मंगलवार, फ़रवरी 27, 2007

बीमारी हमारी, और फ़ायदा तुम्हारा?

विश्व स्वास्थ्य संगठन और बहुराष्ट्रीय दवा निर्माता कंपनियों से सफलतापूर्वक पंगा लेकर इंडोनेशिया ने एक ऐसा रास्ता तैयार किया है, जिस पर चल कर भारत समेत तमाम विकासशील देश फ़ायदा उठा सकते हैं.

इंडोनेशिया की इस सफल लड़ाई की जड़ में है बर्ड फ़्लू की बीमारी. चिड़ियों के ज़रिए फैलने वाली ऐसी बीमारी, जिसके मानवीय महामारी का रूप लेने की आशंका लगातार बनी हुई है. सर्वाधिक डर यूरोपीय देशों को है, हालाँकि इस बीमारी की चपेट में आकर मनुष्यों के मरने की लगभग सभी घटनाएँ अभी पूर्वी एशियाई देशों तक ही सीमित रही हैं.

वैसे, यूरोपीय देशों के दरवाज़े पर बर्ड फ़्लू ने दस्तक ज़रूर दे दी है. इसी महीने ब्रिटेन के एक टर्की फ़ार्म में बर्ड फ़्लू का मामला पकड़ में आया. बीमारी एक फ़ार्म के पक्षियों तक ही सीमित थी, इसलिए क़रीब एक लाख साठ हज़ार टर्कियों को मार कर उसके प्रसार की आशंका आसानी से समाप्त कर दी गई.

बर्ड फ़्लू के अभी तक सामने आए रूपों में सबसे ख़तरनाक है एच5एन1 प्रकार के वायरस से फैलने वाला बर्ड फ़्लू. यह वायरस यूरोप में हंगरी, जर्मनी और ब्रिटेन तक पहुँच गया है. इसके ख़िलाफ़ एक कारगर दवाई या टीका बनाने के लिए ज़रूरी है कि एच5एन1 की उत्पत्ति और विकास का लगातार अध्ययन किया जाए.

एच5एन1 के शुरुआती नमूने इंडोनेशिया के पास हैं. जहाँ इस वायरस की चपेट में आकर कई लोग मारे भी जा चुके हैं. और, स्थापित अंतरराष्ट्रीय परंपराओं के अनुसार इंडोनेशिया इस बात के लिए बाध्य है कि वो एक ख़तरनाक बीमारी से जुड़े नमूने नियमित रूप से विश्व स्वास्थ्य संगठन को सौंपे. लेकिन इंडोनेशिया ने पिछले दिनों ऐसा करने से इनकार कर दिया.

इंडोनेशिया ने बर्ड फ़्लू मामले में सहयोग नहीं करने के दो प्रमुख कारण बताए. पहला कारण ये कि विश्व स्वास्थ्य संगठन को सौंपे जाने के बाद बीमारी के नमूने बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों तक पहुँच जाएँगे. बीमारी के नमूनों का अध्ययन करते हुए दवा कंपनियाँ दवाइयाँ या टीके बना कर ख़ुद तो अरबों डॉलर कमाएँगीं, लेकिन इंडोनेशिया को धेला तक नहीं देंगी.

इंडोनेशिया का दूसरा तर्क ये था कि यदि बीमारी ने विश्वव्यापी महामारी का रूप लिया तो पश्चिमी दवा कंपनियाँ पहले विकसित देशों की सरकारों को दवाइयों की आपूर्ति सुनिश्चत करेंगी जहाँ उनके अधिकतर उत्पादन केंद्र स्थित हैं. दवा कंपनियों की इस प्राथमिकता की कई मिसालें पहले से ही मौजूद हैं.

विज्ञान पत्रिका 'न्यू साइंटिस्ट' के अनुसार इंडोनेशिया ने भले ही विरोध करने का फ़ैसला अब किया हो, लेकिन समस्या दशकों पुरानी है. चूँकि अन्य कई प्रकार के विषाणुओं और जीवाणुओं के समान फ़्लू वायरस भी दवाओं के ख़िलाफ़ ख़ुद को ढालने की काबिलियत रखते हैं, इसलिए हर देश प्रत्येक साल विश्व स्वास्थ्य संगठन को वायरस के नए नमूने सौंपता है ताकि टीकों को अद्यतन बनाया जा सके, अपडेट किया जा सके.

पिछले दिनों इंडोनेशिया ने विश्व स्वास्थ्य संगठन को दो टूक शब्दों में कह दिया कि अनुसंधान के लिए वह फ़्लू वायरस के नए नमूने तभी सौंपेगा, जब उसे नमूनों के किसी व्यावसायिक परियोजना में उपयोग नहीं किए जाने की गारंटी दी जाती हो. साथ ही, इंडोनेशिया ने मेलबोर्न की दवा कंपनी सीएसएल के ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई की धमकी भी दे डाली, जिसने विश्व स्वास्थ्य संगठन को इससे पहले सौंपे गए इंडोनेशियाई नमूनों के आधार पर एक नया टीका तैयार करने की घोषणा की थी.

अब ताज़ा जानकारी ये है कि इंडोनेशिया सरकार की माँग के आगे विश्व स्वास्थ्य संगठन को झुकना पड़ा है. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इंडोनेशिया को उसके एच5एन1 नमूनों के आधार पर तैयार टीकों में साझेदारी दिलवाने का आश्वासन दिया है. इसके अलावा इंडोनेशिया को अपने यहाँ बर्ड फ़्लू टीका उत्पादन केंद्र बनाने में भी सहायता दी जाएगी.

इतना ही नहीं, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पूरी दुनिया को यह समझाने के लिए इंडोनेशिया की तारीफ़ की है कि वायरस के नमूने उपलब्ध कराने वाले देशों को नए टीकों के साथ-साथ बाक़ी फ़ायदे भी मिलने चाहिए.

आशा है, 'बायोपाइरेसी' के ख़िलाफ़ इंडोनेशिया की सफल लड़ाई से अन्य विकासशील देश भी सीख ले सकेंगे. साथ ही, विश्व स्वास्थ्य संगठन को भी बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों की खुली लूट पर रोक लगाने का संबल मिल सकेगा.

बुधवार, फ़रवरी 21, 2007

अरुंधति राय का हिंसक मन

एक दशक से भी ज़्यादा समय से किसी न किसी कारण चर्चा में रही बुकर पुरस्कार विजेता अरुंधति राय पिछले हफ़्ते एक बार फिर सुर्खियों में रहीं. उन्होंने पत्रकारों को बताया कि वे अपना दूसरा उपन्यास लिख रही हैं. सचमुच ही ये एक बड़ी ख़बर है, क्योंकि बीते एक दशक के दौरान अरुंधति राय ने कई बार कहा था कि 'द गॉड ऑफ़ स्माल थिंग्स' लिखने के बाद वह कोई और उपन्यास लिखने की ज़रूरत नहीं समझतीं.

दूसरा उपन्यास लिखना शुरू कर चुकने की घोषणा करते हुए जो साक्षात्कार अरुंधति ने दिए हैं, उनमें से दो मैंने भी पढ़े हैं. पहला रॉयटर्स समाचार एजेंसी ने जारी किया, और दूसरा लंदन के अख़बार गार्डियन में छपा. इन साक्षात्कारों में अरुंधति ने अपने दूसरे उपन्यास के बार में साफ़-साफ़ कुछ नहीं बताया, लेकिन कुछ संकेत ज़रूर छोड़े हैं. इन संकेतों की बात आगे, पहले इंटरव्यू में दो टूक शब्दों में व्यक्त किए गए अरुंधित के वे विचार जो कि गांधीगिरी के ख़िलाफ़ तो हैं ही, परोक्ष रूप से ख़ून-ख़राबे के समर्थन में भी हैं.

अमरीकी साम्राज्यवाद से लेकर, परमाणु हथियारों की होड़, नर्मदा पर बाँध निर्माण आदि कई स्थानीय-अंतरराष्ट्रीय मुद्दों के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करती रही हैं अरुंधति राय. लेकिन अब उनका मानना है कि कम से कम भारत में अहिंसक विरोध प्रदर्शनों और नागरिक अवज्ञा आंदोलनों से बात नहीं बन रही है.

संसदीय व्यवस्था का अंग बने साम्यवादियों और हिंसक प्रतिरोध में भरोसा रखने वाले माओवादियों की विचारधाराओं के द्वंद्व में फंसी अरुंधति स्वीकार करती हैं कि वो गांधी की अंधभक्त नहीं हैं. उन्हीं के शब्दों में- "आख़िर गांधी एक सुपरस्टार थे. जब वे भूख-हड़ताल करते थे, तो वह भूख-हड़ताल पर बैठे सुपरस्टार थे. लेकिन मैं सुपरस्टार राजनीति में यक़ीन नहीं करती. यदि किसी झुग्गी की जनता भूख-हड़ताल करती है तो कोई इसकी परवाह नहीं करता."

अरुंधति का मानना है कि बाज़ारवाद के प्रवाह में बहते चले जा रहे भारत में विरोध के स्वरों को अनसुना किया जा रहा है. जनविरोधी व्यवस्था के ख़िलाफ़ न्यायपालिका और मीडिया को प्रभावित करने के प्रयास नाकाम साबित हुए हैं. उन्होंने कहा, "मैं समझती हूँ हमारे लिए ये विचार करना बड़ा ही महत्वपूर्ण है कि हम कहाँ सही रहे हैं, और कहाँ ग़लत. हमने जो दलीलें दी वे सही हैं... लेकिन अहिंसा कारगर नहीं रही है."

न्यायपालिका की अवमानना के आरोप में संक्षिप्त क़ैद काट चुकी अरुंधति का स्पष्ट कहना है कि वह हथियार उठाने वाले लोगों की निंदा नहीं करतीं. उन्होंने रॉयटर्स को इंटरव्यू में कहा, "मैं ये कहने की स्थिति में नहीं हूँ कि हर किसी को हथियार उठा लेना चाहिए, क्योंकि मैं ख़ुद हथियार उठाने को तैयार नहीं हूँ... लेकिन साथ ही मैं उनलोगों की निंदा भी नहीं करना चाहती जो प्रभावी होने के दूसरे तरीकों का रुख़ कर रहे हैं."

अपने इस विचार को उन्होंने गार्डियन को दिए साक्षात्कार में थोड़ा और स्पष्ट किया- "मेरे लिए किसी को हिंसा का उपदेश देना अनैतिक होगा, जब तक मैं ख़ुद हिंसा पर उतारू नहीं हो जाती. लेकिन इसी तरह, मेरे लिए विरोध प्रदर्शनों और भूख-हड़तालों की बात करना भी अनैतिक होगा, जब मैं घिनौनी हिंसा से सुरक्षित हूँ. मैं निश्चय ही इराक़ियों, कश्मीरियों या फ़लस्तीनियों को ये नहीं कह सकती कि वे सामूहिक भूख-हड़ताल करें तो उन्हें सैन्य क़ब्ज़े से मुक्ति मिल जाएगी. नागरिक अवज्ञा आंदोलन सफल होते नहीं दिख रहे."

अरुंधति को सत्ता प्रतिष्ठानों द्वारा अहिंसक जनांदोलनों को नज़रअंदाज़ किए जाने का व्यक्तिगत अनुभव नर्मदा आंदोलन से जुड़ कर हुआ. उनका कहना है कि नर्मदा आंदोलन एक गांधीवादी आंदोलन है जिसने वर्षों तक हर लोकतांत्रिक संस्थान के दरवाज़े पर दस्तक दी, लेकिन इससे जुड़े कार्यकर्ताओं को हमेशा अपमानित होना पड़ा. किसी भी बाँध को नहीं रोका गया, उल्टे बाँध निर्माण सेक्टर में नई तेज़ी आई.

इन साक्षात्कारों में अरुंधति राय ने स्वीकार किया है कि विरोधी विचारधारा के लोग उनसे घृणा करते हैं, लेकिन फिर भी वह भारत में रहना चाहेंगी, जो कि पागलपन के एक दौर से गुजर रहा है. जहाँ एक ओर तो लोगों को उनके गाँवों से बेदखल किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर इन सबसे बेख़बर मध्यवर्ग उपभोक्तावाद के भोगविलास में लिप्त है.

...और अंत में बात उन संकेतों की जो अरुंधति के दूसरे उपन्यास की विषयवस्तु की ओर इशारा करते हैं. गार्डियन के पत्रकार ने उनके यहाँ कई किताबें देखीं- एक किताब पॉप स्टार बोनो की जिन्होंने अफ़्रीकी देशों को सरकारों और धनपतियों से आर्थिक सहायता दिलवाने के लिए काफ़ी कुछ किया है. इसके अलावा फ़्रांसीसी क्रांति के पक्षधर थॉमस पाइन और चार्ल्स डिकेन्स की किताबें भी दिखीं. दूसरी ओर रॉयटर्स के इंटरव्यू में इस बात का विशेष तौर पर ज़िक्र किया गया है कि अपना दूसरा उपन्यास लिखना शुरू करने से पहले अरुंधति ने कश्मीर में अच्छा-ख़ासा समय बिताया है.

इन संकेतों से तो यही लगता है कि अरुंधति के नए उपन्यास में शोषित-वंचित वर्ग के संघर्षों की बात होगी. क्या पता उपन्यास की पृष्ठभूमि कश्मीर की हो और निशाने पर दिल्ली का सत्ता तंत्र हो!

रविवार, फ़रवरी 18, 2007

स्वर्णिम सूअर वर्ष

चीनी जनता और दुनिया के कोने-कोने में फैले चीनी लोग आज नए साल की शुरुआत कर रहे हैं. चंद्र कैलेंडर के हिसाब से हर चीनी वर्ष बारी-बारी से 12 जीवों में से एक का होता है. और आज से आरंभ चंद्र-वर्ष सूअर के नाम है.

सूअर के अलावा बाक़ी ग्यारह जीव हैं(क्रमवार): चूहा, बैल, बाघ, खरगोश, ड्रैगन(मिथकीय जीव), साँप, घोड़ा, भेड़, बंदर, मुर्ग़ा और कुत्ता.

यदि चीनी परंपरा के जानकारों की मानें तो ये हर बारहवें साल आने वाला सामान्य सूअर वर्ष नहीं, बल्कि विशेष स्वर्णिम सूअर वर्ष है जो 60 साल में आता है.

सूअर चीनी परंपरा में धन और संपन्नता से जुड़ा जीव है. चीनी समाज में अधिकतर लोग ये मानते हैं कि सूअर वर्ष हर परिवार के लिए किसी न किसी रूप में ख़ुशियाँ लेकर आता है.

सूअर वर्ष में पैदा हुए बच्चों को भाग्यशाली माना जाता है. ऐसे बच्चे आमतौर पर ईमानदार, सभ्य, मेहनती और भरोसेमंद होते हैं. माना जाता है कि ये बच्चे हमेशा दूसरों का प्यार पाते हैं. लोग उनकी मदद करने से कभी पीछे नहीं हटते. सूअर वर्ष में जन्मे बच्चे ख़ुश रहते हैं, ज़िंदगी में नाम कमाते हैं.

सूअर वर्ष में पैदा हुए बच्चों की ख़ासियत को देखते हुए अस्पतालों में विशेष तैयारियाँ की जा रही हैं. अधिकतर अस्पतालों में जच्चा-बच्चा वॉर्ड का या तो विस्तार किया जा रहा है, या फिर अतिरिक्त बेड की व्यवस्था की जा रही है.

अधिकारियों का अनुमान है कि अकेले राजधानी बीजिंग में इस साल 1,70,000 बच्चे पैदा होंगे. जो कि बीते साल की तुलना में 50,000 ज़्यादा है.

याद रहे कि चीन में अब भी एक बच्चा की नीति लागू है. हालाँकि हांगकांग में इसे उतनी सख़्ती से लागू नहीं किया जाता. वहाँ चीनी मुख्य भूमि के मुक़ाबले बेहतर स्वास्थ्य व्यवस्था भी है. इस तथ्य के मद्देनज़र हांगकांग प्रशासन को डर है कि इस साल 'गोल्डन पिग बेबी' की चाहत लिए भारी संख्या में महिलाएँ मुख्य भूमि से हांगकांग का रुख़ कर सकती हैं. और ऐसा हुआ तो हांगकांग का स्वास्थ्य तंत्र चरमरा जाएगा.

इस आशंका को देखते हुए हांगकांग प्रशासन ने इस महीने से एक नया क़ानून लागू किया है. इसके तहत मुख्य भूमि से हांगकांग आने वाली किसी गर्भवती महिला को ये सबूत देना पड़ेगा कि उसने पहले से ही अस्पताल में अपनी सीट बुक करा रखी है. यदि कोई महिला गर्भावस्था के सातवें महीने में पहुँच चुकी है, लेकिन उसने किसी अस्पताल के जच्चा-बच्चा वार्ड में सीट नहीं बुक कराया है, तो उसे हांगकांग की ज़मीन पर पाँव नहीं रखने दिया जाएगा.(ये है 'एक देश, दो व्यवस्था' की नीति का कमाल.)

चीनियों के लिए सूअर का वर्ष बहुत ही बढ़िया होता है, लेकिन बाक़ी दुनिया पर इसका क्या प्रभाव रहेगा? भविष्यवक्ताओं की मानें तो इस सवाल का जवाब उतना अच्छा नहीं है. अनेक भविष्यवक्ता मानते हैं कि ये साल बड़ा ही उतार-चढ़ाव वाला होगा, दुनिया के विभिन्न हिस्सों में प्राकृतिक आपदाएँ आएँगी, संघर्षों का विस्तार होगा.

चीनी मान्यता के अनुसार चंद्र कैलेंडर के हर साल पर ब्रह्मांड के अस्तित्व के आधारभूत पंचतत्वों(धातु, जल, लकड़ी, अग्नि और मिट्टी) में से कुछ का विशेष असर होता है.

सूअर के साल पर पंचतत्वों में से दो; अग्नि और जल का असर है. और, कुछ भविष्यवक्ताओं के अनुसार यही चिंता की बात है. पानी पर आग; यानि चीनी शास्त्रों के अनुसार संघर्षों और युद्धों का संकेत.

चलते-चलते एक ऐसा तथ्य जो कि सूअर के वर्ष के भयानक असर का एक बढ़िया उदाहरण माना जा सकता है: लाखों मौतों का ज़रिया बनने वाली एके-47 राइफ़ल का आविष्कार एक सूअर वर्ष में ही हुआ था! ...ग़ौर करें कि इस समय पाँच करोड़ से ज़्यादा एके राइफ़लें प्रचलन में हैं.

मंगलवार, फ़रवरी 13, 2007

काव्य महिमा-2

ग्रीनिचमैरियन मूर ने 1935 की 'पोएट्री' नामक रचना में कविता के बारे में कहा है- "मैं भी इसे नापसंद करती हूँ. और भी कई चीज़ें हैं जो इससे कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं." ...लेकिन इसी कृति में आगे वह कविता के जादू का बयान इन शब्दों में करती हैं- "हालाँकि, पूर्ण निरादर के साथ इसे पढ़ कर, आख़िरकार आप इसमें पाते हैं, एक धरातल यथार्थ का."

...एमिलि डिकिन्सन को कविता मे बेशुमार संभावनाएँ नज़र आती हैं--गद्य से कहीं ज़्यादा. इसी तरह चेस्लाफ़ मियोस का मानना है कि कविता ही वो चीज़ है जिसके सहारे हमें शून्यता से लड़ाई करनी है. उनके अनुसार कविता जीवन के बारे में, और जीवन के लिए है.

...कविताएँ कठिन नहीं होतीं? उतनी तो नहीं ही, हम जितने कठिन हैं. हमारी जटिल ज़िंदगी अधिकांश कविताओं के मुक़ाबले काफ़ी कठिन है. हम अपने लिए तो कठिन हैं ही, दूसरों के लिए भी आसान नहीं. कविताएँ सरलीकरण से बचती हैं. अच्छी कविताएँ कभी-कभार ही दोटूक बातें करती हैं. दरअसल, वे चाहती हैं कि अपने बारे में आपकी क्या सोच है, ये ख़ुद आप तलाश करें.

क्या कविताएँ ग़ैरजिम्मेदार नहीं हैं? सोलोन के अनुसार कवि जम कर झूठ परोसते हैं. लेकिन पिकासो की मानें तो कला एक झूठ है जो हमें सत्य का अनुभव कराती है. दरअसल, कविता की सच्चाइयाँ अंतर्मुखी होती हैं. वे भावनाओं की, कल्पनाओं की सच्चाइयाँ होती हैं. और, कविता की ज़िम्मेदारियाँ भी अंतर्मुखी होती हैं. कवि को अपनी संवेदनाओं के प्रति वफ़ादार रहना चाहिए. बनावटी भावों को व्यक्त करना कल्पनाशीलता के ख़िलाफ़ पाप है.

कविताएँ पढ़ने के बारे में भी सच बिल्कुल यही है. सच्चाई और ज़िम्मेदारी से कविताएँ पढ़ना आपके अंतर्मन को मज़बूती देता है. कविता एकाग्रचितता की कला है, न सिर्फ़ कवियों के लिए, बल्कि पाठकों के दृष्टिकोण से भी. कविताएँ उन बातों पर आपका ध्यान लगाती हैं, जो कि आपके अंतर्मन के अनुरूप हैं.

कॉलरिज ने पाठकों को चार वर्गों में बाँटा है: सबसे अच्छा वर्ग कोहिनूरों का, जो पढ़ कर ख़ुद लाभान्वित होते हैं और दूसरों को भी लाभान्वित करते हैं; दूसरा वर्ग रेत-घड़ियों का, जो पढ़ा हुआ याद नहीं रखते, पढ़ कर सिर्फ़ समय गुजारते हैं; तीसरा वर्ग छलनी का, जिन्हें पढ़े हुए में से छना हुआ कचरा भर याद रह जाता है; और चौथा वर्ग है स्पंज का, जो पढ़ा हुआ सब कुछ वापस कर देते हैं, लेकिन थोड़ी गंदगी के साथ.

लेकिन, हमलोगों में से सभी पाठकों के रूप में विकसित हो सकते हैं. जैसा कि इलियट ने कहा है- कविता क्या है, हम उसे पढ़ कर ही जान पाते हैं. पढ़ना शुरू करके ही आप अपना पढ़ाकू तंत्र विकसित कर सकते हैं, अपनी क्षमता का विस्तार कर सकते हैं...तब तक, जब तक कि पढ़ी जा रही कविताएँ आपको अपनी ख़ुद की सृजनात्मकता से नहीं जोड़ दे.

पढ़ने की क्रिया रचनात्मक प्रक्रिया में सहायक होती है. यदि आप एक अच्छी कविता के सामने अपनी पूरी असलियत में प्रस्तुत हों, तो वह आपके और दुनिया के बारे में आपकी समझ को विस्तार प्रदान कर सकेगी. ऐसे काल में जबकि शरीर, बाज़ार, उपभोग को लेकर आसक्ति इतनी ज़्यादा है, छह पंक्तियों की एक शाब्दिक रचना आपको अपनी ज़िंदगी देखने का अवसर दे सकती है, नया अनुभव प्रदान कर सकती है.

कविता यथार्थ का जो धरातल मुहैय्या कराती है, वो ख़ुद आप में है.

(ब्रितानी साहित्यकार रुथ पैडेल के लेख Turn Over a New Leaf का सार)

काव्य महिमा-1

ग्रीनिचशेली ने 1821 में लिखा था- Poets are the unacknowledged legislators of the world. दरअसल, काव्य की ताक़त में शेली को पूरा यक़ीन था. उनके लिए कविता, राजनीतिक दर्शन, और अवैध सत्ता-प्रतिष्ठान से सीधे संघर्ष में परस्पर कोई विरोधाभास नहीं था. उनका मानना था कि कला का क्रांति और उत्पीड़न के बीच के संघर्ष से अटूट संबंध है.

कविता कोई मरहम या भावनात्मक मालिश या फिर भाषाई एरोमाथेरेपी नहीं है. न ही यह कोई ब्लूप्रिंट, या इन्सट्रक्शन मैनुअल या विज्ञापन-पट है. वैसे भी सार्वभौम काव्य जैसी कोई चीज़ नहीं होती, बल्कि मात्र समकालीन इतिहास से जुड़ी कविताएँ और काव्यत्मकता होती हैं. ...कविताएँ उतनी ही शुद्ध और सरल हो सकती हैं, जितना कि मानव इतिहास.

...कविता को अनेकों बार ख़ारिज़ किया जा चुका है: ये आम-जनता के लिए नहीं है, ये रेलवे स्टेशन के बुक-स्टॉल पर या सुपरमार्केटों में नहीं बिक पाती है; ये औसत बुद्धि के लिए बहुत कठिन है; ये बहुत ही आभिजात्य है, लेकिन सोदेबी की नीलामी में धनपति इसके लिए बोली नहीं लगाते; संक्षेप में कहें तो इसकी पूछ नहीं है. इसे कविता की मुक्त-बाज़ार आलोचना कह सकते हैं.

वास्तव में इन विचारों के बीच एक अजीब तरह का संबंध है: मानव पीड़ा के परिप्रेक्ष्य में कविता या तो अपर्याप्त या अनैतिक है, या फिर ये मुनाफ़ा नहीं दे सकती, इसलिए बेकार है. जिस तरह देखें, कवियों को शर्मशार होने या बोरिया-बिस्तर समेटने की सलाह दी जाती है. लेकिन वास्तव में देखें तो, पूरी दुनिया में, काव्यात्मक भाषा का रक्ताधान शरीर और आत्मा को साथ रख सकता है, रख रहा है.

कविता की आलोचना के दौरान हमारे भौतिक जीवन की दिन-प्रतिदिन की अवस्थाओं के बारे में नहीं के बराबर कहा जाता है: कि कैसे ये हमारी भावनाओं, सहज मानवीय प्रतिक्रियाओं को प्रभावित करती हैं- कैसे हम हवा में धुएँ की आकृति की झलक पाते हैं, दुकान के शो-बॉक्स में जूते की जोड़ी को या नुक्कड़ पर खड़े लोगों को देखते हैं, कैसे हम छत पर हो रही बारिश या ऊपर के कमरे में रेडियो पर बज रहे संगीत को सुनते हैं, कैसे हम एक पड़ोसी या अनजान आदमी से नज़रें मिलाते या चुराते हैं. मानें या नहीं, इनका हमारे दृष्टिकोण पर असर पड़ता है. अनेकों कविताएँ, काव्य पर लिखे गए अनेक निबंधों के समान ही, ऐसे लिखी गई हैं मानो इस तरह के दबाव नहीं रहे हों. लेकिन इससे इनका अस्तित्व ही ज़ाहिर होता है.

जब कविता हमारे कंधे पर अपना हाथ रखती है, तो हम भाव विभोर हो उठते हैं. हमारे सामने कल्पना के द्वार खुल जाते हैं, इस कथन को झुठलाते हुए कि 'कोई विकल्प नहीं है.'

सच है कि कोई कविता इसके पीछे की चेतना के समान ही गंभीर या उथली, सतही या दूरदृष्टि वाली, पूर्वानुमान लगाने वाली या नए ज़माने से पिछड़ती हो सकती है. व्याकरण और वाक्य-विन्यास, आवाज़ों, छवियों को कौन आगे बढ़ा रहा है- क्या यह शब्दवाद, रूढ़िवाद या व्यावसायिकता का लघुरूप है- एक बौनी भाषा है? या फिर ये विभेद में समरूपता से ऊर्जा लेने वाले रूपालंकार की ताक़त है? कविता में हमें उसकी याद दिलाने की क्षमता है, जिसे देखने की मनाही है. एक विस्मृत भविष्य; अभी तक अनिर्मित स्थल जिसकी नींव स्वामित्व या बेदखली नहीं, महिलाओं, परित्यक्तों और जनजातियों की अधीनता नहीं, बल्कि स्वतंत्रता को निरंतर परिभाषित किया जाना हो. इस मौजूदा भविष्य को बार-बार ख़ारिज़ किया गया है, लेकिन अभी भी यह दृष्टि सीमा में है. दुनिया भर में इसके रास्ते नए सिरे से खोजे जा रहे हैं, बनाए जा रहे हैं.

कविता में हमेशा वैसा कुछ रहा है जो कि समझा नहीं जा सकेगा, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता, जो कि हमारे उत्कट अवधान, हमारे महत्वपूर्ण सिद्धांतों, देर रात तक चलने वाली हमारी बहसों से बच निकलता है. कवि एमेरिको फ़ेरारी के शब्दों में कहें तो 'वो अव्यक्त हमेशा से रहा है, संभवतया जहाँ, कविता और संसार के बीच जीवंत संबंध का केंद्रक होता है.'

(अमरीकी साहित्यकार Adrienne Rich के लेख 'Legislators of the World' का सार)