सोमवार, जुलाई 11, 2005

ओपन-सोर्स जर्नलिज़्म या जनपत्रकारिता

लंदन बम धमाकों की जाँच कर रहे पुलिस अधिकारी जनता से ऐसे सहयोग की अपेक्षा कर रहे हैं जो अब से कुछ महीने पहले सोचा नहीं जा सकता था. पुलिस ने लोगों से सात जुलाई के हमलों के दौरान मोबाइल फ़ोन से खींची गई तस्वीरें और वीडियो क्लिप जाँच एसेंसियों को सौंपने की अपील की है.

पुलिस का मानना है कि धमाकों के दौरान और उसके फ़ौरन बाद खींची गई तस्वीरों और वीडियो रिकॉर्डिंग से काफ़ी महत्वपूर्ण सुराग़ मिल सकते हैं.

लंदन की भूमिगत रेल में मोबाइल नेटवर्क उपलब्ध नहीं है यानी सुरंगों के भीतर से बातचीत नहीं की जा सकती, लेकिन तस्वीरें और वीडियो फ़ुटेज़ लेने में तो कोई परेशानी नहीं है.

हाल के दिनों में मीडिया रिपोर्टिंग में मोबाइल फ़ोन के उपयोग से पत्रकारों और ग़ैरपत्रकारों के बीच का रिश्ता बदलता दिख रहा है. इसके ज़रिए कोई भी रिपोर्टर की अहम भूमिका निभा सकता है. पिछले साल अमरीका मे चले चुनाव अभियान और दिसंबर में आए सूनामी आपदा में भी आम जमता द्वारा ली गई कैमराफ़ोन तस्वीरों और वीडियो क्लिप का इस्तेमाल हुआ था. इसे ओपन-सोर्स जर्नलिज़्म या जनपत्रकारिता का नाम दिया जा रहा है.

दरअसल मोबाइल फ़ोन सामान्य संचार नेटवर्क के ज़रिए तस्वीरें भेज सकता है यानी इसके लिए किसी जटिल और महंगे सैटेलाइट लिंक या फिर माइक्रोवेव लिंक की ज़रूरत नहीं होती. कैमराफ़ोन के इस्तेमाल के लिए कोई तकनीकी दक्षता भी नहीं चाहिए. लेकिन अफ़रा-तफ़री में ली गई साधारण क़्वालिटी की ये तस्वीरें ख़बरों को ज़्यादा पुष्ट और धारदार बनाती हैं.

डीपीएस आरके पुरम, शाहिद-करिश्मा या अस्मित-रिया जैसे कांडों के कारण मोबाइल कैमराफ़ोन को भारत में अभी तक कुख़्याति ही मिली है. लेकिन वो दिन दूर नहीं जब भारत से भी कैमराफ़ोन से जुड़ी सकारात्मक ख़बरें सुनने-देखने को मिल सकेंगी.

कोई टिप्पणी नहीं: