गांधीजी और चे ग्वेरा की सिर्फ़ इस बात को लेकर तुलना हो सकती है कि दोनों ने ही शोषण की व्यवस्था का विरोध किया, दोनों ने ही स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी. लेकिन इसके आगे शायद दोनों के बीच और कोई बड़ी समानता नहीं थी. मसलन गांधीजी अहिंसा के पुजारी थे, तो चे को हिंसा से कोई परहेज़ नहीं था, बल्कि उनका भरोसा सुभाषचंद्र बोस की तरह सशस्त्र संघर्ष में था. गांधीजी ने भले ही अत्याचारी शासकों के ख़िलाफ़ लड़ाई दक्षिण अफ़्रीका में शुरू की, लेकिन उनका संपूर्ण संघर्षमय जीवन भारत में ही बीता. दूसरी ओर चे ग्वेरा ने न सिर्फ़ पूरे लैटिन अमरीका महाद्वीप के लिए लड़ाइयाँ लड़ीं, बल्कि अफ़्रीका महाद्वीप में भी क्रांति के बीज बोने का प्रयास किया. इस तरह की कई और असमानताएँ ढूँढी जा सकती हैं.
लेकिन अब लगता है कि गांधीजी एक अन्य मामले में चे ग्वेरा को टक्कर देने की ओर बढ़ चले हैं. ये है मार्केटिंग की, मुक्त बाज़ार की दुनिया. ये विडंबना ही है कि बाज़ारवाद में चे ग्वेरा जैसे घनघोर साम्यवादी का बुरी तरह इस्तेमाल किया जा रहा है. पता नहीं कितने विज्ञापनों में, कितने तरह के उत्पादों के लिए, कितने किस्म के विचारों के लिए चे की तस्वीरों का उपयोग किया जा चुका है. बाज़ारवाद गांधीवाद वाले गांधीजी को कहाँ तक ले जाता है ये तो वक़्त ही बताएगा, लेकिन संदेह नहीं कि शुरुआत हो चुकी है. गांधीजी अक्सर दुनिया के किसी कोने में किसी पोस्टर में, किसी विज्ञापन में अचानक दिख जाते हैं.
आजकल गांधीजी एक विज्ञापन को लेकर चर्चा में हैं. या ये कहें कि गांधीजी के चलते एक विज्ञापन चर्चा में है. विज्ञापन 28 अगस्त को डेनमार्क के अख़बार Morgenavisen Jyllands Posten ने छापा था. ये वही अख़बार है जिसमें प्रकाशित इस्लामी आतंकवाद विषयक कुछ कार्टूनों में पैगंबर मोहम्मद को दिखाए जाने पर दुनिया भर में हंगामा हुआ था. डेनमार्क सरकार एक अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक संकट में फंस गई थी. और, आज भी इस्लामी देशों में डेनिश नागरिकों को अतिरिक्त सावधानी बरतनी होती है.
अब इसी अख़बार ने तीन विज्ञापनों की एक सिरीज़ छापी है- गांधीजी, नेल्सन मंडेला और दलाई लामा के चित्रों के साथ आज़ादी लेते हुए. ये भी नहीं कहा जा सकता कि एक अच्छे उद्देश्य के लिए ऐसा किया गया है, क्योंकि मुख्य उद्देश्य है- अख़बार का, उसके खुलेपन का प्रचार करना. लेकिन इतना तो तय है कि गांधीजी या अन्य दो महापुरुषों के चित्रों को फ़ोटोशॉप करने के बाद भी अख़बार का उद्देश्य उनकी छवि बिगाड़ने का तो बिल्कुल ही नहीं रहा होगा. क्योंकि एक हाथ में बोतल(संभवत: बीयर की) लिए दूसरे हाथ से कोई मांस उत्पाद(संभवत: हॉटडॉग) भून रहे गांधीजी के चित्र के नीचे लिखा है- 'ज़िंदगी आसान होगी, यदि आप आवाज़ नहीं उठाओगे' इसी पंक्ति में आगे अख़बार की तस्वीर है. और पंक्ति ख़त्म हो रही है- 'बहस करो' के संदेश पर.
संदेश भले ही गांधीजी की छवि से मेल खाता हो, उनका चित्रण इसलिए अनुपयुक्त है कि गांधीजी शराब के घोर विरोधी और शाकाहार के ज़बरदस्त समर्थक थे. चूंकि गांधीजी राष्ट्रपिता भी हैं, सो भारत सरकार गांधीजी के इस व्यंग्यचित्र को लेकर अख़बार से शिकायत दर्ज़ कराने को बाध्य हुई. हालाँकि विरोध का स्वर नरम ही रखा गया.
"I would like to draw your attention to a picture of Mahatma Gandhi, which was published in Morgenavisen Jyllands-Posten on 28 August.
Mahatma Gandhi is depicted by a barbecue. In one hand he has a fork speared with a piece of meat. He has a bottle with a coloured liquid in the other hand.
According to the caption Mahatma was a person with strong opinions and strong beliefs. However the picture has distorted Mahatma's message. He was a vegetarian and had great esteem for animals. He never drank alcohol and warned of adverse health effects of alcohol."
-Yogesh Gupta, India's Ambassador to Denmark
अख़बार ने 30 अगस्त को भारतीय राजदूत की आपत्ति और साथ में अपनी सफ़ाई प्रकाशित की. अख़बार के संपादक ने खेद भी व्यक्त किया है, यदि शाकाहारी गांधीजी की छवि को लेकर कोई भ्रम फैला हो.
"It has never been our view of violating the memory of Mahatma Gandhi. On the contrary, we have chosen him with Nelson Mandela and the Dalai Lama as some of the new world history most beloved and respected people, yes, indeed almost icons.
This is a marketing campaign, which has just saluted the three men for their unique struggle for peace and freedom in the world. We are fully aware that Mahatma Gandhi was a vegetarian and will regret if we have helped to give a different impression."
-Jorn Mikkelsen, Chief Editor
इसमें कोई संदेह नहीं कि Morgenavisen Jyllands Posten अख़बार को विवादों से कोई डर नहीं रहा है, बल्कि विवादास्पद मुद्दों पर बहस कराने में इसकी ख़ास दिलचस्पी रहती है. लेकिन जैसा कि संपादक के जवाब से साफ़ है, अख़बार को गांधीजी के महत्व का अहसास है. रही बात डेनमार्क की, तो वहाँ भारत की अच्छी छवि है. डेनमार्क गांधीजी को जानता है, और राजधानी कोपनहेगेन में एक तिराहे पर गांधीजी की मूर्ति भी स्थापित है.
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2 टिप्पणियां:
हम मकबूल फिदा हुसैन भर को ही देखते हैं; पर दुनियां में ढेरों हैं!
बहुत अच्छी जानकारी मिली। उक्त अखबार का उद्देश्य बहुत पवित्र है किन्तु इस बार उसने अपनी ही छवि पर Bअट्टा लगा लिया - प्रचार के लिये असत्य का सहारा लेकर। 'मचलूल फ़िदा हुस्न' की बात अलग है। उनका कार्य सम्भवत: उद्देश्यहीन है या फ़िर भारत-माता के उपासकों पर अप्रत्यक्ष प्रहार करने का है।
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