बुधवार, जून 22, 2005

नेकटाई के दिन लदे

ब्रिटेन में आजकल टाई या नेकटाई ख़बरों में है. एक समय आभिजात्य और बुद्धजीवी वर्ग का प्रतीक माने जाने वाले टाई को लोग अब ज़रूरी नहीं मानते.

पूरा विवाद शुरू हुआ ब्रितानी केबिनेट सेक्रेटरी सर एंड्रयु टर्नबुल के इस बयान से कि नौकरशाहों का टाई पहनना अनिवार्य नहीं है. अब तक टाई को गंभीरता का पर्याय मानने वाले ब्रितानी समाज को इससे बड़ा सदमा पहुँचा.

ब्रितानी प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ज़्यादातर औपचारिक समाराहों में भी बिना टाई के पहुँचने की अपनी आदत के कारण आलोचनाओं का शिकार रहे हैं. ब्रिटेन के टेलीविज़न ब्रॉडकॉस्टरों में शीर्ष पर माने जाने वाले बीबीसी के जेर्मी पैक्समैन ने अपने अत्यंत लोकप्रिय कार्यक्रम 'न्यूज़नाइट' में ऑनस्क्रीन यह घोषणा करके टाईप्रेमियों को दिल के दौरे के कगार पर ला पटका कि वो टाई को छोड़ रहे हैं. पैक्समैन ने अपने कार्यक्रम के दौरान ही 22 जून 2005 को अपनी टाई खोल डाली, हालाँकि यह सब मात्र सांकेतिक था, न कि सचमुच का. लेकिन पैक्समैन ने स्वीकार किया कि वो कार्यक्रम के दौरान ही टाई पहनते हैं क्योंकि न्यूज़नाइट के अधिकतर मेहमान कार्यक्रम के दौरान टाई में होते हैं.

इतना ही नहीं, अपनी रिपोर्ट में पैक्समैन ने इंद्रधनुषी टाइयों के लिए चर्चित एक और प्रसिद्ध टेलीविज़न ब्रॉडकॉस्टर चैनल4 के जॉन स्नो की इस मसले पर खिंचाई भी की.

लेकिन टाईप्रेमियों को पैक्समैन पर सबसे ज़्यादा ग़ुस्सा इस बात पर आएगा कि उन्होंने टाई को 'एपेंडिक्स ऑफ़ द क्लोदिंग' क़रार दिया.

दुनिया भर के टाईप्रेमियों की ब्रिटेन में टाई की गिरती हैसियत के बारे में जान कर क्या प्रतिक्रिया होगी ये तो पता नहीं, मुझे ख़ुशी हो रही है कि पैक्समैन जैसे प्रतिष्ठित व्यक्तिगत ने सार्वजनिक रूप से टाई(बिहार में इसे कंठलंगोट कहते हैं)की अनावश्यकता को रेखांकित किया.

मुझे कुछ ज़्यादा ही ख़ुशी हो रही है क्योंकि मैंने कभी कंठलंगोट नहीं लगाया- किसी इंटरव्यू में नहीं, और न ही शादी के मौक़े पर.

उम्मीद है कि गोरों की टाई के प्रति बेरूख़ी से भारत के भूरे साहबों को भी कुछ सीख मिल सकेगी जो कि कंठलंगोट को उतनी ही अहमियत देते हैं, जैसा प्रख्यात लेखक नीरद सी चौधरी दिया करते थे. उल्लेखनीय है कि नीरद जी कलकत्ते की सड़ी गर्मी में भी न सिर्फ़ टाई, बल्कि सूट-बूट और हैट डाल कर सड़क पर निकल पड़ते थे. ऐसा कर वो आमलोगों के अलावा कुत्तों का भी ध्यान आकर्षित करते थे जो कि भौंक कर अपनी नाख़ुशी जताने में कोई देरी नहीं करते.

टाईप्रेमियों को ग्लोबल वार्मिंग का ध्यान रखते हुए भी टाई से तौबा करनी चाहिए क्योंकि कंठलंगोटधारियों के कारण दफ़्तरों में एयरकंडिशनिंग ज़रूरत से ज़्यादा करनी पड़ती है, और इसके कारण वातावरण में हानिकारक सीएफ़सी गैसों की ज़्यादा मात्रा पहुँचती है.

सोमवार, जून 13, 2005

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की दुविधा

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या आरएसएस आमलोगों के लिए सदा की तरह अब भी एक पहेली बनी हुई है. संघ एक राष्ट्रवादी संगठन है इसमें कोई शक नहीं, लेकिन उसके इरादे कभी भी स्पष्ट नहीं रहे हैं.

आरएसस प्रमुख सुदर्शन के ताज़ा बयान ने एक बार फिर साबित किया है कि संघ भारत में धर्मनिरपेक्ष(उसकी शब्दावली में तथाकथित धर्मनिरपेक्ष) ताक़तों का अवसान नहीं होने के तथ्य को पचा नहीं पाता है. यह अपच संघ के नेताओं के उलटे-पुलटे बयानों के रूप में जनता के सामने आता है.

अब सुदर्शन जी की ही बात करें. सरसंघचालक हैं, यानी आरएसएस के शीर्ष पुरुष. उन्होंने राजस्थान में कार्यकर्ताओं के एक शिविर में अपने संबोधन में राजनीति को वेश्या बताया. अब उनसे कोई पूछे कि राजनीति जब वेश्या है तो राजनीतिक दल उस वेश्या के दलाल हुए या नहीं. मतलब भारतीय जनता प्रमुख दलालों में से एक हुई. ऐसे में संघ ने राजनीति रूपी वेश्या की दलाली करने वाले को अपने परिवार में शामिल क्यों कर रखा है!

हमें नहीं लगता कि सुदर्शन जी इतने भोले हैं कि एक सिरे से राजनीति को ख़ारिज कर दें. ज़रूर वह किसी बात को लेकर आहत या कुपित या फिर आहत और कुपित दोनों होंगे. और अभी कुछ दिनों में लालकृष्ण आडवाणी के भाजपा अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा देने और फिर इस्तीफ़ा वापस लेने के हास्यास्पद प्रसंग को छोड़कर ऐसा कुछ तो हुआ नहीं कि सुदर्शन जी आपा खो बैठें.

राजनीति दिन-प्रतिदिन गंदी ज़रूर होती जा रही है, लेकिन भाजपा के माध्यम से विभिन्न स्तर पर शासन करने वाले संघ को कम से कम राजनीति को गाली देने का ढोंग नहीं करना चाहिए.

शुक्रवार, जून 10, 2005

लौहपुरुष की नरमी

चार दिनों के नाटक के बाद आख़िरकार लालकृष्ण आडवाणी भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष पद पर बने रहने को राज़ी हो गए.अपनी पाकिस्तान यात्रा के दौरान मोहम्मद अली जिन्ना को कथित रूप से धर्मनिरपेक्ष होने का सर्टिफ़िकेट देने के कारण आडवाणी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद के कोप का शिकार बने थे.

अपनी जन्मभूमि से वापस भारत लौटने के बाद हवाई अड्डे पर पत्रकारों से बातचीत में उन्होंने अपने को लौहपुरुष साबित करते हुए कहा कि जिन्ना संबंधी उनके बयान को वापस लेने का सवाल ही नहीं उठता, भले ही उनका बयान संघ परिवार की विचारधारा के बिल्कुल उलट क्यों न हो.

लेकिन दो दिनों के मान-मनौव्वल के बाद उन्होंने भाजपा अध्यक्ष पद से इस्तीफ़े को वापस ले लिया.

ऐसे में ये सवाल उठना स्वाभाविक ही है कि क्या आडवाणी ने अपनी कट्टरपंथी छवि में सुधार करने के मक़सद से इस नाटक का आयोजन किया था. इस तरह की भी अटकलें लगाई जा रही हैं कि आडवाणी भारत का प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं और जब तक उनकी छवि नरमपंथी नेता की नहीं बनती है, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए के सभी घटक दलों द्वारा उनके नाम पर सहमति बनने की कोई संभावना नहीं बन सकती.

भाजपा या एनडीए यों तो केंद्र की सत्ता से अभी बहुत-बहुत दूर है लेकिन चूंकि छवि बनाने में समय लगता है, और पुरानी छवि में सुधार करने में कुछ ज़्यादा ही समय लगता है, शायद इसलिए आडवाणी ने इस पूरे ड्रामे में नायक की भूमिका निभाई.

जिस तरह जिन्ना ने सत्ता हथियाने के लिए ख़ुद की कट्टरपंथी छवि बनाई थी, उसी तरह आडवाणी सत्ता पर नज़र रख कर ही अपने कट्टरपंथी समर्थकों के बीच उदारवादी होने का आरोप झेलने को तैयार हुए हैं.