शुक्रवार, जुलाई 29, 2005

सीसीटीवी की महिमा

अभी ब्रिटेन की पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों की थू-थू करने वाले अपना ग़ुस्सा शांत भी नहीं कर पाए थे कि उन्हें अपनी धुन बदलने को मज़बूर होना पड़ा. हमलों की साज़िश का सुराग नहीं पा सकने और जाँच के दौरान एक निर्दोष को मार डालने के कारण ब्रितानी सुरक्षा एजेंसियों की आलोचना अब भी हो रही है, लेकिन दबे स्वरों में. ऊँचे स्वरों में तो सुरक्षा एजेंसियों की तारीफ़ हो रही है कि कैसे अभूतपूर्व जाँच कार्रवाई चला कर उन्होंने चारों संदिग्ध हमलावरों को इतनी जल्दी और जीवित पकड़ा.

सुरक्षा एजेंसियों के आलोचकों के हृदय परिवर्तन में सबसे बड़ी भूमिका रही है सीसीटीवी कैमरों की.

ब्रितानी पुलिस और सुरक्षा बलों ने जब 21 जुलाई के नाकाम हमलों के ज़िम्मेवार माने जाने वाले सभी चार संदिग्ध चरमपंथियों को मात्र आठ दिनों में ही धर दबोचा. दो लंदन में पकड़े गए, जबकि ब्रितानी पुलिस की पुष्ट सूचना के आधार पर एक को रोम में इटली की पुलिस ने पकड़ा. एक तो पहले ही बर्मिंघम में पकड़ा जा चुका था.

दरअसल नाकाम धमाके के प्रयास के कुछ ही घंटों बाद पुलिस ने चारों संदिग्ध हमलावरों को सीसीटीवी चित्र जारी किए थे. चित्र अच्छी क़्वालिटी के थे. इस क़दम के बाद पुलिस को जनता से संदिग्ध हमलावरों के बारे में बहुत सारी जानकारी मिली. और नतीज़ा सामने है: 29 जुलाई आते-आते चारों संदिग्ध हमलावर पुलिस के क़ब्ज़े में.

ब्रिटेन इलेक्ट्रॉनिक सुरक्षा निगरानी व्यवस्था की दृष्टि से दनिया में पहले नंबर पर माना जाता है. कहते हैं कि लंदन समेत ब्रिटेन के किसी भी सिटी सेंटर में आप बिना किसी कैमरे की पकड़ में आए दो किलोमीटर से ज़्यादा दूर नहीं जा सकते. कितने सीसीटीवी कैमरे हैं इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि लंदन ट्रांसपोर्ट की एक बस में औसत पाँच कैमरे होते हैं. दुकानों में कैमरे, चौराहों पर कैमरे, रेलवे स्टेशनों पर कैमरे. और अब तो भूमिगत ट्रेनों यानी ट्यूब में भी कैमरे लगाने की चर्चा हो रही है.

ज़ाहिर है इतने सारी इलेक्ट्रॉनिक आँखों से ब्रितानी शहरी की प्राइवेसी का अधिकार मज़ाक मात्र बन कर रह जाता है. लेकिन जब मामला सुरक्षा का हो तो अधिकतर लोग प्रशासन और पुलिस को अपनी ज़िंदगी में ताकझाँक करने देने पर चाहे-अनचाहे राज़ी हो जाते हैं.

और ऐसे में भारत सरकार भी इलेक्ट्रॉनिक सुरक्षा निगरानी को आजमाने की कोशिश कर रही है, तो इसमें आश्चर्य किस बात की. हालाँकि इस बारे में दिल्ली जैसे महानगरों के धनकुबेरों की प्रतिक्रिया जानना दिलचस्प होगा, क्योंकि विगत में यह वर्ग अपनी कारों के शीशों से काली फ़िल्म हटाने के आदेश मिलने पर हायतौबा मचा चुका है- वो भी प्राइवेसी के नाम पर. इनकी मोटी खाल पर इस तर्क का असर नहीं होता कि शीशों से काली फ़िल्म हटने से दिल्ली में चलती कार में बलात्कार की घटनाओं में कमी आ सकेगी.

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