कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के लोकसभा की सदस्यता और राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की अध्यक्षता से इस्तीफ़े को भारतीय मीडिया में 'सोनिया ने त्याग का ब्रह्मास्त्र फेंका', 'सोनिया के त्याग की ताक़त' और 'सोनिया ने भाजपा के नहले पर दहला मारा' जैसी सुर्खियाँ मिल रही हैं. भारतीय जनता पार्टी के नेता चीख-चीखकर टेलीविज़न कैमरों के सामने कह रहे हैं कि 'सोनिया ढोंगी है', 'सोनिया अपने ही जाल में फंस गई है', 'सोनिया की पोल खुल गई' आदि-आदि. कांग्रेसियों की प्रतिक्रिया वैसी ही है जैसा कि आप उनसे अपेक्षा करते हैं, यानि 'सोनियाजी त्याग की प्रतिमूर्ति हैं', 'सोनियाजी ने नेहरू-गांधी परंपरा का एक बार फिर निर्वाह किया', 'सोनियाजी के आदर्शवाद की दुनिया में कोई मिसाल नहीं' आदि-आदि.
कहने की ज़रूरत नहीं की ऊपर के सारे नारे, सारी सुर्खियाँ सच्चाई से बहुत दूर हैं. न तो सोनिया महात्मा गांधी की नारी-अवतार हैं, और न ही भाजपाई दूध के धुले हैं.
बहुत सरल बात है: जब मुख्य विपक्षी पार्टी की अंदरूनी राजनीति में ऑफ़-द-रिकॉर्ड ब्रीफ़िंग से लेकर जूतम-पैजार तक, और धरना-प्रदर्शन से लेकर पदयात्रा तक की नौबत हो, तो ऐसे में सत्तारूढ़ दल के शीर्ष नेता के पद-त्याग के छोटे से क़दम को भी बहुत बड़े त्याग के रूप में भुनाया जा सकता है.
बात सापेक्षिक महत्व की है. किसी भी दल या नेता की छवि उसके प्रतिद्वंद्वियों की छवि के मुक़ाबले ही तय होती है. यदि प्रतिद्वंद्वी पार्टियों में नीचे से ऊपर तक पदलोलुपता के उदाहरण भरे पड़े हों, तो ऐसे में कांग्रेस पार्टी दूध की धुली ही नज़र आएगी. यदि भाजपा और सपा जैसी पार्टियों के नेता आपसी टांग-खिंचाई और टुच्ची बयानबाज़ी से आगे नहीं जा पाते हैं तो सोनिया गांधी त्याग की प्रतिमूर्ति ही नज़र आएंगी.
एक और बात बिल्कुल स्पष्ट है- जैसे कांग्रेस के बजाय कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया को निशाना बनाने की भाजपा की नीति आम चुनाव में नाकाम साबित हुई थी, उसी तरह यूपीए सरकार की नीतियों के बज़ाय यूपीए प्रमुख सोनिया को निशाना बनाने की उसकी नीति भी शायद ही कभी सफल हो.
ये बात भी साफ़ है कि सोनिया गांधी किसी पद पर रहें या नहीं, जब तक वो राजनीति में सक्रिय हैं कांग्रेस पार्टी पर सर्वाधिक दबदबा उन्हीं का रहेगा. क्योंकि बात कांग्रेस संस्कृति की है. कांग्रेसियों की आज़ादी के बाद की पीढ़ी ने हमेशा महसूस किया है कि नेहरू-गांधी परिवार की छत्रछाया में ही उनका राजनीतिक लालन-पालन बेहतर ढंग से हो सकता है.
सोनिया या उनके बच्चों को नहीं पसंद करने वाले भाजपाइयों या संघ परिवार के पास दो ही उपाय हैं- या तो वे कांग्रेसियों के दिमाग की सर्किट बदलने का इंतज़ाम करें, या फिर अपने कुनबे को सँभालते हुए बेहतर वैकल्पिक नीतियों के साथ सामने आएँ. पहला उपाय तो संभव है नहीं, सो दूसरे पर जितना प्रभावी ढंग से काम कर सकें उतना बेहतर.
यदि हर साल बोफ़ोर्स एक्स्क्लुसिव ख़बरें लाने का दावा करने वाले और पिछले दिनों भारत-अमरीका परमाणु सहयोग से सर्वाधिक फ़ायदा पाकिस्तान को होने की बात करने वाले एमजे अकबर जैसे पत्रकार भी ताज़ा नाटक के बाद सोनिया के पहले से ज़्यादा मज़बूत होकर उभरने की बात करने लगे हों, तो कहने की ज़रूरत नहीं कि आने वाले दिनों में भाजपा की हताशा और बढ़ने ही वाली है.
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2 टिप्पणियां:
बहुत अच्छा विश्लेषण है, बन्धु | पर जनता भी तो धीरे-धीरे "त्याग" की वास्तविकता समझने लग गयी है ? काठ की हाँडी कितनी बार चढेगी चूल्हे पर ?
यह तो सिर्फ़ मजबूरी को 'त्याग' और 'बलिदान' जैसे शब्दों से ढकने की एक गर्हित कोशिश भर है। बार-बार यही होता है और लोग चमचेगिरी की सारी हदें पार कर जाते हैं। क्या कहें इसे, मात्र देश का दुर्भाग्य ....
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