रविवार, दिसंबर 30, 2007

ख़ुशहाली का विज्ञान

वर्षांत के अख़बारों और पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ने का एक अलग ही सुख है. इस सुखद अनुभव के दौरान कई बार कुछ ऐसे लेख भी मिल जाते हैं, जो कि ज़िंदगी को बेहतर बनाने की क्षमता रखते हैं. मुझे ऐसा ही एक लेख पढ़ने को मिला है जिसका लेखक 'ख़ुशी के प्रोफ़ेसर' के नाम से प्रसिद्ध एक विद्वान है. मेरा आशय हार्वर्ड विश्वविद्यालय के Positive Psychology के प्रोफ़ेसर ताल बेन-शहर से है.

लंदन से प्रकाशित अख़बार गार्डियन ने प्रोफ़ेसर बेन-शहर का एक लेख छापा है जिसका शीर्षक है- "आनंद का अनुभव करो. मैं बताता हूँ कैसे..."

अपने लेख में ख़ुशी के प्रोफ़ेसर ने नए साल की शुरुआत के अवसर पर अपने विशेष लेख में वर्ष 2008 को अपने लिए बेहतर बनाने के चार सरल उपाय बताए हैं. प्रो. बेन-शहर बताते हैं कि आमतौर पर हमारी पीढ़ी पिछली पीढ़ियों से ज़्यादा धनी है, लेकिन हम ज़्यादा ख़ुशहाल नहीं हैं. यदि हम पहले से ज़्यादा धनी हैं, तो फिर हम ख़ुश क्यों नहीं हैं? कोई संदेह नहीं कि ख़ुशहाली धन से नहीं आती, न ही प्रतिष्ठा या स्टेटस से. तो फिर 2008 को पिछले वर्ष से ज़्यादा ख़ुशहाल कैसे बनाया जाए?

सकारात्मक मनोविज्ञान के विशेषज्ञों ने इन सवालों का जवाब गहन अनुसंधानों के ज़रिए ढूंढने की कोशिश की है. प्रो. बेन-शहर का कहना है कि इन अनुसंधानों में चार मुख्य विचार उभर कर सामने आए:-

1. मानव बने रहें-

हमारी संस्कृति में पीड़ा से जुड़ी भावनाओं को नकारात्मक मानने की प्रवृत्ति रही है. इसलिए हममें से बहुतों को लगता है कि चिंता, दुख, उदासी, डर या ईर्ष्या के अनुभव का मतलब है आपके अंदर कुछ कमी का होना. जबकि सच्चाई इसके उलट है. दो ही प्रकार के व्यक्ति पीड़ा से जुड़ी भावनाओं से बच सकते हैं- मनोरोगी और मृत व्यक्ति.

यदि हम चिंता, उदासी या डर जैसी भावनाओं से बचने की कोशिश करते हैं, ख़ुद को मानव बने रहने नहीं देते हैं, तो इसका नुक़सान हमें ही उठाना पड़ता है. क्योंकि इन भावनाओं से बचने की कोशिश में ये और ज़ोर मारती हैं, हमें पहले से ज़्यादा बुरा लगता है. दरअसल भावनाओं के तमाम प्रकार मानव प्रकृति का अभिन्न हिस्सा हैं, जैसे गुरुत्वाकर्षण हमारे ब्रह्मांड का अभिन्न हिस्सा है. एक परिपूर्ण स्वस्थ जीवन जीने के लिए ज़रूरी है कि हम अन्य नैसर्गिक चीज़ों की तरह ही अपनी तमाम भावनाओं को भी स्वीकार करें. अगर आप मानवता को पूर्णता से स्वीकार करना सीख सकें, तो आने वाला साल ही नहीं, बल्कि जीवन का हर वर्ष बेहतर ही होता जाएगा.

2. जीवन को सरल बनाएँ-

नोबेल पुरस्कार विजेता मनोविज्ञानी डैनियल कैनेमन और उनके सहयोगियों ने दिन-प्रतिदन की ज़िंदगी में विभिन्न कामों के असर का अध्ययन किया. उन्होंने जीवन के विभिन्न क्षेत्र की महिलाओं को बीते हुए एक दिन के कार्यकलापों की सूची तैयार करने को कहा. उनसे ये भी लिखने को कहा गया कि वो अलग-अलग कार्यकलापों के दौरान कैसा अनुभव करती हैं. कई दिनों तक ये प्रयोग चलाया गया. महिलाओं ने खाने, काम करने, बच्चे संभालने, यात्रा करने, परिवार से अंतरंग संबंधों आदि की बातें दर्ज कीं. इस अध्ययन में सबसे चौंकाने वाला परिणाम ये था कि आम तौर पर महिलाओं ने अपने बच्चों के साथ बिताए समय के दौरान ज़्यादा आनंद का अनुभव नहीं किया.

इसमें कोई शक नहीं कि महिलाएँ अपने बच्चों को बहुत-बहुत प्यार करती हैं. शायद इतना ज़्यादा प्यार, जितना दुनिया में किसी और चीज़ से नहीं. लेकिन फिर भी छोटी-छोटी बातों, छोटे-छोटे कार्यों के कारण ही ज़िंदगी इतनी जटिल हो जाती है, समय का इतना अभाव रहता है, कि हम आनंददायक कार्यों में भी आनंद नहीं महसूस कर पाते हैं.

आइए इस तथ्य को थोड़ा और आसान बनाते हैं. आपसे आपकी पसंद के दो गाने बताने को कहा जाता है. एक-एक कर दोनों गाने आपको सुनाए जाते हैं और 1 से 10 अंक के बीच उन्हें रेट करने को कहा जाता है. पूरी संभावना है कि आप अपनी पहली पसंद को 10/10 की रेटिंग देंगे, और पसंद नंबर दो को भी 10 नहीं तो 9 या कम-से-कम 8 की रेटिंग ज़रूर ही देंगे. अब दोनों गाने एक साथ बजाए जाते हैं और आपको रेटिंग करने को कहा जाता है...पूरी संभावना है कि आप 10 में 2 या 3 से ज़्यादा नहीं दें.

आपके इर्दगिर्द अच्छी चीज़ों की प्रचूरता हो सकती है, लेकिन जब ख़ुशियों की बात आती है तो अक्सर थोड़े ही में ज़्यादा का अहसास होता है. समय का दबाव अवसाद का एक बड़ा कारण है. हम कम समय में ज़्यादा से ज़्यादा क्रियाकलापों को अंज़ाम देने की कोशिश करते हैं....और इस प्रक्रिया में हम ख़ुशियों के मौक़े यों ही गँवा देते हैं. चाहे वह काम की ख़ुशी हो, घूमने-फिरने की, संगीत की, नैसर्गिक छटा देखने की, अपने जीवनसाथी या फिर अपने बच्चों के साथ होने की ख़ुशी.

3. नियमित रूप से व्यायाम करें-

न जाने कितने ही अध्ययनों से ये बात ज़ाहिर हो चुकी है कि शारीरिक कसरत का फ़ायदा मानसिक स्वास्थ्य पर भी दिखता है. व्यायाम करने से आप प्रफ़ुल्लित रह सकते हैं. तो क्या व्यायाम करना अवसादरोधी दवा का काम करता है? बेहतर है इसका जवाब इस तरह दिया जाए कि व्यायाम नहीं करना अवसाद का कारण होता है.

व्यायाम करना हमारी ज़रूरत है, और यदि हम इस ज़रूरत को पूरा नहीं करते हैं, तो हमें ही इसकी क़ीमत चुकानी होती है. मानव शरीर अक्रिय बने रहने के लिए, दिन भर कंप्यूटर या टीवी के सामने बैठे रहने के लिए नहीं बना है. विकास के क्रम में मानव शरीर दौड़ कर हिरण का शिकार करने के लिए तैयार हुआ है, या फिर भाग कर भूखे शेर से अपनी जान बचाने के लिए. जो व्यायाम नहीं करते, वो एक महत्वपूर्ण शारीरिक ज़रूरत को अपूर्ण रखते हैं.

हार्वर्ड मेडिकल स्कूल में मनोचिकित्सा के प्रोफ़ेसर जॉन रैटे बताते हैं कि व्यायाम से हमारे तंत्रिका तंत्र में norepinephrine, serotonin और dopamine का रिसाव होता है, जोकि दवाओं की तरह हैं. हाँ, ये सही है कि व्यायाम को रामबाण औषधि के तौर पर नहीं लिया जा सकता, और कई बार दवाएँ ज़रूरी भी होती हैं. लेकिन अनेक मामलों में व्यायाम, दवाओं से ज़्यादा असरदार होता है. इसलिए क्यों नहीं इस प्राकृतिक चिकित्सा का फ़ायदा उठायें! व्यायाम के सकारात्मक प्रभावों में आप बढ़े आत्मविश्वास, सक्रिय मस्तिष्क, दीर्घायु, बेहतर नींद, बेहतर सेक्स और शरीर के ज़्यादा प्रभावी प्रतिरक्षण तंत्र को भी गिनें.

4. सकारात्मक पक्ष पर ध्यान दें-

ख़ुशियाँ न सिर्फ़ हमारे जीवन से जुड़ी घटनाओं पर निर्भर करती हैं, बल्कि उन घटनाओं को हम किस तरह लेते हैं उस पर भी बहुत कुछ आधारित होता है. तभी जहाँ ज़िंदगी में सब कुछ हासिल करके भी बहुत लोग नाख़ुश रहते हैं, वहीं बहुत कम पर जीने वाले भी ख़ुशहाल ज़िंदगी बिता रहे होते हैं. हमारी ख़ुशियाँ सिर्फ़ इस बात पर निर्भर नहीं करती हैं कि हमारे पास क्या-क्या है, बल्कि इस बात का भी काफ़ी महत्व होता है कि किसी के पास जो कुछ भी है, वह उसकी कितनी क़द्र करता है.

ख़ुशी की राह में एक बड़ी बाधा इस बात से आती है कि हम जीवन की अच्छी बातों को पर्याप्त गंभीरता से नहीं लेते हैं. कभी-कभी ही ऐसा होता है कि हम अपने अच्छे स्वास्थ्य, अच्छे दोस्तों, अच्छे भोजन को लेकर बहुत ज़्यादा उत्साहित रहते हों. जब बुरा वक़्त आता है, तभी हमें महसूस होता है कि अच्छा वक़्त वास्तव में ईश्वर के आशीर्वाद की तरह होता है. बीमार पड़ने के बाद ही पता चलता है कि कितने भाग्यशाली थे जब तंदरुस्त थे. लेकिन एक बार बीमारी गई नहीं कि हमें फिर अच्छे स्वास्थ्य के आनंद की अनुभूति करने का समय नहीं मिलने लगता है.

तो क्या अच्छे वक़्त की अच्छी अनुभूति हासिल करने के लिए हमें बुरे वक़्त का इंतज़ार करना चाहिए? निसंदेह नहीं. तो क्यों न हम जीवन की अच्छी-अच्छी चीज़ों को लेकर आनंद का अनुभव करने की आदत डाल लें. अच्छे स्वास्थ्य, अच्छे खानपान, अच्छे दोस्तों-परिजनों को लेकर यदि हम आनंदित रहने लगें, तो फिर इन अच्छी बातों को गंभीरता से नहीं लेने की बुरी आदत ख़ुद ही छूट जाएगी.

यदि हम कृतज्ञता को अपनी आदतों में शुमार कर लें, तो हमें आनंदित होने के लिए किसी विशेष अवसर का इंतज़ार नहीं रहेगा...नए साल का भी नहीं. यदि हम आँखें खोल कर देखें तो हमारे इर्दगिर्द की चमत्कारिक दुनिया में हर चीज़ अनूठी लगेगी...हर चीज़, हर बात स्मृतियों में संजोने लायक़ मालूम पड़ेगी, क़ाबिलेतारीफ़ लगेगी...आनंद विभोर होने के अवसर बहुतायत में मिलेंगे.

नववर्ष मंगलमय हो!

रविवार, दिसंबर 16, 2007

गूगल नॉल या गूगलपीडिया


अंतत: गूगल ने अपनी विकिपीडिया शुरू करने की घोषणा कर ही दी. गूगल विकिपीडिया को नॉल(Knol) नाम दिया गया है. नॉल यानि नॉलेज का गूगलावतार!

जैसा कि गूगल की इससे पहले की बड़ी परियोजनाओं या टेकओवर के बारे में होता आया है, नॉल के बारे में भी ख़बर हल्के से लीक की गई. गूगल के एक इंजीनियर यूडि मैनबर ने पिछले हफ़्ते The Official Google Blog पर इस परियोजना की जानकारी सार्वजनिक की.

मैनबर ने नॉल शब्द को नॉलेज की इकाई के रूप में परिभाषित किया है. आइए देखें नॉल परियोजना के बारे में वे और क्या-क्या कहते हैं, ख़ुद मैनबर के ही शब्दों में:

'दुनिया में लाखों लोगों के पास उपयोगी ज्ञान है, जिसका फ़ायदा अरबों लोग उठा सकते हैं. अधिकांश लोग अपने ज्ञान को सिर्फ़ इसलिए बाँट नहीं पाते हैं क्योंकि उनके पास इसका कोई सरल तरीका नहीं है. हमें ऐसा ज़रिया ढूंढने के लिए कहा गया जिसके ज़रिए लोग अपना ज्ञान बाँट सकें. यही हमारा मुख्य उद्देश्य है.'

'हमारा लक्ष्य है किसी ख़ास विषय का ज्ञान रखने वाले व्यक्ति को उस विषय पर एक आधिकारिक आलेख लिखने के लिए प्रेरित करना.'

'नॉल परियोजना के पीछे एक प्रमुख विचार लेखक के नाम को रेखांकित करने का भी है. किताबों के कवर पर ही लेखक का नाम होता है, सामयिक लेखों के साथ लेखक का नाम जाता है और विज्ञान लेखों के साथ तो अनिवार्य रूप लेखक का नाम छपता है. लेकिन वेब का विकास कुछ इस तरह हुआ है कि लेखकों के नाम को प्रमुखता देने का प्रचलन स्थापित नहीं हो पाया. हमें लगता है कि लेखक का नाम देने से लोगों को वेब सामग्री के बेहतर उपयोग में मदद मिलेगी.'

'गूगल लेखन, संपादन आदि के लिए आसान टूल्स उपलब्ध कराएगा. ये नॉल की मुफ्त होस्टिंग की भी व्यवस्था करेगा. आप सिर्फ़ लिखें भर, बाक़ी काम हम करेंगे.'

'किसी विषय विशेष पर नॉल की भूमिका वैसे बुनियादी लेख की होगी, जो कि उस विषय की जानकारी पहली बार ढूंढ रहा कोई व्यक्ति पढ़ना चाहता हो.'

'गूगल नॉल लेखों पर किसी तरह का संपादकीय नियंत्रण नहीं रखेगा, न ही किसी नॉल विशेष की तरफ़दारी करेगा. तमाम संपादकीय नियंत्रण और ज़िम्मेदारी ख़ुद लेखक की होगी. लेखक अपनी साख दाँव पर लगाएगा.'

'हम ये अपेक्षा नहीं करते कि सभी लेख उच्च स्तर के होंग. लेकिन जब एक ही विषय पर अलग-अलग नॉल गूगल सर्च में दिखेंगे तो उनकी रैंकिंग गुणवत्ता के हिसाब से होगी. वेब पेज की रैंकिंग का हमारा अच्छा अनुभव है, और हमें पूरा विश्वास है कि हम इस चुनौतीपूर्ण काम को भी ढंग से संभाल सकेंगे.'

ज़ाहिर है, यदि गूगल उपरोक्त बातों को कार्यान्वित कर पाएगा तो एक बिल्कुल ही नए तरह की विकिपीडिया तैयार हो सकेगी. गूगल नॉल में विकिपीडिया जैसा 'संपादन युद्ध' देखने को नहीं मिलेगा, क्योंकि इसमें सामूहिक संपादन की व्यवस्था नहीं होगी.

गूगल नॉल एक अन्य मामले में विकिपीडिया से बिल्कुल अलग होगा. चूँकि गूगल का बिज़नेस मॉडल वेबजाल के हर पन्ने पर विज्ञापन डालने की कोशिशों को बढ़ावा देता है. इसलिए गूगल नॉल के पन्नों पर भी विज्ञापन डालने की भी गुंज़ाइश होगी. हालाँकि अभी गूगल का कहना है कि विज्ञापन उन्हीं नॉल पन्नों पर होंगे जिसका लेखक इसके लिए ख़ुद हामी भरेगा. नॉल के विज्ञापनों से होने वाली आय का एक हिस्सा लेखक को मिलेगा. (कहने की ज़रूरत नहीं कि इस आय का बड़ा हिस्सा गूगल के पास रहेगा!)

सीमित स्तर पर गूगल की नॉल परियोजना शुरू हो चुकी है. और अगले कुछ महीनों में इसे सबके के लिए खोल दिया जाएगा.

गुरुवार, नवंबर 29, 2007

निद्रा विचार

हम सोते क्यों हैं? लॉस एंजिल्स में दुनिया की पहली नींद प्रयोगशाला की स्थापना के 80 साल बीत जाने और सो रहे लोगों के मस्तिष्क के हरसंभव परीक्षण के बाद भी इस सवाल का जवाब अभी तक नहीं मिल पाया है.

सोना और सपने देखना मानव शरीर के बड़े रहस्यों में शामिल हैं. नींद जीवन के लिए ज़रूरी है, लेकिन ये अब भी एक अबूझ पहेली बनी हुई है.

नींद के कारण ही जीवन का एक बड़ा हिस्सा निठल्ला बीतता है. हम अपनी ज़िंदगी का एक तिहाई हिस्सा सोते हुए गुजार देते हैं. कल्पना कीजिए यदि नींद की ज़रूरत बिल्कुल नहीं होती,...तब एक औसत ज़िंदगी में 25 से 30 वर्षों के बराबर अतिरिक्त समय कामकाज़ के लिए उपलब्ध होता.

अधिकांश लोगों को लगता है कि उन्हें पूरी नींद मयस्सर नहीं होती. इनमें वैसे लोग भी शामिल हैं जिनके पास आलीशान घर और आरामदायक गद्दे हैं. नींद पूरी नहीं होने की शिकायत इतनी आम है कि डॉक्टरों ने नींद के बारे में अत्यधिक चिंता करने को ही बीमारी की श्रेणी में डाल दिया है. डॉक्टरों की मानें तो नींद का सबसे बड़ा शत्रु है नींद पूरी नहीं होने की चिंता.

किसी एक रात पूरी नींद नहीं मिलना कोई चिंता की बात नहीं होनी चाहिए, क्योंकि अधिकांश व्यक्ति अधूरी नींद की भरपाई अगले दिन कर लेता है. लेकिन लगातार अनिद्रा की बात निश्चय ही चिंताजनक है. लगातार दो दिन बिना सोए बिताने का अनुभव याद करें, तो इस बात का भलीभाँति अहसास हो जाएगा कि नींद कितनी ज़रूरी है.

न्यूयॉर्क के डिस्क जॉकी पीटर ट्रिप ने जनवरी 1959 में पोलियो उपचार के अनुसंधान के वास्ते धन जुटाने के लिए बिना सोए ज़्यादा से ज़्यादा समय बिताने की कोशिश की. ट्रिप 201 घंटे तक नींद को धत्ता बताने में सफल रहा. लेकिन इस दौरान उसकी दशा विक्षिप्तों जैसी हो गई. इतने समय तक सोए बिना रहने के बाद भी वो जीवित तो रहा, लेकिन इस प्रयोग के बाद उसके चाल-चलन, बात-व्यवहार में हमेशा के लिए बदलाव आ गया. वह बाक़ी जीवन में बड़ा ही चिड़चिड़े स्वभाव वाला और असामान्य मनोदशा वाला व्यक्ति साबित हुआ. ट्रिप के रिकॉर्ड को 1964 में तोड़ा रैन्डी गार्डनर नामक एक व्यक्ति ने लगातार 11 दिन जग कर. गार्डनर भी जीवन भर चिड़चिड़ेपन का शिकार रहा.

नींद पर The Independent अख़बार में छपे एक विस्तृत लेख में कई बड़ी-बड़ी दुर्घटनाओं का कारण अनिद्रा को बताया गया है. इनमें चेर्नोबिल परमाणु रिएक्टर दुर्घटना और चैलेंजर स्पेस शटल दुर्घटना शामिल हैं. बड़ी-बड़ी दुर्घटनाओं की छोड़ भी दें तो अधिकतर सड़क दुर्घटनाओं का कारण, चालक के पूरी नींद नहीं लेने को माना जाता है.

नींद के पीछे भले ही ज़िंदगी का एक तिहाई हिस्सा 'बर्बाद' होता हो, लेकिन नींद के जिस हिस्से में सपने आते हों उसे बहुत ही क्रियाशील माना जाता है. पॉल मैकार्टनी ने दावा किया था कि उन्हें बीटल्स के हिट गाने 'येस्टर्डे' का आइडिया एक सपने से जगने के दौरान आया था. रॉबर्ट लुई स्टीवेन्सन ने एक बार कहा था कि डॉ. जेकल और मिस्टर हाइड की कहानी सोते हुए उनके दिमाग़ में आई थी. इसी तरह दिमित्री मेंडिलीव ने दावा किया था कि तत्वों की आवर्त सारणी का विचार तब उनके दिमाग़ में आया था, जब वे अपने डेस्क पर झपकी ले रहे थे.

आज हम 24/7 समाज में रहते हैं, जहाँ हमारी नींद शरीर की जैविक घड़ी से नहीं, बल्कि अलार्म घड़ी से, कृत्रिम प्रकाश से और क्षणिक उत्तेजना देने वाले रसायनों से निर्धारित होती है. इस समाज के एक बड़े वर्ग के लिए हर दिन छह से आठ घंटे की नींद एक ऐसी बात है, जिसका सपना मात्र ही देखा जा सकता है.

रविवार, अक्टूबर 07, 2007

क्या विज्ञान दुनिया को बचा सकता है?

धरती मातादुनिया में कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए कई संधियाँ हो चुकी हैं. निजी कंपनियाँ भी ग्लोबल वार्मिंग के ख़िलाफ़ नई-नई घोषणाएँ कर रही हैं. ज़िम्मेदार लोग निजी कारों की बजाय ज़्यादा-से-ज़्यादा सार्वजनिक परिवहन का उपयोग कर, और कम-से-कम हवाई यात्राएँ कर अपना 'कार्बन फ़ुटप्रिंट' छोटा करने की कोशिश कर रहे हैं.

लेकिन दुनिया भर में बड़ी संख्या में ऐसे वैज्ञानिक हैं, जो मानते हैं कि मात्र जीवन के रंग-ढंग बदलकर पर्यावरण को हुए नुक़सान की भरपाई नहीं की जा सकती. क्योंकि दशकों की बेफ़िक्री ने जलवायु परिवर्तन की समस्या को बहुत ही जटिल और गंभीर बना दिया है. वैज्ञानिकों की इस जमात का दृढ़ विश्वास है कि जलवायु में कार्बन डाइऑक्साइड की लगातार बढ़ती मात्रा पर विज्ञान के ज़रिए ही रोक लगाई जा सकती है. इस तरह के वैज्ञानिक उपायों को जियो-इंजीनियरिंग (Geo-engineering) का नाम दिया गया है.

संडे ऑब्जर्वर ने उन छह जियो-इंजीनियरिंग उपायों का आकलन किया है, जो कि ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन की रफ़्तार पर रोक लगा सकते हैं. आइए इन उपायों पर एक नज़र डालें-

1. समुद्री पम्प-

ब्रिटेन के दो प्रसिद्ध वैज्ञानिकों, क्रिस रैप्ली और जेम्स लवलॉक को पूरा विश्वास है कि समुद्र में बड़ी संख्या में पाइप डाल कर कार्बन डाइऑक्साइड की बड़ी मात्रा को वायुमंडल से अलग किया जा सकता है. उनका कहना है कि पानी के भीतर खड़ा किए गए इन पाइपों से पंप का काम लेते हुए समुद्र की गहराई के ठंडे पानी को सतह तक लाएगा. चूँकि ठंडे पानी में गर्म पानी के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा जीवन पाया जाता है, इसलिए समुद्र के गर्म सतह वाले हिस्सों में अपेक्षाकृत ठंडे पानी को ऊपर ला कर जीवन के ज़्यादा प्रकारों को वायुमंडल के संपर्क में लाया जा सकेगा. ऐसी जीव और पौध प्रजातियाँ बड़ी मात्रा में वायुमंडल के कार्बन डाइऑक्साइड को सोख सकेगी. अपनी उम्र पूरी होने के बाद ये नीचे समुद्र की तलहटी से जा लगेंगी, और इस तरह इनके साथ ही बड़ी मात्रा में कार्बन भी अनंत काल के लिए वायुमंडल से दूर चला जाएगा.

वैज्ञानिक इस उपाय की सफलता की संभावना को 3/5 आँकते हैं. और इसके विरोधियों का कहना है कि इस तरह समुद्र में बड़ी संख्या में पाइपें खड़ी करने से व्हेल और डॉलफ़िन जैसी जीव प्रजातियों को बहुत नुक़सान पहुँचेगा.

2. गंधकीय चादर-

बड़े ज्वालामुखी विस्फोटों के बाद पूरी धरती का तापमान कम हो जाता है. उदाहरण के लिए 1991 में फ़िलिपींस में माउंट पिनातुबो के फटने के बाद पूरी दुनिया के तापमान में 0.6 प्रतिशत की गिरावट आई थी. वैज्ञानिकों ने ज्वालामुखी विस्फोट से वायुमंडल के मध्यवर्ती हिस्से स्ट्रैटोस्फेअर मे एक करोड़ टन गंधक रसायन के आने को तापमान में गिरावट का कारण बताया. ऐसे में ओज़ोन लेयर पर अपने काम के कारण 1995 में नोबेल पुरस्कार जीतने वाले वैज्ञानिक पॉल क्रूटज़ेन की तरफ़ से सुझाव आया कि क्यों नहीं माउंट पिनातुबो के उदाहरण को अपनाया जाए! प्रोफ़ेसर क्रूटज़ेन का कहना है कि वायुमंडल में गंधक की एक चादर तैयार कर धरती की सतह पर पहुँचने वाली सूर्य की किरणों की मात्रा को कम किया जा सकेगा. उनका कहना है कि रॉकेटों के ज़रिए स्ट्रैटोस्फेअर में क़रीब दस लाख टन गंधक रसायन पहुँचा कर धरती को ठंडा किया जा सकेगा.

वैज्ञानिक इस उपाय की सफलता की संभावना को 1/5 मानते हैं. इसके विरोधियों का कहना है वायुमंडल में इतनी ज़्यादा मात्रा में गंधक रसायन डालने से अम्लीय वर्षा बढ़ सकती है, और इस उपाय से ओज़ोन सतह को भी नुक़सान पहुँच सकता है.

3. अंतरिक्षीय दर्पण-

सूर्य की विकिरण धरती को गर्म करती है और यहाँ जीवन को संभव बनाती है. लेकिन जैसे-जैसे धरती गर्म होती जा रही है, धरती पर पहुँचने वाली सौर विकिरण की मात्रा को कम करने की आवश्यकता बढ़ती जा रही है. कैलिफ़ोर्निया की लॉरेंस लाइवमोर राष्ट्रीय प्रयोगशाला के भौतिकविद लॉवेल वुड का मानना है कि वायुमंडल में अत्यंत पतले अल्युमिनियम धागे की जाली तान कर बड़ी मात्रा में विकिरण को परावर्तित किया जा सकता है. उनका कहना है कि एक ईंच के दस लाखवें हिस्से की मोटाई वाली अल्युमिनियम की तार की जाली एक विंडो-स्क्रीन का काम करेगी. इससे सूर्य का प्रकाश तो नहीं रुकेगा, लेकिन अवरक्त किरणें ज़रूर परावर्तित हो जाएँगी.

इस उपाय की सफलता की संभावना 1/5 मानी जाती है, और इस पर संदेह करने वालों का कहना है कि सौर विकिरण में एक प्रतिशत की भी कटौती करने के लिए कुल मिला कर छह लाख वर्गमील आकार की जाली ताननी होगी, जिस पर बहुत ही ज़्यादा लागत आएगी.

4. मेघ आवरण-

कोलोराडो के राष्ट्रीय वायुमंडलीय अनुसंधान केंद्र के जॉन लैथम और एडिनबरा विश्वविद्यालय के स्टीफ़न साल्टर का कहना है कि बादलों की मात्रा में चार प्रतिशत की वृद्धि कर धरती पर सौर विकिरण की मात्रा में पर्याप्त कमी लाई जा सकती है. इन दोनों महानुभावों का कहना है कि 'क्लाउड सीडिंग' की 'सीवॉटर स्प्रे' प्रक्रिया के ज़रिए कृत्रिम रूप से बादलों का आवरण तैयार करना आसान है, और इस पर अपेक्षाकृत बहुत कम ख़र्च आएगा.

इस उपाय की सफलता की संभावना 2/5 बताई जाती है, और इसके विरोधियों का कहना है कि बड़ी मात्रा में कृत्रिम बादल पैदा करने से मौसम का पैटर्न गड़बड़ा सकता है.

5. कृत्रिम पेड़-

कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा कम करने के लिए पेड़ लगाने का तरीका बहुत ही लोकप्रिय है, लेकिन अब वैज्ञानिकों ने एक विशेष प्रकार के कृत्रिम पेड़ लगा कर कहीं ज़्यादा कार्बन वायुमंडल से बाहर करने का उपाय खोजा है. इस उपाय का प्रतिपादन सबसे पहले कोलंबिया विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक क्लाउस लैकनर ने किया. विशेष रसायनों से निर्मित ये पेड़ न बढ़ेंगे, न फलेंगे, न फूलेंगे...लेकिन लैकनर का दावा है कि उनके द्वारा विकसित प्रत्येक कृत्रिम पेड़ वायुमंडल से प्रतिवर्ष 90 हज़ार टन कार्बन डाइऑक्साइड सोख सकेगा. यानि कार्बन डाइऑक्साइड सोखने (Carbon Sequestration) के मामले में कृत्रिम पेड़ एक वास्तविक पेड़ के मुक़ाबले एक हज़ार गुना ज़्यादा कारगर होगा.

वैज्ञानिक इस उपाय की सफलता की संभावना को 4/5 बताते हैं, और इसके विरोधियों का कहना है कि ऐसे पेड़ तैयार करने की प्रक्रिया में वायुमंडल को फ़ायदे की तुलना में नुक़सान ज़्यादा होगा, क्योंकि पेड़ बनाने के कारखानों में ऊर्जा की बहुत ज़्यादा खपत होगी.

6. जल पौध-

समुद्र की सतह पर उतराती सूक्ष्म पौध प्रजातियाँ(Plankton और Algae) कार्बन डाइक्साइड की भक्षक मानी जाती हैं. अपनी उम्र पूरी होने के बाद वे अपने साथ बड़ी मात्रा में कार्बन लिए समुद्र की तलहटी में जा बैठती हैं. यानि समुद्र की सतह पर शैवाल और अन्य सूक्ष्म पौध प्रजातियों की मात्रा बढ़ाओ, कार्बन डाइऑक्साइड की मात्र अपने-आप कम हो जाएगी. अमरीका के वुड्स होल समुद्र विज्ञान संस्थान में हाल ही में एक सम्मेलन में इस उपाय पर व्यापक चर्चा की गई. इस सम्मेलन में अनेक विशेषज्ञों की राय थी कि लौह उर्वरक का इस्तेमाल कर समुद्री पौध प्रजातियों की मात्रा बढ़ाना संभव है. घुलनशील लौह यौगिकों को समुद्र में डालते हुए दुनिया भर में इस उपाय से जुड़े प्रयोग शुरू भी किए जा चुके हैं.

इस उपाय की सफलता की संभावना 2/5 मानी जाती है, और इसके विरोधियों का कहना है कि इस विधि से ज़्यादा कार्बन डाइऑक्साइड नहीं सोखा जा सकता, जबकि इससे समुद्र में अत्यंत ख़तरनाक प्रदूषण फैल सकता है.

सोमवार, सितंबर 10, 2007

नए राष्ट्रों की नई खेप

अलग राष्ट्र के गठन की माँग दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से उठती ही रहती है. कहीं संघीय सरकार की पकड़ से छूटने की हसरत होती है, तो कहीं अपने समुदाय के बेहतर विकास और सुरक्षा की बात होती है, तो कहीं बिछुड़े हिस्से से जुड़ने की लालसा. नवराष्ट्र के सृजन के लिए विभिन्न समुदाय या तो हिंसक-अहिंसक आंदोलनों को ज़रिया बनाते हैं, या फिर जनमत संग्रह जैसे क़ानूनी रास्तों को अपनाते हैं.

अंग्रेज़ी की पत्रिका Monocle ने उन दस इलाक़ों पर रोशनी डाली है, जो कि निकट भविष्य में सारे अधिकारों से सुसज्जित नए राष्ट्रों के रूप में सामने आ सकते हैं. आइए देखें नवसृजित संप्रभु राष्ट्रों की सूची में शामिल होने की संभावना लिए ये इलाक़े कौन-कौन से हैं-

1. फ़लस्तीन- पश्चिम एशिया या मध्य-पूर्व के संकट का समाधान एक संप्रभु फ़लस्तीनी राष्ट्र की स्थापना से ही संभव हो सकता है. लेकिन दो फ़लस्तीनी धड़ों फ़तह और हमास के बीच के भारी मनमुटाव को देखते हुए एक संयुक्त फ़लस्तीन की जगह दो अलग-अलग राष्ट्रों के उदय की संभावना ज़्यादा बन रही है. ये होंगे पूर्वी फ़लस्तीन यानि फ़तह के नियंत्रण वाला पश्चिम तट, और पश्चिमी फ़लस्तीन या हमास के नियंत्रण वाला गज़ा इस्लामी गणतंत्र. यदि ऐसा हुआ तो शायद इसराइल भी इन राष्ट्रों को परोक्ष रूप से मान्यता दे देगा, क्योंकि एक की जगह दो फ़लस्तीनी राष्ट्रों का वज़ूद उसकी सुरक्षा की दृष्टि से बेहतर विकल्प साबित हो सकता है.

2. शिन्जियांग- पश्चिमोत्तर चीन के इस इलाक़े के लोगो ने 60 साल पहले भी पूर्वी तुर्केस्तान के नाम से अलग राष्ट्र की माँग ज़ोरशोर से रखी थी. यहाँ कि मुस्लिम उइग़ुर लोग अपनी माँग को लेकर हिंसा पर भी उतारू रहे हैं. लेकिन मौजूदा चीन सरकार आज़ादी की माँग करने वाले इन आंदोलनकारियों को आतंकवादी घोषित कर चुकी है. लेकिन जैसा कि अल्जीरिया में फ़्रांस को सबक मिला था, कि जब आतंकवाद उफ़ान पर होता है तो कितनी भी निष्ठुर सेना हो, उसकी नाक में दम किया जा सकता है.

3. दक्षिणी कैमरून- फ़्रांसीसी भाषी कैमरून के दो अंग्रेज़ीभाषी प्रांतों में एक अलग राष्ट्र की माँग को लेकर एक अहिंसक आंदोलन चल रहा है. कैमरून में तानाशाही जैसा शासन चलाने वाले पॉल बिया अहिंसक आंदोलनकारियों के ख़िलाफ़ दमनकारी क़दम उठाते रहे हैं. यदि दमन बढ़ा या जारी रहा, तो स्वंत्रता की माँग के ज़ोर पकड़ने की पूरी संभावना है.

4. संयुक्त कोरिया गणतंत्र- ये नवस्वतंत्र नहीं बल्कि दो स्वतंत्र राष्ट्रों के संयोग से बनने वाला नवसृजित राष्ट्र होगा. कम्युनिस्ट उत्तर कोरिया की आर्थिक परेशानियों ने उसे परमाणु कार्यक्रम छोड़ने के अमरीकी प्रस्ताव को स्वीकार करने पर मज़बूर किया है. यदि आर्थिक मुश्किलें आगे भी जारी रहती हैं, और वह शरारत के बजाय सहयोग पर राज़ी हो जाता है, तो इसमें कोई संदेह नहीं कि उसका पड़ोसी दक्षिण कोरिया उसे उसी तरह आत्मसात करने पर गंभीरता से विचार करेगा- जैसा कि पश्च्मी जर्मनी ने 1990 में पूर्वी जर्मनी को आत्मसात किया था.

5. कुर्दिस्तान- इराक़ पर अमरीकी हमले का एकमात्र अच्छा परिणाम है वहाँ के कुर्द लोगों की ख़ुशहाली. इराक़ी कुर्द इलाक़ा आमतौर पर हिंसारहित है, वहाँ के राजनीतिक आपसी रंजिशों को ताक पर रख चुके हैं, उनका अपना एयरलाइंस अंतरराष्ट्रीय उड़ाने भर रहा है. कुर्दों को तुर्की सेना की धमकियाँ मिलती रहती हैं, लेकिन यूरोपीय संघ में शामिल होने की आकांक्षा रहते तुर्की कोई परेशानी खड़ा करने से बचेगा. वैसे भी कुर्द पहले इराक़ी इलाक़े में राष्ट्र की नींव डालना चाहेंगे, और संयुक्त कुर्दिस्तान की माँग को आगे के लिए टाल देंगे. ईरान भी अपने परमाणु कार्यक्रम संबंधी अंतरराष्ट्रीय दबाव से जूझने पर ध्यान केंद्रित किए हुए है. अमरीकी हमेशा के लिए इराक़ में रहेगा नहीं, तो ऐसे में एक आज़ाद कुर्दिस्तान की संभावना भरी पूरी लगती है.

6. सोमालीलैंड- सोमालीलैंड सोमालिया को वह हिस्सा है जो कभी ब्रिटिश प्रभुत्व में हुआ करता था. यों तो सोमालीलैंड ने 1991 में आज़ादी का ऐलान कर दिया था, लेकिन उसे अभी भी अंतरराष्ट्रीय मान्यता का इंतज़ार है. लेकिन हाल के दिनों में सोमालीलैंड ने अपनी अलग सरकार, अलग सेना और अलग न्यायपालिका का गठन कर लिया है. अपनी करेंसी और अलग पासपोर्ट भी जारी किया है. ऐसे में लगता है कि कुछ अफ़्रीकी सरकारें उसे मान्यता देने पर ज़रूर ग़ौर कर रही होंगी.

7. कोसोवा- कोसोवो या कोसोवा पिछले आठ वर्षों से संयुक्तराष्ट्र के संरक्षण में है. यूगोस्लाव नेता स्लोबोदान मिलोसेविच की सेनाओं ने कोसोवो की अल्बानियाई मूल की जनता पर भारी अत्याचार किया था. संयुक्तराष्ट्र ने कोसोवो को एक अलग संप्रभु राष्ट्र के रूप में मान्यता देने का एक प्रस्ताव सुरक्षा परिषद के समक्ष रखा है. ज़ाहिर है सर्बिया और रूस को इस प्रस्ताव पर आपत्ति है, और रूस को तो सुरक्षा परिषद में वीटो का भी अधिकार है. ऐसे में आज़ादी की राह में अड़चनें आ सकती हैं. लेकिन जब अंतरराष्ट्रीय समुदाय में कोसोवो की आज़ादी को लेकर आमतौर पर सहमति हो तो लगता नहीं कि कोसोवो राष्ट्र की स्थापना को रोका जा सकेगा. और इसका नाम कोसोवा होगा, कोसोवो नहीं. क्योंकि पहला अल्बानियाई उच्चारण है, जबकि दूसरा सर्ब उच्चारण.

8. ताइवान- वैसे तो ताइवान का एक अलग राष्ट्र के रूप में अस्तित्व है, लेकिन आधिकारिक रूप से उसे अंतरराष्ट्रीय समुदाय की मान्यता नहीं मिली है. क्योंकि चीन उसे अपना अभिन्न हिस्सा मानता है. लेकिन ताइवान के राष्ट्रवादी नेता आज़ादी की खुली घोषणा करने को तैयार बैठे हैं. ऐसा हुआ तो सब कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि क्या चीन ताइवान के ख़िलाफ़ सैनिक कार्रवाई करने के विकल्प को चुनता है, और चुनता ही है तो क्या अमरीकी ताइवान के समर्थन में आगे आता है.

9. शियास्तान- सिद्धान्तत: इसका कोई कारण नहीं दिखता कि क्यों इराक़ का दक्षिणी शहर बसरा भी दुबई की तरह संपन्न नहीं हो सकता. ब्रिटेन को शिया बहुल दक्षिणी इराक़ में टिके रहने में ज़्यादा लाभ नहीं दिख रहा, जबकि अमरीका को भी इस कबाइली इलाक़े के आंतरिक खींचतान का सिरदर्द ईरान को देने में ज़्यादा ऐतराज़ नहीं होगा.

10. स्कॉटलैंड- स्वतंत्र स्कॉटलैंड की हामी स्कॉटिश नेशनल पार्टी स्कॉटलैंड की क्षेत्रीय संसद में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर कर सामने आई है. पार्टी आज़ादी के मुद्दे पर जनमत संग्रह की बात औपचारिक रूप से उठा भी चुकी है. यदि जनमत संग्रह होता है, और उसमें आज़ादी के पक्ष में फ़ैसला आता है, तो स्वतंत्र स्कॉटलैंड की स्थापना को ज़्यादा दिन तक टाल पाना संभव नहीं होगा. यहाँ उल्लेखनीय है कि इंग्लैंड और स्कॉटलैंड की क्रिकेट और फ़ुटबॉल की टीमें अलग-अलग हैं. इतना ही नहीं, ब्रिटेन में दो तरह की पाउंड करेंसी भी चलती है, जिनमें से एक है- स्कॉटिश पाउंड. हालाँकि बैंक ऑफ़ इंग्लैंड के पाउंड और रॉयल बैंक ऑफ़ स्कॉटलैंड के पाउंड के लेनदेन या प्रचलन में कोई अंतर नहीं है.

सोमवार, अगस्त 27, 2007

भारतीय विमानों पर ग़ुलामी का ठप्पा

भारत में सरकारी और ग़ैरसरकारी स्तर पर इन दिनों स्वतंत्रता के साठ साल पूरे होने और आज़ादी की पहली लड़ाई के डेढ़ सौ साल पूरे होने पर समारोहों का दौर चल रहा है. ऐसे में ये जानना किसी को भी आश्चर्यजनक लग सकता है कि आज़ादी के साठ साल बाद भी हमारे असैनिक विमान ब्रिटिश राज काल के ठप्पे को ढो रहे हैं.

जी हाँ, आपने यदि ग़ौर किया हो तो भारत के सभी असैनिक विमानों के पिछले हिस्से में अंग्रेज़ी के पाँच अक्षर लिखे होते हैं. ये मार्किंग अनिवार्य रूप से अंग्रेज़ी के दो अक्षरों VT से शुरू होती है. VT यानि Viceroy's Territory. मतलब भारतीय असैनिक विमान पर ये ठप्पा लगाना ज़रूरी होता है कि ये वायसराय के अधीनस्थ देश के हैं.

दरअसल भारतीय विमानों पर अनिवार्य रूप से लिखा जाने वाला VT एक Aircraft Nationality Mark है जो International Civil Aviation Organisation(ICAO) ने भारत को प्रदान किया है. ICAO संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी है, और इसका मुख्यालय कनाडा के मांट्रियल शहर में है. ICAO का उद्देश्य है अंतरराष्ट्रीय नागरिक विमानन का अनुशासित और सुरक्षित विकास. भारत समेत 180 देश इसके सदस्य हैं, जिन्हें इसके बनाए नियमों का पूर्ण पालन करना पड़ता है.

ICAO ने 1944 में भारत के विमानों के लिए राष्ट्रीयता कोड VT निर्धारित किया था. दरअसल ICAO ने अपने से कहीं पुराने संगठन ITU या International Telecommunication Union के Country Call Sign Prefix को विमानन कोड का मुख्य आधार बनाया. और ITU के चार्ट में भारत को VT-VW कोड मिला हुआ था. इस तरह ICAO ने भारत के असैनिक विमानों के लिए VT कोड निर्धारित कर दिया. इसके तीन साल बाद देश आज़ाद हो गया, लेकिन तत्कालीन समस्याओं से निपटने और भविष्य के लिए योजनाएँ बनाने में जुटी नेहरू सरकार इस कोड को बदलवाने की बात भूल गई.

भाजपा की अगुआई वाली एनडीए सरकार ने VT की जगह कोई और कोड लेने का पहला गंभीर प्रयास किया, हालाँकि उसे सफलता नहीं मिली. दरअसल ICAO की महासभा की बैठक हर तीसरे साल होती है, इसलिए ऐसे मामलों पर फ़ैसले की प्रक्रिया बहुत धीमी होती है. इसलिए ज़रूरत थी कि एनडीए सरकार की जगह लेने वाली मौजूदा यूपीए सरकार भी गंभीरता से इस मामले को आगे बढ़ाती. ऐसा हुआ नहीं, फलस्वरूप आज़ादी की साठवीं सालगिरह के मौक़े पर भी हमारे विमान वायसराय के अधीनस्थ का ठप्पा लगाए घूम रहे हैं. पिछले हफ़्ते नागरिक उड्डयन मंत्री प्रफ़ुल्ल पटेल ने संसद में कहा कि सरकार भारतीय विमानों पर लगे शर्मनाक ठप्पे को बदलवाने की प्रक्रिया में ज़ोरशोर से जुट गई है. देखें परिवर्तन के लिए और कितने साल इंतज़ार करना पड़ता है!

फ़्रांस का कोड F, इटली का I, ग्रेट ब्रिटेन का G, जापान का JA, पाकिस्तान का कोड AP और नेपाल का 9N है. कई अन्य देशों ने अपनी राष्ट्रीय भाषा में देश के नाम से मिलते-जुलते कोड लिए हैं, जैसे जर्मनी का कोड D है या Deutschland. लेकिन ऐसा भी नहीं है कि हर देश का विमान कोड देश के नाम से मेल खाता हो. मसलन अमरीका के विमानों पर राष्ट्रीयता कोड N होता है.

एक अक्षर वाले कोड ज़्यादा सुविधाजनक होते हैं, लेकिन भारत को India का I नहीं मिल सकता जो कि इटली के पास है. इसी तरह हमें Bharat का B भी नहीं मिल सकता क्योंकि ये चीन ने ले रखा है. (वैसे हांगकांग और मकाऊ के SAR कोड भी चीन के ही पास हैं.)

हाल के दिनों में ICAO का सदस्य देशों से आग्रह रहा है कि वे नाम परिवर्तन की माँग करें तो अपनी राष्ट्रीय भाषा में देश के नाम से जुड़े अंग्रेज़ी के अक्षरों को प्राथमिकता दें, जैसे जर्मनी ने D ले रखा है. शायद इस कारण भी एनडीए सरकार ने ICAO से भारत के लिए BH कोड की माँग रखी थी.

नोट:- ICAO की पूरी कोड तालिका के लिए यहाँ क्लिक करें.

शनिवार, अगस्त 11, 2007

मानवता के लिए मधुमक्खियों को बचाओ!

यूरोपीय मधुमक्खीऐसे अवसर कम ही होते हैं जब एक ही तरह की ख़बर दुनिया के हर कोने से आ रही हो. पिछले सप्ताह ऐसा ही हुआ, जब एक बुरी ख़बर पहले अमरीका से आई, उसके बाद अमरीकी महाद्वीप के कनाडा और ब्राज़ील जैसे देशों से, फिर ब्रिटेन से, उसके बाद ऑस्ट्रेलिया से और अंत में वही ख़बर भारत से भी मिली. ये समाचार था मधुमक्खियों की आबादी में तेज़ी से आ रही गिरावट का.

अमरीका से ख़बर आई कि एक रहस्मय बीमारी ने मधुमक्खियों को अपना निशाना बनाया है जिसके कारण मधुमक्खियों के छत्ते या मधुमक्खी पालन करने वालों के छत्ताबक्से अचानक बिना किसी पूर्व चेतावनी के उजाड़ हो रहे हैं. मधुमक्खियाँ अपने अंडे-बच्चे और शहद को छोड़ कर ग़ायब हो रही हैं. विशेषज्ञों ने इस अभूतपूर्व घटना को Colony Collapse Disorder या CCD का नाम दिया है.

माना जाता है कि सीसीडी अमरीका के मधुमक्खी छत्तों या छत्तापेटिकाओं में से एक चौथाई का सत्यानाश कर चुकी है. देखते ही देखते इस बीमारी ने अमरीकी महाद्वीप के ब्राज़ील और कनाडा जैसे देशों में भी अपने पैर पसार दिए हैं.

ब्रिटेन समेत यूरोप के कई देशों में भी मधुमक्खियों की आबादी में भारी गिरावट की बात मानी जा रही है. भारत में मधुमक्खियों पर ख़तरे की ख़बर जम्मू-कश्मीर से आई है, और स्थानीय विशेषज्ञों ने इसके लिए T. Clarea और Vorroa नामक दो परजीवियों को दोषी ठहराया है. और ऑस्ट्रेलिया में तो केंद्र सरकार ने मधुमक्खियों पर आए ख़तरे पर विचार के लिए एक संसदीय समिति का गठन कर दिया है. माना जाता है कि ऑस्ट्रेलिया की मधुमक्खियों का संकट Verroa जैसे परजीवी कीटों के हमले के अलावा जंगलों में लगने वाली आग के चलते भी है.

उपरोक्त कारणों के अलावा भी कई कारण दिए जा रहे हैं मधुमक्खियों की संख्या घटते जाने के पीछे, जैसे- जीन संवर्द्धित फसल, ग्लोबल वॉर्मिंग, प्रदूषण, हानिकारक विकिरण आदि-आदि.

अब कारण चाहे जो भी हो, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि मधुमक्खियों की आबादी घटते जाने की ख़बर आतंकवाद के ख़ूनी प्रसार की ख़बर से भी ज़्यादा चिंतनीय है. परागण की प्रक्रिया से जुड़े कृषि उत्पादों में से 80 प्रतिशत मधुमक्खियों पर आश्रित होते हैं. इसका सीधा-सरल मतलब ये हुआ कि मानव उपभोग के खाद्य पदार्थों में से एक तिहाई का अस्तित्व मधुमक्खियों से सीधा जुड़ा हुआ है.

इसलिए इस कथन में दम लगता है(जिसे कई स्रोत आइंस्टाइन की उक्ति बताते हैं)- "यदि पृथ्वी से मधुमक्खियों का अस्तित्व समाप्त हो जाए तो मानव जाति चार वर्षों तक ही बच पाएगी. यदि मधुमक्खियाँ नहीं होंगी, तो परागण नहीं होगा, ...तो पौधे नहीं होंगे, ...तो जानवर नहीं होंगे, ...तो जीवन नहीं होगा!"

कहते हैं जब तॉल्सतॉय ने सब कुछ छोड़ दिया- माँस, तंबाकू और यहाँ तक कि धर्म भी- उसके बाद भी अपनी मधुमक्खियों से उनका लगाव नहीं छूटा था. मधुमक्खियों को शुरू से ही मानव जाति का मित्र माना जाता रहा है. मनुष्यों की तरह ही मधुमक्खियाँ भी सामाजिक प्राणीयों के वर्ग में आती हैं. वो भी आमजनों की तरह मेहनतकश होती हैं. इसलिए मधुमक्खियों की आबादी घटते जाने पर चिंता सिर्फ़ सरकारों और मधुमक्खी पालकों को ही नहीं, बल्कि हम सबको होनी चाहिए.

शुक्रवार, जुलाई 27, 2007

मल्लिका-ए-ब्लॉगिंग

शू जिंगलाइचीन की एक ब्लॉगर हैं शू जिंगलाइ. उन्हें ब्लॉगिंग की दुनिया की मल्लिका कहा जाता है. इसलिए नहीं कि वह एक ख़ूबसूरत अभिनेत्री हैं. बल्कि इसलिए कि उनकी वेब डायरी से ब्लॉगिंग को एक नई पहचान मिली है.

शू जिंगलाई चीनी भाषा में ब्लॉग लिखती हैं. इतनी नियमितता से कि रोज़ कम-से-कम एक पोस्ट तो लिख ही डालती हैं.

शू जिंगलाइ (Xu Jinglei) बहुमुखी प्रतिभा की धनी हैं. वह मात्र 33 साल की हैं लेकिन अपने अभिनय, गायन, फ़िल्म निर्देशन और अब ब्लॉगिंग के ज़रिए लाखों चीनी युवाओं के दिलों पर राज करती हैं.

ब्लॉगिंग जगत में शू जिंगलाइ का नाम इसलिए भी बड़े ही अदब से लिया जाता है कि उनका ब्लॉग कुल 10 करोड़ पेज व्यू वाला पहला ब्लॉग बना. अभी ये पोस्ट लिखते समय मैंने देखा तो ये संख्या 10,48,66,693 है, यानि साढ़े दस करोड़ का आँकड़ा ज़्यादा दूर नहीं. और ये सब हुआ है मात्र पौने दो साल में क्योंकि शू ने ब्लॉगिंग की दुनिया में अक्तूबर 2005 में क़दम रखा था.

शू जिंगलाइ एक साफ़-सुथरी छवि वाली प्रतिष्ठित स्टार हैं. सरल भाषा में बेबाकी से लिखती हैं. एक पाठक के रूप में उनसे सहजता से जुड़ा जा सकता है. शायद इसलिए उनके एक-एक पोस्ट पर हज़ार-हज़ार टिप्पणियाँ जमा हो जाना आम बात है. ताज़ा उदाहरण दूँ तो 22 जुलाई के उनके पोस्ट पर 1261 टिप्पणियाँ आई हैं. इस पोस्ट के शीर्षक का हिंदी अनुवाद होगा- 'नहीं है बोधि वृक्ष'. इसमें बीजिंग स्थित इस स्टार ने ग्वांगझाओ और हांगकांग की अपनी यात्रा का ब्यौरा दिया है. छोटे-से इस पोस्ट में शू ने यात्रा के दौरान एक फ़िल्म देखने का ज़िक्र किया है. उस फ़िल्म पर अपनी बेबाक राय दी है. और अपनी एक बात को बलपूर्वक कहने के लिए उन्होंने एक भारतीय लोककथा का उल्लेख किया है, कि कैसे एक बाप-बेटे की जोड़ी को साथ में गधा होने के बाद भी पैदल चलना पड़ा.शू जिंगलाइ श्रीलंका में

शू जिंगलाइ का ब्लॉग इतना क्यों पढ़ा जाता है? क्यों इतने सारे लोग उनके विचारों पर अपनी राय व्यक्त करते हैं? इन सवालों के जवाब में शू ने इस सप्ताह एक अंग्रेज़ी अख़बार से कहा- "मुझसे अक्सर ये सवाल किया जाता है. और मेरा एक ही जवाब होता है कि लोग मुझे कुल मिलाकर एक सफल व्यक्ति मानते हैं. मैं सर्वाधिक प्रसिद्ध अभिनेत्री नहीं हूँ, सबसे लोकप्रिय फ़िल्म निर्देशक भी नहीं हूँ, न ही सबसे बढ़िया लेखिका हूँ. लेकिन यदि सारी ख़ूबियों को जोड़ा जाए तो मैं ठीकठाक हूँ. एक और बात है कि मैंने बाक़ी के स्टारों से पहले ब्लॉगिंग शुरू कर दी थी."

शू ने आगे कहा, "मैं किसी गंभीर मुद्दे पर नहीं लिखती. आम जीवन की छोटी-छोटी बातों पर लिखती हूँ. इसलिए इतने सारे लोग मुझे पढ़ेंगे इसकी मुझे उम्मीद नहीं थी. हो सकता है पाठक एक अभिनेत्री के दिन-प्रतिदिन की ज़िंदगी के बारे जानने की जिज्ञासा रखते हों."

अनेक चीनी विश्लेषकों का मानना है कि आम आदमी शू जिंगलाई से ख़ुद को जोड़ कर देखते हैं. इसके अलावा उनके ब्लॉग के चर्चित होने के बाद हज़ारों पाठक यों ही देखादेखी में जुड़ गए. शू अपने बारे में लिखती हैं, अपनी पसंद-नापसंद का ज़िक्र करती हैं, अपनी फ़िल्मों के बारे में लिखती हैं, अपनी यात्राओं का ब्यौरा देती हैं, खाना पकाने से जुड़े अनुभवों को बाँटती है...और अपनी पालतू बिल्लियों की चर्चा भी नियमित रूप से करती हैं.

टेक्नोराती की मानें तो शू जिंगलाई के ब्लॉग को ही पिछले साल सबसे ज़्यादा हिट मिला था. और इस महीने 12 जुलाई को उनके ब्लॉग ने 10 करोड़ पेज व्यू का रिकॉर्ड बनाया और इस दृष्टि से ब्लॉगिंग का नंबर वन साइट माने जाने वाले बोइंगबोइंग को भी पीछे छोड़ दिया.

शू जिंगलाई के बारे में लिखते हुए बार-बार यही ध्यान में आता रहा कि हिंदी के किसी ब्लॉग को शू के ब्लॉग जैसी सफलता मिलने में अभी कितने साल और लगेंगे? कोई बड़ा सिनेस्टार या क्रिकेटर हिंदी में ब्लॉग लिखना शुरू करे तो शायद कुछ बात बने. लेकिन इसकी भी संभावना कम ही नज़र आती है. वैसे भी, किसी भारतीय स्टार से शू जिंगलाई जैसे नियमित लेखन की कल्पना तक नहीं की जा सकती है.

आमिर ख़ानअभिनेता आमिर ख़ान ने पिछले दिनों अपनी फ़िल्म लगान की डीवीडी के प्रचार के हिस्से के तौर पर अंग्रेज़ी में एक ब्लॉग शुरू किया है, सैंकड़ो टिप्पणियाँ भी बटोर रहे हैं. उल्लेखनीय है कि आमिर ने पहली बार मंगल पांडे की रिलीज़ के दौरान कुछ दिनों तक ब्लॉगिंग की थी, और दोबारा लिखने के लिए उन्हें लगान की डीवीडी भारतीय बाज़ार में उतारे जाने का इंतज़ार करना पड़ा. आमिर स्टार हैं, बहुत ही लोकप्रिय हैं, साफ़गोई है उनमें, बाक़ियों के मुक़ाबले बेहद ईमानदार भी हैं...क्या ही अच्छा होता, वे लगातार ब्लॉगिंग करते...अंग्रेज़ी के साथ-साथ हिंदी में भी!!

गुरुवार, जुलाई 12, 2007

ब्लॉग का बदनाम भाई स्प्लॉग

पिछले कुछ वर्षों में ब्लॉगिंग के ज़रिए सूचनाओं और विचारों के आदान-प्रदान से करोड़ों लोगों को फ़ायदा हुआ है. कुछ टॉप के ब्लॉगरों ने ब्लॉगिंग से ख्याति अर्जित की, तो कुछ ने पैसे भी बनाए हैं. वहीं एक श्रेणी ऐसे लोगों की है जिन्होंने ब्लॉगिंग के ग़लत इस्तेमाल के ज़रिए हज़ारों डॉलर अर्जित किए हैं.

ब्लॉगिंग के ज़रिए भारी कमाई करने वाले इन लोगों को स्प्लॉगर कहा जाता है. स्प्लॉगर नाम स्प्लॉग से आया है. स्प्लॉग=स्पैम+ब्लॉग.

ज़ाहिर है स्पलॉगर किसी के घर चोरी नहीं करते, किसी की जेब नहीं काटते...लेकिन उनकी कमाई को अनैतिक कमाई माना जाता है. दरअसल एक स्प्लॉगर सैंकड़ों और हज़ारों की संख्या में फ़र्जी ब्लॉग बनाते हैं. उन ब्लॉगों को सर्च इंजनों में उच्चतर रैंकिंग दिलाने के लिए जोड़तोड़ करते हैं. इतना ही नहीं बड़ी संख्या में स्प्लॉगों में दूसरे ब्लॉगरों की कृतियाँ भी चुरा कर डाली जाती हैं. इसके बाद स्प्लॉगों में गूगल के कमाई तंत्र एडसेंस को लगाया जाता है.

यदि किसी स्प्लॉगर के पास अच्छी सर्च इंजन रैंकिंग वाले हज़ारों स्पैम ब्लॉग हैं तो उसे लखपति बनने से अगर कोई रोक सकता है तो वो है गूगल. लेकिन ख़बरें ये हैं कि गूगल स्पलॉगों को लेकर होने वाली सीमित बदनामी पर उनसे होने वाली आय को ज़्यादा वज़न देता है. इस कारण स्प्लॉगरों को रोकने का, उन्हें हतोत्साहित करने की पुरज़ोर कोशिश अब तक नहीं की गई है.

एक अनुमान के अनुसार प्रतिदिन औसत पाँच हज़ार स्प्लॉग जन्म लेते हैं. यदि दो प्रमुख मुफ़्त ब्लॉगिंग सुविधा प्रदाताओं वर्डप्रेस और ब्लॉगर की बात करें, तो वर्डप्रेस जहाँ स्प्लॉगरों के ख़िलाफ़ अतिसक्रिय होकर कार्रवाई करता है, वहीं ब्लॉगर के कर्ताधर्ता ऐसा नहीं कर रहे. यही वज़ह है कि एक अनुमान के अनुसार वर्डप्रेस के ब्लॉगों में से मात्र एक प्रतिशत को स्प्लॉग माना जाता है, वहीं ब्लॉगर के चिट्ठों में आधे से ज़्यादा को स्प्लॉग की श्रेणी में रखा जाता है.

यहाँ ये उल्लेखनीय है कि एडसेंस का लाभ उठाने के अतिरिक्त दूसरी वेबसाइटों की रैंकिंग बेहतर करने के लिए भी बड़ी संख्या में स्प्लॉगों का इस्तेमाल किया जाता है. वर्डप्रेस पर स्प्लॉग ज़्यादातर इसी श्रेणी के हैं.

ब्लॉगिंग के क्षेत्र में तरह-तरह के शूरवीर मौजूद हैं. ऐसे ही एक योद्धा हैं- स्प्लॉगफ़ाइटर. ये स्प्लॉगों को खोजने के बाद गूगल को सूचित करते हैं. उनकी मानें तो पिछले कुछ हफ़्तों से उन्हें लगता है कि गूगल ने स्प्लॉगिंग की समस्या को गंभीरता से लेना शुरू किया है. पिछले दिनों गूगल ने लाखों की संख्या में स्प्लॉगों को डिलीट किया है और उनके मालिकों के एडसेंस खाते बंद किए हैं. हालाँकि स्प्लॉगफ़ाइटर का ये भी कहना है कि स्प्लॉगों को ढूंढने का बेहतर फ़ॉर्मूला तैयार करने के बाद क्या पता उन्हें लाखों की संख्या में वैसे स्प्लॉग मिले, जो कि अभी उनकी नज़र में नहीं आ पाए हैं.

स्प्लॉगफ़ाइटर ने पिछले दिनों एक अख़बार को साक्षात्कार में बताया कि गूगल की तकनीकी क्षमता को देखते हुए स्प्लॉगों को पैदाइश के साथ ही पकड़ना तक संभव है, लेकिन शायद गूगल की प्राथमिकताओं की सूची में ये काम अभी बहुत नीचे है. हालाँकि स्प्लॉगफ़ाइटर ने बताया कि उनके स्प्लॉगविरोधी अभियान को देखते हुए एक बार गूगल अधिकारियों ने उनसे संपर्क किया, उन्हें लंच के लिए आमंत्रित किया और गूगल स्टोर से एक उपहार की पेशकश की.

एडसेंस को लेकर निषेधात्मक रवैया रखने वाला वर्डप्रेस अब अपनी ब्लॉगिंग सेवा में उसे समाहित करने की तैयारी कर रहा है. शायद कुछ पैसे वसूल कर ये सुविधा दी जाएगी. लेकिन स्प्लॉग और स्पैम के प्रति कड़ा रुख़ अपनाने वाला वर्डप्रेस एडसेंस के दुष्प्रभावों से कैसे निपटता है ये निश्चय ही देखने वाली बात होगी.

गुरुवार, जून 21, 2007

फ़िल्म स्टूडियो के मशहूर लोगो

हॉलीवुड की अधिकांश बड़े बजट की फ़िल्में किसी न किसी स्टूडियो द्वारा निर्मित होती हैं. किसी स्टूडियो की बनी फ़िल्म के शुरू में बड़े ही धमाकेदार ढंग से उसके लोगो को दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया जाता है. प्रस्तुति से पता चल जाता है कि लोगो प्रदर्शन के पीछे ज़रूर गर्व का एक भाव रहा होगा. आइए हॉलीवुड स्टूडियोज़ के पाँच मशहूर शुभंकरों का जायज़ा लेते हैं.

1. एमजीएम का शेर

लिओ नामक शेर मेट्रो-गोल्डविन-मेयर यानि एमजीएम स्टूडियो का 1916 से ही शुभंकर रहा है. सैमुअल गोल्डविन ने विज्ञापन विशेषज्ञ हॉवर्ड डिएट्ज़ से एक ऐसा लोगो बनाने के लिए कहा था जिसकी आवाज़ मूक फ़िल्मों के स्क्रीन से भी सुनी जा सके. डिएट्ज़ ने डिज़ायन तैयार करते समय अपने कॉलेज के आदर्श वाक्य 'Roar, Lion, Roar' को भी याद किया. इस तरह बना ये ऐतिहासिक लोगो. एमजीएम का पहला शुभंकर बना स्लैट्स नामक एक शेर जिसे दहाड़ने के बजाय गुर्राने के लिए प्रशिक्षित किया गया था. स्लैट्स 1936 में मरने तक एमजीएम का प्रचार करता रहा. उसके बाद तीन और शेर एमजीएम के लोगो में बारी-बारी से आए. मौजूदा ग़ुस्सैल दिखने वाला बेनाम शेर 1957 से ही एमजीएम की फ़िल्मों के आरंभ में मौजूद रहा है. सिर्फ़ 1968 में 2001:A Space Odyssey फ़िल्म में इसकी जगह एक अन्य शेर को जगह मिली थी.

2. कोलंबिया की मशालवाहक

कोलंबिया स्टूडियो की मशालधारी महिला पहली बार 1924 में दिखी. शुरू में वो सादा पृष्ठभूमि में ही दिखती थी. प्रकाश की चमक और बादलों को 1936 में डिज़ायन में जगह मिली. 1975 में टैक्सी ड्राइवर फ़िल्म में दिखने के बाद छह वर्षों के लिए ये प्रचलन में नहीं रही. उस दौरान मशालधारी महिला की जगह एक अमूर्त डिज़ायन को जगह मिली जिसमें महिला को हटा कर उसके मशाल से निकलने वाली रोशनी मात्र को रहने दिया गया था. लेकिन 1981 में मशालवाहक महिला फिर से कोलंबिया की फ़िल्मों में आने लगी. मौजूदा लोगो 1993 से प्रचलन में हैं. इस लोगो की मशालधारी को ह्यूस्टन में रहने वाली दो बच्चों की माँ जेनी जोसेफ़ को मॉडेल बना कर तैयार किया गया था.

3. 20th सेंचुरी फ़ॉक्स

20th Century Fox का लोगो 1933 में एमिल कोसा जूनियर ने तैयार किया था. उसकी कृति में पार्श्व संगीत दिया था युनाइटेड आर्टिस्ट के संगीत निर्देशक अल्फ़्रेड न्यूमैन ने. 1935 में 20th Century Pictures और Fox Films के विलय के बाद इस लोगो में फ़ॉक्स का नाम आया. उसके बाद इस डिज़ायन में कई बार बदलाव किए गए. 1970-71 में इसे हटा दिया गया, लेकिन दर्शकों और शेयरधारियों की माँग के बाद फिर से इसे फ़िल्मों में लगाया जाने लगा. मौजूदा लोगो में अल्पविराम या pause से पूर्व नगाड़े के अंतिम ढम्म के साथ रोशनी तेज़ हो जाती है. ये सिनेमाघर के तकनीशियन को जाँचने का मौक़ा देता है कि तस्वीर के साथ आवाज़ का क्रम बिल्कुल सही है या नहीं.

4. पारामाउंट की पर्वत चोटी

पारामाउंट का लोगो प्रचलन में रहने वाला सबसे पुराना फ़िल्म स्टूडियो लोगो है. इसका रेखाचित्र 1914 में एक बैठक के दौरान स्टूडियो के संस्थापक विलियम डब्ल्यू होडकिन्सन ने एक नैपकिन पर बनाया था. यदि इस डिज़ायन में सचमुच की पर्वत चोटी को आधार बनाया गया है, तो ये चोटी अमरीका के यूटा प्रांत के ओगडेन में बेन लोमोंड चोटी ही होगी. होडकिन्सन वहीं पले-बढ़े थे. शुरूआती दिनों का लोगो चारकोल से बना था और उसके ऊपर गोलाकार दायरे में 24 तारे बने थे. कहते हैं पारामाउंट स्टूडियो से उस समय 24 फ़िल्म स्टार संबद्ध थे.

5. यूनीवर्सल का ग्लोब

यूनीवर्सल स्टूडियो का ग्लोब भी 1920 के दशक से ही अस्तित्व में है. शुरू में UNIVERSAL ग्लोब के आरपार एक प्रकाश पुँज पर लिखा होता था. बाद के डिज़ायनों में यूनीवर्सल शब्द को विमान से फहराता दिखाया गया. 1940 के दशक में कुछ समय तक तारों भरे आकाश में ग्लोब को घूमता दिखाया जाता था. और 1964 में तो कैमरा अंतरिक्ष की ओर घूमते-घूमते ग्लोब पर आकर टिकता था.

गुरुवार, मई 31, 2007

प्रतिभा और प्रतिभावान -2

अल्बर्ट आइंस्टाइन
जैसा कि इस पोस्ट के पहले भाग में ज़िक्र किया गया है, प्रतिभाशाली व्यक्तियों की समाज में मौजूदगी हमेशा ही बहुत कम रही है. लेकिन समाज हर चीज़ की माप का कोई न कोई पैमान गढ़ ही लेता है.

जिस तरह प्रतिभा की माप के लिए IQ का पैमाना है, उसी तरह प्रतिभाशालियों के समाज का पता करने के लिए सबसे विश्वस्त पैमाना नोबेल पुरस्कारों का है. इसे Genius Factor कहा जाता है. जीनियस फ़ैक्टर यानि प्रति एक लाख की आबादी पर नोबेल पुरस्कारों की संख्या. यानि सीधे शब्दों में कहें तो किसी देश के नागरिकों को मिले नोबेल पुरस्कारों की संख्या को उस देश की वर्तमान जनसंख्या से भाग दें और उसमें एक लाख से गुणा करें.

आज की स्थिति देखें तो जीनियस फ़ैक्टर के हिसाब से सबसे स्मार्ट देश स्वीडन है. स्वीडिश नागरिकों ने यों तो मात्र 30 नोबेल पुरस्कार (सर्वाधिक 8 चिकित्सा के क्षेत्र में, और 7 साहित्य में) पाए हैं, लेकिन अपेक्षाकृत कम जनसंख्या का देश होने के कारण स्वीडन का जीनियस फ़ैक्टर 0.329 बनता है. दूसरे नंबर पर स्विटज़रलैंड (0.327) और तीसरे नंबर पर डेनमार्क (0.239) है. अमरीकी नागरिकों को यों तो सर्वाधिक 292 नोबेल पुरस्कार मिले हैं, लेकिन जनसंख्या के अनुरूप गणना करने पर अमरीका आठवें स्थान (0.097) पर आता है. इसी तरह सौ से ज़्यादा नोबेल पुरस्कार लेने वाला ब्रिटेन छठे स्थान (0.168) पर है. कहने की ज़रूरत नहीं कि भारत और चीन जैसी उभरती महाशक्तियाँ इस सूची में दूर-दूर तक नहीं नज़र आती हैं.

अब आइए The Observer द्वारा तैयार अब तक के 20 सर्वाधिक प्रतिभाशाली व्यक्तियों की सूची के बाक़ी दस व्यक्तियों की संक्षिप्त चर्चा करते हैं-

11. Isaac Newton (b. 4 January 1643, d. 31 March 1727). गणितज्ञ. न्यूटन ने बड़ा ही एकाकी बचपन जीया, और संभवत: इसलिए वे शुरुआती दिनों में बेहद ग़ुस्सैल प्रवृति के थे. लेकिन 84 साल की ज़िंदगी जीने वाले न्यूटन ने अधिकांश वैज्ञानिक काम भी जीवन के पूर्वार्द्ध में ही किया. उन्होंने प्रकाश की प्रकृति का विश्लेषण किया, ग्रहों की गति का विवरण दिया और अपनी कृति Philosophiae Naturalis Principia Mathematica में गुरुत्वाकर्षण का सार्वभौम सिद्धान्त प्रतिपादित किया. उनका प्रसिद्ध कथन- 'यदि मैंने दूरदृष्टि का परिचय दिया है, तो ये सब महापुरुषों द्वारा किए गए कार्यों की सहायता से ही संभव हो सका.'

12. Wolfgang Amadeus Mozart (b. 27 January 1756, d. 5 December 1791). संगीतज्ञ. मोज़ार्ट के पिताजी लियोपोल्द तत्कालीन यूरोप के मूर्धन्य संगीतज्ञों में से थे. मोज़ार्ट के जन्म के साल में ही उनकी कृति A Treatise on the Fundamental Principles of Violin Playing प्रकाशित हुई थी. जब मोज़ार्ट तीन साल के थे तब उनकी विलक्षण प्रतिभा से प्रभावित पिता लियोपोल्द ने संगीत का अपना काम छोड़ कर पूरा समय अपने बेटे की प्रशिक्षण पर लगाने का फ़ैसला किया. मोज़ार्ट ने अपनी पहली संगीत रचना तैयार की तो वे मात्र पाँच साल के थे. मोज़ार्ट की संगीत रचनाओं पर Bach और Handel का असर देखा जा सकता है. उनकी प्रसिद्ध उक्ति- 'Neither a lofty degree of intelligence nor imagination nor both together go to the making of genius. Love, love, love, that is the soul of genius.'

13. Ludwig Van Beethoven (baptised 17 December 1770, d. 26 March 1827). संगीतकार. जर्मनी के बॉन शहर में पैदा हुए बीथोवन ने नहीं के बराबर ही स्कूली शिक्षा प्राप्त की थी. लेकिन शुरू से ही उन्होंने पियानो, वॉयलिन और फ़्रेंच हॉर्न जैसे वाद्य बजाना सीखा. उन्होंने कुछ दिनों तक मोज़ार्ट से भी संगीत शिक्षा पाई, हालाँकि बाद में वे Joseph Haydn की शरण में शिक्षा पाने वियना चले गए. अपने पूर्ववर्ती संगीतज्ञों के विपरीत बीथोवन किसी दरबार से नहीं जुड़े बल्कि ज़्यादार स्वतंत्र रूप से काम किया. जीवन के अंतिम वर्षों में उनकी श्रणव शक्ति पूरी तरह चली गई, लेकिन बावजूद इसके वे लगातार उतकृष्ट संगीत रचना करते रहे. उनके बहरेपन के संभावित कारणों में एक ये भी बताया जाता है कि वह नींद से पीछा छुड़ाने के लिए सर्द पानी में सिर डुबो लेते थे. बीथोवन का एक प्रसिद्ध कथन- 'हम सब वही करें जो कि सही है, पूरी ताक़त से अलभ्य को पाने की कोशिश करें, ईश्वर प्रदत्त गुणों का विकास करें, और सीखना कभी नहीं छोड़ें.'

14. Johann Wolfgang von Goethe (b. 28 August 1749, d. 22 March 1832). कवि, उपन्यासकार, सिद्धान्तकार, वैज्ञानिक. एक संपन्न और प्रभावशाली परिवार में पैदा हुए गोएटे का बचपन से ही साहित्य की ओर रुझान था. क़ानून की पढ़ाई करने के बाद उन्होंने फ़्रांकफ़ुर्त में क़ानून के क्षेत्र में काम भी किया. लेकिन कुछ ही दिन में उन्होंने सब कुछ छोड़ साहित्य की शरण ले ली. जर्मन शेक्सपियर कहलाने वाले गोएटे ने कविता, निबंध, आलोचना के क्षेत्र में अनेक रचनाओं के अलावा भौतिकी, जीव विज्ञान और भाषा विज्ञान के क्षेत्र में अहम योगदान दिया. उनकी प्रसिद्ध उक्ति- 'Common sense is the genius of humanity.'

15. Isambard Kingdom Brunel (b. 9 April 1806, d. 15 September 1859). एक इंजीनिय पिता की संतान ब्रनेल मात्र 20 साल के थे, जब उन्होंने टेम्स नदी के नीचे बनने वाली सुरंग की परियोजना में मुख्य सहायक अभियंता बना दिया गया. ब्रनेल 1828 में टेम्स सुरंग में अचानक पानी भर जाने की दुर्घटना में मरते-मरते बचे थे. रोज़ाना औसत 40 सिगार पीने वाले और चार घंटे सोने वाले ब्रनेल के नाम अनेक पुल, सुरंगें और जहाज़ हैं. उनकी देखरेख में बने ब्रिस्टल के क्लिफ़्टन पुल, लंदन की टेम्स सुरंग, बर्कशैर के मैडेनहेड रेल पुल जैसे कई ऐसे निर्माण आज भी मौजूद हैं जो उस ज़माने में लोगों को दाँतों तले अँगुली दबाने पर बाध्य करते थे.

16. Charles Darwin (b. 12 February 1809, d. 19 April 1882). जीव विज्ञानी. वनस्पति विज्ञानी. एक पढ़े-लिखे धनी परिवार में पैदा हुए डार्विन ने चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई अधूरी छोड़ने के बाद जीव-जगत और प्राकृतिक इतिहास में दिलचस्पी लेनी शुरू की. उन्हें प्रसिद्धि मिली बीगल नामक जहाज़ पर पाँच साल लंबी समुद्री यात्रा के दौरान की गई खोजों के कारण. इसी यात्रा के दौरान जुटाई जानकारियों के आधार पर उन्होंने 1838 में Natural Selection का सिद्धान्त प्रतिपादित किया, और फिर 1859 में On the Origins of Species की रचना की.

17. Fyodor Dostoevsky (b. 11 November 1821, d. 9 February 1881). साहित्यकार. शराबी पिता की संतान दोस्तोयेव्स्की का बचपन बड़ा ही हंगामेदार रहा. इस अनुभव का असर उनकी कृतियों में खुल कर देखा जा सकता है. उदारवादी बुद्धिजीवी गुट Petrashevsky Circle का सदस्य होने के आरोप में उन्हें सश्रम कारावास की सज़ा सुनाई गई थी. जीवन के अंतिम वर्षों में दोस्तोयेव्स्की को आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा और उन्हें जुआ खेलने की लत लग गई. उनकी पाँच सर्वाधिक प्रसिद्ध कृतियाँ हैं- Poor Folk, Notes from the Underground, Crime and Punishment, The Idiot और The Brothers Karamazov.

18. Nikola Tesla (b. 10 July 1856, d. 7 january 1943). आविष्कारक, भौतिकशास्त्री, अभियांत्रिकी और वैद्युत इंजीनियर. सर्ब मूल के टेसला चेक, जर्मन, हंगेरियन, इतालवी और लैटिन भाषाओं में निपुण थे. कॉलेज की पढ़ाई अधूरी छोड़ने वाले टेसला मानसिक असंतुलन के भी शिकार थे. तीन के अंक में उनका पक्का भरोसा था. टेसला द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त ही आधुनिक एसी विद्युत प्रणाली के नींव बने. थॉमस एडिसन ने भारी आर्थिक लाभ का भरोसा दिला कर टेसला से ख़ूब काम लिए, लेकिन अंतत: उन्हें कुछ भी नहीं दिया. इसके बाद दोनों परस्पर कट्टर प्रतिद्वंद्वी बन गए. टेसला ने जहाँ AC विद्युत के विकास के लिए ख़ुद को झोंक दिया, वहीं एडिसन ने DC विद्युत पर अपना ध्यान लगाया.

19. Marie Curie (b. 7 November 1867, d. 4 July 1934). भौतिकविद और रसायनशास्त्री. अत्यंत मेहनती क्यूरी की यादाश्त कमाल की थी. काम की धुन में उन्हें न तो खाने की और न ही सोने की चिंता होती थी. महिला होने के कारण तत्कालीन वारसॉ में उन्हें सीमित शिक्षा की ही अनुमति थी, इसलिए उन्हें छुप-छुपाकर उच्च शिक्षा प्राप्त करनी पड़ी. बाद में बड़ी बहन की आर्थिक सहायता की बदौलत वह भौतिकी और गणित की पढ़ाई के लिए पेरिस आईं. उन्होंने फ़्रांस में डॉक्टरेट पूरा करने वाली पहली महिला होने का गौरव पाया. बाद में उन्हें Sorrbonne के विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर बनने वाली पहली महिला होने का गौरव भी मिला. यहीं उनकी मुलाक़ात Pierre Curie से हुई जो उनके पति बने. दोनों ने मिलकर दो रेडियोधर्मी तत्वों पोलोनियम और रेडियम की खोज की. दोनों को संयुक्त रूप से 1903 के भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला. मैरी क्यूरी को 1911 में रसायनशास्त्र का नोबेल पुरस्कार भी मिला. विज्ञान की दो शाखाओं में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित होने वाली वह एकमात्र वैज्ञानिक हैं. उनकी प्रसिद्ध उक्ति- 'जीवन में किसी चीज़ का भय नहीं होना चाहिए, बल्कि उसकी समझ विकसित की जानी चाहिए.'

20. Albert Einstein (b. 14 March 1879, d. 18 April 1955). जर्मनी में पैदा हुए आइंस्टाइन को बचपन में मुश्किल से बोल पाते थे. पाँच साल की उम्र में उनके पिताजी ने उन्हें क़ुतुबनुमा या कम्पास लाकर दिया. एक अदृश्य शक्ति के कारण चुम्बकीय सुई को घूमते देखने को आइन्सटाइन ने अपने जीवन का सर्वाधिक क्रांतिकारी अनुभव बताया था. युवावस्था में वह अपने परिवार के साथ इटली आकर रहने लगे, वहीं उन्होंने अपना पहला वैज्ञानिक सिद्धान्त पूरा किया. बाद में सैनिक सेवा से बचने के लिए उन्होंने जर्मन नागरिकता छोड़ कर स्विटज़रलैंड की नागरिकता ले ली. 1932 में आइंस्टाइन यूरोप छोड़ कर अमरीका रहने आ गए. उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त के आधार पर ही लेज़र तकनीक विकसित हुई, लेकिन उनकी ख्याति सापेक्षतावाद के सिद्धान्त के कारण हुई. Photoelectric Effect संबंधी 1905 में प्रकाशित काम पर उन्हें 1921 का भौतिकी का नोबेल पुरस्कार दिया गया. उन्होंने ज़िंदगी के आख़िरी वर्षों में विश्व शांति के लिए काम किया. उनकी प्रसिद्ध उक्ति- 'मुझे नहीं पता कि तीसरा विश्व युद्ध किस तरह लड़ा जाएगा, लेकिन चौथा विश्व युद्ध डंडों और पत्थरों से लड़ा जाएगा.'

बुधवार, मई 30, 2007

प्रतिभा और प्रतिभावान -1

लियोनार्दो का लाल चॉक से बनाया स्वचित्रबारहवीं की परीक्षा के परिणाम आने के बाद अख़बारों में एक से बढ़कर एक प्रतिभाशाली बच्चों के बारे में ख़बरें छप रही हैं. हिंदी ब्लॉग जगत ने भी कुछ मेधावी बच्चों को मंच दिया. प्रतिभावानों की इज़्ज़त में लिखे जाने के इस ख़ास अवसर पर संयोग से मेरे हाथ एक बेहतरीन पुस्तक हाथ लगी है- The Observer Book of GENIUS.

इस पुस्तक के सारे 112 पेज पढ़ जाने के बाद ये स्पष्ट हो जाता है कि प्रतिभा या मेधा शुरू से ही अल्प आपूर्ति में रही है. आख़िर प्रतिभा है क्या? आधुनिक काल के सिद्ध प्रतिभावानों में से एक थॉमस एडिसन की मानें तो प्रतिभा में एक प्रतिशत अंत:प्रेरणा और निन्यानवे प्रतिशत मेहनत है. हालाँकि एडिसन से कहीं ज़्यादा प्रतिभावान माने जाने वाले लियोनार्दो दा विंची का कहना था कि उच्चतम प्रतिभा वाला व्यक्ति तब सर्वाधिक सक्रिय होता है, जब वह सबसे कम काम कर रहा हो!

यानि मेधा आख़िर क्या बला है, इस पर शताब्दियों से सिद्ध प्रतिभावान तक एकमत नहीं हो सके हैं. इस बारे में तरह-तरह के सवाल हैं, लेकिन कोई निश्चित जवाब नहीं. क्या प्रतिभा मस्तिष्क की किसी विशेष कोशिका का कमाल है, क्या यह कोई आनुवंशिक चीज़ है, क्या यह प्रकृति के किसी अबूझ फ़ॉर्मूले का कमाल है...या फिर, क्या प्रतिभा सही प्रशिक्षण से, सही दवाओं के ज़रिए या सिर के किसी ख़ास हिस्से में लगी चोट से विकसित की जा सकती है?

जब प्रतिभा की परिभाषा तक पर एका नहीं तो उसे मापने की विधि कितनी भरोसेमंद कही जा सकती है! लेकिन फिर भी दुनिया एक तरीक़े पर काफ़ी हद तक भरोसा करती है. ये है IQ Test, यानि Intelligence Quotient की जाँच. फ़्रांसीसी मनोविज्ञानी अल्फ़्रेड बिनेट ने थियोडोर सिमोन के साथ 1908 में इसकी शुरुआत की. यहाँ ये उल्लेखनीय है कि इस विधि से बच्चों की प्रतिभा ही जाँची जा सकती है. इसमें बच्चों की मानसिक और वास्तविक उम्र का अनुपात निकाला जाता है. मान लीजिए एक 10 साल का बच्चा अपने से तीन साल बड़े यानि 13 साल के बच्चों जितना समझदार है. ऐसे में उसका IQ निकालने के लिए 13 में 10 से भाग देंगे और औसत IQ यानि 100 से गुणा करेंगे. इस तरह उस बच्चे का IQ हुआ 130.

मान्य पंरपराओं के अनुसार 130 से अधिक IQ वाले किसी बच्चे को आमतौर पर प्रतिभाशाली माना जाता है. उच्चतर IQ वालों की संस्था मेन्सा में भी इस IQ स्तर वालों को आमतौर पर प्रवेश मिल जाता है. हालाँकि यह संस्था IQ की जाँच के अलग-अलग तरीक़े अपनाती है. इस समय दुनिया भर के क़रीब एक लाख व्यक्ति मेन्सा के सदस्य हैं.

The Observer की क़िताब में कुल 20 प्रतिभावान लोगों की विस्तार से चर्चा है. ये महानुभाव हैं:-

1. Imhotep (b.2667 BC, d.2648 BC). बहुआयामी प्रतिभा के धनी. स्थापत्य और चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में मानव इतिहास का पहला बड़ा नाम. उनकी ये उक्ति बहुत प्रसिद्ध है- 'खाओ, पीओ और आनंद मनाओ क्योंकि एक दिन हमें मर जाना है.'

2. Pythagoras of Samos ( b.582-580 BC, d.547-496 BC). गणितज्ञ, खगोलविद, वैज्ञानिक और दार्शनिक. अंकों के जनक के रूप में विशेष प्रसिद्धि. उन्होंने एक विज्ञानप्रेरित समाज की स्थापना की जिसे पाइथागोरियन्स कहा जाता था. उनका मानना था कि सब कुछ गणित से संबद्ध है और अंक ही अंतिम सच हैं.

3. Plato (b.428 BC, d.349 BC). प्राचीन यूनान की प्रसिद्ध विद्वत तिकड़ी में से एक. बाक़ी दो थे- सुकरात और अरस्तू. प्लेटो एक दार्शनिक के अलावा एक गणितज्ञ भी थे. पश्चिमी जगत में उच्चतर शिक्षा के लिए पहली संस्था की स्थापना उन्होंने ही एथेंस में की थी.

4. Archimedes (b.287 BC, d.212 BC). गणितज्ञ, भौतिकशास्त्री, इंजीनियर, खगोलविद और दार्शनिक. उनके कई आविष्कार आज भी उपयोग में लाए जाते हैं. मशहूर जर्मन गणितज्ञ कार्ल फ़्रेडरिक गॉस ने आर्कमिडिज़ को तीन कालजयी गणितज्ञों में से एक माना है. बाक़ी दो हैं- न्यूटन और आइंस्टाइन. आर्कमिडिज़ की प्रसिद्ध उक्ति- 'मुझे खड़े होने की एक जगह दो, मैं धरती को हिला दूँगा.'

5. Brahmagupta (b.598, d.668). गणितज्ञ और खगोलविद. राजस्थान में पैदा हुए ब्रह्मगुप्त सम्राट हर्ष के ज़माने में उज्जैन की वेधशाला के प्रमुख रहे थे. ब्रह्मगुप्त को गणित-चक्र-चूड़ामणि के नाम से भी जाना जाता था. उन्होंने खगोलशास्त्र में बीजगणित का इस्तेमाल शुरू किया था. शून्य को एक स्वतंत्र अंक का दर्जा उन्होंने ही दिया था.

6. Dante Alighieri (b.1 June 1265, d.13 September 1321). कवि. प्रमुख कृतियाँ- The Divine Comedy, La Vita Nuova, De Vulgari Eloquentia, Monarchia और The Convivio. उनका प्रमुख कथन- 'नरक में सबसे बुरी जगह उन लोगों के लिए सुरक्षित है, जो नैतिक संकट की घड़ियों में तटस्थ रहते हैं.'

7. Leonardo da Vinchi (b. 15 April 1452, d. 2 May 1519). बहुआयामी प्रतिभा के धनी. खगोलशास्त्र, सिविल इंजीनियरिंग, ऑप्टिक्स, चिकित्सा शास्त्र और हाइड्रोडाइनमिक्स के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान. एक कलाकार के रूप में Mona Lisa और The Last Supper का चित्रांकन. आविष्कारक के रूप में मानवचालित हेलीकॉप्टर, टैंक, ग्लाइडर, पैराशूट, कैलकुलेटर आदि का डिज़ायन तैयार किया. इस्तांबुल के सुल्तान बेयाज़िद द्वितीय के लिए लियोनार्दो ने एक पुल का डिज़ायन किया था, जिसे असंभव मान कर सुल्तान ने नहीं बनवाया, लेकिन 2001 में नॉर्वे में उस डिज़ायन को सफलतापूर्वक कार्यरूप दिया गया.

8. Michelangelo (b. 6 March 1475, d. 18 February 1564). पेन्टर, मूर्तिकार, वास्तुशिल्पी, कवि और इंजीनियर. रोम के सिस्टीन चैपल में उन्होंने The Scenes from Genesis और The Last Judgment के रूप में जो फ़्रेस्को चित्रकारी की उसकी दूसरी मिसाल नहीं. इसी तरह उनकी बनाई डेविड की मूर्ति भी अद्वितीय कृति ही मानी जाती है.

9. William Shakespeare (b. 26 April 1564, d. 23 April 1616). कवि और नाटककार. उनके दुखान्त, ऐतिहासिक, रोमांटिक और हास्यपूर्ण नाटकों को अंग्रेज़ी साहित्य में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है. उन्होंने अपने कई नाटकों में अभिनय भी किया था. शेक्सपियर ने प्यार, सुंदरता और जीवन की क्षणभंगुरता पर कई ख़ूबसूरत कविताएँ भी लिखी हैं.

10. Galileo Galilei (b. 15 February 1564, d. 8 January 1642). भौतिकशास्त्री, खगोलविद और दर्शनशास्त्री. उन्होंने धरती केन्द्रित खगोलशास्त्र को चुनौती देते हुए सूर्य केन्द्रित खगोल विज्ञान का प्रतिपादन किया. सापेक्षवाद के बारे में भी उन्होंने विचार व्यक्त किए थे. उन्होंने गणित, सैद्धान्तिक भौतिकी और प्रायोगिक भौतिकी के अन्तर्संबंधों पर प्रकाश डाला. गैलीलियो ने विज्ञान को दर्शन शास्त्र और धर्म से अलग करने का हरसंभव प्रयास किया, और इसी कारण कैथोलिक चर्च से दुश्मनी मोल ले ली. आइन्सटाइन ने उन्हें आधुनिक विज्ञान का जनक कहा है. उनकी एक प्रसिद्ध उक्ति- 'ईश्वर की भाषा है गणित.'

(अगले पोस्ट में जारी...)

सोमवार, मई 14, 2007

ड्रेनपाइप में होटल

द पार्क होटल, ऑतेनशाइम, ऑस्ट्रियाकोई ज़रूरी नहीं कि विवादों से ही कला को मान्यता मिलती हो. यदि कलाकार व्यावहारिक और उपयोगी कृतियाँ बनाए तो न सिर्फ़ उसकी दुनिया भर में चर्चा होती है, बल्कि उसकी तारीफ़ भी होती है.

चर्चा और सराहना का ये शुभ-संयोग ऑस्ट्रिया के आंद्रियास स्ट्रॉस के नाम भी आया है. स्ट्रॉस कला की शिक्षा ले रहे हैं. यूरोप के अधिकांश छात्रों की तरह ही उन्हें भी बैकपैकिंग या कम पैसे ख़र्च करते हुए लंबी-लंबी पर्यटन यात्राएँ करने का शौक है. और इन यात्राओं के दौरान उन्हें सस्ते होटलों की गंदगी का अनुभव हुआ. स्ट्रॉस ने अपनी पहली प्रमुख कलाकृति में अपने इसी अनुभव की रचनात्मक भड़ास निकाली. और जन्म हुआ, एक बहुत ही साफ़-सुथरे 'होटल' का.

इस होटल में अभी मात्र तीन कमरे हैं. तीनों कमरे Ottensheim शहर में डैन्यूब के किनारे एक पार्क में रखे हुए हैं. जी हाँ रखे हुए हैं...क्योंकि ये कोई आम कमरे नहीं, बल्कि शहरों के नाले में प्रयुक्त कंक्रीट की पाइप के परिवर्तित रूप हैं.

तीन कमरों या यूनिटों की इस व्यवस्था को नाम दिया गया है- Das Park Hotel या 'द पार्क होटल'. कंक्रीट की ड्रेनपाइप में डबल-बेड लगाया गया है. दो मीटर व्यास वाली पाइप में अच्छी-ख़ासी जगह है. इसलिए इसमें एक छोटे स्टोरेज-स्पेस या अलमारी की व्यवस्था भी संभव हो सकी है. इसमें एक लैम्प है, एक खिड़की है और मोबाइल फ़ोन, आइपॉड आदि को चार्ज करने के लिए एक प्लग-प्वाइंट भी है.

ड्रेनपाइप का...माफ़ कीजिए... कमरे का दरवाज़ा, इलेक्ट्रॉनिक व्यवस्था से खुलता है. मतलब कमरा छोड़ कर आप पास के सार्वजनिक शौचालय या रेस्तराँ तक गए तो आपकी चीज़ें पूरी तरह सुरक्षित रहेंगी. क्योंकि आपके द्वारा रिज़र्व किए गए समय में कमरे को खोलने का यूनिक़-कोड सिर्फ़ आपके पास होगा.

ड्रेनपाइप में रहने का स्वप्निल अनुभव...और कहीं ये तो नहीं सोच रहे कि रात में आप सो रहे हों और शरारती तत्व ड्रेनपाइप को लुढ़का कर डैन्यूब में गिरा दे! नहीं जनाब, ऐसा संभव नहीं दिखता. एक तो ऑस्ट्रिया के इस शहर में लुच्चे-लफंगों का आतंक नहीं, और दूसरे किसी ने शरारत करने की ठानी भी तो कम-से-कम क्रेन की व्यवस्था तो करनी ही होगी...क्योंकि हर ड्रेनपाइप नौ टन वज़नी है!

यदि पार्क जैसे सार्वजनिक स्थल में संपूर्ण निजता का लुत्फ़ उठाना चाहते हैं, तो देर किस बात की. जल्दी से www.dasparkhotel.net पर जा कर अपना कमरा रिज़र्व कराएँ. कितना ख़र्च आएगा? ये सवाल तो पूछिए भी मत. स्ट्रॉस साहब की यह अनूठी कला-परियोजना Pay As You Wish की व्यवस्था से चलती है. यानि जाको रही भावना जैसी. मतलब जितना आर्थिक सहयोग उचित लगे करें.

ऑस्ट्रिया के स्वप्नदर्शी कला छात्र आंद्रियास स्ट्रॉस के, उन्हीं के शब्दों में, 'a new kind of hospitality-tool in public Space' में आपका स्वागत है!

गुरुवार, अप्रैल 26, 2007

'जापानी नौसेना' के बदलते अंदाज़

जापानी नौसैनिक
द्वितीय विश्व युद्ध में पराजित होने के बाद अमरीका के निर्देश पर जापान का जो संविधान रचा गया था उसमें सशस्त्र सेना की कोई जगह नहीं है. सशस्त्र सेनाओं की जगह जापान का आत्मरक्षा बल या सेल्फ़ डिफ़ेंस फ़ोर्स (SDF) है. इसकी सशस्त्र सेनाओं की तरह ही थल, जल और वायु की तीन शाखाएँ हैं. यानि आधिकारिक रूप से जापान की कोई नौसेना भी नहीं है, और उसके समुद्री बल का नाम है- MSDF या Maritime Self-Defence Force.

दरअसल 1947 में जापान का जो संविधान रचा गया, या अमरीका ने उसके लिए जो संविधान तैयार किया, उस पर द्वितीय विश्व युद्ध के उन दिनों के छाया स्पष्ट दिखती है जब जापानी सैनिक चीन समेत पूर्वी एशिया और प्रशांतीय क्षेत्र के देशों को रौंद रहे थे. उसके ख़ौफ़ से ब्रितानी साम्राज्यवादी भी थरथरा रहे थे. इसलिए अंतत: एटम बम की मार के साथ हुई जापान की पराजय के बाद विजयी ताक़तों की सलाह पर अमरीका ने उसके संविधान में 'अनुच्छेद 9' नामक ऐसा पेंच डाल दिया कि वह कभी दोबारा हमला नहीं कर सके. बदले में अमरीका ने उसकी सुरक्षा की पूरी ज़िम्मेवारी अपने कंधों पर लेने का काम भी किया.

जापानी संविधान के नौवें अनुच्छेद में दोटूक शब्दों में लिखा गया है कि 'जापानी जनता हमेशा के लिए राष्ट्र के युद्ध करने के संप्रभु अधिकार, और अंतरराष्ट्रीय विवादों को ताक़त के ज़ोर पर हल करने की धमकी का त्याग करती है...जापान जल, थल और वायु सेना के साथ-साथ युद्ध का कारक बनने वाले किसी भी बल को धारण नहीं करेगा.'

जापानी संविधान के इस नौवें अनुच्छेद को 'शांति अनुच्छेद' के नाम से जाना जाता है. और, विश्ववास नहीं होता कि संविधान लागू होने के कई साल बाद तक जापान का कोई अपना सशस्त्र बल नहीं था. लेकिन 1950 के दशक के शुरू में अमरीका को लगने लगा कि निहत्था जापान कोई अच्छी बात नहीं है. दरअसल तब शीतयुद्ध शुरू हो चुका था, और सोवियत साम्यवाद दुनिया भर में पसरने लगा था. ऐसे ही माहौल में जापान में अमरीकी प्रशासन के कमांडर जनरल डगलस मैकआर्थर ने वहाँ एक सशस्त्र National Police Reserve के गठन का आदेश दिया. और, यही NPR आगे चल कर Self-Defence Forces के रूप में विकसित हुआ.

जैसा कि इस लेख के शुरू में ज़िक्र किया गया है, जापान की सुरक्षा की पूरी गारंटी अमरीका ने उठा रखी है. अमरीका-जापान सुरक्षा संधि के तहत जापान में क़रीब 40 हज़ार अमरीकी सैनिक तैनात हैं. इसी के साथ अमरीका ने जापान के ऊपर घोषित तौर पर आणविक सुरक्षा छतरी भी तान रखी है.

इसलिए एसडीएफ़ के गठन पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय, ख़ास कर पूर्वी एशिया के देशों की चिंता स्वभाविक ही थी. लेकिन तब अमरीका ने जापान की वकालत करते हुए अंतरराष्ट्रीय समुदाय को समझाया कि SDF के गठन से जापानी संविधान का कोई उल्लंघन नहीं होता क्योंकि इसका एकमात्र उद्देश्य रक्षात्मक है.

लेकिन उसके बाद जापनी आत्मरक्षा बल का आकार और उसकी क्षमता में लगातार बढ़ोत्तरी ही होती गई है. आज जापान दुनिया की बड़ी और संपन्न सैनिक ताक़तों की पहली पंक्ति में खड़ा है. यदि बजट की बात करें तो पिछले साल जापान सरकार ने ढाई लाख थल सैनिकों, नौसैनिकों और वायुसैनिकों वाले एसडीएफ़ पर क़रीब 50 अरब डॉलर ख़र्च किए. राष्ट्रीय सेना पर इससे ज़्यादा ख़र्च सिर्फ़ दो और देश करते हैं- अमरीका और चीन.

जापानी आत्मरक्षा बल के ज़मीनी रक्षा विभाग में कोई डेढ़ लाख सैनिक हैं. उनके पास एक हज़ार अत्याधुनिक टैंक और अन्य समुन्नत साज़ोसामान हैं. इसी तरह वायु रक्षा विभाग में 373 लड़ाकू विमान के साथ क़रीब 50 हज़ार वायु सैनिक हैं. जहाँ तक जलीय रक्षा बल की बात है तो यह विभाग तुलनात्मक रूप से सर्वाधिक समृद्ध है. जापानी की जलीय रक्षा बल में कार्यरत कोई 45 हज़ार नौसैनिकों के ज़िम्मे 16 पनडुब्बियों और 53 विध्वंसक पोत समेत कुल 151 युद्धक पोत हैं. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देखें तो ये एक बहुत ही बड़ी नौसैनिक ताक़त है.

इतनी समुन्नत सेना होने के बावजूद पाँच साल पहले तक जापानी सैनिकों के बारे में कहीं कोई चर्चा नहीं होती थी, न उनकी तस्वीरें छपती थीं. संविधान की कड़ी शर्तों से बंधे जापानी आत्मरक्षा बल की पूरी ऊर्जा जापानी द्वीपों के इर्दगिर्द ही केंद्रित रही हैं.

लेकिन 11 सितंबर 2001 में न्यूयॉर्क और वाशिंग्टन में हुए हमलों के तुरंत बाद अमरीका ने जापान की सैनिक ताक़त को लेकर थोड़ी और नरमी दिखाने का संकेत दिया. आतंकवाद के ख़तरे की आड़ में जापानी संसद ने अक्तूबर 2001 में जो क़ानून पारित किया उसमें यह व्यवस्था है कि आंतकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में जापान अमरीका का साथ दे सकेगा. हालाँकि हमले की कार्रवाइयों में जापानी बलों को लगाने की इजाज़त अब भी नहीं होगी. इसके दो साल बाद एक और क़ानून पारित किया गया जिसमें जापानी बलों को इराक़ में अनाक्रमक भूमिका में तैनात करने की छूट है. और तीसरा महत्वपूर्ण क़ानून इस साल पारित किया गया है. इसमें देश की 'रक्षा एजेंसी' का नाम बदल कर 'रक्षा मंत्रालय' करने का फ़ैसला किया गया है.

कहने को तो ये क़दम सांकेतिक हो सकते हैं, लेकिन इसमें अनिष्ट की आशंका देखने वालों की संख्या कम नहीं है. ज़ाहिर है, सबसे ज़्यादा आपत्ति चीन और उत्तर कोरिया को है. क्योंकि अमरीका से छत्तीस का आंकड़ा रखने वाले ये देश अपने इलाक़े में मौजूद उसके परम-मित्र राष्ट्र जापान के बदलते तौर-तरीकों को लेकर चिंतित हैं.

कहने को तो जापान में रक्षा बजट को देश के सकल घरेलू उत्पाद के एक प्रतिशत से ज़्यादा नहीं करने का बंधन है. लेकिन यदि जापान को खुला छोड़ दिया जाए, या फिर चीन के बढ़ते प्रभुत्व की काट के नाम पर उसे अमरीका की शह मिलने लगे तो उसके अग्रणी आक्रामक ताक़त के रूप में परिवर्तित होने में दशक भर का भी समय नहीं लगेगा. और, यदि ऐसा हुआ तो अभी मलक्का जलडरमरुमध्य इलाक़े में जलदस्यु गिरोहों के ख़िलाफ़ गश्त लगाने वाले जापानी MSDF के, साम्राज्यवादी Imperial Navy में तब्दील होते क्या देर लगेगी!

मंगलवार, अप्रैल 03, 2007

'चीन गणतंत्र' के डाक-टिकट पर 'ताइवान'

ताइवान के नाम का डाक-टिकटचीन नाम से दो देश हैं. पहला है चीन लोकतांत्रिक गणराज्य, जिसे कि आमतौर पर सिर्फ़ चीन कहा जाता है. दूसरा है चीन गणतंत्र, जिसे आमतौर पर ताइवान के नाम से जाना जाता है.

संपूर्ण चीन के प्रतिनिधि के रूप में ताइवान (चीन गणतंत्र) संयुक्त राष्ट्र के संस्थापक राष्ट्रों में से एक था. सुरक्षा परिषद का सदस्य था. लेकिन 1971 में संयुक्त राष्ट्र में ताइवान की जगह चीन (चीन लोकतांत्रिक गणराज्य) को दे दी गई. इतना ही नहीं चीन ने अपनी 'एक चीन' नीति पर सख़्ती से अमल करते हुए ताइवान के स्वतंत्र अस्तित्व को अवैध करार दिया. चीन ने खुलेआम घोषणा कर दी कि जो कोई देश ताइवान को स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता देगा, उसके साथ चीन कोई संबंध नहीं रखेगा. अब आलम ये है कि मात्र 24 देशों का ताइवान के साथ कूटनीतिक रिश्ता है. यानि, दो दर्जन देश ही ताइवान को एक अलग देश के रूप में मान्यता देते हैं. इन देशों में से कुछ इतने पिद्दी हैं कि चीन उनके ताइवान को मान्यता देने की बात पर गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत ही नहीं समझता. इसके बाद भी कोई संदेह नहीं कि आने वाले महीनों और वर्षों में 24 देशों की ये सूची छोटी होती जाएगी.

चीन ने संयुक्त राष्ट्र ही नहीं, बल्कि उन सभी अंतरराष्ट्रीय संगठनों से ताइवान को बाहर करा रखा है, जिनका थोड़ा-सा भी महत्व है. स्काउट आंदोलन के विश्व संगठन में ताइवान को चीनी प्रतिनिधि के रूप में जगह सिर्फ़ इसलिए मिली हुई है, क्योंकि ख़ुद चीन इस संगठन का सदस्य नहीं है.

ओलंपिक खेलों में ताइवान की टीम चीनी टीम से अलग जाती तो है, लेकिन उसे 'चीन गणतंत्र' या 'ताइवान' के नाम से भाग नहीं लेने दिया जाता. ओलंपिक में ताइवान की टीम 'चीनी ताइपेई' की टीम के नाम से जानी जाती है. ताइपेई ताइवान का सबसे बड़ा नगर और राजधानी है. ओलंपिक खेलों में चीनी ताइपेई के नाम से भाग लेने वाले ताइवानी खिलाड़ी अपना राष्ट्रीय ध्वज नहीं फहरा सकते हैं, अपना राष्ट्रगान नहीं गा सकते हैं. इतना ही नहीं ताइवानी दर्शक भी ओलंपिक खेलों के दौरान अपने खिलाड़ियों के समर्थन में राष्ट्र ध्वज नहीं लहरा सकते.

अमरीका और जापान के ताइवान के साथ घनिष्ठ संबंध हैं, लेकिन ये दोनों देश भी चीन को नाराज़ नहीं करना चाहते, और ताइवान को परोक्ष रूप से ही मान्यता देते हैं. मसलन, ताइवान में अमरीका की मौजूदगी 'अमेरिकन इंस्टीट्यूट इन ताइवान' के नाम से है, जबकि अमरीका में ताइवान की उपस्थिति 'ताइपेई इकॉनोमिक एंड कल्चरल रिप्रेजेन्टेटिव ऑफ़िस' के मुखौटे के साथ है.

अमरीका को नाम से कोई ख़ास मतलब नहीं है. उसे तो बस इस बात से मतलब है कि चीन की नाक के नीचे ताइवान रूपी उसका चेला खड़ा है. अमरीका ताइवान पर चीन का क़ब्ज़ा बिल्कुल नहीं चाहता, लेकिन वह ये भी नहीं चाहता कि ताइवान ख़ुलेआम अपनी स्वतंत्रता की घोषणा करे. मतलब अमरीका अभी तक तो यथास्थिति के पक्ष में है. लेकिन, तेज़ी से बदलती भूराजनैतिक परिस्थितियों के मद्देनज़र पता नहीं कितने वर्षों तक वह ताइवान के ख़िलाफ़ चीन के शक्ति-प्रदर्शन को टाल पाएगा.

जहाँ तक चीन सरकार की बात है तो वह ताइवान को 'चीन गणतंत्र' के बजाय 'ताइवान प्रांत' के रूप में प्रचारित करती है. चीन के सरकारी नक्शों में उसे ताइवान प्रांत के रूप में ही चित्रित किया जाता है. यानि 'प्रांत' शब्द के साथ जुड़ा हो तो चीन को 'ताइवान' शब्द से चिढ़ नहीं है. लेकिन सिर्फ़ 'ताइवान' या फिर 'ताइवान गणतंत्र' जैसे नाम चीन को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं.

इसके बावजूद पिछले कुछ महीनों से ताइवानी सरकार ताइवान शब्द का प्रयोग बढ़ाते जा रही है. कई मामलों में तो नामों में चीन शब्द की जगह ताइवान शब्द डाला गया है. सरकारी डाक-विभाग को पहले 'चाइना पोस्ट' के नाम से जाना जाता था, जो अब 'ताइवान पोस्ट' है. सरकारी पेट्रोलियम और जहाज़रानी कंपनियों के नामों में भी चीन की जगह ताइवान डाल दिया गया है. इसी तरह ताइपेई के 'चियांग काइ-शेक स्मारक' का नाम बदल कर 'ताइवान लोकतंत्र स्मारक' कर दिया गया है.

ज़ाहिर है ताइवान शब्द का प्रचलन कर मौजूदा ताइवानी सरकार सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को धार दे रही है, चीन के आगे सीना फुलाने की कोशिश कर रही है. ताइवानी सरकार के इसी नए रवैये का उदाहरण है फ़रवरी में जारी डाक-टिकट जिसमें पहली बार चीन गणतंत्र की जगह ताइवान शब्द छापा गया है. ताइवानी सरकार ने विदेश में स्थित अपने अनौपचारिक कूटनीतिक केंद्रों के नामों में भी ताइवान शब्द डालने की मंशा जताई है.

चीन गणतंत्र के नाम से ताइवानी डाक-टिकटलेकिन चीन की बढ़ती ताक़त को देखते हुए लगता नहीं कि अपने नए रूप में ताइवानी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ज़्यादा ऊँची उड़ान भर पाएगा. ताइवान के नाम से डाक-टिकट जारी किए जाने को चीन के विरोध की थाह लेने की एक कोशिश के रूप में देखा जाना ही ज़्यादा उचित लगता है.

गुरुवार, मार्च 08, 2007

बचा जा सकता है इस प्राकृतिक आपदा से

एस्टेरॉयड की टक्कर, चित्र कल्पना- नासाअमरीकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने यह कह कर चौंका दिया है कि धरती को नुक़सान पहुँचाने में सक्षम अंतरिक्षीय पिंडों का समय रहते पता लगाने की क़ाबिलियत तो उसके पास है, लेकिन इस काम के लिए ज़रूरी धन उसके पास नहीं है. नासा की यह परेशानी वाशिंग्टन में Planetary Defense Conference में प्रस्तुत एक रिपोर्ट में सामने आई है. सौर मंडल में अपनी कक्षाओं में घूमते या भटकते हुए धरती के पास आ सकने वाले ऐसे पिंडों(धूमकेतु भी शामिल) को वैज्ञानिकों ने Near-Earth Objects या 'निओ' नाम दिया है.

धरती को 20 हज़ार से ज़्यादा अंतरिक्षीय पिंडों से ख़तरा बताया जाता है. अमरीकी अंतरिक्ष एजेंसी का कहना है कि वर्ष 2020 तक वह इनमें से कम से कम 90 प्रतिशत का पता लगाने में सक्षम है, लेकिन इसके लिए ज़रूरी एक अरब डॉलर की राशि की व्यवस्था कर पाना उसके लिए संभव नहीं है. (मालूम रहे कि अमरीका इराक़ में इतना धन हर पखवाड़े ख़र्च कर रहा है.)

अंतरराष्ट्रीय खगोलविदों को सबसे ज़्यादा डर एपोफ़िस नामक उल्का पिंड को लेकर है. करीब 400 मीटर आकार के इस एस्टेरॉयड के 2036 में धरती के पास होने की गणना की गई है. इसके धरती से टकराने की आशंका 45,000 में एक मानी जा रही है. यदि मौजूदा अनुमानों के मुताबिक यह किसी आबादी वाले इलाक़े पर नहीं, बल्कि प्रशांत महासागर में गिरता है तो भी इससे होने वाले नुक़सान की कल्पना नहीं की जा सकती. बहुत कम विनाश हुआ तो भी प्रशांत महासागर से जुड़े कई देश तबाह हो जाएँगे, और सुनामी के चलते अमरीका के पश्चिमी तट पर मौत का तांडव होगा.

इस सप्ताह वाशिंग्टन में हुए सम्मेलन में जिन बातों पर विचार किया गया उनमें प्रमुख थे- किस आकार के निओ पिंडों को धरती के लिए वास्तविक ख़तरा माना जाए, धरती से भिड़ने को तत्पर अंतरिक्षीय पिंडों से किन उपायों से पार पाया जा सकता है और यदि ऐसी कोई टक्कर टालने से भी नहीं टल रही हो तो लोगों को ख़तरे की पूरी जानकारी दी जाए या नहीं!

धरती से टक्कर लेने को तैयार दिख रहे किसी अंतरिक्षीय पिंड से निपटने के जिन तरीक़ों की चर्चा अक्सर की जाती हैं, वे हैं- मिसाइल प्रहार से पिंड को नष्ट कर देना; उसके क़रीब परमाणु बम फोड़ कर उसकी राह बदल देना; धरती तक पहुँचने से बरसों पहले पिंड के ऊपर एक विशालकाय यान उतार कर उसे राह से भटकाने का प्रयास करना; या उस पर शक्तिशाली लेज़र बीम डाल कर उसकी कक्षा बदलने की कोशिश करना.

टक्कर मारने का विकल्प सबसे आसान, लेकिन सबसे ख़तरनाक है क्योंकि टक्कर के बाद पिंड के टुकड़े भी धरती की दिशा में बढ़ते रह सकते हैं. या टक्कर धरती से ज़्यादा दूर नहीं हुई तो अतिरिक्त ऊर्जा का प्रवाह धरती तक पहुँच कर नुक़सान कर सकते हैं. एस्टेरॉयड को दूर ठेलने का उपाय सबसे भरोसेमंद माना जाता है, बशर्ते संभावित टक्कर से कम से कम एक दशक पहले ये प्रयास शुरू कर दिया जाए.

लेकिन इन उपायों को आजमाने के लिए ज़रूरी है कि समय रहते सभी ख़तरनाक निओ पिंडों का पता लगाया जाए. वैज्ञानिकों का मानना है कि 40 मीटर आकार तक के पिंड धरती के वायुमंडल को पार करते-करते ही स्वाहा हो जाते हैं. इससे बड़े पिंड को वायुमंडल नहीं रोक पाएगा. एक किलोमीटर आकार तक के निओ पिंड टक्कर वाले इलाक़े में कहर बरपा सकते हैं. इससे भी बड़े पिंड की टक्कर का प्रत्यक्ष या परोक्ष असर पूरी धरती पर पड़ेगा. और वैज्ञानिकों की ही मानें तो एक किलोमीटर से बड़े आकार के 1100 निओ पिंडों का अस्तित्व तो ज़रूर ही होगा.

नासा के ताज़ा आंकड़ों की बात करें तो फ़रवरी महीने के अंत तक कुल 4566 निओ पिंड खोजे जा चुके थे, जिनमें से 705 का आकार एक किलोमीटर से बड़ा है. खोजे गए निओ पिंडों में से 847 को ख़तरनाक एस्टेरॉयड के रूप में चिन्हित किया गया है.

धरती को संभावित विनाश(डायनोसोर किसी एस्टेरॉयड के धरती से टकराने के कारण ही विलुप्त हुए) से बचाने के लिए पहला काम है सारे निओ पिंडों का पता लगाना. ख़ुशी की बात है कि संयुक्तराष्ट्र ने इस मामले में पहल कर दी है. इसी साल मई में स्ट्रॉसबर्ग में एक सम्मेलन में एस्टेरॉयड के धरती से टक्कर की आशंका के मुद्दे पर एक अंतरराष्ट्रीय संधि की रूपरेखा तय की जाएगी. आशा है, सम्मेलन में नासा के धनाभाव के बहाने पर भी विचार किया जाएगा.

मंगलवार, फ़रवरी 27, 2007

बीमारी हमारी, और फ़ायदा तुम्हारा?

विश्व स्वास्थ्य संगठन और बहुराष्ट्रीय दवा निर्माता कंपनियों से सफलतापूर्वक पंगा लेकर इंडोनेशिया ने एक ऐसा रास्ता तैयार किया है, जिस पर चल कर भारत समेत तमाम विकासशील देश फ़ायदा उठा सकते हैं.

इंडोनेशिया की इस सफल लड़ाई की जड़ में है बर्ड फ़्लू की बीमारी. चिड़ियों के ज़रिए फैलने वाली ऐसी बीमारी, जिसके मानवीय महामारी का रूप लेने की आशंका लगातार बनी हुई है. सर्वाधिक डर यूरोपीय देशों को है, हालाँकि इस बीमारी की चपेट में आकर मनुष्यों के मरने की लगभग सभी घटनाएँ अभी पूर्वी एशियाई देशों तक ही सीमित रही हैं.

वैसे, यूरोपीय देशों के दरवाज़े पर बर्ड फ़्लू ने दस्तक ज़रूर दे दी है. इसी महीने ब्रिटेन के एक टर्की फ़ार्म में बर्ड फ़्लू का मामला पकड़ में आया. बीमारी एक फ़ार्म के पक्षियों तक ही सीमित थी, इसलिए क़रीब एक लाख साठ हज़ार टर्कियों को मार कर उसके प्रसार की आशंका आसानी से समाप्त कर दी गई.

बर्ड फ़्लू के अभी तक सामने आए रूपों में सबसे ख़तरनाक है एच5एन1 प्रकार के वायरस से फैलने वाला बर्ड फ़्लू. यह वायरस यूरोप में हंगरी, जर्मनी और ब्रिटेन तक पहुँच गया है. इसके ख़िलाफ़ एक कारगर दवाई या टीका बनाने के लिए ज़रूरी है कि एच5एन1 की उत्पत्ति और विकास का लगातार अध्ययन किया जाए.

एच5एन1 के शुरुआती नमूने इंडोनेशिया के पास हैं. जहाँ इस वायरस की चपेट में आकर कई लोग मारे भी जा चुके हैं. और, स्थापित अंतरराष्ट्रीय परंपराओं के अनुसार इंडोनेशिया इस बात के लिए बाध्य है कि वो एक ख़तरनाक बीमारी से जुड़े नमूने नियमित रूप से विश्व स्वास्थ्य संगठन को सौंपे. लेकिन इंडोनेशिया ने पिछले दिनों ऐसा करने से इनकार कर दिया.

इंडोनेशिया ने बर्ड फ़्लू मामले में सहयोग नहीं करने के दो प्रमुख कारण बताए. पहला कारण ये कि विश्व स्वास्थ्य संगठन को सौंपे जाने के बाद बीमारी के नमूने बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों तक पहुँच जाएँगे. बीमारी के नमूनों का अध्ययन करते हुए दवा कंपनियाँ दवाइयाँ या टीके बना कर ख़ुद तो अरबों डॉलर कमाएँगीं, लेकिन इंडोनेशिया को धेला तक नहीं देंगी.

इंडोनेशिया का दूसरा तर्क ये था कि यदि बीमारी ने विश्वव्यापी महामारी का रूप लिया तो पश्चिमी दवा कंपनियाँ पहले विकसित देशों की सरकारों को दवाइयों की आपूर्ति सुनिश्चत करेंगी जहाँ उनके अधिकतर उत्पादन केंद्र स्थित हैं. दवा कंपनियों की इस प्राथमिकता की कई मिसालें पहले से ही मौजूद हैं.

विज्ञान पत्रिका 'न्यू साइंटिस्ट' के अनुसार इंडोनेशिया ने भले ही विरोध करने का फ़ैसला अब किया हो, लेकिन समस्या दशकों पुरानी है. चूँकि अन्य कई प्रकार के विषाणुओं और जीवाणुओं के समान फ़्लू वायरस भी दवाओं के ख़िलाफ़ ख़ुद को ढालने की काबिलियत रखते हैं, इसलिए हर देश प्रत्येक साल विश्व स्वास्थ्य संगठन को वायरस के नए नमूने सौंपता है ताकि टीकों को अद्यतन बनाया जा सके, अपडेट किया जा सके.

पिछले दिनों इंडोनेशिया ने विश्व स्वास्थ्य संगठन को दो टूक शब्दों में कह दिया कि अनुसंधान के लिए वह फ़्लू वायरस के नए नमूने तभी सौंपेगा, जब उसे नमूनों के किसी व्यावसायिक परियोजना में उपयोग नहीं किए जाने की गारंटी दी जाती हो. साथ ही, इंडोनेशिया ने मेलबोर्न की दवा कंपनी सीएसएल के ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई की धमकी भी दे डाली, जिसने विश्व स्वास्थ्य संगठन को इससे पहले सौंपे गए इंडोनेशियाई नमूनों के आधार पर एक नया टीका तैयार करने की घोषणा की थी.

अब ताज़ा जानकारी ये है कि इंडोनेशिया सरकार की माँग के आगे विश्व स्वास्थ्य संगठन को झुकना पड़ा है. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इंडोनेशिया को उसके एच5एन1 नमूनों के आधार पर तैयार टीकों में साझेदारी दिलवाने का आश्वासन दिया है. इसके अलावा इंडोनेशिया को अपने यहाँ बर्ड फ़्लू टीका उत्पादन केंद्र बनाने में भी सहायता दी जाएगी.

इतना ही नहीं, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पूरी दुनिया को यह समझाने के लिए इंडोनेशिया की तारीफ़ की है कि वायरस के नमूने उपलब्ध कराने वाले देशों को नए टीकों के साथ-साथ बाक़ी फ़ायदे भी मिलने चाहिए.

आशा है, 'बायोपाइरेसी' के ख़िलाफ़ इंडोनेशिया की सफल लड़ाई से अन्य विकासशील देश भी सीख ले सकेंगे. साथ ही, विश्व स्वास्थ्य संगठन को भी बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों की खुली लूट पर रोक लगाने का संबल मिल सकेगा.

बुधवार, फ़रवरी 21, 2007

अरुंधति राय का हिंसक मन

एक दशक से भी ज़्यादा समय से किसी न किसी कारण चर्चा में रही बुकर पुरस्कार विजेता अरुंधति राय पिछले हफ़्ते एक बार फिर सुर्खियों में रहीं. उन्होंने पत्रकारों को बताया कि वे अपना दूसरा उपन्यास लिख रही हैं. सचमुच ही ये एक बड़ी ख़बर है, क्योंकि बीते एक दशक के दौरान अरुंधति राय ने कई बार कहा था कि 'द गॉड ऑफ़ स्माल थिंग्स' लिखने के बाद वह कोई और उपन्यास लिखने की ज़रूरत नहीं समझतीं.

दूसरा उपन्यास लिखना शुरू कर चुकने की घोषणा करते हुए जो साक्षात्कार अरुंधति ने दिए हैं, उनमें से दो मैंने भी पढ़े हैं. पहला रॉयटर्स समाचार एजेंसी ने जारी किया, और दूसरा लंदन के अख़बार गार्डियन में छपा. इन साक्षात्कारों में अरुंधति ने अपने दूसरे उपन्यास के बार में साफ़-साफ़ कुछ नहीं बताया, लेकिन कुछ संकेत ज़रूर छोड़े हैं. इन संकेतों की बात आगे, पहले इंटरव्यू में दो टूक शब्दों में व्यक्त किए गए अरुंधित के वे विचार जो कि गांधीगिरी के ख़िलाफ़ तो हैं ही, परोक्ष रूप से ख़ून-ख़राबे के समर्थन में भी हैं.

अमरीकी साम्राज्यवाद से लेकर, परमाणु हथियारों की होड़, नर्मदा पर बाँध निर्माण आदि कई स्थानीय-अंतरराष्ट्रीय मुद्दों के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करती रही हैं अरुंधति राय. लेकिन अब उनका मानना है कि कम से कम भारत में अहिंसक विरोध प्रदर्शनों और नागरिक अवज्ञा आंदोलनों से बात नहीं बन रही है.

संसदीय व्यवस्था का अंग बने साम्यवादियों और हिंसक प्रतिरोध में भरोसा रखने वाले माओवादियों की विचारधाराओं के द्वंद्व में फंसी अरुंधति स्वीकार करती हैं कि वो गांधी की अंधभक्त नहीं हैं. उन्हीं के शब्दों में- "आख़िर गांधी एक सुपरस्टार थे. जब वे भूख-हड़ताल करते थे, तो वह भूख-हड़ताल पर बैठे सुपरस्टार थे. लेकिन मैं सुपरस्टार राजनीति में यक़ीन नहीं करती. यदि किसी झुग्गी की जनता भूख-हड़ताल करती है तो कोई इसकी परवाह नहीं करता."

अरुंधति का मानना है कि बाज़ारवाद के प्रवाह में बहते चले जा रहे भारत में विरोध के स्वरों को अनसुना किया जा रहा है. जनविरोधी व्यवस्था के ख़िलाफ़ न्यायपालिका और मीडिया को प्रभावित करने के प्रयास नाकाम साबित हुए हैं. उन्होंने कहा, "मैं समझती हूँ हमारे लिए ये विचार करना बड़ा ही महत्वपूर्ण है कि हम कहाँ सही रहे हैं, और कहाँ ग़लत. हमने जो दलीलें दी वे सही हैं... लेकिन अहिंसा कारगर नहीं रही है."

न्यायपालिका की अवमानना के आरोप में संक्षिप्त क़ैद काट चुकी अरुंधति का स्पष्ट कहना है कि वह हथियार उठाने वाले लोगों की निंदा नहीं करतीं. उन्होंने रॉयटर्स को इंटरव्यू में कहा, "मैं ये कहने की स्थिति में नहीं हूँ कि हर किसी को हथियार उठा लेना चाहिए, क्योंकि मैं ख़ुद हथियार उठाने को तैयार नहीं हूँ... लेकिन साथ ही मैं उनलोगों की निंदा भी नहीं करना चाहती जो प्रभावी होने के दूसरे तरीकों का रुख़ कर रहे हैं."

अपने इस विचार को उन्होंने गार्डियन को दिए साक्षात्कार में थोड़ा और स्पष्ट किया- "मेरे लिए किसी को हिंसा का उपदेश देना अनैतिक होगा, जब तक मैं ख़ुद हिंसा पर उतारू नहीं हो जाती. लेकिन इसी तरह, मेरे लिए विरोध प्रदर्शनों और भूख-हड़तालों की बात करना भी अनैतिक होगा, जब मैं घिनौनी हिंसा से सुरक्षित हूँ. मैं निश्चय ही इराक़ियों, कश्मीरियों या फ़लस्तीनियों को ये नहीं कह सकती कि वे सामूहिक भूख-हड़ताल करें तो उन्हें सैन्य क़ब्ज़े से मुक्ति मिल जाएगी. नागरिक अवज्ञा आंदोलन सफल होते नहीं दिख रहे."

अरुंधति को सत्ता प्रतिष्ठानों द्वारा अहिंसक जनांदोलनों को नज़रअंदाज़ किए जाने का व्यक्तिगत अनुभव नर्मदा आंदोलन से जुड़ कर हुआ. उनका कहना है कि नर्मदा आंदोलन एक गांधीवादी आंदोलन है जिसने वर्षों तक हर लोकतांत्रिक संस्थान के दरवाज़े पर दस्तक दी, लेकिन इससे जुड़े कार्यकर्ताओं को हमेशा अपमानित होना पड़ा. किसी भी बाँध को नहीं रोका गया, उल्टे बाँध निर्माण सेक्टर में नई तेज़ी आई.

इन साक्षात्कारों में अरुंधति राय ने स्वीकार किया है कि विरोधी विचारधारा के लोग उनसे घृणा करते हैं, लेकिन फिर भी वह भारत में रहना चाहेंगी, जो कि पागलपन के एक दौर से गुजर रहा है. जहाँ एक ओर तो लोगों को उनके गाँवों से बेदखल किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर इन सबसे बेख़बर मध्यवर्ग उपभोक्तावाद के भोगविलास में लिप्त है.

...और अंत में बात उन संकेतों की जो अरुंधति के दूसरे उपन्यास की विषयवस्तु की ओर इशारा करते हैं. गार्डियन के पत्रकार ने उनके यहाँ कई किताबें देखीं- एक किताब पॉप स्टार बोनो की जिन्होंने अफ़्रीकी देशों को सरकारों और धनपतियों से आर्थिक सहायता दिलवाने के लिए काफ़ी कुछ किया है. इसके अलावा फ़्रांसीसी क्रांति के पक्षधर थॉमस पाइन और चार्ल्स डिकेन्स की किताबें भी दिखीं. दूसरी ओर रॉयटर्स के इंटरव्यू में इस बात का विशेष तौर पर ज़िक्र किया गया है कि अपना दूसरा उपन्यास लिखना शुरू करने से पहले अरुंधति ने कश्मीर में अच्छा-ख़ासा समय बिताया है.

इन संकेतों से तो यही लगता है कि अरुंधति के नए उपन्यास में शोषित-वंचित वर्ग के संघर्षों की बात होगी. क्या पता उपन्यास की पृष्ठभूमि कश्मीर की हो और निशाने पर दिल्ली का सत्ता तंत्र हो!