प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अमरीका यात्रा इस मायने में महत्वपूर्ण है कि अमरीका ने अपने यहाँ के संशयवादी विश्लेषकों को नज़रअंदाज़ करते हुए भारत के साथ परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में पूर्ण सहयोग करने की बात मान ली. मनमोहन सिंह का न सिर्फ़ व्हाइट हाउस में गर्मजोशी के साथ स्वागत किया गया बल्कि कई वैसे क्षेत्रों में भारत के साथ बढ़-चढ़ कर अमरीका के सहयोग करने की बात की गई जो कि 1998 के पोखरण धमाकों के बाद अछूत क्षेत्र मान लिए गए थे. इनमें परमाणु ऊर्जा के अलावा अंतरिक्ष और उच्च-प्रौद्योगिकी के क्षेत्र शामिल हैं.
सवाल ये उठता है कि बदले में भारत ने क्या रियायत दी या किन शर्तों को माना. यदि राष्ट्रपति जॉर्ज बुश और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की 18 जुलाई की वार्ता के बाद के संयुक्त बयान पर ग़ौर करें तो ऐसी कोई बात नहीं दिखती जिस पर संदेह किया जाए. परमाणु क्षेत्र में सहयोग के बदले भारत ने अमरीका को आश्वासन दिया है कि वो महाविनाश के हथियारों के प्रसार रोकने के अंतरराष्ट्रीय प्रयासों में अग्रणी भूमिका निभाएगा. इसमें बुरा भी कुछ नहीं है. पड़ोसी पाकिस्तान के बेलगाम परमाणु वैज्ञानिक क़दीर ख़ान ने जिस तरह चुराई गई परमाणु तकनीक को ईरान, लीबिया और उत्तर कोरिया को बेचा, उसे देखते हुए भारतीय आश्वासन का भारत में भी स्वागत ही होगा. यह उल्लेखनीय बात है कि भारत ने अंतरराष्ट्रीय परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर करने की हामी नहीं भरी है क्योंकि ऐसा करने पर भारत आगे से किसी बड़ी सौदेबाज़ी की स्थिति में नहीं रह जाएगा.
तो क्या ये माना जाए कि भारत को अमरीका ने औपचारिक रूप से परमाणु ताक़त मान लिया? लगता तो ऐसा ही है. ख़तरा बस यही है कि अब पाकिस्तान भी अमरीका को परमाणु बमों के नाम पर ब्लैकमेल करने की कोशिश न शुरू कर दे. आतंकवाद पर नियंत्रण के नाम पर वह अमरीका को वर्षों से उल्लू बना ही रहा है, परमाणु बम की तकनीक की सुरक्षा के नाम पर भी पाकिस्तानी हुक्मरान अमरीका को ब्लैकमेल कर सकते हैं.
अब पाकिस्तानियों को ये कौन समझाए कि भारत की अहमियत किसी बम से नहीं बल्कि उसकी आर्थिक और तकनीकी ताक़त के चलते बढ़ी है. अमरीका के बदले रुख़ को देखते हुए निकट भविष्य में विस्तारित संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के भारतीय दावे को भी अमरीका का समर्थन मिल जाए तो कोई आश्चर्य नहीं. भगवान अमरीका को सदबुद्धि दे, क्योंकि भारत को सुरक्षा परिषद की स्थायी सीट के लिए ऐसा होना ज़रूरी है.
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1 टिप्पणी:
अमरीकी मुख्य मीडिया में कार्ल रोव और सुप्रीम कोर्ट जज का चुनाव छाये रहने के बावजूद भारत का बढ़ता प्रभाव और भारत के प्रति आकर्षण दोनों दिखते हैं। अमरीका झुका, ये कहना तो इस पूरे मुद्दे का अति-सरलीकरण होगा, पर उसका भारत के प्रति रुख बदला ज़रूर है। वाशिंगटन पोस्ट पर आज सीधी बातचीत में अमरीकी विदेश नीति थिंक-टैंक स्टीवन कोहन ने कुछ सोचने लायक बातें सामने रखीं।
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