आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में अमरीका ने कई मान्य परंपराओं और सिद्धांतों को ताक पर रख दिया है. इनमें से एक है युद्धबंदियों और क़ैदियों के साथ मानवीय व्यवहार की सार्वभौम परंपरा.
क़ैदियों के उत्पीड़न का मामला अमरीकी अदालतों में नहीं आ पाए, इसके लिए विदेशी भूमि पर कई जेलें चलाई जा रही हैं. ग्वांतानामो जेल के बारे में तो काफ़ी कुछ सामने आ चुका है, लेकिन अमरीका संचालित अनेक गुप्त जेलों में क्या-क्या होता है, ये सिर्फ़ ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए ही जानती है. इन जेलों से छूट पाए कुछ भाग्यशाली पूर्व क़ैदियों की मानें तो वहाँ अंतरराष्ट्रीय क़ायदे-क़ानूनों की कोई जगह नहीं है. क़ैदियों को प्रताड़ित किया जाता है और अमरीकी जेलरों ने इसके लिए अपनी सांकेतिक भाषा भी गढ़ रखी है. स्कॉट्स आल्मनाक 2007 नामक वार्षिक प्रकाशन में इस गुप्त भाषा के कुछ उदाहरण दिए गए हैं-
FUTILITY MUSIC
क़ैदियों के कमरे में लगातार घंटों तक तेज़ आवाज़ में ऐसा संगीत बजाना जो कि उनके लिए अबूझ हो. ख़ास कर वैसे गीतों को चुना जाता है जिनमें हिंसा, हमला आदि की बात हो. लगातार एक ही गीत को अनेक बार बजाने का भी तरीक़ा अपनाया जाता है. संगीत के अलावा जानवरों की आवाज़, डरावनी आवाज़, बच्चों के रोने की आवाज़ आदि का भी इस्तेमाल किया जाता है.
THE BLACK ROOM
बिना खिड़की या रोशनदान वाला कमरा जिसकी दीवारें काली होती हैं. यहाँ क़ैदियों की कुटाई की जाती हैं, उन्हें भद्दी-भद्दी ग़ालियाँ दी जाती हैं.
FORCED GROOMING
क़ैदियों के शरीर के बाल हटा देना. ख़ास कर मुसलमानों के ख़िलाफ़ ये तरीक़ा अपनाया जाता है, जिनके लिए दाढ़ी-मूँछ का धार्मिक महत्व है.
INTERNAL NUTRITION
भूख-हड़ताल कर रहे क़ैदियों को ज़बरदस्ती खाना खिलाना.
SLEEP ADJUSTMENT
क़ैदियों की नींद के पैटर्न को तहस-नहस कर देना.
WATER BOARDING
किसी क़ैदी को पानी में एक तख़्ते पर लिटा कर छोड़ देना. बीच-बीच में तख़्ते को कुछ देर के लिए पानी के भीतर डुबोना.
WATER PITT
एक टंकी जिसमें इतना पानी भरा गया हो कि किसी क़ैदी को डूबने से बचने के लिए अपने पंजों पर उचक कर खड़ा रहना पड़े.
ATTENTION SLAP
क़ैदी को पीड़ा पहुँचाने और डराने के उद्देश्य से मारा गया झापड़.
MOCK BURIAL(FAKE EXECUTION)
क़ैदियों को झूठा एहसास दिलाना कि बस अब उसका प्राणांत होने ही वाला है.
PRIDE AND EGO DOWN
क़ैदी के स्वाभिमान को चकनाचूर करने के लिए अपनाए जाने वाले हथकंडे, जैसे-मुसलमान क़ैदी के आगे कुरान की तौहीन करना.
STRESS POSITIONS
क़ैदियों को घंटों तक ऐसी जगह रखना, जहाँ वो न तो ठीक से खड़े हो पाएँ, और न ही ठीक से बैठ पाएँ.
REMOVAL OF COMFORT ITEMS
क़ैदियों से वैसी चीज़ें छीन लेना जो कि उन्हें सुकून देती हों, जैसे- सिगरेट, नमाज़ पढ़ने के लिए काम आने वाली चटाई, क़ुरान आदि.
EXPLOIT PHOBIAS
क़ैदियों के मन में बसे डर को उसके ख़िलाफ़ इस्तेमाल करना. जैसे- कोई क़ैदी कुत्ते से डरता हो तो उस पर कुत्ते छोड़ना.
उल्लेखनीय है कि अमरीका War on Terrorism के तहत पकड़े गए लोगों को जिनीवा संधि के तहत युद्धबंधियों को मिलने वाली सुविधाएँ नहीं देता है. अमरीका की दलील है कि पकड़े गए लोग युद्धबंदी नहीं बल्कि Illegal Enemy Combatants हैं. जब जून 2006 में ग्वांतानामो बे बंदी शिविर के तीन क़ैदियों ने आत्महत्या कर ली तो वहाँ तैनात एक जेलर ने इसे अमरीका के ख़िलाफ़ Asymmetrical Warfare की कार्रवाई बताया था.
शुक्रवार, दिसंबर 29, 2006
शुक्रवार, दिसंबर 15, 2006
थोरियम युग में छा जाएगा भारत
भविष्य में ऊर्जा संकट की आशंका से पूरी दुनिया जूझ रही है, और डर के इस माहौल में एक बार फिर से थोरियम पॉवर की चर्चा फ़ैशन में आ गई है. इसे भविष्य का परमाणु ईंधन बताया जा रहा है. थोरियम के बारे में वैज्ञानिकों का मानना है कि यूरेनियम की तुलना में यह कहीं ज़्यादा स्वच्छ, सुरक्षित और 'ग्रीन' है. और, इन सब आशावादी बयानों में भारत का भविष्य सबसे बेहतर दिखता है क्योंकि दुनिया के ज्ञात थोरियम भंडार का एक चौथाई भारत में है.
अहम सवाल ये है कि अब तक थोरियम के रिएक्टरों का उपयोग क्यों नहीं शुरू हो पाया है, जबकि इस तत्व की खोज हुए पौने दो सौ साल से ऊपर बीत चुके हैं? इसका सर्वमान्य जवाब ये है- थोरियम रिएक्टर के तेज़ विकास के लिए विकसित देशों की सरकारों और वैज्ञानिक संस्थाओं का सहयोग चाहिए, और इसके लिए वे ज़्यादा इच्छुक नहीं हैं. सबको पता है कि यूरेनियम और प्लूटोनियम की 'सप्लाई लाईन' पर कुछेक देशों का ही नियंत्रण है, जिसके बल पर वो भारत जैसे बड़े देश पर भी मनमाना शर्तें थोपने में सफल हो जाते हैं. इन देशों को लगता है कि थोरियम आधारित आणविक ऊर्जा हक़ीक़त बनी, तो उनके धंधे में मंदी आ जाएगी, उनकी दादागिरी पर रोक लग सकती है...और भारत जैसा देश परमाणु-वर्ण-व्यवस्था के सवर्णों की पाँत में शामिल हो सकता है.
थोरियम आधारित परमाणु रिएक्टर के विकास में खुल कर अनिच्छा दिखाने वालों में यूरोपीय संघ सबसे आगे है. शायद ऐसा इसलिए कि ज्ञात थोरियम भंडार में नार्वे के अलावा यूरोप के किसी अन्य देश का उल्लेखनीय हिस्सा नहीं है. (वैसे तो, रूस में भी थोरियम का बड़ा भंडार नहीं है, लेकिन वहाँ भविष्य के इस ऊर्जा स्रोत पर रिसर्च जारी है. शायद, थोरियम रिएक्टरों के भावी बाज़ार पर रूस की नज़र है!)
यूरोपीय परमाणु अनुसंधान संगठन(CERN) ने थोरियम ऊर्जा संयंत्र के लिए ज़रूरी एडीएस रिएक्टर(accelerator driven system reactor) के विकास की परियोजना शुरू ज़रूर की थी. लेकिन जब 1999 में एडीएस रिएक्टर का प्रोटोटाइप संभव दिखने लगा तो यूरोपीय संघ ने अचानक इस परियोजना की फ़ंडिंग से हाथ खींच लिया.
यूनीवर्सिटी ऑफ़ बैरगेन के इंस्टीट्यूट ऑफ़ फ़िजिक्स एंड टेक्नोलॉजी के प्रोफ़ेसर एगिल लिलेस्टॉल यूरोप और दुनिया को समझाने की अथक कोशिश करते रहे हैं कि थोरियम भविष्य का ऊर्जा स्रोत है. उनका कहना है कि वायुमंडल में कार्बन के उत्सर्जन को कम करने के लिए ऊर्जा खपत घटाना और सौर एवं पवन ऊर्जा का ज़्यादा-से-ज़्यादा दोहन करना ज़रूरी है, लेकिन ये समस्या का आंशिक समाधान ही है. प्रोफ़ेसर लिलेस्टॉल के अनुसार भविष्य की ऊर्जा सुरक्षा सिर्फ़ परमाणु ऊर्जा ही दे सकती है, और बिना ख़तरे या डर के परमाणु ऊर्जा हासिल करने के लिए थोरियम पर भरोसा करना ही होगा.
उनका कहना है कि थोरियम का भंडार यूरेनियम के मुक़ाबले तीन गुना ज़्यादा है. प्रति इकाई उसमें यूरेनियम से 250 गुना ज़्यादा ऊर्जा है. थोरियम रिएक्टर से प्लूटोनियम नहीं निकलता, इसलिए परमाणु बमों के ग़लत हाथों में पड़ने का भी डर नहीं. इसके अलावा थोरियम रिएक्टर से निकलने वाला कचरा बाक़ी प्रकार के रिएक्टरों के परमाणु कचरे के मुक़ाबले कहीं कम रेडियोधर्मी होता है.
प्रोफ़ेसर एगिल लिलेस्टॉल के बारे में सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि यूरोपीय परमाणु अनुसंधान संगठन की थोरियम रिएक्टर परियोजना में वो उपप्रमुख की हैसियत से शामिल थे. उनका कहना है कि मात्र 55 करोड़ यूरो की लागत पर एक दशक के भीतर थोरियम रिएक्टर का प्रोटोटाइप तैयार किया जा सकता है. लेकिन डर थोरियम युग में भारत जैसे देशों के परमाणु ईंधन सप्लायर बन जाने को लेकर है, सो यूरोपीय संघ के देश थोरियम रिएक्टर के विकास में दिलचस्पी नहीं दिखा रहे.
ख़ुशी की बात है कि भारत अपने बल पर ही थोरियम आधारित परमाणु ऊर्जा के लिए अनुसंधान में भिड़ा हुआ है. भारत की योजना मौजूदा यूरेनियम आधारित रिएक्टरों को हटा कर थोरियम आधारित रिएक्टर लगाने की है. कहने की ज़रूरत नहीं कि भारत को इसमें सफलता ज़रूर ही मिलेगी.
अहम सवाल ये है कि अब तक थोरियम के रिएक्टरों का उपयोग क्यों नहीं शुरू हो पाया है, जबकि इस तत्व की खोज हुए पौने दो सौ साल से ऊपर बीत चुके हैं? इसका सर्वमान्य जवाब ये है- थोरियम रिएक्टर के तेज़ विकास के लिए विकसित देशों की सरकारों और वैज्ञानिक संस्थाओं का सहयोग चाहिए, और इसके लिए वे ज़्यादा इच्छुक नहीं हैं. सबको पता है कि यूरेनियम और प्लूटोनियम की 'सप्लाई लाईन' पर कुछेक देशों का ही नियंत्रण है, जिसके बल पर वो भारत जैसे बड़े देश पर भी मनमाना शर्तें थोपने में सफल हो जाते हैं. इन देशों को लगता है कि थोरियम आधारित आणविक ऊर्जा हक़ीक़त बनी, तो उनके धंधे में मंदी आ जाएगी, उनकी दादागिरी पर रोक लग सकती है...और भारत जैसा देश परमाणु-वर्ण-व्यवस्था के सवर्णों की पाँत में शामिल हो सकता है.
थोरियम आधारित परमाणु रिएक्टर के विकास में खुल कर अनिच्छा दिखाने वालों में यूरोपीय संघ सबसे आगे है. शायद ऐसा इसलिए कि ज्ञात थोरियम भंडार में नार्वे के अलावा यूरोप के किसी अन्य देश का उल्लेखनीय हिस्सा नहीं है. (वैसे तो, रूस में भी थोरियम का बड़ा भंडार नहीं है, लेकिन वहाँ भविष्य के इस ऊर्जा स्रोत पर रिसर्च जारी है. शायद, थोरियम रिएक्टरों के भावी बाज़ार पर रूस की नज़र है!)
यूरोपीय परमाणु अनुसंधान संगठन(CERN) ने थोरियम ऊर्जा संयंत्र के लिए ज़रूरी एडीएस रिएक्टर(accelerator driven system reactor) के विकास की परियोजना शुरू ज़रूर की थी. लेकिन जब 1999 में एडीएस रिएक्टर का प्रोटोटाइप संभव दिखने लगा तो यूरोपीय संघ ने अचानक इस परियोजना की फ़ंडिंग से हाथ खींच लिया.
यूनीवर्सिटी ऑफ़ बैरगेन के इंस्टीट्यूट ऑफ़ फ़िजिक्स एंड टेक्नोलॉजी के प्रोफ़ेसर एगिल लिलेस्टॉल यूरोप और दुनिया को समझाने की अथक कोशिश करते रहे हैं कि थोरियम भविष्य का ऊर्जा स्रोत है. उनका कहना है कि वायुमंडल में कार्बन के उत्सर्जन को कम करने के लिए ऊर्जा खपत घटाना और सौर एवं पवन ऊर्जा का ज़्यादा-से-ज़्यादा दोहन करना ज़रूरी है, लेकिन ये समस्या का आंशिक समाधान ही है. प्रोफ़ेसर लिलेस्टॉल के अनुसार भविष्य की ऊर्जा सुरक्षा सिर्फ़ परमाणु ऊर्जा ही दे सकती है, और बिना ख़तरे या डर के परमाणु ऊर्जा हासिल करने के लिए थोरियम पर भरोसा करना ही होगा.
उनका कहना है कि थोरियम का भंडार यूरेनियम के मुक़ाबले तीन गुना ज़्यादा है. प्रति इकाई उसमें यूरेनियम से 250 गुना ज़्यादा ऊर्जा है. थोरियम रिएक्टर से प्लूटोनियम नहीं निकलता, इसलिए परमाणु बमों के ग़लत हाथों में पड़ने का भी डर नहीं. इसके अलावा थोरियम रिएक्टर से निकलने वाला कचरा बाक़ी प्रकार के रिएक्टरों के परमाणु कचरे के मुक़ाबले कहीं कम रेडियोधर्मी होता है.
प्रोफ़ेसर एगिल लिलेस्टॉल के बारे में सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि यूरोपीय परमाणु अनुसंधान संगठन की थोरियम रिएक्टर परियोजना में वो उपप्रमुख की हैसियत से शामिल थे. उनका कहना है कि मात्र 55 करोड़ यूरो की लागत पर एक दशक के भीतर थोरियम रिएक्टर का प्रोटोटाइप तैयार किया जा सकता है. लेकिन डर थोरियम युग में भारत जैसे देशों के परमाणु ईंधन सप्लायर बन जाने को लेकर है, सो यूरोपीय संघ के देश थोरियम रिएक्टर के विकास में दिलचस्पी नहीं दिखा रहे.
ख़ुशी की बात है कि भारत अपने बल पर ही थोरियम आधारित परमाणु ऊर्जा के लिए अनुसंधान में भिड़ा हुआ है. भारत की योजना मौजूदा यूरेनियम आधारित रिएक्टरों को हटा कर थोरियम आधारित रिएक्टर लगाने की है. कहने की ज़रूरत नहीं कि भारत को इसमें सफलता ज़रूर ही मिलेगी.
रविवार, नवंबर 26, 2006
पेंटागन को हिंदी से प्यार हो गया!
इस आलेख का शीर्षक हो सकता है बहुतों को अटपटा लगे. ख़ास कर उन लोगों को जो हिंदी से प्रेम तो करते हैं, लेकिन इसकी स्वीकार्यता को लेकर चिंतित भी हैं. लेकिन विश्वास कीजिए, अमरीकी रक्षा विभाग पेंटागन को हिंदी से प्यार हो गया है.
हालाँकि इस आशय की ख़बर भारत के अंग्रेज़ीदाँ मीडिया की उपेक्षा का शिकार बन गई. कोई आश्चर्य भी नहीं, जो उन्होंने हिंदी के अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बढ़ते महत्व को रेखांकित करती इस ख़बर की ज़्यादा चर्चा नहीं की. गूगल करने से पता चलता है कि अमरीकी मीडिया ने इसे ख़ासा महत्व दिया.
आपको शायद याद हो कि कुछ महीने पहले अपने एक भाषण में अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने अमरीकियों से अंग्रेज़ी के अलावा जिन गिनीचुनी विदेशी भाषाओं में दक्षता हासिल करने की अपील की थी, उनमें हिंदी का भी नाम था. बुश ने इस घोषणा के साथ हिंदी को 'राष्ट्रीय सुरक्षा भाषा पहल' में शामिल करने की घोषणा भी की थी.(उस समय भी भारत के अंग्रेज़ीदाँ मीडिया टीकाकारों ने बुश के इस भाषण को ज़्यादा गंभीरता से नहीं लिया था.)
लेकिन बुश ने वास्तव में बहुत गंभीरता से अपनी बात रखी थी. इसका प्रमाण है बुश के गृह प्रांत के विश्वविद्यालय यूनीवर्सिटी ऑफ़ टेक्सस की घोषणा कि वह हिंदी(और उर्दू) भाषा के एक चार-वर्षीय कोर्स की शुरूआत करने जा रहा है. इस 'Hindi and Urdu Flagship Program' नामक विशेष कोर्स(विश्वविद्यालय में इन भाषाओं के सामान्य कोर्स चार दशकों से जारी हैं) के तहत हिंदी के छात्रों को तीन साल अमरीका में और एक साल भारत में रह कर पढ़ाई करनी होगी.
लेकिन पूरी ख़बर का मूल तत्व ये है कि यूनीवर्सिटी ऑफ़ टेक्सस के इस विशेष हिंदी-उर्दू कार्यक्रम के लिए सात लाख डॉलर का पूरा बजट अमरीकी रक्षा मंत्रालय की तरफ़ से आएगा. अमरीका में पेंटागन संचालित कार्यक्रमों में से एक है- राष्ट्रीय सुरक्षा शिक्षा कार्यक्रम. इस कार्यक्रम के तहत अमरीकियों को राष्ट्रीय और वैश्विक सुरक्षा की दृष्टि से अहम विदेशी भाषाओं में दक्षता प्राप्त करने के अवसर उपलब्ध कराए जाते हैं. (अमरीकी सरकार कहे या नहीं, उसकी इस पहल के पीछे एक उद्देश्य भारत के सुपरफ़ास्ट आर्थिक विकास का ज़्यादा से ज़्यादा फ़ायदा उठाना भी है.)
कहने की ज़रूरत नहीं कि भारत और पाकिस्तान दोनों के परमाणु ताक़त के रूप में स्थापित होने, और दोनों के अमरीका से निकट संबंध होने के कारण अमरीका के लिए हिंदी और उर्दू की अहमियत बहुत बढ़ जाती है. (भारत के आर्थिक ताक़त के रूप में उभरने के कारण भी सामरिक दृष्टि से हिंदी का महत्व बढ़ा है. दूसरी ओर पाकिस्तान के अल-क़ायदा का अभ्यारण्य होने के कारण सुरक्षा की दृष्टि से उर्दू का महत्व बढ़ा है.)
यूनीवर्सिटी ऑफ़ टेक्सस ने अगले सत्र से शुरू अपने विशेष हिंदी कोर्स के प्रचार के लिए टेक्सस के विद्यालयों में हिंदी भाषा की कार्यशालाएँ लगाने की शुरुआत भी कर दी है. विशेष कोर्स का पहला सत्र भले ही दस छात्रों से शुरू किया जाएगा, लेकिन निश्चय ही यह एक अहम शुरुआत होगी.
हालाँकि इस आशय की ख़बर भारत के अंग्रेज़ीदाँ मीडिया की उपेक्षा का शिकार बन गई. कोई आश्चर्य भी नहीं, जो उन्होंने हिंदी के अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बढ़ते महत्व को रेखांकित करती इस ख़बर की ज़्यादा चर्चा नहीं की. गूगल करने से पता चलता है कि अमरीकी मीडिया ने इसे ख़ासा महत्व दिया.
आपको शायद याद हो कि कुछ महीने पहले अपने एक भाषण में अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने अमरीकियों से अंग्रेज़ी के अलावा जिन गिनीचुनी विदेशी भाषाओं में दक्षता हासिल करने की अपील की थी, उनमें हिंदी का भी नाम था. बुश ने इस घोषणा के साथ हिंदी को 'राष्ट्रीय सुरक्षा भाषा पहल' में शामिल करने की घोषणा भी की थी.(उस समय भी भारत के अंग्रेज़ीदाँ मीडिया टीकाकारों ने बुश के इस भाषण को ज़्यादा गंभीरता से नहीं लिया था.)
लेकिन बुश ने वास्तव में बहुत गंभीरता से अपनी बात रखी थी. इसका प्रमाण है बुश के गृह प्रांत के विश्वविद्यालय यूनीवर्सिटी ऑफ़ टेक्सस की घोषणा कि वह हिंदी(और उर्दू) भाषा के एक चार-वर्षीय कोर्स की शुरूआत करने जा रहा है. इस 'Hindi and Urdu Flagship Program' नामक विशेष कोर्स(विश्वविद्यालय में इन भाषाओं के सामान्य कोर्स चार दशकों से जारी हैं) के तहत हिंदी के छात्रों को तीन साल अमरीका में और एक साल भारत में रह कर पढ़ाई करनी होगी.
लेकिन पूरी ख़बर का मूल तत्व ये है कि यूनीवर्सिटी ऑफ़ टेक्सस के इस विशेष हिंदी-उर्दू कार्यक्रम के लिए सात लाख डॉलर का पूरा बजट अमरीकी रक्षा मंत्रालय की तरफ़ से आएगा. अमरीका में पेंटागन संचालित कार्यक्रमों में से एक है- राष्ट्रीय सुरक्षा शिक्षा कार्यक्रम. इस कार्यक्रम के तहत अमरीकियों को राष्ट्रीय और वैश्विक सुरक्षा की दृष्टि से अहम विदेशी भाषाओं में दक्षता प्राप्त करने के अवसर उपलब्ध कराए जाते हैं. (अमरीकी सरकार कहे या नहीं, उसकी इस पहल के पीछे एक उद्देश्य भारत के सुपरफ़ास्ट आर्थिक विकास का ज़्यादा से ज़्यादा फ़ायदा उठाना भी है.)
कहने की ज़रूरत नहीं कि भारत और पाकिस्तान दोनों के परमाणु ताक़त के रूप में स्थापित होने, और दोनों के अमरीका से निकट संबंध होने के कारण अमरीका के लिए हिंदी और उर्दू की अहमियत बहुत बढ़ जाती है. (भारत के आर्थिक ताक़त के रूप में उभरने के कारण भी सामरिक दृष्टि से हिंदी का महत्व बढ़ा है. दूसरी ओर पाकिस्तान के अल-क़ायदा का अभ्यारण्य होने के कारण सुरक्षा की दृष्टि से उर्दू का महत्व बढ़ा है.)
यूनीवर्सिटी ऑफ़ टेक्सस ने अगले सत्र से शुरू अपने विशेष हिंदी कोर्स के प्रचार के लिए टेक्सस के विद्यालयों में हिंदी भाषा की कार्यशालाएँ लगाने की शुरुआत भी कर दी है. विशेष कोर्स का पहला सत्र भले ही दस छात्रों से शुरू किया जाएगा, लेकिन निश्चय ही यह एक अहम शुरुआत होगी.
गुरुवार, नवंबर 16, 2006
रोमाँचकारी होगा आने वाला कल
दुनिया के ज्ञानियों-ध्यानियों की मानें तो आने वाला कल बड़ा ही रोमाँचकारी होगा. प्रतिष्ठित विज्ञान जर्नल न्यू साइंटिस्ट ने अपने प्रकाशन के 50 साल पूरे होने का जश्न भविष्य की कल्पना करते हुए एक विशेष अंक निकाल कर मनाया है. इस विशेषांक में मौजूदा वैज्ञानिक समुदाय के कुछ बड़े नामों का योगदान है, जिन्होंने पाँच दशक बाद की दुनिया की रूपरेखा खींची है.
न्यू साइंटिस्ट के स्वर्णजयंती अंक में सबसे रोमाँचक लेख इस पुराने सवाल के ऊपर है कि क्या हम ब्रह्मांड में अकेले हैं? इस सवाल के जवाब में वैज्ञानिकों का कहना है कि अब तक धरती से परे जीवन की खोज नहीं होने पाने का साफ़ मतलब है कि जीवन बड़ा ही विरल है. लेकिन इसका मतलब ये बिल्कुल ही नहीं है कि ब्रह्मांड में धरती के अलावा कहीं और जीवन नहीं है.
इंस्टीट्यूट ऑफ़ एडवांस्ड स्टडी के फ़्रीमैन डायसन का मानना है कि एक बार हमें धरती से दूर जीवन के अस्तित्व का सबूत मिल जाए तो आगे की खोजें अपेक्षाकृत जल्दी हो सकेंगी. क्योंकि तब वैज्ञानिकों को पता रहेगा कि वो आख़िर ढूँढ क्या रहे हैं.
एरिज़ोना स्टेट यूनीवर्सिटी के पॉल डेवीज़ कहीं ज़्यादा आशावादी हैं. उनका कहना है कि एलियन्स को ढूँढने में रेडियो टेलीस्कोपों के ज़रिए ही सफलता मिले ये कोई ज़रूरी नहीं है. उनका कहना है कि ज़्यादातर जीव सूक्ष्म रूप में यानि जीवाणु या विषाणु के रूप में हैं. ऐसे में क्या पता बाहर का कोई सूक्ष्म जीव धरती पर हमारे ही बीच पल रहा हो!
यदि धरती से दूर जीवन का कोई रूप मिल भी गया तो वो कितना अलग होगा? नासा के क्रिस मैकके की मानें तो ये अंतर अंग्रेज़ी और चीनी भाषाओं के अंतर जितना हो सकता है.
जहाँ तक 50 साल बाद के चिकित्सा जगत की बात है तो वैज्ञानिकों का मानना है कि आज की दवाइयों को तब उसी रूप में देखा जाएगा जैसाकि अभी ओझा-गुनी के सुझाए उपचारों को देखते हैं. यूनीवर्सिटी ऑफ़ शिकागो के ब्रुस लान के अनुसार पाँच दशक बाद प्रत्यारोपण के लिए अंग किसी ज़िंदा या मुर्दा व्यक्ति से लेने की ज़रूरत नहीं होगी, बल्कि अंगों की फ़ार्मिंग की जाएगी. सूअर जैसे जंतुओं में मनुष्यों के लिए अंग उगाए जाएँगे. यानि, अंग प्रत्यारोपण की ज़रूरत पड़ने पर डॉक्टर किसी व्यावसायिक अंग उत्पादन कंपनी को ऑर्डर कर मरीज़ के 'इम्युनोलॉजिकल प्रोफ़ाइल' के अनुरूप टेलरमेड अंग मँगा सकेगा.
हालाँकि वैज्ञानिकों ने स्पष्ट किया है कि अंगों की फ़ार्मिंग के आने वाले युग में भी मस्तिष्क या दिमाग़ को कृत्रिम रूप से बनाए जाने की संभावना दूर-दूर तक नज़र नहीं आती है. मतलब, कृत्रिम दिमाग़ के नाम पर आगे भी सुपरकंप्यूटरों से काम चलाते रहिए!
चिकित्सा जगत में आने वाले दिनों में एक और बड़ी प्रगति होगी छिपकली की पूँछ की तरह मानव अंग को भी दोबारा उगाने के क्षेत्र में. फ़िलाडेल्फ़िया में वाइस्टर इंस्टीट्यूट की एलेना हेबर-कैट्ज़ की मानें तो जल्दी ही ऐसी दवाएँ आने वाली हैं जिनके ज़रिए कमज़ोर दिल अपनी मरम्मत ख़ुद कर सकेगा. उनका मानना है कि पाँच से दस साल के भीतर उँगलियों जैसे अंगों को दोबारा उगाना संभव हो सकेगा.
अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में भी मानव लंबी छलाँग लगाने वाला है. प्रिंसटन यूनीवर्सिटी के जे रिचर्ड गॉट के अनुसार कुछ दशकों के भीतर मानव मंगल ग्रह पर अपनी स्वपोषित कॉलोनी बसा सकेगा. उनके अनुसार इसका सबसे बड़ा फ़ायदा ये होगा कि प्रलय या महाविभीषिका की किसी स्थिति में भी धरती से दूर मानव जीवन का अस्तित्व बना रहेगा.
यूनीवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन के रिचर्ड मिलर की मानें तो 2056 आते-आते ऐसे लोगों की बड़ी संख्या होगी जो सौ साल या उससे भी बड़ी उम्र में कामकाज़ी जीवन बिता रहे होंगे. ये चमत्कार होगा मोलेक्युलर बायोलॉजी के क्षेत्र में लगातार हो रही प्रगति के कारण.
...और अंत में एक भविष्यवाणी यूनीवर्सिटी ऑफ़ ब्रिटिश कोलंबिया के डेनियल पॉली की. इनका कहना है कि कुछ दशकों के बाद पूरी दुनिया शाकाहारी होनेवाली है. दरअसल पॉली साहब एक ऐसे यंत्र की कल्पना साकार होते देख रहे हैं, जिसके ज़रिए हम जंतुओं की भावनाओं और विचारों को जान सकेंगे, महसूस कर सकेंगे. ऐसे में किसी विचारवान जीव को मार कर खाने की अनैतिकता भला कितने लोगों को पचेगी!
न्यू साइंटिस्ट के स्वर्णजयंती अंक में सबसे रोमाँचक लेख इस पुराने सवाल के ऊपर है कि क्या हम ब्रह्मांड में अकेले हैं? इस सवाल के जवाब में वैज्ञानिकों का कहना है कि अब तक धरती से परे जीवन की खोज नहीं होने पाने का साफ़ मतलब है कि जीवन बड़ा ही विरल है. लेकिन इसका मतलब ये बिल्कुल ही नहीं है कि ब्रह्मांड में धरती के अलावा कहीं और जीवन नहीं है.
इंस्टीट्यूट ऑफ़ एडवांस्ड स्टडी के फ़्रीमैन डायसन का मानना है कि एक बार हमें धरती से दूर जीवन के अस्तित्व का सबूत मिल जाए तो आगे की खोजें अपेक्षाकृत जल्दी हो सकेंगी. क्योंकि तब वैज्ञानिकों को पता रहेगा कि वो आख़िर ढूँढ क्या रहे हैं.
एरिज़ोना स्टेट यूनीवर्सिटी के पॉल डेवीज़ कहीं ज़्यादा आशावादी हैं. उनका कहना है कि एलियन्स को ढूँढने में रेडियो टेलीस्कोपों के ज़रिए ही सफलता मिले ये कोई ज़रूरी नहीं है. उनका कहना है कि ज़्यादातर जीव सूक्ष्म रूप में यानि जीवाणु या विषाणु के रूप में हैं. ऐसे में क्या पता बाहर का कोई सूक्ष्म जीव धरती पर हमारे ही बीच पल रहा हो!
यदि धरती से दूर जीवन का कोई रूप मिल भी गया तो वो कितना अलग होगा? नासा के क्रिस मैकके की मानें तो ये अंतर अंग्रेज़ी और चीनी भाषाओं के अंतर जितना हो सकता है.
जहाँ तक 50 साल बाद के चिकित्सा जगत की बात है तो वैज्ञानिकों का मानना है कि आज की दवाइयों को तब उसी रूप में देखा जाएगा जैसाकि अभी ओझा-गुनी के सुझाए उपचारों को देखते हैं. यूनीवर्सिटी ऑफ़ शिकागो के ब्रुस लान के अनुसार पाँच दशक बाद प्रत्यारोपण के लिए अंग किसी ज़िंदा या मुर्दा व्यक्ति से लेने की ज़रूरत नहीं होगी, बल्कि अंगों की फ़ार्मिंग की जाएगी. सूअर जैसे जंतुओं में मनुष्यों के लिए अंग उगाए जाएँगे. यानि, अंग प्रत्यारोपण की ज़रूरत पड़ने पर डॉक्टर किसी व्यावसायिक अंग उत्पादन कंपनी को ऑर्डर कर मरीज़ के 'इम्युनोलॉजिकल प्रोफ़ाइल' के अनुरूप टेलरमेड अंग मँगा सकेगा.
हालाँकि वैज्ञानिकों ने स्पष्ट किया है कि अंगों की फ़ार्मिंग के आने वाले युग में भी मस्तिष्क या दिमाग़ को कृत्रिम रूप से बनाए जाने की संभावना दूर-दूर तक नज़र नहीं आती है. मतलब, कृत्रिम दिमाग़ के नाम पर आगे भी सुपरकंप्यूटरों से काम चलाते रहिए!
चिकित्सा जगत में आने वाले दिनों में एक और बड़ी प्रगति होगी छिपकली की पूँछ की तरह मानव अंग को भी दोबारा उगाने के क्षेत्र में. फ़िलाडेल्फ़िया में वाइस्टर इंस्टीट्यूट की एलेना हेबर-कैट्ज़ की मानें तो जल्दी ही ऐसी दवाएँ आने वाली हैं जिनके ज़रिए कमज़ोर दिल अपनी मरम्मत ख़ुद कर सकेगा. उनका मानना है कि पाँच से दस साल के भीतर उँगलियों जैसे अंगों को दोबारा उगाना संभव हो सकेगा.
अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में भी मानव लंबी छलाँग लगाने वाला है. प्रिंसटन यूनीवर्सिटी के जे रिचर्ड गॉट के अनुसार कुछ दशकों के भीतर मानव मंगल ग्रह पर अपनी स्वपोषित कॉलोनी बसा सकेगा. उनके अनुसार इसका सबसे बड़ा फ़ायदा ये होगा कि प्रलय या महाविभीषिका की किसी स्थिति में भी धरती से दूर मानव जीवन का अस्तित्व बना रहेगा.
यूनीवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन के रिचर्ड मिलर की मानें तो 2056 आते-आते ऐसे लोगों की बड़ी संख्या होगी जो सौ साल या उससे भी बड़ी उम्र में कामकाज़ी जीवन बिता रहे होंगे. ये चमत्कार होगा मोलेक्युलर बायोलॉजी के क्षेत्र में लगातार हो रही प्रगति के कारण.
...और अंत में एक भविष्यवाणी यूनीवर्सिटी ऑफ़ ब्रिटिश कोलंबिया के डेनियल पॉली की. इनका कहना है कि कुछ दशकों के बाद पूरी दुनिया शाकाहारी होनेवाली है. दरअसल पॉली साहब एक ऐसे यंत्र की कल्पना साकार होते देख रहे हैं, जिसके ज़रिए हम जंतुओं की भावनाओं और विचारों को जान सकेंगे, महसूस कर सकेंगे. ऐसे में किसी विचारवान जीव को मार कर खाने की अनैतिकता भला कितने लोगों को पचेगी!
रविवार, अक्टूबर 15, 2006
शतरंज का अविवादित बादशाह क्रैमनिक
टॉयलेटगेट के कारण बिना खेले एक मैच में पराजित करार दिए जाने के बाद भी आख़िरकार रूस के व्लादिमीर क्रैमनिक ही अजेय बन कर निकले. रूसी गणतंत्र कलमीकिया की राजधानी इलिस्ता में संपन्न पहली फ़िडे-पीसीए संयुक्त विश्व चैम्पियनशिप में क्रैमनिक ने बुल्गारिया के वेसेलिन तोपालोव को चौथे और अंतिम टाईब्रेकर में हरा कर ख़िताब अपने नाम कर लिया.
बारह नियमित मैचों के बाद दोनों खिलाड़ी 6-6 से बराबरी पर थे. लेकिन टाईब्रेकर में क्रैमनिक 2.5-1.5 से आगे रहे और अविवादित विश्व चैम्पियन बने. पहली बार ख़िताब का फ़ैसला टाईब्रेकर से हुआ, वरना अब तक नियमित मैचों में मुक़ाबला बराबरी पर रहने पर ख़िताब पूर्व चैम्पियन के पास ही रह जाता था.
क्रैमनिक 2000 में कास्पारोव को हराने के बाद से शतरंज के क्लासिक विश्व चैम्पियन तो माने जाते थे, लेकिन अनधिकृत या बेताज बादशाह. अधिकृत चैम्पियन तोपालोव ही थे.
दरअसल क्रैमनिक ने शतरंज की मान्यता प्राप्त अंतरराष्ट्रीय संस्था फ़िडे के नेतृत्व को मानने से इनक़ार कर शतरंज के तत्कालीन बेताज बादशाह और पीसीए यानि पेशेवर शतरंज संघ के संस्थापक कास्पारोव को चुनौती दी थी, और उन्हें हराया था. जबकि दूसरी तरफ़ नियमित विश्व चैम्पियनशिप में पिछले साल तोपालोव विजेता बन कर सामने आए थे.(भारत के विश्वनाथन आनंद उपविजेता रहे थे.)अंतरराष्ट्रीय शतरंज के 13 साल के विभाजन को पाटने के लिए ही इस बार कलमीकिया में दोनों मौजूदा विश्व चैम्पियनों के बीच मुक़ाबला कराया गया था, ताकि शिखर पर एक ही खिलाड़ी रहे.
तो क्या अगले साल मेक्सिको में होने वाली नियमित विश्व चैम्पियनशिप में गत विजेता तोपालोव की जगह क्रैमनिक पहुँचेंगे ख़िताब की रक्षा के लिए? यदि मेक्सिको में होने वाली प्रतियोगिता की आधिकारिक वेबसाइट की मानें तो ऐसा ही होगा. वेबसाइट पर दो दिन पहले तक जहाँ तोपालोव का नाम था, वहाँ अब क्रैमनिक विराजमान हैं.
लेकिन अंतरराष्ट्रीय शतरंज की दुनिया इतनी सीधी भी नहीं है. वहाँ ढाई घर कूदने वाली चालें अक्सर देखने को मिलती हैं. अगले साल की निर्धारित विश्व चैम्पियनशिप की राह में कम-से-कम दो पेंच तो अभी ही दिख रहे हैं. पहली बात तो ये कि क्रैमनिक ने अभी तक खिताब की रक्षा के लिए मेक्सिको में खेलने की हामी ही नहीं भरी है. और, फ़िडे और उसकी प्रतियोगिताओं के प्रति क्रैमनिक कितनी बेरूख़ी रखते रहे हैं, वो जगजाहिर है. ऊपर से क्रैमनिक अभी ये भी नहीं कह रहे कि एक मैच में खेले बिना उन्हें पराजित घोषित किए जाने के फ़ैसले पर वो फ़िडे को अदालत में नहीं घसीटेंगे!
दूसरा पेंच ये कि तोपालोव ने क्रैमनिक को अगले साल विश्व ख़िताबी मुक़ाबले में चुनौती देने के संकेत दिए हैं. बुल्गारिया वापस लौटने पर तोपालोव के मैनेजर दनाइलोव ने पत्रकारों को बताया कि मौजूदा फ़िडे नियमों के अनुसार ख़िताबी टक्कर में पराजित खिलाड़ी विजेता को चुनौती दे सकता है, बशर्ते वो 15 लाख यूरो की पुरस्कार राशि का इंतज़ाम करे. दनाइलोव ने कहा कि वह जल्दी ही पुरस्कार राशि के लिए प्रायोजकों को जुटाना शुरू कर देंगे. हालाँकि, दनाइलोव इस बात का जवाब नहीं दे रहे हैं कि फ़िडे संयुक्त चैम्पियनशिप 2006 के विजेता क्रैमनिक को अगले साल मेक्सिको में चैम्पियनशिप के हैसियत से खेलने से किस आधार पर रोक सकता है?
ख़ैर, ये तो हुई आगे की बात. पीछे मुड़कर देखें कि आख़िरकार टॉयलेटगेट का रहस्य क्या था? तोपालोव का दल तो अब भी यही कह रहा है कि मैच के दौरान क्रैमनिक के बार-बार टॉयलेट जाने का साफ़ मतलब था कि वहाँ कुछ था जिसकी सहायता रूसी खिलाड़ी को मिल रही थी. लेकिन अविवादित विश्व विजेता बनने के दो दिनों बाद अपनी चुप्पी तोड़ते हुए क्रैमनिक ने आरोप को बकवास बताया है. उनका कहना है कि चहलक़दमी करने से मैच के दौरान एकाग्रता बनाए रखने में उन्हें मदद मिलती है. और, चूँकि उन्हें मिला रेस्टरूम छोटा था सो वे चहलक़दमी करते हुए आगे टॉयलेट तक चले जाते थे!
बारह नियमित मैचों के बाद दोनों खिलाड़ी 6-6 से बराबरी पर थे. लेकिन टाईब्रेकर में क्रैमनिक 2.5-1.5 से आगे रहे और अविवादित विश्व चैम्पियन बने. पहली बार ख़िताब का फ़ैसला टाईब्रेकर से हुआ, वरना अब तक नियमित मैचों में मुक़ाबला बराबरी पर रहने पर ख़िताब पूर्व चैम्पियन के पास ही रह जाता था.
क्रैमनिक 2000 में कास्पारोव को हराने के बाद से शतरंज के क्लासिक विश्व चैम्पियन तो माने जाते थे, लेकिन अनधिकृत या बेताज बादशाह. अधिकृत चैम्पियन तोपालोव ही थे.
दरअसल क्रैमनिक ने शतरंज की मान्यता प्राप्त अंतरराष्ट्रीय संस्था फ़िडे के नेतृत्व को मानने से इनक़ार कर शतरंज के तत्कालीन बेताज बादशाह और पीसीए यानि पेशेवर शतरंज संघ के संस्थापक कास्पारोव को चुनौती दी थी, और उन्हें हराया था. जबकि दूसरी तरफ़ नियमित विश्व चैम्पियनशिप में पिछले साल तोपालोव विजेता बन कर सामने आए थे.(भारत के विश्वनाथन आनंद उपविजेता रहे थे.)अंतरराष्ट्रीय शतरंज के 13 साल के विभाजन को पाटने के लिए ही इस बार कलमीकिया में दोनों मौजूदा विश्व चैम्पियनों के बीच मुक़ाबला कराया गया था, ताकि शिखर पर एक ही खिलाड़ी रहे.
तो क्या अगले साल मेक्सिको में होने वाली नियमित विश्व चैम्पियनशिप में गत विजेता तोपालोव की जगह क्रैमनिक पहुँचेंगे ख़िताब की रक्षा के लिए? यदि मेक्सिको में होने वाली प्रतियोगिता की आधिकारिक वेबसाइट की मानें तो ऐसा ही होगा. वेबसाइट पर दो दिन पहले तक जहाँ तोपालोव का नाम था, वहाँ अब क्रैमनिक विराजमान हैं.
लेकिन अंतरराष्ट्रीय शतरंज की दुनिया इतनी सीधी भी नहीं है. वहाँ ढाई घर कूदने वाली चालें अक्सर देखने को मिलती हैं. अगले साल की निर्धारित विश्व चैम्पियनशिप की राह में कम-से-कम दो पेंच तो अभी ही दिख रहे हैं. पहली बात तो ये कि क्रैमनिक ने अभी तक खिताब की रक्षा के लिए मेक्सिको में खेलने की हामी ही नहीं भरी है. और, फ़िडे और उसकी प्रतियोगिताओं के प्रति क्रैमनिक कितनी बेरूख़ी रखते रहे हैं, वो जगजाहिर है. ऊपर से क्रैमनिक अभी ये भी नहीं कह रहे कि एक मैच में खेले बिना उन्हें पराजित घोषित किए जाने के फ़ैसले पर वो फ़िडे को अदालत में नहीं घसीटेंगे!
दूसरा पेंच ये कि तोपालोव ने क्रैमनिक को अगले साल विश्व ख़िताबी मुक़ाबले में चुनौती देने के संकेत दिए हैं. बुल्गारिया वापस लौटने पर तोपालोव के मैनेजर दनाइलोव ने पत्रकारों को बताया कि मौजूदा फ़िडे नियमों के अनुसार ख़िताबी टक्कर में पराजित खिलाड़ी विजेता को चुनौती दे सकता है, बशर्ते वो 15 लाख यूरो की पुरस्कार राशि का इंतज़ाम करे. दनाइलोव ने कहा कि वह जल्दी ही पुरस्कार राशि के लिए प्रायोजकों को जुटाना शुरू कर देंगे. हालाँकि, दनाइलोव इस बात का जवाब नहीं दे रहे हैं कि फ़िडे संयुक्त चैम्पियनशिप 2006 के विजेता क्रैमनिक को अगले साल मेक्सिको में चैम्पियनशिप के हैसियत से खेलने से किस आधार पर रोक सकता है?
ख़ैर, ये तो हुई आगे की बात. पीछे मुड़कर देखें कि आख़िरकार टॉयलेटगेट का रहस्य क्या था? तोपालोव का दल तो अब भी यही कह रहा है कि मैच के दौरान क्रैमनिक के बार-बार टॉयलेट जाने का साफ़ मतलब था कि वहाँ कुछ था जिसकी सहायता रूसी खिलाड़ी को मिल रही थी. लेकिन अविवादित विश्व विजेता बनने के दो दिनों बाद अपनी चुप्पी तोड़ते हुए क्रैमनिक ने आरोप को बकवास बताया है. उनका कहना है कि चहलक़दमी करने से मैच के दौरान एकाग्रता बनाए रखने में उन्हें मदद मिलती है. और, चूँकि उन्हें मिला रेस्टरूम छोटा था सो वे चहलक़दमी करते हुए आगे टॉयलेट तक चले जाते थे!
रविवार, अक्टूबर 08, 2006
विश्व शतरंज चैम्पियनशिप या टॉयलेटगेट
इन दिनों कलमीकिया में शतरंज की विश्व चैम्पियनशिप चल रही है. अभी 23 सितंबर को शुरू हुई चैम्पियनशिप आधे रास्ते भी नहीं पहुँची थी, कि इसे 'टॉयलेटगेट' का नाम दिया जाने लगा...जी हाँ, शौचालय से जुड़ा कांड या मज़ाक!
संक्षेप में इस टॉयलेटगेट की अब तक की कहानी इस प्रकार है:-
कलमीकिया रूस के दक्षिणी भाग में एक छोटा-सा गणतंत्र है. इसके राष्ट्रपति किर्सन इल्युमझिनोव शतरंज की मान्यता प्राप्त अंतरराष्ट्रीय संस्था विश्व शतरंज परिसंघ या FIDE के अध्यक्ष भी हैं. कलमीकिया और इल्युमझिनोव पर विस्तार से चर्चा अगले किसी पोस्ट में करूँगा, पहले टॉयलेटगेट की कहानी पर आता हूँ.
जब इस साल FIDE प्रमुख के चुनाव का वक़्त आया तो पदासीन अध्यक्ष इल्युमझिनोव के कुर्सी पर आगे भी काबिज़ रहने की संभावना कम हो चली थी. ऐसे में इल्युमझिनोव ने तुरुप का पत्ता खोला. उन्होंने कहा कि हमें पद पर बनाए रखो तो FIDE के मौजूदा चैम्पियन बुल्गारिया के वेसेलिन तोपालोव और पेशेवर शतरंत महासंघ या PCA के विश्व चैम्पियन रूस के व्लादिमीर क्रैमनिक के बीच मुक़ाबला करा देंगे. यानि शतरंज के वास्तविक विश्व चैम्पियन का फ़ैसला हो जाएगा. FIDE के सदस्य देशों के खेल पदाधिकारियों ने इल्युमझिनोफ़ पर भरोसा व्यक्त करते हुए उन्हें अध्यक्ष के रूप में पुनर्निर्वाचित करा दिया.
वर्ष 1993 के बाद से दुनिया में शतरंज के दो विश्व चैम्पियन रहे हैं. मौजूदा दो चैम्पियनों में से एक हैं तोपालोव जोकि FIDE आयोजित आधिकारिक विश्व चैम्पियनशिप 2005 के विजेता हैं. दूसरे, अनधिकृत लेकिन विश्वसनीय विश्व चैम्पियन हैं क्रैमनिक, जिन्होंने 2000 में शतरंज के बेताज बादशाह गैरी कास्पारोव को हराया था. (उस मुक़ाबले में कास्पारोव को क्रैमनिक के ख़िलाफ़ एक भी मैच में जीत नसीब नहीं हो पाई थी.) कास्पारोव ने ही 1993 में ख़ुद को FIDE से अलग करते हुए, ब्रिटेन के ग्रैंड मास्टर नाइजल शॉर्ट के साथ मिल कर PCA की नींव रखी थी. हालाँकि उनके PCA को ओलंपिक कमेटी की मान्यता नहीं मिली, और शतरंज का आधिकारिक विश्व संगठन FIDE ही बना रहा.
ख़ैर, बात बात हो रही थी इल्युमझिनोव की. अध्यक्ष के रूप में अगले कार्यकाल के लिए चुन लिए जाने के बाद उन्होंने तोपालोव और क्रैमनिक को विश्व चैम्पियनशिप मुक़ाबले में भाग लेने के लिए राज़ी कर शतरंजप्रेमियों को चौंका दिया. इस 10 लाख डॉलर पुरस्कार राशि वाली चैम्पियनशिप का आयोजन स्थल कलमीक राजधानी इलिस्ता को बनाया गया.
चैम्पियनशिप में 12 मैच रखे गए, इस शर्त के साथ कि जो पहले 6.5 अंक ले आएगा वो शतरंज का विश्व चैम्पियन घोषित होगा.
सितंबर की 23 और 24 तारीख़ को पहले और दूसरे मैच को क्रैमनिक ने जीता और 2-0 की बढ़त बना ली. तीसरे और चौथे मैच अनिर्णीत छूटे, यानि चार मैचों के बाद 27 सितंबर को क्रैमनिक 3-1 से आगे थे. तोपालोव की स्थिति कमज़ोर हो चली और शतरंज विशेषज्ञों के कॉलमों में लिखा जाने लगा कि वे अब शायद ही मुक़ाबले में आगे निकल पाएँ. हालाँकि, तोपालोव भी बेहतरीन खिलाड़ी माने जाते हैं, और उनमें किसी भी विपरीत परिस्थिति से उबरने की क्षमता है. इसलिए लगता नहीं कि वो हताश हो गए होंगे. लेकिन उनके मैनेजर सिल्वियो दनाइलोव ज़रूर हताश हो चुके थे.
तोपालोव के मैनेजर दनाइलोव ने आरोप लगाया कि मैच के बीच में क्रैमनिक बीसियों बार टॉयलेट जाते हैं, जो कि दाल में काले जैसी बात है. ख़ुद उन्होंने खुल कर और ज़्यादा कुछ नहीं कहा, लेकिन दबी ज़ुबान में दनाइलोव के गुर्गों ने आरोप लगाया कि क्रैमनिक बार-बार टॉयलेट इसलिए जाते हैं कि उन्होंने वहाँ कंप्यूटर और अन्य उपकरण जमा रखा है, जिनके ज़रिए वे आगे की चाल का फ़ैसला करते हैं.
चैम्पियनशिप में दोनों खिलाड़ियों को अपना-अपना व्यक्तिगत टॉयलेट सुलभ कराया गया था. दनाइलोव ने कहा कि तोपालोव पाँचवें मुक़ाबले में तभी उतरेंगे जबकि क्रैमनिक के टॉयलेट में ताला लगा दिया जाए, और वो उसी शौचालय का उपयोग करें जो कि तोपालोव करते हैं.
ये सब नाटक ऐसे समय हुआ जब FIDE प्रमुख इल्युमझिनोव रूसी राष्ट्रपति पुतिन के साथ एक बैठक के लिए कलमीकिया से दूर मॉस्को में थे. जब 29 सितंबर को पाँचवाँ मैच शुरू होने का वक़्त आया तो तोपालोव शतरंज की बिसात पर आए, लेकिन क्रैमनिक अपने बंद पड़े टॉयलेट के सामने खड़े रहे. बाद में क्रैमनिक अपने रेस्ट-रूम में वापस लौट गए, जबकि तोपालोव बिसात पर अकेले पड़े रहे. अधिकारियों ने बिना कोई चाल वाले इस पाँचवें मुक़ाबले में तोपालोव को विजेता घोषित कर उन्हें पूरे अंक दे दिए.
इस अपमानजनक स्थिति के बाद क्रैमनिक ने चैम्पियनशिप में आगे खेलने से मना कर दिया. कहा कि शर्तों के मुताबिक उन्हें सिर्फ़ उनके लिए व्यक्तिगत शौचालय उपलब्ध कराया जाया, तभी बात आगे बढ़ सकती है. उन्होंने साफ़ कर दिया कि प्रतिद्वंद्वी के साथ वे किसी भी क़ीमत पर टॉयलेट शेयर नहीं करने जा रहे. ऐसे में यही लग रहा था कि पहली शतरंज विश्व चैम्पियनशिप टॉयलेट में बहने ही वाली है.
ख़ैर, FIDE प्रमुख इल्युमझिनोव की मान-मनौव्वल और राष्ट्रपति पुतिन के क्रैमनिक से खेल जारी रखने के आग्रह के बाद अंतत: दो अक्तूबर को छठा मुक़ाबला शुरू हुआ. दोनों खिलाड़ियों के दलों ने एक-दूसरे के रेस्ट-रूम का निरीक्षण किया. क्रैमनिक को व्यक्तिगत टॉयलेट उपलब्ध दोबारा उपलब्ध करा दिया गया, लेकिन इससे पहले तोपालोव के दल ने क्रैमनिक के टॉयलेट का निरीक्षण किया.
मामला तो सुलझ गया, और तोपालोव ने मुक़ाबले में शानदार वापसी भी की छठा-सातवाँ मैच ड्रॉ कर, और आठवाँ-नौवाँ मैच जीत कर. अंतत: आज आठ अक्तूबर को क्रैमनिक टॉयलेटगेट के बेहूदा हादसे से उबर पाए और दसवाँ मैच जीत कर मामला 5-5 से बराबरी पर ला दिया.
आगे के दो मैचों में कुछ भी हो सकता है. बेहतर हो क्रैमनिक जीत जाएँ या कम-से-कम संयुक्त विजेता तो ज़रूर बनें, क्योंकि टॉयलेट के चलते तोपालोव के दल ने उन्हें बेमतलब मानसिक प्रताड़ना दी. क्रैमनिक के साथ इससे भी बड़ा अन्याय ये हुआ कि पाँचवें मैच में बिना किसी चाल चले तोपालोव को पूरे अंक दे दिए गए. यदि न हुए मैच का अंक दोनों में बाँटा जाता, तो दसवें मैच के अंत में आज क्रैमनिक 5.5-4.5 से आगे चल रहे होते.
और अंत में देखिए ये चित्र. शायद तोपालोव के मैनेजर दनाइलोव की कल्पना में क्रैमनिक का टॉयलेट कुछ ऐसा ही होगा-
संक्षेप में इस टॉयलेटगेट की अब तक की कहानी इस प्रकार है:-
कलमीकिया रूस के दक्षिणी भाग में एक छोटा-सा गणतंत्र है. इसके राष्ट्रपति किर्सन इल्युमझिनोव शतरंज की मान्यता प्राप्त अंतरराष्ट्रीय संस्था विश्व शतरंज परिसंघ या FIDE के अध्यक्ष भी हैं. कलमीकिया और इल्युमझिनोव पर विस्तार से चर्चा अगले किसी पोस्ट में करूँगा, पहले टॉयलेटगेट की कहानी पर आता हूँ.
जब इस साल FIDE प्रमुख के चुनाव का वक़्त आया तो पदासीन अध्यक्ष इल्युमझिनोव के कुर्सी पर आगे भी काबिज़ रहने की संभावना कम हो चली थी. ऐसे में इल्युमझिनोव ने तुरुप का पत्ता खोला. उन्होंने कहा कि हमें पद पर बनाए रखो तो FIDE के मौजूदा चैम्पियन बुल्गारिया के वेसेलिन तोपालोव और पेशेवर शतरंत महासंघ या PCA के विश्व चैम्पियन रूस के व्लादिमीर क्रैमनिक के बीच मुक़ाबला करा देंगे. यानि शतरंज के वास्तविक विश्व चैम्पियन का फ़ैसला हो जाएगा. FIDE के सदस्य देशों के खेल पदाधिकारियों ने इल्युमझिनोफ़ पर भरोसा व्यक्त करते हुए उन्हें अध्यक्ष के रूप में पुनर्निर्वाचित करा दिया.
वर्ष 1993 के बाद से दुनिया में शतरंज के दो विश्व चैम्पियन रहे हैं. मौजूदा दो चैम्पियनों में से एक हैं तोपालोव जोकि FIDE आयोजित आधिकारिक विश्व चैम्पियनशिप 2005 के विजेता हैं. दूसरे, अनधिकृत लेकिन विश्वसनीय विश्व चैम्पियन हैं क्रैमनिक, जिन्होंने 2000 में शतरंज के बेताज बादशाह गैरी कास्पारोव को हराया था. (उस मुक़ाबले में कास्पारोव को क्रैमनिक के ख़िलाफ़ एक भी मैच में जीत नसीब नहीं हो पाई थी.) कास्पारोव ने ही 1993 में ख़ुद को FIDE से अलग करते हुए, ब्रिटेन के ग्रैंड मास्टर नाइजल शॉर्ट के साथ मिल कर PCA की नींव रखी थी. हालाँकि उनके PCA को ओलंपिक कमेटी की मान्यता नहीं मिली, और शतरंज का आधिकारिक विश्व संगठन FIDE ही बना रहा.
ख़ैर, बात बात हो रही थी इल्युमझिनोव की. अध्यक्ष के रूप में अगले कार्यकाल के लिए चुन लिए जाने के बाद उन्होंने तोपालोव और क्रैमनिक को विश्व चैम्पियनशिप मुक़ाबले में भाग लेने के लिए राज़ी कर शतरंजप्रेमियों को चौंका दिया. इस 10 लाख डॉलर पुरस्कार राशि वाली चैम्पियनशिप का आयोजन स्थल कलमीक राजधानी इलिस्ता को बनाया गया.
चैम्पियनशिप में 12 मैच रखे गए, इस शर्त के साथ कि जो पहले 6.5 अंक ले आएगा वो शतरंज का विश्व चैम्पियन घोषित होगा.
सितंबर की 23 और 24 तारीख़ को पहले और दूसरे मैच को क्रैमनिक ने जीता और 2-0 की बढ़त बना ली. तीसरे और चौथे मैच अनिर्णीत छूटे, यानि चार मैचों के बाद 27 सितंबर को क्रैमनिक 3-1 से आगे थे. तोपालोव की स्थिति कमज़ोर हो चली और शतरंज विशेषज्ञों के कॉलमों में लिखा जाने लगा कि वे अब शायद ही मुक़ाबले में आगे निकल पाएँ. हालाँकि, तोपालोव भी बेहतरीन खिलाड़ी माने जाते हैं, और उनमें किसी भी विपरीत परिस्थिति से उबरने की क्षमता है. इसलिए लगता नहीं कि वो हताश हो गए होंगे. लेकिन उनके मैनेजर सिल्वियो दनाइलोव ज़रूर हताश हो चुके थे.
तोपालोव के मैनेजर दनाइलोव ने आरोप लगाया कि मैच के बीच में क्रैमनिक बीसियों बार टॉयलेट जाते हैं, जो कि दाल में काले जैसी बात है. ख़ुद उन्होंने खुल कर और ज़्यादा कुछ नहीं कहा, लेकिन दबी ज़ुबान में दनाइलोव के गुर्गों ने आरोप लगाया कि क्रैमनिक बार-बार टॉयलेट इसलिए जाते हैं कि उन्होंने वहाँ कंप्यूटर और अन्य उपकरण जमा रखा है, जिनके ज़रिए वे आगे की चाल का फ़ैसला करते हैं.
चैम्पियनशिप में दोनों खिलाड़ियों को अपना-अपना व्यक्तिगत टॉयलेट सुलभ कराया गया था. दनाइलोव ने कहा कि तोपालोव पाँचवें मुक़ाबले में तभी उतरेंगे जबकि क्रैमनिक के टॉयलेट में ताला लगा दिया जाए, और वो उसी शौचालय का उपयोग करें जो कि तोपालोव करते हैं.
ये सब नाटक ऐसे समय हुआ जब FIDE प्रमुख इल्युमझिनोव रूसी राष्ट्रपति पुतिन के साथ एक बैठक के लिए कलमीकिया से दूर मॉस्को में थे. जब 29 सितंबर को पाँचवाँ मैच शुरू होने का वक़्त आया तो तोपालोव शतरंज की बिसात पर आए, लेकिन क्रैमनिक अपने बंद पड़े टॉयलेट के सामने खड़े रहे. बाद में क्रैमनिक अपने रेस्ट-रूम में वापस लौट गए, जबकि तोपालोव बिसात पर अकेले पड़े रहे. अधिकारियों ने बिना कोई चाल वाले इस पाँचवें मुक़ाबले में तोपालोव को विजेता घोषित कर उन्हें पूरे अंक दे दिए.
इस अपमानजनक स्थिति के बाद क्रैमनिक ने चैम्पियनशिप में आगे खेलने से मना कर दिया. कहा कि शर्तों के मुताबिक उन्हें सिर्फ़ उनके लिए व्यक्तिगत शौचालय उपलब्ध कराया जाया, तभी बात आगे बढ़ सकती है. उन्होंने साफ़ कर दिया कि प्रतिद्वंद्वी के साथ वे किसी भी क़ीमत पर टॉयलेट शेयर नहीं करने जा रहे. ऐसे में यही लग रहा था कि पहली शतरंज विश्व चैम्पियनशिप टॉयलेट में बहने ही वाली है.
ख़ैर, FIDE प्रमुख इल्युमझिनोव की मान-मनौव्वल और राष्ट्रपति पुतिन के क्रैमनिक से खेल जारी रखने के आग्रह के बाद अंतत: दो अक्तूबर को छठा मुक़ाबला शुरू हुआ. दोनों खिलाड़ियों के दलों ने एक-दूसरे के रेस्ट-रूम का निरीक्षण किया. क्रैमनिक को व्यक्तिगत टॉयलेट उपलब्ध दोबारा उपलब्ध करा दिया गया, लेकिन इससे पहले तोपालोव के दल ने क्रैमनिक के टॉयलेट का निरीक्षण किया.
मामला तो सुलझ गया, और तोपालोव ने मुक़ाबले में शानदार वापसी भी की छठा-सातवाँ मैच ड्रॉ कर, और आठवाँ-नौवाँ मैच जीत कर. अंतत: आज आठ अक्तूबर को क्रैमनिक टॉयलेटगेट के बेहूदा हादसे से उबर पाए और दसवाँ मैच जीत कर मामला 5-5 से बराबरी पर ला दिया.
आगे के दो मैचों में कुछ भी हो सकता है. बेहतर हो क्रैमनिक जीत जाएँ या कम-से-कम संयुक्त विजेता तो ज़रूर बनें, क्योंकि टॉयलेट के चलते तोपालोव के दल ने उन्हें बेमतलब मानसिक प्रताड़ना दी. क्रैमनिक के साथ इससे भी बड़ा अन्याय ये हुआ कि पाँचवें मैच में बिना किसी चाल चले तोपालोव को पूरे अंक दे दिए गए. यदि न हुए मैच का अंक दोनों में बाँटा जाता, तो दसवें मैच के अंत में आज क्रैमनिक 5.5-4.5 से आगे चल रहे होते.
और अंत में देखिए ये चित्र. शायद तोपालोव के मैनेजर दनाइलोव की कल्पना में क्रैमनिक का टॉयलेट कुछ ऐसा ही होगा-
सोमवार, अक्टूबर 02, 2006
सर्दी-ज़ुकाम से छुटकारा नहीं
चिकित्सा विज्ञान ने इतनी ज़्यादा प्रगति कर ली है कि क्लोनिंग और डिज़ायनर बेबी की चर्चा भी बिना किसी आश्चर्य भाव के साथ की जाने लगी है. लेकिन ऐसे में क्या ये विरोधाभास नहीं है कि अभी तक सर्दी-ज़ुकाम या common cold का कोई विश्वसनीय इलाज़ नहीं खोजा जा सका है?
पहली नज़र में यही लगता है कि बड़ी दवा कंपनियाँ और चिकित्सा संस्थान एड्स, कैंसर, पार्किन्संस जैसी बीमारियों का इलाज़ ढूँढने में इतने व्यस्त हैं कि सर्दी-ज़ुकाम को किसे फ़िक्र! लेकिन नहीं, ऐसी बात नहीं है. चिकित्सा जगत में ये सर्वमान्य तथ्य है कि सर्दी-ज़ुकाम 200 से ज़्यादा प्रकार के विषाणुओं की करतूत है, यानि बहुत ही जटिल बीमारी है. ज़ाहिर है इससे पार पाने के लिए सारे ज़िम्मेवार विषाणुओं से निपटना होगा, यानि बहुत ज़्यादा संसाधन झोंकने पड़ेंगे. लेकिन ये कोई जानलेवा बीमारी तो है नहीं, तो क्यों नहीं संसाधनों को अन्य बीमारियों के उपचार ढूँढने में खपाया जाए. ऐसे में कार्डिफ़ विश्वविद्यालय के कॉमन कोल्ड सेंटर के निदेशक प्रोफ़ेसर रॉन इकल्स का कहना सही है कि जब तक मानव के पास नाक रहेगी, सर्दी-ज़ुकाम भी रहेगा!
प्रोफ़ेसर इकल्स सर्दी-ज़ुकाम की समस्या की अनदेखी से ख़ासे क्षुब्ध हैं. उनका मानना है कि इस आम बीमारी को झेलने की बहुत भारी आर्थिक क़ीमत चुकानी पड़ रही है. उन्होंने कहा, "यदि आप 75 साल की उम्र तक जीते हैं तो आपको औसत 200 बार सर्दी-ज़ुकाम अपनी चपेट में लेगा...मतलब आपकी ज़िंदगी के पूरे तीन साल छींकते-खाँसते गुजरेंगे. और यदि आप 75 साल पूरे कर चुके हैं तो इस उम्र में 85 प्रतिशत मौत श्वसन संबंधी बीमारियों से होती है...मतलब पकी उम्र में सर्दी-ज़ुकाम की चपेट में आने पर राम-नाम-सत्त होने की बहुत ज़्यादा आशंका रहती है."
तो आख़िर कैसे निपटा जा सकता है हमेशा ही आसपास रहने वाले इस ख़तरे से? प्रोफ़ेसर इकल्स भी मानते हैं कि बड़ी ही मुश्किल चुनौती है. उनके अनुसार फ़्लू के असरदार टीके बनाए जा चुके हैं क्योंकि फ़्लू के लिए ज़िम्मेवार अधिकतर विषाणुओं की चाल-ढाल एक जैसी ही होती है. लेकिन सर्दी-ज़ुकाम के लिए ज़िम्मेवार माने जाने वाले 200 से ज़्यादा विषाणुओं में से अनेक अलग-अलग तरह से व्यवहार करते हैं. इसलिए सर्दी-ज़ुकाम के ख़िलाफ़ किसी टीके के क़ामयाब होने की थोड़ी भी संभावना उसी स्थिति में होगी, जब वो इनमें से कम-से-कम 100 विषाणुओं को अप्रभावी करने में सक्षम हो. ज़ाहिर है, इस तरह का कोई भी टीका बनाना अव्यावहारिक लगता है...बनाया भी तो पता नहीं कितनी ज़्यादा लागत आएगी. ये तो हुआ सर्दी-ज़ुकाम के किसी प्रभावी टीके के निर्माण का एक पक्ष.
दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष है साइट-इफ़ेक्ट्स का. कम से कम सौ तरह के विषाणुओं को बेअसर करने वाले किसी टीके के अनेक तरह के साइड-इफ़ेक्ट्स हो सकते हैं. किसी को कोई असाध्य बीमारी हो तो वह तमाम साइड-इफ़ेक्ट्स झेलने के लिए तैयार होगा, लेकिन सर्दी-ज़ुकाम के नाम पर कोई हल्का-सा भी साइड-इफ़ेक्ट्स लेने के लिए तैयार होगा...ऐसा लगता नहीं.
अभी हाल ही में सर्दी-ज़ुकाम के आधे मामलों के लिए मुख्य तौर पर ज़िम्मेवार राइनोवायरस वर्ग के विषाणुओं को बेअसर करने वाली एक दवा बनाई गई थी. चिकित्सा जगत में ख़ुशी का माहौल था कि चलो कम से कम सर्दी-ज़ुकाम के आधे मामलों से तो निपटा जा सकेगा. लेकिन ये ख़ुशी जल्दी ही ग़ायब हो गई, जब दवा के परीक्षण के दौरान पता चला कि ये शरीर के उन रसायनों के साथ प्रतिक्रिया करती है जो कि female sex hormones को प्रभावित करते हैं. हुआ ये कि सर्दी-ज़ुकाम की इस दवा को खाने पर गर्भनिरोधक गोलियाँ ले रही एक महिला गर्भवती हो गई. ये पता चलते ही इस दवा पर काम करना बंद कर दिया गया. हो भी क्यों नहीं, सर्दी-ज़ुकाम से बचने की कोशिश में गर्भवती होना कुछ ज़्यादा ही बड़ा साइड-इफ़ेक्ट है!
माना जाता है शहरों में आबादी की सघनता, तनावपूर्ण जीवनशैली और अपौष्टिक आहार के कारण सर्दी-ज़ुकाम का प्रकोप बहुत ज़्यादा बढ़ गया है. और आजकल जिस तरह का मौसम है (यानि गर्मी अपने समापन के दिनों में है और जाड़ा दस्तक दे रहा है), उसे सर्दी-ज़ुकाम का स्वर्णिम काल कह सकते हैं. सितंबर-अक्तूबर के बाद जनवरी-फ़रवरी में भी विषाणुओं के लिए इस तरह की आदर्श अवस्था बनती है. इस तरह के दिनों में यदि सर्दी-ज़ुकाम का वायरस आपके शरीर तक पहुँच चुके हैं(जहाँ जाइएगा वहीं पाइएगा!), तो शरीर के तापमान में अचानक आई गिरावट के साथ ही आप पूरी तरह उसकी गिरफ़्त में होंगे.
अनुसंधान में पाया गया है कि तनावमुक्त और ख़ुश रहने वाले लोगों को सर्दी-ज़ुकाम की चपेट में आने की संभावना अपेक्षाकृत कम रहती है. ऐसा संभव नहीं हो तो, सर्दी-ज़ुकाम के विषाणुओं से बचने की कोशिश ज़रूर करें. अपने आसपास किसी को छींकते-खाँसते देखें तो उन्हें दूर करें या ख़ुद दूर हो जाएँ.
यदि आप ख़ुद चपेट में हैं तो छींकते-खाँसते समय मुँह को रूमाल से ढंकना कैसे भूल सकते हैं...पूरी नींद लें, विक्स लगाएँ, मसालेदार भोजन का सेवन करें, जम कर गर्म पेय और सूप पीयें...साथ ही ज़रूरत से ज़्यादा पानी पीयें. सामिष हैं तो मेरा जाँचा-परखा नुस्खा:- बकरे की टाँग का शोरबा बहुत लाभकारी रहता है.
जहाँ तक दवाओं के सेवन की बात है तो सर्दी-ज़ुकाम के दौरान बुख़ार चढ़ जाए या शरीर में दर्द हो तो ही कोई दवा लेने की सलाह दी जाती है. वरना, सर्दी-ज़ुकाम के बारे में तो मशहूर है:- दवाओं का सेवन करो तो एक सप्ताह में राहत मिल जाएगी, वरना सात दिन तक लग सकते हैं!
पहली नज़र में यही लगता है कि बड़ी दवा कंपनियाँ और चिकित्सा संस्थान एड्स, कैंसर, पार्किन्संस जैसी बीमारियों का इलाज़ ढूँढने में इतने व्यस्त हैं कि सर्दी-ज़ुकाम को किसे फ़िक्र! लेकिन नहीं, ऐसी बात नहीं है. चिकित्सा जगत में ये सर्वमान्य तथ्य है कि सर्दी-ज़ुकाम 200 से ज़्यादा प्रकार के विषाणुओं की करतूत है, यानि बहुत ही जटिल बीमारी है. ज़ाहिर है इससे पार पाने के लिए सारे ज़िम्मेवार विषाणुओं से निपटना होगा, यानि बहुत ज़्यादा संसाधन झोंकने पड़ेंगे. लेकिन ये कोई जानलेवा बीमारी तो है नहीं, तो क्यों नहीं संसाधनों को अन्य बीमारियों के उपचार ढूँढने में खपाया जाए. ऐसे में कार्डिफ़ विश्वविद्यालय के कॉमन कोल्ड सेंटर के निदेशक प्रोफ़ेसर रॉन इकल्स का कहना सही है कि जब तक मानव के पास नाक रहेगी, सर्दी-ज़ुकाम भी रहेगा!
प्रोफ़ेसर इकल्स सर्दी-ज़ुकाम की समस्या की अनदेखी से ख़ासे क्षुब्ध हैं. उनका मानना है कि इस आम बीमारी को झेलने की बहुत भारी आर्थिक क़ीमत चुकानी पड़ रही है. उन्होंने कहा, "यदि आप 75 साल की उम्र तक जीते हैं तो आपको औसत 200 बार सर्दी-ज़ुकाम अपनी चपेट में लेगा...मतलब आपकी ज़िंदगी के पूरे तीन साल छींकते-खाँसते गुजरेंगे. और यदि आप 75 साल पूरे कर चुके हैं तो इस उम्र में 85 प्रतिशत मौत श्वसन संबंधी बीमारियों से होती है...मतलब पकी उम्र में सर्दी-ज़ुकाम की चपेट में आने पर राम-नाम-सत्त होने की बहुत ज़्यादा आशंका रहती है."
तो आख़िर कैसे निपटा जा सकता है हमेशा ही आसपास रहने वाले इस ख़तरे से? प्रोफ़ेसर इकल्स भी मानते हैं कि बड़ी ही मुश्किल चुनौती है. उनके अनुसार फ़्लू के असरदार टीके बनाए जा चुके हैं क्योंकि फ़्लू के लिए ज़िम्मेवार अधिकतर विषाणुओं की चाल-ढाल एक जैसी ही होती है. लेकिन सर्दी-ज़ुकाम के लिए ज़िम्मेवार माने जाने वाले 200 से ज़्यादा विषाणुओं में से अनेक अलग-अलग तरह से व्यवहार करते हैं. इसलिए सर्दी-ज़ुकाम के ख़िलाफ़ किसी टीके के क़ामयाब होने की थोड़ी भी संभावना उसी स्थिति में होगी, जब वो इनमें से कम-से-कम 100 विषाणुओं को अप्रभावी करने में सक्षम हो. ज़ाहिर है, इस तरह का कोई भी टीका बनाना अव्यावहारिक लगता है...बनाया भी तो पता नहीं कितनी ज़्यादा लागत आएगी. ये तो हुआ सर्दी-ज़ुकाम के किसी प्रभावी टीके के निर्माण का एक पक्ष.
दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष है साइट-इफ़ेक्ट्स का. कम से कम सौ तरह के विषाणुओं को बेअसर करने वाले किसी टीके के अनेक तरह के साइड-इफ़ेक्ट्स हो सकते हैं. किसी को कोई असाध्य बीमारी हो तो वह तमाम साइड-इफ़ेक्ट्स झेलने के लिए तैयार होगा, लेकिन सर्दी-ज़ुकाम के नाम पर कोई हल्का-सा भी साइड-इफ़ेक्ट्स लेने के लिए तैयार होगा...ऐसा लगता नहीं.
अभी हाल ही में सर्दी-ज़ुकाम के आधे मामलों के लिए मुख्य तौर पर ज़िम्मेवार राइनोवायरस वर्ग के विषाणुओं को बेअसर करने वाली एक दवा बनाई गई थी. चिकित्सा जगत में ख़ुशी का माहौल था कि चलो कम से कम सर्दी-ज़ुकाम के आधे मामलों से तो निपटा जा सकेगा. लेकिन ये ख़ुशी जल्दी ही ग़ायब हो गई, जब दवा के परीक्षण के दौरान पता चला कि ये शरीर के उन रसायनों के साथ प्रतिक्रिया करती है जो कि female sex hormones को प्रभावित करते हैं. हुआ ये कि सर्दी-ज़ुकाम की इस दवा को खाने पर गर्भनिरोधक गोलियाँ ले रही एक महिला गर्भवती हो गई. ये पता चलते ही इस दवा पर काम करना बंद कर दिया गया. हो भी क्यों नहीं, सर्दी-ज़ुकाम से बचने की कोशिश में गर्भवती होना कुछ ज़्यादा ही बड़ा साइड-इफ़ेक्ट है!
माना जाता है शहरों में आबादी की सघनता, तनावपूर्ण जीवनशैली और अपौष्टिक आहार के कारण सर्दी-ज़ुकाम का प्रकोप बहुत ज़्यादा बढ़ गया है. और आजकल जिस तरह का मौसम है (यानि गर्मी अपने समापन के दिनों में है और जाड़ा दस्तक दे रहा है), उसे सर्दी-ज़ुकाम का स्वर्णिम काल कह सकते हैं. सितंबर-अक्तूबर के बाद जनवरी-फ़रवरी में भी विषाणुओं के लिए इस तरह की आदर्श अवस्था बनती है. इस तरह के दिनों में यदि सर्दी-ज़ुकाम का वायरस आपके शरीर तक पहुँच चुके हैं(जहाँ जाइएगा वहीं पाइएगा!), तो शरीर के तापमान में अचानक आई गिरावट के साथ ही आप पूरी तरह उसकी गिरफ़्त में होंगे.
अनुसंधान में पाया गया है कि तनावमुक्त और ख़ुश रहने वाले लोगों को सर्दी-ज़ुकाम की चपेट में आने की संभावना अपेक्षाकृत कम रहती है. ऐसा संभव नहीं हो तो, सर्दी-ज़ुकाम के विषाणुओं से बचने की कोशिश ज़रूर करें. अपने आसपास किसी को छींकते-खाँसते देखें तो उन्हें दूर करें या ख़ुद दूर हो जाएँ.
यदि आप ख़ुद चपेट में हैं तो छींकते-खाँसते समय मुँह को रूमाल से ढंकना कैसे भूल सकते हैं...पूरी नींद लें, विक्स लगाएँ, मसालेदार भोजन का सेवन करें, जम कर गर्म पेय और सूप पीयें...साथ ही ज़रूरत से ज़्यादा पानी पीयें. सामिष हैं तो मेरा जाँचा-परखा नुस्खा:- बकरे की टाँग का शोरबा बहुत लाभकारी रहता है.
जहाँ तक दवाओं के सेवन की बात है तो सर्दी-ज़ुकाम के दौरान बुख़ार चढ़ जाए या शरीर में दर्द हो तो ही कोई दवा लेने की सलाह दी जाती है. वरना, सर्दी-ज़ुकाम के बारे में तो मशहूर है:- दवाओं का सेवन करो तो एक सप्ताह में राहत मिल जाएगी, वरना सात दिन तक लग सकते हैं!
मंगलवार, सितंबर 26, 2006
कचराकृति बनी कलाकार की पहचान
बाज़ारवाद के इस युग में कुछ भी बेचा जा सकता है. यहाँ तक कि कूड़ा-कर्कट भी बिकता है. आप कहेंगे कि इसमें कोई असामान्य बात नहीं, क्योंकि पढ़े-लिखे खाते-पीते लोगों का रिसाइक्लिंग पर बड़ा ज़ोर है. लेकिन कोई व्यक्ति कूड़े को कला के रूप में बेच कर मालामाल हो रहा हो, तो थोड़ी अचरज तो होगी ही.
कूड़े को कलाकृति के रूप में बेचने वाले ये सज्जन हैं- जस्टिन गिगनैक. भारत में भी फेंकी गई बोतलों, ढक्कनों, स्ट्रॉ आदि से कलाकृतियाँ बनाई जाती हैं, और आमतौर पर ऐसा शौकिया तौर पर किया जाता है. लेकिन जस्टिन की बाक़ायदा वेबसाइट है कचराकृति बेचने के लिए. ये न्यूयॉर्क के कचरे को अपनी वेबसाइट के ज़रिए दुनिया भर के लोगों को बेचते हैं. कभी-कभार न्यूयॉर्क की सड़कों पर भी दुकान सजा लेते हैं.
जस्टिन की कचराकृति के रूप में कूड़े के एक छोटे से पैकेट की क़ीमत 10 से 100 डॉलर के बीच कुछ भी हो सकती है. अब तक 800 से ज़्यादा पैकेट बिक भी चुके हैं. दो तरह की दर है: आम दिनों के कचरे अपेक्षाकृत सस्ते में, जबकि विशेष जगह या दिन वाले कचरे 100 डॉलर प्रति पैकेट के हिसाब से. महंगे कचरे के पैकेटों में से एक है इस साल 'यांकी स्टेडियम ओपनिंग डे' के विशेष अवसर पर उठाया गया कूड़ा. विश्वास नहीं हो तो इस पेज पर ख़ुद ऑर्डर करके देखें.
जस्टिन को ये सुनना पसंद नहीं कि वो कचरा बेच रहे हैं. उन्हें लगता है ऐसा कहने वाले उनकी कला का अनादर कर रहे हैं. मतलब, न्यूयॉर्क के स्कूल ऑफ़ विज़ुअल आर्ट का ग्रेजुएट जस्टिन कचराकृति बेच रहा है, कचरा नहीं! उनका कहना है कि एक विज्ञापन एजेंसी में आर्ट डाइरेक्टर की नौकरी से उनकी दाल-रोटी चल जाती है, इसलिए लोगों को समझना चाहिए किसी विशेष उद्देश्य से ही वो कचरे का धंधा कर रहे हैं.
जस्टिन के काम करने का बिल्कुल आसान तरीका है: न्यूयॉर्क की सड़कों पर से कुछ डिब्बे, कनस्तर, बोतल, गिलास, चम्मच, टिकट, रद्दी आदि चुनना और उसे एक पारदर्शी क्यूब में पैक कर देना. इसके बाद प्लास्टिक के घनाकार पैकेट पर वो अपना हस्ताक्षर करते हैं और पैकेट की सील पर कचरे के पैदाइश की तिथि डालते हैं, यानि वो दिन जिस दिन उन्होंने कचरे को कलाकृति का रूप देने के लिए सड़क से उठाया था.
आप कहेंगे कौन पागल ख़रीदेगा पैकेट में रखा गया बिल्कुल असल का कचरा. तो भैया, मुगालते में नहीं रहिए. जस्टिन की वेबसाइट पर जाकर तो देखिए. आज की तारीख़ में अमरीका के 41 राज्यों और दुनिया के 20 देशों में उनकी कचराकृति पहुँच चुकी है.
जस्टिन का कचरा खरीदने पर आपको उनकी तरफ़ से गारंटी मिलती है कि पैकेट पर तो तिथि अंकित है कचरा ठीक उसी दिन का है. लोगों का भरोसा जीतने के लिए उनका एक और दावा है कि उनके कचरे असल के कचरे हैं, ये नहीं कि पैसे कमाने के लिए दुकान से सस्ती चीज़ें खरीद कर पैक कर दिया हो. उनका कहना है कि जब न्यूयॉर्क के लोग प्रतिदिन कोई एक करोड़ किलोग्राम कचरा रोज़ फेंकते हों, तो कचरे के नाम पर बाज़ार से ख़रीद कर चीज़ें बेचना सरासर धोखाधड़ी होगी.
जस्टिन की कचराकृति के ख़रीदारों में ज़मीन से जुड़ी चीज़ों की चाहत रखने वाले आमजनों से लेकर बड़े-बड़े कला-पारखी तक हर वर्ग के लोग हैं. सवाल ये है कि जस्टिन ने कलाकार बनने की शिक्षा पूरी की है, तो भला वे कूड़ा बेचने के धंधे में कैसे आए? इसके जवाब में इस कचराकार का कहना है कि एमटीवी में इंटर्नशिप के दौरान वो पैकेजिंग के महत्व पर एक बहस में शामिल थे. बहस में इन्होंने पैकेजिंग को बड़ी अहमियत दी, तो किसी ने इन्हें चुनौती दे डाली. ऐसे में इनके पास अपनी बात को सही साबित करने का एक ही उपाय था- पैकेजिंग के बल पर कचरा बेच कर दिखाओ.
इस तरह एक कलाकार बन गया कचराकार...आगे कोई बड़ा उद्योगपति बन जाए तो कोई आश्चर्य नहीं. जस्टिन ने एक कंपनी रजिस्टर्ड करा ली है और अपनी गर्लफ्रैंड को कंपनी के उपाध्यक्ष के रूप में नौकरी भी दे दी है. जस्टिन को लंदन और बर्लिन में फ़्रेंचाइज़ के लिए प्रस्ताव मिल चुके हैं. हालाँकि, दूसरे शहरों में मौजूदा व्यापार फैलाने से पहले वो 'ट्रैश-वॉलहैंगिंग' यानि कमरे की दीवार पर टाँगी जाने वाली कचराकृति बेचने की शुरूआत करना चाहते हैं.
कूड़े को कलाकृति के रूप में बेचने वाले ये सज्जन हैं- जस्टिन गिगनैक. भारत में भी फेंकी गई बोतलों, ढक्कनों, स्ट्रॉ आदि से कलाकृतियाँ बनाई जाती हैं, और आमतौर पर ऐसा शौकिया तौर पर किया जाता है. लेकिन जस्टिन की बाक़ायदा वेबसाइट है कचराकृति बेचने के लिए. ये न्यूयॉर्क के कचरे को अपनी वेबसाइट के ज़रिए दुनिया भर के लोगों को बेचते हैं. कभी-कभार न्यूयॉर्क की सड़कों पर भी दुकान सजा लेते हैं.
जस्टिन की कचराकृति के रूप में कूड़े के एक छोटे से पैकेट की क़ीमत 10 से 100 डॉलर के बीच कुछ भी हो सकती है. अब तक 800 से ज़्यादा पैकेट बिक भी चुके हैं. दो तरह की दर है: आम दिनों के कचरे अपेक्षाकृत सस्ते में, जबकि विशेष जगह या दिन वाले कचरे 100 डॉलर प्रति पैकेट के हिसाब से. महंगे कचरे के पैकेटों में से एक है इस साल 'यांकी स्टेडियम ओपनिंग डे' के विशेष अवसर पर उठाया गया कूड़ा. विश्वास नहीं हो तो इस पेज पर ख़ुद ऑर्डर करके देखें.
जस्टिन को ये सुनना पसंद नहीं कि वो कचरा बेच रहे हैं. उन्हें लगता है ऐसा कहने वाले उनकी कला का अनादर कर रहे हैं. मतलब, न्यूयॉर्क के स्कूल ऑफ़ विज़ुअल आर्ट का ग्रेजुएट जस्टिन कचराकृति बेच रहा है, कचरा नहीं! उनका कहना है कि एक विज्ञापन एजेंसी में आर्ट डाइरेक्टर की नौकरी से उनकी दाल-रोटी चल जाती है, इसलिए लोगों को समझना चाहिए किसी विशेष उद्देश्य से ही वो कचरे का धंधा कर रहे हैं.
जस्टिन के काम करने का बिल्कुल आसान तरीका है: न्यूयॉर्क की सड़कों पर से कुछ डिब्बे, कनस्तर, बोतल, गिलास, चम्मच, टिकट, रद्दी आदि चुनना और उसे एक पारदर्शी क्यूब में पैक कर देना. इसके बाद प्लास्टिक के घनाकार पैकेट पर वो अपना हस्ताक्षर करते हैं और पैकेट की सील पर कचरे के पैदाइश की तिथि डालते हैं, यानि वो दिन जिस दिन उन्होंने कचरे को कलाकृति का रूप देने के लिए सड़क से उठाया था.
आप कहेंगे कौन पागल ख़रीदेगा पैकेट में रखा गया बिल्कुल असल का कचरा. तो भैया, मुगालते में नहीं रहिए. जस्टिन की वेबसाइट पर जाकर तो देखिए. आज की तारीख़ में अमरीका के 41 राज्यों और दुनिया के 20 देशों में उनकी कचराकृति पहुँच चुकी है.
जस्टिन का कचरा खरीदने पर आपको उनकी तरफ़ से गारंटी मिलती है कि पैकेट पर तो तिथि अंकित है कचरा ठीक उसी दिन का है. लोगों का भरोसा जीतने के लिए उनका एक और दावा है कि उनके कचरे असल के कचरे हैं, ये नहीं कि पैसे कमाने के लिए दुकान से सस्ती चीज़ें खरीद कर पैक कर दिया हो. उनका कहना है कि जब न्यूयॉर्क के लोग प्रतिदिन कोई एक करोड़ किलोग्राम कचरा रोज़ फेंकते हों, तो कचरे के नाम पर बाज़ार से ख़रीद कर चीज़ें बेचना सरासर धोखाधड़ी होगी.
जस्टिन की कचराकृति के ख़रीदारों में ज़मीन से जुड़ी चीज़ों की चाहत रखने वाले आमजनों से लेकर बड़े-बड़े कला-पारखी तक हर वर्ग के लोग हैं. सवाल ये है कि जस्टिन ने कलाकार बनने की शिक्षा पूरी की है, तो भला वे कूड़ा बेचने के धंधे में कैसे आए? इसके जवाब में इस कचराकार का कहना है कि एमटीवी में इंटर्नशिप के दौरान वो पैकेजिंग के महत्व पर एक बहस में शामिल थे. बहस में इन्होंने पैकेजिंग को बड़ी अहमियत दी, तो किसी ने इन्हें चुनौती दे डाली. ऐसे में इनके पास अपनी बात को सही साबित करने का एक ही उपाय था- पैकेजिंग के बल पर कचरा बेच कर दिखाओ.
इस तरह एक कलाकार बन गया कचराकार...आगे कोई बड़ा उद्योगपति बन जाए तो कोई आश्चर्य नहीं. जस्टिन ने एक कंपनी रजिस्टर्ड करा ली है और अपनी गर्लफ्रैंड को कंपनी के उपाध्यक्ष के रूप में नौकरी भी दे दी है. जस्टिन को लंदन और बर्लिन में फ़्रेंचाइज़ के लिए प्रस्ताव मिल चुके हैं. हालाँकि, दूसरे शहरों में मौजूदा व्यापार फैलाने से पहले वो 'ट्रैश-वॉलहैंगिंग' यानि कमरे की दीवार पर टाँगी जाने वाली कचराकृति बेचने की शुरूआत करना चाहते हैं.
रविवार, अगस्त 27, 2006
आया ज़माना 'उत्पभोक्ता' का
प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हो रहे नित नए विकास के कारण प्रोड्यूसर(उत्पादक) और कंज़्यूमर(उपभोक्ता) का मेल हो रहा है, और जन्म हो रहा है 'प्रोज़्यूमर' का. प्रोज़्यूमर जिसे हिंदी में 'उत्पभोक्ता' कहा जा सकता है. यह सिद्धांत एल्विन टोफ़लर का है.
एल्विन टोफ़लर 77 साल के भविष्यद्रष्टा हैं. कोई ज्योतिषी नहीं बल्कि बिल्कुल शाब्दिक अर्थों में 'भविष्यद्रष्टा' हैं. भविष्य की परिकल्पना करने को उन्होंने अपना पेशा बना रखा है. अपनी पत्नी हेइडि के साथ मिल कर वह भविष्य की दुनिया और समाज के बारे में कई किताबें लिख चुके हैं. अभी हाल ही में उनकी नई किताब आई है- रिवोल्युशनरि वेल्थ. इससे पहले की उनकी किताबों में 'फ़्यूचर शॉक' और 'द थर्ड वेव' बहुत ज़्यादा चर्चित रही हैं.
पिछले सप्ताह फ़ाइनेंशियल टाइम्स अख़बार ने उनका विस्तृत साक्षात्कार छापा है. इस साक्षात्कार में टोफ़लर ने भविष्य के समाज की भविष्यवाणी करते हुए प्रोज़्यूमर या उत्पभोक्ता के युग के आगमन की बात की है. उत्पभोक्ता का उदाहरण देते हुए वह बुज़ुर्गों की बढ़ती हुई आबादी की बात करते हैं- "वो दिन दूर नहीं जब दुनिया में साठ साल से ज़्यादा उम्र के लोगों की आबादी एक अरब को पार कर जाएगी. वे नई प्रौद्योगिकी प्रदत्त उपकरणों के ज़रिए अपनी बीमारी का पता करने से लेकर नैनोटेक्नोलॉजि आधारित उपचार तक, वो सब काम कर रहे होंगे जो कि आज एक डॉक्टर का काम माना जाता है. इससे 'हेल्थ-सेक्टर' के कामकाज़ का तरीक़ा पूरी तरह बदल जाएगा." टोफ़लर अपने इस उदाहरण को और ज़्यादा फैलाते हुए बताते हैं कि धनरहित अर्थव्यवस्था वाला बुज़ुर्गों का समाज भविष्य में चिकित्सा प्रौद्योगिकी के बाज़ार को बहुत तेज़ी से आगे बढ़ाएगा, और इस क्रम में कुछ लोग भारी मात्रा में पैसा बनाएँगे.
एल्विन टोफ़लर कहते हैं कि प्रोज़्यूमिंग या उत्पभोग कई मामलों में आउटसोर्सिंग को नया अर्थ देता है. इस प्रकार की आउटसोर्सिंग में काम सस्ते दर पर भारत या फ़िलिपींस की कोई कंपनी नहीं करा रही होती है, बल्कि उपभोक्ता ख़ुद मुफ़्त में काम कर रहा होता है. इस प्रक्रिया के उदाहरण में वो बैंक टेलर काउंटरों की जगह एटीएम मशीनों के इस्तेमाल के चलन का उल्लेख करते हैं.
अर्थव्यवस्था के भावी स्वरूप की चर्चा करते हुए टोफ़लर एक चौंकाने वाली घोषणा करते हैं- 'प्रोज़्यूमर युग में धन का एक बड़ा स्रोत का धरती से 12,000 मील ऊपर टिका हुआ है'. वह कहते हैं- "ग्लोबल पोज़ीशनिंग उपग्रह आज मोबाइल फ़ोन से लेकर एटीएम मशीनों तक अनेक प्रक्रियाओं में 'टाइम और डाटा स्ट्रीम' को परस्पर संतुलित रखने के लिए ज़िम्मेदार हैं. एयर ट्रैफ़िक कंट्रोल के भी केंद्र में जीपीएस ही है. मौसम की सटीक भविष्यवाणी के ज़रिए उपग्रह कृषि उत्पादकता बढ़ाने के लिए भी ज़िम्मेदार हैं." ऐसे में जब टोफ़लर कहते हैं कि 'Wealth today is created everywhere(globalisation), nowhere(cyberspace) and out there(outer space)', तो उनकी बात में दम लगता है.
'मास्टर थिंकर' माने जाने वाले टोफ़लर के अनुसार आर्थिक व्यवस्था के विविध रूप सामने आते जाने का प्रभाव हमारे व्यक्तिगत जीवन पर भी पड़ रहा है. वह कहते हैं, "परिवार ख़त्म नहीं होगा, लेकिन पारिवारिक व्यवस्था के नए रूपों का उदय ज़रूर होगा. समलैंगिकों की शादी को स्वीकृति मिलती जा रही है. अकेली माताओं, अविवाहित युगलों, बिना बाल-बच्चे वाले विवाहित जोड़ों और कई-कई शादियाँ कर चुके माता-पिता हर समाज में देखे जा रहे हैं. एक साथी के साथ ज़िंदगी गुजारने का चलन भले ही ख़त्म नहीं हो, लेकिन एकाधिक साथियों के साथ संबंध को व्यापक स्वीकृति मिलने लगेगी."
टोफ़लर का कहना है कि कामकाज़ में मानकीकरण की ज़रूरत कम होते जाने के साथ ही ज़्यादा-से-ज़्यादा लोग अपनी इच्छा के अनुसार(customised time में) काम करेंगे. उत्पभोक्ता नौकरी या करियर के बज़ाय 'creative piece work' में लगे रहेंगे. ज़्यादा-से ज़्यादा कामकाज़ कारखाने या दफ़्तर के बज़ाय घर में होगा.
इतने परिवर्तन से समाज में उथलपुथल नहीं मच जाएगी क्योंकि हर समाज में एक बड़ी संख्या यथास्थितिवादियों की होती है? इस सवाल के जवाब में टोफ़लर का कहना है कि पूरी दुनिया में जगह-जगह wave conflict या 'धारा संघर्ष' शुरू हो जाएगा. इस संबंध में वो पिछले दिनों मेक्सिको में हुए चुनाव का ज़िक्र करते हैं जहाँ दो पक्षों के बीच लगभग 50-50 प्रतिशत मत बँटे. पहले पक्ष के साथ थे 'पहली धारा' के दक्षिणी हिस्से के किसान और 'दूसरी धारा' के शहरी श्रमिक संघ, जबकि दूसरे पक्ष में थे 'तीसरी धारा' के उत्तरी हिस्से के संपन्न लोग जिन्हें क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग संधि नाफ़्टा और भूमंडलीकरण का ज़्यादा फ़ायदा मिला है. टोफ़लर की मानें तो चीन, ब्राज़ील और कई अन्य देशों में भी इस तरह के शक्ति परीक्षण की आशंका बढ़ गई है.
अमरीका में विभिन्न संस्थाओं और संस्थानों को वो पुराने और नए के बीच clash of speeds या 'गति के संघर्ष' में फंस गया मानते हैं. टोफ़लर के अनुसार यदि कल्पना करें कि अमरीकी व्यवसाय जगत 100 मील प्रति घंटे की रफ़्तार से चल रहा है, तो भविष्य के लिए युवाओं को तैयार करने की ज़िम्मेदारी उठाने वाले शिक्षण संस्थान मात्र 10 मील प्रति घंटे की रफ़्तार से आगे बढ़ रहे हैं. निराश स्वर में उन्होंने कहा- "इस क़दर 'डिसिन्क्रोनाइज़ेशन' के रहते आप एक सफल अर्थव्यवस्था नहीं पा सकते." जापान को भी वह इसी कसौटी पर पिछड़ता जा रहा मानते हैं. अंतरराष्ट्रीय राजनीति की बात करें तो 'प्रीमाडर्न इस्लाम' और 'पोस्टमाडर्न उपभोक्ताओं' के बीच टोफ़लर को इसी तरह का डिसिन्क्रोनाइज़ेशन दिखता है.
'फ़ाइनेंशियल टाइम्स' के इंटरव्यू के अंतिम हिस्से में टोफ़लर से पूछा गया कि उनकी भविष्यवाणियाँ ग़लत भी साबित हुई हैं, तो उन्होंने ईमानदारी से कई ग़लत निकली भविष्यवाणियों की चर्चा की- "हमने मानव और पशु क्लोनिंग की 1970 के दशक में चर्चा करते हुए कहा था कि 1980 के दशक के मध्य तक ये आम वास्तविकता बन जाएगी. हमने विज्ञान की धीमी गति को नज़रअंदाज़ कर दिया था. इस संबंध में हमने नैतिक सवालों की बात की थी, लेकिन हमने विज्ञान-विरोधी ईसाई दक्षिणपंथियों की ताक़त का अंदाज़ा नहीं लगाया था,...इसी तरह काग़ज़रहित ऑफ़िस की हमारी भविष्यवाणी भी अब तक वास्तविकता नहीं बन पाई है."
एल्विन टोफ़लर 77 साल के भविष्यद्रष्टा हैं. कोई ज्योतिषी नहीं बल्कि बिल्कुल शाब्दिक अर्थों में 'भविष्यद्रष्टा' हैं. भविष्य की परिकल्पना करने को उन्होंने अपना पेशा बना रखा है. अपनी पत्नी हेइडि के साथ मिल कर वह भविष्य की दुनिया और समाज के बारे में कई किताबें लिख चुके हैं. अभी हाल ही में उनकी नई किताब आई है- रिवोल्युशनरि वेल्थ. इससे पहले की उनकी किताबों में 'फ़्यूचर शॉक' और 'द थर्ड वेव' बहुत ज़्यादा चर्चित रही हैं.
पिछले सप्ताह फ़ाइनेंशियल टाइम्स अख़बार ने उनका विस्तृत साक्षात्कार छापा है. इस साक्षात्कार में टोफ़लर ने भविष्य के समाज की भविष्यवाणी करते हुए प्रोज़्यूमर या उत्पभोक्ता के युग के आगमन की बात की है. उत्पभोक्ता का उदाहरण देते हुए वह बुज़ुर्गों की बढ़ती हुई आबादी की बात करते हैं- "वो दिन दूर नहीं जब दुनिया में साठ साल से ज़्यादा उम्र के लोगों की आबादी एक अरब को पार कर जाएगी. वे नई प्रौद्योगिकी प्रदत्त उपकरणों के ज़रिए अपनी बीमारी का पता करने से लेकर नैनोटेक्नोलॉजि आधारित उपचार तक, वो सब काम कर रहे होंगे जो कि आज एक डॉक्टर का काम माना जाता है. इससे 'हेल्थ-सेक्टर' के कामकाज़ का तरीक़ा पूरी तरह बदल जाएगा." टोफ़लर अपने इस उदाहरण को और ज़्यादा फैलाते हुए बताते हैं कि धनरहित अर्थव्यवस्था वाला बुज़ुर्गों का समाज भविष्य में चिकित्सा प्रौद्योगिकी के बाज़ार को बहुत तेज़ी से आगे बढ़ाएगा, और इस क्रम में कुछ लोग भारी मात्रा में पैसा बनाएँगे.
एल्विन टोफ़लर कहते हैं कि प्रोज़्यूमिंग या उत्पभोग कई मामलों में आउटसोर्सिंग को नया अर्थ देता है. इस प्रकार की आउटसोर्सिंग में काम सस्ते दर पर भारत या फ़िलिपींस की कोई कंपनी नहीं करा रही होती है, बल्कि उपभोक्ता ख़ुद मुफ़्त में काम कर रहा होता है. इस प्रक्रिया के उदाहरण में वो बैंक टेलर काउंटरों की जगह एटीएम मशीनों के इस्तेमाल के चलन का उल्लेख करते हैं.
अर्थव्यवस्था के भावी स्वरूप की चर्चा करते हुए टोफ़लर एक चौंकाने वाली घोषणा करते हैं- 'प्रोज़्यूमर युग में धन का एक बड़ा स्रोत का धरती से 12,000 मील ऊपर टिका हुआ है'. वह कहते हैं- "ग्लोबल पोज़ीशनिंग उपग्रह आज मोबाइल फ़ोन से लेकर एटीएम मशीनों तक अनेक प्रक्रियाओं में 'टाइम और डाटा स्ट्रीम' को परस्पर संतुलित रखने के लिए ज़िम्मेदार हैं. एयर ट्रैफ़िक कंट्रोल के भी केंद्र में जीपीएस ही है. मौसम की सटीक भविष्यवाणी के ज़रिए उपग्रह कृषि उत्पादकता बढ़ाने के लिए भी ज़िम्मेदार हैं." ऐसे में जब टोफ़लर कहते हैं कि 'Wealth today is created everywhere(globalisation), nowhere(cyberspace) and out there(outer space)', तो उनकी बात में दम लगता है.
'मास्टर थिंकर' माने जाने वाले टोफ़लर के अनुसार आर्थिक व्यवस्था के विविध रूप सामने आते जाने का प्रभाव हमारे व्यक्तिगत जीवन पर भी पड़ रहा है. वह कहते हैं, "परिवार ख़त्म नहीं होगा, लेकिन पारिवारिक व्यवस्था के नए रूपों का उदय ज़रूर होगा. समलैंगिकों की शादी को स्वीकृति मिलती जा रही है. अकेली माताओं, अविवाहित युगलों, बिना बाल-बच्चे वाले विवाहित जोड़ों और कई-कई शादियाँ कर चुके माता-पिता हर समाज में देखे जा रहे हैं. एक साथी के साथ ज़िंदगी गुजारने का चलन भले ही ख़त्म नहीं हो, लेकिन एकाधिक साथियों के साथ संबंध को व्यापक स्वीकृति मिलने लगेगी."
टोफ़लर का कहना है कि कामकाज़ में मानकीकरण की ज़रूरत कम होते जाने के साथ ही ज़्यादा-से-ज़्यादा लोग अपनी इच्छा के अनुसार(customised time में) काम करेंगे. उत्पभोक्ता नौकरी या करियर के बज़ाय 'creative piece work' में लगे रहेंगे. ज़्यादा-से ज़्यादा कामकाज़ कारखाने या दफ़्तर के बज़ाय घर में होगा.
इतने परिवर्तन से समाज में उथलपुथल नहीं मच जाएगी क्योंकि हर समाज में एक बड़ी संख्या यथास्थितिवादियों की होती है? इस सवाल के जवाब में टोफ़लर का कहना है कि पूरी दुनिया में जगह-जगह wave conflict या 'धारा संघर्ष' शुरू हो जाएगा. इस संबंध में वो पिछले दिनों मेक्सिको में हुए चुनाव का ज़िक्र करते हैं जहाँ दो पक्षों के बीच लगभग 50-50 प्रतिशत मत बँटे. पहले पक्ष के साथ थे 'पहली धारा' के दक्षिणी हिस्से के किसान और 'दूसरी धारा' के शहरी श्रमिक संघ, जबकि दूसरे पक्ष में थे 'तीसरी धारा' के उत्तरी हिस्से के संपन्न लोग जिन्हें क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग संधि नाफ़्टा और भूमंडलीकरण का ज़्यादा फ़ायदा मिला है. टोफ़लर की मानें तो चीन, ब्राज़ील और कई अन्य देशों में भी इस तरह के शक्ति परीक्षण की आशंका बढ़ गई है.
अमरीका में विभिन्न संस्थाओं और संस्थानों को वो पुराने और नए के बीच clash of speeds या 'गति के संघर्ष' में फंस गया मानते हैं. टोफ़लर के अनुसार यदि कल्पना करें कि अमरीकी व्यवसाय जगत 100 मील प्रति घंटे की रफ़्तार से चल रहा है, तो भविष्य के लिए युवाओं को तैयार करने की ज़िम्मेदारी उठाने वाले शिक्षण संस्थान मात्र 10 मील प्रति घंटे की रफ़्तार से आगे बढ़ रहे हैं. निराश स्वर में उन्होंने कहा- "इस क़दर 'डिसिन्क्रोनाइज़ेशन' के रहते आप एक सफल अर्थव्यवस्था नहीं पा सकते." जापान को भी वह इसी कसौटी पर पिछड़ता जा रहा मानते हैं. अंतरराष्ट्रीय राजनीति की बात करें तो 'प्रीमाडर्न इस्लाम' और 'पोस्टमाडर्न उपभोक्ताओं' के बीच टोफ़लर को इसी तरह का डिसिन्क्रोनाइज़ेशन दिखता है.
'फ़ाइनेंशियल टाइम्स' के इंटरव्यू के अंतिम हिस्से में टोफ़लर से पूछा गया कि उनकी भविष्यवाणियाँ ग़लत भी साबित हुई हैं, तो उन्होंने ईमानदारी से कई ग़लत निकली भविष्यवाणियों की चर्चा की- "हमने मानव और पशु क्लोनिंग की 1970 के दशक में चर्चा करते हुए कहा था कि 1980 के दशक के मध्य तक ये आम वास्तविकता बन जाएगी. हमने विज्ञान की धीमी गति को नज़रअंदाज़ कर दिया था. इस संबंध में हमने नैतिक सवालों की बात की थी, लेकिन हमने विज्ञान-विरोधी ईसाई दक्षिणपंथियों की ताक़त का अंदाज़ा नहीं लगाया था,...इसी तरह काग़ज़रहित ऑफ़िस की हमारी भविष्यवाणी भी अब तक वास्तविकता नहीं बन पाई है."
गुरुवार, अगस्त 24, 2006
ख़त्म हुआ प्लूटो का राजयोग
आख़िरकार प्लूटो को ग्रहों की पंक्ति से बाहर निकाल ही दिया गया. छोटे उस्ताद एक-दो नहीं, बल्कि पूरे 75 साल तक आठ बड़ों के साथ बड़ा बन कर रहे.
प्लूटो की ग्रहदशा ख़राब की, प्राग में जुटे 75 देशों के खगोलविदों ने 24 अगस्त 2006 को, जब अंतरराष्ट्रीय खगोलीय संघ की महासभा में ग्रह की परिभाषा पर सहमति बनी. नई कसौटी पर प्लूटो खरा नहीं उतर पाया.
आश्चर्य की बात है कि आज तक ग्रह की कोई सर्वमान्य या औपचारिक परिभाषा नहीं थी. प्राग में क़रीब ढाई हज़ार खगोलविदों के बीच मतदान के ज़रिए जिस परिभाषा पर अंतत: सहमति बनी है, उसमें सौरमंडल के किसी पिंड के ग्रह होने के लिए तीन मानक तय किए गए हैं-
1. यह सूर्य की परिक्रमा करता हो
2. यह इतना बड़ा ज़रूर हो कि अपने गुरुत्व बल के कारण इसका आकार लगभग गोलाकार हो जाए
3. इसमें इतना ज़ोर हो कि ये बाक़ी पिंडों से अलग अपनी स्वतंत्र कक्षा बना सके
...और तीसरी अपेक्षा पर प्लूटो खरा नहीं उतरता है, क्योंकि सूर्य की परिक्रमा के दौरान इसकी कक्षा नेप्चून की कक्षा से टकराती है.
अब प्लूटो ग्रह कहलाने का हक़दार नहीं रह गया है. लेकिन जब 1930 में प्लूटो को ढूँढा गया तो बड़े ही सम्मान के साथ उसे ग्रह का दर्जा दे दिया गया था. हालाँकि शुरू से ही खगोलविदों का एक वर्ग इसे, ख़ास कर इसके छोटे आकार के कारण (अपने चंदा मामा से भी छोटा), ग्रह माने जाने के ख़िलाफ़ था.
अक्तूबर 2003 में हब्बल टेलीस्कोप से खींचे गए एक चित्र के आधार पर पिछले साल 2003यूबी313 (अस्थाई नाम ज़ेना) की खोज के बाद तो प्लूटो को ग्रह की कुर्सी से गिराने वालों ने बक़ायदा अभियान शुरू कर दिया. दरअसल ज़ेना आकार और द्रव्यमान में प्लूटो से भी बड़ा है. हालाँकि उसकी कक्षा भी प्लूटो के समान ही बेतरतीब है. लेकिन अंतरराष्ट्रीय खगोलीय संघ की दुविधा ये थी कि या तो ज़ेना को दसवाँ ग्रह माने या फिर प्लूटो को ग्रह की श्रेणी से हटाए.
इतना ही नहीं, खगोलीय दूरबीनों की क्षमता लगातार बढ़ते जाने को देखते हुए ऐसी भी आशंकाएँ व्यक्त की जाने लगी थीं कि आने वाले वर्षों में प्लूटो जैसे दर्जनों और पिंड मिल सकते हैं जो कि ग्रहों के क्लब के दरवाज़े पर दस्तक देते मिलेंगे.
अभी पिछले हफ़्ते ही प्राग सम्मेलन में मौजूद खगोलविदों के बीच एक प्रस्ताव आया था कि ग्रहों की तीन श्रेणी बना दी जाए ताकि प्लूटो तो ग्रह बना रहे ही, तीन और पिंडों को ग्रह मान लिया जाए, यानि कुल एक दर्जन ग्रह! लेकिन प्लूटो को ग्रहों के समूह से बाहर निकालने का अभियान चलाने वाले सफल रहे और फ़ैसला ग्रहों की संख्या आठ करने के पक्ष में सामने आया.
तो आज से सौरमंडल में आठ ही ग्रह रह गए हैं- बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, बृहस्पति, शनि, यूरेनस और नेप्चून.
बौने ग्रहों का एक नया वर्ग बनाया गया है, जिसमें हैं- प्लूटो, 2003यूबी313 और सीरेज़.
सीरेज़ सौरमंडल में मौजूद सबसे बड़ा एस्टेरॉयड या क्षुद्र ग्रह है, और इसकी विशेषता है इसका गोल आकार. जबकि 2003यूबी313 सौरमंडल के सुदूरवर्ती हिमपिंडों की पट्टी में स्थित एक गोलाकार पिंड है. मतलब बौने ग्रह की श्रेणी में भी शामिल होने के लिए भी किसी सौरपिंड का गोलाकार होना ज़रूरी है.
ग्रह नहीं होते हुए भी 75 साल तक ग्रहों के बीच बना रहा प्लूटो पता नहीं अपने में क्या-क्या रहस्य छुपाए हुए है. उसे क़रीब से परखने के लिए अमरीका का न्यू होराइज़न यान इसी साल जनवरी में अपनी लंबी यात्रा पर निकल चुका है. यदि सब कुछ ठीक से चला, तो यह यान 2015 में प्लूटो के पास होगा.
ग्रहों की दशा को मानव भला कब जान पाया है. खगोलविदों का एक अच्छा-ख़ासा वर्ग प्लूटो का दर्जा घटाए जाने को लेकर नाराज़ है. क्या पता भविष्य में नए सबूतों और नए तर्कों के आधार पर अंतरराष्ट्रीय खगोलीय संघ दोबारा प्लूटो को ग्रह मानने को तैयार हो जाए. लेकिन तब तक हम आने वाली पीढ़ी को ये बताते हुए झूठे गर्व का अनुभव करते रहेंगे कि- 'बच्चे, हमारे ज़माने में सौरमंडल में नौ ग्रह हुआ करते थे!'
प्लूटो की ग्रहदशा ख़राब की, प्राग में जुटे 75 देशों के खगोलविदों ने 24 अगस्त 2006 को, जब अंतरराष्ट्रीय खगोलीय संघ की महासभा में ग्रह की परिभाषा पर सहमति बनी. नई कसौटी पर प्लूटो खरा नहीं उतर पाया.
आश्चर्य की बात है कि आज तक ग्रह की कोई सर्वमान्य या औपचारिक परिभाषा नहीं थी. प्राग में क़रीब ढाई हज़ार खगोलविदों के बीच मतदान के ज़रिए जिस परिभाषा पर अंतत: सहमति बनी है, उसमें सौरमंडल के किसी पिंड के ग्रह होने के लिए तीन मानक तय किए गए हैं-
1. यह सूर्य की परिक्रमा करता हो
2. यह इतना बड़ा ज़रूर हो कि अपने गुरुत्व बल के कारण इसका आकार लगभग गोलाकार हो जाए
3. इसमें इतना ज़ोर हो कि ये बाक़ी पिंडों से अलग अपनी स्वतंत्र कक्षा बना सके
...और तीसरी अपेक्षा पर प्लूटो खरा नहीं उतरता है, क्योंकि सूर्य की परिक्रमा के दौरान इसकी कक्षा नेप्चून की कक्षा से टकराती है.
अब प्लूटो ग्रह कहलाने का हक़दार नहीं रह गया है. लेकिन जब 1930 में प्लूटो को ढूँढा गया तो बड़े ही सम्मान के साथ उसे ग्रह का दर्जा दे दिया गया था. हालाँकि शुरू से ही खगोलविदों का एक वर्ग इसे, ख़ास कर इसके छोटे आकार के कारण (अपने चंदा मामा से भी छोटा), ग्रह माने जाने के ख़िलाफ़ था.
अक्तूबर 2003 में हब्बल टेलीस्कोप से खींचे गए एक चित्र के आधार पर पिछले साल 2003यूबी313 (अस्थाई नाम ज़ेना) की खोज के बाद तो प्लूटो को ग्रह की कुर्सी से गिराने वालों ने बक़ायदा अभियान शुरू कर दिया. दरअसल ज़ेना आकार और द्रव्यमान में प्लूटो से भी बड़ा है. हालाँकि उसकी कक्षा भी प्लूटो के समान ही बेतरतीब है. लेकिन अंतरराष्ट्रीय खगोलीय संघ की दुविधा ये थी कि या तो ज़ेना को दसवाँ ग्रह माने या फिर प्लूटो को ग्रह की श्रेणी से हटाए.
इतना ही नहीं, खगोलीय दूरबीनों की क्षमता लगातार बढ़ते जाने को देखते हुए ऐसी भी आशंकाएँ व्यक्त की जाने लगी थीं कि आने वाले वर्षों में प्लूटो जैसे दर्जनों और पिंड मिल सकते हैं जो कि ग्रहों के क्लब के दरवाज़े पर दस्तक देते मिलेंगे.
अभी पिछले हफ़्ते ही प्राग सम्मेलन में मौजूद खगोलविदों के बीच एक प्रस्ताव आया था कि ग्रहों की तीन श्रेणी बना दी जाए ताकि प्लूटो तो ग्रह बना रहे ही, तीन और पिंडों को ग्रह मान लिया जाए, यानि कुल एक दर्जन ग्रह! लेकिन प्लूटो को ग्रहों के समूह से बाहर निकालने का अभियान चलाने वाले सफल रहे और फ़ैसला ग्रहों की संख्या आठ करने के पक्ष में सामने आया.
तो आज से सौरमंडल में आठ ही ग्रह रह गए हैं- बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, बृहस्पति, शनि, यूरेनस और नेप्चून.
बौने ग्रहों का एक नया वर्ग बनाया गया है, जिसमें हैं- प्लूटो, 2003यूबी313 और सीरेज़.
सीरेज़ सौरमंडल में मौजूद सबसे बड़ा एस्टेरॉयड या क्षुद्र ग्रह है, और इसकी विशेषता है इसका गोल आकार. जबकि 2003यूबी313 सौरमंडल के सुदूरवर्ती हिमपिंडों की पट्टी में स्थित एक गोलाकार पिंड है. मतलब बौने ग्रह की श्रेणी में भी शामिल होने के लिए भी किसी सौरपिंड का गोलाकार होना ज़रूरी है.
ग्रह नहीं होते हुए भी 75 साल तक ग्रहों के बीच बना रहा प्लूटो पता नहीं अपने में क्या-क्या रहस्य छुपाए हुए है. उसे क़रीब से परखने के लिए अमरीका का न्यू होराइज़न यान इसी साल जनवरी में अपनी लंबी यात्रा पर निकल चुका है. यदि सब कुछ ठीक से चला, तो यह यान 2015 में प्लूटो के पास होगा.
ग्रहों की दशा को मानव भला कब जान पाया है. खगोलविदों का एक अच्छा-ख़ासा वर्ग प्लूटो का दर्जा घटाए जाने को लेकर नाराज़ है. क्या पता भविष्य में नए सबूतों और नए तर्कों के आधार पर अंतरराष्ट्रीय खगोलीय संघ दोबारा प्लूटो को ग्रह मानने को तैयार हो जाए. लेकिन तब तक हम आने वाली पीढ़ी को ये बताते हुए झूठे गर्व का अनुभव करते रहेंगे कि- 'बच्चे, हमारे ज़माने में सौरमंडल में नौ ग्रह हुआ करते थे!'
शुक्रवार, अगस्त 18, 2006
राष्ट्रपति अहमदीनेजाद का ब्लॉग
पश्चिमी दुनिया में एक उजड्ड किस्म के व्यक्ति के रूप में देखे जाने वाले ईरान के राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने इसी हफ़्ते अपना ब्लॉग www.ahmadinejad.ir शुरू कर तथाकथित संभ्रांत और हाईटेक राजनेताओं को चौंका दिया है.
आपको याद होगा कि इससे पहले ईरान के ही पूर्व उपराष्ट्रपति मुल्ला मोहम्मद अली अबताही के लोकप्रिय ब्लॉग से पश्चिमी दुनिया को झटका लगा था. तब प्रतिष्ठित विज्ञान जर्नल 'न्यू साइंटिस्ट' में हाईटेक मुल्ला अबताही का दो पन्ने का इंटरव्यू छापा गया था.
मुल्ला अबताही फ़ारसी के साथ-साथ अंग्रेज़ी में भी लिखते हैं, जबकि राष्ट्रपति अहमदीनेजाद के ब्लॉग को फ़ारसी के अलावा अंग्रेज़ी, फ़्रेंच और अरबी भाषा में भी डाला गया है. ज़ाहिर है अहमदीनेजाद अपनी जनता के साथ-साथ दुनिया भर के लोगों से भी सीधा संवाद करना चाहते हैं.
अपने ब्लॉग की पहली प्रविष्टि को राष्ट्रपति अहमदीनेजाद ने आत्मपरिचय पर केंद्रित रखा है. ख़ास कर, उन्होंने अपनी निर्धन और अविशिष्ट पृष्ठभूमि का ज़िक्र किया है. अहमदीनेजाद अपने लेख की शुरूआत में ईरान के तत्कालीन शाह मोहम्मद रज़ा के भ्रष्ट शासन का ज़िक्र करते हैं-
During the era that nobility was a prestige and living in a city was perfection, I was born in a poor family in a remote village of Garmsar-approximately 90 kilometer east of Tehran. I was born fifteen years after Iran was invaded by foreign forces- in August of 1940- and the time that another puppet, named mohammad Reza – the son of Reza Mirpange- was set as a monarch in Iran. Since the extinct shah -Mohammad Reza- was supposed to take and enter Iran into western civilization slavishly, so many schemes were implemented that Iran becomes another market for the western ceremonial goods without any progress in the scientific field.
अपने पिता की तारीफ़ करते हुए ईरानी राष्ट्रपति ने लिखा है-
My family was also suffered in the village as others. After my birth -the fourth one in the family- my family was under more pressures. My father had finished 6 grade of elementary school. He was a hard-bitten toiler blacksmith, a pious man who regularly participated in different religious programs. Even though never the dazzling look of the world was appealing to him, but the pressure of the life caused that he decided to migrate to Tehran when I was one year old. We chose to live in south central part of Tehran where is called Pamenar.
अमरीकी पिट्ठू शाह रज़ा के प्रति अपनी घृणा और अयातुल्ला ख़ुमैनी के प्रति अपने आदर भाव को अहमदीनेजाद से खुल कर व्यक्त किया है-
My father used to buy newspaper all the time. I remember one day, when I was in first grade, by looking through a newspaper – with the help of the adults in our house- I read the news of the capitulation passage by the shah’s so called “parliament.” Even though I did not understand the meaning of that issue at that time, but due to the protests and the objections of the religious schools of thoughts with the leadership of Imam Khomeini -Almighty God bless his soul- and the relentless reaction of the extinct shah, I realized that Mohammad Reza attempted to add another page to his vicious case history which was the humiliation and indignity of the Iranian people versus Americans. That was the year that the extinct shah slaughtered many followers of Imam Khomeini.
राष्ट्रपति अहमदीनेजाद इस बात को भी रेखांकित करना नहीं भूलते कि वह शुरू से ही पढ़ाई-लिखाई में तेज रहे हैं. हालाँकि स्कूल के दिनों में घर की ख़स्ताहाल आर्थिक हालत के चलते उन्हें नौकरी भी करनी पड़ती थी. अहमदीनेजाद गर्व से ज़िक्र करते हैं कि विश्विद्यालय की प्रवेश परीक्षा में कैसे उन्होंने चार लाख प्रतियोगियों में उन्होंने 132वाँ स्थान पाया था-
I was a distinguished student. From that time, I was interested and attached to teaching. I used to teach my friends and others in their houses. The last year of my high school, I prepared myself for university admission test-conquer. And later on that year, I took the test. Although I had nose bleeding during the test, but I became 132nd student among over 400 thousand participants. I was admitted for civil engineering major in one of the technical universities in Tehran. That was three years before the revolution. Even though the revolution was taking place and I was involved in certain activities against the illegitimate regime of the monarch in Iran-the mercenary & puppet of U.S. & Britain- but I was aware of my education and did not give it up.
राष्ट्रपति अहमदीनेजाद का ब्लॉग चार भाषाओं में होने के अलावा इंटरएक्टिव भी है. आप उनके पोस्ट पर अपनी प्रतिक्रिया लिख सकते हैं. उनके पोस्ट पर प्रतिक्रिया के अलावा आप राष्ट्रपति से सीधा सवाल पूछना चाहते हैं तो उसकी भी व्यवस्था है.
अहमदीनेजाद के ब्लॉग पर पाठकों के लिए एक सवाल भी है- क्या आपको लगता है कि लेबनान पर हमला कर अमरीका और इसराइल का उद्देश्य एक और विश्व युद्ध शुरू करने का है? इसके उत्तर में 'हाँ' या 'नहीं' पर क्लिक करना है. और आज की तिथि में ढाई लाख से ज़्यादा वोट पड़ने के बाद 56 प्रतिशत की राय है- नहीं.
राष्ट्रपति अहमदीनेजाद ने अपने ब्लॉग की पहली प्रविष्टि बड़ी लिखी है, यानि क़रीब 2300 शब्दों की. आत्मकथात्मक है इसलिए भावनाओं को शब्दों की सीमा में बाँधने की मुश्किलों को समझा जा सकता है. हालाँकि उन्होंने आश्वस्त किया है कि आगे से प्रविष्टियाँ छोटी हुआ करेंगी.
हो सकता है ईरान के हाई-प्रोफ़ाइल नेताओं के मुक्त जनसंचार की आधुनिकतम विधा वेबलॉग या ब्लॉग अपनाने पर कुछ लोगों को आश्चर्य हो, लेकिन मुझे तो लगता है कि एक बार फिर कंप्यूटिंग अपने जन्मस्थान की ओर लौट रहा है. भले ही कुछ लोगों को लगता हो कि कंप्यूटिंग की शुरूआत महाशक्तिमान अमरीका ने की है, लेकिन इतिहास की सतह को थोड़ा-सा खुरचने मात्र से ही इस दावे की पोल खुल जाती है. किसे नहीं पता कि कंप्यूटिंग की जान है- 0 (शून्य या ज़ीरो). शून्य की खोज हुई भारत में, और इस खोज को पश्चिमी जगत तक पहुँचाया प्राचीन मध्य-पूर्व के विद्वानों ने अपने अरबी-फ़ारसी साहित्य के ज़रिए. सीधी-सी बात है, शून्य के बग़ैर कंप्यूटिंग और कंप्यूटर का अस्तित्व नहीं होता.
आपको याद होगा कि इससे पहले ईरान के ही पूर्व उपराष्ट्रपति मुल्ला मोहम्मद अली अबताही के लोकप्रिय ब्लॉग से पश्चिमी दुनिया को झटका लगा था. तब प्रतिष्ठित विज्ञान जर्नल 'न्यू साइंटिस्ट' में हाईटेक मुल्ला अबताही का दो पन्ने का इंटरव्यू छापा गया था.
मुल्ला अबताही फ़ारसी के साथ-साथ अंग्रेज़ी में भी लिखते हैं, जबकि राष्ट्रपति अहमदीनेजाद के ब्लॉग को फ़ारसी के अलावा अंग्रेज़ी, फ़्रेंच और अरबी भाषा में भी डाला गया है. ज़ाहिर है अहमदीनेजाद अपनी जनता के साथ-साथ दुनिया भर के लोगों से भी सीधा संवाद करना चाहते हैं.
अपने ब्लॉग की पहली प्रविष्टि को राष्ट्रपति अहमदीनेजाद ने आत्मपरिचय पर केंद्रित रखा है. ख़ास कर, उन्होंने अपनी निर्धन और अविशिष्ट पृष्ठभूमि का ज़िक्र किया है. अहमदीनेजाद अपने लेख की शुरूआत में ईरान के तत्कालीन शाह मोहम्मद रज़ा के भ्रष्ट शासन का ज़िक्र करते हैं-
During the era that nobility was a prestige and living in a city was perfection, I was born in a poor family in a remote village of Garmsar-approximately 90 kilometer east of Tehran. I was born fifteen years after Iran was invaded by foreign forces- in August of 1940- and the time that another puppet, named mohammad Reza – the son of Reza Mirpange- was set as a monarch in Iran. Since the extinct shah -Mohammad Reza- was supposed to take and enter Iran into western civilization slavishly, so many schemes were implemented that Iran becomes another market for the western ceremonial goods without any progress in the scientific field.
अपने पिता की तारीफ़ करते हुए ईरानी राष्ट्रपति ने लिखा है-
My family was also suffered in the village as others. After my birth -the fourth one in the family- my family was under more pressures. My father had finished 6 grade of elementary school. He was a hard-bitten toiler blacksmith, a pious man who regularly participated in different religious programs. Even though never the dazzling look of the world was appealing to him, but the pressure of the life caused that he decided to migrate to Tehran when I was one year old. We chose to live in south central part of Tehran where is called Pamenar.
अमरीकी पिट्ठू शाह रज़ा के प्रति अपनी घृणा और अयातुल्ला ख़ुमैनी के प्रति अपने आदर भाव को अहमदीनेजाद से खुल कर व्यक्त किया है-
My father used to buy newspaper all the time. I remember one day, when I was in first grade, by looking through a newspaper – with the help of the adults in our house- I read the news of the capitulation passage by the shah’s so called “parliament.” Even though I did not understand the meaning of that issue at that time, but due to the protests and the objections of the religious schools of thoughts with the leadership of Imam Khomeini -Almighty God bless his soul- and the relentless reaction of the extinct shah, I realized that Mohammad Reza attempted to add another page to his vicious case history which was the humiliation and indignity of the Iranian people versus Americans. That was the year that the extinct shah slaughtered many followers of Imam Khomeini.
राष्ट्रपति अहमदीनेजाद इस बात को भी रेखांकित करना नहीं भूलते कि वह शुरू से ही पढ़ाई-लिखाई में तेज रहे हैं. हालाँकि स्कूल के दिनों में घर की ख़स्ताहाल आर्थिक हालत के चलते उन्हें नौकरी भी करनी पड़ती थी. अहमदीनेजाद गर्व से ज़िक्र करते हैं कि विश्विद्यालय की प्रवेश परीक्षा में कैसे उन्होंने चार लाख प्रतियोगियों में उन्होंने 132वाँ स्थान पाया था-
I was a distinguished student. From that time, I was interested and attached to teaching. I used to teach my friends and others in their houses. The last year of my high school, I prepared myself for university admission test-conquer. And later on that year, I took the test. Although I had nose bleeding during the test, but I became 132nd student among over 400 thousand participants. I was admitted for civil engineering major in one of the technical universities in Tehran. That was three years before the revolution. Even though the revolution was taking place and I was involved in certain activities against the illegitimate regime of the monarch in Iran-the mercenary & puppet of U.S. & Britain- but I was aware of my education and did not give it up.
राष्ट्रपति अहमदीनेजाद का ब्लॉग चार भाषाओं में होने के अलावा इंटरएक्टिव भी है. आप उनके पोस्ट पर अपनी प्रतिक्रिया लिख सकते हैं. उनके पोस्ट पर प्रतिक्रिया के अलावा आप राष्ट्रपति से सीधा सवाल पूछना चाहते हैं तो उसकी भी व्यवस्था है.
अहमदीनेजाद के ब्लॉग पर पाठकों के लिए एक सवाल भी है- क्या आपको लगता है कि लेबनान पर हमला कर अमरीका और इसराइल का उद्देश्य एक और विश्व युद्ध शुरू करने का है? इसके उत्तर में 'हाँ' या 'नहीं' पर क्लिक करना है. और आज की तिथि में ढाई लाख से ज़्यादा वोट पड़ने के बाद 56 प्रतिशत की राय है- नहीं.
राष्ट्रपति अहमदीनेजाद ने अपने ब्लॉग की पहली प्रविष्टि बड़ी लिखी है, यानि क़रीब 2300 शब्दों की. आत्मकथात्मक है इसलिए भावनाओं को शब्दों की सीमा में बाँधने की मुश्किलों को समझा जा सकता है. हालाँकि उन्होंने आश्वस्त किया है कि आगे से प्रविष्टियाँ छोटी हुआ करेंगी.
हो सकता है ईरान के हाई-प्रोफ़ाइल नेताओं के मुक्त जनसंचार की आधुनिकतम विधा वेबलॉग या ब्लॉग अपनाने पर कुछ लोगों को आश्चर्य हो, लेकिन मुझे तो लगता है कि एक बार फिर कंप्यूटिंग अपने जन्मस्थान की ओर लौट रहा है. भले ही कुछ लोगों को लगता हो कि कंप्यूटिंग की शुरूआत महाशक्तिमान अमरीका ने की है, लेकिन इतिहास की सतह को थोड़ा-सा खुरचने मात्र से ही इस दावे की पोल खुल जाती है. किसे नहीं पता कि कंप्यूटिंग की जान है- 0 (शून्य या ज़ीरो). शून्य की खोज हुई भारत में, और इस खोज को पश्चिमी जगत तक पहुँचाया प्राचीन मध्य-पूर्व के विद्वानों ने अपने अरबी-फ़ारसी साहित्य के ज़रिए. सीधी-सी बात है, शून्य के बग़ैर कंप्यूटिंग और कंप्यूटर का अस्तित्व नहीं होता.
सोमवार, अगस्त 14, 2006
गूगल करें कि नहीं?
गूगल करें या न करें? यक़ीन नहीं होता कि ये सवाल क़ानूनी रूप अख़्तियार कर चुका है.
गूगल एक विश्व-प्रसिद्ध ट्रेड मार्क है. हो भी क्यों नहीं, गूगल इन्कॉरपोरेशन इंटरनेट-युग की सफलतम कंपनियों में से जो है. इसी प्रसिद्धि की वज़ह से दो महीने पहले 'गूगल' शब्द को ऑक्सफ़ोर्ड अंग्रेज़ी शब्दकोश में शामिल किया गया था, लेकिन क्रिया रूप में भी कैपिटल G से शुरू होते Google के तौर पर. अब पिछले महीने 'गूगल' को क्रिया के रूप में एक अन्य प्रतिष्ठित संदर्भ ग्रंथ मरियम-वेब्सटर्स कॉलेजिएट शब्दकोश में शामिल किया गया तो विवाद खड़ा हो गया क्योंकि यहाँ उसे लोअर केस के g से लिखा गया है- यानि google.
विवाद खड़ा किया है ख़ुद गूगल इन्कॉरपोरेशन ने. यानि पहले 'गूगल' को Google के रूप में शब्दकोश में शामिल किया गया तो कुछ नहीं, लेकिन उसे google के रूप में शब्दकोश में शामिल किया गया तो हाय तौबा! गूगल को आपत्ति है कि 'गूगल' के क्रिया रूप में यानि 'टू गूगल' या 'गूगलिंग' के अर्थ में प्रयोग से उसके ट्रेड मार्क का उल्लंघन होता है.
गूगल इन्कॉरपोरेशन ने प्रकाशन और मीडिया कंपनियों को बाक़ायदा नोटिस भिजवाई है. मतलब, कंपनी को 'गूगल' को एक noun के रूप में देख कर जहाँ ख़ुशी होती है, वहीं उसे एक verb के रूप में, ख़ास कर लोअर केस के g से शुरू होते google के रूप में भी प्रदर्शित किए जाने पर ग़ुस्सा आता है.
गूगल इन्कॉरपोरेशन ने आगाह किया है कि 'इंटरनेट सर्च' के पर्यायवाची के रूप में 'गूगल' का प्रयोग बिल्कुल नहीं किया जाना चाहिए. जिन कंपनियों को नोटिस गई है उनमें से किसी ने पत्र मीडिया को लीक कर दिया, तब जाकर गूगल की इस हरकत की ख़बर बाहर आई. गूगल के वकीलों ने क़ानूनी नोटिस में सही और ग़लत प्रयोग के जो उदाहरण दिए हैं, उनमें से एक दिलचस्प उदाहरण पर ग़ौर करें:
सही- I ran a Google search to check out that guy from the party.
ग़लत- I googled that hottie.
गूगल इन्कॉरपोरेशन की एक ऐसी कंपनी के रूप में ख्याति थी, जो कि पारंपरिक व्यापारिक सिद्धांतों को बज़ाय खिलंदड़पन से चलाई जाती है. इसे इसके कार्य-मंत्र 'Don't be evil' से जाना जाता था. लेकिन गूगल शब्द का क्रिया के रूप में उपयोग नहीं करने की मीडिया कंपनियों को चेतावनी देकर गूगल इन्कॉरपोरेशन ने दिखा दिया कि वो अपनी पुरानी पहचान छोड़ चुकी है, और उसका भरोसा गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा और मुनाफ़ाखोरी के सिद्धांत मात्र पर रह गया है.
हालाँकि, गूगल इन्कॉरपोरेशन अपने ट्रेड मार्क को भाषा का अंग बनने से रोक पाएगी, इसमें संदेह ही लगता है. ज़ेरॉक्स कॉरपोरेशन ने भी बहुत कोशिश की थी कि Xerox को photocopy का पर्याय नहीं बनने दिया जाए, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया. इसी तरह एक बड़ी आबादी एक जगह से दूसरी जगह सामान भेजती नहीं बल्कि FedEx करती है, कार्पेट को वैक्युम-क्लीन नहीं बल्कि Hoover करती है. यहाँ FedEx और Hoover ट्रेड मार्क हैं.
ट्रेड मार्क के संज्ञा बनने के उदाहरण तो न जाने कितने हैं. भारत में सबसे आम उदाहरण है- डालडा. अब भी अधिकतर लोग वनस्पति तेल नहीं खरीदते, बल्कि डालडा खरीदते हैं- भले ही वो 'डालडा' के प्रतिद्वंद्वी ब्रांड का हो.
गूगल एक विश्व-प्रसिद्ध ट्रेड मार्क है. हो भी क्यों नहीं, गूगल इन्कॉरपोरेशन इंटरनेट-युग की सफलतम कंपनियों में से जो है. इसी प्रसिद्धि की वज़ह से दो महीने पहले 'गूगल' शब्द को ऑक्सफ़ोर्ड अंग्रेज़ी शब्दकोश में शामिल किया गया था, लेकिन क्रिया रूप में भी कैपिटल G से शुरू होते Google के तौर पर. अब पिछले महीने 'गूगल' को क्रिया के रूप में एक अन्य प्रतिष्ठित संदर्भ ग्रंथ मरियम-वेब्सटर्स कॉलेजिएट शब्दकोश में शामिल किया गया तो विवाद खड़ा हो गया क्योंकि यहाँ उसे लोअर केस के g से लिखा गया है- यानि google.
विवाद खड़ा किया है ख़ुद गूगल इन्कॉरपोरेशन ने. यानि पहले 'गूगल' को Google के रूप में शब्दकोश में शामिल किया गया तो कुछ नहीं, लेकिन उसे google के रूप में शब्दकोश में शामिल किया गया तो हाय तौबा! गूगल को आपत्ति है कि 'गूगल' के क्रिया रूप में यानि 'टू गूगल' या 'गूगलिंग' के अर्थ में प्रयोग से उसके ट्रेड मार्क का उल्लंघन होता है.
गूगल इन्कॉरपोरेशन ने प्रकाशन और मीडिया कंपनियों को बाक़ायदा नोटिस भिजवाई है. मतलब, कंपनी को 'गूगल' को एक noun के रूप में देख कर जहाँ ख़ुशी होती है, वहीं उसे एक verb के रूप में, ख़ास कर लोअर केस के g से शुरू होते google के रूप में भी प्रदर्शित किए जाने पर ग़ुस्सा आता है.
गूगल इन्कॉरपोरेशन ने आगाह किया है कि 'इंटरनेट सर्च' के पर्यायवाची के रूप में 'गूगल' का प्रयोग बिल्कुल नहीं किया जाना चाहिए. जिन कंपनियों को नोटिस गई है उनमें से किसी ने पत्र मीडिया को लीक कर दिया, तब जाकर गूगल की इस हरकत की ख़बर बाहर आई. गूगल के वकीलों ने क़ानूनी नोटिस में सही और ग़लत प्रयोग के जो उदाहरण दिए हैं, उनमें से एक दिलचस्प उदाहरण पर ग़ौर करें:
सही- I ran a Google search to check out that guy from the party.
ग़लत- I googled that hottie.
गूगल इन्कॉरपोरेशन की एक ऐसी कंपनी के रूप में ख्याति थी, जो कि पारंपरिक व्यापारिक सिद्धांतों को बज़ाय खिलंदड़पन से चलाई जाती है. इसे इसके कार्य-मंत्र 'Don't be evil' से जाना जाता था. लेकिन गूगल शब्द का क्रिया के रूप में उपयोग नहीं करने की मीडिया कंपनियों को चेतावनी देकर गूगल इन्कॉरपोरेशन ने दिखा दिया कि वो अपनी पुरानी पहचान छोड़ चुकी है, और उसका भरोसा गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा और मुनाफ़ाखोरी के सिद्धांत मात्र पर रह गया है.
हालाँकि, गूगल इन्कॉरपोरेशन अपने ट्रेड मार्क को भाषा का अंग बनने से रोक पाएगी, इसमें संदेह ही लगता है. ज़ेरॉक्स कॉरपोरेशन ने भी बहुत कोशिश की थी कि Xerox को photocopy का पर्याय नहीं बनने दिया जाए, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया. इसी तरह एक बड़ी आबादी एक जगह से दूसरी जगह सामान भेजती नहीं बल्कि FedEx करती है, कार्पेट को वैक्युम-क्लीन नहीं बल्कि Hoover करती है. यहाँ FedEx और Hoover ट्रेड मार्क हैं.
ट्रेड मार्क के संज्ञा बनने के उदाहरण तो न जाने कितने हैं. भारत में सबसे आम उदाहरण है- डालडा. अब भी अधिकतर लोग वनस्पति तेल नहीं खरीदते, बल्कि डालडा खरीदते हैं- भले ही वो 'डालडा' के प्रतिद्वंद्वी ब्रांड का हो.
मंगलवार, अगस्त 08, 2006
अच्छा हुआ कोलंबस भारत नहीं पहुँचा
ये जाना माना तथ्य है कि महान नाविक क्रिस्टोफ़र कोलंबस भारत और पूर्वी एशियाई देशों के लिए सीधा समुद्री रास्ता खोजने के नाम पर कैरीबियन द्वीपों के रास्ते अमरीका तक पहुँचा था.
कोलंबस का इस बात पर पक्का यक़ीन था कि धरती गोल है, लेकिन तब मौज़ूद अपूर्ण भौगोलिक सूचनाओं के आधार पर कोलंबस को ये ग़लतफ़हमी हो गई थी कि यूरोप से पश्चिम की ओर समुद्री यात्रा करते हुए महान पूर्वी सभ्यताओं तक पहुँचने में बहुत ज़्यादा दूरी नहीं तय करनी पड़ेगी.
कोलंबस अपनी यात्रा के लिए पहले पुर्तगाल के शासक की शरण में गया, लेकिन पुर्तगालियों को एक तो कोलंबस की दलीलों में ज़्यादा दम नहीं दिखा, और दूसरा पुर्तगाली ख़ुद अफ़्रीकी महाद्वीप का चक्कर लगाते हुए भारत पहुँचने की योजना में लगे हुए थे. लंबे समय तक चली बातचीत के बाद अंतत: स्पेन के शासकों ने कोलंबस की यात्रा में पैसा लगाने की हामी भरी.
वो तो अच्छा हुआ कोलंबस भारत पहुँचने से रह गया, वरना स्पेन के शासकों के साथ उसके क़रार के अनुसार वो भारत या कम-से-कम भारत के किसी इलाक़े का गवर्नर या वॉयसराय तो ज़रूर ही होता. ऐसा होने पर भारतीय आबादी को कोलंबस के कुशासन और उसकी क्रूरता का उसी प्रकार सामना करना पड़ता जैसा कि कैरीबियन जनता को करना पड़ा.
स्पेन में मिले पाँच सदी पहले के एक दस्तावेज़ में महान नाविक कोलंबस के चरित्र के काले पक्ष को विस्तार से उजागर किया गया है. दस्तावेज़ में कोलंबस पर चलाए गए मुक़दमे का विवरण है. इसमें बताया गया है कि इंडीज़(कोलंबस ने कैरीबियन द्वीपों को भारत का हिस्सा मानते हुए यही नाम दिया था) का गवर्नर और वॉयसराय रहने के दौरान महान नाविक कोलंबस क्रूरता की सीमाओं का लाँघ गया था. कोलंबस के तानाशाही शासन में दी जाने वाली सज़ाओं में शामिल थे: लोगों के नाक-कान कटवा देना, औरतों को सरेआम नंगा घुमाना और लोगों को ग़ुलामों के रूप में बेचना.
जिस दस्तावेज़ में कोलंबस की तानाशाही का सबूत मिला है वो दरअसल कोलंबस पर भ्रष्टाचार के आरोपों की जाँच-रिपोर्ट है. स्पेन के राजा फ़र्डिनांड और रानी इसाबेला के आदेश पर यह जाँच फ़्रांसिस्को डि बोबादिला ने की थी जो कि पद से हटाए गए कोलंबस की जगह इंडीज़ का गवर्नर बना. बोबादिला की जाँच-रिपोर्ट स्पेनी शहर वलादोलिद के पुरालेखागार में धूल फाँक रही थी. पिछले साल एक इतिहासकार की नज़र इस 48 पेजी दस्तावेज़ पर पड़ी, और अब 2006 में इसे सार्वजनिक किया जा सका, जो कि कोलंबस की 500वीं बरसी का साल है. कोलंबस का 1506 में एक धनी किंतु बदनाम व्यक्ति के रूप में निधन हो गया था.
बोबादिला की जाँच-रिपोर्ट का अध्ययन करने वाले दो इतिहासकारों के अनुसार इसमें इंडीज़ में सात साल के शासन के दौरान कोलंबस और उसके भाइयों की करतूतों का ख़ुलासा है. कैरीबियन द्वीपों, ख़ास कर मौज़ूदा डोमिनिकन गणतंत्र वाले इलाक़े, से आने वाली अत्याचार की ख़बरों ने स्पेन के शासकों को बाध्य किया कि वो कोलंबस को वापस बुलाएँ. कोलंबस को बेड़ियों में जकड़ कर स्पेन लाया गया. उसके ख़िलाफ़ मुक़दमा चला जिसके लिए बोबादिला ने 23 गवाहों से सबूत जुटाए. कोलंबस की पदवी छीन ली गई, हालाँकि उसे कोई कड़ी सज़ा नहीं दी गई.
ये सब जानने के बाद यही लगता है कि चलो अच्छा हुआ जो कोलंबस भारत तक नहीं पहुँचा.
कोलंबस का इस बात पर पक्का यक़ीन था कि धरती गोल है, लेकिन तब मौज़ूद अपूर्ण भौगोलिक सूचनाओं के आधार पर कोलंबस को ये ग़लतफ़हमी हो गई थी कि यूरोप से पश्चिम की ओर समुद्री यात्रा करते हुए महान पूर्वी सभ्यताओं तक पहुँचने में बहुत ज़्यादा दूरी नहीं तय करनी पड़ेगी.
कोलंबस अपनी यात्रा के लिए पहले पुर्तगाल के शासक की शरण में गया, लेकिन पुर्तगालियों को एक तो कोलंबस की दलीलों में ज़्यादा दम नहीं दिखा, और दूसरा पुर्तगाली ख़ुद अफ़्रीकी महाद्वीप का चक्कर लगाते हुए भारत पहुँचने की योजना में लगे हुए थे. लंबे समय तक चली बातचीत के बाद अंतत: स्पेन के शासकों ने कोलंबस की यात्रा में पैसा लगाने की हामी भरी.
वो तो अच्छा हुआ कोलंबस भारत पहुँचने से रह गया, वरना स्पेन के शासकों के साथ उसके क़रार के अनुसार वो भारत या कम-से-कम भारत के किसी इलाक़े का गवर्नर या वॉयसराय तो ज़रूर ही होता. ऐसा होने पर भारतीय आबादी को कोलंबस के कुशासन और उसकी क्रूरता का उसी प्रकार सामना करना पड़ता जैसा कि कैरीबियन जनता को करना पड़ा.
स्पेन में मिले पाँच सदी पहले के एक दस्तावेज़ में महान नाविक कोलंबस के चरित्र के काले पक्ष को विस्तार से उजागर किया गया है. दस्तावेज़ में कोलंबस पर चलाए गए मुक़दमे का विवरण है. इसमें बताया गया है कि इंडीज़(कोलंबस ने कैरीबियन द्वीपों को भारत का हिस्सा मानते हुए यही नाम दिया था) का गवर्नर और वॉयसराय रहने के दौरान महान नाविक कोलंबस क्रूरता की सीमाओं का लाँघ गया था. कोलंबस के तानाशाही शासन में दी जाने वाली सज़ाओं में शामिल थे: लोगों के नाक-कान कटवा देना, औरतों को सरेआम नंगा घुमाना और लोगों को ग़ुलामों के रूप में बेचना.
जिस दस्तावेज़ में कोलंबस की तानाशाही का सबूत मिला है वो दरअसल कोलंबस पर भ्रष्टाचार के आरोपों की जाँच-रिपोर्ट है. स्पेन के राजा फ़र्डिनांड और रानी इसाबेला के आदेश पर यह जाँच फ़्रांसिस्को डि बोबादिला ने की थी जो कि पद से हटाए गए कोलंबस की जगह इंडीज़ का गवर्नर बना. बोबादिला की जाँच-रिपोर्ट स्पेनी शहर वलादोलिद के पुरालेखागार में धूल फाँक रही थी. पिछले साल एक इतिहासकार की नज़र इस 48 पेजी दस्तावेज़ पर पड़ी, और अब 2006 में इसे सार्वजनिक किया जा सका, जो कि कोलंबस की 500वीं बरसी का साल है. कोलंबस का 1506 में एक धनी किंतु बदनाम व्यक्ति के रूप में निधन हो गया था.
बोबादिला की जाँच-रिपोर्ट का अध्ययन करने वाले दो इतिहासकारों के अनुसार इसमें इंडीज़ में सात साल के शासन के दौरान कोलंबस और उसके भाइयों की करतूतों का ख़ुलासा है. कैरीबियन द्वीपों, ख़ास कर मौज़ूदा डोमिनिकन गणतंत्र वाले इलाक़े, से आने वाली अत्याचार की ख़बरों ने स्पेन के शासकों को बाध्य किया कि वो कोलंबस को वापस बुलाएँ. कोलंबस को बेड़ियों में जकड़ कर स्पेन लाया गया. उसके ख़िलाफ़ मुक़दमा चला जिसके लिए बोबादिला ने 23 गवाहों से सबूत जुटाए. कोलंबस की पदवी छीन ली गई, हालाँकि उसे कोई कड़ी सज़ा नहीं दी गई.
ये सब जानने के बाद यही लगता है कि चलो अच्छा हुआ जो कोलंबस भारत तक नहीं पहुँचा.
सोमवार, जुलाई 24, 2006
ब्रितानी साम्राज्य की ख़ूनी विरासत
आधुनिक इतिहास में जितना विवादास्पद अध्याय ब्रितानी साम्राज्य का है, उतना और कुछ नहीं. ब्रितानी साम्राज्य की अच्छाइयों और बुराइयों की लंबी सूची लिए लोग आपको पूरी दुनिया में मिल जाएँगे. इस मुद्दे पर सबसे ज़्यादा विवाद या बहस ब्रिटेन और भारत में देखने को मिलती है.
ब्रिटेन के एक अत्यंत ही प्रतिभाशाली इतिहासकार हैं- प्रोफ़ेसर नियल फ़र्गुसन. मात्र 42 साल के हैं, यानि इतनी उम्र जब आमतौर पर इतिहासकारों के दूध के दाँत टूटते हैं. फ़र्गुसन के लेखन पर दुनिया भर में बहस छिड़ जाती है. वो ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में पढ़ाते थे. लेकिन जब ब्रिटेन में उतना भाव नहीं मिला तो अटलांटिक पार का रुख़ किया और अमरीका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय में जा टिके. वहाँ इतिहास के प्रोफ़ेसर हैं, हालाँकि अब भी किसी न किसी रूप में ऑक्सफ़ोर्ड से भी नाता जोड़ रखा है. स्टैनफ़ोर्ड विश्वविद्यालय से भी रिश्ता है.
अब नियल फ़र्गुसन की ताज़ा किताब द वार ऑफ़ द वर्ल्ड चर्चा में है. इसे लेकर उन्होंने चैनल4 के लिए एक धांसू डॉक्यूमेंट्री भी बना डाली है. प्रोफ़ेसर फ़र्गुसन ने अपनी ताज़ा किताब में इस बात को जम कर उछाला है कि पिछली सदी मानव इतिहास की सबसे ख़ूनी सदी थी. इस बात पर किसी को ज़्यादा आपत्ति भी नहीं. लेकिन अनेक लोगों को फ़र्गुसन की किताब में ब्रितानी साम्राज्य की तारीफ़ किए जाने पर आपत्ति है.
ब्रितानी साम्राज्य के बारे में फ़र्गुसन से बिल्कुल विपरीत मान्यता रखने वाले ब्रिटेन के ही एक इतिहासकार हैं- रिचर्ड गॉट. वो ब्रितानी साम्राज्य का प्रतिरोध करने वालों को केंद्र में रख कर एक किताब लिख रहे हैं. अभी पिछले दिनों उन्होंने गार्डियन अख़बार में एक लेख में ब्रितानी साम्राज्य की ख़ूनी विरासत की चर्चा की. रिचर्ड गॉट का कहते हैं कि दुनिया में अनेकों मौज़ूदा संघर्ष उन क्षेत्रों में हो रहे हैं जो पहले ब्रितानी साम्राज्य का हिस्सा थे, और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद थके और लुटे-पिटे साम्राज्यवादियों ने जहाँ से निकलने में अपनी भलाई समझी थी. उन इलाकों में से अधिकांश आज दुनिया में हिंसा और अस्थिरता के स्रोत माने जाते हैं.
ये रही ब्रितानी साम्राज्य की ख़ूनी विरासत की एक संक्षिप्त सूची:
1. फ़लस्तीनी क्षेत्र- एक ब्रितानी उपनिवेश जिसे उसने मात्र 30 वर्षों के शासन के बाद 1947 में छोड़ दिया. अपने अधिकतर उपनिवेशों की तरह यहाँ भी अंग्रेज़ों ने यूरोपीय लोगों को लाकर बसाया. दुर्भाग्य से बाहर लाकर थोपे गए लोगों के पास इतना समय नहीं था कि वे स्थानीय लोगों पर पूरी तरह काबू पा सकें(जैसा कि ऑस्ट्रेलिया के मामले में हुआ था), क्योंकि उस दौरान ब्रितानी साम्राज्य का सूरज अस्ताचलगामी हो चुका था. ऑस्ट्रेलिया के स्थानीय लोगों यानि आदिवासियों के विपरीत फ़लस्तीनियों ने साम्राज्यवादियों द्वारा लाकर पटके गए यहूदियों का प्रतिरोध पहले दिन से ही शुरू कर दिया. अरब जगत के समर्थन और अपनी धार्मिक परंपराओं से ली गई प्रेरणा के बल पर उनका प्रतिरोध लगातार चलता रहा, और आगे भी जारी रहेगा.
2. सियरालियोन- अपनी नीति के अनुरूप ब्रितानी साम्राज्यवादियों ने यहाँ भी बाहर से लाकर लोगों को बसाया. बाहर से लाए गए लोग थे तो अश्वेत ही, लेकिन मुख्य तौर पर ईसाई. दूसरी ओर जब ये सब हो रहा था सियरालियोन के स्थानीय लोग इस्लाम के प्रभाव में पूरी तरह आ चुके थे. सियरालियोन में ब्रितानी शासकों का ज़ोरदार प्रतिरोध हुआ. और अब स्थानीय लोगों और बाहर से लाकर बसाई गई आबादी के बीच संघर्ष रह-रह कर गृहयुद्ध का रूप ले लेता है.
3. अन्य अफ़्रीकी देश- दक्षिणी अफ़्रीका, ज़िम्बाब्वे और कीनिया में भी बाहर से लाकर बसाए गए लोगों और स्थानीय आबादी के बीच मनमुटाव बना हुआ है. हालाँकि इन देशों में बसाए गए लोग अब रक्षात्मक मुद्रा में आने को मज़बूर हो चुके हैं.
4. श्रीलंका और फ़िजी- इन दो देशों में अंग्रेज़ों ने अलग तरह का खेल खेला. यहाँ भारत से मज़दूर बना कर लाए गए लोगों को स्थानीय आबादी पर थोपा गया. हालाँकि ब्रितानी साम्राज्यवादी भारत से लोगों को अपने बगानों में काम कराने के लिए लाए थे, लेकिन उपनिवेश के ख़ात्मे के बाद स्थानीय आबादी और भारत से लाए गए लोगों के बीच जो मनमुटाव शुरू हुआ, वो आज भी बहुत तल्ख़ है. श्रीलंका में सैंकड़ो लोग हर साल इस ख़ूनी विरासत की भेंट चढ़ते हैं.
5. उत्तरी आयरलैंड- ब्रिटेन का हिस्सा बने उत्तरी आयरलैंड में स्थानीय कैथोलिक आबादी पर प्रोटेस्टेंट ईसाइयों को थोपा गया. कोई आश्चर्य नहीं कि आधुनिक आतंकवाद का जन्म वहीं उत्तरी आयरलैंड में ही हुआ.
6. भारत- द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद के काल में साम्राज्यवादियों ने जिस हड़बड़ी में भारत को विभाजित करते हुए छोड़ा. विलायती शासकों ने ये भी नहीं सोचा कि जिस उपमहाद्वीप को दो शताब्दियों तक एकजुट रखने का श्रेय उन्हें दिया जाता हो, उसे सांप्रदायिक आधार पर बाँटते हुए भागना कितना उचित था. इतनी हड़बड़ी थी कि कश्मीर पर कोई सर्वमान्य फ़ैसला करने की भी ज़रूरत नहीं समझी गई. भारत और पाकिस्तान एक-दूसरे पर कितना संदेह करते हैं, और कश्मीर का नासूर भारत की कितनी ऊर्जा खींचता है, बयान करने की ज़रूरत नहीं.
7. साइप्रस- भारत की तरह ही ब्रितानी साम्राज्यवादियों ने साइप्रस को भी बुरी तरह दो हिस्सों में बाँट दिया. दोनों हिस्सों की आबादी एक-दूसरे पर कभी भरोसा नहीं कर सकी. शर्मनाक रूप से ब्रिटेन अब भी साइप्रस में दो संप्रभु सैनिक अड्डे बनाए हुए हैं, विभाजित साइप्रस पर निगरानी रखने के लिए.
8. नाइजीरिया और सोमालिया- अंग्रेज़ साम्राज्यवादियों ने नाइजीरिया को अपनी ज़रूरतों के हिसाब से कृत्रिम रूप से एक राष्ट्र का रूप दिया, जबकि सोमालिया को अपनी सुविधा के लिए पहले उपनिवेश बनाया और बाद में अपनी ज़रूरतों के अनुरूप ही उसे उसके हाल पर छोड़ा. दोनों देशों के भीतर आबादी के बीच स्पष्ट विभाजन और परस्पर घृणा देखी जा सकती है.
9. इराक़- इराक़ ब्रितानी साम्राज्य में शामिल होने वाला अंतिम क्षेत्र था, और साम्राज्य की पकड़ से बाहर होने वाला पहला देश. इराक़ से ब्रितानी सैनिक अड्डे 1950 के दशक में जाकर हटाए गए. आज इराक़ में अघोषित गृहयुद्ध चल रहा है, और विडंबना देखिए कि बसरा वाले इलाक़े में सुरक्षा स्थापित करने का ज़िम्मा ब्रिटेन के हाथों में है.
10. अफ़ग़ानिस्तान- ब्रितानी साम्राज्य के दिनों में कहने को तो अफ़ग़ानिस्तान स्वतंत्र रहा, लेकिन असल में उस पर साम्राज्यवादियों की पूरी पकड़ रही. अंग्रेज़ों ने अफ़ग़ानों से तीन ख़ूनी युद्ध लड़े. चौथे युद्ध के लिए एक बार फिर ब्रितानी सैनिक अफ़ग़ानिस्तान में हैं, और लगता नहीं कि पिछले तीन मौक़ों के विपरीत उन्हें इस बार जीत नसीब होगी.
ब्रिटेन के एक अत्यंत ही प्रतिभाशाली इतिहासकार हैं- प्रोफ़ेसर नियल फ़र्गुसन. मात्र 42 साल के हैं, यानि इतनी उम्र जब आमतौर पर इतिहासकारों के दूध के दाँत टूटते हैं. फ़र्गुसन के लेखन पर दुनिया भर में बहस छिड़ जाती है. वो ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में पढ़ाते थे. लेकिन जब ब्रिटेन में उतना भाव नहीं मिला तो अटलांटिक पार का रुख़ किया और अमरीका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय में जा टिके. वहाँ इतिहास के प्रोफ़ेसर हैं, हालाँकि अब भी किसी न किसी रूप में ऑक्सफ़ोर्ड से भी नाता जोड़ रखा है. स्टैनफ़ोर्ड विश्वविद्यालय से भी रिश्ता है.
अब नियल फ़र्गुसन की ताज़ा किताब द वार ऑफ़ द वर्ल्ड चर्चा में है. इसे लेकर उन्होंने चैनल4 के लिए एक धांसू डॉक्यूमेंट्री भी बना डाली है. प्रोफ़ेसर फ़र्गुसन ने अपनी ताज़ा किताब में इस बात को जम कर उछाला है कि पिछली सदी मानव इतिहास की सबसे ख़ूनी सदी थी. इस बात पर किसी को ज़्यादा आपत्ति भी नहीं. लेकिन अनेक लोगों को फ़र्गुसन की किताब में ब्रितानी साम्राज्य की तारीफ़ किए जाने पर आपत्ति है.
ब्रितानी साम्राज्य के बारे में फ़र्गुसन से बिल्कुल विपरीत मान्यता रखने वाले ब्रिटेन के ही एक इतिहासकार हैं- रिचर्ड गॉट. वो ब्रितानी साम्राज्य का प्रतिरोध करने वालों को केंद्र में रख कर एक किताब लिख रहे हैं. अभी पिछले दिनों उन्होंने गार्डियन अख़बार में एक लेख में ब्रितानी साम्राज्य की ख़ूनी विरासत की चर्चा की. रिचर्ड गॉट का कहते हैं कि दुनिया में अनेकों मौज़ूदा संघर्ष उन क्षेत्रों में हो रहे हैं जो पहले ब्रितानी साम्राज्य का हिस्सा थे, और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद थके और लुटे-पिटे साम्राज्यवादियों ने जहाँ से निकलने में अपनी भलाई समझी थी. उन इलाकों में से अधिकांश आज दुनिया में हिंसा और अस्थिरता के स्रोत माने जाते हैं.
ये रही ब्रितानी साम्राज्य की ख़ूनी विरासत की एक संक्षिप्त सूची:
1. फ़लस्तीनी क्षेत्र- एक ब्रितानी उपनिवेश जिसे उसने मात्र 30 वर्षों के शासन के बाद 1947 में छोड़ दिया. अपने अधिकतर उपनिवेशों की तरह यहाँ भी अंग्रेज़ों ने यूरोपीय लोगों को लाकर बसाया. दुर्भाग्य से बाहर लाकर थोपे गए लोगों के पास इतना समय नहीं था कि वे स्थानीय लोगों पर पूरी तरह काबू पा सकें(जैसा कि ऑस्ट्रेलिया के मामले में हुआ था), क्योंकि उस दौरान ब्रितानी साम्राज्य का सूरज अस्ताचलगामी हो चुका था. ऑस्ट्रेलिया के स्थानीय लोगों यानि आदिवासियों के विपरीत फ़लस्तीनियों ने साम्राज्यवादियों द्वारा लाकर पटके गए यहूदियों का प्रतिरोध पहले दिन से ही शुरू कर दिया. अरब जगत के समर्थन और अपनी धार्मिक परंपराओं से ली गई प्रेरणा के बल पर उनका प्रतिरोध लगातार चलता रहा, और आगे भी जारी रहेगा.
2. सियरालियोन- अपनी नीति के अनुरूप ब्रितानी साम्राज्यवादियों ने यहाँ भी बाहर से लाकर लोगों को बसाया. बाहर से लाए गए लोग थे तो अश्वेत ही, लेकिन मुख्य तौर पर ईसाई. दूसरी ओर जब ये सब हो रहा था सियरालियोन के स्थानीय लोग इस्लाम के प्रभाव में पूरी तरह आ चुके थे. सियरालियोन में ब्रितानी शासकों का ज़ोरदार प्रतिरोध हुआ. और अब स्थानीय लोगों और बाहर से लाकर बसाई गई आबादी के बीच संघर्ष रह-रह कर गृहयुद्ध का रूप ले लेता है.
3. अन्य अफ़्रीकी देश- दक्षिणी अफ़्रीका, ज़िम्बाब्वे और कीनिया में भी बाहर से लाकर बसाए गए लोगों और स्थानीय आबादी के बीच मनमुटाव बना हुआ है. हालाँकि इन देशों में बसाए गए लोग अब रक्षात्मक मुद्रा में आने को मज़बूर हो चुके हैं.
4. श्रीलंका और फ़िजी- इन दो देशों में अंग्रेज़ों ने अलग तरह का खेल खेला. यहाँ भारत से मज़दूर बना कर लाए गए लोगों को स्थानीय आबादी पर थोपा गया. हालाँकि ब्रितानी साम्राज्यवादी भारत से लोगों को अपने बगानों में काम कराने के लिए लाए थे, लेकिन उपनिवेश के ख़ात्मे के बाद स्थानीय आबादी और भारत से लाए गए लोगों के बीच जो मनमुटाव शुरू हुआ, वो आज भी बहुत तल्ख़ है. श्रीलंका में सैंकड़ो लोग हर साल इस ख़ूनी विरासत की भेंट चढ़ते हैं.
5. उत्तरी आयरलैंड- ब्रिटेन का हिस्सा बने उत्तरी आयरलैंड में स्थानीय कैथोलिक आबादी पर प्रोटेस्टेंट ईसाइयों को थोपा गया. कोई आश्चर्य नहीं कि आधुनिक आतंकवाद का जन्म वहीं उत्तरी आयरलैंड में ही हुआ.
6. भारत- द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद के काल में साम्राज्यवादियों ने जिस हड़बड़ी में भारत को विभाजित करते हुए छोड़ा. विलायती शासकों ने ये भी नहीं सोचा कि जिस उपमहाद्वीप को दो शताब्दियों तक एकजुट रखने का श्रेय उन्हें दिया जाता हो, उसे सांप्रदायिक आधार पर बाँटते हुए भागना कितना उचित था. इतनी हड़बड़ी थी कि कश्मीर पर कोई सर्वमान्य फ़ैसला करने की भी ज़रूरत नहीं समझी गई. भारत और पाकिस्तान एक-दूसरे पर कितना संदेह करते हैं, और कश्मीर का नासूर भारत की कितनी ऊर्जा खींचता है, बयान करने की ज़रूरत नहीं.
7. साइप्रस- भारत की तरह ही ब्रितानी साम्राज्यवादियों ने साइप्रस को भी बुरी तरह दो हिस्सों में बाँट दिया. दोनों हिस्सों की आबादी एक-दूसरे पर कभी भरोसा नहीं कर सकी. शर्मनाक रूप से ब्रिटेन अब भी साइप्रस में दो संप्रभु सैनिक अड्डे बनाए हुए हैं, विभाजित साइप्रस पर निगरानी रखने के लिए.
8. नाइजीरिया और सोमालिया- अंग्रेज़ साम्राज्यवादियों ने नाइजीरिया को अपनी ज़रूरतों के हिसाब से कृत्रिम रूप से एक राष्ट्र का रूप दिया, जबकि सोमालिया को अपनी सुविधा के लिए पहले उपनिवेश बनाया और बाद में अपनी ज़रूरतों के अनुरूप ही उसे उसके हाल पर छोड़ा. दोनों देशों के भीतर आबादी के बीच स्पष्ट विभाजन और परस्पर घृणा देखी जा सकती है.
9. इराक़- इराक़ ब्रितानी साम्राज्य में शामिल होने वाला अंतिम क्षेत्र था, और साम्राज्य की पकड़ से बाहर होने वाला पहला देश. इराक़ से ब्रितानी सैनिक अड्डे 1950 के दशक में जाकर हटाए गए. आज इराक़ में अघोषित गृहयुद्ध चल रहा है, और विडंबना देखिए कि बसरा वाले इलाक़े में सुरक्षा स्थापित करने का ज़िम्मा ब्रिटेन के हाथों में है.
10. अफ़ग़ानिस्तान- ब्रितानी साम्राज्य के दिनों में कहने को तो अफ़ग़ानिस्तान स्वतंत्र रहा, लेकिन असल में उस पर साम्राज्यवादियों की पूरी पकड़ रही. अंग्रेज़ों ने अफ़ग़ानों से तीन ख़ूनी युद्ध लड़े. चौथे युद्ध के लिए एक बार फिर ब्रितानी सैनिक अफ़ग़ानिस्तान में हैं, और लगता नहीं कि पिछले तीन मौक़ों के विपरीत उन्हें इस बार जीत नसीब होगी.
शुक्रवार, जुलाई 21, 2006
आईआईटी-मुंबई का कमाल 'हिंदी शब्दतंत्र'
इंटरनेट में अचानक ही कई बेजोड़ चीज़ें मिल जाती हैं. ऐसी ही एक बेजोड़ चीज़ है- हिंदी शब्दतंत्र और उसी से जुड़ा बेहतरीन हिंदी शब्दकोश.
जैसा कि हमारी सरकारी एजेंसियों के अधिकतर अच्छे कामों के बारे में होता आया है, हिंदी शब्दतंत्र के बारे में भी ढंग से कोई प्रचार नहीं किया गया. कुछ वैज्ञानिक गोष्ठियों में इस पर चर्चा ज़रूर हुई होगी.
थोड़ी छानबीन के बाद पता चला कि हिंदी शब्दतंत्र और कुछ नहीं बल्कि भविष्य के एक चमत्कार का आधारभूत ढाँचा है. आने वाले वर्षों में जब एक भाषा से दूसरे में ढंग का मशीनी अनुवाद संभव हो पाएगा, तब हम हिंदी शब्दतंत्र के महत्व को ठीक से समझ सकेंगे.
ज़्यादा तकनीकी ब्यौरे में नहीं जाते हुए बताया जाए तो शब्दतंत्र या WORDNET भाषा और कंप्यूटर प्रोग्राम का ऐसा सुमेल है, जो कि एक भाषा के माल को दूसरी भाषा में ढालने का कारखाना साबित हो सकता है. भारत जैसे बहुभाषी राष्ट्र में ये कितना उपयोगी साबित हो सकता है, इसकी सहज कल्पना भी संभव नहीं है.
शब्दतंत्र को बाकी मशीनी शब्दकोशों से इस मामले में अलग माना जा सकता है कि यह सिर्फ़ पारिभाषिक अर्थों पर नहीं, बल्कि शब्द विशेष के विभिन्न उपयोगों पर भी गौर फ़रमाता है. कंप्यूटर किसी शब्द का इतना वास्तविक वर्गीकरण SYNSET के सिद्धांत पर करता है. SYNSET यानि a set of one or more synonyms, मतलब समानार्थक शब्दों का वर्ग या मुद्रिका.
आइए हिंदी शब्दतंत्र में एक शब्द 'आम' के उदाहरण के ज़रिए SYNSET के कमाल को देखते हैं.
आज 22 जुलाई 2006 की बात करें तो हिंदी शब्दतंत्र में 47076 अलग-अलग शब्द, और 22469 SYNSETs हैं.
मुंबई के भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के भारतीय भाषा प्रौद्योगिकी केन्द्र ने हिंदी शब्दतंत्र का विकास किया है. इसका आधार प्रिंसटन विश्वविद्यालय के वर्डनेट को माना जा सकता है. जहाँ तक मुझे पता चला है शब्दतंत्र के विकास में ढाई साल लगे और इसी साल दो अप्रैल को आईआईटी-मुंबई में ही एक वैज्ञानिक संगोष्ठी में इसका लोकार्पण किया गया. आईआईटी-मुंबई ने हिंदी के साथ ही मराठी भाषा के लिए भी मराठी शाब्दबंध नाम से एक शब्दतंत्र का विकास किया है.
बात यहीं पर आकर अटक नहीं जाती आईआईटी-मुंबई के विशेषज्ञों ने एक बेहतरीन शब्दकोश भी बना डाला है. इसमें अंग्रेज़ी-हिंदी के अलावा हिंदी-अंग्रेज़ी में भी शब्दों के अर्थ देखने की सुविधा है. यूनीवर्सल वर्ड- हिंदी लेक्सिकन नामक यह शब्दकोश कई विशेषताएँ लिए हैं. मसलन EXACT के साथ-साथ LIKE श्रेणी में भी अर्थ ढूँढने की सुविधा. और आपने LIKE श्रेणी में अर्थ ढूँढे तो शब्द से जुड़े मुहावरे भी सामने आ सकते हैं. इसी तरह यहाँ हिंदी टंकण के लिए झंझटमुक्त की-बोर्ड की भी व्यवस्था की गई है.
शब्दतंत्र और शब्दकोश दोनों विकास की अवस्था में हैं. इसलिए हमारी राय आईआईटी-मुंबई के विशेषज्ञों के लिए ख़ास महत्व रखती है. शब्दकोश पर मैंने भी एक सलाह दी कि वैसी व्यवस्था ज़रूर की जाए जिसमें पूरा शब्द टाइप करने की ज़रूरत नहीं हो. यानि दो-तीन मात्राएँ टाइप करते ही संभावित शब्दों के विकल्प सामने आ जाएँ, जिनमें से इच्छित पर क्लिक करने मात्र से ही काम बन जाए.
हमलोगों में से कई लोग कंप्यूटर के महारथी और सच्चे अर्थों में हिंदी सेवी हैं. आप महानुभावों से अनुरोध है कि आईआईटी-मुंबई के कर्मयोगियों को अपनी सलाह उपलब्ध कराने की कृपा करें.
जैसा कि हमारी सरकारी एजेंसियों के अधिकतर अच्छे कामों के बारे में होता आया है, हिंदी शब्दतंत्र के बारे में भी ढंग से कोई प्रचार नहीं किया गया. कुछ वैज्ञानिक गोष्ठियों में इस पर चर्चा ज़रूर हुई होगी.
थोड़ी छानबीन के बाद पता चला कि हिंदी शब्दतंत्र और कुछ नहीं बल्कि भविष्य के एक चमत्कार का आधारभूत ढाँचा है. आने वाले वर्षों में जब एक भाषा से दूसरे में ढंग का मशीनी अनुवाद संभव हो पाएगा, तब हम हिंदी शब्दतंत्र के महत्व को ठीक से समझ सकेंगे.
ज़्यादा तकनीकी ब्यौरे में नहीं जाते हुए बताया जाए तो शब्दतंत्र या WORDNET भाषा और कंप्यूटर प्रोग्राम का ऐसा सुमेल है, जो कि एक भाषा के माल को दूसरी भाषा में ढालने का कारखाना साबित हो सकता है. भारत जैसे बहुभाषी राष्ट्र में ये कितना उपयोगी साबित हो सकता है, इसकी सहज कल्पना भी संभव नहीं है.
शब्दतंत्र को बाकी मशीनी शब्दकोशों से इस मामले में अलग माना जा सकता है कि यह सिर्फ़ पारिभाषिक अर्थों पर नहीं, बल्कि शब्द विशेष के विभिन्न उपयोगों पर भी गौर फ़रमाता है. कंप्यूटर किसी शब्द का इतना वास्तविक वर्गीकरण SYNSET के सिद्धांत पर करता है. SYNSET यानि a set of one or more synonyms, मतलब समानार्थक शब्दों का वर्ग या मुद्रिका.
आइए हिंदी शब्दतंत्र में एक शब्द 'आम' के उदाहरण के ज़रिए SYNSET के कमाल को देखते हैं.
ऊपरोक्त विवरण में हरे में है समानार्थक शब्दों का समूह, नीले में है परिभाषा और बैंगनी में है वाक्य के रूप में उदाहरण.आम...
Noun(2)
(R) आम, रसाल, आम्र, अंब, अम्ब - एक फल जो खाया या चूसा जाता है "तोता पेड़ पर बैठकर आम खा रहा है / शास्त्रों ने आम को इंद्रासनी फल की संज्ञा दी है"
(R) आम, आम वृक्ष, पिकप्रिय, पिकदेव, पिकबंधु, पिकबन्धु, पिकबंधुर, पिकबन्धुर, पिकराग - एक बड़ा पेड़ जिसके फल खाए या चूसे जाते हैं "आम की लकड़ी का उपयोग साज-सज्जा की वस्तुएँ बनाने में किया जाता है"
Adjective(2)
(R) सामान्य, आम, साधारण, कामचलाऊ, मामूली, अविशिष्ट, अविशेष, अदिव्य - जिसमें कोई विशेषता न हो या अच्छे से कुछ हल्के दरज़े का "यह सामान्य साड़ी है"
(R) सामूहिक, आम, सार्वजनिक, सामुदायिक, सामान्य - प्रायः सभी व्यक्तियों,अवसरों,अवस्थाओं आदि में पाया जानेवाला या उनसे संबंध रखनेवाला "साक्षरता पर विचार-विमर्श हेतु एक सामूहिक सभा का आयोजन किया गया"
आज 22 जुलाई 2006 की बात करें तो हिंदी शब्दतंत्र में 47076 अलग-अलग शब्द, और 22469 SYNSETs हैं.
मुंबई के भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के भारतीय भाषा प्रौद्योगिकी केन्द्र ने हिंदी शब्दतंत्र का विकास किया है. इसका आधार प्रिंसटन विश्वविद्यालय के वर्डनेट को माना जा सकता है. जहाँ तक मुझे पता चला है शब्दतंत्र के विकास में ढाई साल लगे और इसी साल दो अप्रैल को आईआईटी-मुंबई में ही एक वैज्ञानिक संगोष्ठी में इसका लोकार्पण किया गया. आईआईटी-मुंबई ने हिंदी के साथ ही मराठी भाषा के लिए भी मराठी शाब्दबंध नाम से एक शब्दतंत्र का विकास किया है.
बात यहीं पर आकर अटक नहीं जाती आईआईटी-मुंबई के विशेषज्ञों ने एक बेहतरीन शब्दकोश भी बना डाला है. इसमें अंग्रेज़ी-हिंदी के अलावा हिंदी-अंग्रेज़ी में भी शब्दों के अर्थ देखने की सुविधा है. यूनीवर्सल वर्ड- हिंदी लेक्सिकन नामक यह शब्दकोश कई विशेषताएँ लिए हैं. मसलन EXACT के साथ-साथ LIKE श्रेणी में भी अर्थ ढूँढने की सुविधा. और आपने LIKE श्रेणी में अर्थ ढूँढे तो शब्द से जुड़े मुहावरे भी सामने आ सकते हैं. इसी तरह यहाँ हिंदी टंकण के लिए झंझटमुक्त की-बोर्ड की भी व्यवस्था की गई है.
शब्दतंत्र और शब्दकोश दोनों विकास की अवस्था में हैं. इसलिए हमारी राय आईआईटी-मुंबई के विशेषज्ञों के लिए ख़ास महत्व रखती है. शब्दकोश पर मैंने भी एक सलाह दी कि वैसी व्यवस्था ज़रूर की जाए जिसमें पूरा शब्द टाइप करने की ज़रूरत नहीं हो. यानि दो-तीन मात्राएँ टाइप करते ही संभावित शब्दों के विकल्प सामने आ जाएँ, जिनमें से इच्छित पर क्लिक करने मात्र से ही काम बन जाए.
हमलोगों में से कई लोग कंप्यूटर के महारथी और सच्चे अर्थों में हिंदी सेवी हैं. आप महानुभावों से अनुरोध है कि आईआईटी-मुंबई के कर्मयोगियों को अपनी सलाह उपलब्ध कराने की कृपा करें.
सोमवार, जुलाई 10, 2006
विदेश मंत्रालय ने हिंदी को भुलाया
इस आलेख का शीर्षक पढ़ कर हो सकता है आपको कोई आश्चर्य नहीं हो. ठीक भी है, क्योंकि लगता नहीं कि विदेश मंत्रालय ने कभी हिंदी को याद भी किया होगा.
दरअसल यह आलेख विदेश मंत्रालय (या Ministry of External Affairs की तर्ज़ पर भारत के बाह्य मामलों का मंत्रालय?) की वेबसाइट पर केंद्रित है. इस वेबसाइट का एक पेज हिंदी में है. परंपरा (कम-से-कम पिछले दो साल से) यह थी कि विदेश मंत्रालय के अतिसक्रिय नौकरशाह इस पेज को साल में तीन बार हिलाते थे या थोड़ी तकनीकी भाषा में कहें तो अपडेट करते थे.
अपडेट क्या होता था, उस पेज पर तीन भारी-भरकम भाषण डाल दिए जाते थे. ज़ाहिर है, भाषण का बोझ पड़ने के कारण पेज हिल जाता था.
ये तीन भाषण हैं: गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति का भाषण, स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति का भाषण और स्वतंत्रता दिवस के दिन प्रधानमंत्री का भाषण.
लेकिन पता नहीं करोड़ों की प्यारी (लेकिन बेचारी) हिंदी से क्या गुस्ताख़ी हो गई, कि विदेश मंत्रालय के बाबुओं ने इस साल गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति के भाषण को अपनी वेबसाइट के हिंदी पेज पर जगह नहीं देने का फ़ैसला कर लिया. विश्वास नहीं हो नीचे दिए गए 'स्क्रीन ग्रैब' को देखें जो कि मैंने भारतीय समयानुसार 10 जुलाई की आधी रात को लिया है.
फ़ॉरेन सर्विस वाले बाबुओं से विनती है कि कम-से-कम स्वतंत्रता दिवस के मौक़े पर हिंदी को नहीं भूलें. माना हिंदी ने कोई ग़लती कर दी होगी, लेकिन इस साल गणतंत्र दिवस के मौक़े पर आपके हाथों उपेक्षित होकर वह सज़ा भी तो काट चुकी है.
अन्य विभाग और कार्यालय
विदेश मंत्रालय के हिंदी से नाममात्र का भी राजनयिक संबंध नहीं रखने के फ़ैसले की जानकारी मिलने के बाद मैंने बाक़ी मंत्रालयों, विभागों और कार्यालयों की वेबसाइटों का भी औचक निरीक्षण किया. प्रस्तुत हैं कुछ रोचक तथ्य:-
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की वेबसाइट पर एक ही जगह हिंदी है. वो जगह है अशोक स्तंभ के चित्र नीचे का स्थल जहाँ देवनागरी में 'सत्यमेव जयते' लिखा है. लेकिन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम की वेबसाइट पर तो हिंदी की एक झलक तक नहीं मिलती.
रक्षा मंत्रालय और गृह मंत्रालय की वेबसाइटों पर हिंदी को जगह नहीं दी गई है.
मुझे लगा देहाती शैली में हिंदी बोलने वाले रघुवंश प्रसाद सिंह के ग्रामीण विकास मंत्रालय की वेबसाइट पर हिंदी होगी. इस सरकारी लिंक http://rural.nic.in/ ने काम नहीं किया तो दूसरे रास्ते से रघुवंश बाबू के मंत्रालय की वेबसाइट पर जाकर अपनी उम्मीदों पर पानी फेरा.
निरक्षरों को पढ़ना-लिखना सिखाने वाले राष्ट्रीय साक्षरता मिशन की वेबसाइट पर भी हिंदी नहीं है. उम्मीद के अनुरूप रेल मंत्रालय की वेबसाइट हिंदी में भी है. लेकिन उसके कुछ हिस्से में 'कार्य प्रगति पर है.' का बोर्ड लगा मिला.
भारत के राष्ट्रीय पोर्टल पर हिंदी के नाम पर प्रेस विज्ञप्तियों का एक लिंक मात्र है. दूसरी ओर प्रेस विज्ञप्तियाँ जारी करने वाले पत्र सूचना कार्यालय की वेबसाइट पर मुझे 10 जुलाई को अंग्रेजी में जहाँ कुल 10 सरकारी बयान मिले, वहीं हिंदी में मात्र तीन.
भारत के राष्ट्रीय पोर्टल पर ही संविधान के हिंदी पेज का लिंक ढूँढा. वहाँ गया तो पहली नज़र में सब कुछ अंग्रेज़ी में ही दिखा. हालाँकि पेज पर कई अघोषित लिंक हैं जिन्हें क्लिक करने पर हिंदी दिखती है.
सर्वोच्च न्यायालय की वेबसाइट पर हिंदी नहीं है. दूरदर्शन की वेबसाइट पर भी हिंदी दर्शन नहीं होता.
लोकसभा की वेबसाइट पर हिंदी नहीं है. कुछ बहसों के अंश हिंदी में देखने के लिए हिंदी फ़ोंट डाउनलोड करने के लिए एक लिंक ज़रूर है. राज्यसभा की वेबसाइट का सीमित हिंदी संस्करण है, लेकिन योगेश और सुरेख नामक फ़ोंट डाउनलोड करने होंगे.
इसी तरह आकाशवाणी की वेबसाइट के हिंदी संस्करण को देखने के लिए कृतिदेव020 फ़ोंट डाउनलोड करना पड़ा. हालाँकि इसके बाद भी वहाँ ज़्यादातर अंग्रेज़ी माल ही दिखा या फिर खाली डिब्बा.
राजभाषा विभाग की वेबसाइट पर हिंदी को लेकर बहुत अच्छी-अच्छी बातें की गई हैं. लेकिन वहाँ उसकी हिंदी पत्रिका राजभाषा भारती के लेखों के बज़ाय, उनकी सूची मात्र से काम चलाइए.
दरअसल यह आलेख विदेश मंत्रालय (या Ministry of External Affairs की तर्ज़ पर भारत के बाह्य मामलों का मंत्रालय?) की वेबसाइट पर केंद्रित है. इस वेबसाइट का एक पेज हिंदी में है. परंपरा (कम-से-कम पिछले दो साल से) यह थी कि विदेश मंत्रालय के अतिसक्रिय नौकरशाह इस पेज को साल में तीन बार हिलाते थे या थोड़ी तकनीकी भाषा में कहें तो अपडेट करते थे.
अपडेट क्या होता था, उस पेज पर तीन भारी-भरकम भाषण डाल दिए जाते थे. ज़ाहिर है, भाषण का बोझ पड़ने के कारण पेज हिल जाता था.
ये तीन भाषण हैं: गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति का भाषण, स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति का भाषण और स्वतंत्रता दिवस के दिन प्रधानमंत्री का भाषण.
लेकिन पता नहीं करोड़ों की प्यारी (लेकिन बेचारी) हिंदी से क्या गुस्ताख़ी हो गई, कि विदेश मंत्रालय के बाबुओं ने इस साल गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति के भाषण को अपनी वेबसाइट के हिंदी पेज पर जगह नहीं देने का फ़ैसला कर लिया. विश्वास नहीं हो नीचे दिए गए 'स्क्रीन ग्रैब' को देखें जो कि मैंने भारतीय समयानुसार 10 जुलाई की आधी रात को लिया है.
फ़ॉरेन सर्विस वाले बाबुओं से विनती है कि कम-से-कम स्वतंत्रता दिवस के मौक़े पर हिंदी को नहीं भूलें. माना हिंदी ने कोई ग़लती कर दी होगी, लेकिन इस साल गणतंत्र दिवस के मौक़े पर आपके हाथों उपेक्षित होकर वह सज़ा भी तो काट चुकी है.
अन्य विभाग और कार्यालय
विदेश मंत्रालय के हिंदी से नाममात्र का भी राजनयिक संबंध नहीं रखने के फ़ैसले की जानकारी मिलने के बाद मैंने बाक़ी मंत्रालयों, विभागों और कार्यालयों की वेबसाइटों का भी औचक निरीक्षण किया. प्रस्तुत हैं कुछ रोचक तथ्य:-
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की वेबसाइट पर एक ही जगह हिंदी है. वो जगह है अशोक स्तंभ के चित्र नीचे का स्थल जहाँ देवनागरी में 'सत्यमेव जयते' लिखा है. लेकिन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम की वेबसाइट पर तो हिंदी की एक झलक तक नहीं मिलती.
रक्षा मंत्रालय और गृह मंत्रालय की वेबसाइटों पर हिंदी को जगह नहीं दी गई है.
मुझे लगा देहाती शैली में हिंदी बोलने वाले रघुवंश प्रसाद सिंह के ग्रामीण विकास मंत्रालय की वेबसाइट पर हिंदी होगी. इस सरकारी लिंक http://rural.nic.in/ ने काम नहीं किया तो दूसरे रास्ते से रघुवंश बाबू के मंत्रालय की वेबसाइट पर जाकर अपनी उम्मीदों पर पानी फेरा.
निरक्षरों को पढ़ना-लिखना सिखाने वाले राष्ट्रीय साक्षरता मिशन की वेबसाइट पर भी हिंदी नहीं है. उम्मीद के अनुरूप रेल मंत्रालय की वेबसाइट हिंदी में भी है. लेकिन उसके कुछ हिस्से में 'कार्य प्रगति पर है.' का बोर्ड लगा मिला.
भारत के राष्ट्रीय पोर्टल पर हिंदी के नाम पर प्रेस विज्ञप्तियों का एक लिंक मात्र है. दूसरी ओर प्रेस विज्ञप्तियाँ जारी करने वाले पत्र सूचना कार्यालय की वेबसाइट पर मुझे 10 जुलाई को अंग्रेजी में जहाँ कुल 10 सरकारी बयान मिले, वहीं हिंदी में मात्र तीन.
भारत के राष्ट्रीय पोर्टल पर ही संविधान के हिंदी पेज का लिंक ढूँढा. वहाँ गया तो पहली नज़र में सब कुछ अंग्रेज़ी में ही दिखा. हालाँकि पेज पर कई अघोषित लिंक हैं जिन्हें क्लिक करने पर हिंदी दिखती है.
सर्वोच्च न्यायालय की वेबसाइट पर हिंदी नहीं है. दूरदर्शन की वेबसाइट पर भी हिंदी दर्शन नहीं होता.
लोकसभा की वेबसाइट पर हिंदी नहीं है. कुछ बहसों के अंश हिंदी में देखने के लिए हिंदी फ़ोंट डाउनलोड करने के लिए एक लिंक ज़रूर है. राज्यसभा की वेबसाइट का सीमित हिंदी संस्करण है, लेकिन योगेश और सुरेख नामक फ़ोंट डाउनलोड करने होंगे.
इसी तरह आकाशवाणी की वेबसाइट के हिंदी संस्करण को देखने के लिए कृतिदेव020 फ़ोंट डाउनलोड करना पड़ा. हालाँकि इसके बाद भी वहाँ ज़्यादातर अंग्रेज़ी माल ही दिखा या फिर खाली डिब्बा.
राजभाषा विभाग की वेबसाइट पर हिंदी को लेकर बहुत अच्छी-अच्छी बातें की गई हैं. लेकिन वहाँ उसकी हिंदी पत्रिका राजभाषा भारती के लेखों के बज़ाय, उनकी सूची मात्र से काम चलाइए.
सोमवार, जुलाई 03, 2006
मिलियन-बिलियन दूर नहीं
मेरे पिछले पोस्ट पर आई टिप्पणियों में आलोक भाई की टिप्पणी सबसे अलग हट कर है. उन्होंने लिखा है- "800 अरब डॉलर- यानी आठ खरब, न? ये अखबार वालो ने - ख़ासतौर पर अङ्ग्रेज़ी अखबार वालो ने - ये मान्यता फैला दी है कि करोड़ के ऊपर हिन्दुस्तानी गिनती में कुछ नहीं होता है। कम से कम अरब की सङ्ख्या देख के तो खुशी हुई, पर इसे भी 8 खरब लिखा जा सकता है।"
मैं आलोक जी से पूरी तरह सहमत हूँ. लेकिन ख़ुद को असहाय पाता हूँ.
सच कहें तो अब तो मुझे मात्र धार्मिक साहित्य में ही खरब का ज़िक्र नज़र आता है(जैसे: अरबों-खरबों जीवों में से प्रत्येक में ईश्वर का अंश है), या फिर खगोल विज्ञान के कतिपय लेखों में(जैसे: हमारी आकाशगंगा में खरबों की संख्या में तारे हैं).
ग़लती जनसंचार की शिक्षा देने वाले संस्थानों और मीडिया प्रतिष्ठानों की है. मीडिया संस्थानों में पढ़ाया जाता है- 'करोड़ से ऊपर जाने से बचो क्योंकि लोग अरब-खरब में कन्फ़्यूज़ हो जाते हैं.' कहने का मतलब एक अरब की जगह सौ करोड़ लिख मारो. अब जब पढ़ाई के दौरान ही इस तरह की घुट्टी पिलाई जाती हो, तब भला क्या किया जाए!
इसी तरह भारतीय प्रकाशनों में भारत से जुड़े आर्थिक आँकड़े भी डॉलरों में देने का चलन भी बहुत ख़राब माना जा सकता है. भारत में उपलब्ध अंतरराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में डॉलर का प्रयोग बिल्कुल सही है. यहाँ तक कि भारतीय पाठकों के लिए ही लेकिन अंतरराष्ट्रीय आँकड़ों के साथ लिखे गए लेखों में भी डॉलर चलेगा. लेकिन भारत में खपत के लिए, भारत से जुड़े विषयों पर, भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में छपे लेखों में डॉलर लिखने की बाध्यता से तो बचा जा सकता है.
मुझे तो लगता है स्थिति और बुरी होने वाली है. मैंने ख़ुद कई समाचार प्रतिष्ठानों में अनेक पत्रकारों को 'मिलियन' को 'लाख' में बदलते हुए झल्लाते देखा है. हिंदी मीडिया में अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़े लोगों की बढ़ती घुसपैठ को देखते हुए कुछ वर्षों के भीतर हिंदी लेखन में 'मिलियन' का महामारी की तरह फैलना तय माना जाना चाहिए.
हमें नहीं लगता इस तरह के चलन को रोकना आसान होगा क्योंकि सूचना की बौछार के बीच काम करते लोग डॉलर को रुपये में और मिलियन को लाख में बदलने का अतिरक्त बोझ उठाने को तैयार नहीं दीखते. ('टाइट डेडलाइन' में काम करते हुए उन्हें मिलियन-लाख के खेल में दशमलव के सही जगह से इधर-उधर खिसकने का भी डर रहता है.) जब मीडिया का रवैया ऐसा है तो हमारे पास इसके अलावा कोई चारा नहीं कि हम आने वाले वर्षों में हिंदी में भी मिलियन-बिलियन झेलने के लिए ख़ुद को तैयार रखें.
स्टार न्यूज़, ज़ी न्यूज़, नवभारत टाइम्स जैसे कई स्वनामधन्य मीडिया प्रतिष्ठान हिंदी के अंग्रेज़ीकरण के सबल वाहक बने हैं. स्वास्थ्य, विज्ञान और कुछ हद तक आर्थिक ख़बरों में अंग्रेज़ी के शब्दों का बढ़ता प्रचलन तो समझ में आता है क्योंकि नए-नए पारिभाषिक शब्द आ रहे हैं. लेकिन जानबूझकर हिंदी की जगह अंग्रेज़ी लिखना क्यों ज़रूरी होता जा रहा है, पता नहीं. एक छोटा-सा उदाहरण: आज 'स्टार न्यूज़' पर कोई प्रस्तुतकर्ता या संवाददाता 'टीम इंडिया' की जगह 'भारतीय टीम' कहने की ज़ुर्रत नहीं कर सकता!
मैं आलोक जी से पूरी तरह सहमत हूँ. लेकिन ख़ुद को असहाय पाता हूँ.
सच कहें तो अब तो मुझे मात्र धार्मिक साहित्य में ही खरब का ज़िक्र नज़र आता है(जैसे: अरबों-खरबों जीवों में से प्रत्येक में ईश्वर का अंश है), या फिर खगोल विज्ञान के कतिपय लेखों में(जैसे: हमारी आकाशगंगा में खरबों की संख्या में तारे हैं).
ग़लती जनसंचार की शिक्षा देने वाले संस्थानों और मीडिया प्रतिष्ठानों की है. मीडिया संस्थानों में पढ़ाया जाता है- 'करोड़ से ऊपर जाने से बचो क्योंकि लोग अरब-खरब में कन्फ़्यूज़ हो जाते हैं.' कहने का मतलब एक अरब की जगह सौ करोड़ लिख मारो. अब जब पढ़ाई के दौरान ही इस तरह की घुट्टी पिलाई जाती हो, तब भला क्या किया जाए!
इसी तरह भारतीय प्रकाशनों में भारत से जुड़े आर्थिक आँकड़े भी डॉलरों में देने का चलन भी बहुत ख़राब माना जा सकता है. भारत में उपलब्ध अंतरराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में डॉलर का प्रयोग बिल्कुल सही है. यहाँ तक कि भारतीय पाठकों के लिए ही लेकिन अंतरराष्ट्रीय आँकड़ों के साथ लिखे गए लेखों में भी डॉलर चलेगा. लेकिन भारत में खपत के लिए, भारत से जुड़े विषयों पर, भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में छपे लेखों में डॉलर लिखने की बाध्यता से तो बचा जा सकता है.
मुझे तो लगता है स्थिति और बुरी होने वाली है. मैंने ख़ुद कई समाचार प्रतिष्ठानों में अनेक पत्रकारों को 'मिलियन' को 'लाख' में बदलते हुए झल्लाते देखा है. हिंदी मीडिया में अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़े लोगों की बढ़ती घुसपैठ को देखते हुए कुछ वर्षों के भीतर हिंदी लेखन में 'मिलियन' का महामारी की तरह फैलना तय माना जाना चाहिए.
हमें नहीं लगता इस तरह के चलन को रोकना आसान होगा क्योंकि सूचना की बौछार के बीच काम करते लोग डॉलर को रुपये में और मिलियन को लाख में बदलने का अतिरक्त बोझ उठाने को तैयार नहीं दीखते. ('टाइट डेडलाइन' में काम करते हुए उन्हें मिलियन-लाख के खेल में दशमलव के सही जगह से इधर-उधर खिसकने का भी डर रहता है.) जब मीडिया का रवैया ऐसा है तो हमारे पास इसके अलावा कोई चारा नहीं कि हम आने वाले वर्षों में हिंदी में भी मिलियन-बिलियन झेलने के लिए ख़ुद को तैयार रखें.
स्टार न्यूज़, ज़ी न्यूज़, नवभारत टाइम्स जैसे कई स्वनामधन्य मीडिया प्रतिष्ठान हिंदी के अंग्रेज़ीकरण के सबल वाहक बने हैं. स्वास्थ्य, विज्ञान और कुछ हद तक आर्थिक ख़बरों में अंग्रेज़ी के शब्दों का बढ़ता प्रचलन तो समझ में आता है क्योंकि नए-नए पारिभाषिक शब्द आ रहे हैं. लेकिन जानबूझकर हिंदी की जगह अंग्रेज़ी लिखना क्यों ज़रूरी होता जा रहा है, पता नहीं. एक छोटा-सा उदाहरण: आज 'स्टार न्यूज़' पर कोई प्रस्तुतकर्ता या संवाददाता 'टीम इंडिया' की जगह 'भारतीय टीम' कहने की ज़ुर्रत नहीं कर सकता!
रविवार, जुलाई 02, 2006
दुनिया को बदलता भारत
दुनिया भर की शायद ही कोई प्रतिष्ठित पत्रिका बची हो जिसने पिछले कुछ महीनों में भारत से आ रही अच्छी ख़बरों पर केंद्रित विशेषांक न निकाला हो. सारे प्रतिष्ठित अख़बार भी इस मुद्दे पर हर दूसरे-तीसरे महीने विशेष परिशिष्ट निकालते रहते हैं. प्रतिष्ठित अमरीकी साप्ताहिक 'टाइम' के तीन जुलाई के अंक में तेज़ी से बदल रहे भारत पर नज़र डाली गई है.
'टाइम' के भारत केंद्रित इस अंक की एक छोटी-सी प्रस्तुति मुझे बहुत दिलचस्प लगी. इसका शीर्षक है- 10 WAYS, INDIA IS CHANGING THE WORLD. इसमें भारत के बारे में ज़्यादातर अच्छे तथ्य ही हैं.
'टाइम' द्वारा जुटाए आँकड़ों के स्रोत भी कुल मिला कर अत्यंत विश्वसनीय कहे जा सकते हैं. ये हैं: संयुक्त राष्ट्र, विश्व बैंक, भारत सरकार, ब्रिटेन का राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय, फ़ोर्ब्स, मैकेन्ज़ी एंड कंपनी और प्राइसवाटरहाउसकूपर्स.
दुनिया को 10 तरह से बदलता भारत
1. अर्थव्यवस्था: भारत का सकल घरेलू उत्पाद(जीडीपी) 2005 में 800 अरब डॉलर से ज़्यादा रहा. भारत की अर्थव्यवस्था पिछले तीन वर्षों से सालाना 8 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है. मतलब भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया भर में दूसरी सबसे तेज़ गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था है.
2. इंटरनेट: भारत के इंटरनेट प्रौद्योगिकी उद्योग(अन्य आउटसोर्सिंग सेवाएँ शामिल) ने वर्ष 2005 में 36 अरब डॉलर का व्यवसाय किया. साल भर पहले के मुक़ाबले यह 28 प्रतिशत ज़्यादा है.
3. धनकुबेर: शेयर बाज़ार में तेज़ी के कारण भारत में अरबपतियों की संख्या बढ़ कर 23 हो गई है. इनमें से 10 व्यक्ति इस साल भारतीय अरबपति क्लब में शामिल हुए. (चीन में अरबपतियों की संख्या मात्र आठ है.) भारत के अरबपतियों के पास हैं कुल 99 अरब डॉलर. साल भर पहले की तुलना में यह 60 प्रतिशत ज़्यादा है.
4. उपभोक्ता: वर्ष 1996 के बाद से भारत में विमान यात्रियों की संख्या में छह गुना बढ़ोत्तरी हुई है. मतलब हर साल भारत में क़रीब पाँच करोड़ यात्री हवाई मार्ग का उपयोग करते हैं. इन दस वर्षों में भारत में मोटरसाइकिल और कारों की बिक्री दोगुनी हो चुकी है.
5. मनोरंजन उद्योग: भारत का फ़िल्म उद्योग डेढ़ अरब डॉलर का है. निर्मित फ़िल्मों की संख्या और टिकट बिक्री, दोनों ही लिहाज़ से भारतीय फ़िल्म उद्योग दुनिया में पहले नंबर पर है. भारत में सालाना हॉलीवुड के मुक़ाबले पाँच गुना ज़्यादा यानि क़रीब 1,000 फ़िल्में बनती हैं.
6. अंतरराष्ट्रीय पर्यटन: पिछले दो वर्षों में भारतीय पर्यटन उद्योग में 20 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है. पिछले साल ब्रिटेन, फ़्रांस और जर्मनी के 9,93,000 पर्यटक भारत पहुँचे. यानि भारत पहुँचे कुल विदेशी पर्यटकों में से 24 प्रतिशत इन तीन देशों से थे.
7. प्रतिभा निर्यात: भारतीय मूल के क़रीब 20 लाख व्यक्ति अमरीका में और क़रीब 10 लाख ब्रिटेन में रहते हैं. अमरीका में भारतीय प्रवासियों की औसत घरेलू आय वहाँ किसी भी जातीय समूह में सबसे ज़्यादा है.
8. जनापूर्ति: भारत में एक अरब से ज़्यादा लोग रहते हैं. दूसरे शब्दों में दुनिया का हर छठा व्यक्ति भारत में रहता है. अनुमान हैं कि दस वर्षों के भीतर भारत दुनिया का सबसे ज़्यादा आबादी वाला राष्ट्र होगा.
9. संकट केंद्र: एड्स से जुड़े वायरस एचआईवी से संक्रमित सबसे ज़्यादा लोग भारत में हैं. विभिन्न अनुमानों के अनुसार कोई 57 लाख.
10. चीन को चुनौती: भारत सकल घरेलू उत्पाद और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के मामलों में चीन से पीछे है. लेकिन भारतीय समाज ज़्यादा मुक्त है और अर्थव्यवस्था सरपट आगे भाग रही है- ऐसे में लंबी अवधि में वह चीन से आगे जा सकता है.
'टाइम' के भारत केंद्रित इस अंक की एक छोटी-सी प्रस्तुति मुझे बहुत दिलचस्प लगी. इसका शीर्षक है- 10 WAYS, INDIA IS CHANGING THE WORLD. इसमें भारत के बारे में ज़्यादातर अच्छे तथ्य ही हैं.
'टाइम' द्वारा जुटाए आँकड़ों के स्रोत भी कुल मिला कर अत्यंत विश्वसनीय कहे जा सकते हैं. ये हैं: संयुक्त राष्ट्र, विश्व बैंक, भारत सरकार, ब्रिटेन का राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय, फ़ोर्ब्स, मैकेन्ज़ी एंड कंपनी और प्राइसवाटरहाउसकूपर्स.
दुनिया को 10 तरह से बदलता भारत
1. अर्थव्यवस्था: भारत का सकल घरेलू उत्पाद(जीडीपी) 2005 में 800 अरब डॉलर से ज़्यादा रहा. भारत की अर्थव्यवस्था पिछले तीन वर्षों से सालाना 8 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है. मतलब भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया भर में दूसरी सबसे तेज़ गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था है.
2. इंटरनेट: भारत के इंटरनेट प्रौद्योगिकी उद्योग(अन्य आउटसोर्सिंग सेवाएँ शामिल) ने वर्ष 2005 में 36 अरब डॉलर का व्यवसाय किया. साल भर पहले के मुक़ाबले यह 28 प्रतिशत ज़्यादा है.
3. धनकुबेर: शेयर बाज़ार में तेज़ी के कारण भारत में अरबपतियों की संख्या बढ़ कर 23 हो गई है. इनमें से 10 व्यक्ति इस साल भारतीय अरबपति क्लब में शामिल हुए. (चीन में अरबपतियों की संख्या मात्र आठ है.) भारत के अरबपतियों के पास हैं कुल 99 अरब डॉलर. साल भर पहले की तुलना में यह 60 प्रतिशत ज़्यादा है.
4. उपभोक्ता: वर्ष 1996 के बाद से भारत में विमान यात्रियों की संख्या में छह गुना बढ़ोत्तरी हुई है. मतलब हर साल भारत में क़रीब पाँच करोड़ यात्री हवाई मार्ग का उपयोग करते हैं. इन दस वर्षों में भारत में मोटरसाइकिल और कारों की बिक्री दोगुनी हो चुकी है.
5. मनोरंजन उद्योग: भारत का फ़िल्म उद्योग डेढ़ अरब डॉलर का है. निर्मित फ़िल्मों की संख्या और टिकट बिक्री, दोनों ही लिहाज़ से भारतीय फ़िल्म उद्योग दुनिया में पहले नंबर पर है. भारत में सालाना हॉलीवुड के मुक़ाबले पाँच गुना ज़्यादा यानि क़रीब 1,000 फ़िल्में बनती हैं.
6. अंतरराष्ट्रीय पर्यटन: पिछले दो वर्षों में भारतीय पर्यटन उद्योग में 20 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है. पिछले साल ब्रिटेन, फ़्रांस और जर्मनी के 9,93,000 पर्यटक भारत पहुँचे. यानि भारत पहुँचे कुल विदेशी पर्यटकों में से 24 प्रतिशत इन तीन देशों से थे.
7. प्रतिभा निर्यात: भारतीय मूल के क़रीब 20 लाख व्यक्ति अमरीका में और क़रीब 10 लाख ब्रिटेन में रहते हैं. अमरीका में भारतीय प्रवासियों की औसत घरेलू आय वहाँ किसी भी जातीय समूह में सबसे ज़्यादा है.
8. जनापूर्ति: भारत में एक अरब से ज़्यादा लोग रहते हैं. दूसरे शब्दों में दुनिया का हर छठा व्यक्ति भारत में रहता है. अनुमान हैं कि दस वर्षों के भीतर भारत दुनिया का सबसे ज़्यादा आबादी वाला राष्ट्र होगा.
9. संकट केंद्र: एड्स से जुड़े वायरस एचआईवी से संक्रमित सबसे ज़्यादा लोग भारत में हैं. विभिन्न अनुमानों के अनुसार कोई 57 लाख.
10. चीन को चुनौती: भारत सकल घरेलू उत्पाद और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के मामलों में चीन से पीछे है. लेकिन भारतीय समाज ज़्यादा मुक्त है और अर्थव्यवस्था सरपट आगे भाग रही है- ऐसे में लंबी अवधि में वह चीन से आगे जा सकता है.
बुधवार, जून 28, 2006
भारत, अमरीका और अपराध
सप्ताह भर से हिंदी ब्लॉग जगत में भारत और अमरीका को लेकर तीखी बहस जारी है. रीडर्स डाइजेस्ट के सर्वे के बहाने शुरू बहस ने दुर्भाग्य से देसी बनाम अमरीकावासी ब्लॉगरों के बीच नोंकझोंक का रूप ले लिया.
बहस में शामिल देसी ब्लॉगरों ने दीनहीन भाव से इतना मात्र कहना चाहा कि भारत समस्याओं से भरा है, लेकिन अमरीकी समाज में भी विसंगतियाँ होंगी. बदले में अमरीकावासी ब्लॉगरों में से कुछ ने भारत की छवि भिखमंगों, असभ्यों, बलात्कारियों के समाज के रूप में अंकित करनी चाही(भले ही अनचाहे ऐसा हुआ हो). इतना ही नहीं अमरीका को भारत के मुक़ाबले झंझटमुक्त और स्वर्गिक समाज घोषित करने की भी चेष्टा हुई(तथ्यों से ज़्यादा भावनात्मक दलीलों के सहारे).
मेरी टिप्पणियों को या तो दरकिनार किया गया या फिर उसे एक सिरे से खारिज करने का प्रयास हुआ. बहस के दौरान एक पोस्ट से टीपे सूत्रों पर कुछ घंटे लगा कर मैंने दो महान देशों(अमरीका के साथ ही भारत को भी महान कह रहा हूँ, जिनकी भावनाओं को चोट पहुँचे कृपया माफ़ करेंगे) में अपराध की स्थिति की तुलना की है.
अच्छी बात तो यह रही कि हिंदी ब्लॉग जगत में इस बहस के दौरान ही सर्वशक्तिमान एफ़बीआई ने अमरीका में अपराध के ताज़ा आँकड़े जारी कर दिए हैं. इसमें अमरीका में अपराध की शहरवार स्थिति देखी जा सकती हैं. आँकड़े आरंभिक हैं, यानि मुकम्मल तस्वीर सितंबर-अक्तूबर तक उभरेगी, लेकिन एफ़बीआई ने साफ़ कर दिया है कि दुनिया में अपराध के सबसे बड़े केंद्रों में से एक अमरीका में क़ानून-व्यवस्था की चुनौती दिनोंदिन गंभीर बनती जा रही है. एफ़बीआई ने नस्ली अपराधों की सूची अलग से देना ज़रूरी समझा है.
आँकड़ों में जाने से पहले दो दिलचस्प तथ्यों पर ग़ौर करें: अमरीका में रूस से आठ गुना ज़्यादा आपराधिक घटनाएँ होती हैं, लेकिन रूस के मुक़ाबले वहाँ जजों और मजिस्ट्रेटों की संख्या लगभग आधी है; अमरीका में प्रति हज़ार व्यक्ति में से सात जेल में बंद हैं.
भारत और अमरीका में अपराध का तुलनात्मक अध्ययन:
कुल अपराध- भारत 1.633 अमरीका 80.064 (प्रति 1,000 व्यक्ति)
हत्या- भारत 0.034 अमरीका 0.042 (प्रति 1,000 व्यक्ति)
बलात्कार- भारत 0.014 अमरीका 0.301 (प्रति 1,000 व्यक्ति)
डाका- भारत 0.026 अमरीका 1.385 (प्रति 1,000 व्यक्ति)
धोखाधड़ी- भारत 0.038 अमरीका 1.257 (प्रति 1,000 व्यक्ति)
गबन- भारत 0.014 अमरीका 0.058 (प्रति 1,000 व्यक्ति)
सेंधमारी- भारत 0.103 अमरीका 7.099 (प्रति 1,000 व्यक्ति)
मारपीट- भारत 0.218 अमरीका 7.569 (प्रति 1,000 व्यक्ति)
क़ैदी- भारत 29 अमरीका 715 (प्रति 100,000 व्यक्ति)
आँकड़ों के स्रोत:
1. Seventh United Nations Survey of Crime Trends and Operations of Criminal Justice Systems, covering the period 1998 - 2000 (United Nations Office on Drugs and Crime, Centre for International Crime Prevention)
2. CIA World Factbook
बहस में शामिल देसी ब्लॉगरों ने दीनहीन भाव से इतना मात्र कहना चाहा कि भारत समस्याओं से भरा है, लेकिन अमरीकी समाज में भी विसंगतियाँ होंगी. बदले में अमरीकावासी ब्लॉगरों में से कुछ ने भारत की छवि भिखमंगों, असभ्यों, बलात्कारियों के समाज के रूप में अंकित करनी चाही(भले ही अनचाहे ऐसा हुआ हो). इतना ही नहीं अमरीका को भारत के मुक़ाबले झंझटमुक्त और स्वर्गिक समाज घोषित करने की भी चेष्टा हुई(तथ्यों से ज़्यादा भावनात्मक दलीलों के सहारे).
मेरी टिप्पणियों को या तो दरकिनार किया गया या फिर उसे एक सिरे से खारिज करने का प्रयास हुआ. बहस के दौरान एक पोस्ट से टीपे सूत्रों पर कुछ घंटे लगा कर मैंने दो महान देशों(अमरीका के साथ ही भारत को भी महान कह रहा हूँ, जिनकी भावनाओं को चोट पहुँचे कृपया माफ़ करेंगे) में अपराध की स्थिति की तुलना की है.
अच्छी बात तो यह रही कि हिंदी ब्लॉग जगत में इस बहस के दौरान ही सर्वशक्तिमान एफ़बीआई ने अमरीका में अपराध के ताज़ा आँकड़े जारी कर दिए हैं. इसमें अमरीका में अपराध की शहरवार स्थिति देखी जा सकती हैं. आँकड़े आरंभिक हैं, यानि मुकम्मल तस्वीर सितंबर-अक्तूबर तक उभरेगी, लेकिन एफ़बीआई ने साफ़ कर दिया है कि दुनिया में अपराध के सबसे बड़े केंद्रों में से एक अमरीका में क़ानून-व्यवस्था की चुनौती दिनोंदिन गंभीर बनती जा रही है. एफ़बीआई ने नस्ली अपराधों की सूची अलग से देना ज़रूरी समझा है.
आँकड़ों में जाने से पहले दो दिलचस्प तथ्यों पर ग़ौर करें: अमरीका में रूस से आठ गुना ज़्यादा आपराधिक घटनाएँ होती हैं, लेकिन रूस के मुक़ाबले वहाँ जजों और मजिस्ट्रेटों की संख्या लगभग आधी है; अमरीका में प्रति हज़ार व्यक्ति में से सात जेल में बंद हैं.
भारत और अमरीका में अपराध का तुलनात्मक अध्ययन:
कुल अपराध- भारत 1.633 अमरीका 80.064 (प्रति 1,000 व्यक्ति)
हत्या- भारत 0.034 अमरीका 0.042 (प्रति 1,000 व्यक्ति)
बलात्कार- भारत 0.014 अमरीका 0.301 (प्रति 1,000 व्यक्ति)
डाका- भारत 0.026 अमरीका 1.385 (प्रति 1,000 व्यक्ति)
धोखाधड़ी- भारत 0.038 अमरीका 1.257 (प्रति 1,000 व्यक्ति)
गबन- भारत 0.014 अमरीका 0.058 (प्रति 1,000 व्यक्ति)
सेंधमारी- भारत 0.103 अमरीका 7.099 (प्रति 1,000 व्यक्ति)
मारपीट- भारत 0.218 अमरीका 7.569 (प्रति 1,000 व्यक्ति)
क़ैदी- भारत 29 अमरीका 715 (प्रति 100,000 व्यक्ति)
आँकड़ों के स्रोत:
1. Seventh United Nations Survey of Crime Trends and Operations of Criminal Justice Systems, covering the period 1998 - 2000 (United Nations Office on Drugs and Crime, Centre for International Crime Prevention)
2. CIA World Factbook
सोमवार, जून 26, 2006
इंडिक ब्लॉगर्स अवार्ड्स में छाई हिंदी
बंधुओं इंडिक ब्लॉगर्स अवार्ड्स घोषित हो चुके हैं. कब हुई घोषणा पता नहीं. ख़बर पुरानी हो चुकी हो, तो माफ़ी चाहूँगा. मुझ तक यह ख़बर आज ही पहुँची है.
रवि रतलामी जी को बहुत-बहुत बधाई, सर्वश्रेष्ठ हिंदी ब्लॉग का लेखक होने के लिए!
ख़ुशी की बात है कि हिंदी वालों ने तमिलभाषियों को कड़ी टक्कर दी है. मतलब ज़्यादा लिखें या नहीं, विजेताओं की सूची में ऊपर. (चलो कहीं तो सक्रिय हैं हिंदी से प्यार करने वाले!)
रमन जी को बधाई पुरस्कार जीतने के लिए, और धन्यवाद इस आयोजन की ख़बर ब्लॉगिस्तान में फैलाने के लिए. सर्वाधिक सक्रिय ब्लॉगर डॉ. सुनील को बधाई जो न कह सके के चुने जाने पर. डॉ. जगदीश व्योम जी को भी बधाई हिंदी साहित्य के पुरस्कृत होने पर. आशा है, ब्लॉग जगत में उनकी सक्रियता दोबारा देखने को मिलेगी. संत जनों ने देश-दुनिया को भी एक अवार्ड दिला दिया है. धन्यवाद!
बेहतरीन भाषाई ब्लॉग:
बांग्ला-
BanglaPundit বাংলাপন্ডিত
http://banglapundit.blogspot.com/
गुजराती-
Read Gujarati
http://rdgujarati.wordpress.com
हिंदी-
Ravi Rathlami ka Hindi Blog
http://raviratlami.blogspot.com/
कन्नड़-
Kannadave Nithya
http://kannada-kathe.blogspot.com/
मलयालम-
Kodakarapuranam
http://www.kodakarapuranams.blogspot.com
मराठी-
Original, thought provoking Marathi Essays, poetry, play et al.
http://vidagdha.wordpress.com/
संस्कृत-
Sanskrit Quotes
http://sanskrit-quote.blogspot.com
तमिल-
http://thoughtsintamil.blogspot.com/
तेलुगु-
Sodhana
http://sodhana.blogspot.com
विभिन्न श्रेणियों में श्रेष्ठ:
Activism/Social Activities
इधर उधर की
http://chittha.kaulonline.com/
Language: Hindi
Art & Literature
Hindi sahitya
http://hindishitya.blogspot.com/
Language: Hindi
Entertainment
http://cinemapadalkal.blogspot.com/
Language: Tamil
Journal
Desh-Duniya
http://desh-duniya.blogspot.com/
Language:Hindi
Political
http://ullal.blogspot.com/
Language: Tamil
Sports
http://chathurangam.blogspot.com/
Language: Tamil
Technology
http://thamizmanam.blogspot.com/
Language: Tamil
Topical
Jo Nah keha saka
http://www.kalpana.it/hindi/blog/
Language:Hindi
रवि रतलामी जी को बहुत-बहुत बधाई, सर्वश्रेष्ठ हिंदी ब्लॉग का लेखक होने के लिए!
ख़ुशी की बात है कि हिंदी वालों ने तमिलभाषियों को कड़ी टक्कर दी है. मतलब ज़्यादा लिखें या नहीं, विजेताओं की सूची में ऊपर. (चलो कहीं तो सक्रिय हैं हिंदी से प्यार करने वाले!)
रमन जी को बधाई पुरस्कार जीतने के लिए, और धन्यवाद इस आयोजन की ख़बर ब्लॉगिस्तान में फैलाने के लिए. सर्वाधिक सक्रिय ब्लॉगर डॉ. सुनील को बधाई जो न कह सके के चुने जाने पर. डॉ. जगदीश व्योम जी को भी बधाई हिंदी साहित्य के पुरस्कृत होने पर. आशा है, ब्लॉग जगत में उनकी सक्रियता दोबारा देखने को मिलेगी. संत जनों ने देश-दुनिया को भी एक अवार्ड दिला दिया है. धन्यवाद!
बेहतरीन भाषाई ब्लॉग:
बांग्ला-
BanglaPundit বাংলাপন্ডিত
http://banglapundit.blogspot.com/
गुजराती-
Read Gujarati
http://rdgujarati.wordpress.com
हिंदी-
Ravi Rathlami ka Hindi Blog
http://raviratlami.blogspot.com/
कन्नड़-
Kannadave Nithya
http://kannada-kathe.blogspot.com/
मलयालम-
Kodakarapuranam
http://www.kodakarapuranams.blogspot.com
मराठी-
Original, thought provoking Marathi Essays, poetry, play et al.
http://vidagdha.wordpress.com/
संस्कृत-
Sanskrit Quotes
http://sanskrit-quote.blogspot.com
तमिल-
http://thoughtsintamil.blogspot.com/
तेलुगु-
Sodhana
http://sodhana.blogspot.com
विभिन्न श्रेणियों में श्रेष्ठ:
Activism/Social Activities
इधर उधर की
http://chittha.kaulonline.com/
Language: Hindi
Art & Literature
Hindi sahitya
http://hindishitya.blogspot.com/
Language: Hindi
Entertainment
http://cinemapadalkal.blogspot.com/
Language: Tamil
Journal
Desh-Duniya
http://desh-duniya.blogspot.com/
Language:Hindi
Political
http://ullal.blogspot.com/
Language: Tamil
Sports
http://chathurangam.blogspot.com/
Language: Tamil
Technology
http://thamizmanam.blogspot.com/
Language: Tamil
Topical
Jo Nah keha saka
http://www.kalpana.it/hindi/blog/
Language:Hindi
शनिवार, जून 17, 2006
पहले अरबपति व्यवसायी, अब संतुष्ट किसान
इस बार एक और सच्ची कहानी जो धन और धन के बल पर हासिल झूठी प्रतिष्ठा को सुख-शांति छीन लेने वाला मायाजाल साबित करती है.
यह कहानी है गेरमान स्टर्लिगोफ़ की. पिछले कुछ महीनों से स्टर्लिगोफ़ की कहानी मीडिया, ख़ास कर रूसी मीडिया में आ रही थी. लेकिन अब लंदन से प्रकाशित संडे टाइम्स में छपने के बाद दुनिया भर में इसे चर्चा मिली है.
गेरमान स्टर्लिगोफ़ को रूस का पहला अरबपति माना जाता है. जब गोर्बाच्येव की नीतियों के चलते सोवियत संघ का विखंडन हुआ और रूस में कम्युनिस्ट नियंत्रण का अंत हुआ, तो अफ़रातफ़री और लूट-खसोट के उस माहौल में निर्धन पृष्ठभूमि वाले स्टर्लिगोफ़ ने देश का पहला कमॉडिटीज़ एक्सचेंज शुरू किया. इस उद्यम ने 24 साल की उम्र में ही उन्हें एक अरबपति बना दिया.
जल्दी ही स्टर्लिगोफ़ की कंपनी के दफ़्तर न्यूयॉर्क और लंदन में भी खुल गए. स्टर्लिगोफ़ अपने परिवार के साथ रूसी राजधानी मॉस्को के सबसे महंगे इलाक़े में चार मंज़िले बंगले में रहने लगे. उनके पास महंगी कारों का काफ़िला था, स्वयं के दो जेट विमान थे. मॉस्को में किसी के पास इतना पैसा हो और वह खुलेआम घूम सके ऐसा तो संभव ही नहीं. स्टर्लिगोफ़ को भी कुख़्यात रूसी माफ़िया ने अपना निशाना बनाया और मोटी रकम की माँग लगातार आने लगी. ऐसे में स्टर्लिगोफ़ ने पैसे देकर रूसी सुरक्षा बल के 60 कमांडो सैनिकों को अपनी सुरक्षा का भार सौंपा.
स्टर्लिगोफ़ ने देश का राष्ट्रपति बनने का भी प्रयास किया और व्लादिमीर पुतिन के ख़िलाफ़ चुनावपूर्व प्रचार अभियान में करोड़ों रूबल ख़र्च भी किए. हालाँकि उनके नामांकन को तकनीकी आधार पर रद्द कर दिया गया, और पुतिन को टक्कर देने की हसरत उनके दिल में ही रह गई. बाद में उन्होंने रूस के साइबेरियाई भाग के एक प्रांत का गवर्नर बनने की भी नाकाम कोशिश की.
आज स्टर्लिगोफ़ 39 साल के हैं और मॉस्को से 100 मील दूर एक निर्जन स्थान पर रहते हैं. तीन बेडरूम वाले उनके लकड़ी के घर में न बिजली है और न गैस आपूर्ति. यहाँ तक की खेत के बीचोंबीच पेड़ों के झुरमुट के बीच बने उनके घर तक पहुँचने के लिए सड़क तक नहीं है. पत्नी एलेना और पाँच बच्चों के साथ निकटतम पड़ोसी से सात मील दूर रह रहे स्टर्लिगोफ़ किसान की ज़िंदगी अपना कर बहुत ख़ुश हैं.
छात्र जीवन में कॉलेज की पढ़ाई छोड़ एक फ़ैक्ट्री में काम करने को मजबूर होने वाले स्टर्लिगोफ़ ने कहा, "जब साम्यवाद का अंत हुआ, मैं पैसा बनाना चाहता था. इतना पैसा जितना की बनाया जाना संभव हो."
उन्होंने कहा, "जब मैंने करोड़ों की रकम बना ली तो मुझे महसूस हुआ कि मॉस्को में धनपतियों का जीवन ग़ुलामी वाला है. दिन का हर मिनट तनावपूर्ण सौदेबाज़ी में या फ़ालतू की बैठकों में लग जाता था. ऐसी ज़िंदगी का कोई मतलब नहीं था."
स्टर्लिगोफ़ ने आगे कहा, "हम सोने के पिंजड़े में रह रहे थे. मैं अपने बच्चों को उस अनैतिक ज़िंदगी से दूर पालना चाहता हूँ. मैंने उस बनावटी ज़िंदगी से सदा के लिए मुँह मोड़ लिया है क्योंकि मैं चाहता हूँ कि मेरे बच्चे जीवन के सच्चे मूल्यों को जानें."
आज शहरी यहाँ तक कि गाँव के शोरगुल से भी दूर रह रहे स्टर्लिगोफ़ परिवार ने ख़ुद को जानबूझकर बाहरी दुनिया से काट रखा है. उनके घर में टेलीफ़ोन, टेलीविज़न, यहाँ तक कि रेडियो तक नहीं है. वह अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजते. पास के गाँव के शिक्षक बच्चों को पढ़ाने घर पर आते हैं. ऑर्थोडॉक्स ईसाई स्टर्लिगोफ़ स्वयं अपने बच्चों को धार्मिक शिक्षा भी देते हैं.
ट्रैक्टर, घोड़ा और मशीनगन
खेती के साथ-साथ गाय, सूअर और मुर्गी पालन करने वाले स्टर्लिगोफ़ परिवार के पास एक ट्रैक्टर है, एक घोड़ा है और एक मशीनगन है.
शायद मशीनगन का नाम आने पर आप चौंकें. इस बारे में स्टर्लिगोफ़ का कहना है कि मॉस्को स्थित अपना महलनुमा मकान बेचने के बाद मिले पैसे से जब उन्होंने गाँव में एक बढ़िया आरामदेह फ़ार्महाउस बनाया तो पड़ोस के गाँव के कुछ शरारती तत्वों ने एक रात उसे जला कर राख में बदल दिया. स्टर्लिगोफ़ के अनुसार धनपतियों से रूसी किसानों की घृणा के कारण हमला किया गया होगा. अब एक पिस्टल तो हमेशा स्टर्लिगोफ़ के साथ रहता है और घर में एक मशीनगन ताकि आइंदा किसी हमले से निपटा जा सके. घर में सुरक्षा की एक और व्यवस्था भी है- स्टर्लिगोफ़ की सबसे बड़ी संतान 15 वर्षीया बेटी पलगया ने भी तीर-कमान के प्रयोग में कुशलता हासिल कर ली है.
एक समय 2500 लोगों को अपनी कंपनियों में नौकरी देने वाले स्टर्लिगोफ़ के खेत में उनके परिवार के अलावा तीन नौकर काम करते हैं. स्टर्लिगोफ़ ने अपना रहन-सहन बदलने से पहले अपनी पत्नी एलेना की राय नहीं ली, लेकिन नए माहौल से एलेना को कोई शिकायत नहीं है. वह कहती हैं कि वह स्टर्लिगोफ़ की पत्नी हैं, ये अलग बात है कि पहले वह व्यवसायी थे और अब एक किसान. एलेना को एकमात्र शिकायत घर में गर्म पानी की आपूर्ति नहीं होने को लेकर है.
स्टर्लिगोफ़ ने अपनी ज़िंदगी को अब गंभीरता से लेना शुरू किया है या नहीं, इस पर भले ही विवाद हो. लेकिन उन्होंने अपने बिज़नेस को कभी गंभीरता से नहीं लिया. स्टर्लिगोफ़ ने अपने कमॉडिटीज़ एक्सचेंज को अपने प्यारे कुत्ते एलिसा के नाम पर शुरू किया था. एक्सचेंज के कई विज्ञापनों में उन्होंने एलिसा से काम भी लिया. इससे पहले और बाद में भी उन्होंने कई अटपटे लेकिन मुनाफ़े वाले धंधे चलाए. स्टर्लिगोफ़ ने मॉस्को में सार्वजनिक स्थलों और स्टेशनों पर संगीत या कला के ज़रिए पैसा माँगने वाले कलाकारों की एक कोऑपरेटिव बनाई थी. इसी तरह उन्होंने ताबूत बनाने की एक कंपनी भी चलाई.
उनकी ताबूत कंपनी के विज्ञापनों ने रूसी समाज को हिला दिया था. देखिए कुछ नमूने- 'हमारे ताबूत में समाने के लिए आपको कसरत करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी.' 'ताज़ा लकड़ी से बने सुगंधित ताबूत.' 'सारे रास्ते हमारी ओर आते हैं.' 'यह आपका ताबूत है, इसे आपका इंतज़ार है.'
स्टर्लिगोफ़ के पैसे कहाँ गए? इस सवाल का स्पष्ट जवाब नहीं क्योंकि स्टर्लिगोफ़ ख़ुद पैसे और धन-संपत्ति के बारे में बात करने में दिलचस्पी नहीं लेते. सुनी-सुनाई बातों को मानें तो एक उत्तर है- राष्ट्रपति और गवर्नर बनने की तैयारी में उन्होंने पानी की तरह पैसे बहाए और कर्ज़ के चंगुल में फंस गए. एक और जवाब है- उन्हीं के कुछ कर्मचारियों ने घोटाला कर उन्हें कर्ज़ में डूबने पर मज़बूर कर दिया.
यह कहानी है गेरमान स्टर्लिगोफ़ की. पिछले कुछ महीनों से स्टर्लिगोफ़ की कहानी मीडिया, ख़ास कर रूसी मीडिया में आ रही थी. लेकिन अब लंदन से प्रकाशित संडे टाइम्स में छपने के बाद दुनिया भर में इसे चर्चा मिली है.
गेरमान स्टर्लिगोफ़ को रूस का पहला अरबपति माना जाता है. जब गोर्बाच्येव की नीतियों के चलते सोवियत संघ का विखंडन हुआ और रूस में कम्युनिस्ट नियंत्रण का अंत हुआ, तो अफ़रातफ़री और लूट-खसोट के उस माहौल में निर्धन पृष्ठभूमि वाले स्टर्लिगोफ़ ने देश का पहला कमॉडिटीज़ एक्सचेंज शुरू किया. इस उद्यम ने 24 साल की उम्र में ही उन्हें एक अरबपति बना दिया.
जल्दी ही स्टर्लिगोफ़ की कंपनी के दफ़्तर न्यूयॉर्क और लंदन में भी खुल गए. स्टर्लिगोफ़ अपने परिवार के साथ रूसी राजधानी मॉस्को के सबसे महंगे इलाक़े में चार मंज़िले बंगले में रहने लगे. उनके पास महंगी कारों का काफ़िला था, स्वयं के दो जेट विमान थे. मॉस्को में किसी के पास इतना पैसा हो और वह खुलेआम घूम सके ऐसा तो संभव ही नहीं. स्टर्लिगोफ़ को भी कुख़्यात रूसी माफ़िया ने अपना निशाना बनाया और मोटी रकम की माँग लगातार आने लगी. ऐसे में स्टर्लिगोफ़ ने पैसे देकर रूसी सुरक्षा बल के 60 कमांडो सैनिकों को अपनी सुरक्षा का भार सौंपा.
स्टर्लिगोफ़ ने देश का राष्ट्रपति बनने का भी प्रयास किया और व्लादिमीर पुतिन के ख़िलाफ़ चुनावपूर्व प्रचार अभियान में करोड़ों रूबल ख़र्च भी किए. हालाँकि उनके नामांकन को तकनीकी आधार पर रद्द कर दिया गया, और पुतिन को टक्कर देने की हसरत उनके दिल में ही रह गई. बाद में उन्होंने रूस के साइबेरियाई भाग के एक प्रांत का गवर्नर बनने की भी नाकाम कोशिश की.
आज स्टर्लिगोफ़ 39 साल के हैं और मॉस्को से 100 मील दूर एक निर्जन स्थान पर रहते हैं. तीन बेडरूम वाले उनके लकड़ी के घर में न बिजली है और न गैस आपूर्ति. यहाँ तक की खेत के बीचोंबीच पेड़ों के झुरमुट के बीच बने उनके घर तक पहुँचने के लिए सड़क तक नहीं है. पत्नी एलेना और पाँच बच्चों के साथ निकटतम पड़ोसी से सात मील दूर रह रहे स्टर्लिगोफ़ किसान की ज़िंदगी अपना कर बहुत ख़ुश हैं.
छात्र जीवन में कॉलेज की पढ़ाई छोड़ एक फ़ैक्ट्री में काम करने को मजबूर होने वाले स्टर्लिगोफ़ ने कहा, "जब साम्यवाद का अंत हुआ, मैं पैसा बनाना चाहता था. इतना पैसा जितना की बनाया जाना संभव हो."
उन्होंने कहा, "जब मैंने करोड़ों की रकम बना ली तो मुझे महसूस हुआ कि मॉस्को में धनपतियों का जीवन ग़ुलामी वाला है. दिन का हर मिनट तनावपूर्ण सौदेबाज़ी में या फ़ालतू की बैठकों में लग जाता था. ऐसी ज़िंदगी का कोई मतलब नहीं था."
स्टर्लिगोफ़ ने आगे कहा, "हम सोने के पिंजड़े में रह रहे थे. मैं अपने बच्चों को उस अनैतिक ज़िंदगी से दूर पालना चाहता हूँ. मैंने उस बनावटी ज़िंदगी से सदा के लिए मुँह मोड़ लिया है क्योंकि मैं चाहता हूँ कि मेरे बच्चे जीवन के सच्चे मूल्यों को जानें."
आज शहरी यहाँ तक कि गाँव के शोरगुल से भी दूर रह रहे स्टर्लिगोफ़ परिवार ने ख़ुद को जानबूझकर बाहरी दुनिया से काट रखा है. उनके घर में टेलीफ़ोन, टेलीविज़न, यहाँ तक कि रेडियो तक नहीं है. वह अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजते. पास के गाँव के शिक्षक बच्चों को पढ़ाने घर पर आते हैं. ऑर्थोडॉक्स ईसाई स्टर्लिगोफ़ स्वयं अपने बच्चों को धार्मिक शिक्षा भी देते हैं.
ट्रैक्टर, घोड़ा और मशीनगन
खेती के साथ-साथ गाय, सूअर और मुर्गी पालन करने वाले स्टर्लिगोफ़ परिवार के पास एक ट्रैक्टर है, एक घोड़ा है और एक मशीनगन है.
शायद मशीनगन का नाम आने पर आप चौंकें. इस बारे में स्टर्लिगोफ़ का कहना है कि मॉस्को स्थित अपना महलनुमा मकान बेचने के बाद मिले पैसे से जब उन्होंने गाँव में एक बढ़िया आरामदेह फ़ार्महाउस बनाया तो पड़ोस के गाँव के कुछ शरारती तत्वों ने एक रात उसे जला कर राख में बदल दिया. स्टर्लिगोफ़ के अनुसार धनपतियों से रूसी किसानों की घृणा के कारण हमला किया गया होगा. अब एक पिस्टल तो हमेशा स्टर्लिगोफ़ के साथ रहता है और घर में एक मशीनगन ताकि आइंदा किसी हमले से निपटा जा सके. घर में सुरक्षा की एक और व्यवस्था भी है- स्टर्लिगोफ़ की सबसे बड़ी संतान 15 वर्षीया बेटी पलगया ने भी तीर-कमान के प्रयोग में कुशलता हासिल कर ली है.
एक समय 2500 लोगों को अपनी कंपनियों में नौकरी देने वाले स्टर्लिगोफ़ के खेत में उनके परिवार के अलावा तीन नौकर काम करते हैं. स्टर्लिगोफ़ ने अपना रहन-सहन बदलने से पहले अपनी पत्नी एलेना की राय नहीं ली, लेकिन नए माहौल से एलेना को कोई शिकायत नहीं है. वह कहती हैं कि वह स्टर्लिगोफ़ की पत्नी हैं, ये अलग बात है कि पहले वह व्यवसायी थे और अब एक किसान. एलेना को एकमात्र शिकायत घर में गर्म पानी की आपूर्ति नहीं होने को लेकर है.
स्टर्लिगोफ़ ने अपनी ज़िंदगी को अब गंभीरता से लेना शुरू किया है या नहीं, इस पर भले ही विवाद हो. लेकिन उन्होंने अपने बिज़नेस को कभी गंभीरता से नहीं लिया. स्टर्लिगोफ़ ने अपने कमॉडिटीज़ एक्सचेंज को अपने प्यारे कुत्ते एलिसा के नाम पर शुरू किया था. एक्सचेंज के कई विज्ञापनों में उन्होंने एलिसा से काम भी लिया. इससे पहले और बाद में भी उन्होंने कई अटपटे लेकिन मुनाफ़े वाले धंधे चलाए. स्टर्लिगोफ़ ने मॉस्को में सार्वजनिक स्थलों और स्टेशनों पर संगीत या कला के ज़रिए पैसा माँगने वाले कलाकारों की एक कोऑपरेटिव बनाई थी. इसी तरह उन्होंने ताबूत बनाने की एक कंपनी भी चलाई.
उनकी ताबूत कंपनी के विज्ञापनों ने रूसी समाज को हिला दिया था. देखिए कुछ नमूने- 'हमारे ताबूत में समाने के लिए आपको कसरत करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी.' 'ताज़ा लकड़ी से बने सुगंधित ताबूत.' 'सारे रास्ते हमारी ओर आते हैं.' 'यह आपका ताबूत है, इसे आपका इंतज़ार है.'
स्टर्लिगोफ़ के पैसे कहाँ गए? इस सवाल का स्पष्ट जवाब नहीं क्योंकि स्टर्लिगोफ़ ख़ुद पैसे और धन-संपत्ति के बारे में बात करने में दिलचस्पी नहीं लेते. सुनी-सुनाई बातों को मानें तो एक उत्तर है- राष्ट्रपति और गवर्नर बनने की तैयारी में उन्होंने पानी की तरह पैसे बहाए और कर्ज़ के चंगुल में फंस गए. एक और जवाब है- उन्हीं के कुछ कर्मचारियों ने घोटाला कर उन्हें कर्ज़ में डूबने पर मज़बूर कर दिया.
गुरुवार, जून 08, 2006
फ़ुटबॉल का विज्ञान (भाग- 3)
'हाउ टू स्कोर' में फ़ुटबॉल विशेषज्ञ केन ब्रे के अनुसार बड़े-बड़े मैचों में जीत-हार का फ़ैसला अक्सर 'सेट पीस' तय करते हैं.
सेट पीस यानि 'थ्रो-इन', 'कॉर्नर', 'फ़्री किक' और 'पेनाल्टी'. सेट पीस या सेट प्ले की व्यवस्था क्षणिक व्यवधानों के बाद खेल को दोबार पटरी पर लाने या खेल में रफ़्तार देने के लिए की गई है. हालाँकि अच्छी टीमें इसके आधार पर ही बड़े-बड़े मैच जीतती हैं.
यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि निरंतर अभ्यास से कोई टीम सेट पीस का भरपूर फ़ायदा उठा सकती है, और काँटे के मुक़ाबलों में गोल करने के अवसर बना सकती है. सेट पीस में सबसे रोचक है फ़्री किक, और गोल में बदलने वाली हर फ़्री किक के पीछे है शुद्ध विज्ञान.
यदि अटैक एरिया में कोई स्ट्राइकर सही फ़्री किक लेने में सफल रहता है तो गेंद को गोल में बदलने से रोकना लगभग असंभव ही होगा. किसी मैच जिताऊ डाइरेक्ट फ़्री किक में गेंद की गति 60 से 70 मील प्रति घंटा होनी चाहिए, गेंद की स्पिन पाँच से दस चक्कर प्रति सेकेंड की होनी चाहिए और गेंद की उठान 16 से 17 डिग्री की होनी चाहिए. यदि इन विशेषताओं वाली फ़्री किक ली गई तो गेंद पर एरोडायनमिक बलों के जादू के कारण 900 मिलिसेकेंड यानि एक सेकेंड से भी कम समय में गेद को नेट में पहुँचने से शायद ही रोका जा सकता है.
कोई फ़्री किक किस स्तर की है यानि उसके गोल में बदलने की संभावना है या नहीं, यह पहले 15 मिलिसेकेंड में ही तय हो जाता है जबकि बूट और गेंद का संपर्क होता है. फ़्री किक ले रहे स्ट्राइकर के सामने विरोधी टीम के खिलाड़ी 'वॉल' बन कर खड़े होते हैं. ऐसे में गोलकीपर को गेंद के दर्शन पहली बार जब होते हैं तो 400 मिलिसेकेंड का समय गुजर चुका होता है, और गेंद वॉल के ऊपर निकल रही होती है. गोलकीपर गेंद की दिशा और गति का अनुमान लगाने में कितनी भी जल्दी करे उसका दिमाग़ सारी सूचनाओं को प्रोसेस करने में कम से कम 200 मिलिसेकेंड का समय ले लेता है. इसके बाद नेट और गेंद के बीच अवरोध बनने के लिए उसके पास बचते हैं मात्र 300 मिलिसेकेंड. यदि सटीक फ़्री किक ली गई हो तो इतने कम समय में गोलकीपर के लिए गेंद को रोकना लगभग नामुमकिन हो जाता है.
अंतरराष्ट्रीय मैचों में 15 प्रतिशत फ़्री किक गोल में तब्दील हो जाते हैं क्योंकि वहाँ थियरी ऑनरि और डेविड बेकम जैसे फ़ुटबॉल के जादूगर जो होते हैं. (यहाँ एक रोचक तथ्य ये है कि अधिकतर स्ट्राइकर फ़्री किक में गेंद को साइड-स्पिन कराते हैं. लेकिन बेकम गेंद को हल्का टॉप-स्पिन दिलाने में सक्षम हैं. दूसरी ओर ऑनरि जैसे कुछ खिलाड़ी गेंद को वर्टिकल-स्पिन दिलाते हैं.)
जहाँ तक पेनाल्टी शॉट की बात है तो इसके पीछे भी विज्ञान है. पहले पेनाल्टी शॉट की सफलता दर की बात करते हैं: किसी मैच में निर्धारित अवधि के दौरान पेनाल्टी शॉट के गोल में बदलने की दर 80 प्रतिशत होती है. लेकिन अतिरिक्त समय में, ख़ास कर पेनाल्टी शूट आउट के समय यह दर गिर कर 75 प्रतिशत रह जाती है. (खेल आगे बढ़ते जाने के साथ-साथ गोलकीपर स्ट्राइकरों की चाल भाँपने लगते हैं, शायद इसीलिए बाद में पेनाल्टी शॉट को रोकने में उन्हें पहले से ज़्यादा सफलता मिलने की संभावना रहती है.)
लेकिन केन ब्रे की मानें तो गोलकीपर चाहे ओलिवर कान ही क्यों न हों, उनके पेनाल्टी शॉट रोकने की संभावना नहीं के बराबर रहती है, बशर्ते स्ट्राइकर गेंद को गोल एरिया के बचावरहित माने जाने वाले 28 प्रतिशत इलाक़े में डाले.
हो सकता है गोलपोस्ट के पास के निचले हिस्से में डाली गई गेंद को तेज़ी से छलांग लगाकर रोकना किसी सुपरफ़ास्ट गोलकीपर के लिए संभव हो जाए. लेकिन यदि गोल एरिया के बचावरहित हिस्से में गेंद कंधे की ऊँचाई पर डाली जाए, तो उसे रोकना लगभग नामुमकिन होगा.
सेट पीस यानि 'थ्रो-इन', 'कॉर्नर', 'फ़्री किक' और 'पेनाल्टी'. सेट पीस या सेट प्ले की व्यवस्था क्षणिक व्यवधानों के बाद खेल को दोबार पटरी पर लाने या खेल में रफ़्तार देने के लिए की गई है. हालाँकि अच्छी टीमें इसके आधार पर ही बड़े-बड़े मैच जीतती हैं.
यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि निरंतर अभ्यास से कोई टीम सेट पीस का भरपूर फ़ायदा उठा सकती है, और काँटे के मुक़ाबलों में गोल करने के अवसर बना सकती है. सेट पीस में सबसे रोचक है फ़्री किक, और गोल में बदलने वाली हर फ़्री किक के पीछे है शुद्ध विज्ञान.
यदि अटैक एरिया में कोई स्ट्राइकर सही फ़्री किक लेने में सफल रहता है तो गेंद को गोल में बदलने से रोकना लगभग असंभव ही होगा. किसी मैच जिताऊ डाइरेक्ट फ़्री किक में गेंद की गति 60 से 70 मील प्रति घंटा होनी चाहिए, गेंद की स्पिन पाँच से दस चक्कर प्रति सेकेंड की होनी चाहिए और गेंद की उठान 16 से 17 डिग्री की होनी चाहिए. यदि इन विशेषताओं वाली फ़्री किक ली गई तो गेंद पर एरोडायनमिक बलों के जादू के कारण 900 मिलिसेकेंड यानि एक सेकेंड से भी कम समय में गेद को नेट में पहुँचने से शायद ही रोका जा सकता है.
कोई फ़्री किक किस स्तर की है यानि उसके गोल में बदलने की संभावना है या नहीं, यह पहले 15 मिलिसेकेंड में ही तय हो जाता है जबकि बूट और गेंद का संपर्क होता है. फ़्री किक ले रहे स्ट्राइकर के सामने विरोधी टीम के खिलाड़ी 'वॉल' बन कर खड़े होते हैं. ऐसे में गोलकीपर को गेंद के दर्शन पहली बार जब होते हैं तो 400 मिलिसेकेंड का समय गुजर चुका होता है, और गेंद वॉल के ऊपर निकल रही होती है. गोलकीपर गेंद की दिशा और गति का अनुमान लगाने में कितनी भी जल्दी करे उसका दिमाग़ सारी सूचनाओं को प्रोसेस करने में कम से कम 200 मिलिसेकेंड का समय ले लेता है. इसके बाद नेट और गेंद के बीच अवरोध बनने के लिए उसके पास बचते हैं मात्र 300 मिलिसेकेंड. यदि सटीक फ़्री किक ली गई हो तो इतने कम समय में गोलकीपर के लिए गेंद को रोकना लगभग नामुमकिन हो जाता है.
अंतरराष्ट्रीय मैचों में 15 प्रतिशत फ़्री किक गोल में तब्दील हो जाते हैं क्योंकि वहाँ थियरी ऑनरि और डेविड बेकम जैसे फ़ुटबॉल के जादूगर जो होते हैं. (यहाँ एक रोचक तथ्य ये है कि अधिकतर स्ट्राइकर फ़्री किक में गेंद को साइड-स्पिन कराते हैं. लेकिन बेकम गेंद को हल्का टॉप-स्पिन दिलाने में सक्षम हैं. दूसरी ओर ऑनरि जैसे कुछ खिलाड़ी गेंद को वर्टिकल-स्पिन दिलाते हैं.)
जहाँ तक पेनाल्टी शॉट की बात है तो इसके पीछे भी विज्ञान है. पहले पेनाल्टी शॉट की सफलता दर की बात करते हैं: किसी मैच में निर्धारित अवधि के दौरान पेनाल्टी शॉट के गोल में बदलने की दर 80 प्रतिशत होती है. लेकिन अतिरिक्त समय में, ख़ास कर पेनाल्टी शूट आउट के समय यह दर गिर कर 75 प्रतिशत रह जाती है. (खेल आगे बढ़ते जाने के साथ-साथ गोलकीपर स्ट्राइकरों की चाल भाँपने लगते हैं, शायद इसीलिए बाद में पेनाल्टी शॉट को रोकने में उन्हें पहले से ज़्यादा सफलता मिलने की संभावना रहती है.)
लेकिन केन ब्रे की मानें तो गोलकीपर चाहे ओलिवर कान ही क्यों न हों, उनके पेनाल्टी शॉट रोकने की संभावना नहीं के बराबर रहती है, बशर्ते स्ट्राइकर गेंद को गोल एरिया के बचावरहित माने जाने वाले 28 प्रतिशत इलाक़े में डाले.
हो सकता है गोलपोस्ट के पास के निचले हिस्से में डाली गई गेंद को तेज़ी से छलांग लगाकर रोकना किसी सुपरफ़ास्ट गोलकीपर के लिए संभव हो जाए. लेकिन यदि गोल एरिया के बचावरहित हिस्से में गेंद कंधे की ऊँचाई पर डाली जाए, तो उसे रोकना लगभग नामुमकिन होगा.
सोमवार, जून 05, 2006
फ़ुटबॉल का विज्ञान (भाग-2)
फ़ुटबॉल विश्व कप शुरू होने को है लेकिन अभी भी प्रतियोगिता में भाग लेने वाली 32 टीमों में से कई यह तय नहीं कर पाई है कि वह किस फ़ॉर्मेशन पर भरोसा करे. पिछले सप्ताह ही इंग्लैंड ने हंगरी के ख़िलाफ़ दोस्ताना मुक़ाबले में अपने पारंपरिक 4-4-2 फ़ॉर्मेशन की जगह 4-5-1 को अपनाया.
फ़ॉर्मेशन यानि किसी टीम के लिए पूरे मैदान को तीन काल्पनिक भागों या ज़ोन्स (डिफ़ेंस, मिडफ़िल्ड और अटैक) में बाँटने के बाद हर भाग में तैनात खिलाड़ियों की गिनती. ज़ाहिर है इस गणित में गोलकीपर को छोड़ कर बाक़ी 10 खिलाड़ियों को शामिल किया जाता है.
लोकप्रिय फ़ॉर्मेशन हैं: 4-4-2, 4-3-3 और 4-5-1. इसके अलावा भी कई फ़ॉर्मेशन हो सकते हैं, मसलन 4-2-4, 3-5-2, 5-3-2 आदि.
फ़ॉर्मेशन के आधार पर ही खेल विशेषज्ञ ये आकलन करते हैं कि कोई टीम आक्रामक खेल खेलने में भरोसा रखती है, या रक्षात्मक खेल में.
किसी भी टीम के लिए मैदान के तीन काल्पनिक भागों में से हरेक में गेंद को अपने क़ब्ज़े में लेना महत्वपूर्ण होता है. लेकिन आख़िरी भाग यानि अटैकिंग ज़ोन में गेंद पर क़ब्ज़े का महत्व सबसे ज़्यादा है, क्योंकि यहाँ गेंद पर नियंत्रण से गोल की संभावना सबसे ज़्यादा होती है.
इसलिए बेहतरीन फ़ॉर्मेशन उसी को माना जाएगा जिसमें किसी टीम को गेंद पर क़ब्ज़ा रखने और उसे अटैकिंग थर्ड तक पहुँचाने के ज़्यादा अवसर होते हैं.
गेंद पर क़ब्ज़ा बनाए रखना संभव होता है पासिंग के ज़रिए.
'हाउ टू स्कोर' के लेखक केन ब्रे ने अपने रिसर्च में विभिन्न फ़ॉर्मेशनों में उपलब्ध पासिंग विकल्पों पर ग़ौर किया. (उन्होंने इस गणना में 40 मीटर से ज़्यादा दूर के पास को शामिल नहीं किया.) उन्होंने पाया कि 4-4-2 फ़ॉर्मेशन में 10 खिलाड़ियों के बीच कुल 66 तरह के पासिंग विकल्प मौज़ूद होते हैं. यह संख्या 4-3-3 फ़ॉर्मेशन के लिए 56, 4-2-4 के लिए 54 और 4-5-1 के लिए 62 होती है.(जहाँ तक कुल पासिंग की बात है तो एक मैच में कोई टीम औसतन 650 पास बनाती है.)
जहाँ तक गेंद को अटैकिंग थर्ड में पहुँचाने की बात है तो 4-2-4 फ़ॉर्मेशन में क़ब्ज़े में आने के बाद गेंद को अटैकिंग थर्ड में डालना औसत 15 प्रतिशत मामलों में संभव होता है. 4-3-3 फ़ॉर्मेशन में यह प्रतिशत होता है 13, जबकि 4-4-2 में 12 और 4-5-1 में 8 प्रतिशत. ज़ाहिर है 4-2-4 अटैकिंग खेल के लिहाज़ से सबसे उपयुक्त फ़ॉर्मेशन है लेकिन आजकल के तेज़ गति वाले खेल में कोई टीम मिडफ़िल्ड को कमज़ोर रखने की ज़ोख़िम मोल नहीं लेना चाहती है.
सबसे ज़्यादा लोकप्रिय फ़ॉर्मेशन 4-4-2 को माना जाता है. टीमें इस फ़ॉर्मेशन को इसलिए अपनाती हैं, कि इसमें भरपूर रक्षात्मक संभावनाएँ होने के साथ-साथ हमला करने के भी पर्याप्त मौक़े होते हैं. हालाँकि केन ब्रे की मानें तो उन टीमों की सफलता की ज़्यादा संभावना रहती है जो कि परिस्थितियों को देखते हुए एक फ़ॉर्मेशन से दूसरे में स्विच करने में सक्षम होती हैं.
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