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रविवार, नवंबर 23, 2008

अत्यंत जटिल है जलदस्यु समस्या

ग्राफ़िक्स सौजन्य सीबीएसजलदस्यु समस्या सोमालिया के पास ही क्यों?
इसके दो प्रमुख कारण हैं- पहला सोमालिया में किसी प्रभावी सरकार का नहीं होना, और दूसरा सोमालिया से लगे समुद्र से होकर होने वाला विशद समुद्री व्यापार.

पहले कारण की बात करें तो पिछले दो दशकों से सोमालिया में सरकार नाम की कोई चीज़ नहीं है. सोमालिया के अलग-अलग हिस्से अलग-अलग गुटों या गिरोहों के प्रभाव में हैं. अभी सोमालिया की जिस अंतरिम सरकार या Transitional Federal Government (TFG) को संयुक्तराष्ट्र संघ की मान्यता मिली हुई है, वो सच कहें तो राजधानी मोगादिशू पर भी पूरा नियंत्रण करने में नाकाम रही है. TFG को अमरीका की शह पर पड़ोसी देश इथियोपिया की सैनिक मदद मिली हुई है, लेकिन उसके बाद भी वह Union of Islamic Courts का सामना करने में सक्षम नहीं है. चरमपंथियों, मुल्लों और कुछ बड़े व्यवसायिओं के गुट Islamic Courts ने देश के बड़े भाग पर नियंत्रण कर रखा है. इससे अलग हुए एक अतिचरमपंथी धड़े अल-शबाब का भी देश के कुछ हिस्सों पर प्रभावी नियंत्रण है. लेकिन सोमालिया के कई बड़े हिस्से ऐसे हैं जो कि इन तीनों गुटों के नियंत्रण से भी बाहर हैं. इन हिस्सों में जिसकी लाठी उसकी भैंस वाला क़ानून चलता है जो कि करोड़ों डॉलर की नकदी और भारी-भरकरम असलहों से लैस समुद्री लुटेरों के लिए आदर्श स्थिति बनाता है.

बात करें दूसरे कारण की तो अराजक स्थिति वाले सोमालिया से लगते अदन की खाड़ी से होकर दुनिया का 8 प्रतिशत व्यापार होता है. सिर्फ़ तेल की बात करें तो दुनिया के तेल व्यापार का आठवाँ हिस्सा अदन की खाड़ी से होकर गुजरता है. इस आँकड़े में पूर्वी अफ़्रीकी तट से होकर गुजरने वाले मालवाहकों और तेल टैंकरों को भी शामिल कर लें, तो सोमाली समुद्री लुटेरों के पास लूटमार और अगवा करने के असीमित अवसर हैं.

इसके अलावा एक तीसरा महत्वपूर्ण कारण भी है- गृहयुद्ध में फंसे सोमालिया में न तो हथियारों की कमी है, और न ही जान हथेली लेकर चलने वाले लड़ाकों की. पारंपरिक रूप से समुद्र में मछली मार कर आजीविका चलाने वाले सोमाली कबीलों में बड़ी संख्या में ऐसे युवक भी हैं जो कि विकसित देशों के मछुआरों के अपने परंपरागत इलाक़े में नियमित अतिक्रमण के कारण बेरोज़गार हो गए हैं. स्थानीय समुद्र के बारे में पीढ़ियों से संग्रहित पारंपरिक जानकारियों और ख़ुद के अनुभव के कारण ऐसे युवक लुटेरों के किसी गिरोह के लिए ज्ञानेन्द्रियों का काम करते हैं.

लुटेरे बड़े-बड़े पोतों पर आसानी से क़ब्ज़ा कैसे कर लेते हैं?
दरअसल बड़े असैनिक पोतों पर क़ब्ज़ा करना बड़ा ही आसान होता है. उदाहरण के लिए सोमाली जलदस्युओं ने जिस सबसे बड़े पोत पर क़ब्ज़ा किया है वो सउदी अरब का सुपर-टैंकर सीरियस स्टार है. ऐसे सुपर-टैंकर VLCC या Very Large Crude Carriers की श्रेणी में आते हैं. आकार की बात करें तो ये एक विमानवाही पोत से तीन गुना बड़े आकार के होते हैं. लेकिन जब किसी VLCC पर पर्याप्त मात्रा में तेल लदा हो तो उसका डेक पानी से मात्र साढ़े तीन से चार मीटर ऊपर होता है. तेल से लदा एक सुपर-टैंकर बमुश्किल 15 से 20 नॉट प्रति घंटे की रफ़्तार से चलता है, लेकिन लुटेरों की स्पीडबोट इससे कहीं तेज़ी से चलती हैं. ऐसे में 10-20 हथियारबंद लुटेरे बिना किसी समस्या के महापोत के डेक पर पहुँच कर 20-25 की संख्या में मौजूद निहत्थे जहाज़कर्मियों को अपने क़ब्ज़े में लेकर जहाज़ को अगवा कर लेते हैं.

लुटेरों के काम करने के तरीक़े के बारे में कुछ बताएँ?
अभी तक आमतौर पर यही माना जाता है कि लुटेरे किसी ख़ास जहाज़ को निशाना बनाने के बजाय जो हाथ लग गया उसी को अगवा कर लेने की नीति पर चलते हैं. लेकिन अब विशेषज्ञों का मानना है कि सोमाली गिरोहों ने दुबई और जिबूति जैसे मुख्य बंदरगाहों पर अपने जासूस लगा रखे हैं जो उन्हें मालदार लक्ष्यों के बारे में सारी ज़रूरी जानकारी(क्या लदा है, कितने लोग हैं, क्या टाइमिंग है...आदि) अग्रिम मुहैय्या करा देते हैं. इसके अलावा किसी जहाज़ की राह पर इंटरनेट के ज़रिए नज़र रखना या जहाज़ विशेष की स्थिति की जानकारी ट्रांसमीट करने वाले AIS (automatic identification system)के संदेश को पकड़ना भी बिल्कुल आसान हो गया है.

सोमाली समुद्री लुटेराएक बार अपना टार्गेट तय कर लेने के बाद लुटेरे किसी मच्छीमार पोत(आमतौर पर लूटा हुआ पोत) पर मछुआरों की भूमिका में अपने लक्ष्य के आसपास आते हैं. ऐसे मच्छीमार पोत पर वे अपना सारा असलहा और स्पीडबोट भी साथ लेकर चलते हैं. इसके बाद क्लाशनिकोफ़ राइफ़लों और ग्रेनेड लॉन्चरों(RPGs) से लैस लुटेरे अचानक तीन-चार स्पीड बोटों में लद कर लक्षित जहाज़ को चारों तरफ़ से घेर लेते हैं. जिस जहाज़ पर हमला किया गया उस पर लुटेरों को भगाने की कोई व्यवस्था नहीं होती है. ज़्यादा-से-ज़्यादा वे पानी की बौछार के ज़रिए लुटेरों को डेक पर आने से रोकने की नाकाम कोशिश भर ही की जाती है. दो हफ़्ते पहले एक निजी सुरक्षा कंपनी के जवानों ने पानी की बौछार के बजाय Magnetic Audio Devices के ज़रिए असहनीय शोर मचा कर कथित रूप से लुटेरों को भगाने का प्रदर्शन ज़रूर किया है, लेकिन समुद्री सुरक्षा विशेषज्ञों का मानना है ऐसे उपकरण लुटेरों के ख़िलाफ़ गारंटी बिल्कुल नहीं बन सकते हैं.

आँकड़ों की बात करें तो इस साल सोमाली लुटेरों ने कम-से-कम 90 जहाज़ों पर हमले किए हैं. इनमें से 39 जहाज़ों को अगवा किया गया. कुल 500 से ज़्यादा जहाज़कर्मियों को बंधक बनाया गया. फ़िरौती में मोटी रकम लेने के बाद ही जहाजों और उनके कर्मचारियों को छोड़ा गया. कीनिया के विदेश मंत्री ने कहा है कि लुटेरे इस साल 15 करोड़ डॉलर फ़िरौती में वसूल भी चुके हैं. इस समय भी सउदी सुपर-टैंकर समेत 15 जहाज़ और उनके 250 से ज़्यादा कर्मचारी लुटेरों की गिरफ़्त में फंसे हुए हैं. उल्लेखनीय है कि अभी तक एक भी बंधक को नुक़सान नहीं पहुँचाया गया है. हाँ ब्रितानी, फ़्रांसीसी और भारतीय नौसेना की कार्रवाइयों में कुछ लुटेरों के मारे जाने की ख़बरें ज़रूर प्रसारित की गई हैं.

शिपिंग कंपनियाँ अपने जहाज़ों और उस पर मौजूद कर्मचारियों की सुरक्षा की व्यवस्था क्यों नहीं करतीं?
एक तो जहाज़ और उस पर लदे माल का बीमा होने के कारण शिपिंग कंपनियों को सुरक्षा पर ध्यान देने की ज़्यादा ज़रूरत नहीं होती. उन्हें लगता है कभी-कभार एकाध मामले में फ़िरौती देनी पड़ भी गई तो क्या है! दूसरी बात ये कि शिपिंग कंपनियाँ जहाज़ों पर मील-दो मील तक नज़र रखने वाले CCTV कैमरे, हमला होते ही कंपनी मुख्यालय में ख़तरे की घंटी बजा देने वाले उपकरण या ज़्यादा-से-ज़्यादा जहाज़ के पीछे के कुछ किलोमीटर के इलाक़े पर भी नज़र रखने वाले रडार उपकरण लगवा सकते हैं. अव्वल इनसे सचमुच के मच्छीमार पोत और लुटेरों के मदर-शिप में अंतर कर पाना ही हमेशा संभव नहीं होगा, और यदि लुटेरों की गतिविधियाँ पता चल भी गईं तो उन्हें जहाज़ पर क़ब्ज़े करने से रोकना असंभव ही होगा.ग्राफ़िक्स सौजन्य बीबीसी
जहाज़ पर तैनात कर्मचारियों को हथियारबंद करने का पहले तो प्रावधान नहीं है(क्योंकि एक व्यापारिक जहाज़ अलग-अलग देशों की सीमा से होकर गुजरता है) और यदि मान लीजिए चार-पाँच सुरक्षा गार्ड तैनात कर दिए तो भी लुटेरों के मशीनगनों और रॉकेट लॉन्चरों के मुक़ाबले जब तक उन्हें तोप और हेलीकॉप्टर गनशिप जैसे साज़ोसमान नहीं दिए जाते हैं, बेचारे सुरक्षा गार्ड मुफ़्त में मारे जाएँगे!

अंतरराष्ट्रीय समुदाय मिलजुल कर कुछ क्यों नहीं करता, क्योंकि लुटेरों ने अंतरराष्ट्रीय व्यापार को भी तो बाधित कर रखा है?
अंतरराष्ट्रीय समुदाय सचमुच में चिंतित है- ख़ास कर भारत, रूस, ब्रिटेन और अमरीका जैसे देशों की चिंता बहुत ज़्यादा है. या तो बड़ी मात्रा में इनका व्यापार अदन की खाड़ी से होकर चलता है, या इनके नागरिक शिपिंग के क्षेत्र में बड़ी संख्या में नौकरियों में हैं- ख़ास कर जहाज़ों पर. मुश्किल ये है कि आप सोमालिया की समुद्री सीमा में जाकर लुटेरों की मार-कुटाई करना चाहें तो सोमालिया में भले ही दशकों से सरकारविहीन अराजकता हो, अंतरराष्ट्री क़ानून किसी दूसरे देश को उसकी जलसीमा में घुस कर बेरोकटोक कार्रवाई करने की अनुमति नहीं देता. अंतत: 2 जून 2008 को पारित सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव संख्या 1816 में अपने जहाज़ों या अपने व्यापार के हक़ में देशों को सोमालिया की जलसीमा में जाने की अनुमति ज़रूर दी गई है, लेकिन उसके साथ बहुत सारे किंतु-परंतु लगे हुए हैं. आप ख़ुद देखें प्रस्ताव का एक हिस्सा-
Acting under Chapter VII of the Charter of the United Nations, the Security Council,
7. Decides that for a period of six months from the date of this resolution, States cooperating with the TFG in the fight against piracy and armed robbery at sea off the coast of Somalia, for which advance notification has been provided by the TFG to the Secretary-General, may:
(a)Enter the territorial waters of Somalia for the purpose of repressing acts of piracy and armed robbery at sea, in a manner consistent with such action permitted on the high seas with respect to piracy under relevant international law; and
(b)Use, within the territorial waters of Somalia, in a manner consistent with action permitted on the high seas with respect to piracy under relevant international law, all necessary means to repress acts of piracy and armed robbery;
8. Requests that cooperating states take appropriate steps to ensure that the activities they undertake pursuant to the authorization in paragraph 7 do not have
the practical effect of denying or impairing the right of innocent passage to the ships of any third State;

इस बारे में सुरक्षा परिषद ने 7 अक्तूबर 2008 को एक और प्रस्ताव(संख्या 1836) पारित किया है, जिसमें कहा गया है- The Security Council calls upon States interested in the security of maritime activities to take part actively in the fight against piracy on the high seas off the coast of Somalia, in particular by deploying naval vessels and military aircraft, in accordance with international law, as reflected in the Convention;

लेकिन इन प्रस्तावों के बाद भी इस समस्या से पार पाना मुश्किल ही लगता है. भारत ने भले ही लुटेरों के एक मदरशिप को डुबोने सफलता हासिल की हो, लेकिन सच कहा जाए तो सोमाली लुटेरों से पार पाना अकेले भारतीय नौसेना के बूते की बात नहीं है. ऐसा विश्वास के साथ इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि अमरीका ने पहले अपने हाथ खड़े कर रखे हैं कि अकेले दम पर वह भी इस समस्या से नहीं निपट सकता है.

मौजूदा अंतरराष्ट्रीय क़ानून भारत या अमरीका की नौसेना को किसी तीसरे देश के नागरिकों को छुड़ाने के लिए किसी अन्य देश के जहाज़ पर कार्रवाई करने की अनुमति नहीं है. यहाँ तक कि यदि लुटेरे उन पर सीधे हमला नहीं कर रहे हों तो इन तीसरे पक्ष की सेनाओं को लुटेरों को मार गिराने का भी अधिकार नहीं है. सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव संख्या 1816 ने भले ही सोमालिया की अंतरिम सरकार की स्वीकृति के साथ शुरुआती छह महीनों के लिए विदेशी नौसेनाओं को सोमाली जलसीमा में जाने की इजाज़त दे दी है, लेकिन सोमालिया के भीतर जाकर ज़मीनी कार्रवाई करने की अनुमति तो फिर भी नहीं दी गई है. ऐसी अनुमति मिले बिना इस समय सक्रिय सोमालिया के क़रीब 1000 समुद्री लुटेरों को पूरी तरह निष्क्रिय करना लगभग असंभव ही होगा.

एक और अनुत्तरित सवाल ये है कि यदि अंतरराष्ट्रीय कार्रवाई में लुटेरे पकड़े जाते हैं तो उनका क्या किया जाएगा? क्योंकि सोमाली लुटेरों को सोमालिया की नाम भर की सरकार को सौंपा गया तो उन्हें बिना किसी मान्य न्यायिक प्रक्रिया से गुजारे सीधे मार डाले जाने की आशंका रहेगी. पकड़े गए लुटेरों के लिए अंतरराष्ट्रीय युद्धापराध न्यायालय जैसी कोई व्यवस्था भी नहीं है. न ही उनके लिए ग्वान्तानामो जैसी कोई जगह निश्चिंत की गई है. जिस देश की नौसेना सोमाली लुटेरों को समुद्र में पकड़ती है वो अपने देश के न्यायालय में भी नहीं ले जा सकता क्योंकि न तो उस देश का क़ानून इसकी इजाज़त देगा और न ही अंतरराष्ट्रीय संधियों में ऐसी कोई व्यवस्था है.

मलक्का जलडमरुमध्य और पूर्वी एशिया में जलदस्यु समस्या पर क्या क़ाबू नहीं पा लिया गया है?
हाँ, क़ाबू पा लिया गया है ऐसा कहा जा सकता है क्योंकि इस साल उस इलाक़े से इक्का-दुक्का घटनाओं की ही सूचनाएँ आई हैं. वहाँ इंडोनेशिया, सिंगापुर और मलेशिया की सरकारों ने मिलजुल कर(चीन सरकार के आशीर्वाद के साथ, क्योंकि उस मार्ग से होकर उसका खरबों डॉलर का व्यापार होता है) व्यापारिक जहाज़ों को सुरक्षा कवच मुहैय्या कराया. यहाँ जलदस्यु समस्या से प्रभावति मार्ग अपेक्षाकृत बहुत छोटा है. संकरा होने के कारण इस पर निगरानी भी आसान है. इन सबसे भी महत्वपूर्ण बात ये है कि इस इलाक़े के लुटेरों के पास सोमालिया जैसा अराजक आधार शिविर भी उपलब्ध नहीं है, कि भाग कर वे वहाँ शरण ले लें. साथ ही जिन सरकारों ने इस जलमार्ग की सुरक्षा की ज़िम्मेवारी उठाई है, उनसे अंतरराष्ट्रीय क़ानून के अक्षरश: पालन की ज़्यादा अपेक्षा भी नहीं की जा सकती है.

इसकी तुलना में सोमाली लुटेरों की बात करें तो न सिर्फ़ अदन की खाड़ी, बल्कि हिंद महासागर के एक तिहाई हिस्से में वो जहाज़ों पर हमले कर चुके हैं. सउदी सुपर-टैंकर का उदाहरण ही देखें तो उस पर कीनिया तट से 450 मील दूर जाकर क़ब्ज़ा किया गया. इन लुटेरों से सीधे टकराव की नीति अपनाई गई तो डर ये है कि वे न सिर्फ़ ख़ून-ख़राबे पर उतर सकते हैं बल्कि पर्यावरणीय विभीषिका भी ला सकते हैं. कल्पना कीजिए यदि लाखों बैरल तेल से लदे सुपर-टैंकर में आग लगा दी जाती है, या सारा तेल समुद्र में बहा दिया जाता है!?

लेकिन हाथ-पर-हाथ धरे बैठा भी तो नहीं जा सकता?
इस समस्या का दीर्घावधि का एकमात्र समाधान है सोमालिया में एक मज़बूत सरकार की स्थापना. उदाहरण के लिए दो साल पहले जब वहाँ इस्लामी कोर्ट्स ने शासन पर पकड़ मज़बूत की थी तो जलदस्यु गिरोह बहुत दिनों तक सुसुप्तावस्था में जाने पर मजबूर हो गए थे. मुश्किल ये है कि सोमालिया में एक मज़बूत सरकार स्थापित करने के ईमानदार अंतरराष्ट्रीय प्रयास आज शुरू किए जाएँ, तो सार्थक परिणाम मिलने में पाँच से दस साल तक लग सकते हैं.

तब तक एक अंतरराष्ट्रीय नौसैनिक गश्ती दस्ता बनाया जा सकता है, जिसकी बात अब खुल कर की भी जाने लगी है. ऐसा होने तक फ़ारस की खाड़ी और हिंद महासागर में सक्रिय नौसेनाओं वाले देश जहाजों को समूह में अदन की खाड़ी से पार कराने की ज़िम्मेवारी बारी-बारी से उठाएँ, जैसा कि पिछले दिनों रूस ने किया है.

इसके अतिरिक्त अदन की खाड़ी के दूसरे किनारे के देश यमन की भी मदद करने की ज़रूरत होगी. अभी जलदस्युओं से खदबदाते अपने 1100 मील लंबे तट पर पेट्रोलिंग के लिए उसके पास मात्र नौ गश्ती जहाज़ हैं.

एक तात्कालिक विकल्प की घोषणा की है सबसे बड़ी शिपिंग कंपनियों में से एक एपी-मोलर-मेर्स्क ने. उसने कहा है कि अदन की खाड़ी में स्थिति सुधरने तक वह अपने बड़े जहाज़ों को अफ़्रीका का चक्कर लगा कर आगे की यात्रा पर भेजेगा. लेकिन यहाँ याद रहे कि अफ़्रीकी महाद्वीप का चक्कर काट कर माल यूरोप या अमरीका पहुँचाने में 10 से 14 दिन की देरी होगी. और हर दिन की यात्रा पर शिपिंग कंपनियों को 30 से 40 हज़ार डॉलर का अतिरिक्त ख़र्चा उठाना पड़ेगा. ज़ाहिर है इस अतिरिक्त परेशानी और ख़र्चे का असर अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर और अंतत: उपभोक्ताओं की जेब पर पड़ेगा!

रविवार, मार्च 30, 2008

एक बुशल गेहूँ, एक बुशल टमाटर

बुशल टोकरीख़बरों की दुनिया में घूमते हुए कई ऐसी चीज़ें सामने आती हैं, जिन्हें विस्तार से जानने की या तो ज़रूरत नहीं होती या फिर ज़रूरत होने पर भी उन्हें नज़रअंदाज़ किया जाता है. इकाइयों या यूनिट्स के मामले में भी ऐसा ही होता है. लेकिन आम प्रचलन में ऐसी कई इकाइयाँ हैं जिनके बारे में जिज्ञासा रखने पर बड़ी ही रोचक जानकारियाँ मिलती हैं. कुछ महीनों पहले मेरी नज़र से ऐसी एक इकाई गुजरी थी- तोरिनो. इसके बारे में विस्तार से जानने का अनुभव रोमाँचक रहा था.

पिछले दिनों गेहूँ की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बढ़ती क़ीमत के बारे में एक ख़बर पढ़-सुन रहा था. पता चला कि पश्चिमी देशों में उत्पादक के स्तर पर गेहूँ के व्यापार में किलोग्राम या क्विंटल या टन नहीं बल्कि बुशल(Bushel) नामक इकाई प्रयुक्त की जाती है. (ठीक उसी तरह जैसे तेल के अंतरराष्ट्रीय व्यापार में लीटर-किलोलीटर नहीं बल्कि गैलन-बैरल का इस्तेमाल होता है.) सच कहें तो न सिर्फ़ गेहूँ बल्कि बाक़ी खाद्यान्नों, फलों आदि के लिए भी बुशल का ही उपयोग किया जाता है. बुशल दरअसल एक निश्चित आकार की टोकरी होती है(अमरीका में 64 पाइंट, जबकि ब्रिटेन में 8 गैलन आयतन के बराबर) जिसे किसी सूखे कृषि उत्पाद से भर कर उस उत्पाद की एक व्यापारिक इकाई तय की जाती है. मतलब हर उत्पाद के लिए एक बुशल का मतलब अलग-अलग होगा. उदाहरण के लिए अमरीका में एक बुशल गेहूँ या सोयाबीन का वज़न 60 पाउंड निश्चित किया गया है, जबकि एक बुशल में 48 पाउंड सेब और 53 पाउंड टमाटर आते हैं.

टीईयू

इसी तरह साइंटिफ़िक अमेरिकन के अप्रैल 2008 अंक में परमाणु तस्करी के ख़तरों के बारे में एक लेख पढ़ते हुए बार-बार TEU नामक इकाई सामने आई. ये दरअसल ग्लोबलाइज़ेशन को आसान बनाने वाली एक प्रमुख चीज़ कंटेनर से जुड़ी हुई है. जैसा कि सर्वविदित है, आज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ग़ैरपेट्रोलियम पदार्थों का ज़्यादातर व्यापार कंटेनरों में होता है. लेकिन व्यापार बढ़ने के साथ-साथ कंटेनर भी अलग-अलग आकार में आने लगे हैं. लेकिन हिसाब-क़िताब की सहूलियत के चलते इस मामले में भी एक मानक तय किया गया है- TEU या Twenty-foot Equivalent Unit. यानि सबसे ज़्यादा प्रचलित 20 फ़ुट लंबे कंटेनर को मानक माना गया है. साइंटिफ़िक अमेरिकन के लेख से ही उदाहरण लें तो वर्ष 2007 में दुनिया भर में जहाज़ों के ज़रिए लगभग 30 करोड़ TEUs ढोए गए. और यदि एक व्यस्त बंदरगाह की बात करें तो न्यूयॉर्क और न्यूजर्सी बंदरगाह पर प्रतिदिन औसत 10 हज़ार TEUs की आमद होती है.

यूटीसी/जीएमटी

यूनिटों की बात को आगे बढ़ाएँ तो अंतरराष्ट्रीय मानक समय को UTC(Universal Time Coordinated या Coordinated Universal Time) कहा जाने लगा है. हालाँकि गणना के तरीके की महीनियों पर नहीं जाएँ तो UTC और GMT(Greenwich Mean Time) के बीच व्यावहारिक स्तर पर कोई अंतर नहीं है. दिलचस्प बात ये है कि यूटीसी की देखरेख पेरिस से होती है, जबकि जीएमटी को लंदन स्थित ग्रीनिच से सँभाला जाता है.

सेंटीग्रेड/सेल्सियस

इसी तरह तापमान की सर्वमान्य इकाई को 'डिग्री सेंटीग्रेड' की जगह 'सेल्सियस' कहा जाने लगा है. बारीकियों पर ध्यान नहीं दें तो व्यावहारिक तौर पर दोनों हैं लगभग एक समान ही. इकाई के रूप में 'सेंटीग्रेड' के 'ग्रेड' का सौवाँ हिस्सा होने का भ्रम बनता है, जबकि 'ग्रेड' तो कोण की इकाई होती है. सेल्सियस इकाई की व्यवस्था के ज़रिए तापमानों को लेकर व्यापक शोध करने वाले Anders Celsius नामक स्वीडिश वैज्ञानिक को सम्मानित भी किया गया है. ध्यान रहे कि अधिकतर बड़े मीडिया संस्थानों ने सेल्सियस से पहले 'डिग्री' शब्द लगाने की बाध्यता ख़त्म कर दी है.

मंगलवार, सितंबर 26, 2006

कचराकृति बनी कलाकार की पहचान

बाज़ारवाद के इस युग में कुछ भी बेचा जा सकता है. यहाँ तक कि कूड़ा-कर्कट भी बिकता है. आप कहेंगे कि इसमें कोई असामान्य बात नहीं, क्योंकि पढ़े-लिखे खाते-पीते लोगों का रिसाइक्लिंग पर बड़ा ज़ोर है. लेकिन कोई व्यक्ति कूड़े को कला के रूप में बेच कर मालामाल हो रहा हो, तो थोड़ी अचरज तो होगी ही.

कूड़े को कलाकृति के रूप में बेचने वाले ये सज्जन हैं- जस्टिन गिगनैक. भारत में भी फेंकी गई बोतलों, ढक्कनों, स्ट्रॉ आदि से कलाकृतियाँ बनाई जाती हैं, और आमतौर पर ऐसा शौकिया तौर पर किया जाता है. लेकिन जस्टिन की बाक़ायदा वेबसाइट है कचराकृति बेचने के लिए. ये न्यूयॉर्क के कचरे को अपनी वेबसाइट के ज़रिए दुनिया भर के लोगों को बेचते हैं. कभी-कभार न्यूयॉर्क की सड़कों पर भी दुकान सजा लेते हैं.

जस्टिन की कचराकृति के रूप में कूड़े के एक छोटे से पैकेट की क़ीमत 10 से 100 डॉलर के बीच कुछ भी हो सकती है. अब तक 800 से ज़्यादा पैकेट बिक भी चुके हैं. दो तरह की दर है: आम दिनों के कचरे अपेक्षाकृत सस्ते में, जबकि विशेष जगह या दिन वाले कचरे 100 डॉलर प्रति पैकेट के हिसाब से. महंगे कचरे के पैकेटों में से एक है इस साल 'यांकी स्टेडियम ओपनिंग डे' के विशेष अवसर पर उठाया गया कूड़ा. विश्वास नहीं हो तो इस पेज पर ख़ुद ऑर्डर करके देखें.

जस्टिन को ये सुनना पसंद नहीं कि वो कचरा बेच रहे हैं. उन्हें लगता है ऐसा कहने वाले उनकी कला का अनादर कर रहे हैं. मतलब, न्यूयॉर्क के स्कूल ऑफ़ विज़ुअल आर्ट का ग्रेजुएट जस्टिन कचराकृति बेच रहा है, कचरा नहीं! उनका कहना है कि एक विज्ञापन एजेंसी में आर्ट डाइरेक्टर की नौकरी से उनकी दाल-रोटी चल जाती है, इसलिए लोगों को समझना चाहिए किसी विशेष उद्देश्य से ही वो कचरे का धंधा कर रहे हैं.

जस्टिन के काम करने का बिल्कुल आसान तरीका है: न्यूयॉर्क की सड़कों पर से कुछ डिब्बे, कनस्तर, बोतल, गिलास, चम्मच, टिकट, रद्दी आदि चुनना और उसे एक पारदर्शी क्यूब में पैक कर देना. इसके बाद प्लास्टिक के घनाकार पैकेट पर वो अपना हस्ताक्षर करते हैं और पैकेट की सील पर कचरे के पैदाइश की तिथि डालते हैं, यानि वो दिन जिस दिन उन्होंने कचरे को कलाकृति का रूप देने के लिए सड़क से उठाया था.

आप कहेंगे कौन पागल ख़रीदेगा पैकेट में रखा गया बिल्कुल असल का कचरा. तो भैया, मुगालते में नहीं रहिए. जस्टिन की वेबसाइट पर जाकर तो देखिए. आज की तारीख़ में अमरीका के 41 राज्यों और दुनिया के 20 देशों में उनकी कचराकृति पहुँच चुकी है.

जस्टिन का कचरा खरीदने पर आपको उनकी तरफ़ से गारंटी मिलती है कि पैकेट पर तो तिथि अंकित है कचरा ठीक उसी दिन का है. लोगों का भरोसा जीतने के लिए उनका एक और दावा है कि उनके कचरे असल के कचरे हैं, ये नहीं कि पैसे कमाने के लिए दुकान से सस्ती चीज़ें खरीद कर पैक कर दिया हो. उनका कहना है कि जब न्यूयॉर्क के लोग प्रतिदिन कोई एक करोड़ किलोग्राम कचरा रोज़ फेंकते हों, तो कचरे के नाम पर बाज़ार से ख़रीद कर चीज़ें बेचना सरासर धोखाधड़ी होगी.

जस्टिन की कचराकृति के ख़रीदारों में ज़मीन से जुड़ी चीज़ों की चाहत रखने वाले आमजनों से लेकर बड़े-बड़े कला-पारखी तक हर वर्ग के लोग हैं. सवाल ये है कि जस्टिन ने कलाकार बनने की शिक्षा पूरी की है, तो भला वे कूड़ा बेचने के धंधे में कैसे आए? इसके जवाब में इस कचराकार का कहना है कि एमटीवी में इंटर्नशिप के दौरान वो पैकेजिंग के महत्व पर एक बहस में शामिल थे. बहस में इन्होंने पैकेजिंग को बड़ी अहमियत दी, तो किसी ने इन्हें चुनौती दे डाली. ऐसे में इनके पास अपनी बात को सही साबित करने का एक ही उपाय था- पैकेजिंग के बल पर कचरा बेच कर दिखाओ.

इस तरह एक कलाकार बन गया कचराकार...आगे कोई बड़ा उद्योगपति बन जाए तो कोई आश्चर्य नहीं. जस्टिन ने एक कंपनी रजिस्टर्ड करा ली है और अपनी गर्लफ्रैंड को कंपनी के उपाध्यक्ष के रूप में नौकरी भी दे दी है. जस्टिन को लंदन और बर्लिन में फ़्रेंचाइज़ के लिए प्रस्ताव मिल चुके हैं. हालाँकि, दूसरे शहरों में मौजूदा व्यापार फैलाने से पहले वो 'ट्रैश-वॉलहैंगिंग' यानि कमरे की दीवार पर टाँगी जाने वाली कचराकृति बेचने की शुरूआत करना चाहते हैं.

रविवार, अगस्त 27, 2006

आया ज़माना 'उत्पभोक्ता' का

प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हो रहे नित नए विकास के कारण प्रोड्यूसर(उत्पादक) और कंज़्यूमर(उपभोक्ता) का मेल हो रहा है, और जन्म हो रहा है 'प्रोज़्यूमर' का. प्रोज़्यूमर जिसे हिंदी में 'उत्पभोक्ता' कहा जा सकता है. यह सिद्धांत एल्विन टोफ़लर का है.

एल्विन टोफ़लर 77 साल के भविष्यद्रष्टा हैं. कोई ज्योतिषी नहीं बल्कि बिल्कुल शाब्दिक अर्थों में 'भविष्यद्रष्टा' हैं. भविष्य की परिकल्पना करने को उन्होंने अपना पेशा बना रखा है. अपनी पत्नी हेइडि के साथ मिल कर वह भविष्य की दुनिया और समाज के बारे में कई किताबें लिख चुके हैं. अभी हाल ही में उनकी नई किताब आई है- रिवोल्युशनरि वेल्थ. इससे पहले की उनकी किताबों में 'फ़्यूचर शॉक' और 'द थर्ड वेव' बहुत ज़्यादा चर्चित रही हैं.

पिछले सप्ताह फ़ाइनेंशियल टाइम्स अख़बार ने उनका विस्तृत साक्षात्कार छापा है. इस साक्षात्कार में टोफ़लर ने भविष्य के समाज की भविष्यवाणी करते हुए प्रोज़्यूमर या उत्पभोक्ता के युग के आगमन की बात की है. उत्पभोक्ता का उदाहरण देते हुए वह बुज़ुर्गों की बढ़ती हुई आबादी की बात करते हैं- "वो दिन दूर नहीं जब दुनिया में साठ साल से ज़्यादा उम्र के लोगों की आबादी एक अरब को पार कर जाएगी. वे नई प्रौद्योगिकी प्रदत्त उपकरणों के ज़रिए अपनी बीमारी का पता करने से लेकर नैनोटेक्नोलॉजि आधारित उपचार तक, वो सब काम कर रहे होंगे जो कि आज एक डॉक्टर का काम माना जाता है. इससे 'हेल्थ-सेक्टर' के कामकाज़ का तरीक़ा पूरी तरह बदल जाएगा." टोफ़लर अपने इस उदाहरण को और ज़्यादा फैलाते हुए बताते हैं कि धनरहित अर्थव्यवस्था वाला बुज़ुर्गों का समाज भविष्य में चिकित्सा प्रौद्योगिकी के बाज़ार को बहुत तेज़ी से आगे बढ़ाएगा, और इस क्रम में कुछ लोग भारी मात्रा में पैसा बनाएँगे.

एल्विन टोफ़लर कहते हैं कि प्रोज़्यूमिंग या उत्पभोग कई मामलों में आउटसोर्सिंग को नया अर्थ देता है. इस प्रकार की आउटसोर्सिंग में काम सस्ते दर पर भारत या फ़िलिपींस की कोई कंपनी नहीं करा रही होती है, बल्कि उपभोक्ता ख़ुद मुफ़्त में काम कर रहा होता है. इस प्रक्रिया के उदाहरण में वो बैंक टेलर काउंटरों की जगह एटीएम मशीनों के इस्तेमाल के चलन का उल्लेख करते हैं.

अर्थव्यवस्था के भावी स्वरूप की चर्चा करते हुए टोफ़लर एक चौंकाने वाली घोषणा करते हैं- 'प्रोज़्यूमर युग में धन का एक बड़ा स्रोत का धरती से 12,000 मील ऊपर टिका हुआ है'. वह कहते हैं- "ग्लोबल पोज़ीशनिंग उपग्रह आज मोबाइल फ़ोन से लेकर एटीएम मशीनों तक अनेक प्रक्रियाओं में 'टाइम और डाटा स्ट्रीम' को परस्पर संतुलित रखने के लिए ज़िम्मेदार हैं. एयर ट्रैफ़िक कंट्रोल के भी केंद्र में जीपीएस ही है. मौसम की सटीक भविष्यवाणी के ज़रिए उपग्रह कृषि उत्पादकता बढ़ाने के लिए भी ज़िम्मेदार हैं." ऐसे में जब टोफ़लर कहते हैं कि 'Wealth today is created everywhere(globalisation), nowhere(cyberspace) and out there(outer space)', तो उनकी बात में दम लगता है.

'मास्टर थिंकर' माने जाने वाले टोफ़लर के अनुसार आर्थिक व्यवस्था के विविध रूप सामने आते जाने का प्रभाव हमारे व्यक्तिगत जीवन पर भी पड़ रहा है. वह कहते हैं, "परिवार ख़त्म नहीं होगा, लेकिन पारिवारिक व्यवस्था के नए रूपों का उदय ज़रूर होगा. समलैंगिकों की शादी को स्वीकृति मिलती जा रही है. अकेली माताओं, अविवाहित युगलों, बिना बाल-बच्चे वाले विवाहित जोड़ों और कई-कई शादियाँ कर चुके माता-पिता हर समाज में देखे जा रहे हैं. एक साथी के साथ ज़िंदगी गुजारने का चलन भले ही ख़त्म नहीं हो, लेकिन एकाधिक साथियों के साथ संबंध को व्यापक स्वीकृति मिलने लगेगी."

टोफ़लर का कहना है कि कामकाज़ में मानकीकरण की ज़रूरत कम होते जाने के साथ ही ज़्यादा-से-ज़्यादा लोग अपनी इच्छा के अनुसार(customised time में) काम करेंगे. उत्पभोक्ता नौकरी या करियर के बज़ाय 'creative piece work' में लगे रहेंगे. ज़्यादा-से ज़्यादा कामकाज़ कारखाने या दफ़्तर के बज़ाय घर में होगा.

इतने परिवर्तन से समाज में उथलपुथल नहीं मच जाएगी क्योंकि हर समाज में एक बड़ी संख्या यथास्थितिवादियों की होती है? इस सवाल के जवाब में टोफ़लर का कहना है कि पूरी दुनिया में जगह-जगह wave conflict या 'धारा संघर्ष' शुरू हो जाएगा. इस संबंध में वो पिछले दिनों मेक्सिको में हुए चुनाव का ज़िक्र करते हैं जहाँ दो पक्षों के बीच लगभग 50-50 प्रतिशत मत बँटे. पहले पक्ष के साथ थे 'पहली धारा' के दक्षिणी हिस्से के किसान और 'दूसरी धारा' के शहरी श्रमिक संघ, जबकि दूसरे पक्ष में थे 'तीसरी धारा' के उत्तरी हिस्से के संपन्न लोग जिन्हें क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग संधि नाफ़्टा और भूमंडलीकरण का ज़्यादा फ़ायदा मिला है. टोफ़लर की मानें तो चीन, ब्राज़ील और कई अन्य देशों में भी इस तरह के शक्ति परीक्षण की आशंका बढ़ गई है.

अमरीका में विभिन्न संस्थाओं और संस्थानों को वो पुराने और नए के बीच clash of speeds या 'गति के संघर्ष' में फंस गया मानते हैं. टोफ़लर के अनुसार यदि कल्पना करें कि अमरीकी व्यवसाय जगत 100 मील प्रति घंटे की रफ़्तार से चल रहा है, तो भविष्य के लिए युवाओं को तैयार करने की ज़िम्मेदारी उठाने वाले शिक्षण संस्थान मात्र 10 मील प्रति घंटे की रफ़्तार से आगे बढ़ रहे हैं. निराश स्वर में उन्होंने कहा- "इस क़दर 'डिसिन्क्रोनाइज़ेशन' के रहते आप एक सफल अर्थव्यवस्था नहीं पा सकते." जापान को भी वह इसी कसौटी पर पिछड़ता जा रहा मानते हैं. अंतरराष्ट्रीय राजनीति की बात करें तो 'प्रीमाडर्न इस्लाम' और 'पोस्टमाडर्न उपभोक्ताओं' के बीच टोफ़लर को इसी तरह का डिसिन्क्रोनाइज़ेशन दिखता है.

'फ़ाइनेंशियल टाइम्स' के इंटरव्यू के अंतिम हिस्से में टोफ़लर से पूछा गया कि उनकी भविष्यवाणियाँ ग़लत भी साबित हुई हैं, तो उन्होंने ईमानदारी से कई ग़लत निकली भविष्यवाणियों की चर्चा की- "हमने मानव और पशु क्लोनिंग की 1970 के दशक में चर्चा करते हुए कहा था कि 1980 के दशक के मध्य तक ये आम वास्तविकता बन जाएगी. हमने विज्ञान की धीमी गति को नज़रअंदाज़ कर दिया था. इस संबंध में हमने नैतिक सवालों की बात की थी, लेकिन हमने विज्ञान-विरोधी ईसाई दक्षिणपंथियों की ताक़त का अंदाज़ा नहीं लगाया था,...इसी तरह काग़ज़रहित ऑफ़िस की हमारी भविष्यवाणी भी अब तक वास्तविकता नहीं बन पाई है."

शनिवार, मार्च 11, 2006

इकोनोमिस्ट का बेसुरा राग

लंदन से प्रकाशित साप्ताहिक इकोनोमिस्ट ने जैसे भारत-अमरीका परमाणु समझौते को पटरी से उतारने के लिए एड़ी-चोटी एक करने की ठान ली है. बुश की यात्रा से पहले अपने संपादकीय में इसने अमरीकी राष्ट्रपति को आगाह किया कि भारत को परमाणु सौगात देना उनकी नासमझी होगी. और एक पखवाड़े की भीतर इसी मुद्दे पर दूसरी कवर स्टोरी करते हुए इसने अमरीकी संसद को सलाह दी है कि वो समझौते को नकार कर बुश को अँगूठा दिखा दे.

(इकोनोमिस्ट की नैतिकता का ढोंग मात्र एक तथ्य से स्पष्ट हो जाता है कि इसने इराक़ पर हमले के बुश के फ़ैसले के समर्थन में कई पृष्ठों का संपादकीय लिखा था, ये जानते हुए भी कि हमला सारे अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों के ख़िलाफ़ तथा संयुक्त राष्ट्र और विश्व जनमत को ठेंगा दिखाते हुए हो रहा है.)

अच्छा है कि अमरीकी राष्ट्रपति न्यूयॉर्क टाइम्स या इकोनोमिस्ट जैसे प्रकाशनों के विद्वान संपादकों की नहीं, बल्कि दशकों आगे की सामरिक परिस्थिति पर नज़र रखने वाले रणनीतिक सलाहकारों की सुनते हैं. साथ ही, ताज़ा समझौते का एक पहलू शुद्ध धंधे का भी है क्योंकि परमाणु साजोसमान की आपूर्ति करने वाली कंपनियों में सबसे ज़्यादा अमरीकी कंपनियाँ हैं.

ताज़ा संपादकीय में इकोनोमिस्ट ने डॉ. स्ट्रैंजडील कह कर बुश की खिल्ली उड़ाई है और इशारों ही इशारों में कहा है कि भारतीय परमाणु संयंत्रों को प्लूटोनियम और यूरेनियम ईंधन के बिना तड़प-तड़प कर मरने के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए. इकोनोमिस्ट के विद्वानों ने सवा पेज के संपादकीय में इस बात का ज़िक्र तक नहीं किया है कि रॉकेट गति से आगे भागती भारतीय अर्थव्यवस्था को भारी मात्रा में बिजली की ज़रूरत है.

भगवान की दया से भारत में अगले सौ वर्षों के लिए पर्याप्त कोयला भंडार है, लेकिन यदि हमें साफ-सुथरी परमाणु बिजली जुटाने में मदद नहीं दी जाती है तो थर्मल पावर स्टेशनों से निकलने वाली ग्रीनहाउस गैसों से होने वाला नुक़सान भारत तक ही सीमित नहीं रहेगा, बल्कि उससे पूरी दुनिया की जलवायु प्रभावित होगी. फ़्रांस के राष्ट्रपति ज्याक शिराक़ ने पिछले महीने अपनी भारत यात्रा के ठीक पहले एक बेबाक बयान में भारत की इस चिंता को सही स्वर दिया था- "यदि हम भारत को परमाणु बिजली पैदा करने में मदद नहीं देते हैं तो यह देश ग्रीनहाउस गैसों की चिमनी में तब्दील हो जाएगा."

इकोनोमिस्ट का बेसुरा अलाप निंदनीय तो है ही, दुख की बात है कि इसके सुर में सुर मिलाने के लिए भारत के वामपंथी और दक्षिणपंथी दोनों तैयार बैठे हैं. मौजूदा भारत-अमरीका संबंध अमरीका-इसराइल या अमरीका-ब्रिटेन जैसी पक्की दोस्ती की नींव बनता है तो इसमें नुक़सान क्या है? क्या इसराइल या ब्रिटेन को अमरीका की दोस्ती के एवज़ में अपने हितों को ताक पर रखना पड़ा है?

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