का ज़्यादातर अंतरिक्षीय चित्रण अमरीका की सैनिक ज़रूरतों के लिए छोड़े गए उपग्रहों की वज़ह से उपलब्ध है. लेकिन जब जीपीएस के समान ही यूरोप की अपनी अलग प्रणाली कुछ वर्षों के भीतर तैयार हो जाएगी, तो इससे कहीं ज़्यादा स्पष्ट चित्र व्यावसायिक उपयोग के लिए उपलब्ध होंगे.(उल्लेखनीय है कि यूरोप की इस गैलेलियो परियोजना में भारत और इसराइल जैसे देश भी शामिल हैं.)
ख़ैर, यहाँ मुख्य मुद्दा 'स्केअरमोंगरिंग' का है. इसमें कोई शक नहीं कि हर देश अपने पड़ोसी देशों के महत्वपूर्ण ठिकानों की विस्तृत जानकारी रखता है. इसमें उपग्रहीय चित्रों के अलावा जासूसी से जुटाई गई सामग्री शामिल होती है. इसलिए यदि हम ये मान भी लें कि गूगल अर्थ के बिना आतंकवादियों के पास ओपन-सोर्स से संवेदनशील ठिकानों के चित्र नहीं होते, तो क्या भारत के दुश्मन देश {इस समय पाकिस्तान,(किसी समय चीन भी,और शीत-युद्ध के समय अमरीका और उसके पिट्ठू देश)} विघ्नकारी ताक़तों को ये चीज़ें नहीं देते होंगे. इस बात में कोई संदेह है कि सद्दाम हुसैन को एक समय अमरीका ने स्वयं ईरान के ख़िलाफ़ लड़ाई के दौरान हर तरह की मदद दी थी.
रही बात राष्ट्रपति भवन की तो तुलना व्हाइट हाउस और क्रेमलिन से करना जायज़ होगी. व्हाइट हाउस की वेबसाइट पर जाएँ तो इसके एक-एक कमरे की पैनोरमिक वीडियो तस्वीरें तक उपलब्ध हैं. इसका फ़्लोर-प्लान भी नेट पर मिल जाता है. इसी तरह मुझे क्रेमलिन का एक कामचलाऊ फ़्लोर-प्लान भी मिला.
कहने का मतलब ये कि जब पूरी दुनिया में सरकारें सूचना के अधिकार की बात कर रहे हों, तो आतंकवादियों के नाम पर सूचना प्रवाह रोकने की कोशिश ठीक नहीं. ज़रूरत है आतंकवादियों के संचार तंत्र को भेदने की, ताकि बसायेव चेचन्या से और ज़वाहिरी अफ़ग़ानिस्तान से अपने बयान बिना रोकटोक प्रसारित नहीं कर सके.
Hindi Blogger:
Excellent points again - and one note that I forgot to add in my previous comment (or in my posts) - which is (and there's no good translation possible for this one) "Ghar ka bhedi lanka dhahe".
As shown by this Mitrokhin archives episode, there have always been an excess of our fellow countrymen willing to sell secrets for cash. In such a setup, public access to information should be low on list of gaps that we need to plug in enhancing our security!
See Part II of Arun Shourie's article in today's Indian Express ("It seemed like the entire country was for sale...")
With best regards,
Nikhil
Nikhil why dont you think the whole wrold as one village, and every one should have rights to see every place of this village.
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