गुरुवार, जून 08, 2006

फ़ुटबॉल का विज्ञान (भाग- 3)

'हाउ टू स्कोर' में फ़ुटबॉल विशेषज्ञ केन ब्रे के अनुसार बड़े-बड़े मैचों में जीत-हार का फ़ैसला अक्सर 'सेट पीस' तय करते हैं.

सेट पीस यानि 'थ्रो-इन', 'कॉर्नर', 'फ़्री किक' और 'पेनाल्टी'. सेट पीस या सेट प्ले की व्यवस्था क्षणिक व्यवधानों के बाद खेल को दोबार पटरी पर लाने या खेल में रफ़्तार देने के लिए की गई है. हालाँकि अच्छी टीमें इसके आधार पर ही बड़े-बड़े मैच जीतती हैं.

यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि निरंतर अभ्यास से कोई टीम सेट पीस का भरपूर फ़ायदा उठा सकती है, और काँटे के मुक़ाबलों में गोल करने के अवसर बना सकती है. सेट पीस में सबसे रोचक है फ़्री किक, और गोल में बदलने वाली हर फ़्री किक के पीछे है शुद्ध विज्ञान.

यदि अटैक एरिया में कोई स्ट्राइकर सही फ़्री किक लेने में सफल रहता है तो गेंद को गोल में बदलने से रोकना लगभग असंभव ही होगा. किसी मैच जिताऊ डाइरेक्ट फ़्री किक में गेंद की गति 60 से 70 मील प्रति घंटा होनी चाहिए, गेंद की स्पिन पाँच से दस चक्कर प्रति सेकेंड की होनी चाहिए और गेंद की उठान 16 से 17 डिग्री की होनी चाहिए. यदि इन विशेषताओं वाली फ़्री किक ली गई तो गेंद पर एरोडायनमिक बलों के जादू के कारण 900 मिलिसेकेंड यानि एक सेकेंड से भी कम समय में गेद को नेट में पहुँचने से शायद ही रोका जा सकता है.


कोई फ़्री किक किस स्तर की है यानि उसके गोल में बदलने की संभावना है या नहीं, यह पहले 15 मिलिसेकेंड में ही तय हो जाता है जबकि बूट और गेंद का संपर्क होता है. फ़्री किक ले रहे स्ट्राइकर के सामने विरोधी टीम के खिलाड़ी 'वॉल' बन कर खड़े होते हैं. ऐसे में गोलकीपर को गेंद के दर्शन पहली बार जब होते हैं तो 400 मिलिसेकेंड का समय गुजर चुका होता है, और गेंद वॉल के ऊपर निकल रही होती है. गोलकीपर गेंद की दिशा और गति का अनुमान लगाने में कितनी भी जल्दी करे उसका दिमाग़ सारी सूचनाओं को प्रोसेस करने में कम से कम 200 मिलिसेकेंड का समय ले लेता है. इसके बाद नेट और गेंद के बीच अवरोध बनने के लिए उसके पास बचते हैं मात्र 300 मिलिसेकेंड. यदि सटीक फ़्री किक ली गई हो तो इतने कम समय में गोलकीपर के लिए गेंद को रोकना लगभग नामुमकिन हो जाता है.

अंतरराष्ट्रीय मैचों में 15 प्रतिशत फ़्री किक गोल में तब्दील हो जाते हैं क्योंकि वहाँ थियरी ऑनरि और डेविड बेकम जैसे फ़ुटबॉल के जादूगर जो होते हैं. (यहाँ एक रोचक तथ्य ये है कि अधिकतर स्ट्राइकर फ़्री किक में गेंद को साइड-स्पिन कराते हैं. लेकिन बेकम गेंद को हल्का टॉप-स्पिन दिलाने में सक्षम हैं. दूसरी ओर ऑनरि जैसे कुछ खिलाड़ी गेंद को वर्टिकल-स्पिन दिलाते हैं.)

जहाँ तक पेनाल्टी शॉट की बात है तो इसके पीछे भी विज्ञान है. पहले पेनाल्टी शॉट की सफलता दर की बात करते हैं: किसी मैच में निर्धारित अवधि के दौरान पेनाल्टी शॉट के गोल में बदलने की दर 80 प्रतिशत होती है. लेकिन अतिरिक्त समय में, ख़ास कर पेनाल्टी शूट आउट के समय यह दर गिर कर 75 प्रतिशत रह जाती है. (खेल आगे बढ़ते जाने के साथ-साथ गोलकीपर स्ट्राइकरों की चाल भाँपने लगते हैं, शायद इसीलिए बाद में पेनाल्टी शॉट को रोकने में उन्हें पहले से ज़्यादा सफलता मिलने की संभावना रहती है.)

लेकिन केन ब्रे की मानें तो गोलकीपर चाहे ओलिवर कान ही क्यों न हों, उनके पेनाल्टी शॉट रोकने की संभावना नहीं के बराबर रहती है, बशर्ते स्ट्राइकर गेंद को गोल एरिया के बचावरहित माने जाने वाले 28 प्रतिशत इलाक़े में डाले.


हो सकता है गोलपोस्ट के पास के निचले हिस्से में डाली गई गेंद को तेज़ी से छलांग लगाकर रोकना किसी सुपरफ़ास्ट गोलकीपर के लिए संभव हो जाए. लेकिन यदि गोल एरिया के बचावरहित हिस्से में गेंद कंधे की ऊँचाई पर डाली जाए, तो उसे रोकना लगभग नामुमकिन होगा.

3 टिप्‍पणियां:

Nirav ने कहा…

Hi,

I came to this site through DesiPundit.

I do not know if I have a font problem or what but there are a lot of typo errors.

I am comfortable typing in a couple of Hindi fonts. Do let me know if help needed.

Regards,
Nirav
crazygenius@gmail.com

हिंदी ब्लॉगर/Hindi Blogger ने कहा…

नीरव जी, मैं समझता हूँ आपकी फ़ाँट की समस्या है क्योंकि मैं टॉयपो ग़लतियाँ नहीं कर रहा.
अधिकतर हिंदी ब्लॉगर यूनीकोड का इस्तेमाल करने लगे हैं. इसलिए ब्लॉगिस्तान का मज़ा लेने के लिए इसे देखने की व्यवस्था करें. 'बीबीसीहिंदी.कॉम' पर जाकर फ़ाँट डाउनलोड कर लेने से शायद काम बन जाए.

बेनामी ने कहा…

नीरव, अगर आप इंटरनेट एक्‍सप्‍लोरर यूज कर रहे हैं तो व्‍यू-इनकोडिंग-यूनिकोड सलेक्‍ट करें और अगर फायरफोक्‍स यूज कर रहे हैं तो उसके लिये कुछ प्‍लगिनस डाउनलोड करने पड़ते हैं डिटेल यहाँ देखिये http://akshargram.com/sarvagya/index.php/Can_not_See_Hindi