हिन्दी के मशहूर कवि त्रिलोचन को उत्तरप्रदेश सरकार ने गाँधी पुरस्कार देने की घोषणा की है. इससे पहले भी उन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं.
लेकिन क्या पुरस्कार देने मात्र से ही किसी साहित्यकार या कलाकार के प्रति सरकार और समाज की ज़िम्मेदारी पूरी हो जाती है?
त्रिलोचनजी हरिद्वार में बीमार पड़े हैं. अपने परिजनों के अलावा उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है.
ऐसा ही एक अन्य महान साहित्यकार अमृता प्रीतम के साथ हो रहा है.
आख़िर कब जगेगी हमारी प्रगतिशील सरकार? क्या समाज को और सैंकड़ो की संख्या में सक्रिय सामाजिक संगठनों को अपने साहित्यकारों की सुध लेने के लिए कुछ करना नहीं चाहिए? कम से कम हम सरकार पर दबाव तो डाल ही सकते हैं. वरना हमें पता है कि त्रिलोचनजी जैसे व्यक्ति किसी से सहायता माँगने नहीं जाएँगे. उनकी लिखी इन पंक्तियों को तो देखिए- भाव उन्हीं का सबका है जो थे अभावमय, पर अभाव से दबे नहीं जागे स्वभावमय.
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