ज़िंदगी की राह किसी निराशावादी के लिए मौत की राह होती है. मौत से सबका वास्ता पड़ना ही है. लेकिन मौत कब आएगी ये तो किसी को पता नहीं, इसलिए ज़िंदगी पर भरोसा रखने वाले, मेरी दृष्टि में, ज़्यादा सही हैं.
इसके उलट अगर मौत का दिन मुक़र्रर हो तो ज़िंदगी कैसे जीया जाए? -'ब्लॉगिंग करते हुए.' कम से कम यह जवाब तो किसी ने नहीं सोचा होगा. लेकिन अमरीका में बाल्टिमोर के वेरनॉन ली इवान्स ठीक यही कर रहे हैं. वेरनॉन की ज़िंदगी की सीमा तय की जा चुकी है. यदि कोई क़ानूनी अवरोध नहीं रहा तो उन्हें 6 फ़रवरी 2006 से शुरू होने वाले सप्ताह में किसी दिन मौत की नींद सुला दिया जाएगा.
दरअसल 1983 में दो लोगों को मौत के घाट उतार चुके वेरनॉन पिछले 22 साल से जेल में रहते हुए ज़िंदगी-मौत की क़ानूनी लड़ाई देख रहे हैं. वह लगातार कहते रहे हैं कि बंदूक का ट्रिगर उन्होंने नहीं दबाया था, लेकिन उनकी गर्ल-फ़्रैंड समेत कई प्रत्यक्षदर्शियों ने अदालत में उनके असल अपराधी होने के पक्ष में बयान दिया है. अदालत को इस आरोप में सच्चाई दिखी कि वेरनॉन ने ही एक मोटेल में इस हत्याकांड को अंज़ाम दिया था, और उन्होंने इसके लिए 9,000 डॉलर की सुपारी ली थी. मृतकों में से एक व्यक्ति नशीली दवाओं के एक मामले में गवाह बन सकता था, यानि वेरनॉन का गुनाह कहीं ज़्यादा गंभीर माना गया.
वेरनॉन का ब्लॉग मीट वेरनॉन मार्च 2005 में शुरू हुआ था. क़ानूनी लड़ाई प्रभावित होने के डर से बीच में इसे अपडेट नहीं किया जा रहा था, लेकिन अब सज़ा-ए-मौत लगभग तय हो जाने के बाद इस ब्लॉग में फिर से जान आ गई है.
वेरनॉन को जेल में इंटरनेट की सुविधा नहीं है. ऐसे में एक सज़ा-ए-मौत विरोधी कार्यकर्ता वर्जीनिया साइमन्स इस ब्लॉग का प्रबंधन करती हैं. ब्लॉग इंटरएक्टिव है. मतलब आप वेरनॉन से सवाल-जवाब कर सकते हैं. पाठकों के सवाल का प्रिंट वेरनॉन तक पहुँचाने और उनके जवाब ब्लॉग पर डालने का काम साइमन्स का है.
अदालत ने इससे पहले पिछले साल अप्रैल में वेरनॉन को मौत की नींद सुलाना तय किया था, लेकिन सफल अपील के बाद इसे टाल दिया गया. वेरनॉन के लिए काम कर रहे वकील एक बार फिर पूरी ताक़त झोंक चुके हैं. इन वकीलों की सफलता पर ही निर्भर करता है वेरनॉन का ज़िंदा रह पाना और एक अनूठे ब्लॉग का 10 फ़रवरी से आगे चल पाना.
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