मंगलवार, फ़रवरी 13, 2007

काव्य महिमा-1

ग्रीनिचशेली ने 1821 में लिखा था- Poets are the unacknowledged legislators of the world. दरअसल, काव्य की ताक़त में शेली को पूरा यक़ीन था. उनके लिए कविता, राजनीतिक दर्शन, और अवैध सत्ता-प्रतिष्ठान से सीधे संघर्ष में परस्पर कोई विरोधाभास नहीं था. उनका मानना था कि कला का क्रांति और उत्पीड़न के बीच के संघर्ष से अटूट संबंध है.

कविता कोई मरहम या भावनात्मक मालिश या फिर भाषाई एरोमाथेरेपी नहीं है. न ही यह कोई ब्लूप्रिंट, या इन्सट्रक्शन मैनुअल या विज्ञापन-पट है. वैसे भी सार्वभौम काव्य जैसी कोई चीज़ नहीं होती, बल्कि मात्र समकालीन इतिहास से जुड़ी कविताएँ और काव्यत्मकता होती हैं. ...कविताएँ उतनी ही शुद्ध और सरल हो सकती हैं, जितना कि मानव इतिहास.

...कविता को अनेकों बार ख़ारिज़ किया जा चुका है: ये आम-जनता के लिए नहीं है, ये रेलवे स्टेशन के बुक-स्टॉल पर या सुपरमार्केटों में नहीं बिक पाती है; ये औसत बुद्धि के लिए बहुत कठिन है; ये बहुत ही आभिजात्य है, लेकिन सोदेबी की नीलामी में धनपति इसके लिए बोली नहीं लगाते; संक्षेप में कहें तो इसकी पूछ नहीं है. इसे कविता की मुक्त-बाज़ार आलोचना कह सकते हैं.

वास्तव में इन विचारों के बीच एक अजीब तरह का संबंध है: मानव पीड़ा के परिप्रेक्ष्य में कविता या तो अपर्याप्त या अनैतिक है, या फिर ये मुनाफ़ा नहीं दे सकती, इसलिए बेकार है. जिस तरह देखें, कवियों को शर्मशार होने या बोरिया-बिस्तर समेटने की सलाह दी जाती है. लेकिन वास्तव में देखें तो, पूरी दुनिया में, काव्यात्मक भाषा का रक्ताधान शरीर और आत्मा को साथ रख सकता है, रख रहा है.

कविता की आलोचना के दौरान हमारे भौतिक जीवन की दिन-प्रतिदिन की अवस्थाओं के बारे में नहीं के बराबर कहा जाता है: कि कैसे ये हमारी भावनाओं, सहज मानवीय प्रतिक्रियाओं को प्रभावित करती हैं- कैसे हम हवा में धुएँ की आकृति की झलक पाते हैं, दुकान के शो-बॉक्स में जूते की जोड़ी को या नुक्कड़ पर खड़े लोगों को देखते हैं, कैसे हम छत पर हो रही बारिश या ऊपर के कमरे में रेडियो पर बज रहे संगीत को सुनते हैं, कैसे हम एक पड़ोसी या अनजान आदमी से नज़रें मिलाते या चुराते हैं. मानें या नहीं, इनका हमारे दृष्टिकोण पर असर पड़ता है. अनेकों कविताएँ, काव्य पर लिखे गए अनेक निबंधों के समान ही, ऐसे लिखी गई हैं मानो इस तरह के दबाव नहीं रहे हों. लेकिन इससे इनका अस्तित्व ही ज़ाहिर होता है.

जब कविता हमारे कंधे पर अपना हाथ रखती है, तो हम भाव विभोर हो उठते हैं. हमारे सामने कल्पना के द्वार खुल जाते हैं, इस कथन को झुठलाते हुए कि 'कोई विकल्प नहीं है.'

सच है कि कोई कविता इसके पीछे की चेतना के समान ही गंभीर या उथली, सतही या दूरदृष्टि वाली, पूर्वानुमान लगाने वाली या नए ज़माने से पिछड़ती हो सकती है. व्याकरण और वाक्य-विन्यास, आवाज़ों, छवियों को कौन आगे बढ़ा रहा है- क्या यह शब्दवाद, रूढ़िवाद या व्यावसायिकता का लघुरूप है- एक बौनी भाषा है? या फिर ये विभेद में समरूपता से ऊर्जा लेने वाले रूपालंकार की ताक़त है? कविता में हमें उसकी याद दिलाने की क्षमता है, जिसे देखने की मनाही है. एक विस्मृत भविष्य; अभी तक अनिर्मित स्थल जिसकी नींव स्वामित्व या बेदखली नहीं, महिलाओं, परित्यक्तों और जनजातियों की अधीनता नहीं, बल्कि स्वतंत्रता को निरंतर परिभाषित किया जाना हो. इस मौजूदा भविष्य को बार-बार ख़ारिज़ किया गया है, लेकिन अभी भी यह दृष्टि सीमा में है. दुनिया भर में इसके रास्ते नए सिरे से खोजे जा रहे हैं, बनाए जा रहे हैं.

कविता में हमेशा वैसा कुछ रहा है जो कि समझा नहीं जा सकेगा, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता, जो कि हमारे उत्कट अवधान, हमारे महत्वपूर्ण सिद्धांतों, देर रात तक चलने वाली हमारी बहसों से बच निकलता है. कवि एमेरिको फ़ेरारी के शब्दों में कहें तो 'वो अव्यक्त हमेशा से रहा है, संभवतया जहाँ, कविता और संसार के बीच जीवंत संबंध का केंद्रक होता है.'

(अमरीकी साहित्यकार Adrienne Rich के लेख 'Legislators of the World' का सार)

2 टिप्‍पणियां:

ghughutibasuti ने कहा…

काव्य में मेरी रुचि नई है फिर भी जो आप कह रहें हैं सही लगता है ।
घुघूती बासूती
ghughutibasuti.blogspot.com

बेनामी ने कहा…

आपकी टिप्पणी, अनूप जी के चिट्ठे पर पढती रही हूँ..आपका चिट्ठा पहली बार ही देखा.. ये लेख बहुत पसँद आया.