विज्ञान में आस्था रखने वालों की यदि दुनिया में कमी नहीं है, तो विज्ञान के अनपेक्षित प्रभावों को लेकर डरने वालों की भी बहुत बड़ी संख्या है. ब्रह्मांड की आरंभिक अवस्था जैसी स्थिति पैदा करने वाली महामशीन Large Hadron Collider में कुछ ख़राबी आने के कारण जहाँ उसके कथित प्रलयंकारी प्रभावों को लेकर चिंताओं का दौर थमा हुआ है, वहीं नैनो तकनीक के कथित गंभीर दुष्प्रभावों को लेकर जैसे चेतावनियों की बाढ़ आ गई है.
नैनो तकनीक क्या है?
नैनो शब्द का इसके मूल ग्रीक भाषा में मतलब होता है- वामन या छोटे आकार का. नैनो तकनीक का क्षेत्र विज्ञान या इंजीनियरिंग का वो अंग है जिसमें परमाणु और अणु के पैमाने पर काम होता है. इसके तहत जिस आकार की चीज़ों या पदार्थों का निर्माण होता है, उनसे छोटे आकार में निर्माण संभव नहीं है. नैनो तकनीक के तहत बने उत्पाद मूलत: 0.1 से लेकर 100 नैनोमीटर आकार के होते हैं. यहाँ ये उल्लेखनीय है कि एक नैनोमीटर एक मीटर के अरबवें हिस्से के बराबर होता है.
इस आकार को समझने के लिए इस बात पर ग़ौर करना होगा कि अधिकांश परमाणु 0.1 से 0.2 नैनोमीटर आकार के होते हैं. डीएनए की लड़ी 2 नैनोमीटर चौड़ी होती है. एक लाल रक्त कोशिका का व्यास 7000 नैनोमीटर का होता है, जबकि हमारे सिर के बाल की औसत मोटाई 80,000 नैनोमीटर होती है.
नैनोमीटर और सेंटीमीटर के बीच के अंतर को हमारे पदचिन्ह और अटलांटिक महासागर के आकारों में अंतर से की जा सकती है.
सूक्ष्म आकार की चीज़ों की प्रकृति अलग क्यों होती है?
जैविक जगत की मूल क्रियाएँ नैनोमीटर के स्तर पर ही होती हैं. यदि आप एक मीटर के अरबवें भाग के पैमाने पर देखें तो सामान्य लगने वाले पदार्थ भी आश्चर्यजनक नए प्रभाव दिखाने लगते हैं. किसी पदार्थ से बनी किसी सूक्ष्म वस्तु की भौतिक और रासायनिक विशेषताएँ, उसी पदार्थ से बनी किसी बड़ी चीज़ के मुक़ाबले बिल्कुल अलग हो सकती है. नैनो पैमाने पर सूक्ष्माकार दिया जाए तो किसी पदार्थ की मज़बूती, चिपकने और सोखने जैसी क्षमताएँ कई गुणा बढ़ सकती है. इसलिए वैज्ञानिक नैनो तकनीक का इस्तेमाल कर नई-नई चीज़ें बनाने में जुट गए हैं.
उदाहरण के लिए सोने-चाँदी के जेवरात इसलिए बनाए जाते हैं कि दोनों तत्व अपेक्षाकृत अक्रियक होते हैं यानि उनकी चमक और प्रकृति लंबे समय तक जस की तस बनी रहती है. वहीं नैनो पैमाने पर सोने और चाँदी के कण-समूह विशेष गुण प्रदर्शित करते हैं. नैनो स्तर पर सोने के 8 या 22 परमाणुओं का समूह जहाँ किसी उत्प्रेरक के समान सक्रिय रहता है, वहीं 7 या 20 परमाणुओं का समूह अक्रिय पदार्थ की तरह व्यवहार करता है. इसी तरह चाँदी के नैनो-कण बैक्टेरियारोधी गुण प्रदर्शित करते हैं, इसलिए घाव भरने की आधुनिक दवाओं में उनका खुल कर उपयोग किया जाने लगा है. नैनो स्तर पर रवाकृत किए गए धातुओं की बात करें तो उनमें सामान्य प्रकार की तुलना में कहीं ज़्यादा मज़बूती और लचीलापन होता है.
क्या कारण है नैनो पदार्थों के इस क़दर अलग व्यवहार का?
इसके पीछे मुख्य रूप से दो कारण माने जाते हैं. पहली बात ये कि नैनो-कणों में घनत्व के अनुपात में सतह का आकार अपेक्षाकृत बड़ा होता है जो इन्हें ज़्यादा सक्रिय बनाता है. दूसरी बात ये कि अमूमन 100 नैनोमीटर से छोटे आकार के पदार्थों पर क़्वांटम प्रभाव बढ़ जाता है जो इनके प्रकाशीय, इलेक्ट्रॉनिक और चुंबकीय प्रभावों में व्यापक रद्दोबदल कर डालता है.
हालाँकि इसका मतलब ये नहीं है कि सूक्ष्म जगत में प्रकृति के अलग नियम चलते हैं. इससे मात्र ये साबित होता है कि छोटों की दुनिया में प्रकृति के नियम अलग तरह से लागू होते हैं. उदाहरण के लिए यदि एक इलेक्ट्रॉन को एक नैनोमीटर व्यास के तार से गुजारा जाए तो इलेक्ट्रॉन की गतिविधियाँ बुरी तरह नियंत्रित हो जाएँगी जिसके चलते वहाँ वोल्टेज और सुचालकता के संबंध नए तरह से परिभाषित होने लगेंगे.
आम उपयोग की किन चीज़ों या उपकरणों में इस समय नैनो तकनीक का उपयोग किया जा रहा है?
वर्ष 2006 तक दुनिया भर में 1600 नैनो पदार्थों का पेटेन्ट कराया जा चुका था और अमरीका के Project on Emerging Nanotechnologies के अनुमानों के अनुसार इस समय दुनिया भर में कम से कम 600 उत्पाद ऐसे हैं जिनमें नैनो पदार्थों का उपयोग किया जाता है. इसी साल वैज्ञानिकों ने मैग्नीज़ ऑक्साइड के नैनो तार की सहायता से एक ऐसा कागज़ तैयार किया है जो पानी पर फैले तेल को पूरा का पूरा सोख लेता है, वो भी एक बूँद पानी सोखे बिना. इससे मिलते-जुलते तरीक़े से किसी भी कपड़े को शत-प्रतिशत वॉटरप्रूफ़ बनाया जा सकता है.
अमरीकी सरकार के National Nanotechnology Initiative द्वारा तैयार सूची के अनुसार आप इन जगहों पर नैनो तकनीक का इस्तेमाल पा सकते हैं- कंप्यूटर हार्ड ड्राइव, कार के पुर्ज़े और कैटलिक्टिक कन्वर्टर, खरोंचमुक्त पेंट और कोटिंग, सूरज के हानिकारक किरणों से बचाने वाले लोशन और लिपस्टिक, टिकाऊ टेनिस बॉल और हल्के लेकिन मज़बूत टेनिस रैक़ेट, धातुओं को काटने वाले औजार, जीवाणुरोधी चिकित्सकीय पट्टी, संवेदनशील उपकरणों की एंटीस्टैटिक पैकेजिंग, अपने काँच की स्वत: सफाई वाली करने वाली खिड़कियाँ, धब्बारोधी कपड़े आदि.
नैनो तकनीक से क्या कुछ संभव हो सकता है?
अनंत संभावनाएँ हैं. वर्ष 1986 में ही के. एरिक ड्रेक्सलर नामक अमरीकी वैज्ञानिक ने अपनी प्रकृति ख़ुद तैयार करने में सक्षम नैनो आकार के रोबोट की परिकल्पना की थी जो कि उनके अनुसार समाज के बहुत सारे काम करने में सक्षम होंगे. इतना ही नहीं नैनोरोबोट मनुष्य के शरीर की मरम्मत भीतर से कर उसे दीर्घायु बना सकेंगे. ऐसे रोबोट वायुमंडल से प्रदूषणकारी तत्वों की सफाई उनके उत्सर्जन के तुरंत बाद करने में सक्षम होंगे.
ख़ैर, ये तो हुई बहुत बाद की भविष्यवाणी जिनमें से कुछ आज 20 साल बाद भी कोरी कल्पना मात्र दिख रही हैं. लेकिन ये तो निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि निकट भविष्य में नैनो तकनीक से कंप्यूटिंग, चिकित्सा और प्रौद्योगिकी के क्षेत्रों के अलावा पर्यावरण और सैन्य क्षेत्र में भी काफ़ी कुछ नया देखने को मिलेगा. यदि चिकित्सा क्षेत्र की ही बात करें तो ऐसे छोटे उपचारी स्मार्ट-बम बनाए जा चुके हैं जो कैंसरयुक्त कोशिकाओं तक सीधे दवा पहुँचाएँगे. दरअसल ह्यूस्टन के राइस विश्वविद्यालय में नैनोबुलेट के ज़रिए ऐसी कैंसर कोशिकाओं को नष्ट करने का सफल प्रयोग किया जा चुका है, जिनका कि ऑपरेशन संभव नहीं था. निकट भविष्य में मानव शरीर की धमनियों में गश्त लगाने वाले नैनो उपकरण बनने की भी पूरी संभावना बताई जा रही है जो संक्रमणों का मुक़ाबला करेंगे और रोगों की सूचना जुटाएँगे. पर्यावरणीय वैज्ञानिक भूमिगत जलस्रोतों को ज़हरीले प्रदूषकों से मुक्त करने के अलावा ज़्यादा समर्थ सौर-पैनल बनाने में नैनो तकनीक का प्रयोग पहले से ही कर रहे हैं.
नैनो तकनीक को लेकर इतना डर क्यों?
ये बिल्कुल स्पष्ट है कि सूक्ष्म आकार के किसी पदार्थ का व्यवहार समान स्रोत वाले किसी बड़े आकार के पदार्थ से बिल्कुल ही अलग होता है. लेकिन नैनो पदार्थों के स्वास्थ्य पर दुष्प्रभावों के बारे में विस्तृत अध्ययन अभी नहीं हुआ है. हालाँकि पिछले दिनों छिटपुट अध्ययन ज़रूर हुए हैं. उदाहरण के लिए हाल ही में हुए एक अध्ययन में पाया गया है कि वाहनों के धुएँ के साथ निकलने वाले अतिसूक्ष्म आकार के रासायनिक कण हृदय रोगों के कारकों में शामिल हैं.
इस बात के कोई ठोस सबूत नहीं मिले हैं कि धूप से त्वचा की सुरक्षा करने वाले क्रीम में जिन नैनो-कणों का उपयोग किया जाता है वे नुक़सानदेह हैं, लेकिन उनसे स्वास्थ्य को कोई नुक़सान नहीं होगा इस बारे में भी निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है.
कई संस्थाओं ने कृत्रिम नैनोकण युक्त पदार्थों के बहिष्कार का आहवान किया है, मानो प्राकृतिक रूप से निर्मित नैनो-कणों के ग़ैरनुक़सानदेह होने की गारंटी हो, जबकि ऐसी कोई बात नहीं है. उदाहरण के लिए कोयला, लकड़ी आदि को जलाते समय धुएँ के साथ जो कालिख या राख उड़ती है वो भी वास्तव में कार्बन से बने नैनो कण ही हैं, जो कि स्वास्थ्य के लिए बहुत ही नुक़सानदेह हैं और जिनसे हर कोई बचना चाहता है.
ब्रिटेन के Royal Commission on Environmental Pollution की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि नैनो तकनीक से बने उत्पाद स्वास्थ्य संबंधी ख़तरों की पड़ताल किए बिना बाजार में ठेले जा रहे हैं. ब्रिटेन में ही उपभोक्ता अधिकारों के लिए काम करने वाली एक संस्था 'व्हिच?' ने पिछले महीने जब सौंदर्य प्रसाधन बनाने वाली 67 कंपनियों से पूछा कि क्या वे अपने उत्पादों में नैनो पदार्थों का इस्तेमाल करती हैं, तो मात्र 17 कंपनियों ने जवाब दिया जिनमें से 8 ने हामी भरी.
दरअसल इन उत्पादों के निर्माताओं का बहाना ये है कि इनके द्वारा प्रयुक्त नैनो पदार्थों में से अधिकतर सिल्वर और कार्बन जैसे रासायनिक पदार्थों के ज़रिए बनते हैं, और आमतौर पर सुरक्षित स्रोत माने जाते हैं. लेकिन नैनोमीटर जितने सूक्ष्म पैमाने पर इन उत्पादों का मनुष्यों, पशुओं और पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ेगा इसकी क़ायदे से पड़ताल किसी ने नहीं कराई है.
किस तरह के नैनो उत्पादों को लेकर विशेष चिंताएँ हैं?
अभी जिन उत्पादों को लेकर ख़ास चिंताएँ हैं वे हैं- नैनोसिल्वर और कार्बन नैनोट्यूब. नैनोसिल्वर एक जीवाणुरोधी पदार्थ है जो मोजे, जाँघिए और टीशर्ट जैसे कपड़ों में दुर्गंध पैदा करने वाले जीवाणुओं के विकास पर रोक लगाती है. जबकि कार्बन नैनोट्यूब से बने कपड़ों को डाई करने की ज़रूरत नहीं होती है, क्योंकि नैनोफ़ाइबर की मोटाई से उसका रंग निर्धारित किया जाता है जोकि कार्बन रेशों के परावर्तक गुणों से संभव होता है.
आलोचकों का कहना है कि नैनोसिल्वर किसी ब्लीच से भी दुगुने अनुपात में जीवाणुओं को मारता है. ज़ाहिर है इससे उपयोगी जीवाणु भी बड़ी संख्या में मारे जाते होंगे. नैनोसिल्वर वाले कपड़ों की धुलाई के बाद जो पानी नालों के ज़रिए जल स्रोतों में जाता है उसके दुष्प्रभावों का सिर्फ़ अंदाज़ा ही लगाया जा सकता है. जबकि नैनोफ़ाइबर से फेफड़ों के उसी तरह के रोग होने की आशंका जताई जा रही है जैसा कि एस्बेस्टस के रेशों के कारण होते हैं.
नैनो-चिकित्सा की बात करें तो नॉर्थ कैरोलाइना विश्वविद्यालय के एक विशेषज्ञ ने आगाह किया है कि शरीर के भीतर अपना काम करने के बाद नष्ट नहीं होने वाले और भीतर ही बने रहने वाले नैनो पदार्थ अंगों की नाकामी का कारण बन सकते हैं.
कैसे बनते हैं नैनो पदार्थ?
पारंपरिक तरीक़ों से नैनो पदार्थ या औजार तैयार करना आसान नहीं है. इन्हें बनाने के लिए आमतौर पर दो तरीक़े अपनाए जाते हैं. पहला तरीक़ा बॉटम-अप का है यानि सूक्ष्तम इकाई से शुरुआत की जाती है. कई मामलों में एक-एक परमाणु से शुरुआत की जाती है. टाइटेनियम डाइऑक्साइड और आइरन ऑक्साइड जैसे कम जटिल नैनो पदार्थ रासायनिक प्रक्रिया के ज़रिए बनाए जाते हैं. जबकि कार्बन नैनोट्यूब या 60 परमाणुओं वाले गेंद जैसे यौगिकों को स्वत: आकार ग्रहण के लिए बाह्य दशाएँ मुहैया कराई जाती हैं.
दूसरे टॉप-डाउन तरीक़े में किसी पदार्थ के एक बड़े टुकड़े शुरुआत की जाती है उन्हें काटते-छीलते हुए सूक्ष्म आकार दिया जाता है. सिलिकॉन चिप्स और सर्किट बोर्ड आदि बनाने में यह प्रक्रिया अपनाई जाती है. ये भी कोई आसान प्रक्रिया नहीं मानी जाती है.
मंगलवार, दिसंबर 30, 2008
रविवार, नवंबर 23, 2008
अत्यंत जटिल है जलदस्यु समस्या
जलदस्यु समस्या सोमालिया के पास ही क्यों?
इसके दो प्रमुख कारण हैं- पहला सोमालिया में किसी प्रभावी सरकार का नहीं होना, और दूसरा सोमालिया से लगे समुद्र से होकर होने वाला विशद समुद्री व्यापार.
पहले कारण की बात करें तो पिछले दो दशकों से सोमालिया में सरकार नाम की कोई चीज़ नहीं है. सोमालिया के अलग-अलग हिस्से अलग-अलग गुटों या गिरोहों के प्रभाव में हैं. अभी सोमालिया की जिस अंतरिम सरकार या Transitional Federal Government (TFG) को संयुक्तराष्ट्र संघ की मान्यता मिली हुई है, वो सच कहें तो राजधानी मोगादिशू पर भी पूरा नियंत्रण करने में नाकाम रही है. TFG को अमरीका की शह पर पड़ोसी देश इथियोपिया की सैनिक मदद मिली हुई है, लेकिन उसके बाद भी वह Union of Islamic Courts का सामना करने में सक्षम नहीं है. चरमपंथियों, मुल्लों और कुछ बड़े व्यवसायिओं के गुट Islamic Courts ने देश के बड़े भाग पर नियंत्रण कर रखा है. इससे अलग हुए एक अतिचरमपंथी धड़े अल-शबाब का भी देश के कुछ हिस्सों पर प्रभावी नियंत्रण है. लेकिन सोमालिया के कई बड़े हिस्से ऐसे हैं जो कि इन तीनों गुटों के नियंत्रण से भी बाहर हैं. इन हिस्सों में जिसकी लाठी उसकी भैंस वाला क़ानून चलता है जो कि करोड़ों डॉलर की नकदी और भारी-भरकरम असलहों से लैस समुद्री लुटेरों के लिए आदर्श स्थिति बनाता है.
बात करें दूसरे कारण की तो अराजक स्थिति वाले सोमालिया से लगते अदन की खाड़ी से होकर दुनिया का 8 प्रतिशत व्यापार होता है. सिर्फ़ तेल की बात करें तो दुनिया के तेल व्यापार का आठवाँ हिस्सा अदन की खाड़ी से होकर गुजरता है. इस आँकड़े में पूर्वी अफ़्रीकी तट से होकर गुजरने वाले मालवाहकों और तेल टैंकरों को भी शामिल कर लें, तो सोमाली समुद्री लुटेरों के पास लूटमार और अगवा करने के असीमित अवसर हैं.
इसके अलावा एक तीसरा महत्वपूर्ण कारण भी है- गृहयुद्ध में फंसे सोमालिया में न तो हथियारों की कमी है, और न ही जान हथेली लेकर चलने वाले लड़ाकों की. पारंपरिक रूप से समुद्र में मछली मार कर आजीविका चलाने वाले सोमाली कबीलों में बड़ी संख्या में ऐसे युवक भी हैं जो कि विकसित देशों के मछुआरों के अपने परंपरागत इलाक़े में नियमित अतिक्रमण के कारण बेरोज़गार हो गए हैं. स्थानीय समुद्र के बारे में पीढ़ियों से संग्रहित पारंपरिक जानकारियों और ख़ुद के अनुभव के कारण ऐसे युवक लुटेरों के किसी गिरोह के लिए ज्ञानेन्द्रियों का काम करते हैं.
लुटेरे बड़े-बड़े पोतों पर आसानी से क़ब्ज़ा कैसे कर लेते हैं?
दरअसल बड़े असैनिक पोतों पर क़ब्ज़ा करना बड़ा ही आसान होता है. उदाहरण के लिए सोमाली जलदस्युओं ने जिस सबसे बड़े पोत पर क़ब्ज़ा किया है वो सउदी अरब का सुपर-टैंकर सीरियस स्टार है. ऐसे सुपर-टैंकर VLCC या Very Large Crude Carriers की श्रेणी में आते हैं. आकार की बात करें तो ये एक विमानवाही पोत से तीन गुना बड़े आकार के होते हैं. लेकिन जब किसी VLCC पर पर्याप्त मात्रा में तेल लदा हो तो उसका डेक पानी से मात्र साढ़े तीन से चार मीटर ऊपर होता है. तेल से लदा एक सुपर-टैंकर बमुश्किल 15 से 20 नॉट प्रति घंटे की रफ़्तार से चलता है, लेकिन लुटेरों की स्पीडबोट इससे कहीं तेज़ी से चलती हैं. ऐसे में 10-20 हथियारबंद लुटेरे बिना किसी समस्या के महापोत के डेक पर पहुँच कर 20-25 की संख्या में मौजूद निहत्थे जहाज़कर्मियों को अपने क़ब्ज़े में लेकर जहाज़ को अगवा कर लेते हैं.
लुटेरों के काम करने के तरीक़े के बारे में कुछ बताएँ?
अभी तक आमतौर पर यही माना जाता है कि लुटेरे किसी ख़ास जहाज़ को निशाना बनाने के बजाय जो हाथ लग गया उसी को अगवा कर लेने की नीति पर चलते हैं. लेकिन अब विशेषज्ञों का मानना है कि सोमाली गिरोहों ने दुबई और जिबूति जैसे मुख्य बंदरगाहों पर अपने जासूस लगा रखे हैं जो उन्हें मालदार लक्ष्यों के बारे में सारी ज़रूरी जानकारी(क्या लदा है, कितने लोग हैं, क्या टाइमिंग है...आदि) अग्रिम मुहैय्या करा देते हैं. इसके अलावा किसी जहाज़ की राह पर इंटरनेट के ज़रिए नज़र रखना या जहाज़ विशेष की स्थिति की जानकारी ट्रांसमीट करने वाले AIS (automatic identification system)के संदेश को पकड़ना भी बिल्कुल आसान हो गया है.
एक बार अपना टार्गेट तय कर लेने के बाद लुटेरे किसी मच्छीमार पोत(आमतौर पर लूटा हुआ पोत) पर मछुआरों की भूमिका में अपने लक्ष्य के आसपास आते हैं. ऐसे मच्छीमार पोत पर वे अपना सारा असलहा और स्पीडबोट भी साथ लेकर चलते हैं. इसके बाद क्लाशनिकोफ़ राइफ़लों और ग्रेनेड लॉन्चरों(RPGs) से लैस लुटेरे अचानक तीन-चार स्पीड बोटों में लद कर लक्षित जहाज़ को चारों तरफ़ से घेर लेते हैं. जिस जहाज़ पर हमला किया गया उस पर लुटेरों को भगाने की कोई व्यवस्था नहीं होती है. ज़्यादा-से-ज़्यादा वे पानी की बौछार के ज़रिए लुटेरों को डेक पर आने से रोकने की नाकाम कोशिश भर ही की जाती है. दो हफ़्ते पहले एक निजी सुरक्षा कंपनी के जवानों ने पानी की बौछार के बजाय Magnetic Audio Devices के ज़रिए असहनीय शोर मचा कर कथित रूप से लुटेरों को भगाने का प्रदर्शन ज़रूर किया है, लेकिन समुद्री सुरक्षा विशेषज्ञों का मानना है ऐसे उपकरण लुटेरों के ख़िलाफ़ गारंटी बिल्कुल नहीं बन सकते हैं.
आँकड़ों की बात करें तो इस साल सोमाली लुटेरों ने कम-से-कम 90 जहाज़ों पर हमले किए हैं. इनमें से 39 जहाज़ों को अगवा किया गया. कुल 500 से ज़्यादा जहाज़कर्मियों को बंधक बनाया गया. फ़िरौती में मोटी रकम लेने के बाद ही जहाजों और उनके कर्मचारियों को छोड़ा गया. कीनिया के विदेश मंत्री ने कहा है कि लुटेरे इस साल 15 करोड़ डॉलर फ़िरौती में वसूल भी चुके हैं. इस समय भी सउदी सुपर-टैंकर समेत 15 जहाज़ और उनके 250 से ज़्यादा कर्मचारी लुटेरों की गिरफ़्त में फंसे हुए हैं. उल्लेखनीय है कि अभी तक एक भी बंधक को नुक़सान नहीं पहुँचाया गया है. हाँ ब्रितानी, फ़्रांसीसी और भारतीय नौसेना की कार्रवाइयों में कुछ लुटेरों के मारे जाने की ख़बरें ज़रूर प्रसारित की गई हैं.
शिपिंग कंपनियाँ अपने जहाज़ों और उस पर मौजूद कर्मचारियों की सुरक्षा की व्यवस्था क्यों नहीं करतीं?
एक तो जहाज़ और उस पर लदे माल का बीमा होने के कारण शिपिंग कंपनियों को सुरक्षा पर ध्यान देने की ज़्यादा ज़रूरत नहीं होती. उन्हें लगता है कभी-कभार एकाध मामले में फ़िरौती देनी पड़ भी गई तो क्या है! दूसरी बात ये कि शिपिंग कंपनियाँ जहाज़ों पर मील-दो मील तक नज़र रखने वाले CCTV कैमरे, हमला होते ही कंपनी मुख्यालय में ख़तरे की घंटी बजा देने वाले उपकरण या ज़्यादा-से-ज़्यादा जहाज़ के पीछे के कुछ किलोमीटर के इलाक़े पर भी नज़र रखने वाले रडार उपकरण लगवा सकते हैं. अव्वल इनसे सचमुच के मच्छीमार पोत और लुटेरों के मदर-शिप में अंतर कर पाना ही हमेशा संभव नहीं होगा, और यदि लुटेरों की गतिविधियाँ पता चल भी गईं तो उन्हें जहाज़ पर क़ब्ज़े करने से रोकना असंभव ही होगा.
जहाज़ पर तैनात कर्मचारियों को हथियारबंद करने का पहले तो प्रावधान नहीं है(क्योंकि एक व्यापारिक जहाज़ अलग-अलग देशों की सीमा से होकर गुजरता है) और यदि मान लीजिए चार-पाँच सुरक्षा गार्ड तैनात कर दिए तो भी लुटेरों के मशीनगनों और रॉकेट लॉन्चरों के मुक़ाबले जब तक उन्हें तोप और हेलीकॉप्टर गनशिप जैसे साज़ोसमान नहीं दिए जाते हैं, बेचारे सुरक्षा गार्ड मुफ़्त में मारे जाएँगे!
अंतरराष्ट्रीय समुदाय मिलजुल कर कुछ क्यों नहीं करता, क्योंकि लुटेरों ने अंतरराष्ट्रीय व्यापार को भी तो बाधित कर रखा है?
अंतरराष्ट्रीय समुदाय सचमुच में चिंतित है- ख़ास कर भारत, रूस, ब्रिटेन और अमरीका जैसे देशों की चिंता बहुत ज़्यादा है. या तो बड़ी मात्रा में इनका व्यापार अदन की खाड़ी से होकर चलता है, या इनके नागरिक शिपिंग के क्षेत्र में बड़ी संख्या में नौकरियों में हैं- ख़ास कर जहाज़ों पर. मुश्किल ये है कि आप सोमालिया की समुद्री सीमा में जाकर लुटेरों की मार-कुटाई करना चाहें तो सोमालिया में भले ही दशकों से सरकारविहीन अराजकता हो, अंतरराष्ट्री क़ानून किसी दूसरे देश को उसकी जलसीमा में घुस कर बेरोकटोक कार्रवाई करने की अनुमति नहीं देता. अंतत: 2 जून 2008 को पारित सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव संख्या 1816 में अपने जहाज़ों या अपने व्यापार के हक़ में देशों को सोमालिया की जलसीमा में जाने की अनुमति ज़रूर दी गई है, लेकिन उसके साथ बहुत सारे किंतु-परंतु लगे हुए हैं. आप ख़ुद देखें प्रस्ताव का एक हिस्सा-
Acting under Chapter VII of the Charter of the United Nations, the Security Council,
7. Decides that for a period of six months from the date of this resolution, States cooperating with the TFG in the fight against piracy and armed robbery at sea off the coast of Somalia, for which advance notification has been provided by the TFG to the Secretary-General, may:
(a)Enter the territorial waters of Somalia for the purpose of repressing acts of piracy and armed robbery at sea, in a manner consistent with such action permitted on the high seas with respect to piracy under relevant international law; and
(b)Use, within the territorial waters of Somalia, in a manner consistent with action permitted on the high seas with respect to piracy under relevant international law, all necessary means to repress acts of piracy and armed robbery;
8. Requests that cooperating states take appropriate steps to ensure that the activities they undertake pursuant to the authorization in paragraph 7 do not have
the practical effect of denying or impairing the right of innocent passage to the ships of any third State;
इस बारे में सुरक्षा परिषद ने 7 अक्तूबर 2008 को एक और प्रस्ताव(संख्या 1836) पारित किया है, जिसमें कहा गया है- The Security Council calls upon States interested in the security of maritime activities to take part actively in the fight against piracy on the high seas off the coast of Somalia, in particular by deploying naval vessels and military aircraft, in accordance with international law, as reflected in the Convention;
लेकिन इन प्रस्तावों के बाद भी इस समस्या से पार पाना मुश्किल ही लगता है. भारत ने भले ही लुटेरों के एक मदरशिप को डुबोने सफलता हासिल की हो, लेकिन सच कहा जाए तो सोमाली लुटेरों से पार पाना अकेले भारतीय नौसेना के बूते की बात नहीं है. ऐसा विश्वास के साथ इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि अमरीका ने पहले अपने हाथ खड़े कर रखे हैं कि अकेले दम पर वह भी इस समस्या से नहीं निपट सकता है.
मौजूदा अंतरराष्ट्रीय क़ानून भारत या अमरीका की नौसेना को किसी तीसरे देश के नागरिकों को छुड़ाने के लिए किसी अन्य देश के जहाज़ पर कार्रवाई करने की अनुमति नहीं है. यहाँ तक कि यदि लुटेरे उन पर सीधे हमला नहीं कर रहे हों तो इन तीसरे पक्ष की सेनाओं को लुटेरों को मार गिराने का भी अधिकार नहीं है. सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव संख्या 1816 ने भले ही सोमालिया की अंतरिम सरकार की स्वीकृति के साथ शुरुआती छह महीनों के लिए विदेशी नौसेनाओं को सोमाली जलसीमा में जाने की इजाज़त दे दी है, लेकिन सोमालिया के भीतर जाकर ज़मीनी कार्रवाई करने की अनुमति तो फिर भी नहीं दी गई है. ऐसी अनुमति मिले बिना इस समय सक्रिय सोमालिया के क़रीब 1000 समुद्री लुटेरों को पूरी तरह निष्क्रिय करना लगभग असंभव ही होगा.
एक और अनुत्तरित सवाल ये है कि यदि अंतरराष्ट्रीय कार्रवाई में लुटेरे पकड़े जाते हैं तो उनका क्या किया जाएगा? क्योंकि सोमाली लुटेरों को सोमालिया की नाम भर की सरकार को सौंपा गया तो उन्हें बिना किसी मान्य न्यायिक प्रक्रिया से गुजारे सीधे मार डाले जाने की आशंका रहेगी. पकड़े गए लुटेरों के लिए अंतरराष्ट्रीय युद्धापराध न्यायालय जैसी कोई व्यवस्था भी नहीं है. न ही उनके लिए ग्वान्तानामो जैसी कोई जगह निश्चिंत की गई है. जिस देश की नौसेना सोमाली लुटेरों को समुद्र में पकड़ती है वो अपने देश के न्यायालय में भी नहीं ले जा सकता क्योंकि न तो उस देश का क़ानून इसकी इजाज़त देगा और न ही अंतरराष्ट्रीय संधियों में ऐसी कोई व्यवस्था है.
मलक्का जलडमरुमध्य और पूर्वी एशिया में जलदस्यु समस्या पर क्या क़ाबू नहीं पा लिया गया है?
हाँ, क़ाबू पा लिया गया है ऐसा कहा जा सकता है क्योंकि इस साल उस इलाक़े से इक्का-दुक्का घटनाओं की ही सूचनाएँ आई हैं. वहाँ इंडोनेशिया, सिंगापुर और मलेशिया की सरकारों ने मिलजुल कर(चीन सरकार के आशीर्वाद के साथ, क्योंकि उस मार्ग से होकर उसका खरबों डॉलर का व्यापार होता है) व्यापारिक जहाज़ों को सुरक्षा कवच मुहैय्या कराया. यहाँ जलदस्यु समस्या से प्रभावति मार्ग अपेक्षाकृत बहुत छोटा है. संकरा होने के कारण इस पर निगरानी भी आसान है. इन सबसे भी महत्वपूर्ण बात ये है कि इस इलाक़े के लुटेरों के पास सोमालिया जैसा अराजक आधार शिविर भी उपलब्ध नहीं है, कि भाग कर वे वहाँ शरण ले लें. साथ ही जिन सरकारों ने इस जलमार्ग की सुरक्षा की ज़िम्मेवारी उठाई है, उनसे अंतरराष्ट्रीय क़ानून के अक्षरश: पालन की ज़्यादा अपेक्षा भी नहीं की जा सकती है.
इसकी तुलना में सोमाली लुटेरों की बात करें तो न सिर्फ़ अदन की खाड़ी, बल्कि हिंद महासागर के एक तिहाई हिस्से में वो जहाज़ों पर हमले कर चुके हैं. सउदी सुपर-टैंकर का उदाहरण ही देखें तो उस पर कीनिया तट से 450 मील दूर जाकर क़ब्ज़ा किया गया. इन लुटेरों से सीधे टकराव की नीति अपनाई गई तो डर ये है कि वे न सिर्फ़ ख़ून-ख़राबे पर उतर सकते हैं बल्कि पर्यावरणीय विभीषिका भी ला सकते हैं. कल्पना कीजिए यदि लाखों बैरल तेल से लदे सुपर-टैंकर में आग लगा दी जाती है, या सारा तेल समुद्र में बहा दिया जाता है!?
लेकिन हाथ-पर-हाथ धरे बैठा भी तो नहीं जा सकता?
इस समस्या का दीर्घावधि का एकमात्र समाधान है सोमालिया में एक मज़बूत सरकार की स्थापना. उदाहरण के लिए दो साल पहले जब वहाँ इस्लामी कोर्ट्स ने शासन पर पकड़ मज़बूत की थी तो जलदस्यु गिरोह बहुत दिनों तक सुसुप्तावस्था में जाने पर मजबूर हो गए थे. मुश्किल ये है कि सोमालिया में एक मज़बूत सरकार स्थापित करने के ईमानदार अंतरराष्ट्रीय प्रयास आज शुरू किए जाएँ, तो सार्थक परिणाम मिलने में पाँच से दस साल तक लग सकते हैं.
तब तक एक अंतरराष्ट्रीय नौसैनिक गश्ती दस्ता बनाया जा सकता है, जिसकी बात अब खुल कर की भी जाने लगी है. ऐसा होने तक फ़ारस की खाड़ी और हिंद महासागर में सक्रिय नौसेनाओं वाले देश जहाजों को समूह में अदन की खाड़ी से पार कराने की ज़िम्मेवारी बारी-बारी से उठाएँ, जैसा कि पिछले दिनों रूस ने किया है.
इसके अतिरिक्त अदन की खाड़ी के दूसरे किनारे के देश यमन की भी मदद करने की ज़रूरत होगी. अभी जलदस्युओं से खदबदाते अपने 1100 मील लंबे तट पर पेट्रोलिंग के लिए उसके पास मात्र नौ गश्ती जहाज़ हैं.
एक तात्कालिक विकल्प की घोषणा की है सबसे बड़ी शिपिंग कंपनियों में से एक एपी-मोलर-मेर्स्क ने. उसने कहा है कि अदन की खाड़ी में स्थिति सुधरने तक वह अपने बड़े जहाज़ों को अफ़्रीका का चक्कर लगा कर आगे की यात्रा पर भेजेगा. लेकिन यहाँ याद रहे कि अफ़्रीकी महाद्वीप का चक्कर काट कर माल यूरोप या अमरीका पहुँचाने में 10 से 14 दिन की देरी होगी. और हर दिन की यात्रा पर शिपिंग कंपनियों को 30 से 40 हज़ार डॉलर का अतिरिक्त ख़र्चा उठाना पड़ेगा. ज़ाहिर है इस अतिरिक्त परेशानी और ख़र्चे का असर अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर और अंतत: उपभोक्ताओं की जेब पर पड़ेगा!
इसके दो प्रमुख कारण हैं- पहला सोमालिया में किसी प्रभावी सरकार का नहीं होना, और दूसरा सोमालिया से लगे समुद्र से होकर होने वाला विशद समुद्री व्यापार.
पहले कारण की बात करें तो पिछले दो दशकों से सोमालिया में सरकार नाम की कोई चीज़ नहीं है. सोमालिया के अलग-अलग हिस्से अलग-अलग गुटों या गिरोहों के प्रभाव में हैं. अभी सोमालिया की जिस अंतरिम सरकार या Transitional Federal Government (TFG) को संयुक्तराष्ट्र संघ की मान्यता मिली हुई है, वो सच कहें तो राजधानी मोगादिशू पर भी पूरा नियंत्रण करने में नाकाम रही है. TFG को अमरीका की शह पर पड़ोसी देश इथियोपिया की सैनिक मदद मिली हुई है, लेकिन उसके बाद भी वह Union of Islamic Courts का सामना करने में सक्षम नहीं है. चरमपंथियों, मुल्लों और कुछ बड़े व्यवसायिओं के गुट Islamic Courts ने देश के बड़े भाग पर नियंत्रण कर रखा है. इससे अलग हुए एक अतिचरमपंथी धड़े अल-शबाब का भी देश के कुछ हिस्सों पर प्रभावी नियंत्रण है. लेकिन सोमालिया के कई बड़े हिस्से ऐसे हैं जो कि इन तीनों गुटों के नियंत्रण से भी बाहर हैं. इन हिस्सों में जिसकी लाठी उसकी भैंस वाला क़ानून चलता है जो कि करोड़ों डॉलर की नकदी और भारी-भरकरम असलहों से लैस समुद्री लुटेरों के लिए आदर्श स्थिति बनाता है.
बात करें दूसरे कारण की तो अराजक स्थिति वाले सोमालिया से लगते अदन की खाड़ी से होकर दुनिया का 8 प्रतिशत व्यापार होता है. सिर्फ़ तेल की बात करें तो दुनिया के तेल व्यापार का आठवाँ हिस्सा अदन की खाड़ी से होकर गुजरता है. इस आँकड़े में पूर्वी अफ़्रीकी तट से होकर गुजरने वाले मालवाहकों और तेल टैंकरों को भी शामिल कर लें, तो सोमाली समुद्री लुटेरों के पास लूटमार और अगवा करने के असीमित अवसर हैं.
इसके अलावा एक तीसरा महत्वपूर्ण कारण भी है- गृहयुद्ध में फंसे सोमालिया में न तो हथियारों की कमी है, और न ही जान हथेली लेकर चलने वाले लड़ाकों की. पारंपरिक रूप से समुद्र में मछली मार कर आजीविका चलाने वाले सोमाली कबीलों में बड़ी संख्या में ऐसे युवक भी हैं जो कि विकसित देशों के मछुआरों के अपने परंपरागत इलाक़े में नियमित अतिक्रमण के कारण बेरोज़गार हो गए हैं. स्थानीय समुद्र के बारे में पीढ़ियों से संग्रहित पारंपरिक जानकारियों और ख़ुद के अनुभव के कारण ऐसे युवक लुटेरों के किसी गिरोह के लिए ज्ञानेन्द्रियों का काम करते हैं.
लुटेरे बड़े-बड़े पोतों पर आसानी से क़ब्ज़ा कैसे कर लेते हैं?
दरअसल बड़े असैनिक पोतों पर क़ब्ज़ा करना बड़ा ही आसान होता है. उदाहरण के लिए सोमाली जलदस्युओं ने जिस सबसे बड़े पोत पर क़ब्ज़ा किया है वो सउदी अरब का सुपर-टैंकर सीरियस स्टार है. ऐसे सुपर-टैंकर VLCC या Very Large Crude Carriers की श्रेणी में आते हैं. आकार की बात करें तो ये एक विमानवाही पोत से तीन गुना बड़े आकार के होते हैं. लेकिन जब किसी VLCC पर पर्याप्त मात्रा में तेल लदा हो तो उसका डेक पानी से मात्र साढ़े तीन से चार मीटर ऊपर होता है. तेल से लदा एक सुपर-टैंकर बमुश्किल 15 से 20 नॉट प्रति घंटे की रफ़्तार से चलता है, लेकिन लुटेरों की स्पीडबोट इससे कहीं तेज़ी से चलती हैं. ऐसे में 10-20 हथियारबंद लुटेरे बिना किसी समस्या के महापोत के डेक पर पहुँच कर 20-25 की संख्या में मौजूद निहत्थे जहाज़कर्मियों को अपने क़ब्ज़े में लेकर जहाज़ को अगवा कर लेते हैं.
लुटेरों के काम करने के तरीक़े के बारे में कुछ बताएँ?
अभी तक आमतौर पर यही माना जाता है कि लुटेरे किसी ख़ास जहाज़ को निशाना बनाने के बजाय जो हाथ लग गया उसी को अगवा कर लेने की नीति पर चलते हैं. लेकिन अब विशेषज्ञों का मानना है कि सोमाली गिरोहों ने दुबई और जिबूति जैसे मुख्य बंदरगाहों पर अपने जासूस लगा रखे हैं जो उन्हें मालदार लक्ष्यों के बारे में सारी ज़रूरी जानकारी(क्या लदा है, कितने लोग हैं, क्या टाइमिंग है...आदि) अग्रिम मुहैय्या करा देते हैं. इसके अलावा किसी जहाज़ की राह पर इंटरनेट के ज़रिए नज़र रखना या जहाज़ विशेष की स्थिति की जानकारी ट्रांसमीट करने वाले AIS (automatic identification system)के संदेश को पकड़ना भी बिल्कुल आसान हो गया है.
एक बार अपना टार्गेट तय कर लेने के बाद लुटेरे किसी मच्छीमार पोत(आमतौर पर लूटा हुआ पोत) पर मछुआरों की भूमिका में अपने लक्ष्य के आसपास आते हैं. ऐसे मच्छीमार पोत पर वे अपना सारा असलहा और स्पीडबोट भी साथ लेकर चलते हैं. इसके बाद क्लाशनिकोफ़ राइफ़लों और ग्रेनेड लॉन्चरों(RPGs) से लैस लुटेरे अचानक तीन-चार स्पीड बोटों में लद कर लक्षित जहाज़ को चारों तरफ़ से घेर लेते हैं. जिस जहाज़ पर हमला किया गया उस पर लुटेरों को भगाने की कोई व्यवस्था नहीं होती है. ज़्यादा-से-ज़्यादा वे पानी की बौछार के ज़रिए लुटेरों को डेक पर आने से रोकने की नाकाम कोशिश भर ही की जाती है. दो हफ़्ते पहले एक निजी सुरक्षा कंपनी के जवानों ने पानी की बौछार के बजाय Magnetic Audio Devices के ज़रिए असहनीय शोर मचा कर कथित रूप से लुटेरों को भगाने का प्रदर्शन ज़रूर किया है, लेकिन समुद्री सुरक्षा विशेषज्ञों का मानना है ऐसे उपकरण लुटेरों के ख़िलाफ़ गारंटी बिल्कुल नहीं बन सकते हैं.
आँकड़ों की बात करें तो इस साल सोमाली लुटेरों ने कम-से-कम 90 जहाज़ों पर हमले किए हैं. इनमें से 39 जहाज़ों को अगवा किया गया. कुल 500 से ज़्यादा जहाज़कर्मियों को बंधक बनाया गया. फ़िरौती में मोटी रकम लेने के बाद ही जहाजों और उनके कर्मचारियों को छोड़ा गया. कीनिया के विदेश मंत्री ने कहा है कि लुटेरे इस साल 15 करोड़ डॉलर फ़िरौती में वसूल भी चुके हैं. इस समय भी सउदी सुपर-टैंकर समेत 15 जहाज़ और उनके 250 से ज़्यादा कर्मचारी लुटेरों की गिरफ़्त में फंसे हुए हैं. उल्लेखनीय है कि अभी तक एक भी बंधक को नुक़सान नहीं पहुँचाया गया है. हाँ ब्रितानी, फ़्रांसीसी और भारतीय नौसेना की कार्रवाइयों में कुछ लुटेरों के मारे जाने की ख़बरें ज़रूर प्रसारित की गई हैं.
शिपिंग कंपनियाँ अपने जहाज़ों और उस पर मौजूद कर्मचारियों की सुरक्षा की व्यवस्था क्यों नहीं करतीं?
एक तो जहाज़ और उस पर लदे माल का बीमा होने के कारण शिपिंग कंपनियों को सुरक्षा पर ध्यान देने की ज़्यादा ज़रूरत नहीं होती. उन्हें लगता है कभी-कभार एकाध मामले में फ़िरौती देनी पड़ भी गई तो क्या है! दूसरी बात ये कि शिपिंग कंपनियाँ जहाज़ों पर मील-दो मील तक नज़र रखने वाले CCTV कैमरे, हमला होते ही कंपनी मुख्यालय में ख़तरे की घंटी बजा देने वाले उपकरण या ज़्यादा-से-ज़्यादा जहाज़ के पीछे के कुछ किलोमीटर के इलाक़े पर भी नज़र रखने वाले रडार उपकरण लगवा सकते हैं. अव्वल इनसे सचमुच के मच्छीमार पोत और लुटेरों के मदर-शिप में अंतर कर पाना ही हमेशा संभव नहीं होगा, और यदि लुटेरों की गतिविधियाँ पता चल भी गईं तो उन्हें जहाज़ पर क़ब्ज़े करने से रोकना असंभव ही होगा.
जहाज़ पर तैनात कर्मचारियों को हथियारबंद करने का पहले तो प्रावधान नहीं है(क्योंकि एक व्यापारिक जहाज़ अलग-अलग देशों की सीमा से होकर गुजरता है) और यदि मान लीजिए चार-पाँच सुरक्षा गार्ड तैनात कर दिए तो भी लुटेरों के मशीनगनों और रॉकेट लॉन्चरों के मुक़ाबले जब तक उन्हें तोप और हेलीकॉप्टर गनशिप जैसे साज़ोसमान नहीं दिए जाते हैं, बेचारे सुरक्षा गार्ड मुफ़्त में मारे जाएँगे!
अंतरराष्ट्रीय समुदाय मिलजुल कर कुछ क्यों नहीं करता, क्योंकि लुटेरों ने अंतरराष्ट्रीय व्यापार को भी तो बाधित कर रखा है?
अंतरराष्ट्रीय समुदाय सचमुच में चिंतित है- ख़ास कर भारत, रूस, ब्रिटेन और अमरीका जैसे देशों की चिंता बहुत ज़्यादा है. या तो बड़ी मात्रा में इनका व्यापार अदन की खाड़ी से होकर चलता है, या इनके नागरिक शिपिंग के क्षेत्र में बड़ी संख्या में नौकरियों में हैं- ख़ास कर जहाज़ों पर. मुश्किल ये है कि आप सोमालिया की समुद्री सीमा में जाकर लुटेरों की मार-कुटाई करना चाहें तो सोमालिया में भले ही दशकों से सरकारविहीन अराजकता हो, अंतरराष्ट्री क़ानून किसी दूसरे देश को उसकी जलसीमा में घुस कर बेरोकटोक कार्रवाई करने की अनुमति नहीं देता. अंतत: 2 जून 2008 को पारित सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव संख्या 1816 में अपने जहाज़ों या अपने व्यापार के हक़ में देशों को सोमालिया की जलसीमा में जाने की अनुमति ज़रूर दी गई है, लेकिन उसके साथ बहुत सारे किंतु-परंतु लगे हुए हैं. आप ख़ुद देखें प्रस्ताव का एक हिस्सा-
Acting under Chapter VII of the Charter of the United Nations, the Security Council,
7. Decides that for a period of six months from the date of this resolution, States cooperating with the TFG in the fight against piracy and armed robbery at sea off the coast of Somalia, for which advance notification has been provided by the TFG to the Secretary-General, may:
(a)Enter the territorial waters of Somalia for the purpose of repressing acts of piracy and armed robbery at sea, in a manner consistent with such action permitted on the high seas with respect to piracy under relevant international law; and
(b)Use, within the territorial waters of Somalia, in a manner consistent with action permitted on the high seas with respect to piracy under relevant international law, all necessary means to repress acts of piracy and armed robbery;
8. Requests that cooperating states take appropriate steps to ensure that the activities they undertake pursuant to the authorization in paragraph 7 do not have
the practical effect of denying or impairing the right of innocent passage to the ships of any third State;
इस बारे में सुरक्षा परिषद ने 7 अक्तूबर 2008 को एक और प्रस्ताव(संख्या 1836) पारित किया है, जिसमें कहा गया है- The Security Council calls upon States interested in the security of maritime activities to take part actively in the fight against piracy on the high seas off the coast of Somalia, in particular by deploying naval vessels and military aircraft, in accordance with international law, as reflected in the Convention;
लेकिन इन प्रस्तावों के बाद भी इस समस्या से पार पाना मुश्किल ही लगता है. भारत ने भले ही लुटेरों के एक मदरशिप को डुबोने सफलता हासिल की हो, लेकिन सच कहा जाए तो सोमाली लुटेरों से पार पाना अकेले भारतीय नौसेना के बूते की बात नहीं है. ऐसा विश्वास के साथ इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि अमरीका ने पहले अपने हाथ खड़े कर रखे हैं कि अकेले दम पर वह भी इस समस्या से नहीं निपट सकता है.
मौजूदा अंतरराष्ट्रीय क़ानून भारत या अमरीका की नौसेना को किसी तीसरे देश के नागरिकों को छुड़ाने के लिए किसी अन्य देश के जहाज़ पर कार्रवाई करने की अनुमति नहीं है. यहाँ तक कि यदि लुटेरे उन पर सीधे हमला नहीं कर रहे हों तो इन तीसरे पक्ष की सेनाओं को लुटेरों को मार गिराने का भी अधिकार नहीं है. सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव संख्या 1816 ने भले ही सोमालिया की अंतरिम सरकार की स्वीकृति के साथ शुरुआती छह महीनों के लिए विदेशी नौसेनाओं को सोमाली जलसीमा में जाने की इजाज़त दे दी है, लेकिन सोमालिया के भीतर जाकर ज़मीनी कार्रवाई करने की अनुमति तो फिर भी नहीं दी गई है. ऐसी अनुमति मिले बिना इस समय सक्रिय सोमालिया के क़रीब 1000 समुद्री लुटेरों को पूरी तरह निष्क्रिय करना लगभग असंभव ही होगा.
एक और अनुत्तरित सवाल ये है कि यदि अंतरराष्ट्रीय कार्रवाई में लुटेरे पकड़े जाते हैं तो उनका क्या किया जाएगा? क्योंकि सोमाली लुटेरों को सोमालिया की नाम भर की सरकार को सौंपा गया तो उन्हें बिना किसी मान्य न्यायिक प्रक्रिया से गुजारे सीधे मार डाले जाने की आशंका रहेगी. पकड़े गए लुटेरों के लिए अंतरराष्ट्रीय युद्धापराध न्यायालय जैसी कोई व्यवस्था भी नहीं है. न ही उनके लिए ग्वान्तानामो जैसी कोई जगह निश्चिंत की गई है. जिस देश की नौसेना सोमाली लुटेरों को समुद्र में पकड़ती है वो अपने देश के न्यायालय में भी नहीं ले जा सकता क्योंकि न तो उस देश का क़ानून इसकी इजाज़त देगा और न ही अंतरराष्ट्रीय संधियों में ऐसी कोई व्यवस्था है.
मलक्का जलडमरुमध्य और पूर्वी एशिया में जलदस्यु समस्या पर क्या क़ाबू नहीं पा लिया गया है?
हाँ, क़ाबू पा लिया गया है ऐसा कहा जा सकता है क्योंकि इस साल उस इलाक़े से इक्का-दुक्का घटनाओं की ही सूचनाएँ आई हैं. वहाँ इंडोनेशिया, सिंगापुर और मलेशिया की सरकारों ने मिलजुल कर(चीन सरकार के आशीर्वाद के साथ, क्योंकि उस मार्ग से होकर उसका खरबों डॉलर का व्यापार होता है) व्यापारिक जहाज़ों को सुरक्षा कवच मुहैय्या कराया. यहाँ जलदस्यु समस्या से प्रभावति मार्ग अपेक्षाकृत बहुत छोटा है. संकरा होने के कारण इस पर निगरानी भी आसान है. इन सबसे भी महत्वपूर्ण बात ये है कि इस इलाक़े के लुटेरों के पास सोमालिया जैसा अराजक आधार शिविर भी उपलब्ध नहीं है, कि भाग कर वे वहाँ शरण ले लें. साथ ही जिन सरकारों ने इस जलमार्ग की सुरक्षा की ज़िम्मेवारी उठाई है, उनसे अंतरराष्ट्रीय क़ानून के अक्षरश: पालन की ज़्यादा अपेक्षा भी नहीं की जा सकती है.
इसकी तुलना में सोमाली लुटेरों की बात करें तो न सिर्फ़ अदन की खाड़ी, बल्कि हिंद महासागर के एक तिहाई हिस्से में वो जहाज़ों पर हमले कर चुके हैं. सउदी सुपर-टैंकर का उदाहरण ही देखें तो उस पर कीनिया तट से 450 मील दूर जाकर क़ब्ज़ा किया गया. इन लुटेरों से सीधे टकराव की नीति अपनाई गई तो डर ये है कि वे न सिर्फ़ ख़ून-ख़राबे पर उतर सकते हैं बल्कि पर्यावरणीय विभीषिका भी ला सकते हैं. कल्पना कीजिए यदि लाखों बैरल तेल से लदे सुपर-टैंकर में आग लगा दी जाती है, या सारा तेल समुद्र में बहा दिया जाता है!?
लेकिन हाथ-पर-हाथ धरे बैठा भी तो नहीं जा सकता?
इस समस्या का दीर्घावधि का एकमात्र समाधान है सोमालिया में एक मज़बूत सरकार की स्थापना. उदाहरण के लिए दो साल पहले जब वहाँ इस्लामी कोर्ट्स ने शासन पर पकड़ मज़बूत की थी तो जलदस्यु गिरोह बहुत दिनों तक सुसुप्तावस्था में जाने पर मजबूर हो गए थे. मुश्किल ये है कि सोमालिया में एक मज़बूत सरकार स्थापित करने के ईमानदार अंतरराष्ट्रीय प्रयास आज शुरू किए जाएँ, तो सार्थक परिणाम मिलने में पाँच से दस साल तक लग सकते हैं.
तब तक एक अंतरराष्ट्रीय नौसैनिक गश्ती दस्ता बनाया जा सकता है, जिसकी बात अब खुल कर की भी जाने लगी है. ऐसा होने तक फ़ारस की खाड़ी और हिंद महासागर में सक्रिय नौसेनाओं वाले देश जहाजों को समूह में अदन की खाड़ी से पार कराने की ज़िम्मेवारी बारी-बारी से उठाएँ, जैसा कि पिछले दिनों रूस ने किया है.
इसके अतिरिक्त अदन की खाड़ी के दूसरे किनारे के देश यमन की भी मदद करने की ज़रूरत होगी. अभी जलदस्युओं से खदबदाते अपने 1100 मील लंबे तट पर पेट्रोलिंग के लिए उसके पास मात्र नौ गश्ती जहाज़ हैं.
एक तात्कालिक विकल्प की घोषणा की है सबसे बड़ी शिपिंग कंपनियों में से एक एपी-मोलर-मेर्स्क ने. उसने कहा है कि अदन की खाड़ी में स्थिति सुधरने तक वह अपने बड़े जहाज़ों को अफ़्रीका का चक्कर लगा कर आगे की यात्रा पर भेजेगा. लेकिन यहाँ याद रहे कि अफ़्रीकी महाद्वीप का चक्कर काट कर माल यूरोप या अमरीका पहुँचाने में 10 से 14 दिन की देरी होगी. और हर दिन की यात्रा पर शिपिंग कंपनियों को 30 से 40 हज़ार डॉलर का अतिरिक्त ख़र्चा उठाना पड़ेगा. ज़ाहिर है इस अतिरिक्त परेशानी और ख़र्चे का असर अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर और अंतत: उपभोक्ताओं की जेब पर पड़ेगा!
रविवार, अक्टूबर 26, 2008
वित्तीय संकट और काला हंस
विकसित देशों को पूरी तरह गिरफ़्त में ले चुके वैश्विक वित्तीय संकट को अब पूरी दुनिया महसूस कर रही है, लेकिन इस संकट को समझना अब भी बहुत दुष्कर माना जा रहा है. बड़े-बड़े अर्थशास्त्री और बाज़ार-विशेषज्ञ अभी तक ये तय नहीं कर पाए हैं कि वित्तीय संकट का असर अंतत: अर्थव्यवस्था के किन-किन हिस्सों में बुरी तरह महसूस किया जाएगा. कितने दिनों तक रहेगा ये संकट और वित्तीय बाज़ार में अरबों डॉलर झोंकने के सरकारों के क़दम का कब और कितना असर होगा, ये बताना इस वक़्त असंभव-सा लग रहा है.
लेकिन एक पूर्व बैंकर को कम-से-कम ये ज़रूर पता है कि मौजूदा संकट की आहट तक क्यों नहीं सुनी जा सकी. इस पूर्व बैंकर का नाम है- नसीम निकोलस तालेब. हालाँकि अब इनकी ख़्याति वित्तीय मामलों के जानकार के रूप में नहीं, बल्कि एक दार्शनिक के रूप में है. तालेब की इस पहचान के पीछे उनकी दो लोकप्रिय किताबों का हाथ है- Fooled by Randomness: The Hidden Role of Chance in Life and in the Markets और The Black Swan: The Impact of the Highly Improbable.
दोनों ही किताबों के मूल में है- जीवन के हर क्षेत्र में आकस्मिकता, अनियमितता और अनिश्चितता की भूमिका पर तालेब का बिल्कुल अलग नज़रिया. दोनों ही किताबों का बीसियों भाषाओं में अनुवाद हो चुका है. दोनों ही किताबों के शीर्षक यानि 'fooled by randomness' और 'the black Swan' को अंग्रेज़ी भाषा के प्रचलित मुहावरों/कथनों में बिना किसी देरी के जगह मिल चुकी है.
तालेब का मानना है कि अत्यंत सीमित संख्या में घटने वाली अनपेक्षित घटनाओं से पता चल जाता है कि दुनिया में क्या कुछ चल रहा है. उनके अनुसार ये समझ लेने में ही हमारी भलाई है कि हम कितना कुछ कभी नहीं समझ सकेंगे. तालेब के प्रिय वाक्यों में से एक है- "हम जिस दुनिया में जी रहे हैं, वह उससे बहुत अलग है जिसे कि हम दुनिया मानते हैं."
तालेब अपने इन्हीं सामान्य से लगने वाले सिद्धांतो के आधार पर बैंकरों और अर्थशास्त्रियों को पानी पी-पीकर कोसते हैं. हालाँकि पूर्व में एक सफल बैंकर होने के नाते उनके इस दृष्टिकोण में दर्शन के अलावा उनके अनुभव का भी हाथ निश्चय ही होगा. मौजूदा वैश्विक वित्तीय संकट के बारे में तालेब कहते हैं- "शेयर बाज़ारों में जो कुछ भी हो रहा है उसे समझने के लिए हमारे पास जो साधन हैं वे पिछली कुछ सदियो के दौरान विकसित हुए हैं. अब हमें नए साधन चाहिए. लेकिन तब तक हमें भारी नासमझी की क़ीमत चुकानी पड़ेगी."
इस नासमझी पर और रोशनी डालते हुए तालेब का कहते हैं, "इसमें हमारे इस विश्वास का हाथ है कि बैंकर और वित्तीय विश्लेषक ज्ञान के उच्चतम स्तर को प्राप्त कर चुके हैं. किसान पूरे भरोसे के साथ कहेंगे कि वो भविष्य का खाका नहीं खींच सकते, लेकिन वॉल स्ट्रीट के बैंकर दावे के साथ कहेंगे कि वे ऐसा कर सकते हैं."
बैंकरों की आलोचना करते हुए तालेब कहते हैं कि काले हंसों के अस्तित्व के ख़िलाफ़ सट्टा लगाते हुए बैंक मौजूदा वित्तीय संकट में 10 खरब डॉलर गँवा चुके हैं, जो कि बैंकिंग के पूरे इतिहास में हुई कमाई से भी ज़्यादा है.
दरअसल तालेब अपने दार्शनिक सिद्धांतों को छोटे-छोट उदाहरणों या कथा-कहानियों के ज़रिए समझाना पसंद करते हैं. उनकी किताब The Black Swan: The Impact of the Highly Improbable के शीर्षक के पीछे भी उनका एक प्रिय उद्धरण है कि कैसे मध्यकाल में ये सर्वमान्य तथ्य था कि काले हंस होते ही नहीं हैं. इसलिए उन दिनों जिस चीज़ का अस्तित्व नहीं हो उसे काले हंस के रूपक से व्यक्त किया जाता था. लेकिन सत्रहवीं सदी में आकर जब ऑस्ट्रेलिय में काले हंस दिखे तो सैंकड़ो वर्षों की सर्वस्वीकृत मान्यता एक झटके में ख़त्म हो गई.
तालेब का कहना है कि ज़्यादातर लोग 'Mediocristan' में रहते हैं जोकि वास्तविकता का एक फ़र्जी मॉडेल है, जहाँ दुर्लभ घटनाएँ कभी नहीं घटती हैं. ऐसे लोग वास्तविक जटिल दुनिया से आँखें मूँदे रहते हैं. जबकि वास्तविकता जटिल दुनिया वाली ही है जहाँ दूरगामी प्रभावों वाली लेकिन बिना निश्चित पैटर्न वाली घटनाएँ नियमित रूप से घटती हैं. ऐसी दुर्लभ घटनाओं की श्रेणी में तालेब मौजूदा वित्तीय संकट के अलावा डॉटकॉम का बुलबुला फटने और 11 सितंबर के हमलों को भी शामिल करते हैं.
अर्थशास्त्र को एक विभीषिका बताते हुए तालेब कहते हैं कि पूरी दुनिया उन कुछ आर्थिक विचारों के आधार पर चलाई जा रही है, जो कि समग्र या पर्याप्त साबित नहीं हुए हैं. अर्थशास्त्रियों से तालेब को इतनी चिढ़ है कि वे अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार दिए जाने की परंपरा का खुल कर विरोध करते हैं. तालेब अर्थशास्त्र को 'बोगसगणित' और लाखों डॉलर बोनस के रूप में लेने वाले बैंकरों की पंडिताई को ज्योतिषशास्त्र के बराबर मानते हैं.
तालेब के सिद्धान्त न सिर्फ़ आमजनों के बीच लोकप्रिय हैं, बल्कि अपने को बड़ा तोप मानने वाली शख्सियतें भी उनका इस्तेमाल करती हैं. इराक़ पर हमले का आधार तैयार करते समय तत्कालीन अमरीकी रक्षा मंत्री डोनाल्ड रम्सफ़ील्ड ने तालेब के सरल विचारों का इस्तेमाल करते हुए एक बड़ा ही जटिल बयान दिया था- "There are known knowns. There are things we know that we know. There are known unknowns. That is to say, there are things that we now know we don't know. But there are also unknown unknowns. There are things we do not know we don't know."
तालेब का बताया परमसत्य- 'आकस्मिकता पर नियंत्रण असंभव है!'
लेकिन एक पूर्व बैंकर को कम-से-कम ये ज़रूर पता है कि मौजूदा संकट की आहट तक क्यों नहीं सुनी जा सकी. इस पूर्व बैंकर का नाम है- नसीम निकोलस तालेब. हालाँकि अब इनकी ख़्याति वित्तीय मामलों के जानकार के रूप में नहीं, बल्कि एक दार्शनिक के रूप में है. तालेब की इस पहचान के पीछे उनकी दो लोकप्रिय किताबों का हाथ है- Fooled by Randomness: The Hidden Role of Chance in Life and in the Markets और The Black Swan: The Impact of the Highly Improbable.
दोनों ही किताबों के मूल में है- जीवन के हर क्षेत्र में आकस्मिकता, अनियमितता और अनिश्चितता की भूमिका पर तालेब का बिल्कुल अलग नज़रिया. दोनों ही किताबों का बीसियों भाषाओं में अनुवाद हो चुका है. दोनों ही किताबों के शीर्षक यानि 'fooled by randomness' और 'the black Swan' को अंग्रेज़ी भाषा के प्रचलित मुहावरों/कथनों में बिना किसी देरी के जगह मिल चुकी है.
तालेब का मानना है कि अत्यंत सीमित संख्या में घटने वाली अनपेक्षित घटनाओं से पता चल जाता है कि दुनिया में क्या कुछ चल रहा है. उनके अनुसार ये समझ लेने में ही हमारी भलाई है कि हम कितना कुछ कभी नहीं समझ सकेंगे. तालेब के प्रिय वाक्यों में से एक है- "हम जिस दुनिया में जी रहे हैं, वह उससे बहुत अलग है जिसे कि हम दुनिया मानते हैं."
तालेब अपने इन्हीं सामान्य से लगने वाले सिद्धांतो के आधार पर बैंकरों और अर्थशास्त्रियों को पानी पी-पीकर कोसते हैं. हालाँकि पूर्व में एक सफल बैंकर होने के नाते उनके इस दृष्टिकोण में दर्शन के अलावा उनके अनुभव का भी हाथ निश्चय ही होगा. मौजूदा वैश्विक वित्तीय संकट के बारे में तालेब कहते हैं- "शेयर बाज़ारों में जो कुछ भी हो रहा है उसे समझने के लिए हमारे पास जो साधन हैं वे पिछली कुछ सदियो के दौरान विकसित हुए हैं. अब हमें नए साधन चाहिए. लेकिन तब तक हमें भारी नासमझी की क़ीमत चुकानी पड़ेगी."
इस नासमझी पर और रोशनी डालते हुए तालेब का कहते हैं, "इसमें हमारे इस विश्वास का हाथ है कि बैंकर और वित्तीय विश्लेषक ज्ञान के उच्चतम स्तर को प्राप्त कर चुके हैं. किसान पूरे भरोसे के साथ कहेंगे कि वो भविष्य का खाका नहीं खींच सकते, लेकिन वॉल स्ट्रीट के बैंकर दावे के साथ कहेंगे कि वे ऐसा कर सकते हैं."
बैंकरों की आलोचना करते हुए तालेब कहते हैं कि काले हंसों के अस्तित्व के ख़िलाफ़ सट्टा लगाते हुए बैंक मौजूदा वित्तीय संकट में 10 खरब डॉलर गँवा चुके हैं, जो कि बैंकिंग के पूरे इतिहास में हुई कमाई से भी ज़्यादा है.
दरअसल तालेब अपने दार्शनिक सिद्धांतों को छोटे-छोट उदाहरणों या कथा-कहानियों के ज़रिए समझाना पसंद करते हैं. उनकी किताब The Black Swan: The Impact of the Highly Improbable के शीर्षक के पीछे भी उनका एक प्रिय उद्धरण है कि कैसे मध्यकाल में ये सर्वमान्य तथ्य था कि काले हंस होते ही नहीं हैं. इसलिए उन दिनों जिस चीज़ का अस्तित्व नहीं हो उसे काले हंस के रूपक से व्यक्त किया जाता था. लेकिन सत्रहवीं सदी में आकर जब ऑस्ट्रेलिय में काले हंस दिखे तो सैंकड़ो वर्षों की सर्वस्वीकृत मान्यता एक झटके में ख़त्म हो गई.
तालेब का कहना है कि ज़्यादातर लोग 'Mediocristan' में रहते हैं जोकि वास्तविकता का एक फ़र्जी मॉडेल है, जहाँ दुर्लभ घटनाएँ कभी नहीं घटती हैं. ऐसे लोग वास्तविक जटिल दुनिया से आँखें मूँदे रहते हैं. जबकि वास्तविकता जटिल दुनिया वाली ही है जहाँ दूरगामी प्रभावों वाली लेकिन बिना निश्चित पैटर्न वाली घटनाएँ नियमित रूप से घटती हैं. ऐसी दुर्लभ घटनाओं की श्रेणी में तालेब मौजूदा वित्तीय संकट के अलावा डॉटकॉम का बुलबुला फटने और 11 सितंबर के हमलों को भी शामिल करते हैं.
अर्थशास्त्र को एक विभीषिका बताते हुए तालेब कहते हैं कि पूरी दुनिया उन कुछ आर्थिक विचारों के आधार पर चलाई जा रही है, जो कि समग्र या पर्याप्त साबित नहीं हुए हैं. अर्थशास्त्रियों से तालेब को इतनी चिढ़ है कि वे अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार दिए जाने की परंपरा का खुल कर विरोध करते हैं. तालेब अर्थशास्त्र को 'बोगसगणित' और लाखों डॉलर बोनस के रूप में लेने वाले बैंकरों की पंडिताई को ज्योतिषशास्त्र के बराबर मानते हैं.
तालेब के सिद्धान्त न सिर्फ़ आमजनों के बीच लोकप्रिय हैं, बल्कि अपने को बड़ा तोप मानने वाली शख्सियतें भी उनका इस्तेमाल करती हैं. इराक़ पर हमले का आधार तैयार करते समय तत्कालीन अमरीकी रक्षा मंत्री डोनाल्ड रम्सफ़ील्ड ने तालेब के सरल विचारों का इस्तेमाल करते हुए एक बड़ा ही जटिल बयान दिया था- "There are known knowns. There are things we know that we know. There are known unknowns. That is to say, there are things that we now know we don't know. But there are also unknown unknowns. There are things we do not know we don't know."
तालेब का बताया परमसत्य- 'आकस्मिकता पर नियंत्रण असंभव है!'
शनिवार, सितंबर 20, 2008
गांधीजी चले चे ग्वेरा की राह
गांधीजी और चे ग्वेरा की सिर्फ़ इस बात को लेकर तुलना हो सकती है कि दोनों ने ही शोषण की व्यवस्था का विरोध किया, दोनों ने ही स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी. लेकिन इसके आगे शायद दोनों के बीच और कोई बड़ी समानता नहीं थी. मसलन गांधीजी अहिंसा के पुजारी थे, तो चे को हिंसा से कोई परहेज़ नहीं था, बल्कि उनका भरोसा सुभाषचंद्र बोस की तरह सशस्त्र संघर्ष में था. गांधीजी ने भले ही अत्याचारी शासकों के ख़िलाफ़ लड़ाई दक्षिण अफ़्रीका में शुरू की, लेकिन उनका संपूर्ण संघर्षमय जीवन भारत में ही बीता. दूसरी ओर चे ग्वेरा ने न सिर्फ़ पूरे लैटिन अमरीका महाद्वीप के लिए लड़ाइयाँ लड़ीं, बल्कि अफ़्रीका महाद्वीप में भी क्रांति के बीज बोने का प्रयास किया. इस तरह की कई और असमानताएँ ढूँढी जा सकती हैं.
लेकिन अब लगता है कि गांधीजी एक अन्य मामले में चे ग्वेरा को टक्कर देने की ओर बढ़ चले हैं. ये है मार्केटिंग की, मुक्त बाज़ार की दुनिया. ये विडंबना ही है कि बाज़ारवाद में चे ग्वेरा जैसे घनघोर साम्यवादी का बुरी तरह इस्तेमाल किया जा रहा है. पता नहीं कितने विज्ञापनों में, कितने तरह के उत्पादों के लिए, कितने किस्म के विचारों के लिए चे की तस्वीरों का उपयोग किया जा चुका है. बाज़ारवाद गांधीवाद वाले गांधीजी को कहाँ तक ले जाता है ये तो वक़्त ही बताएगा, लेकिन संदेह नहीं कि शुरुआत हो चुकी है. गांधीजी अक्सर दुनिया के किसी कोने में किसी पोस्टर में, किसी विज्ञापन में अचानक दिख जाते हैं.
आजकल गांधीजी एक विज्ञापन को लेकर चर्चा में हैं. या ये कहें कि गांधीजी के चलते एक विज्ञापन चर्चा में है. विज्ञापन 28 अगस्त को डेनमार्क के अख़बार Morgenavisen Jyllands Posten ने छापा था. ये वही अख़बार है जिसमें प्रकाशित इस्लामी आतंकवाद विषयक कुछ कार्टूनों में पैगंबर मोहम्मद को दिखाए जाने पर दुनिया भर में हंगामा हुआ था. डेनमार्क सरकार एक अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक संकट में फंस गई थी. और, आज भी इस्लामी देशों में डेनिश नागरिकों को अतिरिक्त सावधानी बरतनी होती है.
अब इसी अख़बार ने तीन विज्ञापनों की एक सिरीज़ छापी है- गांधीजी, नेल्सन मंडेला और दलाई लामा के चित्रों के साथ आज़ादी लेते हुए. ये भी नहीं कहा जा सकता कि एक अच्छे उद्देश्य के लिए ऐसा किया गया है, क्योंकि मुख्य उद्देश्य है- अख़बार का, उसके खुलेपन का प्रचार करना. लेकिन इतना तो तय है कि गांधीजी या अन्य दो महापुरुषों के चित्रों को फ़ोटोशॉप करने के बाद भी अख़बार का उद्देश्य उनकी छवि बिगाड़ने का तो बिल्कुल ही नहीं रहा होगा. क्योंकि एक हाथ में बोतल(संभवत: बीयर की) लिए दूसरे हाथ से कोई मांस उत्पाद(संभवत: हॉटडॉग) भून रहे गांधीजी के चित्र के नीचे लिखा है- 'ज़िंदगी आसान होगी, यदि आप आवाज़ नहीं उठाओगे' इसी पंक्ति में आगे अख़बार की तस्वीर है. और पंक्ति ख़त्म हो रही है- 'बहस करो' के संदेश पर.
संदेश भले ही गांधीजी की छवि से मेल खाता हो, उनका चित्रण इसलिए अनुपयुक्त है कि गांधीजी शराब के घोर विरोधी और शाकाहार के ज़बरदस्त समर्थक थे. चूंकि गांधीजी राष्ट्रपिता भी हैं, सो भारत सरकार गांधीजी के इस व्यंग्यचित्र को लेकर अख़बार से शिकायत दर्ज़ कराने को बाध्य हुई. हालाँकि विरोध का स्वर नरम ही रखा गया.
"I would like to draw your attention to a picture of Mahatma Gandhi, which was published in Morgenavisen Jyllands-Posten on 28 August.
Mahatma Gandhi is depicted by a barbecue. In one hand he has a fork speared with a piece of meat. He has a bottle with a coloured liquid in the other hand.
According to the caption Mahatma was a person with strong opinions and strong beliefs. However the picture has distorted Mahatma's message. He was a vegetarian and had great esteem for animals. He never drank alcohol and warned of adverse health effects of alcohol."
-Yogesh Gupta, India's Ambassador to Denmark
अख़बार ने 30 अगस्त को भारतीय राजदूत की आपत्ति और साथ में अपनी सफ़ाई प्रकाशित की. अख़बार के संपादक ने खेद भी व्यक्त किया है, यदि शाकाहारी गांधीजी की छवि को लेकर कोई भ्रम फैला हो.
"It has never been our view of violating the memory of Mahatma Gandhi. On the contrary, we have chosen him with Nelson Mandela and the Dalai Lama as some of the new world history most beloved and respected people, yes, indeed almost icons.
This is a marketing campaign, which has just saluted the three men for their unique struggle for peace and freedom in the world. We are fully aware that Mahatma Gandhi was a vegetarian and will regret if we have helped to give a different impression."
-Jorn Mikkelsen, Chief Editor
इसमें कोई संदेह नहीं कि Morgenavisen Jyllands Posten अख़बार को विवादों से कोई डर नहीं रहा है, बल्कि विवादास्पद मुद्दों पर बहस कराने में इसकी ख़ास दिलचस्पी रहती है. लेकिन जैसा कि संपादक के जवाब से साफ़ है, अख़बार को गांधीजी के महत्व का अहसास है. रही बात डेनमार्क की, तो वहाँ भारत की अच्छी छवि है. डेनमार्क गांधीजी को जानता है, और राजधानी कोपनहेगेन में एक तिराहे पर गांधीजी की मूर्ति भी स्थापित है.
लेकिन अब लगता है कि गांधीजी एक अन्य मामले में चे ग्वेरा को टक्कर देने की ओर बढ़ चले हैं. ये है मार्केटिंग की, मुक्त बाज़ार की दुनिया. ये विडंबना ही है कि बाज़ारवाद में चे ग्वेरा जैसे घनघोर साम्यवादी का बुरी तरह इस्तेमाल किया जा रहा है. पता नहीं कितने विज्ञापनों में, कितने तरह के उत्पादों के लिए, कितने किस्म के विचारों के लिए चे की तस्वीरों का उपयोग किया जा चुका है. बाज़ारवाद गांधीवाद वाले गांधीजी को कहाँ तक ले जाता है ये तो वक़्त ही बताएगा, लेकिन संदेह नहीं कि शुरुआत हो चुकी है. गांधीजी अक्सर दुनिया के किसी कोने में किसी पोस्टर में, किसी विज्ञापन में अचानक दिख जाते हैं.
आजकल गांधीजी एक विज्ञापन को लेकर चर्चा में हैं. या ये कहें कि गांधीजी के चलते एक विज्ञापन चर्चा में है. विज्ञापन 28 अगस्त को डेनमार्क के अख़बार Morgenavisen Jyllands Posten ने छापा था. ये वही अख़बार है जिसमें प्रकाशित इस्लामी आतंकवाद विषयक कुछ कार्टूनों में पैगंबर मोहम्मद को दिखाए जाने पर दुनिया भर में हंगामा हुआ था. डेनमार्क सरकार एक अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक संकट में फंस गई थी. और, आज भी इस्लामी देशों में डेनिश नागरिकों को अतिरिक्त सावधानी बरतनी होती है.
अब इसी अख़बार ने तीन विज्ञापनों की एक सिरीज़ छापी है- गांधीजी, नेल्सन मंडेला और दलाई लामा के चित्रों के साथ आज़ादी लेते हुए. ये भी नहीं कहा जा सकता कि एक अच्छे उद्देश्य के लिए ऐसा किया गया है, क्योंकि मुख्य उद्देश्य है- अख़बार का, उसके खुलेपन का प्रचार करना. लेकिन इतना तो तय है कि गांधीजी या अन्य दो महापुरुषों के चित्रों को फ़ोटोशॉप करने के बाद भी अख़बार का उद्देश्य उनकी छवि बिगाड़ने का तो बिल्कुल ही नहीं रहा होगा. क्योंकि एक हाथ में बोतल(संभवत: बीयर की) लिए दूसरे हाथ से कोई मांस उत्पाद(संभवत: हॉटडॉग) भून रहे गांधीजी के चित्र के नीचे लिखा है- 'ज़िंदगी आसान होगी, यदि आप आवाज़ नहीं उठाओगे' इसी पंक्ति में आगे अख़बार की तस्वीर है. और पंक्ति ख़त्म हो रही है- 'बहस करो' के संदेश पर.
संदेश भले ही गांधीजी की छवि से मेल खाता हो, उनका चित्रण इसलिए अनुपयुक्त है कि गांधीजी शराब के घोर विरोधी और शाकाहार के ज़बरदस्त समर्थक थे. चूंकि गांधीजी राष्ट्रपिता भी हैं, सो भारत सरकार गांधीजी के इस व्यंग्यचित्र को लेकर अख़बार से शिकायत दर्ज़ कराने को बाध्य हुई. हालाँकि विरोध का स्वर नरम ही रखा गया.
"I would like to draw your attention to a picture of Mahatma Gandhi, which was published in Morgenavisen Jyllands-Posten on 28 August.
Mahatma Gandhi is depicted by a barbecue. In one hand he has a fork speared with a piece of meat. He has a bottle with a coloured liquid in the other hand.
According to the caption Mahatma was a person with strong opinions and strong beliefs. However the picture has distorted Mahatma's message. He was a vegetarian and had great esteem for animals. He never drank alcohol and warned of adverse health effects of alcohol."
-Yogesh Gupta, India's Ambassador to Denmark
अख़बार ने 30 अगस्त को भारतीय राजदूत की आपत्ति और साथ में अपनी सफ़ाई प्रकाशित की. अख़बार के संपादक ने खेद भी व्यक्त किया है, यदि शाकाहारी गांधीजी की छवि को लेकर कोई भ्रम फैला हो.
"It has never been our view of violating the memory of Mahatma Gandhi. On the contrary, we have chosen him with Nelson Mandela and the Dalai Lama as some of the new world history most beloved and respected people, yes, indeed almost icons.
This is a marketing campaign, which has just saluted the three men for their unique struggle for peace and freedom in the world. We are fully aware that Mahatma Gandhi was a vegetarian and will regret if we have helped to give a different impression."
-Jorn Mikkelsen, Chief Editor
इसमें कोई संदेह नहीं कि Morgenavisen Jyllands Posten अख़बार को विवादों से कोई डर नहीं रहा है, बल्कि विवादास्पद मुद्दों पर बहस कराने में इसकी ख़ास दिलचस्पी रहती है. लेकिन जैसा कि संपादक के जवाब से साफ़ है, अख़बार को गांधीजी के महत्व का अहसास है. रही बात डेनमार्क की, तो वहाँ भारत की अच्छी छवि है. डेनमार्क गांधीजी को जानता है, और राजधानी कोपनहेगेन में एक तिराहे पर गांधीजी की मूर्ति भी स्थापित है.
मंगलवार, सितंबर 09, 2008
...इसलिए धरती नष्ट नहीं होगी!
पिछले कुछ महीनों से जैसे-जैसे अब तक के सबसे बड़े और महत्वपूर्ण वैज्ञानिक प्रयोग की उल्टी गिनती ने ज़ोर पकड़ी, इस प्रयोग के चलते ब्लैकहोल उत्पन्न होने और उसमें धरती के समा जाने की प्रलयवाणी भी तेज़ हो गई. और आज 10 सितंबर 2008 को फ़्रांस-स्विटज़रलैंड की सीमा पर एक भूमिगत प्रयोगस्थल में जब Large Hadron Collider को स्टॉर्ट किया जाएगा, तब जाकर शायद महाप्रलय का गीत गा रहे मीडिया को चैन आए कि अरे धरती तो पहले की ही तरह मस्त घूम रही है.
इस सारे शोर के केंद्र में है European Organization for Nuclear Research जिसे कि फ़्रेंच भाषा में इसके पुराने नाम Conseil Européen pour la Recherche Nucléaire के आधार पर आज भी CERN/सर्न के नाम से जाना जाता है.
सर्न यों तो उपनाभिकीय या Particle Physics के क्षेत्र में 1954 से काम कर रहा है, और अपने मुख्य अनुसंधान क्षेत्र में कई बेहतरीन उपलब्धियाँ हासिल करने के साथ-साथ हमें सूचना क्रांति संभव कराने वाला वर्ल्ड वाइड वेब(www) दे चुका है.
लेकिन आज लंदन से बेतिया और काठमांडू तक आमलोगों की सर्न में रूचि इसकी महामशीन Large Hadron Collider या LHC को लेकर है. इसके नाम से ही ज़ाहिर हो जाती है इसकी प्रकृति. ज़मीन के 100 मीटर नीचे 27 किलोमीटर परिधि वाली वृताकार महामशीन को Large तो कहा ही जाएगा. ये एक Collider है यानि टक्कर कराने वाला. इसमें टक्कर कराई जाएगी Hadrons की, यानि क़्वार्क से बने प्रोटॉन और न्यूट्रॉन जैसे नाभिकीय पदार्थों की. बुधवार को जिस प्रयोग का शुभारंभ हो रहा है, वो प्रोटॉनों को टकराने के लिए है. वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि लगभग प्रकाश की गति से कराए जाने वाली इस महाभंजक टक्कर से ब्रह्मांड की बनावट जानने में मदद मिलेगी, अस्तित्व का कुछ अंदाज़ा लग सकेगा कि आख़िर शुरुआत कैसे हुई होगी.
इस महत्वपूर्ण प्रयोग से मिनी-ब्लैकहोल बनने और उसमें धीरे-धीरे सब कुछ, यहाँ तक कि पूरी धरती समा जाने की अफ़वाह कहाँ से शुरू हुई पता लगाना मुश्किल है. हालाँकि इसमें जर्मनी के Tubingen University में सैद्धांतिक रसायन विज्ञान के प्रोफ़ेसर ओट्टो ई रोज़लर का नाम प्रमुखता से आता है. प्रो. रोज़लर ने ये बताने की कोशिश की, कि कैसे सर्न के LHC प्रयोग के दौरान मिनी-ब्लैकहोल का निर्माण हो सकता है, जो कि संभव है पैदा होने के बाद स्वत: ख़त्म न हो और लगातार बढ़ता जाए. ये तो सब जानते हैं कि ब्लैकहोल अपनी महागुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण सब कुछ डकार सकता है. प्रकाश तक बाहर नहीं आ पाता है उसकी पकड़े, और इसीलिए तो वो ब्लैक है, अप्रकाशित है, अबूझ है.
प्रो. रोज़लर अपने सिद्धांत से इतने संतुष्ट नज़र आते हैं कि उन्होंने सर्न के LHC प्रयोग को रुकवाने के लिए यूरोपीय मानवाधिकार अदालत का दरवाज़ा तक जा खटखटाया. दुहाई दी ज़िंदगी जीने के अधिकार की. प्रो.रोज़लर के अलावा उनके जैसे कुछ अन्य वैज्ञानिकों के साथ-साथ कुछ शुद्ध षड़यंत्रदर्शियों ने भी प्रयोग स्थगित कराने के लिए क़ानूनी पेंच लगाए. लेकिन सौभाग्य से इनमें से किसी का दाँव चल नहीं पाया.
मेरे समान ही बहुसंख्य लोग इस बात से आश्वस्त हैं कि गड़बड़ी की आशंका नहीं के बराबर है. आश्वस्त कराने में सर्न के प्रेस बयानों से ज़्यादा उन भौतिकविदों की भूमिका रही है जो LHC परियोजना से सीधे तौर पर जुड़े हुए भी नहीं हैं.
सबसे पहले बात करें मशहूर भौतिकविद प्रोफ़ेसर स्टीफ़न हॉकिंग की. पिछले दिनों छपी 'द बिग बैंग मशीन' नामक एक पुस्तिका के प्राक्कथन में प्रो.हॉकिंग कहते हैं-
"कुछ लोगों ने मुझसे पूछा है कि क्या LHC से कोई विनाशकारी या अकल्पनीय परिणाम निकल सकता है. निश्चय ही स्थानकाल से जुड़े कुछ सिद्धांतों में कहा गया है कि नाभिकीय पदार्थों की महाटक्कर में सूक्ष्म ब्लैकहोल उत्पन्न हो सकते हैं. यदि ऐसा होता भी है, तो मेरे ही द्वारा प्रतिपादित एक सिद्धांत के अनुसार ऐसे ब्लैकहोल उपनाभिकीय पदार्थों का विकिरण करते हुए विलीन हो जाएँगे. यदि LHC में ब्लैकहोल दिखे तो ये भौतिकी के लिए ये एक नए काल की शुरुआत होगी, और संभव है अपने सिद्धांत के साबित होने पर मैं नोबेल पुरस्कार भी जीत जाऊँ. लेकिन कम-से-कम मुझे इसकी कोई उम्मीद नज़र नहीं आती."
न्यूयॉर्क के सिटी यूनीवर्सिटी मे सैद्धांतिक भौतिकी के प्रोफ़ेसर और Physics of the Impossible नामक किताब के लेखक प्रो. मिशियो काकु कहते हैं-
"इसी तरह मानव जाति के समाप्त होने का डर पैदा किया गया था 1910 में. तब मीडिया ने सही रिपोर्टिंग की थी कि धरती एक अन्य ब्रह्मांडीय पिंड के संपर्क में आने वाला है जो कि ज़हरीली गैसों से भरा है. बात धरती के हैली पुच्छल तारे की गैसीय पूँछ से होकर गुजरने की थी. मीडिया में ये ख़बर आनी शुरू होते ही प्रलय की भविष्यवाणियाँ करने वाले लोग जहाँ-तहाँ नज़र आने लगे. मीडिया ने सही रिपोर्ट ज़रूर दी थी, लेकिन रिपोर्ट अधूरी थी. ये नहीं बताया गया था कि धूमकेतु की पूँछ इतनी झीनी है कि उसकी गैसें और अन्य तमाम पदार्थ सूटकेस के आकार के किसी बर्तन में समा जाएँ. यानि गैसों के ज़हरीली होने के बाद भी धरती के जीवों पर उसका कोई असर नहीं होगा. अंतत: ऐसा ही हुआ. हैली आया और गया, धरती को खरोंच तक लगाए बिना."
"हैली धूमकेतु वाले मामले की तरह ही इस बार भी मीडिया ने सही जानकारी दी कि LHC प्रयोग में सूक्ष्म ब्लैक़होल बन सकते हैं. मीडिया ने ब्लैकहोल की भयावह ताक़त का भी तार्किक ब्यौरा दिया. लेकिन इस मामले में भी मीडिया ने अधूरी तस्वीर पेश की. मीडिया इस बात को दबा गया कि प्रकृति में उपनाभिकीय पदार्थ कहीं बड़ी मात्रा में और कहीं ज़्यादा ऊर्जा के साथ उत्पन्न होते रहते हैं, जिसकी किसी मानवीय प्रयोग में कल्पना भी नहीं की जा सकती है. नैसर्गिक रूप से सतत पैदा होते रहते उपनाभिकीय पदार्थ ब्रह्मांड के विशाल चुंबकीय और विद्युत क्षेत्रों से गुजर कर अतिशय ऊर्जावान बौछारों के रूप में अरबों वर्षों से धरती से टकरा रहे हैं."
"इसके अलावा LHC में यदि ब्लैकहोल पैदा भी हुए तो वे उपनाभिकीय स्तर के यानि इलेक्ट्रॉन या प्रोटॉन के आकार से तुलना करने लायक़ होंगे. इसमें कितनी कम ऊर्जा होगी उसका अनुमान इस बात से लगा सकते हैं कि यदि LHC को सैंकड़ो वर्षों तक लगातार चलाया गया तो भी इससे पैदा हुए असंख्य सूक्ष्म ब्लैकहोल मिल कर भी एक बल्ब जलाने लायक़ ऊर्जा नहीं पैदा कर सकेंगे."
"यों तो LHC में उत्पन्न उपनाभिकीय पदार्थों में खरबों इलेक्ट्रॉन वोल्ट की ऊर्जा होगी, लेकिन उनके बीच ब्लैकहोल पैदा हुए तो भी अधिकतम प्रति सेकेंड एक की दर से. उनका आकार इतना छोटा होगा कि उससे किसी तरह का ख़तरा हो ही नहीं सकता."
"ये भी बात ग़ौर करने की है कि LHC में पैदा कोई भी ब्लैकहोल बिल्कुल अस्थिर होगा, जिसका तत्काल विलोप हो जाएगा. ऐसे ब्लैकहोल परस्पर मिल कर बड़ा होते जाने के बजाय विकिरण छोड़ते हुए एक-दूसरे दूर जाएँगे और अंतत: अपनी मौत मर जाएँगे, जैसा कि प्रो. स्टीफ़न हॉकिंग का सिद्धांत कहता है."
"यदि LHC में कोई सूक्ष्म ब्लैकहोल पैदा हुआ तो उसके धरती के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में आने की भी संभावना नगण्य ही है. ऐसा हुआ तो भी वो सूक्ष्म ब्लैकहोल तुरंत अपनी मौत मर जाएगा, विलीन हो जाएगा."
"वेर्नर हाइज़नबर्ग के अनिश्चितता के सिद्धांत के अनुसार कुछ भी घटित होने की अतिक्षीण संभावना हमेशा रहती है. यानि इस असत्यापित क़्वांटम सिद्धांत के अनुसार तो LHC के प्रयोग के दौरान आग उगलने वाले ड्रैगन भी पैदा हो सकते हैं. लेकिन वास्तविकता के धरातल पर विचार करें तो ऐसा होने के आसार कम-से-कम इस ब्रह्मांड के रहते तो नहीं ही हैं."
प्रलयवादियों अभी करो इंतज़ार
प्रो. स्टीफ़न हॉकिंग और प्रो. मिशियो काकु के समझाने से भी यदि कोई प्रलयवादी नहीं मानता हो, तो उसके लिए एक और तथ्य ये कि आज LHC को सिर्फ़ चालू किया जा रहा है.
जिस परियोजना को पूरा करने में दो दशक से ज़्यादा लगे हों, भला उसमें पहले ही दिन मुख्य प्रयोग करने की बात की कल्पना भी कैसे की जा सकती है. पहले कुछ हफ़्ते तो ये देखने में ही गुजरेंगे कि लाखों कलपुर्ज़ों में से एक-एक ठीक से काम कर रहा है कि नहीं. फिर धीरे-धीरे प्रोटॉन धारा की गति बढ़ाई जाएगी. पूरी ऊर्जा यानि 14 TeV या टेट्राइलेक्ट्रॉनवोल्ट की ऊर्जा के साथ प्रोटॉन-प्रोटॉन टक्कर का समय आने में अभी महीनों लगेंगे. उस समय जहाँ दुनिया भर के भौतिकविद कथित ईश्वरीय कण या हिग्स बोसॉन उत्पन्न होने की उम्मीद करेंगे, वहीं प्रलयवादियों का मिनी-ब्लैकहोल का भय चरम स्थिति में होगा. यानि हर तरह से समझाने के बावजूद नहीं मानने वाले प्रलयवादियों को भी तब तक के लिए चिंतामुक्त रहना चाहिए.
इंडियन कनेक्शन
यहाँ एक भारतीय के रूप में उल्लेख करना ज़रूरी है कि सर्न परियोजना में अपेक्षाकृत छोटे स्तर पर ही सही, भारतीय वैज्ञानिकों का भी योगदान है. और, जिस ईश्वरीय कण 'हिग्स बोसॉन' की उम्मीद की जा रही है उसमें बोसॉन को महान भारतीय वैज्ञानिक सत्येंद्र नाथ बोस का नाम मिला है. जबकि हिग्स ब्रितानी वैज्ञानिक पीटर हिग्स के नाम से आया है. वैज्ञानिक आशा लगाए बैठे हैं कि यदि अभी तक मात्र सिद्धांत के रूप में मौजूद 'हिग्स बोसॉन' प्राप्त होता है, तो उसके रूप में क़्वांटम भौतिकी के सिद्धांतों की ग़ायब कड़ी मिल जाएगी. इससे न सिर्फ़ ब्रह्मांड की उत्पत्ति के बारे में जानकारी का दायरा अचानक बहुत बढ़ जाएगा, बल्कि कई अधूरे क़्वांटम सिद्धांतों को भी पूरा किया जा सकेगा.
इस सारे शोर के केंद्र में है European Organization for Nuclear Research जिसे कि फ़्रेंच भाषा में इसके पुराने नाम Conseil Européen pour la Recherche Nucléaire के आधार पर आज भी CERN/सर्न के नाम से जाना जाता है.
सर्न यों तो उपनाभिकीय या Particle Physics के क्षेत्र में 1954 से काम कर रहा है, और अपने मुख्य अनुसंधान क्षेत्र में कई बेहतरीन उपलब्धियाँ हासिल करने के साथ-साथ हमें सूचना क्रांति संभव कराने वाला वर्ल्ड वाइड वेब(www) दे चुका है.
लेकिन आज लंदन से बेतिया और काठमांडू तक आमलोगों की सर्न में रूचि इसकी महामशीन Large Hadron Collider या LHC को लेकर है. इसके नाम से ही ज़ाहिर हो जाती है इसकी प्रकृति. ज़मीन के 100 मीटर नीचे 27 किलोमीटर परिधि वाली वृताकार महामशीन को Large तो कहा ही जाएगा. ये एक Collider है यानि टक्कर कराने वाला. इसमें टक्कर कराई जाएगी Hadrons की, यानि क़्वार्क से बने प्रोटॉन और न्यूट्रॉन जैसे नाभिकीय पदार्थों की. बुधवार को जिस प्रयोग का शुभारंभ हो रहा है, वो प्रोटॉनों को टकराने के लिए है. वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि लगभग प्रकाश की गति से कराए जाने वाली इस महाभंजक टक्कर से ब्रह्मांड की बनावट जानने में मदद मिलेगी, अस्तित्व का कुछ अंदाज़ा लग सकेगा कि आख़िर शुरुआत कैसे हुई होगी.
इस महत्वपूर्ण प्रयोग से मिनी-ब्लैकहोल बनने और उसमें धीरे-धीरे सब कुछ, यहाँ तक कि पूरी धरती समा जाने की अफ़वाह कहाँ से शुरू हुई पता लगाना मुश्किल है. हालाँकि इसमें जर्मनी के Tubingen University में सैद्धांतिक रसायन विज्ञान के प्रोफ़ेसर ओट्टो ई रोज़लर का नाम प्रमुखता से आता है. प्रो. रोज़लर ने ये बताने की कोशिश की, कि कैसे सर्न के LHC प्रयोग के दौरान मिनी-ब्लैकहोल का निर्माण हो सकता है, जो कि संभव है पैदा होने के बाद स्वत: ख़त्म न हो और लगातार बढ़ता जाए. ये तो सब जानते हैं कि ब्लैकहोल अपनी महागुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण सब कुछ डकार सकता है. प्रकाश तक बाहर नहीं आ पाता है उसकी पकड़े, और इसीलिए तो वो ब्लैक है, अप्रकाशित है, अबूझ है.
प्रो. रोज़लर अपने सिद्धांत से इतने संतुष्ट नज़र आते हैं कि उन्होंने सर्न के LHC प्रयोग को रुकवाने के लिए यूरोपीय मानवाधिकार अदालत का दरवाज़ा तक जा खटखटाया. दुहाई दी ज़िंदगी जीने के अधिकार की. प्रो.रोज़लर के अलावा उनके जैसे कुछ अन्य वैज्ञानिकों के साथ-साथ कुछ शुद्ध षड़यंत्रदर्शियों ने भी प्रयोग स्थगित कराने के लिए क़ानूनी पेंच लगाए. लेकिन सौभाग्य से इनमें से किसी का दाँव चल नहीं पाया.
मेरे समान ही बहुसंख्य लोग इस बात से आश्वस्त हैं कि गड़बड़ी की आशंका नहीं के बराबर है. आश्वस्त कराने में सर्न के प्रेस बयानों से ज़्यादा उन भौतिकविदों की भूमिका रही है जो LHC परियोजना से सीधे तौर पर जुड़े हुए भी नहीं हैं.
सबसे पहले बात करें मशहूर भौतिकविद प्रोफ़ेसर स्टीफ़न हॉकिंग की. पिछले दिनों छपी 'द बिग बैंग मशीन' नामक एक पुस्तिका के प्राक्कथन में प्रो.हॉकिंग कहते हैं-
"कुछ लोगों ने मुझसे पूछा है कि क्या LHC से कोई विनाशकारी या अकल्पनीय परिणाम निकल सकता है. निश्चय ही स्थानकाल से जुड़े कुछ सिद्धांतों में कहा गया है कि नाभिकीय पदार्थों की महाटक्कर में सूक्ष्म ब्लैकहोल उत्पन्न हो सकते हैं. यदि ऐसा होता भी है, तो मेरे ही द्वारा प्रतिपादित एक सिद्धांत के अनुसार ऐसे ब्लैकहोल उपनाभिकीय पदार्थों का विकिरण करते हुए विलीन हो जाएँगे. यदि LHC में ब्लैकहोल दिखे तो ये भौतिकी के लिए ये एक नए काल की शुरुआत होगी, और संभव है अपने सिद्धांत के साबित होने पर मैं नोबेल पुरस्कार भी जीत जाऊँ. लेकिन कम-से-कम मुझे इसकी कोई उम्मीद नज़र नहीं आती."
न्यूयॉर्क के सिटी यूनीवर्सिटी मे सैद्धांतिक भौतिकी के प्रोफ़ेसर और Physics of the Impossible नामक किताब के लेखक प्रो. मिशियो काकु कहते हैं-
"इसी तरह मानव जाति के समाप्त होने का डर पैदा किया गया था 1910 में. तब मीडिया ने सही रिपोर्टिंग की थी कि धरती एक अन्य ब्रह्मांडीय पिंड के संपर्क में आने वाला है जो कि ज़हरीली गैसों से भरा है. बात धरती के हैली पुच्छल तारे की गैसीय पूँछ से होकर गुजरने की थी. मीडिया में ये ख़बर आनी शुरू होते ही प्रलय की भविष्यवाणियाँ करने वाले लोग जहाँ-तहाँ नज़र आने लगे. मीडिया ने सही रिपोर्ट ज़रूर दी थी, लेकिन रिपोर्ट अधूरी थी. ये नहीं बताया गया था कि धूमकेतु की पूँछ इतनी झीनी है कि उसकी गैसें और अन्य तमाम पदार्थ सूटकेस के आकार के किसी बर्तन में समा जाएँ. यानि गैसों के ज़हरीली होने के बाद भी धरती के जीवों पर उसका कोई असर नहीं होगा. अंतत: ऐसा ही हुआ. हैली आया और गया, धरती को खरोंच तक लगाए बिना."
"हैली धूमकेतु वाले मामले की तरह ही इस बार भी मीडिया ने सही जानकारी दी कि LHC प्रयोग में सूक्ष्म ब्लैक़होल बन सकते हैं. मीडिया ने ब्लैकहोल की भयावह ताक़त का भी तार्किक ब्यौरा दिया. लेकिन इस मामले में भी मीडिया ने अधूरी तस्वीर पेश की. मीडिया इस बात को दबा गया कि प्रकृति में उपनाभिकीय पदार्थ कहीं बड़ी मात्रा में और कहीं ज़्यादा ऊर्जा के साथ उत्पन्न होते रहते हैं, जिसकी किसी मानवीय प्रयोग में कल्पना भी नहीं की जा सकती है. नैसर्गिक रूप से सतत पैदा होते रहते उपनाभिकीय पदार्थ ब्रह्मांड के विशाल चुंबकीय और विद्युत क्षेत्रों से गुजर कर अतिशय ऊर्जावान बौछारों के रूप में अरबों वर्षों से धरती से टकरा रहे हैं."
"इसके अलावा LHC में यदि ब्लैकहोल पैदा भी हुए तो वे उपनाभिकीय स्तर के यानि इलेक्ट्रॉन या प्रोटॉन के आकार से तुलना करने लायक़ होंगे. इसमें कितनी कम ऊर्जा होगी उसका अनुमान इस बात से लगा सकते हैं कि यदि LHC को सैंकड़ो वर्षों तक लगातार चलाया गया तो भी इससे पैदा हुए असंख्य सूक्ष्म ब्लैकहोल मिल कर भी एक बल्ब जलाने लायक़ ऊर्जा नहीं पैदा कर सकेंगे."
"यों तो LHC में उत्पन्न उपनाभिकीय पदार्थों में खरबों इलेक्ट्रॉन वोल्ट की ऊर्जा होगी, लेकिन उनके बीच ब्लैकहोल पैदा हुए तो भी अधिकतम प्रति सेकेंड एक की दर से. उनका आकार इतना छोटा होगा कि उससे किसी तरह का ख़तरा हो ही नहीं सकता."
"ये भी बात ग़ौर करने की है कि LHC में पैदा कोई भी ब्लैकहोल बिल्कुल अस्थिर होगा, जिसका तत्काल विलोप हो जाएगा. ऐसे ब्लैकहोल परस्पर मिल कर बड़ा होते जाने के बजाय विकिरण छोड़ते हुए एक-दूसरे दूर जाएँगे और अंतत: अपनी मौत मर जाएँगे, जैसा कि प्रो. स्टीफ़न हॉकिंग का सिद्धांत कहता है."
"यदि LHC में कोई सूक्ष्म ब्लैकहोल पैदा हुआ तो उसके धरती के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में आने की भी संभावना नगण्य ही है. ऐसा हुआ तो भी वो सूक्ष्म ब्लैकहोल तुरंत अपनी मौत मर जाएगा, विलीन हो जाएगा."
"वेर्नर हाइज़नबर्ग के अनिश्चितता के सिद्धांत के अनुसार कुछ भी घटित होने की अतिक्षीण संभावना हमेशा रहती है. यानि इस असत्यापित क़्वांटम सिद्धांत के अनुसार तो LHC के प्रयोग के दौरान आग उगलने वाले ड्रैगन भी पैदा हो सकते हैं. लेकिन वास्तविकता के धरातल पर विचार करें तो ऐसा होने के आसार कम-से-कम इस ब्रह्मांड के रहते तो नहीं ही हैं."
प्रलयवादियों अभी करो इंतज़ार
प्रो. स्टीफ़न हॉकिंग और प्रो. मिशियो काकु के समझाने से भी यदि कोई प्रलयवादी नहीं मानता हो, तो उसके लिए एक और तथ्य ये कि आज LHC को सिर्फ़ चालू किया जा रहा है.
जिस परियोजना को पूरा करने में दो दशक से ज़्यादा लगे हों, भला उसमें पहले ही दिन मुख्य प्रयोग करने की बात की कल्पना भी कैसे की जा सकती है. पहले कुछ हफ़्ते तो ये देखने में ही गुजरेंगे कि लाखों कलपुर्ज़ों में से एक-एक ठीक से काम कर रहा है कि नहीं. फिर धीरे-धीरे प्रोटॉन धारा की गति बढ़ाई जाएगी. पूरी ऊर्जा यानि 14 TeV या टेट्राइलेक्ट्रॉनवोल्ट की ऊर्जा के साथ प्रोटॉन-प्रोटॉन टक्कर का समय आने में अभी महीनों लगेंगे. उस समय जहाँ दुनिया भर के भौतिकविद कथित ईश्वरीय कण या हिग्स बोसॉन उत्पन्न होने की उम्मीद करेंगे, वहीं प्रलयवादियों का मिनी-ब्लैकहोल का भय चरम स्थिति में होगा. यानि हर तरह से समझाने के बावजूद नहीं मानने वाले प्रलयवादियों को भी तब तक के लिए चिंतामुक्त रहना चाहिए.
इंडियन कनेक्शन
यहाँ एक भारतीय के रूप में उल्लेख करना ज़रूरी है कि सर्न परियोजना में अपेक्षाकृत छोटे स्तर पर ही सही, भारतीय वैज्ञानिकों का भी योगदान है. और, जिस ईश्वरीय कण 'हिग्स बोसॉन' की उम्मीद की जा रही है उसमें बोसॉन को महान भारतीय वैज्ञानिक सत्येंद्र नाथ बोस का नाम मिला है. जबकि हिग्स ब्रितानी वैज्ञानिक पीटर हिग्स के नाम से आया है. वैज्ञानिक आशा लगाए बैठे हैं कि यदि अभी तक मात्र सिद्धांत के रूप में मौजूद 'हिग्स बोसॉन' प्राप्त होता है, तो उसके रूप में क़्वांटम भौतिकी के सिद्धांतों की ग़ायब कड़ी मिल जाएगी. इससे न सिर्फ़ ब्रह्मांड की उत्पत्ति के बारे में जानकारी का दायरा अचानक बहुत बढ़ जाएगा, बल्कि कई अधूरे क़्वांटम सिद्धांतों को भी पूरा किया जा सकेगा.
शुक्रवार, अगस्त 29, 2008
आज़ादी से पहले का वृहद भारत
प्रस्तुत है अविभाजित भारत का एक विस्तृत मानचित्र. आज जबकि कश्मीर के बहाने भारत के और टुकड़े करने की खुल कर माँग की जाने लगी हो, अप्रैल 1946 का यह मानचित्र पहले से कहीं ज़्यादा संग्रहणीय हो जाता है.
(कृपया बड़े आकार में देखने के लिए मानचित्र पर क्लिक करें.)
सौजन्य:नेशनल ज्यॉग्राफ़िक
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सौजन्य:नेशनल ज्यॉग्राफ़िक
गुरुवार, जुलाई 17, 2008
बालू से तेल निकालने में जुटा दैत्य
बालू से तेल निकालने के मुहावरे को भले ही किसी असंभव काम के संदर्भ में प्रयुक्त किया जाता हो, लेकिन सचमुच में ऐसा होता है और ख़ूब हो रहा है. ख़ास कर कनाडा के अल्बर्टा प्रांत में.
कनाडा के तेल उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा बालू से निकाले गए तेल का है. वहाँ अल्बर्टा प्रांत का एक बड़ा इलाक़ा बिटुमेन या टार मिश्रित बालू से भरा हुआ है, यानि हाइड्रोकार्बन का खुला भंडार. अभी तक बालू से तेल निकालने की ज़्यादा लागत और अपेक्षाकृत घटिया उत्पाद को देखते हुए इस पर ज़्यादा ज़ोर नहीं दिया जा रहा था. लेकिन कच्चे तेल की लगातार बढ़ती क़ीमत ने कनाडा सरकार को अल्बर्टा के तैलीय बालू के दोहन का अच्छा बहाना दे दिया है.
अल्बर्टा की संवेदनशील पारिस्थिकी की चिंता का त्याग करते हुए कनाडा सरकार ने यहाँ दुनिया भर की तमाम बड़ी तेल कंपनियों को लाइसेंस दे दिया है. शेल, शेवरॉन, एक्सन और टोटल जैसी कंपनियाँ 3000 वर्गकिलोमीटर के इस बलुआही इलाक़े में क़रीब 100 अरब डॉलर का निवेश कर चुकी हैं.
अल्बर्टा के बिटुमेन-बेल्ट को 'न्यू कुवैत' कहा जा रहा है. इस समय यहाँ प्रतिदिन 13 लाख बैरल तेल का उत्पादन होता है. तेल उत्पादक कंपनियाँ यहाँ अगले तीन वर्षों में 100 अरब डॉलर और लगाने वाली हैं, ताकि दैनिक उत्पादन 35 लाख बैरल तक पहुँचाया जा सके. पर्यावरण के मामलों में आमतौर पर 'गुड ब्वॉय' माना जाने वाला कनाडा बालू से तेल का उत्पादन बढ़ाते हुए दुनिया के सबसे बड़े तेल निर्यातकों में शामिल होने को कटिबद्ध दिख रहा है. भले ही 'डर्टी ऑयल' के मोह में उसे 'डर्टीमैन ऑफ़ द वेस्ट' की उपाधि क्यों न झेलनी पड़े.
जब बात एक गंदे उत्पाद की हो तो उसमें राक्षसी मशीनों की भूमिका तो निश्चय ही होगी. अल्बर्टा में सतह से कुछ मीटर नीचे से लेकर 100 मीटर नीचे से निकाले गए तैलीय बालू को पास की कम्प्रेसर फ़ैक्ट्री तक ले जाने के लिए कैटरपिलर 797बी नामक मशीनी दैत्य को लगाया गया है, जोकि दुनिया का सबसे बड़ा ट्रक है. एक 797B डंपर दिन भर में 35,000 टन बालू ढोता है. दो-मंज़िली इमारत जितने बड़े इस ट्रक की एक खेप औसत 350 टन की होती है, यानि अमूमन 200 बैरल तेल की गारंटी. आइए कैटरपिलर 797B की प्रमुख विशेषताओं को देखते हैं-
Empty weight: 623,690 kg
Horse Power: 3550
Fuel capacity: 6,814 L
Max Speed: 67 km/h
Height empty: 24ft 11in
Dumping Height: 50ft 2in
Length: 47ft 5in
Body Width: 32ft
Cost: $5 – 6 million
कैटरपिलर 797B ट्रक में 13-फ़ुट ऊँचे कुल छह टायर होते हैं- दो आगे और चार पीछे. ज़ाहिर है कैटरपिलर अपने डंपर 797B को ऑफ़-हाईवे ट्रकों की श्रेणी में रखता है. इसकी डिलिवरी टुकड़ों में होती है, और कार्यस्थल पर जाकर ये दैत्याकार रूप ग्रहण करता है.
कनाडा के तेल उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा बालू से निकाले गए तेल का है. वहाँ अल्बर्टा प्रांत का एक बड़ा इलाक़ा बिटुमेन या टार मिश्रित बालू से भरा हुआ है, यानि हाइड्रोकार्बन का खुला भंडार. अभी तक बालू से तेल निकालने की ज़्यादा लागत और अपेक्षाकृत घटिया उत्पाद को देखते हुए इस पर ज़्यादा ज़ोर नहीं दिया जा रहा था. लेकिन कच्चे तेल की लगातार बढ़ती क़ीमत ने कनाडा सरकार को अल्बर्टा के तैलीय बालू के दोहन का अच्छा बहाना दे दिया है.
अल्बर्टा की संवेदनशील पारिस्थिकी की चिंता का त्याग करते हुए कनाडा सरकार ने यहाँ दुनिया भर की तमाम बड़ी तेल कंपनियों को लाइसेंस दे दिया है. शेल, शेवरॉन, एक्सन और टोटल जैसी कंपनियाँ 3000 वर्गकिलोमीटर के इस बलुआही इलाक़े में क़रीब 100 अरब डॉलर का निवेश कर चुकी हैं.
अल्बर्टा के बिटुमेन-बेल्ट को 'न्यू कुवैत' कहा जा रहा है. इस समय यहाँ प्रतिदिन 13 लाख बैरल तेल का उत्पादन होता है. तेल उत्पादक कंपनियाँ यहाँ अगले तीन वर्षों में 100 अरब डॉलर और लगाने वाली हैं, ताकि दैनिक उत्पादन 35 लाख बैरल तक पहुँचाया जा सके. पर्यावरण के मामलों में आमतौर पर 'गुड ब्वॉय' माना जाने वाला कनाडा बालू से तेल का उत्पादन बढ़ाते हुए दुनिया के सबसे बड़े तेल निर्यातकों में शामिल होने को कटिबद्ध दिख रहा है. भले ही 'डर्टी ऑयल' के मोह में उसे 'डर्टीमैन ऑफ़ द वेस्ट' की उपाधि क्यों न झेलनी पड़े.
जब बात एक गंदे उत्पाद की हो तो उसमें राक्षसी मशीनों की भूमिका तो निश्चय ही होगी. अल्बर्टा में सतह से कुछ मीटर नीचे से लेकर 100 मीटर नीचे से निकाले गए तैलीय बालू को पास की कम्प्रेसर फ़ैक्ट्री तक ले जाने के लिए कैटरपिलर 797बी नामक मशीनी दैत्य को लगाया गया है, जोकि दुनिया का सबसे बड़ा ट्रक है. एक 797B डंपर दिन भर में 35,000 टन बालू ढोता है. दो-मंज़िली इमारत जितने बड़े इस ट्रक की एक खेप औसत 350 टन की होती है, यानि अमूमन 200 बैरल तेल की गारंटी. आइए कैटरपिलर 797B की प्रमुख विशेषताओं को देखते हैं-
Empty weight: 623,690 kg
Horse Power: 3550
Fuel capacity: 6,814 L
Max Speed: 67 km/h
Height empty: 24ft 11in
Dumping Height: 50ft 2in
Length: 47ft 5in
Body Width: 32ft
Cost: $5 – 6 million
कैटरपिलर 797B ट्रक में 13-फ़ुट ऊँचे कुल छह टायर होते हैं- दो आगे और चार पीछे. ज़ाहिर है कैटरपिलर अपने डंपर 797B को ऑफ़-हाईवे ट्रकों की श्रेणी में रखता है. इसकी डिलिवरी टुकड़ों में होती है, और कार्यस्थल पर जाकर ये दैत्याकार रूप ग्रहण करता है.
शुक्रवार, जुलाई 11, 2008
स्वास्थ्यवर्द्धक ब्लॉगिंग
अब से सवा तीन साल पहले जब मैंने ख़ुद का एक ब्लॉग बनाया तो उस समय मेरे लिए इस उद्यम के मुख्य उद्देश्य थे- विभिन्न विषयों पर अपनी राय सामने रखना, तथा उपयोगी/रोचक जानकारियों को सरल भाषा में लोगों तक पहुँचाना. ये सपने में भी नहीं सोचा था कि ब्लॉगिंग के मेरे शौक़ का स्वास्थ्य से भी कोई सीधा संबंध है. इसलिए प्रतिष्ठित विज्ञान पत्रिका 'साइंटिफ़िक अमेरिकन' में पिछले दिनों जब पढ़ा कि ब्लॉगिंग स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है, तो सहज विश्वास नहीं हुआ.
पत्रिका के न्यूरोबॉयोलॉजी खंड में The Healthy Type शीर्षक से छपे लेख की पहली ही पंक्ति कहती है- ब्लॉगिंग के चल निकलने का कारण शायद स्वचिकित्सा है. इसके अनुसार वैज्ञानिकों और लेखकों को विचारों-भावों की अभिव्यक्ति के उपचारी प्रभावों की जानकारी तो बहुत पहले से ही रही है, लेकिन अब जाकर पता चला है कि ये प्रक्रिया तनाव तो घटाती ही है, इसके फ़िज़ियॉल्जिकल फ़ायदे भी हैं. अनुसंधानों से पता चला है कि अपनी भावनाओं को ब्लॉगिंग जैसे माध्यम के ज़रिए व्यक्त करने से यादाश्त सुधरती है, नींद बेहतर आती है, प्रतिरक्षण कोशिकाएँ ज़्यादा सक्रिय रहती हैं, एड्स के मरीज़ों में HIV वायरस की मात्रा कम होती है और यहाँ तक कि ऑपरेशन के बाद घाव भरने की प्रक्रिया में भी तेज़ी आती है.
'साइंटिफ़िक अमेरिकन' का लेख मेडिकल जर्नल 'Oncologist' में छपे एक शोध पर आधारित है. ये शोध कैंसर के रोगियों पर किया गया था. इसमें पाया गया कि उपचार से पहले लेखन के ज़रिए ख़ुद को अभिव्यक्त करते रहे कैंसर रोगी, उपचार के बाद उन रोगियों से मानसिक और शारीरिक दोनों ही तरह से बेहतर स्थिति में थे जो कि ऐसी रचना प्रक्रिया से दूर थे.
अब ब्लॉगों की संख्या में लगातार होती वृद्धि को देखते हुए वैज्ञानिकों ने लेखन के ज़रिए विचारों की अभिव्यक्ति के स्वास्थ्यकारी प्रभावों को तंत्रिका विज्ञान के ज़रिए समझने की कोशिश शुरू की है. हार्वर्ड विश्वविद्यालय और मैसच्यूसेट जेनरल हॉस्पिटल की न्यूरोसाइंटिस्ट एलिस फ़्लैहर्टि का मानना है कि ब्लॉगिंग के स्वास्थ्यकारी असर के अध्ययन की शुरुआत पीड़ा संबंधी प्लेसीबो सिद्धांत से की जा सकती है. प्लेसीबो यानि मरीज़ को दी गई झूठी दवा जिसमें असल दवाई नाम मात्र की भी नहीं होती. प्लेसीबो सिर्फ़ मरीज़ पर सकारात्मक मानसिक असर के लिए दी जाती है, क्योंकि उसे लगता है कि उसका इलाज चल रहा है.
फ़्लैहर्टि का कहना है एक सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य दर्द से जुड़े तरह-तरह के ऐसे व्यवहारों से संबद्ध है, जो कि संतुष्टि प्राप्ति में प्लेसीबो की भूमिका निभाते हैं. तनावपूर्ण अनुभवों के बारे में ब्लॉगिंग करना इसका एक उदाहरण माना जा सकता है.
तंत्रिकाविज्ञानी फ़्लैहर्टि ने हाइपरग्रैफ़िया(लिखने की बेलगाम चाहत) और राइटर्स ब्लॉक(कुछ नया लिखने या अधूरी रचना को पूरा करने की मानसिक दशा नहीं बना पाना) जैसी स्थितियों का अध्ययन किया है. उन्होंने कुछ बीमारियों के मॉडल पर भी इन चीज़ों को समझने की कोशिश की है. उदाहरण के लिए सनकी लोगों की बात करें तो उनके बकबक करने के पीछे मस्तिष्क के बीचोंबीच स्थित तंत्रिका प्रणाली Limbic System की किसी तरह की अतिसक्रियता का कारण हो सकता है. दरअसल मस्तिष्क का यह हिस्सा हर तरह की ललक के लिए ज़िम्मेवार होता है. अब चाहे वो खाने की ललक हो, सेक्स की या फिर समस्याओं के समाधान की. फ़्लैहर्टि का कहना है कि ब्लॉगिंग में भी मस्तिष्क के लिम्बिक सिस्टम की कोई भूमिका हो सकती है. उनका कहना है कि ब्लॉगिंग मस्तिष्क में डोपामीन स्राव बढ़ाने का कारण भी हो सकता है, जैसा कि संगीत सुनने, दौड़ने या कलाकृतियों को निहारने के दौरान होता है.
लेकिन उपचारी लेखन के पीछे के तंत्रिका-तंत्र संबंधी राज़ को खोलने का दावा करना अभी जल्दबाज़ी होगी. दरअसल लेखन कार्य से पहले और उसके बाद मस्तिष्क की अलग-अलग अवस्थाओं का चित्रण ही संभव नहीं हो पाया है. ऐसा इसलिए क्योंकि मस्तिष्क के जिन हिस्सों की इसमें भूमिका होती है, वो सिर में बहुत भीतर हैं. हाँ, एमआरआई चित्रण के ज़रिए इतना ज़रूर मालूम पड़ा है कि लेखन से पहले, लेखन करते समय और उसके बाद, दिमाग़ की छवियाँ अलग-अलग होती हैं. लेकिन इन अलग-अलग छवियों को बार-बार हूबहू दोहराते हुए देखा जाना मुश्किल है. और, जब तक ऐसे दोहरावों को रिकॉर्ड नहीं किया जाता, इस मामले में सटीक अध्ययन संभव नहीं हो सकेगा.
ऐसे में वैज्ञानिकों के पास ठोस परिणाम पाने के लिए दो उपाय रह जाते हैं, जिन पर काम करने पर विचार किया जा रहा है. पहला उपाय है लेखन के ज़रिए भावनाओं की अभिव्यक्ति को लेकर समुदाय केंद्रित व्यापक अध्ययन. दूसरा उपाय है ऐसे लेखन और जैविक परिवर्तनों(जैसे नींद) के बीच संबंधों की पहचान.
ब्लॉगिंग के फ़ायदों के तंत्रिका-तंत्र संबंधी आधार की स्पष्ट पहचान भले ही अभी नहीं हो पाई हो, लेकिन कैंसर जैसी बीमारियों से जूझ रहे रोगियों पर इसके सकारात्मक असर पर लोगों का भरोसा लगातार बढ़ रहा है. शायद इसी लिए Oncologist में छपे शोध से जुड़ी अग्रणी वैज्ञानिक नैन्सी मॉर्गन ने कैंसर रोगियों के उपचार के बाद की देखभाल के कार्यक्रमों में ब्लॉगिंग को भी शामिल करने का फ़ैसला किया है.
पत्रिका के न्यूरोबॉयोलॉजी खंड में The Healthy Type शीर्षक से छपे लेख की पहली ही पंक्ति कहती है- ब्लॉगिंग के चल निकलने का कारण शायद स्वचिकित्सा है. इसके अनुसार वैज्ञानिकों और लेखकों को विचारों-भावों की अभिव्यक्ति के उपचारी प्रभावों की जानकारी तो बहुत पहले से ही रही है, लेकिन अब जाकर पता चला है कि ये प्रक्रिया तनाव तो घटाती ही है, इसके फ़िज़ियॉल्जिकल फ़ायदे भी हैं. अनुसंधानों से पता चला है कि अपनी भावनाओं को ब्लॉगिंग जैसे माध्यम के ज़रिए व्यक्त करने से यादाश्त सुधरती है, नींद बेहतर आती है, प्रतिरक्षण कोशिकाएँ ज़्यादा सक्रिय रहती हैं, एड्स के मरीज़ों में HIV वायरस की मात्रा कम होती है और यहाँ तक कि ऑपरेशन के बाद घाव भरने की प्रक्रिया में भी तेज़ी आती है.
'साइंटिफ़िक अमेरिकन' का लेख मेडिकल जर्नल 'Oncologist' में छपे एक शोध पर आधारित है. ये शोध कैंसर के रोगियों पर किया गया था. इसमें पाया गया कि उपचार से पहले लेखन के ज़रिए ख़ुद को अभिव्यक्त करते रहे कैंसर रोगी, उपचार के बाद उन रोगियों से मानसिक और शारीरिक दोनों ही तरह से बेहतर स्थिति में थे जो कि ऐसी रचना प्रक्रिया से दूर थे.
अब ब्लॉगों की संख्या में लगातार होती वृद्धि को देखते हुए वैज्ञानिकों ने लेखन के ज़रिए विचारों की अभिव्यक्ति के स्वास्थ्यकारी प्रभावों को तंत्रिका विज्ञान के ज़रिए समझने की कोशिश शुरू की है. हार्वर्ड विश्वविद्यालय और मैसच्यूसेट जेनरल हॉस्पिटल की न्यूरोसाइंटिस्ट एलिस फ़्लैहर्टि का मानना है कि ब्लॉगिंग के स्वास्थ्यकारी असर के अध्ययन की शुरुआत पीड़ा संबंधी प्लेसीबो सिद्धांत से की जा सकती है. प्लेसीबो यानि मरीज़ को दी गई झूठी दवा जिसमें असल दवाई नाम मात्र की भी नहीं होती. प्लेसीबो सिर्फ़ मरीज़ पर सकारात्मक मानसिक असर के लिए दी जाती है, क्योंकि उसे लगता है कि उसका इलाज चल रहा है.
फ़्लैहर्टि का कहना है एक सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य दर्द से जुड़े तरह-तरह के ऐसे व्यवहारों से संबद्ध है, जो कि संतुष्टि प्राप्ति में प्लेसीबो की भूमिका निभाते हैं. तनावपूर्ण अनुभवों के बारे में ब्लॉगिंग करना इसका एक उदाहरण माना जा सकता है.
तंत्रिकाविज्ञानी फ़्लैहर्टि ने हाइपरग्रैफ़िया(लिखने की बेलगाम चाहत) और राइटर्स ब्लॉक(कुछ नया लिखने या अधूरी रचना को पूरा करने की मानसिक दशा नहीं बना पाना) जैसी स्थितियों का अध्ययन किया है. उन्होंने कुछ बीमारियों के मॉडल पर भी इन चीज़ों को समझने की कोशिश की है. उदाहरण के लिए सनकी लोगों की बात करें तो उनके बकबक करने के पीछे मस्तिष्क के बीचोंबीच स्थित तंत्रिका प्रणाली Limbic System की किसी तरह की अतिसक्रियता का कारण हो सकता है. दरअसल मस्तिष्क का यह हिस्सा हर तरह की ललक के लिए ज़िम्मेवार होता है. अब चाहे वो खाने की ललक हो, सेक्स की या फिर समस्याओं के समाधान की. फ़्लैहर्टि का कहना है कि ब्लॉगिंग में भी मस्तिष्क के लिम्बिक सिस्टम की कोई भूमिका हो सकती है. उनका कहना है कि ब्लॉगिंग मस्तिष्क में डोपामीन स्राव बढ़ाने का कारण भी हो सकता है, जैसा कि संगीत सुनने, दौड़ने या कलाकृतियों को निहारने के दौरान होता है.
लेकिन उपचारी लेखन के पीछे के तंत्रिका-तंत्र संबंधी राज़ को खोलने का दावा करना अभी जल्दबाज़ी होगी. दरअसल लेखन कार्य से पहले और उसके बाद मस्तिष्क की अलग-अलग अवस्थाओं का चित्रण ही संभव नहीं हो पाया है. ऐसा इसलिए क्योंकि मस्तिष्क के जिन हिस्सों की इसमें भूमिका होती है, वो सिर में बहुत भीतर हैं. हाँ, एमआरआई चित्रण के ज़रिए इतना ज़रूर मालूम पड़ा है कि लेखन से पहले, लेखन करते समय और उसके बाद, दिमाग़ की छवियाँ अलग-अलग होती हैं. लेकिन इन अलग-अलग छवियों को बार-बार हूबहू दोहराते हुए देखा जाना मुश्किल है. और, जब तक ऐसे दोहरावों को रिकॉर्ड नहीं किया जाता, इस मामले में सटीक अध्ययन संभव नहीं हो सकेगा.
ऐसे में वैज्ञानिकों के पास ठोस परिणाम पाने के लिए दो उपाय रह जाते हैं, जिन पर काम करने पर विचार किया जा रहा है. पहला उपाय है लेखन के ज़रिए भावनाओं की अभिव्यक्ति को लेकर समुदाय केंद्रित व्यापक अध्ययन. दूसरा उपाय है ऐसे लेखन और जैविक परिवर्तनों(जैसे नींद) के बीच संबंधों की पहचान.
ब्लॉगिंग के फ़ायदों के तंत्रिका-तंत्र संबंधी आधार की स्पष्ट पहचान भले ही अभी नहीं हो पाई हो, लेकिन कैंसर जैसी बीमारियों से जूझ रहे रोगियों पर इसके सकारात्मक असर पर लोगों का भरोसा लगातार बढ़ रहा है. शायद इसी लिए Oncologist में छपे शोध से जुड़ी अग्रणी वैज्ञानिक नैन्सी मॉर्गन ने कैंसर रोगियों के उपचार के बाद की देखभाल के कार्यक्रमों में ब्लॉगिंग को भी शामिल करने का फ़ैसला किया है.
गुरुवार, जून 12, 2008
निम चिम्पस्की की करूण कथा
बन्दरों पर पंकज अवधिया जी का रोचक शोध पढ़ने के तुरंत बाद एक चिंपांज़ी पर हुए दुखद शोध के बारे में पढ़ने का मौक़ा मिला.
ये कहानी है निम चिम्पस्की नामक चिंपांज़ी की. मशहूर भाषाविद नोम चोम्स्की के नाम पर उसे ये पहचान दी गई थी.
बात है 1973 की, जब अमरीका में कोलंबिया विश्वविद्यालय में वानरभाषा पर एक अभूतपूर्व प्रयोग करने का फ़ैसला किया गया. इस प्रयोग को 'प्रोजेक्ट निम' नाम दिया गया, और प्रयोग में शामिल चिंपांज़ी को निम चिम्पस्की नाम देना तय किया गया. दरअसल मनोविज्ञानी प्रोफ़ेसर हर्बर्ट टेरेस नोम चोम्स्की के एक मशहूर सिद्धांत को ग़लत साबित करके दिखाना चाहते थे. चोम्स्की का मानना है कि हमारी भाषाएँ मानव मस्तिष्क में केंद्रित कुछ विशेष नियमों से बंधी होती हैं, इसलिए ये मनुष्य मात्र के लिए ही संभव हैं. वानर जाति में मनुष्यों जैसा भाषा ज्ञान होने की संभावना को चोम्स्की सिरे से ख़ारिज करते हैं. अधिकांश वैज्ञानिकों की राय भी यही है कि दो जीव प्रजातियों के बीच भाषाई संबंध की बात कपोल कल्पना है, न कि अनुसंधान का विषय.
लेकिन प्रोफ़ेसर टेरेस चिंपांज़ी को मूक-बधिर समुदाय की भाषा अमेरिकन साइन लैंग्वेज सिखा कर न सिर्फ़ चोम्स्की को ग़लत साबित करना चाहते थे, बल्कि इस मान्यता के ख़िलाफ़ भी सबूत जुटाना चाहते थे कि मनुष्य और जानवरों के बीच मुख्य अंतर का आधार भाषा ही है.
ओकलाहोमा के Institute for Primate Studies की एक 18 वर्षीय मादा चिंपांज़ीं के एक दुधमुंहें बच्चे को इस प्रयोग के लिए चुना गया. उसे निम चिम्पस्की नाम देकर प्रोफ़ेसर टेरेस की शिष्या रही स्टेफ़नी लाफ़ार्ज नामक महिला को सौंप दिया गया. स्टेफ़नी ओकलाहोमा से चिम्पस्की को अपने घर न्यूयॉर्क ले आई.
स्टेफ़नी, उसके पति और उसकी 12 वर्षीय बेटी के साथ चिम्पस्की पलने लगा. कुछ महीनों के भीतर वह एक शरारती बच्चा साबित होने लगा. डाँटने और पिटाई करने से भी जब चिम्पस्की की शरारत नहीं रुकती, तो सिर्फ़ एक उपाय हमेशा काम करता. चिम्पस्की को किसी कमरे में अकेला छोड़ कर सारे लोग बाहर निकल जाते. इस तरह बहिष्कार किए जाने पर उसे होश आ जाता कि शायद वह कुछ ग़लत कर रहा होगा, और वह शरारत करना बंद कर देता. जल्दी ही उसने साइन लैंग्वेज में 'सॉरी' कहना सीख लिया.
वैसे स्टेफ़नी ने जब चिम्पस्की को विधिवत प्रशिक्षण देना शुरू किया तो उसे साइन लैंग्वेज में पहला शब्द सिखाया- पीना. इस शब्द को सिखाने में मात्र दो सप्ताह लगे. दो महीने के भीतर चिम्पस्की के शब्दकोश में 'लाओ', 'ऊपर', 'मिठाई' और 'ज़्यादा' जैसे कई शब्द जुड़ गए.
इस तरह 'प्रोजेक्ट निम' चल निकला. मीडिया में चिम्पस्की की चर्चा होने लगी. न्यूयॉर्क पत्रिका के कवर पर तस्वीर छपने के बाद तो उसे सब जानने लगे. 'टॉकिंग चिम्प' चिम्पस्की को टीवी शो में आमंत्रित किया जाने लगा, जहाँ वह सेट पर उछलकूद करने के साथ-साथ साइन लैंग्वेज के ज़रिए प्रस्तुतकर्ता से पानी की माँग कर सबको हतप्रभ कर देता.
अपने प्रयोग में हो रही प्रगति से प्रोफ़ेसर टेरेस इतने उत्साहित हुए कि उन्होंने प्रशिक्षण का स्तर और सघन करने का फ़ैसला किया. इसके लिए चिम्पस्की को स्टेफ़नी के घर से निकाल कर कोलंबिया विश्वविद्यालय के विज्ञान विभाग के एक विशेष कक्ष में रखा गया. उसके लिए एक कठोर शिक्षक कैरोल स्टीवार्ट को नियुक्त किया गया. पहले ही अवसर में स्टीवार्ट ने चिम्पस्की के मस्ती के दिन ख़त्म कर दिए. उसे छोटी सी बेंच पर बिठा कर रखा जाता. चिम्पस्की से उम्मीद की जाने लगी कि वो अपना कोट हैंगर पर टांगे. खों-खों करने, काटने या मस्ती के मूड में आने पर सज़ा के तौर पर उसे चार फ़ुट के खिड़कीरहित बक्से में डाल दिया जाता.
ये सब बातें जब चिम्पस्की की पहली शिक्षिका स्टेफ़नी को पता चलीं तो उसने अपना विरोध जताया. उसने कहा कि चिम्पस्की अपने को मनुष्यों के साथ जोड़ कर देखता है, इसलिए उसके साथ जानवर जैसा व्यवहार करना कतई ठीक नहीं है. दरअसल एक बार चिम्पस्की को मनुष्यों और चिंपाज़िंयों की कुछ तस्वीरें देख कर उसे दो समूहों में बाँटने को कहा गया था. उनमें से एक तस्वीर ख़ुद उसकी भी थी. चिम्पस्की ने इस काम को कर दिखाया, लेकिन अपनी तस्वीर मनुष्यों के बीच रखी.
जब स्टीवार्ट के कड़क प्रशिक्षण का ज़्यादा उत्साहजनक परिणाम नहीं निकला, तो उसे परियोजना से बाहर कर दिया गया. अब चिम्पस्की को एक 21 कमरों वाली बड़ी हवेली में स्थानांतरित कर दिया गया. हडसन नदी के किनारे बनी इस हवेली में चिम्पस्की की ज़िंदगी थोड़ी आसान हो गई. नए प्रशिक्षक भी उसके साथ बढ़िया से पेश आते थे. लेकिन माँ(पहली प्रशिक्षक स्टेफ़नी) की कमी उसे यहाँ भी महसूस होती. इस कारण वह चिड़चिड़ा भी हो गया. इसके बाद भी उसने 100 शब्द सीख लिए, जिनके ज़रिए वह हज़ारों तरह के विचार व्यक्त कर लेता था. लेकिन साथ ही वह आसपास मौजूद लोगों को कभी-कभी काट भी खाता. चिम्पस्की ने हद तब पार कर ली जब उसने अपने एक प्रशिक्षक के चेहरे को बुरी तरह नोंच डाला. यही वो वक़्त था जब प्रोफ़ेसर टेरेस ने चिम्पस्की को वापस चिंपांज़ियों के बीच ओकलाहोमा भेजने का फ़ैसला किया. उनका कहना था कि अध्ययन के लिए ज़रूरी आंकड़े वैसे भी जुटाए जा चुके हैं.
वर्षों तक चिम्पस्की लोगों के बीच रहा था. उसकी किसी अन्य चिंपांज़ी से मुलाक़ात तक नहीं हो पाई थी. इसलिए जब उसे चिंपाज़ियों के बाड़े में भेज दिया गया, तो वहाँ वह लोगों से संवाद करने के लिए तरसता. न सिर्फ़ उसकी ज़रूरत को नज़रअंदाज़ किया गया, बल्कि उल्टे उसे चिंपांज़ियों के साथ संवाद करने की ट्रेनिंग दी जाने लगी. इसी दौरान इस ओकलाहामा स्थित इंस्टीट्यूट पर वित्तीय संकट आ गया. इसके निदेशक का स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहता था. ऐसे में उन्होंने चोरी-चुपके चिम्पस्की समेत 20 चिंपांज़ियों को चिकित्सा अनुसंधान प्रयोगशाला Laboratory of Experimental Medicine and Surgery in Primates को बेच दिया. न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय की इस प्रयोगशाला में चिम्पस्की पर हेपटाइटिस से जुड़ा एक अध्ययन किया जाना था. यहाँ चिम्पस्की को बुरी परिस्थितियों में रखा जा रहा था. बाक़ी चिम्पांज़ियों के साथ ही उसे पिंजड़े में बंद रखा जाता. प्रयोगशाला के एक सहायक ने ग़ौर किया कि वहाँ न सिर्फ़ चिम्पस्की बल्कि उसके प्रभाव में अन्य चिंपांज़ी में साइन लैंग्वेज में पानी, सिगरेट आदि की माँग कर रहे होते थे. शायद ज़रूरत के तौर पर नहीं, बल्कि हताशा में.
ये ख़बर बाहर आते ही राष्ट्रीय स्तर पर विरोध शुरू हो गया. अख़बारों और टीवी चैनलों ने एक चिंपांज़ी के मानवीकरण की कोशिश करने और बाद में उसे चिकित्सीय प्रयोग के लिए त्याग देने की नैतिकता पर बहस शुरू कर दी. इस बीच प्रोफ़ेसर टेरेस अपने अध्ययन की रिपोर्ट जारी कर चुके थे, जिसमें उन्होंने अपने शुरुआती विचार से बिल्कुल उल्टा जाते हुए कहा कि चिंपांज़ी मनुष्यों की भाषा नहीं समझ सकते. अपने 'प्रोजेक्ट निम' को नाकाम बताते हुए उन्होंने कहा कि चिम्पस्की जैसे चिंपांज़ी सिर्फ़ नकल भर कर पाते हैं, संवाद करने का नाटक कर वैज्ञानिकों को मूर्ख बनाते हैं. प्रोफ़ेसर टेरेस के इस तरह पलटी मारने से पूरा अमरीका हतप्रभ रह गया.
लेकिन प्रोफ़ेसर टेरेस ने भी न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय की प्रयोगशाला में चिम्पस्की को जानवरों के जैसा रखे जाने पर हो रहे विरोध में बढ़-चढ़ कर भाग लिया. इस दौरान एक वकील ने चिम्पस्की के समर्थन में अदालत का दरवाज़ा खटखटाने की घोषणा की. चौतरफ़ा दबाव की रणनीति काम आई और महीने भर के भीतर न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय ने चिम्पस्की को छोड़ने का फ़ैसला किया. संयोग से उस पर किसी तरह के प्रयोग अभी शुरू नहीं किए गए थे.
अंतत: पशु अधिकारवादी लेखक क्लीवलैंड एमोरि ने चिम्पस्की को ख़रीद कर टेक्सस स्थित अपने पशु अभ्यारण्य में डाल दिया. लेकिन वहाँ भी उसे ज़्यादातर पिंजरे में ही रखा जाता. एमोरि ने अपने अभ्यारण्य में साइन लैंग्वेज जानने वाले किसी कर्मचारी की व्यवस्था नहीं की थी. इसलिए चिम्पस्की वहाँ भी लोगों से संवाद करने के लिए तरसता ही रहा. उसके अकेलेपन पर तरस खाकर एमोरि ने एक मादा चिंपाज़ी सैली को उसके पिंजरे में डाल दिया. इसका ज़्यादा असर नहीं हुआ, लेकिन एमोरि के लिए चिम्पस्की को सैली के साथ खेलते देखना सुखद था.
जब कभी चिम्पस्की को पिंजरे से निकलने का मौक़ा हाथ लगता, वह अभ्यारण्य के मैनेजर के आवास में जा धमकता. वहाँ फ़्रिज से खाने-पीने का सामान निकालता. टकटकी लगा कर टीवी देखता. ज़ाहिर है उसे मनुष्यों का साथ अभी भी पसंद था. चिम्पस्की को रोज़ मन बहलाने के लिए सचित्र किताबें-पत्रिकाएँ दी जाती थीं. अधिकतर किताबों-पत्रिकाओं को वह खेल-खेल में फाड़ डालता था. अपवाद थी सिर्फ़ दो किताबें- एक थी साइन लैंग्वेज सिखाने वाली किताब, और दूसरी 1980 में प्रकाशित उसके फ़ोटो-एलबम जैसी किताब The Story of Nim:The Chimp Who Learned Language.
एक दिन चिम्पस्की की पहली प्रशिक्षक स्टेफ़नी वहाँ उससे मिलने पहुँची. वह एमोरि की हिदायतों के बावजूद पिंजरे के भीतर जा पहुँची. चिम्पस्की ने कुछ देर अपनी माँ समान स्टेफ़नी को घूर कर देखा, फिर उसे ज़मीन पर गिरा दिया और घसीट कर पिंजरे के एक कोने में लगा दिया. वह ख़ुद दरवाज़ा छेंक कर खड़ा हो गया मानो वह स्टेफ़नी को भागने नहीं देगा. स्टेफ़नी को चोट ज़रूर लगी लेकिन उसका कहना था कि चूंकि उसने आरंभ में अपनाने के बाद चिम्पस्की का परित्याग किया है, इसलिए वह उसके ग़ुस्से को समझ सकती है.
सैली का 1997 में बीमार होने के बाद निधन हो जाने के बाद चिम्पस्की एक बार फिर अकेला पड़ गया. अंतत: उसकी भी 10 मार्च 2000 को दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गई. वह अभी 20 साल और जी सकता था. लेकिन शायद मानव की तरह पलने और जानवर जैसा बर्ताव सहने ने उसकी ज़िंदगी छोटी कर दी!
(निम चिम्पस्की की करुण कथा पिछले दिनों Nim Chimpsky: The Chimp Who Would Be Human के रूप में प्रकाशित हुई है.)
ये कहानी है निम चिम्पस्की नामक चिंपांज़ी की. मशहूर भाषाविद नोम चोम्स्की के नाम पर उसे ये पहचान दी गई थी.
बात है 1973 की, जब अमरीका में कोलंबिया विश्वविद्यालय में वानरभाषा पर एक अभूतपूर्व प्रयोग करने का फ़ैसला किया गया. इस प्रयोग को 'प्रोजेक्ट निम' नाम दिया गया, और प्रयोग में शामिल चिंपांज़ी को निम चिम्पस्की नाम देना तय किया गया. दरअसल मनोविज्ञानी प्रोफ़ेसर हर्बर्ट टेरेस नोम चोम्स्की के एक मशहूर सिद्धांत को ग़लत साबित करके दिखाना चाहते थे. चोम्स्की का मानना है कि हमारी भाषाएँ मानव मस्तिष्क में केंद्रित कुछ विशेष नियमों से बंधी होती हैं, इसलिए ये मनुष्य मात्र के लिए ही संभव हैं. वानर जाति में मनुष्यों जैसा भाषा ज्ञान होने की संभावना को चोम्स्की सिरे से ख़ारिज करते हैं. अधिकांश वैज्ञानिकों की राय भी यही है कि दो जीव प्रजातियों के बीच भाषाई संबंध की बात कपोल कल्पना है, न कि अनुसंधान का विषय.
लेकिन प्रोफ़ेसर टेरेस चिंपांज़ी को मूक-बधिर समुदाय की भाषा अमेरिकन साइन लैंग्वेज सिखा कर न सिर्फ़ चोम्स्की को ग़लत साबित करना चाहते थे, बल्कि इस मान्यता के ख़िलाफ़ भी सबूत जुटाना चाहते थे कि मनुष्य और जानवरों के बीच मुख्य अंतर का आधार भाषा ही है.
ओकलाहोमा के Institute for Primate Studies की एक 18 वर्षीय मादा चिंपांज़ीं के एक दुधमुंहें बच्चे को इस प्रयोग के लिए चुना गया. उसे निम चिम्पस्की नाम देकर प्रोफ़ेसर टेरेस की शिष्या रही स्टेफ़नी लाफ़ार्ज नामक महिला को सौंप दिया गया. स्टेफ़नी ओकलाहोमा से चिम्पस्की को अपने घर न्यूयॉर्क ले आई.
स्टेफ़नी, उसके पति और उसकी 12 वर्षीय बेटी के साथ चिम्पस्की पलने लगा. कुछ महीनों के भीतर वह एक शरारती बच्चा साबित होने लगा. डाँटने और पिटाई करने से भी जब चिम्पस्की की शरारत नहीं रुकती, तो सिर्फ़ एक उपाय हमेशा काम करता. चिम्पस्की को किसी कमरे में अकेला छोड़ कर सारे लोग बाहर निकल जाते. इस तरह बहिष्कार किए जाने पर उसे होश आ जाता कि शायद वह कुछ ग़लत कर रहा होगा, और वह शरारत करना बंद कर देता. जल्दी ही उसने साइन लैंग्वेज में 'सॉरी' कहना सीख लिया.
वैसे स्टेफ़नी ने जब चिम्पस्की को विधिवत प्रशिक्षण देना शुरू किया तो उसे साइन लैंग्वेज में पहला शब्द सिखाया- पीना. इस शब्द को सिखाने में मात्र दो सप्ताह लगे. दो महीने के भीतर चिम्पस्की के शब्दकोश में 'लाओ', 'ऊपर', 'मिठाई' और 'ज़्यादा' जैसे कई शब्द जुड़ गए.
इस तरह 'प्रोजेक्ट निम' चल निकला. मीडिया में चिम्पस्की की चर्चा होने लगी. न्यूयॉर्क पत्रिका के कवर पर तस्वीर छपने के बाद तो उसे सब जानने लगे. 'टॉकिंग चिम्प' चिम्पस्की को टीवी शो में आमंत्रित किया जाने लगा, जहाँ वह सेट पर उछलकूद करने के साथ-साथ साइन लैंग्वेज के ज़रिए प्रस्तुतकर्ता से पानी की माँग कर सबको हतप्रभ कर देता.
अपने प्रयोग में हो रही प्रगति से प्रोफ़ेसर टेरेस इतने उत्साहित हुए कि उन्होंने प्रशिक्षण का स्तर और सघन करने का फ़ैसला किया. इसके लिए चिम्पस्की को स्टेफ़नी के घर से निकाल कर कोलंबिया विश्वविद्यालय के विज्ञान विभाग के एक विशेष कक्ष में रखा गया. उसके लिए एक कठोर शिक्षक कैरोल स्टीवार्ट को नियुक्त किया गया. पहले ही अवसर में स्टीवार्ट ने चिम्पस्की के मस्ती के दिन ख़त्म कर दिए. उसे छोटी सी बेंच पर बिठा कर रखा जाता. चिम्पस्की से उम्मीद की जाने लगी कि वो अपना कोट हैंगर पर टांगे. खों-खों करने, काटने या मस्ती के मूड में आने पर सज़ा के तौर पर उसे चार फ़ुट के खिड़कीरहित बक्से में डाल दिया जाता.
ये सब बातें जब चिम्पस्की की पहली शिक्षिका स्टेफ़नी को पता चलीं तो उसने अपना विरोध जताया. उसने कहा कि चिम्पस्की अपने को मनुष्यों के साथ जोड़ कर देखता है, इसलिए उसके साथ जानवर जैसा व्यवहार करना कतई ठीक नहीं है. दरअसल एक बार चिम्पस्की को मनुष्यों और चिंपाज़िंयों की कुछ तस्वीरें देख कर उसे दो समूहों में बाँटने को कहा गया था. उनमें से एक तस्वीर ख़ुद उसकी भी थी. चिम्पस्की ने इस काम को कर दिखाया, लेकिन अपनी तस्वीर मनुष्यों के बीच रखी.
जब स्टीवार्ट के कड़क प्रशिक्षण का ज़्यादा उत्साहजनक परिणाम नहीं निकला, तो उसे परियोजना से बाहर कर दिया गया. अब चिम्पस्की को एक 21 कमरों वाली बड़ी हवेली में स्थानांतरित कर दिया गया. हडसन नदी के किनारे बनी इस हवेली में चिम्पस्की की ज़िंदगी थोड़ी आसान हो गई. नए प्रशिक्षक भी उसके साथ बढ़िया से पेश आते थे. लेकिन माँ(पहली प्रशिक्षक स्टेफ़नी) की कमी उसे यहाँ भी महसूस होती. इस कारण वह चिड़चिड़ा भी हो गया. इसके बाद भी उसने 100 शब्द सीख लिए, जिनके ज़रिए वह हज़ारों तरह के विचार व्यक्त कर लेता था. लेकिन साथ ही वह आसपास मौजूद लोगों को कभी-कभी काट भी खाता. चिम्पस्की ने हद तब पार कर ली जब उसने अपने एक प्रशिक्षक के चेहरे को बुरी तरह नोंच डाला. यही वो वक़्त था जब प्रोफ़ेसर टेरेस ने चिम्पस्की को वापस चिंपांज़ियों के बीच ओकलाहोमा भेजने का फ़ैसला किया. उनका कहना था कि अध्ययन के लिए ज़रूरी आंकड़े वैसे भी जुटाए जा चुके हैं.
वर्षों तक चिम्पस्की लोगों के बीच रहा था. उसकी किसी अन्य चिंपांज़ी से मुलाक़ात तक नहीं हो पाई थी. इसलिए जब उसे चिंपाज़ियों के बाड़े में भेज दिया गया, तो वहाँ वह लोगों से संवाद करने के लिए तरसता. न सिर्फ़ उसकी ज़रूरत को नज़रअंदाज़ किया गया, बल्कि उल्टे उसे चिंपांज़ियों के साथ संवाद करने की ट्रेनिंग दी जाने लगी. इसी दौरान इस ओकलाहामा स्थित इंस्टीट्यूट पर वित्तीय संकट आ गया. इसके निदेशक का स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहता था. ऐसे में उन्होंने चोरी-चुपके चिम्पस्की समेत 20 चिंपांज़ियों को चिकित्सा अनुसंधान प्रयोगशाला Laboratory of Experimental Medicine and Surgery in Primates को बेच दिया. न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय की इस प्रयोगशाला में चिम्पस्की पर हेपटाइटिस से जुड़ा एक अध्ययन किया जाना था. यहाँ चिम्पस्की को बुरी परिस्थितियों में रखा जा रहा था. बाक़ी चिम्पांज़ियों के साथ ही उसे पिंजड़े में बंद रखा जाता. प्रयोगशाला के एक सहायक ने ग़ौर किया कि वहाँ न सिर्फ़ चिम्पस्की बल्कि उसके प्रभाव में अन्य चिंपांज़ी में साइन लैंग्वेज में पानी, सिगरेट आदि की माँग कर रहे होते थे. शायद ज़रूरत के तौर पर नहीं, बल्कि हताशा में.
ये ख़बर बाहर आते ही राष्ट्रीय स्तर पर विरोध शुरू हो गया. अख़बारों और टीवी चैनलों ने एक चिंपांज़ी के मानवीकरण की कोशिश करने और बाद में उसे चिकित्सीय प्रयोग के लिए त्याग देने की नैतिकता पर बहस शुरू कर दी. इस बीच प्रोफ़ेसर टेरेस अपने अध्ययन की रिपोर्ट जारी कर चुके थे, जिसमें उन्होंने अपने शुरुआती विचार से बिल्कुल उल्टा जाते हुए कहा कि चिंपांज़ी मनुष्यों की भाषा नहीं समझ सकते. अपने 'प्रोजेक्ट निम' को नाकाम बताते हुए उन्होंने कहा कि चिम्पस्की जैसे चिंपांज़ी सिर्फ़ नकल भर कर पाते हैं, संवाद करने का नाटक कर वैज्ञानिकों को मूर्ख बनाते हैं. प्रोफ़ेसर टेरेस के इस तरह पलटी मारने से पूरा अमरीका हतप्रभ रह गया.
लेकिन प्रोफ़ेसर टेरेस ने भी न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय की प्रयोगशाला में चिम्पस्की को जानवरों के जैसा रखे जाने पर हो रहे विरोध में बढ़-चढ़ कर भाग लिया. इस दौरान एक वकील ने चिम्पस्की के समर्थन में अदालत का दरवाज़ा खटखटाने की घोषणा की. चौतरफ़ा दबाव की रणनीति काम आई और महीने भर के भीतर न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय ने चिम्पस्की को छोड़ने का फ़ैसला किया. संयोग से उस पर किसी तरह के प्रयोग अभी शुरू नहीं किए गए थे.
अंतत: पशु अधिकारवादी लेखक क्लीवलैंड एमोरि ने चिम्पस्की को ख़रीद कर टेक्सस स्थित अपने पशु अभ्यारण्य में डाल दिया. लेकिन वहाँ भी उसे ज़्यादातर पिंजरे में ही रखा जाता. एमोरि ने अपने अभ्यारण्य में साइन लैंग्वेज जानने वाले किसी कर्मचारी की व्यवस्था नहीं की थी. इसलिए चिम्पस्की वहाँ भी लोगों से संवाद करने के लिए तरसता ही रहा. उसके अकेलेपन पर तरस खाकर एमोरि ने एक मादा चिंपाज़ी सैली को उसके पिंजरे में डाल दिया. इसका ज़्यादा असर नहीं हुआ, लेकिन एमोरि के लिए चिम्पस्की को सैली के साथ खेलते देखना सुखद था.
जब कभी चिम्पस्की को पिंजरे से निकलने का मौक़ा हाथ लगता, वह अभ्यारण्य के मैनेजर के आवास में जा धमकता. वहाँ फ़्रिज से खाने-पीने का सामान निकालता. टकटकी लगा कर टीवी देखता. ज़ाहिर है उसे मनुष्यों का साथ अभी भी पसंद था. चिम्पस्की को रोज़ मन बहलाने के लिए सचित्र किताबें-पत्रिकाएँ दी जाती थीं. अधिकतर किताबों-पत्रिकाओं को वह खेल-खेल में फाड़ डालता था. अपवाद थी सिर्फ़ दो किताबें- एक थी साइन लैंग्वेज सिखाने वाली किताब, और दूसरी 1980 में प्रकाशित उसके फ़ोटो-एलबम जैसी किताब The Story of Nim:The Chimp Who Learned Language.
एक दिन चिम्पस्की की पहली प्रशिक्षक स्टेफ़नी वहाँ उससे मिलने पहुँची. वह एमोरि की हिदायतों के बावजूद पिंजरे के भीतर जा पहुँची. चिम्पस्की ने कुछ देर अपनी माँ समान स्टेफ़नी को घूर कर देखा, फिर उसे ज़मीन पर गिरा दिया और घसीट कर पिंजरे के एक कोने में लगा दिया. वह ख़ुद दरवाज़ा छेंक कर खड़ा हो गया मानो वह स्टेफ़नी को भागने नहीं देगा. स्टेफ़नी को चोट ज़रूर लगी लेकिन उसका कहना था कि चूंकि उसने आरंभ में अपनाने के बाद चिम्पस्की का परित्याग किया है, इसलिए वह उसके ग़ुस्से को समझ सकती है.
सैली का 1997 में बीमार होने के बाद निधन हो जाने के बाद चिम्पस्की एक बार फिर अकेला पड़ गया. अंतत: उसकी भी 10 मार्च 2000 को दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गई. वह अभी 20 साल और जी सकता था. लेकिन शायद मानव की तरह पलने और जानवर जैसा बर्ताव सहने ने उसकी ज़िंदगी छोटी कर दी!
(निम चिम्पस्की की करुण कथा पिछले दिनों Nim Chimpsky: The Chimp Who Would Be Human के रूप में प्रकाशित हुई है.)
सोमवार, जून 09, 2008
राज़ खोलो, पहचान गुप्त रहेगी
अमरीका का GPS-निर्देशित स्मार्ट बम किस हद तक सटीक निशाना साधता है? इसके निशाने से कितना दूर तक छिटकने के आसार होते हैं? ये सारी सूचनाएँ इंटरनेट पर उपलब्ध हैं. पेंटागन के खुलेपन के कारण नहीं, बल्कि विकिलीक्स के सौजन्य से. वर्ष 2002 के इस दस्तावेज़ को सार्वजनिक किए जाने के बाद से यों तो अमरीका ने स्मार्ट बम या Joint Direct Attack Munition के डिज़ायन में कुछ बदलाव किए हैं, लेकिन विकिलीक्स के सौजन्य से ही हमें पता चल पाया कि दो दशकों में अमरीकी आयुध भंडार में आए इस सबसे महत्वपूर्ण बम के 2.8 मीटर तक निशाना चूकने की बात ग़लत थी, क्योंकि ये परीक्षण स्थिति का आँकड़ा था. वास्तविक युद्ध में ये 7.8 मीटर तक छिटक सकता है.
मुझे विकिलीक्स के बारे में पहली बार साल भर पहले ख़बरों की दुनिया में विचरण करते वक़्त पता चला था, लेकिन इसके काम करने के तरीके के बारे में आसान शब्दों में ढंग की जानकारी अब जा कर मिली है, विज्ञान पत्रिका न्यू साइन्टिस्ट के ज़रिए.
ख़ुशी की बात है कि साल भर से कुछ ज़्यादा समय मात्र काम करके विकिलीक्स ने 2008 Economist Index on Censorship Freedom of Expression award हासिल कर दिखाया है. हाल के दिनों में इसने हिरोशिमा पर गिराए गए परमाणु बम का डिज़ायन सार्वजनिक किया है, साथ ही ये भी बताया कि ब्रिटेन ने कैसे परमाणु हथियार क्षमता का जुगाड़ किया. इसने तिब्बत में पिछले दिनों हुए प्रदर्शन को दबाने के लिए किए चीन के शक्ति-प्रदर्शन के सैंकड़ो दिल दहला देने वाले चित्र और वीडियो क्लिप्स भी उपलब्ध कराए हैं.
बमुश्किल डेढ़ साल पुरानी इस वेबसाइट को चलाने वालों ने अमरीका सरकार, चीन सरकार, पूर्व कीनियाई राष्ट्रपति, सबसे बड़े निजी स्विस बैंक, रूसी कंपनियों, सिंटोलोजी-कैथोलिक-मॉरमन चर्चों आदि के क़ानूनी-ग़ैरक़ानूनी हमलों का सफलतापूर्वक सामना किया है.
विकिलीक्स से जुड़ी कुछ बुनियादी बातें
-विकिलीक्स के के पहले ही पन्ने पर आमंत्रण और आश्वासन इन शब्दों में दिया गया है- Have documents the world needs to see? We protect you and get your disclosure out to the world.
-विकिलीक्स को किस तरह के गोपनीय दस्तावेज़ों की ज़रूरत है ये एक पंक्ति में स्पष्ट किया गया है- Wikileaks accepts classified, censored or otherwise restricted material of political, diplomatic or ethical significance.
-इसके ठीक बाद एक और पंक्ति में स्पष्ट किया गया है कि विकिलीक्स को किस तरह की जानकारी नहीं चाहिए- Wikileaks does not accept rumour, opinion or other kinds of first hand reporting or material that is already publicly available.
-विकिलीक्स को सार्वजनिक किए जाने योग्य गुप्त दस्तावेज़/रिकॉर्डिंग भोजपुरी और हिंदी समेत कई भारतीय भाषाओं में भी भेजे जा सकते हैं.
गोपनीयता प्याज़ की परतों के सहारे
विकिलीक्स को मिलने वाले दस्तावेज़ों की परख दुनिया भर में फैले इसके स्वयंसेवक करते हैं. ये लोग या तो जानेमाने वक़ील हैं, या फिर मान्यता प्राप्त पत्रकार. गोपनीयता मुहैया कराने के सच्चे भरोसे के कारण विकिलीक्स को हाल के महीनों में इतनी बड़ी संख्या में दस्तावेज़ प्राप्त हुए हैं, कि उनको शीघ्रता से परखने के लिए स्वयंसेवक कम पड़ गए हैं.
दस्तावेज़ लीक करने वालों को गोपनीयता मुहैया कराने का बड़ा ही सरल आधार है, उनके वेब कनेक्शन के IP address को ज़ाहिर नहीं होने देना. ये काम करता है The Onion Router या टोर नामक एक नेटवर्क. टोर विकिलीक्स को भेजे गए दस्तावेज़ को हज़ारों सर्वरों के एक नेटवर्क के ज़रिए रूट करता है. दस्तावेज़ इन सर्वरों में एक से दूसरे में अनियोजित तरीके से कई बार स्थानांतरित होने के बाद अंतत: विकिलीक्स के इनबॉक्स में पहुँचता है.
दरअसल विकिलीक्स के स्वयंसेवक टोर का क्लाइंट सॉफ़्टवेयर अपने कंप्यूटर पर डाउनलोड कर उसे एक ओनियन प्रॉक्सि में बदल देते हैं. जब कोई गुप्त दस्तावेज़ी संदेश भेजता है तो टोर इसे तीन बार प्याज़ की परतों जैसा इनक्रिप्ट करता है. तीनों परतों के लिए अलग-अलग कुंज़ी देकर उन्हें अनियोजित तरीके से अचानक चुने गए टोर नेटवर्क के तीन प्रॉक्सि सर्वरों को भेज दिया जाता है. इनमें से एक सर्वर पहली परत को डिक्रिप्ट करके चुने गए दूसरे सर्वर को बढ़ा देता है. दूसरा सर्वर एक और परत को डिक्रिप्ट करता है. और अंतत: तीसरे सर्वर से पूरी तरह डिक्रिप्टेड संदेश बाहर आता है. और, आमतौर पर यही लगता है कि संदेश का स्रोत ये तीसरा सर्वर ही है, जबकि असलियत कुछ और है!
इस तरह उछलकूद मचाते हुए गंतव्य तक पहुँचे संदेश का स्रोत का पता हर देश की सुरक्षा एजेंसियों के बूते से बाहर की बात है. अमरीकी राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी के पास इसकी क्षमता ज़रूर है, लेकिन इसके लिए उसे सही समय पर सही सर्वर को लक्ष्य करना पड़ेगा. यानि सिद्धांत: संभव, लेकिन व्यावहारिक तौर पर लगभग असंभव काम! कंप्यूटर सुरक्षा विशेषज्ञ Bruce Schnier इसे एक सरल उदाहरण से समझाते हैं, "कल्पना करें लोगों से भरे एक बड़े कमरे की. कमरे में मौजूद लोगों में से अनेक एक-दूसरे को लिफ़ाफ़े सौंप रहे हैं. भला कैसे पता लगाएँगे कि कौन-सा लिफ़ाफ़ा शुरूआत में किसके हाथ में था?"
कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के एक शोध दल ने कुछ टोर प्रॉक्सि सर्वरों की पहचान कर दिखाने का दावा किया है. लेकिन उनके शोध में भी गुप्त संदेश का पता नहीं चल पाया, सिर्फ़ टोर क्लाइंट सॉफ़्टवेयर का उपयोग करने वाले की पहचान भर हो पाई है. यानि विकिलीक्स पर दस्तावेज़ लीक करने के लिए किसी को दोषी साबित करना अभी तक लगभग असंभव ही है.
विचित्र किंतु सत्य
अमरीकी ख़ुफ़िया सैनिक सूचनाओं को बड़ी मात्रा में परोसने वाला विकिलीक्स जिस टोर तकनीक पर आश्रित है, उसका विकास वाशिंग्टन डीसी स्थित अमरीकी नौसैनिक अनुसंधान प्रयोगशाला(NRL) में किया गया था. लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि अमरीकी रक्षा मंत्रालय इस नेटवर्क में किसी भी तरह घुसपैठ कर सकता है. विकिलीक्स के प्रवक्ता Julian Assange ने इस तथ्य को इन शब्दों में कहा है, "इंटरनेट की तरह ही, टोर उन लोगों के हाथ से बाहर निकल चुका है, जो कभी इसके निर्माण में शामिल रहे होंगे."
किसी एक देश में क़ानूनी पेंच में फंसाए जाने का तोड़ भी विकिलीक्स ने पहले से ही निकाल रखा है. विकिलीक्स.ऑर्ग के अनेक मिरर साइट्स हैं जिन्हें बेल्जियम, स्वीडन, ऑस्ट्रेलिया, क्रिसमस आइलैंड और कैलीफ़ोर्निया समेत कई देशों में रखा गया है. यानि किसी एक देश में विकिलीक्स वेबसाइट को बंद करने के लिए क़ानूनी कार्रवाई करेंगे, फिर भी वेबसाइट पूरी तरह बंद नहीं होगी. ये बात हाल ही में एक स्विस बैंक को समझ में आ गई जब उसने विकिलीक्स के ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई करने की पहल की. ख़ास कर स्वीडन और बेल्जियम के कड़े सेंसरशिप-विरोधी क़ानूनों का बख़ूबी लाभ उठाया है विकिलीक्स ने.
आलोचना और उसका जवाब
विकिलीक्स किसी सरकार या संस्था के प्रति जवाबदेह नहीं है, इसलिए सामरिक महत्व की गोपनीय सूचनाएँ लीक करने के इस प्लेटफ़ॉर्म को लेकर कुछ हलकों में असहजता देखी जा सकती है. इनमें से अमरीकी संस्था Federation of American Scientists(एफ़एसए) भी है जो ख़ुद अपनी Project on Government Secrecy के तहत गोपनीय दस्तावेज़ लीक करती है. एफ़एसए के एक प्रवक्ता Steven Aftergood विकिलीक्स को गोपनीय सूचनाएँ लीक करने की प्राचीन कला को एक पेशेवर रूप देने का श्रेय देते हैं, साथ ही शिकायत भी करते हैं कि विकिलीक्स क़ानून के दायरे बाहर रह कर काम करता है और इसलिए आगे चल कर यह सुरक्षा के लिए ख़तरा बन सकता है.
इस पर विकिलीक्स के प्रवक्ता का जवाब है, "जब सरकार लोगों को प्रताड़ित करना और लोगों को मौत के घाट उतारना बंद कर देगी, जब बड़ी-बड़ी कंपनियाँ क़ानूनी प्रावधानों का दुरुपयोग करना छोड़ देंगी, तब शायद ये पूछने का समय का होगा कि क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के समर्थक जवाबदेह हैं."
मुझे विकिलीक्स के बारे में पहली बार साल भर पहले ख़बरों की दुनिया में विचरण करते वक़्त पता चला था, लेकिन इसके काम करने के तरीके के बारे में आसान शब्दों में ढंग की जानकारी अब जा कर मिली है, विज्ञान पत्रिका न्यू साइन्टिस्ट के ज़रिए.
ख़ुशी की बात है कि साल भर से कुछ ज़्यादा समय मात्र काम करके विकिलीक्स ने 2008 Economist Index on Censorship Freedom of Expression award हासिल कर दिखाया है. हाल के दिनों में इसने हिरोशिमा पर गिराए गए परमाणु बम का डिज़ायन सार्वजनिक किया है, साथ ही ये भी बताया कि ब्रिटेन ने कैसे परमाणु हथियार क्षमता का जुगाड़ किया. इसने तिब्बत में पिछले दिनों हुए प्रदर्शन को दबाने के लिए किए चीन के शक्ति-प्रदर्शन के सैंकड़ो दिल दहला देने वाले चित्र और वीडियो क्लिप्स भी उपलब्ध कराए हैं.
बमुश्किल डेढ़ साल पुरानी इस वेबसाइट को चलाने वालों ने अमरीका सरकार, चीन सरकार, पूर्व कीनियाई राष्ट्रपति, सबसे बड़े निजी स्विस बैंक, रूसी कंपनियों, सिंटोलोजी-कैथोलिक-मॉरमन चर्चों आदि के क़ानूनी-ग़ैरक़ानूनी हमलों का सफलतापूर्वक सामना किया है.
विकिलीक्स से जुड़ी कुछ बुनियादी बातें
-विकिलीक्स के के पहले ही पन्ने पर आमंत्रण और आश्वासन इन शब्दों में दिया गया है- Have documents the world needs to see? We protect you and get your disclosure out to the world.
-विकिलीक्स को किस तरह के गोपनीय दस्तावेज़ों की ज़रूरत है ये एक पंक्ति में स्पष्ट किया गया है- Wikileaks accepts classified, censored or otherwise restricted material of political, diplomatic or ethical significance.
-इसके ठीक बाद एक और पंक्ति में स्पष्ट किया गया है कि विकिलीक्स को किस तरह की जानकारी नहीं चाहिए- Wikileaks does not accept rumour, opinion or other kinds of first hand reporting or material that is already publicly available.
-विकिलीक्स को सार्वजनिक किए जाने योग्य गुप्त दस्तावेज़/रिकॉर्डिंग भोजपुरी और हिंदी समेत कई भारतीय भाषाओं में भी भेजे जा सकते हैं.
गोपनीयता प्याज़ की परतों के सहारे
विकिलीक्स को मिलने वाले दस्तावेज़ों की परख दुनिया भर में फैले इसके स्वयंसेवक करते हैं. ये लोग या तो जानेमाने वक़ील हैं, या फिर मान्यता प्राप्त पत्रकार. गोपनीयता मुहैया कराने के सच्चे भरोसे के कारण विकिलीक्स को हाल के महीनों में इतनी बड़ी संख्या में दस्तावेज़ प्राप्त हुए हैं, कि उनको शीघ्रता से परखने के लिए स्वयंसेवक कम पड़ गए हैं.
दस्तावेज़ लीक करने वालों को गोपनीयता मुहैया कराने का बड़ा ही सरल आधार है, उनके वेब कनेक्शन के IP address को ज़ाहिर नहीं होने देना. ये काम करता है The Onion Router या टोर नामक एक नेटवर्क. टोर विकिलीक्स को भेजे गए दस्तावेज़ को हज़ारों सर्वरों के एक नेटवर्क के ज़रिए रूट करता है. दस्तावेज़ इन सर्वरों में एक से दूसरे में अनियोजित तरीके से कई बार स्थानांतरित होने के बाद अंतत: विकिलीक्स के इनबॉक्स में पहुँचता है.
दरअसल विकिलीक्स के स्वयंसेवक टोर का क्लाइंट सॉफ़्टवेयर अपने कंप्यूटर पर डाउनलोड कर उसे एक ओनियन प्रॉक्सि में बदल देते हैं. जब कोई गुप्त दस्तावेज़ी संदेश भेजता है तो टोर इसे तीन बार प्याज़ की परतों जैसा इनक्रिप्ट करता है. तीनों परतों के लिए अलग-अलग कुंज़ी देकर उन्हें अनियोजित तरीके से अचानक चुने गए टोर नेटवर्क के तीन प्रॉक्सि सर्वरों को भेज दिया जाता है. इनमें से एक सर्वर पहली परत को डिक्रिप्ट करके चुने गए दूसरे सर्वर को बढ़ा देता है. दूसरा सर्वर एक और परत को डिक्रिप्ट करता है. और अंतत: तीसरे सर्वर से पूरी तरह डिक्रिप्टेड संदेश बाहर आता है. और, आमतौर पर यही लगता है कि संदेश का स्रोत ये तीसरा सर्वर ही है, जबकि असलियत कुछ और है!
इस तरह उछलकूद मचाते हुए गंतव्य तक पहुँचे संदेश का स्रोत का पता हर देश की सुरक्षा एजेंसियों के बूते से बाहर की बात है. अमरीकी राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी के पास इसकी क्षमता ज़रूर है, लेकिन इसके लिए उसे सही समय पर सही सर्वर को लक्ष्य करना पड़ेगा. यानि सिद्धांत: संभव, लेकिन व्यावहारिक तौर पर लगभग असंभव काम! कंप्यूटर सुरक्षा विशेषज्ञ Bruce Schnier इसे एक सरल उदाहरण से समझाते हैं, "कल्पना करें लोगों से भरे एक बड़े कमरे की. कमरे में मौजूद लोगों में से अनेक एक-दूसरे को लिफ़ाफ़े सौंप रहे हैं. भला कैसे पता लगाएँगे कि कौन-सा लिफ़ाफ़ा शुरूआत में किसके हाथ में था?"
कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के एक शोध दल ने कुछ टोर प्रॉक्सि सर्वरों की पहचान कर दिखाने का दावा किया है. लेकिन उनके शोध में भी गुप्त संदेश का पता नहीं चल पाया, सिर्फ़ टोर क्लाइंट सॉफ़्टवेयर का उपयोग करने वाले की पहचान भर हो पाई है. यानि विकिलीक्स पर दस्तावेज़ लीक करने के लिए किसी को दोषी साबित करना अभी तक लगभग असंभव ही है.
विचित्र किंतु सत्य
अमरीकी ख़ुफ़िया सैनिक सूचनाओं को बड़ी मात्रा में परोसने वाला विकिलीक्स जिस टोर तकनीक पर आश्रित है, उसका विकास वाशिंग्टन डीसी स्थित अमरीकी नौसैनिक अनुसंधान प्रयोगशाला(NRL) में किया गया था. लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि अमरीकी रक्षा मंत्रालय इस नेटवर्क में किसी भी तरह घुसपैठ कर सकता है. विकिलीक्स के प्रवक्ता Julian Assange ने इस तथ्य को इन शब्दों में कहा है, "इंटरनेट की तरह ही, टोर उन लोगों के हाथ से बाहर निकल चुका है, जो कभी इसके निर्माण में शामिल रहे होंगे."
किसी एक देश में क़ानूनी पेंच में फंसाए जाने का तोड़ भी विकिलीक्स ने पहले से ही निकाल रखा है. विकिलीक्स.ऑर्ग के अनेक मिरर साइट्स हैं जिन्हें बेल्जियम, स्वीडन, ऑस्ट्रेलिया, क्रिसमस आइलैंड और कैलीफ़ोर्निया समेत कई देशों में रखा गया है. यानि किसी एक देश में विकिलीक्स वेबसाइट को बंद करने के लिए क़ानूनी कार्रवाई करेंगे, फिर भी वेबसाइट पूरी तरह बंद नहीं होगी. ये बात हाल ही में एक स्विस बैंक को समझ में आ गई जब उसने विकिलीक्स के ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई करने की पहल की. ख़ास कर स्वीडन और बेल्जियम के कड़े सेंसरशिप-विरोधी क़ानूनों का बख़ूबी लाभ उठाया है विकिलीक्स ने.
आलोचना और उसका जवाब
विकिलीक्स किसी सरकार या संस्था के प्रति जवाबदेह नहीं है, इसलिए सामरिक महत्व की गोपनीय सूचनाएँ लीक करने के इस प्लेटफ़ॉर्म को लेकर कुछ हलकों में असहजता देखी जा सकती है. इनमें से अमरीकी संस्था Federation of American Scientists(एफ़एसए) भी है जो ख़ुद अपनी Project on Government Secrecy के तहत गोपनीय दस्तावेज़ लीक करती है. एफ़एसए के एक प्रवक्ता Steven Aftergood विकिलीक्स को गोपनीय सूचनाएँ लीक करने की प्राचीन कला को एक पेशेवर रूप देने का श्रेय देते हैं, साथ ही शिकायत भी करते हैं कि विकिलीक्स क़ानून के दायरे बाहर रह कर काम करता है और इसलिए आगे चल कर यह सुरक्षा के लिए ख़तरा बन सकता है.
इस पर विकिलीक्स के प्रवक्ता का जवाब है, "जब सरकार लोगों को प्रताड़ित करना और लोगों को मौत के घाट उतारना बंद कर देगी, जब बड़ी-बड़ी कंपनियाँ क़ानूनी प्रावधानों का दुरुपयोग करना छोड़ देंगी, तब शायद ये पूछने का समय का होगा कि क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के समर्थक जवाबदेह हैं."
गुरुवार, मई 29, 2008
नाम के पीछे क्या है? (3)
गतांक से आगे...
Lego- खिलौनों के रूप में प्लास्टिक की ईंटें और अन्य तरह के ब्लॉक बनाने वाली इस कंपनी का नाम डेनिश भाषा के मुहावरे leg godt से आया है, जिसका मतलब होता है Play Well. वैसे लैटिन में Lego का मतलब होता है I Construct जो कि इसके उत्पादों के चरित्र को ज़ाहिर करता है.
Mercedes Benz- इस जर्मन कंपनी की स्थापना Gottlieb Daimler और Karl Benz ने की थी. कंपनी के नाम का पहला हिस्सा ऑस्ट्रिया के व्यवसायी Emill Jellinek की कृपा से आया है. Jellinek ने 1898 में Daimler और Benz की कंपनी में बनी कारों को बेचना शुरू किया. उसने 1900 में कंपनी में एक नए ईंजन के विकास के लिए निवेश किया. ईंजन को Mercedes-Benz नाम दिया गया. दरअसल Jellinek की बेटी का नाम Mercedes था. कार रेसों में छद्म नाम से भाग लेते समय वह अपने लिए भी Mercedes नाम ही चुनता था.
Microsoft- दरअसल Bill Gates अपनी कंपनी के लिए एक ऐसा नाम चाहते थे जो कि microcomputer sofware के उनके उत्पाद का द्योतक हो. इस तरह Micro-soft नाम अस्तित्व में आया. बात में इस नाम से हाइफ़न गिरा दिया गया.
Mitsubishi- इस जापानी उद्योग समूह का नाम इसके थ्री-डायमंड लोगो को परिभाषित करता है. यह नाम Mitsu और Hishi का संयुक्ताक्षर है. किसी अन्य शब्द के साथ जुड़ने पर Hishi बदल कर bishi हो जाता है. Mitsu का मतलब है तीन, जबकि Hishi का मतलब है पानीफल सिंघाड़ा, यह शब्द जापानी भाषा में ताश के पत्ते पर बने डायमंड आकार को भी व्यक्त करता है.
Motorola- इस कंपनी का शुरुआती नाम Galvin Manufacturing Company था. इसके संस्थापकों ने कार रेडियो बनाना शुरू करने के बाद 1930 के दशक में कंपनी का नाम बदल कर Motorola कर दिया. उन दिनों अमरीका में उच्च गुणवत्ता वाले ऑडियो उत्पादों में -ola लगाने का चलन था, जैसे Rockola, Victrola आदि. इसलिए Motorola नाम sound in motion के आभास के लिए दिया गया था.
Nike- इस अमरीकी खेल उत्पाद कंपनी का नाम विजय की ग्रीक देवी के नाम पर है.
Nikon- इस जापानी कंपनी का पुराना नाम Nippon Kogaku था, जिसका मतलब हुआ Japanese Optical. ज़ाहिर है एक शब्द वाला नया नाम पुराने नाम के दो शब्दों से लिया गया .
Nissan- इसकी भी कहानी Nikon जैसी ही है. दरअसल Nissan को पहले Nippon Sangyo के नाम से जाना जाता था, यानि Japanese Industry.
Nokia- फ़िनलैंड के एक छोटे से शहर के नाम पर मोबाइल कंपनी का नाम रखा गया है. मोबाइल फ़ोन निर्माण के क्षेत्र में आने से पहले कंपनी काग़ज़ और रबर उत्पादों के क्षेत्र में थी.
Oracle- अमरीकी ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए के Oracle कूटनाम वाले एक प्रोजेक्ट पर काम करते थे Larry Ellison, Ed Oates और Bob Miner. धन के अभाव में जब सीआईए ने प्रोजेक्ट पर काम रोक दिया, तो इन तीनों ने अपने बूते प्रोजेक्ट को पूरा करने का निश्चय किया और अपनी सॉफ़्टवेयर कंपनी को Oracle नाम दिया. कंपनी के पहले ग्राहकों में थी अमरीकी ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए.
Pepsi- इस पेय पदार्थ के आविष्कारक Caleb Bradham ने 1898 में इसे Pepsi-Cola नाम दिया था इसमें प्रयुक्त कोला फली, और संभवत: पेप्सिन नामक एंजाइम के नाम पर जो कि पाचन-क्रिया में सहायक होती है.
Royal Dutch Shell- इसकी शुरुआत होती है Shell Transport and Trading Company से जो कि विक्टोरिया काल में प्राकृतिक इतिहास में दिलचस्पी रखने वालों को सीपियाँ और अन्य समुद्री जीवों के कवच-अवशेष बेचती थी. बाद में कंपनी को लगा कि तेल का भी बाज़ार है, और यह तेल के धंधे में उतर गई.
Saab- ये नाम स्वीडन की विमान निर्माता कंपनी Svenka Aeroplane Aktiebolaget से आया है. कंपनी ने 1949 में कार निर्माण के क्षेत्र में क़दम रखा था.
Samsung- कोरिया के इस सबसे बड़े कंपनी समूह के नाम का कोरियाई भाषा में मतलब होता है Three Stars.
Seat- ये नाम स्पेनिश भाषा में Sociedad Española de Automóviles de Turismo या Spanish Saloon Car Company का संक्षिप्त रूप है. इसकी स्थापना 1950 में बार्सिलोना में हुई थी.
Sony- जब 1945 में इस कंपनी की स्थापना हुई थी तो इसका नाम Tokyo Tsushin Kogyo K.K. या अंग्रेज़ी में Tokyo Telecommunication Engineering Corporation था.
माना जाता है कि इस नाम का लैटिन मूल Sonus है, और इसे द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के जापान में लोकप्रिय अभिव्यक्ति Sonny Boy से भी जोड़ कर देखा जाता है. कंपनी के संस्थापकों ने नाम चुनते वक़्त ये भी देखा कि Sony शब्द किसी भी भाषा का हूबहू हिस्सा नहीं है, यानि नाम पर उनका शतप्रतिशत स्वामित्व है.
Toyota- पहले Sakichi Toyoda ने अपनी कंपनी का नाम Toyeda रखा था. बाद में उन्होंने बेहतर उच्चारण वाला नाम ढूंढने के लिए एक प्रतियोगिता कराई, जिसके ज़रिए नया नाम सामने आया. जापानी भाषा में Toyota लिखने में कलम के आठ स्ट्रोक लगते हैं, और 8 जापान में लकी नंबर माना जाता है.
Vauxhall- कार बनाने वाली इस कंपनी का पुराना नाम Vauxhall Iron Works है. लंदन में टेम्स नदी के किनारे 1894 में इसे उस जगह स्थापित गया था जहाँ कि, कहते हैं, मध्यकालीन योद्धा Fulk le Breant का घर था, यानि Fulk's Hall. (रूस में बड़े रेल स्टेशनों को Vokzal कहा जाता है. कहते हैं कि ज़ार निकोलस प्रथम जब ब्रिटेन की यात्रा पर आए थे उनके साथ ये शब्द रूस गया. लंदन में एक संसदीय निर्वाचन क्षेत्र, एक पार्क और एक रेलवे स्टेशन को भी Vauxhall नाम दिया गया है.)
Volvo- लैटिन में इस शब्द का मतलब है I Roll. दरअसल स्वीडन की कंपनी SKF ने अपने एक बॉलबेयरिंग उत्पाद को ये नाम दिया था. बाद में SKF की मोटर निर्माण इकाई को Volvo नाम दिया गया. अब Volvo समूह कारों, बसों और ट्रकों के निर्माण के अलावा भारी मशीनरी के क्षेत्र में भी सक्रिय है.
Xerox- ग्रीक भाषा में xerox का मतलब होता है dry. जब Chestor Carlson ने फ़ोटो कॉपी करने की एक नई dry-copying प्रणाली की खोज की तो उसे Xerox नाम दिया. कंपनी xerox शब्द के क्रिया के रूप में प्रयोग पर रोक लगाने की हरसंभव कोशिश करती रही है.
Lego- खिलौनों के रूप में प्लास्टिक की ईंटें और अन्य तरह के ब्लॉक बनाने वाली इस कंपनी का नाम डेनिश भाषा के मुहावरे leg godt से आया है, जिसका मतलब होता है Play Well. वैसे लैटिन में Lego का मतलब होता है I Construct जो कि इसके उत्पादों के चरित्र को ज़ाहिर करता है.
Mercedes Benz- इस जर्मन कंपनी की स्थापना Gottlieb Daimler और Karl Benz ने की थी. कंपनी के नाम का पहला हिस्सा ऑस्ट्रिया के व्यवसायी Emill Jellinek की कृपा से आया है. Jellinek ने 1898 में Daimler और Benz की कंपनी में बनी कारों को बेचना शुरू किया. उसने 1900 में कंपनी में एक नए ईंजन के विकास के लिए निवेश किया. ईंजन को Mercedes-Benz नाम दिया गया. दरअसल Jellinek की बेटी का नाम Mercedes था. कार रेसों में छद्म नाम से भाग लेते समय वह अपने लिए भी Mercedes नाम ही चुनता था.
Microsoft- दरअसल Bill Gates अपनी कंपनी के लिए एक ऐसा नाम चाहते थे जो कि microcomputer sofware के उनके उत्पाद का द्योतक हो. इस तरह Micro-soft नाम अस्तित्व में आया. बात में इस नाम से हाइफ़न गिरा दिया गया.
Mitsubishi- इस जापानी उद्योग समूह का नाम इसके थ्री-डायमंड लोगो को परिभाषित करता है. यह नाम Mitsu और Hishi का संयुक्ताक्षर है. किसी अन्य शब्द के साथ जुड़ने पर Hishi बदल कर bishi हो जाता है. Mitsu का मतलब है तीन, जबकि Hishi का मतलब है पानीफल सिंघाड़ा, यह शब्द जापानी भाषा में ताश के पत्ते पर बने डायमंड आकार को भी व्यक्त करता है.
Motorola- इस कंपनी का शुरुआती नाम Galvin Manufacturing Company था. इसके संस्थापकों ने कार रेडियो बनाना शुरू करने के बाद 1930 के दशक में कंपनी का नाम बदल कर Motorola कर दिया. उन दिनों अमरीका में उच्च गुणवत्ता वाले ऑडियो उत्पादों में -ola लगाने का चलन था, जैसे Rockola, Victrola आदि. इसलिए Motorola नाम sound in motion के आभास के लिए दिया गया था.
Nike- इस अमरीकी खेल उत्पाद कंपनी का नाम विजय की ग्रीक देवी के नाम पर है.
Nikon- इस जापानी कंपनी का पुराना नाम Nippon Kogaku था, जिसका मतलब हुआ Japanese Optical. ज़ाहिर है एक शब्द वाला नया नाम पुराने नाम के दो शब्दों से लिया गया .
Nissan- इसकी भी कहानी Nikon जैसी ही है. दरअसल Nissan को पहले Nippon Sangyo के नाम से जाना जाता था, यानि Japanese Industry.
Nokia- फ़िनलैंड के एक छोटे से शहर के नाम पर मोबाइल कंपनी का नाम रखा गया है. मोबाइल फ़ोन निर्माण के क्षेत्र में आने से पहले कंपनी काग़ज़ और रबर उत्पादों के क्षेत्र में थी.
Oracle- अमरीकी ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए के Oracle कूटनाम वाले एक प्रोजेक्ट पर काम करते थे Larry Ellison, Ed Oates और Bob Miner. धन के अभाव में जब सीआईए ने प्रोजेक्ट पर काम रोक दिया, तो इन तीनों ने अपने बूते प्रोजेक्ट को पूरा करने का निश्चय किया और अपनी सॉफ़्टवेयर कंपनी को Oracle नाम दिया. कंपनी के पहले ग्राहकों में थी अमरीकी ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए.
Pepsi- इस पेय पदार्थ के आविष्कारक Caleb Bradham ने 1898 में इसे Pepsi-Cola नाम दिया था इसमें प्रयुक्त कोला फली, और संभवत: पेप्सिन नामक एंजाइम के नाम पर जो कि पाचन-क्रिया में सहायक होती है.
Royal Dutch Shell- इसकी शुरुआत होती है Shell Transport and Trading Company से जो कि विक्टोरिया काल में प्राकृतिक इतिहास में दिलचस्पी रखने वालों को सीपियाँ और अन्य समुद्री जीवों के कवच-अवशेष बेचती थी. बाद में कंपनी को लगा कि तेल का भी बाज़ार है, और यह तेल के धंधे में उतर गई.
Saab- ये नाम स्वीडन की विमान निर्माता कंपनी Svenka Aeroplane Aktiebolaget से आया है. कंपनी ने 1949 में कार निर्माण के क्षेत्र में क़दम रखा था.
Samsung- कोरिया के इस सबसे बड़े कंपनी समूह के नाम का कोरियाई भाषा में मतलब होता है Three Stars.
Seat- ये नाम स्पेनिश भाषा में Sociedad Española de Automóviles de Turismo या Spanish Saloon Car Company का संक्षिप्त रूप है. इसकी स्थापना 1950 में बार्सिलोना में हुई थी.
Sony- जब 1945 में इस कंपनी की स्थापना हुई थी तो इसका नाम Tokyo Tsushin Kogyo K.K. या अंग्रेज़ी में Tokyo Telecommunication Engineering Corporation था.
माना जाता है कि इस नाम का लैटिन मूल Sonus है, और इसे द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के जापान में लोकप्रिय अभिव्यक्ति Sonny Boy से भी जोड़ कर देखा जाता है. कंपनी के संस्थापकों ने नाम चुनते वक़्त ये भी देखा कि Sony शब्द किसी भी भाषा का हूबहू हिस्सा नहीं है, यानि नाम पर उनका शतप्रतिशत स्वामित्व है.
Toyota- पहले Sakichi Toyoda ने अपनी कंपनी का नाम Toyeda रखा था. बाद में उन्होंने बेहतर उच्चारण वाला नाम ढूंढने के लिए एक प्रतियोगिता कराई, जिसके ज़रिए नया नाम सामने आया. जापानी भाषा में Toyota लिखने में कलम के आठ स्ट्रोक लगते हैं, और 8 जापान में लकी नंबर माना जाता है.
Vauxhall- कार बनाने वाली इस कंपनी का पुराना नाम Vauxhall Iron Works है. लंदन में टेम्स नदी के किनारे 1894 में इसे उस जगह स्थापित गया था जहाँ कि, कहते हैं, मध्यकालीन योद्धा Fulk le Breant का घर था, यानि Fulk's Hall. (रूस में बड़े रेल स्टेशनों को Vokzal कहा जाता है. कहते हैं कि ज़ार निकोलस प्रथम जब ब्रिटेन की यात्रा पर आए थे उनके साथ ये शब्द रूस गया. लंदन में एक संसदीय निर्वाचन क्षेत्र, एक पार्क और एक रेलवे स्टेशन को भी Vauxhall नाम दिया गया है.)
Volvo- लैटिन में इस शब्द का मतलब है I Roll. दरअसल स्वीडन की कंपनी SKF ने अपने एक बॉलबेयरिंग उत्पाद को ये नाम दिया था. बाद में SKF की मोटर निर्माण इकाई को Volvo नाम दिया गया. अब Volvo समूह कारों, बसों और ट्रकों के निर्माण के अलावा भारी मशीनरी के क्षेत्र में भी सक्रिय है.
Xerox- ग्रीक भाषा में xerox का मतलब होता है dry. जब Chestor Carlson ने फ़ोटो कॉपी करने की एक नई dry-copying प्रणाली की खोज की तो उसे Xerox नाम दिया. कंपनी xerox शब्द के क्रिया के रूप में प्रयोग पर रोक लगाने की हरसंभव कोशिश करती रही है.
शनिवार, मई 24, 2008
नाम के पीछे क्या है? (2)
गतांक से आगे...
BASF- इस जर्मन रसायन कंपनी का नाम Badische Anilin und Soda Fabrik से लिया गया है. इसमें BASF के शुरूआती उत्पादों और उत्पादन स्थल का समावेश है. यानि जर्मनी के बाडेन प्रांत स्थिति एनलिन और सोडा बनाने वाली कंपनी.
BMW- Bayerische Motoren Werke यानि बावेरियन मोटर वर्क्स की स्थापना 1917 में जर्मनी के बावेरिया क्षेत्र के मुख्य नगर म्यूनिख में हुई थी. कंपनी की स्थापना मूल रूप से विमानों के इंजन के निर्माण के लिए हुई थी. शायद इसीलिए कंपनी का लोगो एक घूमता प्रोपेलर है.
Bridgestone- इस जापानी टायर निर्माता कंपनी को इसके संस्थापक Shorijo Ishibashi का नाम मिला है. दरअसल Ishibashi का जापानी भाषा में अर्थ होता है- Stone Bridge.
Canon- The Precision Optical Instruments Laboratory का नया नाम इसके द्वारा निर्मित पहले कैमरे Kwannon पर आधारित है. इसे Kannon से भी जोड़ कर देखा जाता है जो कि करुणा के बोधिसत्व का जापानी नाम है.
Casio- कंपनी के संस्थापक Kashio Tadao के नाम से बना है ये ब्रांड. टोक्यो में 1946 में स्थापित ये कंपनी कैलकुलेटरों के अलावा भी अनेक तरह के इलेक्ट्रॉनिक उपकरण बनाती है.
Coca-Cola- ये नाम कोका की पत्तियों और कोला की फली से लिया गया है, जो कि 1885 में बाज़ार में स्वास्थ्यवर्द्धक दवाई के रूप में उतारे गए पेय पदार्थ के मूल फ़्लेवर में शामिल था.
Daewoo- कोरियाई भाषा में इसका मतलब है- Great Universe. इस उद्योग समूह को 1990 के दशक में संकट से गुजरना पड़ा. हालाँकि 1999 में दिवालिया घोषित होने के बाद भी इस उद्योग समूह की कई कंपनियाँ अभी सक्रिय हैं. वैसे अब इसकी मोटर निर्माण इकाइयाँ अमरीका के जेनरल मोटर्स और भारत के टाटा समूह के नियंत्रण में हैं.
eBay- इस ऑनलाइन बाज़ार को इसके संस्थापक Pierre Omidyar ने अपनी इंटरनेट कंसल्टेंसी Echo Bay Technology Group का नाम देने का मंसूबा बनाया था. लेकिन Echo Bay नाम एक स्वर्ण खनन कंपनी पहले ही रजिस्टर्ड करा चुकी थी.
Fiat- यह नाम Fabbrica Italiana Automobili Torino यानि Italian Automobile Factory of Turin का संक्षिप्त रूप है. सोनिया गांधी भी उत्तरी इटली के Turin शहर की हैं.
Google- ये नाम googol शब्द से बना है जो एक बहुत बड़ी संख्या होती है. 1 के आगे 100 बार शून्य लगाने से बनी संख्या. संस्थापकों का दावा था कि उनका सर्च इंजन इतनी बड़ी संख्या में सूचनाओं को खंगाल सकता है. अब तो google को प्रमुख शब्दकोशों में भी एक क्रिया के रूप में शामिल किया जा चुका है जिसका मतलब होता है गूगल सर्च इंजन की सहायता से इंटरनेट पर जानकारी जुटाना.
Hewlett-Packard- कहा जाता है कि कंपनी के संस्थापकों Bill Hewlett और David Packard ने एक सिक्का उछाल कर इस बात का फ़ैसला किया कि दोनों में से किसका नाम शुरू में आएगा.
Ikea- इस प्रमुख स्वीडिश फ़र्नीचर कंपनी का नाम इसके संस्थापक Ingvar Kamprad ने अपने नाम में अपने पैतृक घर यानि Elmtaryd नामक फ़ार्म और पास के गाँव Agunnaryd के पहले अक्षरों को मिला कर बनाया है.
Intel- संस्थापक Bob Noyce और Gordon Moore अपनी माइक्रोचिप कंपनी को Moore Noyce नाम देना चाहते थे, लेकिन एक होटल कंपनी ने पहले ही ये नाम ले रखा था. मजबूरी में Integrated Electronics के हिस्सों को जोड़ कर Intel बनाया गया.
Kodak- ये एक अनूठा ब्रांड नाम है. कैमरा कंपनी के संस्थापक जॉर्ज ईस्टमैन ने सिर्फ़ इसलिए ये नाम चुना कि ये सुनने में अच्छा लगता है. हालाँकि, अपनी माँ के साथ सलाह-मशविरा कर ये नाम चुनते वक़्त उन्होंने इस बात का विशेष ध्यान रखा कि नाम को बिगाड़ा नहीं जा सके, उसका ग़लत उच्चारण नहीं किया जा सके. ईस्टमैन ने इस बात का भी ध्यान रखा कि इसे किसी और उत्पाद, कंपनी या स्थान से नहीं जोड़ा जा सके.
>......जारी........>
BASF- इस जर्मन रसायन कंपनी का नाम Badische Anilin und Soda Fabrik से लिया गया है. इसमें BASF के शुरूआती उत्पादों और उत्पादन स्थल का समावेश है. यानि जर्मनी के बाडेन प्रांत स्थिति एनलिन और सोडा बनाने वाली कंपनी.
BMW- Bayerische Motoren Werke यानि बावेरियन मोटर वर्क्स की स्थापना 1917 में जर्मनी के बावेरिया क्षेत्र के मुख्य नगर म्यूनिख में हुई थी. कंपनी की स्थापना मूल रूप से विमानों के इंजन के निर्माण के लिए हुई थी. शायद इसीलिए कंपनी का लोगो एक घूमता प्रोपेलर है.
Bridgestone- इस जापानी टायर निर्माता कंपनी को इसके संस्थापक Shorijo Ishibashi का नाम मिला है. दरअसल Ishibashi का जापानी भाषा में अर्थ होता है- Stone Bridge.
Canon- The Precision Optical Instruments Laboratory का नया नाम इसके द्वारा निर्मित पहले कैमरे Kwannon पर आधारित है. इसे Kannon से भी जोड़ कर देखा जाता है जो कि करुणा के बोधिसत्व का जापानी नाम है.
Casio- कंपनी के संस्थापक Kashio Tadao के नाम से बना है ये ब्रांड. टोक्यो में 1946 में स्थापित ये कंपनी कैलकुलेटरों के अलावा भी अनेक तरह के इलेक्ट्रॉनिक उपकरण बनाती है.
Coca-Cola- ये नाम कोका की पत्तियों और कोला की फली से लिया गया है, जो कि 1885 में बाज़ार में स्वास्थ्यवर्द्धक दवाई के रूप में उतारे गए पेय पदार्थ के मूल फ़्लेवर में शामिल था.
Daewoo- कोरियाई भाषा में इसका मतलब है- Great Universe. इस उद्योग समूह को 1990 के दशक में संकट से गुजरना पड़ा. हालाँकि 1999 में दिवालिया घोषित होने के बाद भी इस उद्योग समूह की कई कंपनियाँ अभी सक्रिय हैं. वैसे अब इसकी मोटर निर्माण इकाइयाँ अमरीका के जेनरल मोटर्स और भारत के टाटा समूह के नियंत्रण में हैं.
eBay- इस ऑनलाइन बाज़ार को इसके संस्थापक Pierre Omidyar ने अपनी इंटरनेट कंसल्टेंसी Echo Bay Technology Group का नाम देने का मंसूबा बनाया था. लेकिन Echo Bay नाम एक स्वर्ण खनन कंपनी पहले ही रजिस्टर्ड करा चुकी थी.
Fiat- यह नाम Fabbrica Italiana Automobili Torino यानि Italian Automobile Factory of Turin का संक्षिप्त रूप है. सोनिया गांधी भी उत्तरी इटली के Turin शहर की हैं.
Google- ये नाम googol शब्द से बना है जो एक बहुत बड़ी संख्या होती है. 1 के आगे 100 बार शून्य लगाने से बनी संख्या. संस्थापकों का दावा था कि उनका सर्च इंजन इतनी बड़ी संख्या में सूचनाओं को खंगाल सकता है. अब तो google को प्रमुख शब्दकोशों में भी एक क्रिया के रूप में शामिल किया जा चुका है जिसका मतलब होता है गूगल सर्च इंजन की सहायता से इंटरनेट पर जानकारी जुटाना.
Hewlett-Packard- कहा जाता है कि कंपनी के संस्थापकों Bill Hewlett और David Packard ने एक सिक्का उछाल कर इस बात का फ़ैसला किया कि दोनों में से किसका नाम शुरू में आएगा.
Ikea- इस प्रमुख स्वीडिश फ़र्नीचर कंपनी का नाम इसके संस्थापक Ingvar Kamprad ने अपने नाम में अपने पैतृक घर यानि Elmtaryd नामक फ़ार्म और पास के गाँव Agunnaryd के पहले अक्षरों को मिला कर बनाया है.
Intel- संस्थापक Bob Noyce और Gordon Moore अपनी माइक्रोचिप कंपनी को Moore Noyce नाम देना चाहते थे, लेकिन एक होटल कंपनी ने पहले ही ये नाम ले रखा था. मजबूरी में Integrated Electronics के हिस्सों को जोड़ कर Intel बनाया गया.
Kodak- ये एक अनूठा ब्रांड नाम है. कैमरा कंपनी के संस्थापक जॉर्ज ईस्टमैन ने सिर्फ़ इसलिए ये नाम चुना कि ये सुनने में अच्छा लगता है. हालाँकि, अपनी माँ के साथ सलाह-मशविरा कर ये नाम चुनते वक़्त उन्होंने इस बात का विशेष ध्यान रखा कि नाम को बिगाड़ा नहीं जा सके, उसका ग़लत उच्चारण नहीं किया जा सके. ईस्टमैन ने इस बात का भी ध्यान रखा कि इसे किसी और उत्पाद, कंपनी या स्थान से नहीं जोड़ा जा सके.
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मंगलवार, मई 13, 2008
नाम के पीछे क्या है?
हर नाम का आमतौर पर कुछ-न-कुछ मतलब होता है. और, जब बात किसी बड़ी कंपनी का या किसी प्रसिद्ध ब्रांड का हो, तब तो नाम के पीछे का मतलब कुछ ज़्यादा ही महत्वपूर्ण हो जाता है. आइए ऐसे ही कुछ प्रसिद्ध ब्रांडों के नामाकरण पर ग़ौर करते हैं-
Adidas- खेल सामग्रियों का व्यापार करने वाली इस जर्मन कंपनी का नाम इसके निर्माता Adoldf(Adi) Dassler के नाम पर पड़ा है.
यहाँ इस बात का उल्लेख किया जाना ज़रूरी है कि Adidas का खेल की दुनिया के एक और बड़े नाम Puma से भाई-भाई का संबंध है. दरअसल Adi Dassler ने 1920 के दशक में जर्मनी के Herzogenaurach नामक कस्बे में खिलाड़ियों के लिए विशेष जूते के धंधे की शुरुआत अपने भाई Rudolf Dassler के साथ मिल कर की थी. बाद में दोनों भाइयों में खटपट हुई, और 1940 के दशक के मध्य तक आते-आते Adolf ने Adidas और Rudolf ने Puma के नाम से अपने धंधे अलग कर लिए. हाल ही में Dassler भाइयों की बेमिसाल प्रतिद्वंद्विता पर Sneaker Wars नामक एक किताब प्रकाशित हुई है.
Adobe- इस अमरीकी सॉफ़्टवेयर कंपनी का नाम उस जलधारा या क्रीक के नाम पर पड़ा है जो इसके संस्थापकों के घर के पास से गुजरती है.
Aldi- यूरोप में मध्यवर्ग के उपभोक्ताओं में लोकप्रिय इस सुपरस्टोर के नाम का Al इसके जर्मन संस्थापक Albrecht परिवार के नाम से आया है, जबकि di वाला दूसरा हिस्सा इन स्टोरों की प्रकृति को दर्शाता है- मतलब Discount Store.
Alfa Romeo- इतालवी मोटर निर्माता कंपनी Anonima Lombarda Fabbrica Automobili का संक्षेप हुआ Alfa. वर्ष 1915 में Nicola Romeo ने इसका अधिग्रहण किया और आगे चल कर कंपनी का नाम बदल कर Alfa Romeo कर दिया गया. ख़ास कर रेसिंग कारों के क्षेत्र में नाम कमाने वाली ये कंपनी अब इटली के ही Fiat समूह का हिस्सा है.
Amazon.com- ये नाम दुनिया की दूसरी सबसे लंबी नदी अमेज़न पर है. हालाँकि संस्थापक Jeff Bezos पहले कंपनी को abracadabra शब्द से प्रभावित होकर Cadabra.com कहना चाहते थे. उन्होंने अपनी राय वकीलों की सलाह पर बदली जिनका मानना था कि Cadabra का उच्चारण cadaver से बिल्कुल क़रीब है, जिसका अर्थ होता है- शव.
Amstrad- इस ब्रितानी इलेक्ट्रॉनिक्स कंपनी का नाम Alan Michael Sugar Trading का संक्षेप है, जो कि संस्थापक एलेन माइकल सुगर के नाम के आगे ट्रेडिंग लगाने से बना है. सुगर इन दिनों अत्यंत लोकप्रिय ब्रितानी टेलीविज़न शो 'The Apprentice' के कड़कमिज़ाज बॉस की भूमिका के लिए ज़्यादा जाने जाते हैं.
Apple- ये नाम निश्चय ही सेब से जुड़ा है, क्योंकि कंपनी के क्लासिक कंप्यूटर Apple Macintosh के नाम का दूसरा हिस्सा सेब की एक लोकप्रिय अमरीकी प्रजाति McIntosh से लिया गया है.
लेकिन सेब ही क्यों? ये तो संस्थापक Steve Jobs ही बेहतर जानते होंगे. संभव है कि वे या तो सेब के स्वास्थवर्द्धक गुणों से बहुत ज़्यादा प्रभावित रहे हैं, या फिर संगीत मंडली बीटल्स से क्योंकि बीटल्स की व्यापारिक कंपनी Apple Corp के नाम से जानी जाती है. दोनों कंपनियों के बीच नाम को लेकर भारी क़ानूनी लफड़ा भी चला. एप्पल नाम नहीं छोड़ने के एवज़ में स्टीव जॉब्स की कंपनी ने बीटल्स की कंपनी के साथ अदालत से बाहर सुलहनामा किया और उसे लाखों डॉलर दिए. हालाँकि विवाद अब भी पूरी तरह सुलझा नहीं है. इससे पहले Apple ने एक ऑडियो उपकरण कंपनी McIntosh Laboratory को भी उसके नाम के इस्तेमाल के एवज़ में भारी रकम दिए हैं.
Aston Martin- जेम्स बाँड की फ़िल्मों में दिखने वाली कार की निर्माता कंपनी के नाम का पहला हिस्सा ब्रिटेन में बर्मिंघम के पास होने वाली The Aston Hill मोटर रेस से आया है. कंपनी की स्थापना रेस वाले इलाके में भी ही की गई थी. कंपनी के नाम का दूसरा हिस्सा संस्थापक Lionel Martin के नाम से आया है. अमीरों के लिए कार बनाने वाली इस कंपनी का स्वामित्व आजकल एक निजी निवेश समूह के हाथों में है.
Audi- इस जर्मन कार कंपनी की स्थापना 1909 में August Horch ने की थी. Horch यानि अंग्रेज़ी में hark या listen! जब विवादों के बाद अपनी पहली कंपनी से निकलने के बाद उन्होंने एक नई कंपनी बनाई, तो Horch नाम से कार बनाने का अधिकार पहली कंपनी के पास ही रह गया. चूँकि August Horch नई कंपनी की कारों को भी अपना नाम देना चाहते थे, इसलिए उन्होंने अपने नाम के लैटिन अनुवाद Audi से काम चलाया.
>......जारी........>
Adidas- खेल सामग्रियों का व्यापार करने वाली इस जर्मन कंपनी का नाम इसके निर्माता Adoldf(Adi) Dassler के नाम पर पड़ा है.
यहाँ इस बात का उल्लेख किया जाना ज़रूरी है कि Adidas का खेल की दुनिया के एक और बड़े नाम Puma से भाई-भाई का संबंध है. दरअसल Adi Dassler ने 1920 के दशक में जर्मनी के Herzogenaurach नामक कस्बे में खिलाड़ियों के लिए विशेष जूते के धंधे की शुरुआत अपने भाई Rudolf Dassler के साथ मिल कर की थी. बाद में दोनों भाइयों में खटपट हुई, और 1940 के दशक के मध्य तक आते-आते Adolf ने Adidas और Rudolf ने Puma के नाम से अपने धंधे अलग कर लिए. हाल ही में Dassler भाइयों की बेमिसाल प्रतिद्वंद्विता पर Sneaker Wars नामक एक किताब प्रकाशित हुई है.
Adobe- इस अमरीकी सॉफ़्टवेयर कंपनी का नाम उस जलधारा या क्रीक के नाम पर पड़ा है जो इसके संस्थापकों के घर के पास से गुजरती है.
Aldi- यूरोप में मध्यवर्ग के उपभोक्ताओं में लोकप्रिय इस सुपरस्टोर के नाम का Al इसके जर्मन संस्थापक Albrecht परिवार के नाम से आया है, जबकि di वाला दूसरा हिस्सा इन स्टोरों की प्रकृति को दर्शाता है- मतलब Discount Store.
Alfa Romeo- इतालवी मोटर निर्माता कंपनी Anonima Lombarda Fabbrica Automobili का संक्षेप हुआ Alfa. वर्ष 1915 में Nicola Romeo ने इसका अधिग्रहण किया और आगे चल कर कंपनी का नाम बदल कर Alfa Romeo कर दिया गया. ख़ास कर रेसिंग कारों के क्षेत्र में नाम कमाने वाली ये कंपनी अब इटली के ही Fiat समूह का हिस्सा है.
Amazon.com- ये नाम दुनिया की दूसरी सबसे लंबी नदी अमेज़न पर है. हालाँकि संस्थापक Jeff Bezos पहले कंपनी को abracadabra शब्द से प्रभावित होकर Cadabra.com कहना चाहते थे. उन्होंने अपनी राय वकीलों की सलाह पर बदली जिनका मानना था कि Cadabra का उच्चारण cadaver से बिल्कुल क़रीब है, जिसका अर्थ होता है- शव.
Amstrad- इस ब्रितानी इलेक्ट्रॉनिक्स कंपनी का नाम Alan Michael Sugar Trading का संक्षेप है, जो कि संस्थापक एलेन माइकल सुगर के नाम के आगे ट्रेडिंग लगाने से बना है. सुगर इन दिनों अत्यंत लोकप्रिय ब्रितानी टेलीविज़न शो 'The Apprentice' के कड़कमिज़ाज बॉस की भूमिका के लिए ज़्यादा जाने जाते हैं.
Apple- ये नाम निश्चय ही सेब से जुड़ा है, क्योंकि कंपनी के क्लासिक कंप्यूटर Apple Macintosh के नाम का दूसरा हिस्सा सेब की एक लोकप्रिय अमरीकी प्रजाति McIntosh से लिया गया है.
लेकिन सेब ही क्यों? ये तो संस्थापक Steve Jobs ही बेहतर जानते होंगे. संभव है कि वे या तो सेब के स्वास्थवर्द्धक गुणों से बहुत ज़्यादा प्रभावित रहे हैं, या फिर संगीत मंडली बीटल्स से क्योंकि बीटल्स की व्यापारिक कंपनी Apple Corp के नाम से जानी जाती है. दोनों कंपनियों के बीच नाम को लेकर भारी क़ानूनी लफड़ा भी चला. एप्पल नाम नहीं छोड़ने के एवज़ में स्टीव जॉब्स की कंपनी ने बीटल्स की कंपनी के साथ अदालत से बाहर सुलहनामा किया और उसे लाखों डॉलर दिए. हालाँकि विवाद अब भी पूरी तरह सुलझा नहीं है. इससे पहले Apple ने एक ऑडियो उपकरण कंपनी McIntosh Laboratory को भी उसके नाम के इस्तेमाल के एवज़ में भारी रकम दिए हैं.
Aston Martin- जेम्स बाँड की फ़िल्मों में दिखने वाली कार की निर्माता कंपनी के नाम का पहला हिस्सा ब्रिटेन में बर्मिंघम के पास होने वाली The Aston Hill मोटर रेस से आया है. कंपनी की स्थापना रेस वाले इलाके में भी ही की गई थी. कंपनी के नाम का दूसरा हिस्सा संस्थापक Lionel Martin के नाम से आया है. अमीरों के लिए कार बनाने वाली इस कंपनी का स्वामित्व आजकल एक निजी निवेश समूह के हाथों में है.
Audi- इस जर्मन कार कंपनी की स्थापना 1909 में August Horch ने की थी. Horch यानि अंग्रेज़ी में hark या listen! जब विवादों के बाद अपनी पहली कंपनी से निकलने के बाद उन्होंने एक नई कंपनी बनाई, तो Horch नाम से कार बनाने का अधिकार पहली कंपनी के पास ही रह गया. चूँकि August Horch नई कंपनी की कारों को भी अपना नाम देना चाहते थे, इसलिए उन्होंने अपने नाम के लैटिन अनुवाद Audi से काम चलाया.
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शुक्रवार, अप्रैल 11, 2008
सवाल-जवाब: ओलम्पिक मशाल
1. क्या ये सच है कि नाज़ियों ने ओलम्पिक मशाल दौड़ की शुरुआत की थी?
हाँ, मौजूदा रूप में मशाल दौड़ की शुरुआत 1936 के बर्लिन ओलम्पिक के दौरान हुई थी. माना जाता है कि हिटलर के प्रचार मंत्री जोज़ेफ़ गोयबल्स को मशाल दौड़ की योजना डॉ. कार्ल डीम ने बताई थी. डीम ने ओलम्पिक के प्रचार का काम भी देख रहे गोयबल्स को बताया कि एथेंस में माउंट ओलिम्पस के हेरा मंदिर से बर्लिन तक की 3422 किलोमीटर की दूरी 3422 आर्य युवा मशाल के साथ पूरा करें तो दुनिया को एक ख़ास तरह का संदेश मिलेगा. मशाल के रूट में बुल्गारिया, युगोस्लाविया, हंगरी, ऑस्ट्रिया और चेकोस्लोवाकिया आया. इन सभी देशों पर आगे चल कर नाज़ियों का क़ब्ज़ा हुआ.
वैसे, सही मामलों में पहली विश्वव्यापी ओलम्पिक मशाल दौड़ 2004 के एथेंस ओलम्पिक के लिए आयोजित की गई.
2. मशाल की बनावट के बारे में कुछ बताएँ, और ये भी कि इसमें ईंधन के रूप में क्या होता है?
मशाल का डिज़ायन मेज़बान देश तय करता है. बीजिंग ओलम्पिक की मशाल 72 सेंटीमीटर ऊँची है. अल्युमिनियम निर्मित मशाल का वज़न 985 ग्राम है. मशाल में ईंधन के रूप में प्रोपेन नामक हाइड्रोकार्बन का उपयोग किया जाता है. मौजूदा मशाल 65 किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ़्तार वाली हवा को झेल सकती है. इतना ही नहीं प्रति घंटे 50 मिलिमीटर की दर से बारिश हो तो उसे भी ये मशाल भलीभाँति झेल सकती है. एक मशाल सामान्य परिस्थितियों में क़रीब 15 मिनट तक जल सकती है. यानि अधिकारियों का लक्ष्य होता है कि दौड़ के समय हर 10-12 मिनट में किसी जल रही मशाल से दूसरी मशाल जलाई जाती रहे.
3. किसी कारणवश कभी मशाल बुझी भी है?
पेरिस में यात्रा के दौरान 7 अप्रैल 2008 को मशाल को तीन बार बुझाना पड़ा. ऐसा चीन विरोधी प्रदर्शनों के कारण ऐहतियात के तौर पर करना पड़ा. इससे पहले मात्र दो अवसर और आए जब ओलम्पिक मशाल बुझी. 1976 में मॉन्ट्रियल में अचानक हुई तेज़ बारिश के कारण मशाल बुझ गई. किसी ने आनन-फ़ानन में सिगरेट लाइटर से उसे जला दिया जो कि ठीक बात नहीं मानी गई. इसलिए फिर बैकअप लैम्प से दौड़ में प्रयुक्त मशाल को नए सिरे से जलाया गया. 2004 में भी एक बार मशाल तेज़ हवा के कारण बुझी थी.
जहाँ तक एक देश से दूसरे देश की यात्रा की बात है, तो हवाई जहाज़ पर ले जाने से पहले मशाल को बुझा दिया जाता है. लेकिन दौड़ के लिए एथेंस में तापक शीशे के सहारे जो अग्नि जलाई जाती है, उस मातृज्योति को सुरक्षित लैम्पों में जलते रहने दिया जाता है. इन लैम्पों को आयोजक देश के अधिकारी विमान में संभाले रखते हैं. मशाल दौड़ के विभिन्न चरणों के बीच रातों में विश्राम के वक़्त भी मशाल बुझा दी जाती है, सिर्फ़ लैम्प ही हमेशा जलते रहते हैं.
4. मशाल दौड़ में शामिल होने के लिए लोगों का चुनाव कौन करता है?
ओलम्पिक मशाल थामने के लिए लोगों का चुनाव कई तरह से किया जाता है. ज़्यादातर तो उस देश के अधिकारियों की सलाह पर चुने जाते हैं, जहाँ कि मशाल दौड़ हो रही होती है. इस कोटि में खेल की दुनिया के लोगों की तादात ज़्यादा होती है, हालाँकि समाज के दूसरे तबकों के प्रतिष्ठित लोगों को भी मौक़ा दिया जाता है. मशाल लेकर दौड़ने के लिए कुछ लोगों का चुनाव आयोजक देश की सरकार की तरफ़ से होता है. जैसे लंदन में मशाल थामने वालों में ब्रिटेन में चीन की राजदूत भी शामिल थीं. तीसरी कोटि के लोग मशाल दौड़ के प्रायोजकों की तरफ़ से लगाए जाते हैं. इस बार की प्रायोजक कंपनियाँ हैं- सैमसंग, कोका-कोला और लेनोवो.
5. इस बार मशाल के इर्दगिर्द प्रथम सुरक्षा घेरा बना कर चल रहे नीली-सफ़ेद ट्रैकसूट वाले रक्षकों का क्या मामला है?
ब्लू-एंड-व्हाइट ब्रिगेड के ये लोग दरअसल चीनी सुरक्षा बल के अतिविशिष्ट दस्ते के सदस्य हैं. इस बार लंदन में मशाल दौड़ में शामिल कुछ धावकों की मानें तो चीनी मशाल-रक्षकों का शालीनता से कोई वास्ता नहीं है. टूटी-फूटी अंग्रेज़ी में ये धावकों को 'हाथ ऊपर उठा कर रखो, सीधा चलो...' जैसे आदेश देते रहते हैं. लंदन में 2012 के ओलम्पिक आयोजन से जुड़े एक बड़े खेल अधिकारी ने चीनी मशाल रक्षकों को 'Thugs' की उपमा दी है.
नीले-सफ़ेद पहनावे वाले चीनी मशाल रक्षकों का सबसे ज़्यादा विरोध इस बात को लेकर हो रहा है कि ये चीनी सुरक्षा बलों की उन्हीं टुकड़ियों से हैं जिन पर कि तिब्बत में दमनात्मक कार्यों में शामिल होने का आरोप रहा है. और अंतत:, मशाल दौड़ में शामिल ब्रिटेन, फ़्रांस, अमरीका और अर्जेंटीनी जैसे देशों की चुप्पी के बाद जापान ने चीनियों से ये कहने का साहस किया है कि उसके यहाँ चीनी रक्षकों को मशाल के साथ दौड़ने की अनुमति नहीं दी जाएगी, क्योंकि जापान अपने दम पर मशाल की सुरक्षा-व्यवस्था सुनिश्चित कर सकता है.
हाँ, मौजूदा रूप में मशाल दौड़ की शुरुआत 1936 के बर्लिन ओलम्पिक के दौरान हुई थी. माना जाता है कि हिटलर के प्रचार मंत्री जोज़ेफ़ गोयबल्स को मशाल दौड़ की योजना डॉ. कार्ल डीम ने बताई थी. डीम ने ओलम्पिक के प्रचार का काम भी देख रहे गोयबल्स को बताया कि एथेंस में माउंट ओलिम्पस के हेरा मंदिर से बर्लिन तक की 3422 किलोमीटर की दूरी 3422 आर्य युवा मशाल के साथ पूरा करें तो दुनिया को एक ख़ास तरह का संदेश मिलेगा. मशाल के रूट में बुल्गारिया, युगोस्लाविया, हंगरी, ऑस्ट्रिया और चेकोस्लोवाकिया आया. इन सभी देशों पर आगे चल कर नाज़ियों का क़ब्ज़ा हुआ.
वैसे, सही मामलों में पहली विश्वव्यापी ओलम्पिक मशाल दौड़ 2004 के एथेंस ओलम्पिक के लिए आयोजित की गई.
2. मशाल की बनावट के बारे में कुछ बताएँ, और ये भी कि इसमें ईंधन के रूप में क्या होता है?
मशाल का डिज़ायन मेज़बान देश तय करता है. बीजिंग ओलम्पिक की मशाल 72 सेंटीमीटर ऊँची है. अल्युमिनियम निर्मित मशाल का वज़न 985 ग्राम है. मशाल में ईंधन के रूप में प्रोपेन नामक हाइड्रोकार्बन का उपयोग किया जाता है. मौजूदा मशाल 65 किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ़्तार वाली हवा को झेल सकती है. इतना ही नहीं प्रति घंटे 50 मिलिमीटर की दर से बारिश हो तो उसे भी ये मशाल भलीभाँति झेल सकती है. एक मशाल सामान्य परिस्थितियों में क़रीब 15 मिनट तक जल सकती है. यानि अधिकारियों का लक्ष्य होता है कि दौड़ के समय हर 10-12 मिनट में किसी जल रही मशाल से दूसरी मशाल जलाई जाती रहे.
3. किसी कारणवश कभी मशाल बुझी भी है?
पेरिस में यात्रा के दौरान 7 अप्रैल 2008 को मशाल को तीन बार बुझाना पड़ा. ऐसा चीन विरोधी प्रदर्शनों के कारण ऐहतियात के तौर पर करना पड़ा. इससे पहले मात्र दो अवसर और आए जब ओलम्पिक मशाल बुझी. 1976 में मॉन्ट्रियल में अचानक हुई तेज़ बारिश के कारण मशाल बुझ गई. किसी ने आनन-फ़ानन में सिगरेट लाइटर से उसे जला दिया जो कि ठीक बात नहीं मानी गई. इसलिए फिर बैकअप लैम्प से दौड़ में प्रयुक्त मशाल को नए सिरे से जलाया गया. 2004 में भी एक बार मशाल तेज़ हवा के कारण बुझी थी.
जहाँ तक एक देश से दूसरे देश की यात्रा की बात है, तो हवाई जहाज़ पर ले जाने से पहले मशाल को बुझा दिया जाता है. लेकिन दौड़ के लिए एथेंस में तापक शीशे के सहारे जो अग्नि जलाई जाती है, उस मातृज्योति को सुरक्षित लैम्पों में जलते रहने दिया जाता है. इन लैम्पों को आयोजक देश के अधिकारी विमान में संभाले रखते हैं. मशाल दौड़ के विभिन्न चरणों के बीच रातों में विश्राम के वक़्त भी मशाल बुझा दी जाती है, सिर्फ़ लैम्प ही हमेशा जलते रहते हैं.
4. मशाल दौड़ में शामिल होने के लिए लोगों का चुनाव कौन करता है?
ओलम्पिक मशाल थामने के लिए लोगों का चुनाव कई तरह से किया जाता है. ज़्यादातर तो उस देश के अधिकारियों की सलाह पर चुने जाते हैं, जहाँ कि मशाल दौड़ हो रही होती है. इस कोटि में खेल की दुनिया के लोगों की तादात ज़्यादा होती है, हालाँकि समाज के दूसरे तबकों के प्रतिष्ठित लोगों को भी मौक़ा दिया जाता है. मशाल लेकर दौड़ने के लिए कुछ लोगों का चुनाव आयोजक देश की सरकार की तरफ़ से होता है. जैसे लंदन में मशाल थामने वालों में ब्रिटेन में चीन की राजदूत भी शामिल थीं. तीसरी कोटि के लोग मशाल दौड़ के प्रायोजकों की तरफ़ से लगाए जाते हैं. इस बार की प्रायोजक कंपनियाँ हैं- सैमसंग, कोका-कोला और लेनोवो.
5. इस बार मशाल के इर्दगिर्द प्रथम सुरक्षा घेरा बना कर चल रहे नीली-सफ़ेद ट्रैकसूट वाले रक्षकों का क्या मामला है?
ब्लू-एंड-व्हाइट ब्रिगेड के ये लोग दरअसल चीनी सुरक्षा बल के अतिविशिष्ट दस्ते के सदस्य हैं. इस बार लंदन में मशाल दौड़ में शामिल कुछ धावकों की मानें तो चीनी मशाल-रक्षकों का शालीनता से कोई वास्ता नहीं है. टूटी-फूटी अंग्रेज़ी में ये धावकों को 'हाथ ऊपर उठा कर रखो, सीधा चलो...' जैसे आदेश देते रहते हैं. लंदन में 2012 के ओलम्पिक आयोजन से जुड़े एक बड़े खेल अधिकारी ने चीनी मशाल रक्षकों को 'Thugs' की उपमा दी है.
नीले-सफ़ेद पहनावे वाले चीनी मशाल रक्षकों का सबसे ज़्यादा विरोध इस बात को लेकर हो रहा है कि ये चीनी सुरक्षा बलों की उन्हीं टुकड़ियों से हैं जिन पर कि तिब्बत में दमनात्मक कार्यों में शामिल होने का आरोप रहा है. और अंतत:, मशाल दौड़ में शामिल ब्रिटेन, फ़्रांस, अमरीका और अर्जेंटीनी जैसे देशों की चुप्पी के बाद जापान ने चीनियों से ये कहने का साहस किया है कि उसके यहाँ चीनी रक्षकों को मशाल के साथ दौड़ने की अनुमति नहीं दी जाएगी, क्योंकि जापान अपने दम पर मशाल की सुरक्षा-व्यवस्था सुनिश्चित कर सकता है.
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