शनिवार, मार्च 11, 2006

इकोनोमिस्ट का बेसुरा राग

लंदन से प्रकाशित साप्ताहिक इकोनोमिस्ट ने जैसे भारत-अमरीका परमाणु समझौते को पटरी से उतारने के लिए एड़ी-चोटी एक करने की ठान ली है. बुश की यात्रा से पहले अपने संपादकीय में इसने अमरीकी राष्ट्रपति को आगाह किया कि भारत को परमाणु सौगात देना उनकी नासमझी होगी. और एक पखवाड़े की भीतर इसी मुद्दे पर दूसरी कवर स्टोरी करते हुए इसने अमरीकी संसद को सलाह दी है कि वो समझौते को नकार कर बुश को अँगूठा दिखा दे.

(इकोनोमिस्ट की नैतिकता का ढोंग मात्र एक तथ्य से स्पष्ट हो जाता है कि इसने इराक़ पर हमले के बुश के फ़ैसले के समर्थन में कई पृष्ठों का संपादकीय लिखा था, ये जानते हुए भी कि हमला सारे अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों के ख़िलाफ़ तथा संयुक्त राष्ट्र और विश्व जनमत को ठेंगा दिखाते हुए हो रहा है.)

अच्छा है कि अमरीकी राष्ट्रपति न्यूयॉर्क टाइम्स या इकोनोमिस्ट जैसे प्रकाशनों के विद्वान संपादकों की नहीं, बल्कि दशकों आगे की सामरिक परिस्थिति पर नज़र रखने वाले रणनीतिक सलाहकारों की सुनते हैं. साथ ही, ताज़ा समझौते का एक पहलू शुद्ध धंधे का भी है क्योंकि परमाणु साजोसमान की आपूर्ति करने वाली कंपनियों में सबसे ज़्यादा अमरीकी कंपनियाँ हैं.

ताज़ा संपादकीय में इकोनोमिस्ट ने डॉ. स्ट्रैंजडील कह कर बुश की खिल्ली उड़ाई है और इशारों ही इशारों में कहा है कि भारतीय परमाणु संयंत्रों को प्लूटोनियम और यूरेनियम ईंधन के बिना तड़प-तड़प कर मरने के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए. इकोनोमिस्ट के विद्वानों ने सवा पेज के संपादकीय में इस बात का ज़िक्र तक नहीं किया है कि रॉकेट गति से आगे भागती भारतीय अर्थव्यवस्था को भारी मात्रा में बिजली की ज़रूरत है.

भगवान की दया से भारत में अगले सौ वर्षों के लिए पर्याप्त कोयला भंडार है, लेकिन यदि हमें साफ-सुथरी परमाणु बिजली जुटाने में मदद नहीं दी जाती है तो थर्मल पावर स्टेशनों से निकलने वाली ग्रीनहाउस गैसों से होने वाला नुक़सान भारत तक ही सीमित नहीं रहेगा, बल्कि उससे पूरी दुनिया की जलवायु प्रभावित होगी. फ़्रांस के राष्ट्रपति ज्याक शिराक़ ने पिछले महीने अपनी भारत यात्रा के ठीक पहले एक बेबाक बयान में भारत की इस चिंता को सही स्वर दिया था- "यदि हम भारत को परमाणु बिजली पैदा करने में मदद नहीं देते हैं तो यह देश ग्रीनहाउस गैसों की चिमनी में तब्दील हो जाएगा."

इकोनोमिस्ट का बेसुरा अलाप निंदनीय तो है ही, दुख की बात है कि इसके सुर में सुर मिलाने के लिए भारत के वामपंथी और दक्षिणपंथी दोनों तैयार बैठे हैं. मौजूदा भारत-अमरीका संबंध अमरीका-इसराइल या अमरीका-ब्रिटेन जैसी पक्की दोस्ती की नींव बनता है तो इसमें नुक़सान क्या है? क्या इसराइल या ब्रिटेन को अमरीका की दोस्ती के एवज़ में अपने हितों को ताक पर रखना पड़ा है?

कृपया अपनी राय अंग्रेज़ी में इस पते पर भेजें: letters@economist.com

1 टिप्पणी:

संजय बेंगाणी ने कहा…

यह सब लोबिबाजी का ही हिस्सा हैं और भारत को इन्हे निरस्त करना सिख लेना हैं, और अपनी लोबियां भी बनानी हैं. हम जब तक भेखारी थे जहां जो दे दे वही अच्छा, पर अब प्रतिस्पर्धा करनी हैं अन्य देशो से.
अगर कोई सोचता हैं कि अपने हाल पर छोड देने से भारत को रोका जा सकता हैं तो वे भुल कर रहे हैं. आखिर भारतीय उपग्रह, मिसाइले, सुपर कम्पुटर किसकी सहायता से बने हैं?
वैसे ताज महल के साथ बुस महोदय वाला कवरपेज़ काफि सुन्दर हैं.