सात जुलाई के आत्मघाती हमलों के ठीक दो सप्ताह बाद 21 जुलाई को एक बार फिर लंदन को चरमपंथियों ने निशाना बनाने की कोशिश की. संयोग ही था की सात जुलाई की कार्बन-कॉपी की तरह चार धमाके करने की कोशिश इस बार सफल नहीं रही. लेकिन नाकाम धमाके के कारण चारों हमलावर न सिर्फ जीवित बच गए, बल्कि भागने में भी क़ामयाब रहे.
हमलों की भनक नहीं लगने के कारण मीडिया में ब्रितानी पुलिस और ख़ुफ़िया संगठनों की किरकिरी पहले से ही हो रही थी. ऐसे में लंदन पुलिस के ऊपर दबाव की मात्र कल्पना ही की जा सकती है. और सबको मालूम है कि दबाव के तले अक्सर ग़लत फ़ैसले हो जाते हैं. इन ग़लत फ़ैसलों से कभी अपना तो कभी दूसरों का नुक़सान होता है.
भारी दबाव की स्थिति में काम करते हुए लंदन पुलिस ने 22 जुलाई को एक भूमिगत रेल स्टेशन पर एक व्यक्ति को संदिग्ध हमलावर मानते हुए मार गिराया. उसे सरेआम पाँच गोलियाँ मार कर मौत की नींद सुलाया गया.
इसके एक दिन बाद लंदन पुलिस ने स्वीकार किया है कि उसके हाथों एक ऐसा व्यक्ति मारा गया जिसका चरमपंथी हमलों से कोई लेनादेना नहीं था. मृतक एक 27 वर्षीय ब्राज़ीलियन युवक निकला, जो एक आम शहरी माना जा रहा है, कोई चरमपंथी नहीं.
उसकी ग़लती मात्र ये थी कि वो पुलिस के निशाने पर रखे गए एक इलाक़े से निकल कर आ रहा था और सादी वर्दी में तैनात पुलिसकर्मियों द्वारा पीछा किए जाने पर वह घबरा कर भागने लगा था.
पुलिस ने अपनी ग़लती तो मान ली है, लेकिन इसी के साथ न सिर्फ़ ब्रिटेन में बल्कि आतंकवाद प्रभावित सभी देशों में संदिग्ध चरमपंथियों से निपटने के तरीक़ों पर बहस छिड़ गई है.
सवाल यह है कि जब क्षणांश में फ़ैसला करने की बात हो तो क्या आत्मघाती हमले का ख़तरा मोल लेते हुए संदिग्ध व्यक्ति से निपटा जाए, या फिर हमले की आशंका को विराम देने के लिए किसी निर्दोष की बलि चढ़ा दी जाए? इसराइल जैसे देशों में तो इस तरह के मौक़ों पर सुरक्षा बल कोई ख़तरा नहीं उठाने के सिद्धांत पर काम करते हैं. देखना है ब्रितानी सरकार और समाज का क्या फ़ैसला सामने आता है. ब्रिटेन के सामने दुविधा की यह घड़ी ऐसे समय आई है जब सरकार ने पुलिस के अधिकारों में व्यापक बढ़ोत्तरी का मन बना रखा है.
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