पैगंबर मोहम्मद के कार्टूनों का विवाद लगातार बढ़ता ही जा रहा है. अख़बारों में एक बार फिर सभ्यताओं के टकराव संबंधी टिप्पणियों की बहार आ गई है. विवादित कार्टून और रेखाचित्र पहले डेनमार्क के सबसे बड़े अख़बार युलांस पोस्टेन में छपे थे, इसलिए मुस्लिम जगत के ग़ुस्से का मुख्य लक्ष्य डेनमार्क ही है. मध्य-पूर्व के कुछ देशों में डेनमार्क के दूतावासों को आग लगाई जा चुकी है. मुस्लिम देशों में डेनमार्क के उत्पादों का बहिष्कार तो चल ही रहा है.
विवाद की शुरूआत हुई बच्चों की एक किताब से. डेनमार्क के एक लेखक ने पैगंबर मोहम्मद के जीवन पर एक किताब लिखी. उसे लगा बच्चों के लिए लिखी गई किताब में ड्राइंग होनी चाहिए सो उसने कुछ चित्रकारों से बात की. एक-एक करके कई चित्रकारों ने लेखक को यह कहते हुए मना कर दिया कि उन्हें जान से हाथ नहीं धोना है. अंतत: एक चित्रकार ने मोहम्मद साहब के रेखाचित्र तो बना दिए लेकिन इस शर्त पर कि उसका नाम नहीं सार्वजनिक किया जाएगा.
यह बात जैसे-जैसे फैली, डेनमार्क के समाज में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बहस शुरू हो गई. और यहीं पदार्पण होता है 'युलांस पोस्टेन' का. दक्षिणपंथी माने जाने वाले इस अख़बार ने 12 अलग-अलग कार्टूनिस्टों और चित्रकारों को पैगंबर मोहम्मद को चित्रित करने के लिए तैयार किया. आप इन चित्रों को देखेंग तो साफ़ ज़ाहिर होगा कि इनमें से कुछ अपमानजनक हैं.
ख़ैर, बात ताज़ा विवाद की करें तो कुछ यूरोपीय अख़बारों ने 'युलांस पोस्टेन' के कार्टूनों पर उठे विवाद को प्रेस की आज़ादी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करने की कोशिश के रूप में देखा. जर्मनी, इटली, फ़्रांस और स्पेन के कुछ अख़बारों ने इन कार्टूनों का पुनर्प्रकाशन करते हुए टिप्पणी की कि अभिव्यक्ति की आज़ादी यूरोपीय समाज का अभिन्न अंग है और इसे लेकर कोई समझौता नहीं किया जा सकता. ज़ाहिर उनके इस क़दम से मुस्लिम जगत में विरोध की आग और भड़की.
इस्लाम में पैगंबर मोहम्मद को चित्रित करने की मनाही है. मुख्य तौर पर इसलिए कि इस्लाम में बुतपरस्ती की नौबत नहीं आ जाए. हालाँकि पुराने ज़माने में ईरान में पैगंबर मोहम्मद को बहुत ही ख़ूबसूरती से चित्रित किया जा चुका है. इन तस्वीरों में से कुछ अब भी दुनिया के कई संग्रहालयों में मूल रूप में मौजूद हैं, जबकि इनकी प्रतिकृति अब भी कम से कम ईरान में तो ज़रूर ही खुले रूप में बेची जाती है. दूसरी ओर पैगंबर मोहम्मद को व्यंग्यात्मक और अपमानजनक रूप में चित्रित करने की घटनाएँ भी पहले हो चुकी हैं. अन्य धर्मों के साथ भी ऐसा हुआ है. भारतीय देवी-देवताओं को चड्ढी-बनियान से लेकर जूते-चप्पलों तक पर उकेरने की गुस्ताख़ी कई बार की गई है.
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि पिछले कुछ वर्षों से मुस्लिम जगत के ग़ुस्से का मुख्य निशाना रहे ब्रिटेन और अमरीका ने दोमुँहेपन का उदाहरण पेश करते हुए इस विवाद में ख़ुद को मुसलमानों का हितैषी साबित करने की कोशिश की और यूरोपीय अख़बारों की खुली भर्त्सना कर डाली.
इतना ही नहीं सीएनएन और बीबीसी जैसी प्रसारण संस्थाओं ने भी कार्टून दिखाने से परहेज किया. अमरीका में एक अख़बार ने दो कार्टून पुनर्प्रकाशित किए लेकिन ब्रिटेन के हर अख़बार ने संयम से काम लिया. हालाँकि ब्रिटेन के यही अख़बार थे जिन्होंने सलमान रश्दी की किताब सैटेनिक वर्सेज़ के विवाद में अभिव्यक्ति की आज़ादी का ख़ूब ढिंढोरा पीटा था. दूसरी ओर जॉर्डन के एक अख़बार ने यह कहते हुए विवादित कार्टून छापे कि लोगों को पता तो हो कि वो किस बात पर विरोध कर रहे हैं. ये अलग बात है कि जॉर्डन के संपादक की न सिर्फ़ नौकरी गई, बल्कि गिरफ़्तारी भी हुई.
ख़ुशी की बात है कि भारत में इस विवाद का कोई ख़ास असर नहीं पड़ा. शायद हिंदू देवी-देवताओं को नंगा करने की एमएफ़ हुसैन की करतूत पर हुए विवाद के बाद आम भारतीयों को इस बात का एहसास हो चुका है कि धार्मिक मान्यताओं से खिलवाड़ करने वालों को नज़रअंदाज़ करना ही बेहतर है.
जहाँ तक अभिव्यक्ति की आज़ादी की बात है तो वो भी हर तरह की आज़ादी की तरह किसी न किसी सीमा में होनी चाहिए. हाथ चलाने की आज़ादी के दायरे में सामने वाले की नाक नहीं आनी चाहिए. लेकिन यह भी ज़रूरी है कि आज़ादी का दायरा सबके लिए एक समान हो. ये नहीं कि राम के लिए आज़ादी कुछ हो, और श्याम के लिए कुछ और!
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3 टिप्पणियां:
जहाँ तक अभिव्यक्ति की आज़ादी की बात है तो वो भी हर तरह की आज़ादी की तरह किसी न किसी सीमा में होनी चाहिए. सत्यवचन-उत्तम विचार।
आभार असहिंष्णु अनुयायीयो का जीनकी वजह से सारी दुनियां ने ये कार्टून देखे, वरना कहां छपे थे और हम कहां देखते, किसे पता चलने वाला था. चुंकि इस बार सिता और सरस्वती के नंगे चित्रा पर हो हल्ला नहीं मचा हैं इस लिए हमारे बुद्धिजीवियों को बहस करने कि आवश्यक्ता भी नहीं थी.
आपका लेख कई नयी जानकारियां देता है. आपके विचारों से मैं बिल्कुल सहमत हूं. स्वतंत्रता का भी अपना दायरा है. किंतु यह भी हास्यास्पद है कि कार्टूनों का विरोध करने के लिये दूतावास जला दिये जायें.
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