बुधवार, फ़रवरी 21, 2007

अरुंधति राय का हिंसक मन

एक दशक से भी ज़्यादा समय से किसी न किसी कारण चर्चा में रही बुकर पुरस्कार विजेता अरुंधति राय पिछले हफ़्ते एक बार फिर सुर्खियों में रहीं. उन्होंने पत्रकारों को बताया कि वे अपना दूसरा उपन्यास लिख रही हैं. सचमुच ही ये एक बड़ी ख़बर है, क्योंकि बीते एक दशक के दौरान अरुंधति राय ने कई बार कहा था कि 'द गॉड ऑफ़ स्माल थिंग्स' लिखने के बाद वह कोई और उपन्यास लिखने की ज़रूरत नहीं समझतीं.

दूसरा उपन्यास लिखना शुरू कर चुकने की घोषणा करते हुए जो साक्षात्कार अरुंधति ने दिए हैं, उनमें से दो मैंने भी पढ़े हैं. पहला रॉयटर्स समाचार एजेंसी ने जारी किया, और दूसरा लंदन के अख़बार गार्डियन में छपा. इन साक्षात्कारों में अरुंधति ने अपने दूसरे उपन्यास के बार में साफ़-साफ़ कुछ नहीं बताया, लेकिन कुछ संकेत ज़रूर छोड़े हैं. इन संकेतों की बात आगे, पहले इंटरव्यू में दो टूक शब्दों में व्यक्त किए गए अरुंधित के वे विचार जो कि गांधीगिरी के ख़िलाफ़ तो हैं ही, परोक्ष रूप से ख़ून-ख़राबे के समर्थन में भी हैं.

अमरीकी साम्राज्यवाद से लेकर, परमाणु हथियारों की होड़, नर्मदा पर बाँध निर्माण आदि कई स्थानीय-अंतरराष्ट्रीय मुद्दों के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करती रही हैं अरुंधति राय. लेकिन अब उनका मानना है कि कम से कम भारत में अहिंसक विरोध प्रदर्शनों और नागरिक अवज्ञा आंदोलनों से बात नहीं बन रही है.

संसदीय व्यवस्था का अंग बने साम्यवादियों और हिंसक प्रतिरोध में भरोसा रखने वाले माओवादियों की विचारधाराओं के द्वंद्व में फंसी अरुंधति स्वीकार करती हैं कि वो गांधी की अंधभक्त नहीं हैं. उन्हीं के शब्दों में- "आख़िर गांधी एक सुपरस्टार थे. जब वे भूख-हड़ताल करते थे, तो वह भूख-हड़ताल पर बैठे सुपरस्टार थे. लेकिन मैं सुपरस्टार राजनीति में यक़ीन नहीं करती. यदि किसी झुग्गी की जनता भूख-हड़ताल करती है तो कोई इसकी परवाह नहीं करता."

अरुंधति का मानना है कि बाज़ारवाद के प्रवाह में बहते चले जा रहे भारत में विरोध के स्वरों को अनसुना किया जा रहा है. जनविरोधी व्यवस्था के ख़िलाफ़ न्यायपालिका और मीडिया को प्रभावित करने के प्रयास नाकाम साबित हुए हैं. उन्होंने कहा, "मैं समझती हूँ हमारे लिए ये विचार करना बड़ा ही महत्वपूर्ण है कि हम कहाँ सही रहे हैं, और कहाँ ग़लत. हमने जो दलीलें दी वे सही हैं... लेकिन अहिंसा कारगर नहीं रही है."

न्यायपालिका की अवमानना के आरोप में संक्षिप्त क़ैद काट चुकी अरुंधति का स्पष्ट कहना है कि वह हथियार उठाने वाले लोगों की निंदा नहीं करतीं. उन्होंने रॉयटर्स को इंटरव्यू में कहा, "मैं ये कहने की स्थिति में नहीं हूँ कि हर किसी को हथियार उठा लेना चाहिए, क्योंकि मैं ख़ुद हथियार उठाने को तैयार नहीं हूँ... लेकिन साथ ही मैं उनलोगों की निंदा भी नहीं करना चाहती जो प्रभावी होने के दूसरे तरीकों का रुख़ कर रहे हैं."

अपने इस विचार को उन्होंने गार्डियन को दिए साक्षात्कार में थोड़ा और स्पष्ट किया- "मेरे लिए किसी को हिंसा का उपदेश देना अनैतिक होगा, जब तक मैं ख़ुद हिंसा पर उतारू नहीं हो जाती. लेकिन इसी तरह, मेरे लिए विरोध प्रदर्शनों और भूख-हड़तालों की बात करना भी अनैतिक होगा, जब मैं घिनौनी हिंसा से सुरक्षित हूँ. मैं निश्चय ही इराक़ियों, कश्मीरियों या फ़लस्तीनियों को ये नहीं कह सकती कि वे सामूहिक भूख-हड़ताल करें तो उन्हें सैन्य क़ब्ज़े से मुक्ति मिल जाएगी. नागरिक अवज्ञा आंदोलन सफल होते नहीं दिख रहे."

अरुंधति को सत्ता प्रतिष्ठानों द्वारा अहिंसक जनांदोलनों को नज़रअंदाज़ किए जाने का व्यक्तिगत अनुभव नर्मदा आंदोलन से जुड़ कर हुआ. उनका कहना है कि नर्मदा आंदोलन एक गांधीवादी आंदोलन है जिसने वर्षों तक हर लोकतांत्रिक संस्थान के दरवाज़े पर दस्तक दी, लेकिन इससे जुड़े कार्यकर्ताओं को हमेशा अपमानित होना पड़ा. किसी भी बाँध को नहीं रोका गया, उल्टे बाँध निर्माण सेक्टर में नई तेज़ी आई.

इन साक्षात्कारों में अरुंधति राय ने स्वीकार किया है कि विरोधी विचारधारा के लोग उनसे घृणा करते हैं, लेकिन फिर भी वह भारत में रहना चाहेंगी, जो कि पागलपन के एक दौर से गुजर रहा है. जहाँ एक ओर तो लोगों को उनके गाँवों से बेदखल किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर इन सबसे बेख़बर मध्यवर्ग उपभोक्तावाद के भोगविलास में लिप्त है.

...और अंत में बात उन संकेतों की जो अरुंधति के दूसरे उपन्यास की विषयवस्तु की ओर इशारा करते हैं. गार्डियन के पत्रकार ने उनके यहाँ कई किताबें देखीं- एक किताब पॉप स्टार बोनो की जिन्होंने अफ़्रीकी देशों को सरकारों और धनपतियों से आर्थिक सहायता दिलवाने के लिए काफ़ी कुछ किया है. इसके अलावा फ़्रांसीसी क्रांति के पक्षधर थॉमस पाइन और चार्ल्स डिकेन्स की किताबें भी दिखीं. दूसरी ओर रॉयटर्स के इंटरव्यू में इस बात का विशेष तौर पर ज़िक्र किया गया है कि अपना दूसरा उपन्यास लिखना शुरू करने से पहले अरुंधति ने कश्मीर में अच्छा-ख़ासा समय बिताया है.

इन संकेतों से तो यही लगता है कि अरुंधति के नए उपन्यास में शोषित-वंचित वर्ग के संघर्षों की बात होगी. क्या पता उपन्यास की पृष्ठभूमि कश्मीर की हो और निशाने पर दिल्ली का सत्ता तंत्र हो!

6 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

भारत का शोषित वर्ग अरूंधति की भाषा नहीं समझता. उन्हे क्या फर्क पड़ता है, वे क्या लिखती है, क्या पुरस्कार पाती है.

देशद्रोहियों का हथियार उठाना उन्हे सही लग सकता है, मगर सैन्य कार्यवाहीयों में वे मानवाधिकार का हनन देखती है.

Srijan Shilpi ने कहा…

क्रांति की अवधारणा में हिंसा को आम तौर पर अंतर्निहित माना जाता है। निस्संदेह रक्तहीन क्रांति अधिक उदात्त और वरेण्य है, लेकिन यदि क्रांति के लिए हिंसा अपरिहार्य हो जाए तो उससे बिदकना भी बहुत उचित नहीं है। फिर भी हिंसा रक्षात्मक दायरे तक ही सीमित रहे तो उचित है। प्रतिक्रियात्मक हिंसा सार्थक और कारगर नहीं होती।

लेकिन किसी सच्चे लेखक या लेखिका के लिए सत्य और शब्द से बढ़कर कोई अन्य अमोघ हथियार नहीं होता। सत्य अपने आप में न्याय को हासिल कर सकने में समर्थ है। सत्य के साथ प्रेमभाव हो तो लक्ष्य और भी सहज हो सकता है। लेकिन जब प्रेम और धैर्य कारगर न हो तो सत्य को हिंसा का सहारा लेना पड़ सकता है। श्रीकृष्ण और श्रीराम के पौराणिक उदाहरण से हम यह सीख सकते हैं।

जब बुद्ध और गाँधी के रास्ते से क्रांति का लक्ष्य हासिल होने की संभावना नहीं हो तो फिर अस्त्र उठा लेना युगधर्म बन जाता है।

मसिजीवी ने कहा…

गनीमत है आजकल कम दिखाई दे रहे हें वरना अरुणधति के विरोध से नाराज हो जाते :) जैसे कि साल भर पहले हो गए थे।
इस पोस्‍ट पर।

वैसे अपनी ज्‍यादा असहमति तो नहीं हे अरुणध्‍ाति से पर राज्‍यविरोध के लिए विरोध कभी कभी बाजार भाव बनाए रखने का लटका सा लगता है

बेनामी ने कहा…

यह अरुंधति राय जैसे लोगों की दुकानदारी के अलावा और कुछ़ नहीं। उनकी देशद्रोही विचारधारा इराक और फिलीस्‍तीन के साथ कश्‍मीर को भी एक ही पाले में खडा कर देती है। यह देश का दुर्‌भाग्‍य है कि अरुंधति जैसे लोगों को ही इस देश में मान सम्‍मान और प्रचार प्राप्‍त होता है।

अनूप शुक्ल ने कहा…

अरुन्धती राय क्या लिखती हैं यह समय बतायेगा। लेकिन उनके विचार समय-समय पर पढ़ते रहते हैं। आज सारे अच्छे विचार कुछ दूर चलकर संक्षिप्त उपलब्धि हासिल करके मुलायम हो जाते हैं। सच एक ऐसा कोलाज बन जाता है जिसको समझना मुश्किल हो जाता है कि यह सच है या कुछ और। बाजार ऐसा हाबी है हमारे ऊपर कि मरते हुये लोग दिखते नहीं। सैकड़ों आदमियों की जिंदगी-मौत की खबर से बड़ी खबर क्रिकेट मैच की हार-जीत हो जाती है। हम बड़े विकट समय से गुजर रहे हैं!

अनिल ने कहा…

@ sanjay begani
sanjay ji aaapne arundhati ke liye jis tarah ke vicharon ko boya hai we humare samay ki ek prominent intellectual ke baare me sabse vahiyat vichhar hain. aapko arundhati par bolne se pahle unki saari rachnayon ko dhyan se padha hota.
Noam chomsky jaisa widwan amerika me hai jo lagataar amreeki sarkaar ke khilaf bolta aur likhta hai use bhi amreeki sarkaar deshdrohi nahi kahti, sarkaar ki aalochna karna kisi bhi jimmedaar nagrik ka kartavy hai.

samajh ke koi baat bole to achha rahega.

waise aapke nam e laga ki aap koi sahityakaar honge , main nahi janta aapko lekin aapke vichar is maamle me bahut hi fissadi hain.
aamin!!