पाब्लो नेरुदा को काम भावनाएँ जगाने वाली प्रेम कविताओं के लिए तो जाना जाता है ही, उनकी प्रसिद्धि प्रकृति के कवि के रूप में भी है.(समर्पित साम्यवादी पाब्लो नेरुदा एक कुशल राजनयिक भी रहे थे.)
नेरुदा की कविताओं को पढ़ने के बाद कोई संदेह नहीं रह जाता है कि कंकड़-पत्थर, घास-फूस, मिट्टी-पानी ही नहीं बल्कि प्रकृति की हर कृति में प्रेम का वास है. लेकिन संपूर्ण प्रकृति में पाब्लो नेरुदा को सर्वाधिक प्रभावित किया था समुद्रों ने.
पाब्लो नेरुदा के सागर प्रेम का सबूत है शंखों, सीपियों, कौड़ियों और घोंघों का उनका संग्रह. नोबेल पुरस्कार विजेता नेरुदा समुद्र के इस उपहार को 'मोतियों की जननी के लघु देश' की उपमा देते थे.
पाब्लो नेरुदा ने दो दशकों के दौरान सात समुद्रों की यात्रा कर शंख, सीपियों, कौड़ियों और घोंघों के 9000 से ज़्यादा शैल जमा किए. उन्होंने 1954 में अपना संग्रह चिली विश्वविद्यालय को सौंप दिया था.
पहली बार अब इस संग्रह से लिए गए 435 नमूनों को सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित किया जा रहा है- स्पेन में मैड्रिड के सेरवाँतेस इंस्टीट्यूट में. यह प्रदर्शनी 24 जनवरी 2009 तक चलेगी. बाद में पाब्लो नेरुदा के इस संग्रह को उनके देश चिली में प्रदर्शित किया जाएगा.
प्रस्तुत हैं नेरुदा के संग्रह से कुछ नमूने:-
सोमवार, दिसंबर 28, 2009
रविवार, नवंबर 29, 2009
भारतीय पुलिस ने भी ख़रीदी है जादुई छड़ी?
ब्रिटेन में इन दिनों इराक़ युद्ध के बारे में एक जाँच आयोग की सुनवाई में ये बात एक बार फिर स्पष्ट हो रही है कि 11 सितंबर 2001 के हमलों से कई महीने पहले से ही अमरीका इराक़ पर हमले की योजना बना रहा था.
ज़ाहिर है अमरीकी सरकार ने ऊर्जा सुरक्षा या ईरान को घेरने जैसे बड़े सामरिक लक्ष्यों पर विचार कर इराक़ पर हमले की योजना बनाई होगी. बड़े सामरिक लक्ष्य दीर्घावधि के होते हैं जो कि कई बार पूरे होते भी नहीं. लेकिन हमले का शिकार बने किसी देश को लूटे जाने का सिलसिला पहले ही दिन से शुरू हो जाता है. इराक़ में भी यही हो रहा है. इस लूट में मुख्य रूप से अमरीका और ब्रिटेन की सुरक्षा कंपनियाँ भाग ले रही हैं.
इसी महीने न्यूयॉर्क टाइम्स ने इराक़ को 8 करोड़ डॉलर का चूना लगाए जाने के एक विचित्र-किंतु-सत्य टाइप प्रकरण को उजागर किया था. उसके बाद में ब्रिटेन के गार्डियन और टाइम्स जैसे अख़बारों ने इस मामले में आगे छानबीन की. अब जाकर इराक़ी संसद की नींद टूटी है, और उसने पूरे मामले की जाँच की घोषणा की है.
मामला ब्रिटेन की एक निजी कंपनी का है जिसने इराक़ को ऐसी जादुई छड़ी की खेप बेची जो कि कथित रूप से बम, गोला-बारूद, हथियार, नशीले पदार्थ, अवैध हाथी दाँत जैसी तमाम चीजों का पाँच किलोमीटर तक की दूरी से पता लगा लेती है.
कथित चमत्कारी उपकरण को देखने से तो यही लगता है कि प्लास्टिक के एक हत्थे पर रेडियो वाला सामान्य टेलीस्कोपिक एंटीना लगा दिया गया हो. इस उपकरण का नाम है ADE651. इसकी अलग-अलग आकार और कथित क्षमता वाली डेढ़ हज़ार यूनिट इराक़ सरकार को बेची गई हैं, प्रति नग 60 हज़ार डॉलर तक के दाम में.
उल्लेखनीय है कि इराक़ में तैनात अमरीकी सेना ADE651 का इस्तेमाल नहीं करती है. वरिष्ठ अमरीकी सैनिक अधिकारियों ने न्यूयॉर्क टाइम्स को बताया कि ये उपकरण किसी भी काम का नहीं है और 60 हज़ार डॉलर में तो गोला-बारूद का पता लगाने मे निपुण पाँच से आठ प्रशिक्षित कुत्ते खरीदे जा सकते हैं. जब अख़बार ने ये सुझाव इराक़ के बमरोधी पुलिस विभाग के प्रमुख मेजर जनरल जेहाद अल-जबीरी के सामने रखा तो उनका जवाब बेमिसाल था- "आप बग़दाद के 400 सुरक्षा चौकियों पर कुत्तों की तैनाती के बारे में सोच भी सकते हैं? शहर एक चिड़ियाघर में तब्दील हो जाएगा."
ADE651 बनाने वाली कंपनी ATSC का अपने उत्पाद के बारे में दावा गज़ब का है- 'ADE651 से बम, बंदूक, कारतूस, मादक पदार्थ, लाश यहाँ तक कि हाथी दाँत का भी पता चल सकता है. ये ज़मीन के नीचे, पानी में या दीवारों के पीछे छुपी इन चीज़ों का एक किलोमीटर दूर से पता लगा सकता है. जहाँ तक हवा की बात है तो इस उपकरण के ज़रिए नीचे ज़मीन से ही पाँच किलोमीटर ऊपर उड़ रहे विमान में इन चीज़ों का पता लगाया जा सकता है.'
इस उपकरण की एक और विचित्र विशेषता है- 'इसे काम करने के लिए न किसी बैटरी की ज़रूरत होती है और न ही ऊर्जा के किसी अन्य प्रकार की.'
इतना ही नहीं ADE651 में कोई इलेक्ट्रॉनिक सर्किट भी नहीं है. इसके काम करने का तरीक़ा भी बड़ा सरल बताया गया है. एंटीना यूनिट तार के ज़रिए प्लास्टिक के डिब्बे से जुड़ा होता है जिसके खांचे में उस चीज़ के गुणों से युक्त(electromagnetic resonance) प्लास्टिक का एक कार्ड लगता है जिसकी कि तलाश की जानी हो. मतलब यदि बारूद का पता लगाना हो तो बारूद के विशेष भौतिक गुणों से युक्त कार्ड खांचे में डलेगा. बारूद वाले उदाहरण को ही आगे बढ़ाएँ तो आप एंटीना को सतह के क्षैतिज पकड़े रहें, बस. यदि एक किलोमीटर की दायरे में कहीं बारूद रहा तो एंटीना ख़ुद-ब-ख़ुद उस ओर झुक जाएगा!
ब्रितानी अख़बार टाइम्स का पत्रकार जब ATSC के कर्ताधर्ता पूर्व पुलिस अधिकारी जिम मैक्कॉर्मिक से मिलने गया तो उसने पत्रकार को ADE651 का इस्तेमाल करने दिया. लेकिन उपकरण उसके कार्यालय जैसी छोटी-सी जगह में छुपाए गए बारूद का पता लगाने में भी नाकाम रहा. रही बात इराक़ में ADE651 के 'असल प्रभाव' की तो उसके लिए पिछले महीने का एक उदाहरण ही काफ़ी होगा. 25 अक्तूबर को बग़दाद में एक आत्मघाती हमलावर ने तीन मंत्रालयों की इमारतों को ध्वस्त करते हुए 155 लोगों को मार डाला था. हमलावर ADE651 उपकरण से लैस एक चेकपोस्ट से हो कर दो टन बारूद से भरा ट्रक ले गया था! इसी तरह न्यूयॉर्क टाइम्स ने अपने दो लोगों को AK47 राइफ़लों और कारतूसों के साथ ADE651 का इस्तेमाल करने वाली नौ इराक़ी पुलिस चौकियों से होकर गुजारा, एक भी जगह जादुई छड़ी को हथियारों की हवा नहीं लगी.
अमरीकी जादूगर जेम्स रैंडी ने ADE651 की निर्माता कंपनी ATSC को खुली चुनौती दे रखी है कि वो वैज्ञानिक जाँच में ये दिखा दे कि उसका उपकरण सचमुच में बारूद का पता लगा लेता है तो वह उसे 10 लाख डॉलर देंगे. साल भर बीत चुका है लेकिन ATSC ने रैंडी की चुनौती को स्वीकार नहीं किया है. अब रैंडी ने चुनौती का दायरा और बढ़ा दिया है. उनका कहना है कि ADE651 और कुछ नहीं बल्कि शुद्ध जालसाज़ी है. यदि आप उनके इस विश्वास को ग़लत साबित कर सकें तो 10 लाख डॉलर का पुरस्कार आपका!
ये कोई संयोग नहीं है कि किसी भी विकसित देश की सेना या पुलिस इस उपकरण का इस्तेमाल नहीं करती. सिर्फ़ कुछ विकासशील देशों में ही इसे बेचा जा सका है. लंदन के टाइम्स अख़बार से बातचीत में ATSC के मालिक मैककॉर्निक ने अपने ग्राहकों में भारत की पुलिस का भी नाम गिनाया है. कंपनी की वेबसाइट अभी डाउन चल रही है, वरना ये जानना रोचक होगा कि भारत के किस राज्य की पुलिस ने जादुई छड़ी ख़रीदी है !
ज़ाहिर है अमरीकी सरकार ने ऊर्जा सुरक्षा या ईरान को घेरने जैसे बड़े सामरिक लक्ष्यों पर विचार कर इराक़ पर हमले की योजना बनाई होगी. बड़े सामरिक लक्ष्य दीर्घावधि के होते हैं जो कि कई बार पूरे होते भी नहीं. लेकिन हमले का शिकार बने किसी देश को लूटे जाने का सिलसिला पहले ही दिन से शुरू हो जाता है. इराक़ में भी यही हो रहा है. इस लूट में मुख्य रूप से अमरीका और ब्रिटेन की सुरक्षा कंपनियाँ भाग ले रही हैं.
इसी महीने न्यूयॉर्क टाइम्स ने इराक़ को 8 करोड़ डॉलर का चूना लगाए जाने के एक विचित्र-किंतु-सत्य टाइप प्रकरण को उजागर किया था. उसके बाद में ब्रिटेन के गार्डियन और टाइम्स जैसे अख़बारों ने इस मामले में आगे छानबीन की. अब जाकर इराक़ी संसद की नींद टूटी है, और उसने पूरे मामले की जाँच की घोषणा की है.
मामला ब्रिटेन की एक निजी कंपनी का है जिसने इराक़ को ऐसी जादुई छड़ी की खेप बेची जो कि कथित रूप से बम, गोला-बारूद, हथियार, नशीले पदार्थ, अवैध हाथी दाँत जैसी तमाम चीजों का पाँच किलोमीटर तक की दूरी से पता लगा लेती है.
कथित चमत्कारी उपकरण को देखने से तो यही लगता है कि प्लास्टिक के एक हत्थे पर रेडियो वाला सामान्य टेलीस्कोपिक एंटीना लगा दिया गया हो. इस उपकरण का नाम है ADE651. इसकी अलग-अलग आकार और कथित क्षमता वाली डेढ़ हज़ार यूनिट इराक़ सरकार को बेची गई हैं, प्रति नग 60 हज़ार डॉलर तक के दाम में.
उल्लेखनीय है कि इराक़ में तैनात अमरीकी सेना ADE651 का इस्तेमाल नहीं करती है. वरिष्ठ अमरीकी सैनिक अधिकारियों ने न्यूयॉर्क टाइम्स को बताया कि ये उपकरण किसी भी काम का नहीं है और 60 हज़ार डॉलर में तो गोला-बारूद का पता लगाने मे निपुण पाँच से आठ प्रशिक्षित कुत्ते खरीदे जा सकते हैं. जब अख़बार ने ये सुझाव इराक़ के बमरोधी पुलिस विभाग के प्रमुख मेजर जनरल जेहाद अल-जबीरी के सामने रखा तो उनका जवाब बेमिसाल था- "आप बग़दाद के 400 सुरक्षा चौकियों पर कुत्तों की तैनाती के बारे में सोच भी सकते हैं? शहर एक चिड़ियाघर में तब्दील हो जाएगा."
ADE651 बनाने वाली कंपनी ATSC का अपने उत्पाद के बारे में दावा गज़ब का है- 'ADE651 से बम, बंदूक, कारतूस, मादक पदार्थ, लाश यहाँ तक कि हाथी दाँत का भी पता चल सकता है. ये ज़मीन के नीचे, पानी में या दीवारों के पीछे छुपी इन चीज़ों का एक किलोमीटर दूर से पता लगा सकता है. जहाँ तक हवा की बात है तो इस उपकरण के ज़रिए नीचे ज़मीन से ही पाँच किलोमीटर ऊपर उड़ रहे विमान में इन चीज़ों का पता लगाया जा सकता है.'
इस उपकरण की एक और विचित्र विशेषता है- 'इसे काम करने के लिए न किसी बैटरी की ज़रूरत होती है और न ही ऊर्जा के किसी अन्य प्रकार की.'
इतना ही नहीं ADE651 में कोई इलेक्ट्रॉनिक सर्किट भी नहीं है. इसके काम करने का तरीक़ा भी बड़ा सरल बताया गया है. एंटीना यूनिट तार के ज़रिए प्लास्टिक के डिब्बे से जुड़ा होता है जिसके खांचे में उस चीज़ के गुणों से युक्त(electromagnetic resonance) प्लास्टिक का एक कार्ड लगता है जिसकी कि तलाश की जानी हो. मतलब यदि बारूद का पता लगाना हो तो बारूद के विशेष भौतिक गुणों से युक्त कार्ड खांचे में डलेगा. बारूद वाले उदाहरण को ही आगे बढ़ाएँ तो आप एंटीना को सतह के क्षैतिज पकड़े रहें, बस. यदि एक किलोमीटर की दायरे में कहीं बारूद रहा तो एंटीना ख़ुद-ब-ख़ुद उस ओर झुक जाएगा!
ब्रितानी अख़बार टाइम्स का पत्रकार जब ATSC के कर्ताधर्ता पूर्व पुलिस अधिकारी जिम मैक्कॉर्मिक से मिलने गया तो उसने पत्रकार को ADE651 का इस्तेमाल करने दिया. लेकिन उपकरण उसके कार्यालय जैसी छोटी-सी जगह में छुपाए गए बारूद का पता लगाने में भी नाकाम रहा. रही बात इराक़ में ADE651 के 'असल प्रभाव' की तो उसके लिए पिछले महीने का एक उदाहरण ही काफ़ी होगा. 25 अक्तूबर को बग़दाद में एक आत्मघाती हमलावर ने तीन मंत्रालयों की इमारतों को ध्वस्त करते हुए 155 लोगों को मार डाला था. हमलावर ADE651 उपकरण से लैस एक चेकपोस्ट से हो कर दो टन बारूद से भरा ट्रक ले गया था! इसी तरह न्यूयॉर्क टाइम्स ने अपने दो लोगों को AK47 राइफ़लों और कारतूसों के साथ ADE651 का इस्तेमाल करने वाली नौ इराक़ी पुलिस चौकियों से होकर गुजारा, एक भी जगह जादुई छड़ी को हथियारों की हवा नहीं लगी.
अमरीकी जादूगर जेम्स रैंडी ने ADE651 की निर्माता कंपनी ATSC को खुली चुनौती दे रखी है कि वो वैज्ञानिक जाँच में ये दिखा दे कि उसका उपकरण सचमुच में बारूद का पता लगा लेता है तो वह उसे 10 लाख डॉलर देंगे. साल भर बीत चुका है लेकिन ATSC ने रैंडी की चुनौती को स्वीकार नहीं किया है. अब रैंडी ने चुनौती का दायरा और बढ़ा दिया है. उनका कहना है कि ADE651 और कुछ नहीं बल्कि शुद्ध जालसाज़ी है. यदि आप उनके इस विश्वास को ग़लत साबित कर सकें तो 10 लाख डॉलर का पुरस्कार आपका!
ये कोई संयोग नहीं है कि किसी भी विकसित देश की सेना या पुलिस इस उपकरण का इस्तेमाल नहीं करती. सिर्फ़ कुछ विकासशील देशों में ही इसे बेचा जा सका है. लंदन के टाइम्स अख़बार से बातचीत में ATSC के मालिक मैककॉर्निक ने अपने ग्राहकों में भारत की पुलिस का भी नाम गिनाया है. कंपनी की वेबसाइट अभी डाउन चल रही है, वरना ये जानना रोचक होगा कि भारत के किस राज्य की पुलिस ने जादुई छड़ी ख़रीदी है !
सोमवार, अगस्त 31, 2009
विकल्प जिओ-इंजीनियरिंग के
जिओ-इंजीनियरिंग या भू-यांत्रिकी अभी तक सिद्धांतों तक ही सीमित है. लेकिन पिछले हफ़्ते ब्रिटेन के इंस्टीट्यूशन ऑफ़ मेकेनिकल इंजीनियर्स(आईमेकई) की रिपोर्ट को देखने के बाद लगता है कि अभी से दशक भर के अंतराल में इसे व्यावहारिक धरातल पर उतारा जाना संभव है.
जिओ-इंजीनियरिंग यानि धरती के पर्यावरण को संभालने के लिए और हमें जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से बचाने के लिए बहुत ही बड़े पैमाने पर अपनाए जाने वाले अभियांत्रिकी केंद्रित विकल्प. आईमेकई के अनुसार इन विकल्पों का उद्देश्य होगा- वायुमंडल से बड़ी मात्रा में ग्रीनहाउस गैसों(मुख्यत: कार्बन डाइ ऑक्साइड) को निकालना या फिर धरती की जलवायु प्रणाली में पहुँचने वाले सूर्य के विकिरण की मात्रा में भारी कटौती संभव करना. अभी तक ऐसे किसी विकल्प को बड़े पैमाने पर नहीं अपनाया गया है. सच्चाई तो ये है कि अभी तक जिओ-इंजीनियरिंग को जलवायु परिवर्तन की समस्या से लड़ने के विकल्प के रूप में अपनाने पर व्यापक सहमति तक नहीं बन पाई है.
आईमेकई ने अपनी रिपोर्ट में दलील दी है कि जलवायु परिवर्तन पर हर महीने कहीं न कहीं हो रहे अंतरराष्ट्रीय सेमिनार के बीच कार्बन उत्सर्जन सालाना 3 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है. ऐसे में जिओ-इंजीनियरिंग के विकल्प से बचने की कोशिश ख़तरनाक साबित हो सकती है.
आईमेकई के विशेषज्ञों ने सैंकड़ो जिओ-इंजीनियरिंग प्रस्तावों पर विचार करने के बाद तीन विकल्पों को व्यावहारिक और असरदार माना है- कृत्रिम पेड़ लगाना, छतों को सूर्यातप परावर्तक सतह के रूप में बदलना और शैवाल(अल्गी) आधारित ईंधन को आम प्रचलन में लाना.
कृत्रिम पेड़ देखने में भले ही बदसूरत मशीन जैसा दिखेंगे, लेकिन वायुमंडल के कार्बन डाइ ऑक्साइड को सोखने के काम में वे नैसर्गिक पेड़ों से हज़ार गुना बेहतर होंगे. आईमेकई के डॉ. टिम फ़ॉक्स का दावा है कि एक कृत्रिम पेड़ वायुमंडल से रोज़ 10 टन कार्बन अवशोषित कर सकेगा. यानि यदि ब्रिटेन में एक लाख कृत्रिम पेड़ लगा देने से पूरे देश के परिवहन-तंत्र द्वारा उत्सर्जित कार्बन डाइ ऑक्साइड को न्यूट्रल किया जा सकेगा, उसे वायुमंडल में पहुँचने से रोका जा सकेगा. एक आम सुझाव ये है कि जब कृत्रिम पेड़ लगाने पर सहमति बन जाए तो उन्हें राजमार्ग के दोनों ओर लगाया जाए. ऊपर के चित्र में एक कलाकार ने इसी परिकल्पना को दर्शाया है.
घरों में शैवाल आधारित ईंधनों के प्रयोग से भी वायुमंडल में कार्बन डाइ ऑक्साइड की मात्रा कम होगी, क्योंकि शैवाल प्रकाश संश्लेषण के ज़रिए कार्बन डाइ ऑक्साइड को हरित तत्वों में बदलता है. अल्गी के ईंधन के उपयोग के बाद बचे अवशेष जैव-उर्वरक के रूप में इस्तेमाल किए जा सकेंगे.
जबकि सुझाए गए तीसरे उपाय के ज़रिए ग्लोबल वार्मिंग को सीधे कम किया जाएगा, क्योंकि चमकीली सतह वाली छतें बड़ी मात्रा में सूर्यातप को धरती की जलवायु में घर करने से रोकेंगी.
जिओ-इंजीनियरिंग को अपनाने की अपील करने के साथ ही आईमेकई ने आगाह किया है कि सिर्फ़ इसी के भरोसे नहीं रहा जा सकता. जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव ठीक किए जाने लायक़ स्थिति से आगे चले जाएँ, इससे बचने के लिए ज़रूरी है कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के व्यावहारिक उपायों पर शीघ्र सहमति बनाई जाए. यानि जिओ-इंजीनियरिंग के ज़रिए ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन को बिल्कुल ही ख़तरनाक स्थिति तक पहुँचने में थोड़ी देरी कराई जा सकती है, लेकिन यह उससे बचने की गारंटी बिल्कुल ही नहीं है.
समस्या ये भी है कि जिओ-इंजीनियरिंग पर अभी तक दुनिया भर के पर्यावरणवादी और विशेषज्ञ एकमत नहीं हो पाए हैं. उनकी मुख्य शिकायत ये है है कि ग्लोबल वार्मिंग की विभीषिका को अस्थाई से रूप से टालने में सक्षम कोई भी विकल्प हमें मूल समस्या की भयावहता से आँखें मूँदने की ओर धकेलेगा. उनको इस बात का भी डर है कि सिर्फ़ सैद्धांतिक स्तर पर परखे गए, या सिर्फ़ प्रयोगशाला के नियंत्रित माहौल में परीक्षण कर देखे गए विकल्पों को भूमंडल स्तर पर कार्यान्वित करने से कहीं अनजाने में कोई पर्यावरणनाशी भस्मासुर न पैदा हो जाए!
जिओ-इंजीनियरिंग यानि धरती के पर्यावरण को संभालने के लिए और हमें जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से बचाने के लिए बहुत ही बड़े पैमाने पर अपनाए जाने वाले अभियांत्रिकी केंद्रित विकल्प. आईमेकई के अनुसार इन विकल्पों का उद्देश्य होगा- वायुमंडल से बड़ी मात्रा में ग्रीनहाउस गैसों(मुख्यत: कार्बन डाइ ऑक्साइड) को निकालना या फिर धरती की जलवायु प्रणाली में पहुँचने वाले सूर्य के विकिरण की मात्रा में भारी कटौती संभव करना. अभी तक ऐसे किसी विकल्प को बड़े पैमाने पर नहीं अपनाया गया है. सच्चाई तो ये है कि अभी तक जिओ-इंजीनियरिंग को जलवायु परिवर्तन की समस्या से लड़ने के विकल्प के रूप में अपनाने पर व्यापक सहमति तक नहीं बन पाई है.
आईमेकई ने अपनी रिपोर्ट में दलील दी है कि जलवायु परिवर्तन पर हर महीने कहीं न कहीं हो रहे अंतरराष्ट्रीय सेमिनार के बीच कार्बन उत्सर्जन सालाना 3 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है. ऐसे में जिओ-इंजीनियरिंग के विकल्प से बचने की कोशिश ख़तरनाक साबित हो सकती है.
आईमेकई के विशेषज्ञों ने सैंकड़ो जिओ-इंजीनियरिंग प्रस्तावों पर विचार करने के बाद तीन विकल्पों को व्यावहारिक और असरदार माना है- कृत्रिम पेड़ लगाना, छतों को सूर्यातप परावर्तक सतह के रूप में बदलना और शैवाल(अल्गी) आधारित ईंधन को आम प्रचलन में लाना.
कृत्रिम पेड़ देखने में भले ही बदसूरत मशीन जैसा दिखेंगे, लेकिन वायुमंडल के कार्बन डाइ ऑक्साइड को सोखने के काम में वे नैसर्गिक पेड़ों से हज़ार गुना बेहतर होंगे. आईमेकई के डॉ. टिम फ़ॉक्स का दावा है कि एक कृत्रिम पेड़ वायुमंडल से रोज़ 10 टन कार्बन अवशोषित कर सकेगा. यानि यदि ब्रिटेन में एक लाख कृत्रिम पेड़ लगा देने से पूरे देश के परिवहन-तंत्र द्वारा उत्सर्जित कार्बन डाइ ऑक्साइड को न्यूट्रल किया जा सकेगा, उसे वायुमंडल में पहुँचने से रोका जा सकेगा. एक आम सुझाव ये है कि जब कृत्रिम पेड़ लगाने पर सहमति बन जाए तो उन्हें राजमार्ग के दोनों ओर लगाया जाए. ऊपर के चित्र में एक कलाकार ने इसी परिकल्पना को दर्शाया है.
घरों में शैवाल आधारित ईंधनों के प्रयोग से भी वायुमंडल में कार्बन डाइ ऑक्साइड की मात्रा कम होगी, क्योंकि शैवाल प्रकाश संश्लेषण के ज़रिए कार्बन डाइ ऑक्साइड को हरित तत्वों में बदलता है. अल्गी के ईंधन के उपयोग के बाद बचे अवशेष जैव-उर्वरक के रूप में इस्तेमाल किए जा सकेंगे.
जबकि सुझाए गए तीसरे उपाय के ज़रिए ग्लोबल वार्मिंग को सीधे कम किया जाएगा, क्योंकि चमकीली सतह वाली छतें बड़ी मात्रा में सूर्यातप को धरती की जलवायु में घर करने से रोकेंगी.
जिओ-इंजीनियरिंग को अपनाने की अपील करने के साथ ही आईमेकई ने आगाह किया है कि सिर्फ़ इसी के भरोसे नहीं रहा जा सकता. जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव ठीक किए जाने लायक़ स्थिति से आगे चले जाएँ, इससे बचने के लिए ज़रूरी है कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के व्यावहारिक उपायों पर शीघ्र सहमति बनाई जाए. यानि जिओ-इंजीनियरिंग के ज़रिए ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन को बिल्कुल ही ख़तरनाक स्थिति तक पहुँचने में थोड़ी देरी कराई जा सकती है, लेकिन यह उससे बचने की गारंटी बिल्कुल ही नहीं है.
समस्या ये भी है कि जिओ-इंजीनियरिंग पर अभी तक दुनिया भर के पर्यावरणवादी और विशेषज्ञ एकमत नहीं हो पाए हैं. उनकी मुख्य शिकायत ये है है कि ग्लोबल वार्मिंग की विभीषिका को अस्थाई से रूप से टालने में सक्षम कोई भी विकल्प हमें मूल समस्या की भयावहता से आँखें मूँदने की ओर धकेलेगा. उनको इस बात का भी डर है कि सिर्फ़ सैद्धांतिक स्तर पर परखे गए, या सिर्फ़ प्रयोगशाला के नियंत्रित माहौल में परीक्षण कर देखे गए विकल्पों को भूमंडल स्तर पर कार्यान्वित करने से कहीं अनजाने में कोई पर्यावरणनाशी भस्मासुर न पैदा हो जाए!
शुक्रवार, जुलाई 31, 2009
मिस्टर आइडिया
डोमिनिक विलकॉक्स को मीडिया में Ideas Man कहा जाता है, लेकिन वे अपने आपको एक सामान्य ज़िंदगी जीने वाला आम आदमी बताते हैं. ब्रिटेन में एडिनबरा कॉलेज ऑफ़ आर्ट और रॉयल कॉलेज ऑफ़ आर्ट से पढ़ाई करने वाले विलकॉक्स अपने अनुभव और अपनी कल्पना शक्ति के घालमेल से ऐसी चीज़ें और ऐसे विचार सामने लाते हैं कि सचमुच का आम आदमी दाँतों तले अंगुली दबा कर ज़रूर कह बैठे- अरे ये मैंने क्यों नहीं सोचा था!
विलकॉक्स ने अनेक आर्ट गैलरियों के साथ-साथ Nike और Esquire जैसे जानेमाने ब्रांडों को भी अपनी सेवाएँ दी हैं.
पिछले दिनों एक पत्रिका में मैंने डोमिनिक विलकॉक्स के बारे में पढ़ा और उनकी वेबसाइट पर जाकर उनकी कृतियों के नमूने देख कर यही लगा कि अभिनव विचार भी हास्य बोध के साथ प्रस्तुत किए जा सकते हैं. प्रस्तुत हैं उनकी कृतियों और परिकल्पनाओं की बानगी-
अम्ल-वर्षा से ख़ूबसूरती पाने वाला पौधा
आगंतुकों का हिसाब रखने वाली दरवाज़े की घंटी
चौकोर पेंदे वाला जीन संवर्द्धित अंडा
डोमिनिक्स विलकॉक्स की ऐसी ही अन्य परिकल्पनाओं को उनकी इन वेबसाइटों पर जाकर देखा जा सकता है-
http://variationsonnormal.com/
http://www.dominicwilcox.com/bin.html
विलकॉक्स ने अनेक आर्ट गैलरियों के साथ-साथ Nike और Esquire जैसे जानेमाने ब्रांडों को भी अपनी सेवाएँ दी हैं.
पिछले दिनों एक पत्रिका में मैंने डोमिनिक विलकॉक्स के बारे में पढ़ा और उनकी वेबसाइट पर जाकर उनकी कृतियों के नमूने देख कर यही लगा कि अभिनव विचार भी हास्य बोध के साथ प्रस्तुत किए जा सकते हैं. प्रस्तुत हैं उनकी कृतियों और परिकल्पनाओं की बानगी-
अम्ल-वर्षा से ख़ूबसूरती पाने वाला पौधा
आगंतुकों का हिसाब रखने वाली दरवाज़े की घंटी
चौकोर पेंदे वाला जीन संवर्द्धित अंडा
डोमिनिक्स विलकॉक्स की ऐसी ही अन्य परिकल्पनाओं को उनकी इन वेबसाइटों पर जाकर देखा जा सकता है-
http://variationsonnormal.com/
http://www.dominicwilcox.com/bin.html
मंगलवार, जून 30, 2009
अपोलो अभियान के फ़ायदे और नुक़सान
आज से ठीक तीन हफ़्ते बाद अमरीका और विज्ञान में आस्था रखने वाले पूरी दुनिया के लोग चाँद पर मानव के क़दम पड़ने की 40वीं वर्षगांठ मनाएँगे. लेकिन ये मौक़ा उस गौरवशाली पल को याद करने के साथ-साथ इस बात पर पुनर्विचार करने का भी होगा कि अपोलो अभियान से क्या फ़ायदे हुए और क्या नुक़सान हुए.
21 जुलाई 1969 को जब नील आर्मस्ट्राँग ने चाँद की सतह पर क़दम रखा तो निसंदेह वह मानव के अब तक के सबसे साहसिक अन्वेषण अभियान का उदाहरण था. पहली बार किसी व्यक्ति ने दूसरी दुनिया में क़दम रखा था. अंतरिक्ष में मानव के पहुँचने के आठ साल के भीतर धरती से ढाई लाख मील दूर चाँद पर जाना-आना संभव हो सकना, हर तरह से एक ऐतिहासिक उपलब्धि थी. तभी तो अपोलो 11 के लैंडर मॉड्यूल ईगल से नीचे चाँद की सतह पर उतर कर जब आर्मस्ट्राँग ने 'One small step for man; one giant leap for mankind.' कहा तो तब पूरी दुनिया उनसे सहमत थी. नील आर्मस्ट्राँग के ही साथ चाँद पर गए थे बज़ एल्ड्रिन, और बाद के अपोलो अभियानों में 10 अन्य अमरीकियों ने चाँद पर क़दम रखे. लेकिन दर्ज़न भर लोगों को चाँद पर पहुँचाने का क्या परिणाम निकला?
सबसे पहले चाँद पर मानव को पहुँचाने की परियोजना की लागत की बात करें तो 1960 के दशक में अपोलो अभियान पर अमरीका ने 24 अरब डॉलर ख़र्च किए थे, यानि आज की परिस्थिति में लगभग एक ख़रब डॉलर. ये इतनी बड़ी रकम थी कि कई साल तक अमरीका के बजट का लगभग 5 प्रतिशत भाग अपोलो अभियान पर ख़र्च हो रहा था. स्पेस-सूट से लेकर रॉकेट इंजन तक बनाने में क़रीब 4 लाख कर्मचारियों ने योगदान दिया. चूंकि पूरी परियोजना को देश की गरिमा से, सोवियत संघ से दो क़दम आगे रहने के अमरीका के सामर्थ्य से जोड़ दिया गया था, इसलिए इन कर्मचारियों में से हज़ारों ने सामान्य काम के घंटों से दोगुना तक का समय बिना कोई अतिरिक्त पैसे के श्रमदान के रूप में दिया. परियोजना से इस क़दर भावनात्मक (और शारीरिक)रूप से जुड़े होने के कारण सैंकड़ो कर्मचारी हृदयाघात की लपेट में आकर असमय भगवान के प्यारे हो गए.
लेकिन अपोलो अभियान की कुल उपलब्धि क्या रही? मुख्य उपलब्धियों में अंतरिक्ष की होड़ में अमरीका की सोवियत संघ पर जीत और ब्रह्मांड के अन्वेषण को लेकर पूरी दुनिया के बढ़े आत्मविश्वास को गिनाया जा सकता है. इसके अलावा अपोलो अभियान से जुड़ी कुछ रोचक जानकारियाँ भी हैं:- चाँद के लिए कुल नौ अपोल मिशन रवाना हुआ. इनमें से कुल छह मिशन चाँद की सतह तक पहुँचने का था. कुल 24 अंतरिक्ष यात्रियों ने इन चंद्र अभियानों में भाग लिया, जिनमें से तीन दो-दो बार मिशन में शामिल हुए. कुल 12 अंतरिक्ष यात्री चाँद पर उतरे (जिनमें से 9 अभी जीवित हैं). ये बारह के बारह अमरीकी थे. इनमें से मात्र एक वैज्ञानिक था.
चार साल की अवधि में चाँद पर गए बारहों अमरीकी या तो अपने माँ-बाप की पहली या एकमात्र संतान थे. इन चंद्रयात्रियों ने जाने-अनजाने चाँद पर यंत्रों और उपकरणों के रूप में 118 टन सामान छोड़ा (हवा, पानी या जीवाणुओं के बिना सारी चीज़ें 40 साल बाद भी शायद हूबहू उसी हालत में होंगी जिस रूप में इन्हें वहाँ छोड़ा गया था). बदले में वे चाँद से कंकड़-पत्थर के रूप में कुल क़रीब 343 किलोग्राम वज़न उठा कर लाए जिनका अभी तक अध्ययन किया जा रहा है. हालाँकि आलोचकों के अनुसार इनसे जितनी जानकारियाँ मिल सकती थीं वो कब की मिल चुकी हैं. सर्वप्रमुख जानकारी ये थी कि अरबों साल पहले कोई एस्टेरॉयड धरती से टकराया था, जिससे अपार मात्रा में उत्पन्न धूल-गुबार अंतरिक्ष में पहुँचा जो अंतत: जमने के बाद चाँद बना.
इसी तरह एक लेज़र दर्पण प्रयोग भी 40 साल से लगातार जारी है. दरअसल आर्मस्ट्राँग और एल्ड्रिन ने चाँद पर एक दर्पण रख छोड़ा था जिस पर टेक्सस के मैकडोनल्ड लेज़र रेन्जिंग स्टेशन के वैज्ञानिक लेज़र किरणें परावर्तित करा के चंद्रमा की कक्षा की माप लेते हैं. इस अध्ययन की सबसे बड़ी उपलब्धि ये जानकारी है कि चाँद हर साल धरती से ढाई इंच दूर खिसकता जा रहा है. लेकिन इसी हफ़्ते सरकार ने मैकडोनल्ड लेज़र रेन्जिंग स्टेशन के वैज्ञानिकों को सालाना सवा लाख डॉलर की लागत वाले इस प्रयोग को रोकने की सूचना दी है. (हालाँकि दर्पण तो चाँद पर आगे भी रहेगा ही, सो किसी अन्य प्रयोगशाला वाले ज़रूरत पड़ने पर लेज़र प्रयोग कर सकेंगे.)
अब फिर से मूल सवाल पर आते हैं कि आर्मस्ट्राँग ने मानवता की जिस छलाँग की बात की थी, क्या वो छलाँग लग पाई? जवाब है- बिल्कुल नहीं. सच्चाई तो ये है कि अपोलो अभियान के लिए विकसित ज़्यादातर प्रौद्योगिकी उसके बाद के अभियानों में काम नहीं आ सकी. राष्ट्रपति जॉन एफ़ केनेडी ने जब 1961 में दशक भर के भीतर चाँद पर मानव को उतारने का भरोसा दिलाया था तब तक अमरीका को कुल 20 मिनट की मानव अंतरिक्ष यात्रा का अनुभव था. ऐसे में नासा अंतरिक्ष संस्था की सारी ऊर्जा केनेडी के सपने को साकार करने में लगा दी गई. इसके लिए मुख्य तीन साधन- सैटर्न V रॉकेट, अपोलो कैप्सूल और चंद्र मॉड्यूल- इस तरह डिज़ायन किए गए कि उनका किसी अन्य प्रकार के अंतरिक्ष अभियान के लिए फ़ायदा नहीं उठाया जा सकता था.
अपोलो की जगह मानव को अंतरिक्ष में भेजने के काम में लगाए गए अंतरिक्ष शटल मौत का वाहन साबित हुए. दो शटल दुर्घटनाओं में भारतीय मूल की कल्पना चावला समेत कुल 14 अंतरिक्ष यात्री काल के गाल में समा गए. अंतरिक्ष शटलों को अगले साल सेवामुक्त किया जा रहा है. उसके बाद क्या होगा ये कहा नहीं जा सकता है क्योंकि राष्ट्रपति बराक ओबामा मानव को अंतरिक्ष अभियानों पर भेजने को लेकर ज़्यादा उत्साहित नहीं दिखते हैं. हाँ इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि मौजूदा अंतरिक्ष शटलों को रिटायर किए जाने के बाद कम-से-कम कुछ समय के लिए अमरीका के पास अंतरिक्ष में यात्री भेजने के लिए अपना कोई साधन नहीं होगा, क्योंकि डिज़ायन किए जा रहे नए रॉकेट 2016 तक ही(यदि ओबामा प्रशासन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश प्रशासन की इस योजना को पूरा समर्थन दे पाया) तैयार हो सकेंगे.
अपोलो अभियान की नाकामियों के पीछे अमरीकी सरकार के साथ-साथ, अमरीकी मीडिया और अमरीकी जनता की भी भूमिका रही है. दरअसल अपोलो 11 अभियान की शानदार सफलता के बाद अचानक अमरीकियों की दिलचस्पी चंद्र अभियानों में नहीं रह गई. उदाहरण के लिए एक ओर जहाँ 16 जुलाई 1969 को अपोलो 11 की उड़ान का साक्षी होने 10 लाख से ज़्यादा लोग केप कैनेवरल में जमा हुए थे, वहीं अप्रैल 1970 में अपोलो 13 अभियान का टीवी कवरेज़ 'डोरिस डे शो' के पक्ष में रद्द कर दिया गया.(हालाँकि अपोलो मिशन में गड़बड़ियाँ सामने आने पर टीवी कवरेज़ दोबारा शुरू किया गया.)सोवियत संघ पीछे रह गया था, इतना मात्र से ही अमरीका संतुष्ट था. दो साल बाद अपोलो 18, अपोलो 19 और अपोलो 20 अभियान रद्द कर दिया गया. यानि मानव को अंतिम बार अपोलो 17 अभियान में चाँद पर उतारा गया.
कुल मिला कर ये कहा जा सकता है कि अपोलो 11 अभियान की सफलता ने सुदूर अंतरिक्ष में मानव को भेजने की संभावनाओं को कई दशकों के लिए पीछे धकेल दिया. सौभाग्य से चाँद एक बार फिर मानव को अपनी ओर बुलाने में सफल होता दिख रहा है. ख़ुशी की बात ये भी है कि इस बार अमरीका के साथ-साथ यूरोप, जापान, चीन और भारत भी चाँद की ओर हाथ बढ़ाते हुए उचक रहे हैं!
21 जुलाई 1969 को जब नील आर्मस्ट्राँग ने चाँद की सतह पर क़दम रखा तो निसंदेह वह मानव के अब तक के सबसे साहसिक अन्वेषण अभियान का उदाहरण था. पहली बार किसी व्यक्ति ने दूसरी दुनिया में क़दम रखा था. अंतरिक्ष में मानव के पहुँचने के आठ साल के भीतर धरती से ढाई लाख मील दूर चाँद पर जाना-आना संभव हो सकना, हर तरह से एक ऐतिहासिक उपलब्धि थी. तभी तो अपोलो 11 के लैंडर मॉड्यूल ईगल से नीचे चाँद की सतह पर उतर कर जब आर्मस्ट्राँग ने 'One small step for man; one giant leap for mankind.' कहा तो तब पूरी दुनिया उनसे सहमत थी. नील आर्मस्ट्राँग के ही साथ चाँद पर गए थे बज़ एल्ड्रिन, और बाद के अपोलो अभियानों में 10 अन्य अमरीकियों ने चाँद पर क़दम रखे. लेकिन दर्ज़न भर लोगों को चाँद पर पहुँचाने का क्या परिणाम निकला?
सबसे पहले चाँद पर मानव को पहुँचाने की परियोजना की लागत की बात करें तो 1960 के दशक में अपोलो अभियान पर अमरीका ने 24 अरब डॉलर ख़र्च किए थे, यानि आज की परिस्थिति में लगभग एक ख़रब डॉलर. ये इतनी बड़ी रकम थी कि कई साल तक अमरीका के बजट का लगभग 5 प्रतिशत भाग अपोलो अभियान पर ख़र्च हो रहा था. स्पेस-सूट से लेकर रॉकेट इंजन तक बनाने में क़रीब 4 लाख कर्मचारियों ने योगदान दिया. चूंकि पूरी परियोजना को देश की गरिमा से, सोवियत संघ से दो क़दम आगे रहने के अमरीका के सामर्थ्य से जोड़ दिया गया था, इसलिए इन कर्मचारियों में से हज़ारों ने सामान्य काम के घंटों से दोगुना तक का समय बिना कोई अतिरिक्त पैसे के श्रमदान के रूप में दिया. परियोजना से इस क़दर भावनात्मक (और शारीरिक)रूप से जुड़े होने के कारण सैंकड़ो कर्मचारी हृदयाघात की लपेट में आकर असमय भगवान के प्यारे हो गए.
लेकिन अपोलो अभियान की कुल उपलब्धि क्या रही? मुख्य उपलब्धियों में अंतरिक्ष की होड़ में अमरीका की सोवियत संघ पर जीत और ब्रह्मांड के अन्वेषण को लेकर पूरी दुनिया के बढ़े आत्मविश्वास को गिनाया जा सकता है. इसके अलावा अपोलो अभियान से जुड़ी कुछ रोचक जानकारियाँ भी हैं:- चाँद के लिए कुल नौ अपोल मिशन रवाना हुआ. इनमें से कुल छह मिशन चाँद की सतह तक पहुँचने का था. कुल 24 अंतरिक्ष यात्रियों ने इन चंद्र अभियानों में भाग लिया, जिनमें से तीन दो-दो बार मिशन में शामिल हुए. कुल 12 अंतरिक्ष यात्री चाँद पर उतरे (जिनमें से 9 अभी जीवित हैं). ये बारह के बारह अमरीकी थे. इनमें से मात्र एक वैज्ञानिक था.
चार साल की अवधि में चाँद पर गए बारहों अमरीकी या तो अपने माँ-बाप की पहली या एकमात्र संतान थे. इन चंद्रयात्रियों ने जाने-अनजाने चाँद पर यंत्रों और उपकरणों के रूप में 118 टन सामान छोड़ा (हवा, पानी या जीवाणुओं के बिना सारी चीज़ें 40 साल बाद भी शायद हूबहू उसी हालत में होंगी जिस रूप में इन्हें वहाँ छोड़ा गया था). बदले में वे चाँद से कंकड़-पत्थर के रूप में कुल क़रीब 343 किलोग्राम वज़न उठा कर लाए जिनका अभी तक अध्ययन किया जा रहा है. हालाँकि आलोचकों के अनुसार इनसे जितनी जानकारियाँ मिल सकती थीं वो कब की मिल चुकी हैं. सर्वप्रमुख जानकारी ये थी कि अरबों साल पहले कोई एस्टेरॉयड धरती से टकराया था, जिससे अपार मात्रा में उत्पन्न धूल-गुबार अंतरिक्ष में पहुँचा जो अंतत: जमने के बाद चाँद बना.
इसी तरह एक लेज़र दर्पण प्रयोग भी 40 साल से लगातार जारी है. दरअसल आर्मस्ट्राँग और एल्ड्रिन ने चाँद पर एक दर्पण रख छोड़ा था जिस पर टेक्सस के मैकडोनल्ड लेज़र रेन्जिंग स्टेशन के वैज्ञानिक लेज़र किरणें परावर्तित करा के चंद्रमा की कक्षा की माप लेते हैं. इस अध्ययन की सबसे बड़ी उपलब्धि ये जानकारी है कि चाँद हर साल धरती से ढाई इंच दूर खिसकता जा रहा है. लेकिन इसी हफ़्ते सरकार ने मैकडोनल्ड लेज़र रेन्जिंग स्टेशन के वैज्ञानिकों को सालाना सवा लाख डॉलर की लागत वाले इस प्रयोग को रोकने की सूचना दी है. (हालाँकि दर्पण तो चाँद पर आगे भी रहेगा ही, सो किसी अन्य प्रयोगशाला वाले ज़रूरत पड़ने पर लेज़र प्रयोग कर सकेंगे.)
अब फिर से मूल सवाल पर आते हैं कि आर्मस्ट्राँग ने मानवता की जिस छलाँग की बात की थी, क्या वो छलाँग लग पाई? जवाब है- बिल्कुल नहीं. सच्चाई तो ये है कि अपोलो अभियान के लिए विकसित ज़्यादातर प्रौद्योगिकी उसके बाद के अभियानों में काम नहीं आ सकी. राष्ट्रपति जॉन एफ़ केनेडी ने जब 1961 में दशक भर के भीतर चाँद पर मानव को उतारने का भरोसा दिलाया था तब तक अमरीका को कुल 20 मिनट की मानव अंतरिक्ष यात्रा का अनुभव था. ऐसे में नासा अंतरिक्ष संस्था की सारी ऊर्जा केनेडी के सपने को साकार करने में लगा दी गई. इसके लिए मुख्य तीन साधन- सैटर्न V रॉकेट, अपोलो कैप्सूल और चंद्र मॉड्यूल- इस तरह डिज़ायन किए गए कि उनका किसी अन्य प्रकार के अंतरिक्ष अभियान के लिए फ़ायदा नहीं उठाया जा सकता था.
अपोलो की जगह मानव को अंतरिक्ष में भेजने के काम में लगाए गए अंतरिक्ष शटल मौत का वाहन साबित हुए. दो शटल दुर्घटनाओं में भारतीय मूल की कल्पना चावला समेत कुल 14 अंतरिक्ष यात्री काल के गाल में समा गए. अंतरिक्ष शटलों को अगले साल सेवामुक्त किया जा रहा है. उसके बाद क्या होगा ये कहा नहीं जा सकता है क्योंकि राष्ट्रपति बराक ओबामा मानव को अंतरिक्ष अभियानों पर भेजने को लेकर ज़्यादा उत्साहित नहीं दिखते हैं. हाँ इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि मौजूदा अंतरिक्ष शटलों को रिटायर किए जाने के बाद कम-से-कम कुछ समय के लिए अमरीका के पास अंतरिक्ष में यात्री भेजने के लिए अपना कोई साधन नहीं होगा, क्योंकि डिज़ायन किए जा रहे नए रॉकेट 2016 तक ही(यदि ओबामा प्रशासन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश प्रशासन की इस योजना को पूरा समर्थन दे पाया) तैयार हो सकेंगे.
अपोलो अभियान की नाकामियों के पीछे अमरीकी सरकार के साथ-साथ, अमरीकी मीडिया और अमरीकी जनता की भी भूमिका रही है. दरअसल अपोलो 11 अभियान की शानदार सफलता के बाद अचानक अमरीकियों की दिलचस्पी चंद्र अभियानों में नहीं रह गई. उदाहरण के लिए एक ओर जहाँ 16 जुलाई 1969 को अपोलो 11 की उड़ान का साक्षी होने 10 लाख से ज़्यादा लोग केप कैनेवरल में जमा हुए थे, वहीं अप्रैल 1970 में अपोलो 13 अभियान का टीवी कवरेज़ 'डोरिस डे शो' के पक्ष में रद्द कर दिया गया.(हालाँकि अपोलो मिशन में गड़बड़ियाँ सामने आने पर टीवी कवरेज़ दोबारा शुरू किया गया.)सोवियत संघ पीछे रह गया था, इतना मात्र से ही अमरीका संतुष्ट था. दो साल बाद अपोलो 18, अपोलो 19 और अपोलो 20 अभियान रद्द कर दिया गया. यानि मानव को अंतिम बार अपोलो 17 अभियान में चाँद पर उतारा गया.
कुल मिला कर ये कहा जा सकता है कि अपोलो 11 अभियान की सफलता ने सुदूर अंतरिक्ष में मानव को भेजने की संभावनाओं को कई दशकों के लिए पीछे धकेल दिया. सौभाग्य से चाँद एक बार फिर मानव को अपनी ओर बुलाने में सफल होता दिख रहा है. ख़ुशी की बात ये भी है कि इस बार अमरीका के साथ-साथ यूरोप, जापान, चीन और भारत भी चाँद की ओर हाथ बढ़ाते हुए उचक रहे हैं!
रविवार, मई 31, 2009
ग्लोबल वार्मिंग का मुक़ाबला सफ़ेदी पोत के
ग्लोबल वार्मिंग की समस्या से पार पाने के लिए तरह-तरह के ऊपाय बताए जाते हैं, जैसे- जैव ईंधन का कम प्रयोग, जल विद्युत और नाभिकीय ऊर्जा को बढ़ावा, सस्ते और टिकाऊ सौर-पैनलों का विकास आदि-आदि. लेकिन अमरीका के ऊर्जा मंत्री डॉ. स्टीफ़न चू ने ग्लोबल वार्मिंग को कम करने का जो रास्ता सुझाया है वो सबसे रोचक है. चू साहब का कहना है कि लोग अपने घर की छतों को सफ़ेद रंग से रंग दें, और शहरों के फ़ुटपाथों को हल्के रंग का बना दिया जाए तो ग्लोबल वार्मिंग में पर्याप्त कमी की जा सकती है.
स्टीफ़न चू कोई जॉर्ज बुश टाइप बुद्धिजीवी नहीं हैं, बल्कि वे एक जाने-माने वैज्ञानिक हैं. उनके नाम 1997 का भौतिकी का नोबेल पुरस्कार भी है. इसलिए उनकी बातों को दुनिया ओबामा प्रशासन की नीति के साथ-साथ गंभीर वैज्ञानिक विचार के तौर पर भी लेती है.
छतों पर सफ़ेदी पोतने का चू का सुझाव पिछले हफ़्ते लंदन में आया जहाँ वे जलवायु परिवर्तन की समस्या पर 20 नोबेल विजेता वैज्ञानिकों की बैठक से पहले मीडिया को संबोधित कर रहे थे.
डॉ. चू का कहना है कि छतों और फ़ुटपाथों को सफ़ेद या हल्के रंग का रूप देने से ऊर्जा का संरक्षण होने के साथ-साथ एक बड़े क्षेत्र से सूर्य के प्रकाश को सीधे परावर्तित करना संभव होगा.
अपनी बात को विस्तार देते हुए चू ने कहा, "यदि कोई भवन वातानुकूलित है तो उसकी छत पर सफ़ेदी करने के बाद ये पहले से कहीं ज़्यादा ठंडा हो सकेगा. यानि उस भवन में 10 से 15 प्रतिशत कम बिजली की ज़रूरत होगी."
"इसी तरह छतों-फ़ुटपाथों पर सफ़ेदी पोत कर आप धरती की परावर्तक सतह का स्वरूप बदल सकते हैं. इसे ज़्यादा परावर्तक बना सकते हैं. ताकि सूर्य का प्रकाश नीचे आए और तुरंत वापस अंतरिक्ष में जाए. धरती पर ग्रीनहाउस की स्थिति में योगदान दिए बिना."
अमरीकी ऊर्जा मंत्री ने आगे कहा, "आपको अभी हँसी आ रही हो, लेकिन यदि आप सारे मकानों की छतों पर सफ़ेदी पोत दें, और यदि सारे फ़ुटपाथों को भी काले के बजाय कंक्रीट टाइप रंग का बना दें, और ऐसा एकरूपता से करें...तो ऐसे में कार्बन उत्सर्जन में इतनी कमी हो सकेगी जितनी कि दुनिया की सारी कारें 11 वर्षों की अवधि में उत्सर्जित करती हैं. ऐसे समझें कि मानो 11 साल तक एक भी कार न चली हो."
डॉ. स्टीफ़न चू सफ़ेदी के दायरे को छतों और फ़ुटपाथों से भी आगे बढ़ा कर कारों को भी उसके भीतर लाना चाहते हैं. उनका कहना है- "यदि सभी कारों को सफ़ेद या हल्के रंगों में रंग दिया जाए तो अच्छा-ख़ासा पैसा बचाया जा सकता है क्योंकि तब उनकी एयरकंडीशनिंग की डाउनसाइज़िंग हो सकेगी. इससे एयरकंडीशनिंग ज़्यादा असरदार भी हो जाएगी, और ऊर्जा का अपेक्षाकृत कम उपयोग करना पड़ेगा."
चू साहब अपनी इस तरक़ीब को 'जियोइंजीनियरिंग' का एक बढ़िया उदाहरण बताते हैं. हालाँकि इस बात का जवाब उनके पास नहीं है कि चारों ओर सफ़ेद-सफ़ेद ही दिखने से मानव सौंदर्य बोध का क्या होगा! इसके अलावा सपाट छतों की तो कोई बात नहीं, लेकिन जहाँ तक यूरोप की बात है तो वहाँ के छप्परनुमा छतों के रंग-रूप को लेकर कई देशों में स्थानीय नियम-क़ानूनों में प्रावधान बने हुए है. अधिकांश स्थानीय निकाय उन छतों की सफ़ेदी की इजाज़त नहीं देते जो कि राह चलते नज़र आती हों.
मान लीजिए दुनिया भर की सरकारें ज़्यादातर छतों की सफ़ेदी पर सहमत हो भी जाती हैं तो क्या ये सचमुच में ग्लोबल वार्मिंग की समस्या का प्रभावी समाधान है? आप ख़ुद विचार करें, यदि आपको बता दिया जाए कि धरती की सतह का मात्र डेढ़ प्रतिशत शहरों और महानगरों के रूप में है.
यहाँ ये उल्लेखनीय है कि ऊर्जा मंत्री के रूप में स्टीफ़न चू के कई फ़ैसलों की पर्यावरणवादियों ने जलवायु को नुक़सान पहुँचाने वाला बताते हुए आलोचना की है. इन फ़ैसलों में अमरीका में नए कोयला आधारित विद्युत संयंत्रों के निर्माण पर रोकटोक हटाना, हाइड्रोजन ईंधन चालित वाहनों के विकास के लिए सरकारी फ़ंडिंग में कटौती, परमाणु कचरा भंडारण की एक योजना के लिए फ़ंडिंग ख़त्म करना आदि. चू का मानना है कि मौजूदा परिस्थितियों में कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को कम करने का सबसे प्रभावी और आसान तरीक़ा है- ऊर्जा दक्षता. भवनों के बेहतर डिज़ायन और छतों-फ़ुटपाथों की पुताई इसी ऊर्जा दक्षता के अंतर्गत आते हैं.
स्टीफ़न चू कोई जॉर्ज बुश टाइप बुद्धिजीवी नहीं हैं, बल्कि वे एक जाने-माने वैज्ञानिक हैं. उनके नाम 1997 का भौतिकी का नोबेल पुरस्कार भी है. इसलिए उनकी बातों को दुनिया ओबामा प्रशासन की नीति के साथ-साथ गंभीर वैज्ञानिक विचार के तौर पर भी लेती है.
छतों पर सफ़ेदी पोतने का चू का सुझाव पिछले हफ़्ते लंदन में आया जहाँ वे जलवायु परिवर्तन की समस्या पर 20 नोबेल विजेता वैज्ञानिकों की बैठक से पहले मीडिया को संबोधित कर रहे थे.
डॉ. चू का कहना है कि छतों और फ़ुटपाथों को सफ़ेद या हल्के रंग का रूप देने से ऊर्जा का संरक्षण होने के साथ-साथ एक बड़े क्षेत्र से सूर्य के प्रकाश को सीधे परावर्तित करना संभव होगा.
अपनी बात को विस्तार देते हुए चू ने कहा, "यदि कोई भवन वातानुकूलित है तो उसकी छत पर सफ़ेदी करने के बाद ये पहले से कहीं ज़्यादा ठंडा हो सकेगा. यानि उस भवन में 10 से 15 प्रतिशत कम बिजली की ज़रूरत होगी."
"इसी तरह छतों-फ़ुटपाथों पर सफ़ेदी पोत कर आप धरती की परावर्तक सतह का स्वरूप बदल सकते हैं. इसे ज़्यादा परावर्तक बना सकते हैं. ताकि सूर्य का प्रकाश नीचे आए और तुरंत वापस अंतरिक्ष में जाए. धरती पर ग्रीनहाउस की स्थिति में योगदान दिए बिना."
अमरीकी ऊर्जा मंत्री ने आगे कहा, "आपको अभी हँसी आ रही हो, लेकिन यदि आप सारे मकानों की छतों पर सफ़ेदी पोत दें, और यदि सारे फ़ुटपाथों को भी काले के बजाय कंक्रीट टाइप रंग का बना दें, और ऐसा एकरूपता से करें...तो ऐसे में कार्बन उत्सर्जन में इतनी कमी हो सकेगी जितनी कि दुनिया की सारी कारें 11 वर्षों की अवधि में उत्सर्जित करती हैं. ऐसे समझें कि मानो 11 साल तक एक भी कार न चली हो."
डॉ. स्टीफ़न चू सफ़ेदी के दायरे को छतों और फ़ुटपाथों से भी आगे बढ़ा कर कारों को भी उसके भीतर लाना चाहते हैं. उनका कहना है- "यदि सभी कारों को सफ़ेद या हल्के रंगों में रंग दिया जाए तो अच्छा-ख़ासा पैसा बचाया जा सकता है क्योंकि तब उनकी एयरकंडीशनिंग की डाउनसाइज़िंग हो सकेगी. इससे एयरकंडीशनिंग ज़्यादा असरदार भी हो जाएगी, और ऊर्जा का अपेक्षाकृत कम उपयोग करना पड़ेगा."
चू साहब अपनी इस तरक़ीब को 'जियोइंजीनियरिंग' का एक बढ़िया उदाहरण बताते हैं. हालाँकि इस बात का जवाब उनके पास नहीं है कि चारों ओर सफ़ेद-सफ़ेद ही दिखने से मानव सौंदर्य बोध का क्या होगा! इसके अलावा सपाट छतों की तो कोई बात नहीं, लेकिन जहाँ तक यूरोप की बात है तो वहाँ के छप्परनुमा छतों के रंग-रूप को लेकर कई देशों में स्थानीय नियम-क़ानूनों में प्रावधान बने हुए है. अधिकांश स्थानीय निकाय उन छतों की सफ़ेदी की इजाज़त नहीं देते जो कि राह चलते नज़र आती हों.
मान लीजिए दुनिया भर की सरकारें ज़्यादातर छतों की सफ़ेदी पर सहमत हो भी जाती हैं तो क्या ये सचमुच में ग्लोबल वार्मिंग की समस्या का प्रभावी समाधान है? आप ख़ुद विचार करें, यदि आपको बता दिया जाए कि धरती की सतह का मात्र डेढ़ प्रतिशत शहरों और महानगरों के रूप में है.
यहाँ ये उल्लेखनीय है कि ऊर्जा मंत्री के रूप में स्टीफ़न चू के कई फ़ैसलों की पर्यावरणवादियों ने जलवायु को नुक़सान पहुँचाने वाला बताते हुए आलोचना की है. इन फ़ैसलों में अमरीका में नए कोयला आधारित विद्युत संयंत्रों के निर्माण पर रोकटोक हटाना, हाइड्रोजन ईंधन चालित वाहनों के विकास के लिए सरकारी फ़ंडिंग में कटौती, परमाणु कचरा भंडारण की एक योजना के लिए फ़ंडिंग ख़त्म करना आदि. चू का मानना है कि मौजूदा परिस्थितियों में कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को कम करने का सबसे प्रभावी और आसान तरीक़ा है- ऊर्जा दक्षता. भवनों के बेहतर डिज़ायन और छतों-फ़ुटपाथों की पुताई इसी ऊर्जा दक्षता के अंतर्गत आते हैं.
गुरुवार, अप्रैल 30, 2009
स्वास्थ्य संबंधी चेतावनियों के ख़तरे
स्वास्थ्य संबंधी चेतावनियाँ कितनी ख़तरनाक होती हैं, इसका अहसास किसी परिजन या मित्र से ये सुनने पर होता है कि अमुक दवाई, फलाँ साइड-इफ़ेक्ट के कारण बिल्कुल नहीं लेनी चाहिए. किसी दवाई के सर्वविदित या लगभग शत-प्रतिशत सेवनकर्ताओं में होने वाले साइड-इफ़ेक्ट(जैसे कफ़-सिरप पीने के बाद आप नींद महसूस कर सकते हैं) के बारे में दावा किया जा रहा हो तो बात समझी जा सकती है, लेकिन किसी दवाई की पैकिंग पर छपी चेतावनी या फिर डिब्बे के भीतर रखे पर्चे पर छपी बातों के आधार पर कोई ठोस राय बना लेना थोड़ा अटपटा लगता है. ऐसे लोग सुनना नहीं चाहते कि किसी दवा विशेष का कोई साइड-इफ़ेक्ट संभव है लाखों में से एक सेवनकर्ता को झेलना पड़ता हो, या हो सकता है मात्र क़ानूनी झमेलों से बचने के लिए कुछ चेतावनियाँ लिखी गई हों.
इसी मुद्दे पर इस हफ़्ते 'फ़ाइनेंशियल टाइम्स' के पत्रिका खंड में छपा आलेख विचारणीय है. इसका शीर्षक है- 'आख़िर क्यों स्वास्थ्य संबंधी चेतावनियाँ नुक़सानदेह हो सकती हैं?' लेख की शुरुआत ही कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में 25 साल पहले हुए एक अध्ययन की चर्चा से होती है. इस अध्ययन के लिए कुछ वोलंटियर चाहिए थे. इस वास्ते दिए गए विज्ञापन में साफ़ किया गया कि ये मस्तिष्क पर बिजली के प्रभाव से जुड़ा अध्ययन है, जिसमें भाग लेने वालों के सिर पर इलेक्ट्रोड लगा कर उसमें विद्युत प्रवाहित की जाएगी. विज्ञापन में साफ़-साफ़ ये चेतावनी भी दी गई कि अध्ययन में भाग लेने वालों को गंभीर सिरदर्द का सामना करना पड़ सकता है.
स्पष्ट चेतावनी के बाद भी शोधकर्ताओं को ये देख कर ख़ुशी हुई कि कुल 34 छात्र अध्ययन का हिस्सा बनने के लिए सामने आए. अध्ययन की समाप्ति के बाद उनमें से दो तिहाई छात्रों ने सिरदर्द की शिकायत की. हालाँकि सच्चाई ये थी कि उनमें से किसी के सिर पर लगे इलेक्ट्रोडों में बिजली प्रवाहित नहीं की गई थी. दरअसल ये मस्तिष्क पर बिजली के प्रभाव के बारे में अध्ययन था ही नहीं. अध्ययन इस सवाल का जवाब ढूंढने के लिए था कि क्या बीमारी की सोच मात्र ही किसी स्वस्थ व्यक्ति को बीमार बना सकती है? ज़ाहिर है अध्ययन में इसका जवाब 'हाँ' के रूप में सामने आया.
वैज्ञानिकों की भाषा में स्वस्थ व्यक्तियों को अस्वस्थता का भान कराने वाले इस प्रभाव को नोसीबो प्रभाव कहते हैं. Nocebo यानि Placebo का उलट शब्द. दोनों ही लैटिन से आए शब्द हैं, हालाँकि प्लेसीबो जहाँ बहुत पहले से हमारे बीच है वहीं नोसीबो कुछ साल पहले ही चिकित्सा के पेशे से बाहर प्रचलन में आया है. प्लेसीबो का शाब्दिक अर्थ है- 'मैं ख़ुश करूँगा', जबकि नोसीबो का- 'मैं नुक़सान करूँगा'.
प्लेसीबो नए उपचारों, नई दवाओं को परखने के लिए काम में आता है. किसी अध्ययन में कुछ वोलंटियर को सचमुच की दवा दी जाती है, जबकि कुछ को दवारहित गोली या प्लेसीबो. जिन्हें प्लेसीबो दी जाती हैं उन्हें यही बताया जाता है कि अध्ययन में शामिल सभी लोगों को सचमुच की दवा दी जा रही है. बाद में विशेषज्ञ इन दोनों उपसमूहों का अध्ययन कर वास्तविक दवा के असल प्रभाव और साइड-इफ़ेक्ट्स का आकलन कर पाते हैं. (पश्चिम के चिकित्सकों का एक समूह संपूर्ण होम्योपैथी को प्लेसीबो प्रभाव मात्र मानता है.) दूसरी ओर यदि नोसीबो सिद्धांत की व्याख्या एक पंक्ति में की जाए तो वो कुछ इस तरह की होगी- 'बीमार होने की सोचो, बीमार बनो.'
नोसीबो प्रभाव हमारे बीच इतना व्याप्त है कि स्वास्थ्य विशेषज्ञ ये मानने लगे हैं कि खाद्य-पदार्थों से जुड़ी एलर्जी, मोटापा, पीठ का दर्द, थकान और विद्युत-संवेदनशीलता(जैसे-मोबाइल पर देर तक बातें करने के दौरान मस्तिष्क पर विद्युतीय क्षेत्र के कथित असर से सिरदर्द) जैसी इक्कीसवीं सदी की कई चर्चित बीमारियों का काफ़ी कुछ श्रेय इसको देते है. दवाइयों के साथ आने वाली चेतावनियों के साथ-साथ नोसीबो प्रभाव को फैलाने में बीमारी विशेष के ख़तरों के बारे में चलाए जाने वाले जागरुकता अभियानों तथा अपने उत्पाद बेचने के लिए दवा कंपनियाँ द्वारा बनाए जाने वाले डर के माहौल का भी पूरा योगदान होता है. इस समय कई देशों में फैल चुके स्वाइन फ़्लू का ही उदाहरण लें तो ग़ौर करने वाली बात है कि सरकारें अपने नागरिकों को कितना प्रोएक्टिव होकर ऐहतियाती उपायों की घुट्टी पिला रही हैं(सार्वजनिक स्थलों पर जाने से बचें, दरवाज़े का हैंडल छूने के बाद हाथ को धोएँ आदि), या सर्जिकल-मास्क बनाने वाली कंपनियाँ किस तरह अपने उत्पाद को फ़्लू से बचने के कारगर उपाय के रूप में बाज़ार में ठेले जा रही हैं(हालाँकि विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसे मुखावरण फ़्लू वायरस फैलाने से आपको भले ही कुछ हद तक रोक लें, वायरस के आप तक पहुँचने में अवरोध नहीं बन सकेंगे).
बहुत से लोग ये सामान्य-सी बात स्वीकार करने को तैयार नहीं कि कई अस्थाई शारीरिक लक्षण किसी स्वस्थ व्यक्ति की ज़िंदगी का आम हिस्सा होते हैं. मसलन सिरदर्द आते-जाते रहते हैं. किसी रात नींद नहीं आती है, तो किसी दिन आँखें खोले रखना मुश्किल होता है. कभी हम हल्के-फुल्के मूड में होते हैं, तो कभी मिज़ाज ख़राब होता है. इन अनुभवों पर हम ज़्यादा ध्यान नहीं देते, बशर्ते तबीयत ख़राब होने के लक्षण ढूंढने की सनक न चढ़ी हो. परंतु किसी को अपनी तबीयत ठीक होने पर संदेह हुआ नहीं कि वह रात में नींद नहीं आने को अनिद्रा रोग, थकान को कमज़ोरी और ख़राब मूड को अवसाद का नाम देने को बिल्कुल तैयार मिलेगा! एक बार किसी बीमारी की चपेट में आने का झूठा यक़ीन होते ही तरह-तरह की चिंताएँ भी घेर लेती हैं. और ये तो माना हुआ तथ्य है कि अतिशय चिंता(भले ही बेमतलब की क्यों न हो)उच्च रक्तचाप और कमज़ोर प्रतिरक्षण प्रणाली के प्रमुख कारणों में से है.
शनिवार, मार्च 28, 2009
बड़ी संख्याओं की बड़ी दुनिया
बड़ी संख्याओं की अपनी ही एक बड़ी दुनिया है. इस दुनिया में मिलियन, बिलियन और ट्रिलियन जैसी भारी-भरकम संख्याओं की चर्चा होती है. पहले मिलियन-बिलियन से ऊपर की संख्याएँ आम समाचारों में कभी-कभार ही दिखती थीं, लेकिन हाल के दिनों में ट्रिलियन या खरब वाले आंकड़े मीडिया में रोज़ाना दिखने लगे हैं. कारण है पूरी दुनिया ख़ास कर पश्चिमी देशों को अपनी चपेट में ले चुका वित्तीय संकट. एक उदाहरण- 'अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने वित्तीय संस्थाओं को संभालने के लिए एक ट्रिलियन डॉलर की अतिरिक्त व्यवस्था करने की घोषणा की.'
बड़ी संख्याओं को बड़ा बनाता है शून्य या ज़ीरो. किसी संख्या में जितने ज़्यादा शून्य, उतना ही उसका वज़न. हालाँकि इसका अपवाद ज़िम्बाब्वे में देखा जा सकता है. ज़िम्बाब्वे के डॉलर में पिछले कुछ महीनों के दौरान नियमित रूप से अतिरिक्त शून्य जुड़ता रहा, लेकिन नोट की क़ीमत फिर भी घटती ही गई क्योंकि मुद्रास्फीति की दर भयानक रूप से तेज़ रही. इस साल के शुरू में ज़िम्बाब्वे में डॉलर की एक करेंसी में 1 के आगे 11 शून्य लगाए गए थे, यानि- 100,000,000,000.
पिछले दिनों ऑक्सफ़ार्ड विश्वविद्यालय के गणितज्ञ Marcus Du Sautoy का एक लेख ब्रितानी अख़बार गार्डियन में छपा, जिसमें बड़े अंकों पर बड़ी रोचक जानकारी दी गई है. प्रस्तुत है एक अंश-
0 (शून्य)-
अंकों की दुनिया में काफ़ी देर से शामिल किया गया था शून्य को. सातवीं सदी में भारतीय गणितज्ञों द्वारा प्रचलन में लाए जाने तक शून्य को अंक तक का दर्जा नहीं दिया गया था. (भारत को 1 से 9 तक के अंकों के संकेतों का भी जनक माना जाता है जिनके ज़रिए तमाम संख्याएँ बनती हैं. इस व्यवस्था को अरबी-हिंदू अंक प्रणाली कहा जाता है.) शून्य को यूरोप लाया इतालवी गणितज्ञ फ़िबोनाचि ने 12वीं सदी में. शुरू में शून्य को इटली में संदेह के साथ देखा गया और 1299 में फ़्लोरेंस की सरकार ने इसके उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया था.
जहाँ तक भारत की बात है तो संस्कृत के प्राचीन शास्त्रों से पता चलता है कि शुरू से ही भारत में गणना और बड़ी संख्याओं के प्रति रुझान रहा है. ललितविस्तार नामक ग्रंथ के एक आख्यान में बताया गया है कि कैसे एक बार गौतम बुद्ध को 1 से लेकर 421 शून्य वाली संख्या तक को गिनाने के लिए कहा गया था.
10 (दस)-
गणना के लिए 10 अंकों वाले आधार के उपयोग के पीछे बुनियादी कारण है हमारे हाथों में 10 अंगुलियों का होना. लेकिन इसके बाद भी सभी सभ्यताओं को 10 के आधार पर गणना करना रास नहीं आया. प्राचीन बेबिलोनिया में 60 के आधार पर गणना का चलन था. उसकी छाप आज तक नहीं मिटी है. जैसे- 60 सेकेंड, 60 मिनट, वृत के 360 डिग्री आदि.
1,000,000 (एक मिलियन/दस लाख)-
इस संख्या तक आकर साफ़ पता चल जाता है कि अरबी-हिंदू अंक प्रणाली कितनी ज़्यादा व्यवस्थित और प्रभावशाली है. प्राचीन रोमन गणितज्ञ बड़ी होती जाती संख्याओं को अलग-अलग अक्षरों से दर्शाते थे- 100 के लिए C, 500 के लिए D, 1000 के लिए M आदि. (एक मिलियन सेकेंड बराबर क़रीब साढ़े ग्यारह दिन!)
1,000,000,000 (एक बिलियन/एक अरब)-
ब्रिटेन में पहले इस संख्या को 1000 मिलियन कहा जाता था, जबकि एक अरब एक-मिलियन-मिलियन (1 के आगे 12 शून्य) को कहा जाता था. लेकिन अमरीकी अंक प्रणाली से समानता के दबाव के चलते 1974 में सरकार ने फ़ैसला किया कि आगे से सरकारी आंकड़ों में 1 के आगे 9 शून्य लगाने से बने अंक को ही बिलियन कहा जाएगा.
बिलियन में 9 या 12 शून्यों के भ्रम के पीछे फ़्रांस का हाथ माना जाता है. सन 1480 में फ़्रांस ने बिलियन के लिए 1 के आगे 12 शून्यों की व्यवस्था की, जिसे बाद में ब्रिटेन ने भी अपना लिया. लेकिन 17वीं सदी में आकर फ़्रांस ने बिलियन से 3 शून्य हटा दिए यानि मात्र 9 शून्य ही रखे, जिसे अमरीका ने अपनाया. लेकिन 1948 में फ़्रांस ने फिर से अपनी पुरानी व्यवस्था को अपना लिया. (गणना के इस अलग-अलग तरीके को 'लाँग स्केल- शॉर्ट स्केल' के विवाद के रूप में जाना जाता है.)
1,000,000,000,000 (एक ट्रिलियन/दस खरब)-
बिलियन के भ्रम के बाद ट्रिलियन का भ्रम तो बनना ही था.(दरअसल मिलियन से आगे हर बड़ी संख्या को लेकर एकाधिक नामावली प्रचलन में हैं.) लेकिन बुरा मानें या भला, गिनती का अमरीकी तरीका स्टैंडर्ड बनता जा रहा है और अमरीका में 1000 बिलियन से एक ट्रिलियन बनता है. यानि भारतीय अंक प्रणाली में 10 खरब.(एक ट्रिलियन सेकेंड का मतलब हुआ 31,709 साल.)
1,000,000,000,000,000 (एक क़्वाड्रिलियन/एक पद्म)-
गणितज्ञ इस संख्या को 10 पर पॉवर 15 के रूप में जानते हैं. दस के पॉवर के रूप में आई संख्या एक के बाद आने वाले शून्य को दर्शाती है. जैसे- 10 पर पॉवर 2 का मतलब हुआ 1 के आगे दो शून्य, यानि 100.
अमरीका और ब्रिटेन में जिसे क़्वाड्रिलियन कहा जाता है उसे यूरोप बिलिआर्ड के नाम से भी जानता है. वित्तीय संसार की बात करें तो डेरिवेटिव नाम इन्स्ट्रुमेंट की कुल मात्रा आधा क़्वाड्रिलियन डॉलर बताई जाती है ,यानि पूरे विश्व के वार्षिक उत्पाद के दस गुना के बराबर. शायद इसीलिए कुछ विश्लेषक डेरिवेटिव बाज़ार को कभी भी फट सकने वाला टाईम बम बताते हैं.
10 पर पॉवर 100 (एक गूगोल)-
इस नंबर का नामकरण 1938 में एक नौ वर्षीय बच्चे मिल्टन सिरोटा ने किया. उसके चाचा ने उसे 1 के आगे 100 शून्य लगाने के बाद बनी संख्या का नाम रखने को कहा था. इंटरनेट सर्च इंजन गूगल का नाम भी इसी संख्या से लिया गया है.
316470269330...66697152511-
ये अब तक ज्ञात सबसे बड़ी अभाज्य संख्या है. एक महाकंप्यूटर की सहायता से ढूंढी गई इस संख्या में 1 करोड़ 30 लाख अंक हैं. पिछले साल अगस्त में मिली इस संख्या को लिखने के लिए 30 मील लंबा पेज चाहिए. अगर कोई इसके हर अंक को बोल कर पढ़ना चाहे तो उसे दो महीने लगेंगे. एक करोड़ से ज़्यादा अंकों वाली अभाज्य संख्या की खोज पर एक लाख डॉलर का इनाम घोषित था. इसी कड़ी में अगला इनाम है डेढ़ करोड़ डॉलर का 10 करोड़ से ज़्यादा अंकों वाली अभाज्य संख्या की खोज पर.
यूनानी गणितज्ञ यूक्लिड सदियों पहले बता गए हैं कि चाहे जितने अंकों तक की कल्पना करो, उतने अंकों की अभाज्य संख्या का अस्तित्व है.
एक ज़िलियन-
अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़े किसी बच्चे से वृहतम संख्या की बात करें तो शायद वो एक ज़िलियन की बात करे. लेकिन ज़िलियन दरअसल कोई संख्या विशेष नहीं है. शब्दकोशों में आ चुके इस शब्द का मतलब है अनंत अंकों वाली कोई महासंख्या. ये शब्द अमरीकी लेखक डैमन रुनयन की कल्पना की उपज है.
इनफ़िनिटी या अनंत-
किसी बहुत ही होशियार बच्चे से वृहतम संभव संख्या के बारे में सवाल करें तो शायद उसका जवाब हो- इनफ़िनिटी. उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध तक इनफ़िनिटी को अगम या अबूझ के तौर पर देखा जाता था, लेकिन 1874 में Georg Cantor नामक गणितज्ञ ने साबित किया कि इनफ़िनिटी कई प्रकार के हो सकते हैं- कुछ छोटे, कुछ बड़े. यहाँ तक कि उसने इनफ़िनिटी-इनिफ़िनिटी के बीच जोड़-घटाव और गुना-भाग को भी संभव बताया. इस खोजबीन की क़ीमत भी उसे ही चुकानी पड़ी. उसने ज़िंदगी का बड़ा हिस्सा जर्मनी की एक मानसिक आरोग्यशाला में बिताया.
बड़ी संख्याओं को बड़ा बनाता है शून्य या ज़ीरो. किसी संख्या में जितने ज़्यादा शून्य, उतना ही उसका वज़न. हालाँकि इसका अपवाद ज़िम्बाब्वे में देखा जा सकता है. ज़िम्बाब्वे के डॉलर में पिछले कुछ महीनों के दौरान नियमित रूप से अतिरिक्त शून्य जुड़ता रहा, लेकिन नोट की क़ीमत फिर भी घटती ही गई क्योंकि मुद्रास्फीति की दर भयानक रूप से तेज़ रही. इस साल के शुरू में ज़िम्बाब्वे में डॉलर की एक करेंसी में 1 के आगे 11 शून्य लगाए गए थे, यानि- 100,000,000,000.
पिछले दिनों ऑक्सफ़ार्ड विश्वविद्यालय के गणितज्ञ Marcus Du Sautoy का एक लेख ब्रितानी अख़बार गार्डियन में छपा, जिसमें बड़े अंकों पर बड़ी रोचक जानकारी दी गई है. प्रस्तुत है एक अंश-
0 (शून्य)-
अंकों की दुनिया में काफ़ी देर से शामिल किया गया था शून्य को. सातवीं सदी में भारतीय गणितज्ञों द्वारा प्रचलन में लाए जाने तक शून्य को अंक तक का दर्जा नहीं दिया गया था. (भारत को 1 से 9 तक के अंकों के संकेतों का भी जनक माना जाता है जिनके ज़रिए तमाम संख्याएँ बनती हैं. इस व्यवस्था को अरबी-हिंदू अंक प्रणाली कहा जाता है.) शून्य को यूरोप लाया इतालवी गणितज्ञ फ़िबोनाचि ने 12वीं सदी में. शुरू में शून्य को इटली में संदेह के साथ देखा गया और 1299 में फ़्लोरेंस की सरकार ने इसके उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया था.
जहाँ तक भारत की बात है तो संस्कृत के प्राचीन शास्त्रों से पता चलता है कि शुरू से ही भारत में गणना और बड़ी संख्याओं के प्रति रुझान रहा है. ललितविस्तार नामक ग्रंथ के एक आख्यान में बताया गया है कि कैसे एक बार गौतम बुद्ध को 1 से लेकर 421 शून्य वाली संख्या तक को गिनाने के लिए कहा गया था.
10 (दस)-
गणना के लिए 10 अंकों वाले आधार के उपयोग के पीछे बुनियादी कारण है हमारे हाथों में 10 अंगुलियों का होना. लेकिन इसके बाद भी सभी सभ्यताओं को 10 के आधार पर गणना करना रास नहीं आया. प्राचीन बेबिलोनिया में 60 के आधार पर गणना का चलन था. उसकी छाप आज तक नहीं मिटी है. जैसे- 60 सेकेंड, 60 मिनट, वृत के 360 डिग्री आदि.
1,000,000 (एक मिलियन/दस लाख)-
इस संख्या तक आकर साफ़ पता चल जाता है कि अरबी-हिंदू अंक प्रणाली कितनी ज़्यादा व्यवस्थित और प्रभावशाली है. प्राचीन रोमन गणितज्ञ बड़ी होती जाती संख्याओं को अलग-अलग अक्षरों से दर्शाते थे- 100 के लिए C, 500 के लिए D, 1000 के लिए M आदि. (एक मिलियन सेकेंड बराबर क़रीब साढ़े ग्यारह दिन!)
1,000,000,000 (एक बिलियन/एक अरब)-
ब्रिटेन में पहले इस संख्या को 1000 मिलियन कहा जाता था, जबकि एक अरब एक-मिलियन-मिलियन (1 के आगे 12 शून्य) को कहा जाता था. लेकिन अमरीकी अंक प्रणाली से समानता के दबाव के चलते 1974 में सरकार ने फ़ैसला किया कि आगे से सरकारी आंकड़ों में 1 के आगे 9 शून्य लगाने से बने अंक को ही बिलियन कहा जाएगा.
बिलियन में 9 या 12 शून्यों के भ्रम के पीछे फ़्रांस का हाथ माना जाता है. सन 1480 में फ़्रांस ने बिलियन के लिए 1 के आगे 12 शून्यों की व्यवस्था की, जिसे बाद में ब्रिटेन ने भी अपना लिया. लेकिन 17वीं सदी में आकर फ़्रांस ने बिलियन से 3 शून्य हटा दिए यानि मात्र 9 शून्य ही रखे, जिसे अमरीका ने अपनाया. लेकिन 1948 में फ़्रांस ने फिर से अपनी पुरानी व्यवस्था को अपना लिया. (गणना के इस अलग-अलग तरीके को 'लाँग स्केल- शॉर्ट स्केल' के विवाद के रूप में जाना जाता है.)
1,000,000,000,000 (एक ट्रिलियन/दस खरब)-
बिलियन के भ्रम के बाद ट्रिलियन का भ्रम तो बनना ही था.(दरअसल मिलियन से आगे हर बड़ी संख्या को लेकर एकाधिक नामावली प्रचलन में हैं.) लेकिन बुरा मानें या भला, गिनती का अमरीकी तरीका स्टैंडर्ड बनता जा रहा है और अमरीका में 1000 बिलियन से एक ट्रिलियन बनता है. यानि भारतीय अंक प्रणाली में 10 खरब.(एक ट्रिलियन सेकेंड का मतलब हुआ 31,709 साल.)
1,000,000,000,000,000 (एक क़्वाड्रिलियन/एक पद्म)-
गणितज्ञ इस संख्या को 10 पर पॉवर 15 के रूप में जानते हैं. दस के पॉवर के रूप में आई संख्या एक के बाद आने वाले शून्य को दर्शाती है. जैसे- 10 पर पॉवर 2 का मतलब हुआ 1 के आगे दो शून्य, यानि 100.
अमरीका और ब्रिटेन में जिसे क़्वाड्रिलियन कहा जाता है उसे यूरोप बिलिआर्ड के नाम से भी जानता है. वित्तीय संसार की बात करें तो डेरिवेटिव नाम इन्स्ट्रुमेंट की कुल मात्रा आधा क़्वाड्रिलियन डॉलर बताई जाती है ,यानि पूरे विश्व के वार्षिक उत्पाद के दस गुना के बराबर. शायद इसीलिए कुछ विश्लेषक डेरिवेटिव बाज़ार को कभी भी फट सकने वाला टाईम बम बताते हैं.
10 पर पॉवर 100 (एक गूगोल)-
इस नंबर का नामकरण 1938 में एक नौ वर्षीय बच्चे मिल्टन सिरोटा ने किया. उसके चाचा ने उसे 1 के आगे 100 शून्य लगाने के बाद बनी संख्या का नाम रखने को कहा था. इंटरनेट सर्च इंजन गूगल का नाम भी इसी संख्या से लिया गया है.
316470269330...66697152511-
ये अब तक ज्ञात सबसे बड़ी अभाज्य संख्या है. एक महाकंप्यूटर की सहायता से ढूंढी गई इस संख्या में 1 करोड़ 30 लाख अंक हैं. पिछले साल अगस्त में मिली इस संख्या को लिखने के लिए 30 मील लंबा पेज चाहिए. अगर कोई इसके हर अंक को बोल कर पढ़ना चाहे तो उसे दो महीने लगेंगे. एक करोड़ से ज़्यादा अंकों वाली अभाज्य संख्या की खोज पर एक लाख डॉलर का इनाम घोषित था. इसी कड़ी में अगला इनाम है डेढ़ करोड़ डॉलर का 10 करोड़ से ज़्यादा अंकों वाली अभाज्य संख्या की खोज पर.
यूनानी गणितज्ञ यूक्लिड सदियों पहले बता गए हैं कि चाहे जितने अंकों तक की कल्पना करो, उतने अंकों की अभाज्य संख्या का अस्तित्व है.
एक ज़िलियन-
अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़े किसी बच्चे से वृहतम संख्या की बात करें तो शायद वो एक ज़िलियन की बात करे. लेकिन ज़िलियन दरअसल कोई संख्या विशेष नहीं है. शब्दकोशों में आ चुके इस शब्द का मतलब है अनंत अंकों वाली कोई महासंख्या. ये शब्द अमरीकी लेखक डैमन रुनयन की कल्पना की उपज है.
इनफ़िनिटी या अनंत-
किसी बहुत ही होशियार बच्चे से वृहतम संभव संख्या के बारे में सवाल करें तो शायद उसका जवाब हो- इनफ़िनिटी. उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध तक इनफ़िनिटी को अगम या अबूझ के तौर पर देखा जाता था, लेकिन 1874 में Georg Cantor नामक गणितज्ञ ने साबित किया कि इनफ़िनिटी कई प्रकार के हो सकते हैं- कुछ छोटे, कुछ बड़े. यहाँ तक कि उसने इनफ़िनिटी-इनिफ़िनिटी के बीच जोड़-घटाव और गुना-भाग को भी संभव बताया. इस खोजबीन की क़ीमत भी उसे ही चुकानी पड़ी. उसने ज़िंदगी का बड़ा हिस्सा जर्मनी की एक मानसिक आरोग्यशाला में बिताया.
शुक्रवार, फ़रवरी 13, 2009
वैलेंटाइन्स डे का बढ़ता विरोध
मैं न तो दिलजला हूँ, और न ही बजरंग दल या तालेबान जैसे गुटों से मुझे कोई सहानुभूति है. हाँ, 14 फ़रवरी को जिस तरह बाज़ारवाद नंगा होकर नाचता है, उसे देख कर थोड़ी चिढ़ ज़रूर होती है. ऐसे में बाज़ारवाद का मंगलगान करने में सबसे आगे रहने वाले अख़बार वॉल स्ट्रीट जर्नल में वैलेंटाइन्स डे के विरोध पर एक लेख पा कर हार्दिक प्रसन्नता हुई. इसमें बताया गया है कि अमरीका में क्रिसमस के बाज़ारीकरण से चिढ़ने वालों की भी बड़ी संख्या है, लेकिन बाज़ारवाद के जिस उत्सव के ख़िलाफ व्यवस्थित तरीक़े से एक आंदोलन खड़ा होता दिखता है, वो है- वैलेंटाइन्स डे.
अमरीकी लेखिका जेनिफ़र ग्राहम के इस लेख के ज़रिए ही जब ई-कार्ड के थोक भंडार अमेरिकन ग्रीटिंग्स की वेबसाइट पर गया तो वहाँ एन्टी-वैलेंटाइन्स-डे या एन्टी-वैल कार्ड की भारी मौजूदगी को देख कर सुखद आश्चर्य हुआ.(वैसे, ये भी बाज़ारवाद का ही कमाल है!)
वॉल स्ट्रीट जर्नल के लेख में दिए गए आँकड़ों की बात करें तो भारी आर्थिक मंदी में जकड़े होने के बाद भी अमरीकी इस वैलेंटाइन्स डे के मौक़े पर 14 अरब डॉलर ख़र्च कर रहे हैं. ये कोई आम अटकलबाज़ी नहीं है, बल्कि नेशनल रिटेल फ़ेडरेशन का अनुमान है. यह राशि मुख्यत: कार्डों, फूलों और उपहारों पर और रेस्तराँ में ख़र्च की जा रही है. क्रिसमस के बाद साल में सबसे ज़्यादा कार्ड वैलेंटाइन्स डे(बहुतों के लिए एन्टी-वैल डे) पर ही बिकते हैं. जबकि फूलों की बिक्री के हिसाब से तो पहले नंबर पर वैलेंटाइन्स डे ही है.
लेखिका जेनिफ़र के शब्दों में ही कहें तो वैलेंटाइन्स डे अस्पष्टता से परिभाषित एक ऐसा दिन है जब (क्यूपिड के)तीर की नोक पर लोग अपने अंतर्मन में बसी भावनओं को व्यक्त करने के लिए बाध्य किए जाते हैं. बहुतों को तो असल के अभाव में बनावटी भावनाओं का प्रदर्शन करना पड़ता है. इसीलिए आश्चर्य नहीं कि बहुत से लोग इस दिन को FAD या Forced Affection Day कहते हैं.
वैलेंटाइन्स डे का विरोध करने वालों में कई वर्ग के लोग शामिल हैं, जिनमें प्रमुख हैं- अविवाहित लोग जिन्हें रोमाँस पर ज़रूरत से ज़्यादा ज़ोर दिया जाना पसंद नहीं, अभिभावकों का वर्ग जो कि वैलेंटाइन्स डे पर बच्चों द्वारा किए जाने वाले ख़र्च से परेशान रहते हैं और आनंदपूर्वक समय बिता रहे वैसे विवाहित/अविवाहित युगल जिन्हें प्रेम का प्रदर्शन करने की बाध्यता बिल्कुल रास नहीं आती.
इस वैलेंटाइन्स डे विरोधी गुट का लाभ उठाने के लिए भी करोड़ों डॉलर का बाज़ार तैयार हो चुका है. एन्टी-वैल कार्डों की चर्चा पहले ही हो चुकी है. हर अमरीकी शहर में कम-से-कम ऐसा एक रेस्तराँ या बार ज़रूर है जहाँ 14 फ़रवरी को 'क्यूपिड-इज़-स्टूपिड' टाइप थीम पार्टी रखी जाती हैं.
कई जगह मौक़े का फ़ायदा उठाने में आगे रहने वाले फ़िटनेस सेंटर या व्यायामशालाओं में एन्टी-वैल मुक्केबाज़ी सेशन रखा जाता है. इस दौरान वहाँ संबंध-विच्छेद के तनाव से पार पाने के गुर सिखाए जाते हैं. एक तरीका है अपने छूट चुके प्रेमी/प्रेमिका की तस्वीर पर घूंसे बरसाना. इसी तरह ऊन बनाने वाली एक कंपनी जिमी बीन्स वूल ने तो फ़रवरी का महीना एन्टी-वैल युवतियों को समर्पित करते हुए लाल या गुलाबी रंग की जगह पूरे महीने सिर्फ़ नीले रंग के ऊन को आगे बढ़ाने का फ़ैसला किया है.
इतना ही नहीं पेटीशन्सऑनलाइन नामक वेबसाइट पर किसी ने वैलेंटाइन्स डे का आयोजन बंद कराने के लिए एक याचिका भी डाल दी है, जिसका शीर्षक है- End Valentine's Day. हालाँकि इस लेख को लिखे जाने तक 68 लोगों ने ही याचिका पर हस्ताक्षर किए थे.
अमरीकी लेखिका जेनिफ़र ग्राहम के इस लेख के ज़रिए ही जब ई-कार्ड के थोक भंडार अमेरिकन ग्रीटिंग्स की वेबसाइट पर गया तो वहाँ एन्टी-वैलेंटाइन्स-डे या एन्टी-वैल कार्ड की भारी मौजूदगी को देख कर सुखद आश्चर्य हुआ.(वैसे, ये भी बाज़ारवाद का ही कमाल है!)
वॉल स्ट्रीट जर्नल के लेख में दिए गए आँकड़ों की बात करें तो भारी आर्थिक मंदी में जकड़े होने के बाद भी अमरीकी इस वैलेंटाइन्स डे के मौक़े पर 14 अरब डॉलर ख़र्च कर रहे हैं. ये कोई आम अटकलबाज़ी नहीं है, बल्कि नेशनल रिटेल फ़ेडरेशन का अनुमान है. यह राशि मुख्यत: कार्डों, फूलों और उपहारों पर और रेस्तराँ में ख़र्च की जा रही है. क्रिसमस के बाद साल में सबसे ज़्यादा कार्ड वैलेंटाइन्स डे(बहुतों के लिए एन्टी-वैल डे) पर ही बिकते हैं. जबकि फूलों की बिक्री के हिसाब से तो पहले नंबर पर वैलेंटाइन्स डे ही है.
लेखिका जेनिफ़र के शब्दों में ही कहें तो वैलेंटाइन्स डे अस्पष्टता से परिभाषित एक ऐसा दिन है जब (क्यूपिड के)तीर की नोक पर लोग अपने अंतर्मन में बसी भावनओं को व्यक्त करने के लिए बाध्य किए जाते हैं. बहुतों को तो असल के अभाव में बनावटी भावनाओं का प्रदर्शन करना पड़ता है. इसीलिए आश्चर्य नहीं कि बहुत से लोग इस दिन को FAD या Forced Affection Day कहते हैं.
वैलेंटाइन्स डे का विरोध करने वालों में कई वर्ग के लोग शामिल हैं, जिनमें प्रमुख हैं- अविवाहित लोग जिन्हें रोमाँस पर ज़रूरत से ज़्यादा ज़ोर दिया जाना पसंद नहीं, अभिभावकों का वर्ग जो कि वैलेंटाइन्स डे पर बच्चों द्वारा किए जाने वाले ख़र्च से परेशान रहते हैं और आनंदपूर्वक समय बिता रहे वैसे विवाहित/अविवाहित युगल जिन्हें प्रेम का प्रदर्शन करने की बाध्यता बिल्कुल रास नहीं आती.
इस वैलेंटाइन्स डे विरोधी गुट का लाभ उठाने के लिए भी करोड़ों डॉलर का बाज़ार तैयार हो चुका है. एन्टी-वैल कार्डों की चर्चा पहले ही हो चुकी है. हर अमरीकी शहर में कम-से-कम ऐसा एक रेस्तराँ या बार ज़रूर है जहाँ 14 फ़रवरी को 'क्यूपिड-इज़-स्टूपिड' टाइप थीम पार्टी रखी जाती हैं.
कई जगह मौक़े का फ़ायदा उठाने में आगे रहने वाले फ़िटनेस सेंटर या व्यायामशालाओं में एन्टी-वैल मुक्केबाज़ी सेशन रखा जाता है. इस दौरान वहाँ संबंध-विच्छेद के तनाव से पार पाने के गुर सिखाए जाते हैं. एक तरीका है अपने छूट चुके प्रेमी/प्रेमिका की तस्वीर पर घूंसे बरसाना. इसी तरह ऊन बनाने वाली एक कंपनी जिमी बीन्स वूल ने तो फ़रवरी का महीना एन्टी-वैल युवतियों को समर्पित करते हुए लाल या गुलाबी रंग की जगह पूरे महीने सिर्फ़ नीले रंग के ऊन को आगे बढ़ाने का फ़ैसला किया है.
इतना ही नहीं पेटीशन्सऑनलाइन नामक वेबसाइट पर किसी ने वैलेंटाइन्स डे का आयोजन बंद कराने के लिए एक याचिका भी डाल दी है, जिसका शीर्षक है- End Valentine's Day. हालाँकि इस लेख को लिखे जाने तक 68 लोगों ने ही याचिका पर हस्ताक्षर किए थे.
शनिवार, जनवरी 31, 2009
उपग्रहीय चित्रों का बेवज़ह डर
पिछले दिनों अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के शपथ-ग्रहण समारोह के समय की उपग्रहीय तस्वीर सार्वजनिक की गई. इसमें जहाँ वाशिंग्टन डीसी के राजपथ पर उमड़े जनसैलाब का विहंगम दृश्य चकित करने वाला लगता है. वहीं यदि कोई चाहे तो चित्र से उसे सुरक्षा व्यवस्था का भी अंदाज़ा लग सकता है. मसलन छोटे आकार में यहाँ प्रस्तुत उस तस्वीर में देखा जा सकता है कि कैपिटल बिल्डिंग के ठीक पीछे किस पोज़ीशन में एक हेलीकॉप्टर तैयार खड़ा है.
यह विहंगम दृश्य जिस बड़ी तस्वीर का हिस्सा है उसे जिओआई नामक कंपनी ने ओबामा के शपथ ग्रहण करने के कुछ घंटों बाद जारी किया था. कंपनी अपने ग्राहकों को 50 सेंटीमीटर तक की स्पष्टता वाले उपग्रहीय चित्र उपलब्ध कराती है.
जिओआई की वेबसाइट पर वाशिंग्टन डीसी की ही नहीं, बल्कि अमरीका के अधिकतर बड़े स्टेडियमों, विश्वविद्यालयों, बाँधों के साथ-साथ सैनिक-असैनिक हवाईअड्डों की भी तस्वीरें मिल जाती हैं. अमरीका के अलावा दुनिया के अन्य हिस्सों की रोचक तस्वीरें भी उपलब्ध हैं. कुछ साल-दो साल पुरानी तस्वीरें, तो कुछ बस हफ़्ते-महीने भर पुरानी. जिओआई ने पिछले साल नवंबर में सोमालिया के तट पर बंधकों के क़ब्ज़े में खड़े सुपर टैंकर सीरियस स्टार का काफ़ी स्पष्ट चित्र जारी किया था.
जिओआई की तरह की ही एक और कंपनी है- डिजिटल ग्लोब. दोनों कंपनियाँ 'गूगल अर्थ' जैसे वेबटूल के साथ-साथ तमाम तरह के उपयोगों के लिए उपग्रहीय चित्र उपलब्ध कराती हैं. इनमें से हर एक की मौजूदा क्षमता प्रतिदिन औसत 10 लाख वर्गकिलोमीटर ज़मीन को स्कैन करने की है.
गूगल अर्थ को लेकर रह-रह कर विवाद उठता रहता है. भारत में ये विवाद कुछ ज़्यादा ही होता है. कुछ साल पहले राष्ट्रपति भवन की तस्वीर गूगल अर्थ पर पहली बार देखे जाने के बाद भारत में बहस छिड़ गई थी कि आतंकवादी उस चित्र विशेष का इस्तेमाल हमले की योजना बनाने के लिए कर सकते हैं. मुंबई पर हुए हमले में शामिल चरमपंथियों के गूगल अर्थ की सहायता लेने की बात सामने आने के बाद तो इस वेबटूल को लेकर डर का माहौल बनाने की ज़ोरदार कोशिशें की गईं. जबकि आतंकवादियों ने इस वेबटूल के अलावा जीपीएस और ब्लैकबेरी जैसे कई हाईटेक उपकरणों का भी इस्तेमाल किया था. तो क्या इन उपकरणों पर भी रोक न लगा दी जाए! गूगल अर्थ पर निशाना साधने वालों ने ये सोचने की ज़रूरत नहीं समझी कि यदि कुछ साल पुरानी तस्वीरें दिखाने वाले गूगल अर्थ पर रोक लगा दी भी जाए, तो जिओआई और डिजिटल ग्लोब जैसी कंपनियों का क्या करेंगे जिनका मुख्य धंधा है- ताज़ा उपग्रहीय तस्वीरें बेचना?
आतंकवादियों और अपराधियों के डर से विज्ञान प्रदत्त सुविधाओं पर रोक लगाना समस्या का स्थायी समाधान हो ही नहीं सकता है. याद कीजिए उस समय को जब 'फ़ोटो खींचना मना है' वाले निषेधात्मक बोर्ड का कोई मतलब होता था. पहले कॉम्पैक्ट कैमरे ने उक्त बोर्ड पर लिखी चेतावनी की गंभीरता को कम किया, फिर डिजिटल कैमरे ने उसे और हल्का बनाया, अंतत: मोबाइल फ़ोनों में लगे कैमरे ने उसे बिल्कुल ही अप्रासंगिक बना दिया.
उपग्रहीय चित्रों पर प्रतिबंध की कोशिशें तो अभी ही लगभग बेअसर है, इसलिए आने वाले दिनों में ऐसी कोशिशों का बिल्कुल अप्रासंगिक होना तय है. आँकड़े भी यही कहते हैं- पिछले दशक में दुनिया की तस्वीरें खींचने के लिए सात निजी उपग्रह छोड़े गए, अगले 10 वर्षों में ऐसे 30 उपग्रह छोड़े जाने हैं. इसके अलावा विभिन्न देशों के जासूसी उपग्रहों की संख्या भी तो लगातार बढ़ती जा रही है.
ये सच है कि हर सार्वजनिक सुविधा या औजार में सदुपयोग और दुरुपयोग दोनों तरह की संभावनाएँ होती हैं. अधिकतर मामलों में सदुपयोग की संभावनाएँ, दुरुपयोग की संभावनाओं से कई-कई गुना ज़्यादा होती हैं. इसलिए उन पर रोक नहीं लगाई जा सकती है.
टेलीफ़ोन के आविष्कार के समय से ही अपराधी इसका इस्तेमाल कर रहे हैं- योजनाएँ बनाने में भी, और लोगों को धमकाने या फ़िरौती माँगने में भी. इंटरनेट की सहायता से धोखाधड़ी और जालसाज़ी विश्वव्यापी स्तर पर की जा रही है- नाइजीरिया में बैठा जालसाज़ लॉटरी का सब्ज़बाग दिखा कर भारत के लोगों को ठग रहा है! लेकिन अपराध में इस्तेमाल के आधार पर फ़ोन या इंटरनेट पर रोक की कल्पना भी की जा सकती है?
इंटरनेट पहले-पहल जब विश्वविद्यालयों और विज्ञान संस्थानों से निकल कर आमलोगों के घरों में आया, तो तमाम तरह की आशंकाओं में एक ये भी शामिल थी कि बम और अन्य विस्फोटक अत्यंत सुलभ हो जाएँगे क्योंकि इंटरनेट पर उन्हें बनाने के तरीके आसानी से उपलब्ध हैं. आगे चल कर ये आशंका निराधार निकली. हमेशा से ही आबादी का अत्यंत छोटा अंश अपराधी प्रवृति का रहा है, विस्फोटक बनाने की जानकारी इंटरनेट पर उपलब्ध होने के बाद भी वही स्थिति है.
अपराधियों ने हर काल में नवीनतम जानकारियों का इस्तेमाल किया है, इसलिए ज़ाहिर है आगे भी करते रहेंगे. अच्छी बात ये है कि अपराधियों के हाथों इस्तेमाल की आशंका में विज्ञान ने पहले कभी रास्ता नहीं बदला है. इसलिए आगे भी विज्ञान अपनी राह बढ़ता ही रहेगा, चाहे कितना भी डर फैलाया जाये.
यह विहंगम दृश्य जिस बड़ी तस्वीर का हिस्सा है उसे जिओआई नामक कंपनी ने ओबामा के शपथ ग्रहण करने के कुछ घंटों बाद जारी किया था. कंपनी अपने ग्राहकों को 50 सेंटीमीटर तक की स्पष्टता वाले उपग्रहीय चित्र उपलब्ध कराती है.
जिओआई की वेबसाइट पर वाशिंग्टन डीसी की ही नहीं, बल्कि अमरीका के अधिकतर बड़े स्टेडियमों, विश्वविद्यालयों, बाँधों के साथ-साथ सैनिक-असैनिक हवाईअड्डों की भी तस्वीरें मिल जाती हैं. अमरीका के अलावा दुनिया के अन्य हिस्सों की रोचक तस्वीरें भी उपलब्ध हैं. कुछ साल-दो साल पुरानी तस्वीरें, तो कुछ बस हफ़्ते-महीने भर पुरानी. जिओआई ने पिछले साल नवंबर में सोमालिया के तट पर बंधकों के क़ब्ज़े में खड़े सुपर टैंकर सीरियस स्टार का काफ़ी स्पष्ट चित्र जारी किया था.
जिओआई की तरह की ही एक और कंपनी है- डिजिटल ग्लोब. दोनों कंपनियाँ 'गूगल अर्थ' जैसे वेबटूल के साथ-साथ तमाम तरह के उपयोगों के लिए उपग्रहीय चित्र उपलब्ध कराती हैं. इनमें से हर एक की मौजूदा क्षमता प्रतिदिन औसत 10 लाख वर्गकिलोमीटर ज़मीन को स्कैन करने की है.
गूगल अर्थ को लेकर रह-रह कर विवाद उठता रहता है. भारत में ये विवाद कुछ ज़्यादा ही होता है. कुछ साल पहले राष्ट्रपति भवन की तस्वीर गूगल अर्थ पर पहली बार देखे जाने के बाद भारत में बहस छिड़ गई थी कि आतंकवादी उस चित्र विशेष का इस्तेमाल हमले की योजना बनाने के लिए कर सकते हैं. मुंबई पर हुए हमले में शामिल चरमपंथियों के गूगल अर्थ की सहायता लेने की बात सामने आने के बाद तो इस वेबटूल को लेकर डर का माहौल बनाने की ज़ोरदार कोशिशें की गईं. जबकि आतंकवादियों ने इस वेबटूल के अलावा जीपीएस और ब्लैकबेरी जैसे कई हाईटेक उपकरणों का भी इस्तेमाल किया था. तो क्या इन उपकरणों पर भी रोक न लगा दी जाए! गूगल अर्थ पर निशाना साधने वालों ने ये सोचने की ज़रूरत नहीं समझी कि यदि कुछ साल पुरानी तस्वीरें दिखाने वाले गूगल अर्थ पर रोक लगा दी भी जाए, तो जिओआई और डिजिटल ग्लोब जैसी कंपनियों का क्या करेंगे जिनका मुख्य धंधा है- ताज़ा उपग्रहीय तस्वीरें बेचना?
आतंकवादियों और अपराधियों के डर से विज्ञान प्रदत्त सुविधाओं पर रोक लगाना समस्या का स्थायी समाधान हो ही नहीं सकता है. याद कीजिए उस समय को जब 'फ़ोटो खींचना मना है' वाले निषेधात्मक बोर्ड का कोई मतलब होता था. पहले कॉम्पैक्ट कैमरे ने उक्त बोर्ड पर लिखी चेतावनी की गंभीरता को कम किया, फिर डिजिटल कैमरे ने उसे और हल्का बनाया, अंतत: मोबाइल फ़ोनों में लगे कैमरे ने उसे बिल्कुल ही अप्रासंगिक बना दिया.
उपग्रहीय चित्रों पर प्रतिबंध की कोशिशें तो अभी ही लगभग बेअसर है, इसलिए आने वाले दिनों में ऐसी कोशिशों का बिल्कुल अप्रासंगिक होना तय है. आँकड़े भी यही कहते हैं- पिछले दशक में दुनिया की तस्वीरें खींचने के लिए सात निजी उपग्रह छोड़े गए, अगले 10 वर्षों में ऐसे 30 उपग्रह छोड़े जाने हैं. इसके अलावा विभिन्न देशों के जासूसी उपग्रहों की संख्या भी तो लगातार बढ़ती जा रही है.
ये सच है कि हर सार्वजनिक सुविधा या औजार में सदुपयोग और दुरुपयोग दोनों तरह की संभावनाएँ होती हैं. अधिकतर मामलों में सदुपयोग की संभावनाएँ, दुरुपयोग की संभावनाओं से कई-कई गुना ज़्यादा होती हैं. इसलिए उन पर रोक नहीं लगाई जा सकती है.
टेलीफ़ोन के आविष्कार के समय से ही अपराधी इसका इस्तेमाल कर रहे हैं- योजनाएँ बनाने में भी, और लोगों को धमकाने या फ़िरौती माँगने में भी. इंटरनेट की सहायता से धोखाधड़ी और जालसाज़ी विश्वव्यापी स्तर पर की जा रही है- नाइजीरिया में बैठा जालसाज़ लॉटरी का सब्ज़बाग दिखा कर भारत के लोगों को ठग रहा है! लेकिन अपराध में इस्तेमाल के आधार पर फ़ोन या इंटरनेट पर रोक की कल्पना भी की जा सकती है?
इंटरनेट पहले-पहल जब विश्वविद्यालयों और विज्ञान संस्थानों से निकल कर आमलोगों के घरों में आया, तो तमाम तरह की आशंकाओं में एक ये भी शामिल थी कि बम और अन्य विस्फोटक अत्यंत सुलभ हो जाएँगे क्योंकि इंटरनेट पर उन्हें बनाने के तरीके आसानी से उपलब्ध हैं. आगे चल कर ये आशंका निराधार निकली. हमेशा से ही आबादी का अत्यंत छोटा अंश अपराधी प्रवृति का रहा है, विस्फोटक बनाने की जानकारी इंटरनेट पर उपलब्ध होने के बाद भी वही स्थिति है.
अपराधियों ने हर काल में नवीनतम जानकारियों का इस्तेमाल किया है, इसलिए ज़ाहिर है आगे भी करते रहेंगे. अच्छी बात ये है कि अपराधियों के हाथों इस्तेमाल की आशंका में विज्ञान ने पहले कभी रास्ता नहीं बदला है. इसलिए आगे भी विज्ञान अपनी राह बढ़ता ही रहेगा, चाहे कितना भी डर फैलाया जाये.
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