ब्रिटेन से बाहर रहने वाले लोगों के लिए यह एक दिलचस्प तथ्य होगा कि यहाँ भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल के लोगों को 'दक्षिण एशियाई' या 'साउथ एशिन्स' नहीं बल्कि सिर्फ़ 'एशिन्स' कहा जाता है. तो इस बार के ब्रितानी संसदीय चुनावों में हम एशियाइयों की क्या स्थिति है.
आप्रवास या अवैध आप्रवास को विपक्षी कंज़र्वेटिव पार्टी ने यहाँ मुख्य मुद्दा बनाया है. और आश्चर्य की बात है कि 60 प्रतिशत एशियाई भी मानते हैं कि ब्रिटेन में ज़रूरत से ज़्यादा आप्रवासी आ चुके हैं और अब इस पर रोक लगनी ही चाहिए. पता नहीं ऐसी मानसिकता क्यों बन जाती है कि हम तो बेहतर आर्थिक अवसरों का लाभ उठाएँ और बाकियों को ये मौक़ा नहीं मिले.
इस बार विभिन्न पार्टियों ने कोई 70 एशियाई उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है जिनमें कई भारतीय भी हैं. आमतौर पर एशियाई आप्रवासियों के वोट लेबर पार्टी को मिलते रहे हैं लेकिन इस बार इराक़ युद्ध के कारण लेबर नेता और प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर की अलोकप्रियता के चलते इनके वोट किसी एक पार्टी को थोक भाव में शायद ही मिले.
इतना तो तय है कि पाकिस्तानी आप्रवासियों के वोट या तो लिबरल डेमोक्रेट्स उम्मीदवारों को जाएँगे या उन उम्मीदवारों को जो लेबर पार्टी को नुक़सान पहुँचाने में सक्षम दिखते हों. उल्लेखनीय है कि लिबरल डेमोक्रेट्स ही एकमात्र ब्रिटिश पार्टी है जिसने शुरू से ही इराक़ पर हमले का विरोध किया है. रिस्पेक्ट्स पार्टी भी इराक़ युद्ध के ख़िलाफ़ है लेकिन इसका गठन युद्ध के बाद हुआ है और कुछ जगहों पर ही इसने उम्मीदवार खड़े किए हैं.
ब्रितानी भारतीयों के बारे में दुखद तथ्य ये है कि इनके पास पैसा है, प्रतिष्ठा है, योग्यता है...लेकिन पर्याप्त राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं. शायद इसके पीछे कारण यह हो सकता है कि ब्रितानी भारतीय समुदाय में ज़्यादातर गुजराती या पंजाबी मूल के हैं जो पारंपरिक रूप से पैसे कमाने को अपना मुख्य ध्येय मानते हैं. उदाहरण के लिए यदि बिहारियों की संख्या पर्याप्त होती तो निश्चय ही वे खुल कर ब्रितानी राजनीति में भाग लेते.
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