चीन नाम से दो देश हैं. पहला है चीन लोकतांत्रिक गणराज्य, जिसे कि आमतौर पर सिर्फ़ चीन कहा जाता है. दूसरा है चीन गणतंत्र, जिसे आमतौर पर ताइवान के नाम से जाना जाता है.
संपूर्ण चीन के प्रतिनिधि के रूप में ताइवान (चीन गणतंत्र) संयुक्त राष्ट्र के संस्थापक राष्ट्रों में से एक था. सुरक्षा परिषद का सदस्य था. लेकिन 1971 में संयुक्त राष्ट्र में ताइवान की जगह चीन (चीन लोकतांत्रिक गणराज्य) को दे दी गई. इतना ही नहीं चीन ने अपनी 'एक चीन' नीति पर सख़्ती से अमल करते हुए ताइवान के स्वतंत्र अस्तित्व को अवैध करार दिया. चीन ने खुलेआम घोषणा कर दी कि जो कोई देश ताइवान को स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता देगा, उसके साथ चीन कोई संबंध नहीं रखेगा. अब आलम ये है कि मात्र 24 देशों का ताइवान के साथ कूटनीतिक रिश्ता है. यानि, दो दर्जन देश ही ताइवान को एक अलग देश के रूप में मान्यता देते हैं. इन देशों में से कुछ इतने पिद्दी हैं कि चीन उनके ताइवान को मान्यता देने की बात पर गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत ही नहीं समझता. इसके बाद भी कोई संदेह नहीं कि आने वाले महीनों और वर्षों में 24 देशों की ये सूची छोटी होती जाएगी.
चीन ने संयुक्त राष्ट्र ही नहीं, बल्कि उन सभी अंतरराष्ट्रीय संगठनों से ताइवान को बाहर करा रखा है, जिनका थोड़ा-सा भी महत्व है. स्काउट आंदोलन के विश्व संगठन में ताइवान को चीनी प्रतिनिधि के रूप में जगह सिर्फ़ इसलिए मिली हुई है, क्योंकि ख़ुद चीन इस संगठन का सदस्य नहीं है.
ओलंपिक खेलों में ताइवान की टीम चीनी टीम से अलग जाती तो है, लेकिन उसे 'चीन गणतंत्र' या 'ताइवान' के नाम से भाग नहीं लेने दिया जाता. ओलंपिक में ताइवान की टीम 'चीनी ताइपेई' की टीम के नाम से जानी जाती है. ताइपेई ताइवान का सबसे बड़ा नगर और राजधानी है. ओलंपिक खेलों में चीनी ताइपेई के नाम से भाग लेने वाले ताइवानी खिलाड़ी अपना राष्ट्रीय ध्वज नहीं फहरा सकते हैं, अपना राष्ट्रगान नहीं गा सकते हैं. इतना ही नहीं ताइवानी दर्शक भी ओलंपिक खेलों के दौरान अपने खिलाड़ियों के समर्थन में राष्ट्र ध्वज नहीं लहरा सकते.
अमरीका और जापान के ताइवान के साथ घनिष्ठ संबंध हैं, लेकिन ये दोनों देश भी चीन को नाराज़ नहीं करना चाहते, और ताइवान को परोक्ष रूप से ही मान्यता देते हैं. मसलन, ताइवान में अमरीका की मौजूदगी 'अमेरिकन इंस्टीट्यूट इन ताइवान' के नाम से है, जबकि अमरीका में ताइवान की उपस्थिति 'ताइपेई इकॉनोमिक एंड कल्चरल रिप्रेजेन्टेटिव ऑफ़िस' के मुखौटे के साथ है.
अमरीका को नाम से कोई ख़ास मतलब नहीं है. उसे तो बस इस बात से मतलब है कि चीन की नाक के नीचे ताइवान रूपी उसका चेला खड़ा है. अमरीका ताइवान पर चीन का क़ब्ज़ा बिल्कुल नहीं चाहता, लेकिन वह ये भी नहीं चाहता कि ताइवान ख़ुलेआम अपनी स्वतंत्रता की घोषणा करे. मतलब अमरीका अभी तक तो यथास्थिति के पक्ष में है. लेकिन, तेज़ी से बदलती भूराजनैतिक परिस्थितियों के मद्देनज़र पता नहीं कितने वर्षों तक वह ताइवान के ख़िलाफ़ चीन के शक्ति-प्रदर्शन को टाल पाएगा.
जहाँ तक चीन सरकार की बात है तो वह ताइवान को 'चीन गणतंत्र' के बजाय 'ताइवान प्रांत' के रूप में प्रचारित करती है. चीन के सरकारी नक्शों में उसे ताइवान प्रांत के रूप में ही चित्रित किया जाता है. यानि 'प्रांत' शब्द के साथ जुड़ा हो तो चीन को 'ताइवान' शब्द से चिढ़ नहीं है. लेकिन सिर्फ़ 'ताइवान' या फिर 'ताइवान गणतंत्र' जैसे नाम चीन को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं.
इसके बावजूद पिछले कुछ महीनों से ताइवानी सरकार ताइवान शब्द का प्रयोग बढ़ाते जा रही है. कई मामलों में तो नामों में चीन शब्द की जगह ताइवान शब्द डाला गया है. सरकारी डाक-विभाग को पहले 'चाइना पोस्ट' के नाम से जाना जाता था, जो अब 'ताइवान पोस्ट' है. सरकारी पेट्रोलियम और जहाज़रानी कंपनियों के नामों में भी चीन की जगह ताइवान डाल दिया गया है. इसी तरह ताइपेई के 'चियांग काइ-शेक स्मारक' का नाम बदल कर 'ताइवान लोकतंत्र स्मारक' कर दिया गया है.
ज़ाहिर है ताइवान शब्द का प्रचलन कर मौजूदा ताइवानी सरकार सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को धार दे रही है, चीन के आगे सीना फुलाने की कोशिश कर रही है. ताइवानी सरकार के इसी नए रवैये का उदाहरण है फ़रवरी में जारी डाक-टिकट जिसमें पहली बार चीन गणतंत्र की जगह ताइवान शब्द छापा गया है. ताइवानी सरकार ने विदेश में स्थित अपने अनौपचारिक कूटनीतिक केंद्रों के नामों में भी ताइवान शब्द डालने की मंशा जताई है.
लेकिन चीन की बढ़ती ताक़त को देखते हुए लगता नहीं कि अपने नए रूप में ताइवानी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ज़्यादा ऊँची उड़ान भर पाएगा. ताइवान के नाम से डाक-टिकट जारी किए जाने को चीन के विरोध की थाह लेने की एक कोशिश के रूप में देखा जाना ही ज़्यादा उचित लगता है.
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3 टिप्पणियां:
यह इच्छाशक्ति पर निर्भर करता है.
अगर वियेतनाम या क्युबा अमेरीका को टक्कर दे सकते है, तो ताइवान भी चीन से अलग हो सकता है.
इतना तय है, अपना अस्तित्व अंहिसा के मार्ग से नहीं बचाया ज सकता. न भीख में मिल सकता है. तिब्बत से यही सीख सकते है.
बहुत जानकारीपूर्ण लेख है - मुझे चीन और ताईवान के अंतर्संबंधों के विषय में यह जानकारी नही थी.
जानकारीपरक आलेख।
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