अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की बढ़ती हैसियत के सबूत नियमित रूप से मीडिया में होते हैं. विश्व के बड़े राजनेताओं का एक ही साँस में चीन और भारत दोनों का नाम लेना साफ ज़ाहिर करता है कि तमाम कमियों के बावज़ूद भारत अंतत: एक बड़े राष्ट्र के रूप में तेज़ी से उभर रहा है. भारत के उदय से जुड़ी एक महत्वपूर्ण ख़बर को किन्हीं कारणों से मीडिया में उतना स्थान नहीं मिला, जितना कि मिलना चाहिए था.
लंदन के अख़बार 'गार्डियन' ने इस महत्वपूर्ण ख़बर को दो कॉलम में छापा. ख़बर के शीर्षक से ही लग जाता है इसके महत्व का अंदाज़ा- 'India flexes its muscles with first foreign military base'. ख़बर में बताया गया है कि भारत इस साल विदेशी ज़मीन पर अपना पहला सैनिक अड्डा मध्य एशिया के देश ताजिकिस्तान में स्थापित कर रहा है.
जानी-मानी रक्षा पत्रिका 'जेम्स डिफ़ेंस वीकली' के हवाले से दी गई इस ख़बर के अनुसार ताजिकिस्तान की राजधानी दुशाम्बे से 60 मील दूर फ़ारखोर हवाई ठिकाने पर भारत जल्दी ही अपनी वायु सेना के मिग-29 विमानों के दो स्क़्वाड्रन तैनात करेगा. भारत के इस क़दम को विश्व मंच पर भारत की बढ़ती ताक़त के रूप में देखा जा रहा है.
फ़ारखोर हवाई ठिकाने से भारत का रिश्ता पुराना है. भारतीय सेना ने 1997 से 2001 तक यहाँ अफ़ग़ानिस्तान में तालेबान लड़ाकों से टक्कर ले रहे उत्तरी गठजोड़ के विद्रोहियों के लिए सैनिक अस्पताल का संचालन किया था. दरअसल फ़ारखोर है भी अफ़ग़ानिस्तान सीमा के क़रीब ही.(कुछ अन्य रिपोर्टों में फ़ारखोर के बजाय ताजिकिस्तान में भारत के भावी सैनिक अड्डे की जगह अयनी को बताया गया है जोकि दुशाम्बे से मात्र 20 किलोमीटर दूर है.)
रिपोर्टों के अनुसार भारत फ़ारखोर में 40 वायु सैनिकों समेत एक दर्जन मिग-29 विमान तैनात करेगा. भारतीय वायु सेना की इकाई फ़ारखोर हवाई ठिकाने पर दो विमान हैंगरों का इस्तेमाल करेगी. वहाँ मौजूद तीसरा हैंगर ताजिक वायुसेना के इस्तेमाल के लिए होगा. दरअसल फ़ारखो में ताजिक वायुसेना को भारत की ओर प्रशिक्षण देने की योजना भी बनाई गई है.
'गार्डियन' के अनुसार ताजिक विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता इगोर सत्तोरोफ़ ने ताजिकिस्तान में भारतीय सैनिक अड्डे की योजना की ख़बर की पुष्टि या खंडन करने से इनकार कर दिया. लेकिन कई स्रोतों से आ रही मिलती-जुलती रिपोर्टों को देखते हुए ख़बर पर भरोसा करना ही ज़्यादा सही लगता है. यदि ऐसा हुआ तो भारत मध्य एशियाई देशों में सैन्य उपस्थिति दर्ज कराने वाला मात्र चौथा देश होगा. भारत से पहले सिर्फ़ तीन देश रूस, अमरीका और जर्मनी ने ही मध्य एशियाई देशों में अपनी स्थायी सैन्य उपस्थिति बना रखी है. रूस के सैनिक अड्डे ताजिकिस्तान और किर्गिज़स्तान में हैं. अमरीका का सैनिक अड्डा किर्गिज़स्तान में है, जबकि जर्मनी ने दक्षिणी उज़बेकिस्तान में एक सैनिक अड्डा बना रखा है.
जहाँ तक मध्य एशिया में सैनिक उपस्थिति के पीछे भारत के उद्देश्यों की बात है तो पहली नज़र में तेल और गैस ही सामने आता है. यानि अपनी गतिविधियाँ बढ़ा कर तेल और गैस की आपूर्ति सुनिश्चित करने का प्रयास. इसके अलावा अफ़ग़ानिस्तान से भारत के बेहतर रिश्तों, अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान की दखलअंदाज़ी को देखते हुए भी ताजिकिस्तान में भारत के स्थायी सैनिक अड्डे की बात समझ में आती है. वैसे, मध्य एशिया में भारत की दिलचस्पी का एक और महत्वपूर्ण प्रमाण है शंघाई सहयोग संगठन में भारत का पर्यवेक्षक के रूप में शामिल होना. चीन और रूस की अगुआई वाले इस संगठन के पूर्ण सदस्यों में मध्य एशिया के देश कज़ाख़स्तान, किरगिज़स्तान, ताजिकिस्तान और उज़बेकिस्तान शामिल हैं.
शनिवार, अप्रैल 29, 2006
सोमवार, अप्रैल 17, 2006
विश्व कप के लिए तैयार स्विटज़रलैंड
स्विटज़रलैंड ने जून में जर्मनी में शुरू हो रही विश्व कप फ़ुटबॉल प्रतियोगिता के लिए बड़ी ही आक्रामक तैयारी की है.
चौंकिए नहीं, आपसे मैं पूरी तरह सहमत हूँ कि स्विस टीम के लीग दौर से आगे पहुँचने की संभावना भी प्रबल नहीं कही जा सकती और सेमीफ़ाइनल-फ़ाइनल में जाने की बात तो सोची भी नहीं जा सकती. लीग मुक़ाबलों में स्विटज़रलैंड का पाला फ़्रांस, दक्षिण कोरिया और टोगो से है. टोगो के प्रदर्शन का तो मुझे पता नहीं, लेकिन इतना तो निश्चय ही कहा जा सकता है कि लीग की बाकी दोनों टीमों से पार पाना आसान नहीं होगा. फ़्रांस तो विश्व कप के प्रमुख दावेदारों में से है, जबकि दक्षिण कोरिया के भूटिया जवान भी अपनी तेज़ी और दमखम से बड़ी-बड़ी टीमों का पसीना छुड़ा देते हैं.
स्विटज़रलैंड की टीम अंतरराष्ट्रीय फ़ुटबॉल रैंकिंग में 36वें नंबर पर आती है. और सटोरियों की बात करें तो स्विटज़रलैंड के चैंपियन बनने पर सट्टे का भाव इस समय 80-1 का चल रहा है. मतलब खेल में तमाम अनिश्चतताओं के बावज़ूद चैंपियन के रूप में स्विस टीम की कल्पना करना भी उचित नहीं लगता.
तो भला मैं विश्व कप के लिए स्विटज़रलैंड की किसी आक्रामक तैयारी की बात कर रहा हूँ? भइये, मैं पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए की जा रही तैयारी की बात कर रहा हूँ. विश्व कप प्रतियोगिता आयोजित हो रही है जर्मनी में और प्रतियोगिता के दौरान पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए आक्रामक रणनीति बना रहा है स्विटज़रलैंड. अटपटी बात? बिल्कुल नहीं, क्योंकि स्विटज़रलैंड के लिए पर्यटन अपनी संस्कृति और नैसर्गिक संपदा दुनिया के सामने लाना कम, विशुद्ध धंधा ज़्यादा है.
सदियों से स्विटज़रलैंड का समाज एक धंधेबाज़ समाज रहा है. याद कीजिए स्विस गार्ड पर देश-दुनिया के पोस्ट को, जिसमें इस बात का उल्लेख है कि कैसे पहले पूरे यूरोप में भाड़े के सैनिकों की आपूर्ति स्विटज़रलैंड से होती थी.
स्विटज़रलैंड पर्यटन(और कुछ हद तक बैंकिंग) के बल पर ही तो दुनिया के संपन्न देशों की पाँत में बैठा हुआ है. ऐसे में यदि विश्व कप के दौरान संभावित पर्यटक जर्मनी का रूख़ करें या फिर घर में टेलीविज़न से चिपके रहें, तो स्विटज़रलैंड की अर्थव्यवस्था का क्या होगा. इसी बात को ध्यान में रख कर स्विस पर्यटन बोर्ड ने विश्व कप विधवाओं को लुभाने की योजना बनाई है. विश्व कप विधवा- यानि खाते-पीते घर की वो महिलाएँ जिनका विश्व कप के दौरान फ़ुटबॉलप्रेमी पतियों की ज़िंदगी में कोई स्थान नहीं रह जाता.
स्विस पर्यटन बोर्ड ने विश्व कप विधवाओं को प्रतियोगिता के दौरान स्विटज़रलैंड आमंत्रित करने के लिए एक सेक्सी टीवी विज्ञापन तैयार किया है. महिलाओं को संबोधित करते हुए इसमें कहा गया है-"कन्याओं, क्यों नहीं विश्व कप फ़ुटबॉल प्रतियोगिता के दौरान आप ऐसे देश में आती हैं जहाँ के मर्द फ़ुटबॉल को कम और आपको ज़्यादा समय देते हैं? " इस वॉयसओवर के साथ विज्ञापन में स्विटज़रलैंड की पहचान से जुड़े काम करते हट्टे-कट्टे नौजवानों को दिखाया जाता है. इनमें गाय दूहते रेंज़ो ब्लूमेंथल भी हैं जो कि पिछले साल मिस्टर स्विटज़रलैंड बने थे. कन्याओं को लुभाने के लिए कुछ मॉडलों के शरीर पर कपड़े में किफ़ायत बरती गई है.
विज्ञापन शुरू में जर्मनी, फ़्रांस और स्विटज़रलैंड के टेलीविज़न चैनलों पर दिखाया जाएगा. वैसे, अमरीकियों और जापानियों के बाद मुझे स्विटज़रलैंड में सर्वाधिक पर्यटक भारत के ही दिखे हैं. इसका एक कारण यश चोपड़ा की फ़िल्मों का असर भी कहा जा सकता है. स्विटज़रलैंड में यांगफ़्राउ ग्लेशियर पर (जो कि टॉप ऑफ़ यूरोप के नाम से जाना जाता है) बॉलीवुड नामक एक बढ़िया रेस्तराँ भी है(हालाँकि उसका मालिक एक स्विस नागरिक ही है). मतलब, भारत में फ़ुटबॉल को लेकर जिन इलाक़ों में दीवानगी है(पश्चिम बंगाल, केरल, गोवा आदि), वहाँ के खाते-पीते परिवार की महिलाओं को केंद्रित कर स्विस पर्यटन बोर्ड बीबीसी वर्ल्ड या सीएनएन के एशियाई प्रसारण में इस विज्ञापन को सम्मिलित करे तो कोई आश्चर्य नहीं.
विश्व कप विधवाओं को लक्षित कर तैयार इस चर्चित स्विस विज्ञापन को देखने के लिए इस पंक्ति को क्लिक करें.
चौंकिए नहीं, आपसे मैं पूरी तरह सहमत हूँ कि स्विस टीम के लीग दौर से आगे पहुँचने की संभावना भी प्रबल नहीं कही जा सकती और सेमीफ़ाइनल-फ़ाइनल में जाने की बात तो सोची भी नहीं जा सकती. लीग मुक़ाबलों में स्विटज़रलैंड का पाला फ़्रांस, दक्षिण कोरिया और टोगो से है. टोगो के प्रदर्शन का तो मुझे पता नहीं, लेकिन इतना तो निश्चय ही कहा जा सकता है कि लीग की बाकी दोनों टीमों से पार पाना आसान नहीं होगा. फ़्रांस तो विश्व कप के प्रमुख दावेदारों में से है, जबकि दक्षिण कोरिया के भूटिया जवान भी अपनी तेज़ी और दमखम से बड़ी-बड़ी टीमों का पसीना छुड़ा देते हैं.
स्विटज़रलैंड की टीम अंतरराष्ट्रीय फ़ुटबॉल रैंकिंग में 36वें नंबर पर आती है. और सटोरियों की बात करें तो स्विटज़रलैंड के चैंपियन बनने पर सट्टे का भाव इस समय 80-1 का चल रहा है. मतलब खेल में तमाम अनिश्चतताओं के बावज़ूद चैंपियन के रूप में स्विस टीम की कल्पना करना भी उचित नहीं लगता.
तो भला मैं विश्व कप के लिए स्विटज़रलैंड की किसी आक्रामक तैयारी की बात कर रहा हूँ? भइये, मैं पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए की जा रही तैयारी की बात कर रहा हूँ. विश्व कप प्रतियोगिता आयोजित हो रही है जर्मनी में और प्रतियोगिता के दौरान पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए आक्रामक रणनीति बना रहा है स्विटज़रलैंड. अटपटी बात? बिल्कुल नहीं, क्योंकि स्विटज़रलैंड के लिए पर्यटन अपनी संस्कृति और नैसर्गिक संपदा दुनिया के सामने लाना कम, विशुद्ध धंधा ज़्यादा है.
सदियों से स्विटज़रलैंड का समाज एक धंधेबाज़ समाज रहा है. याद कीजिए स्विस गार्ड पर देश-दुनिया के पोस्ट को, जिसमें इस बात का उल्लेख है कि कैसे पहले पूरे यूरोप में भाड़े के सैनिकों की आपूर्ति स्विटज़रलैंड से होती थी.
स्विटज़रलैंड पर्यटन(और कुछ हद तक बैंकिंग) के बल पर ही तो दुनिया के संपन्न देशों की पाँत में बैठा हुआ है. ऐसे में यदि विश्व कप के दौरान संभावित पर्यटक जर्मनी का रूख़ करें या फिर घर में टेलीविज़न से चिपके रहें, तो स्विटज़रलैंड की अर्थव्यवस्था का क्या होगा. इसी बात को ध्यान में रख कर स्विस पर्यटन बोर्ड ने विश्व कप विधवाओं को लुभाने की योजना बनाई है. विश्व कप विधवा- यानि खाते-पीते घर की वो महिलाएँ जिनका विश्व कप के दौरान फ़ुटबॉलप्रेमी पतियों की ज़िंदगी में कोई स्थान नहीं रह जाता.
स्विस पर्यटन बोर्ड ने विश्व कप विधवाओं को प्रतियोगिता के दौरान स्विटज़रलैंड आमंत्रित करने के लिए एक सेक्सी टीवी विज्ञापन तैयार किया है. महिलाओं को संबोधित करते हुए इसमें कहा गया है-"कन्याओं, क्यों नहीं विश्व कप फ़ुटबॉल प्रतियोगिता के दौरान आप ऐसे देश में आती हैं जहाँ के मर्द फ़ुटबॉल को कम और आपको ज़्यादा समय देते हैं? " इस वॉयसओवर के साथ विज्ञापन में स्विटज़रलैंड की पहचान से जुड़े काम करते हट्टे-कट्टे नौजवानों को दिखाया जाता है. इनमें गाय दूहते रेंज़ो ब्लूमेंथल भी हैं जो कि पिछले साल मिस्टर स्विटज़रलैंड बने थे. कन्याओं को लुभाने के लिए कुछ मॉडलों के शरीर पर कपड़े में किफ़ायत बरती गई है.
विज्ञापन शुरू में जर्मनी, फ़्रांस और स्विटज़रलैंड के टेलीविज़न चैनलों पर दिखाया जाएगा. वैसे, अमरीकियों और जापानियों के बाद मुझे स्विटज़रलैंड में सर्वाधिक पर्यटक भारत के ही दिखे हैं. इसका एक कारण यश चोपड़ा की फ़िल्मों का असर भी कहा जा सकता है. स्विटज़रलैंड में यांगफ़्राउ ग्लेशियर पर (जो कि टॉप ऑफ़ यूरोप के नाम से जाना जाता है) बॉलीवुड नामक एक बढ़िया रेस्तराँ भी है(हालाँकि उसका मालिक एक स्विस नागरिक ही है). मतलब, भारत में फ़ुटबॉल को लेकर जिन इलाक़ों में दीवानगी है(पश्चिम बंगाल, केरल, गोवा आदि), वहाँ के खाते-पीते परिवार की महिलाओं को केंद्रित कर स्विस पर्यटन बोर्ड बीबीसी वर्ल्ड या सीएनएन के एशियाई प्रसारण में इस विज्ञापन को सम्मिलित करे तो कोई आश्चर्य नहीं.
विश्व कप विधवाओं को लक्षित कर तैयार इस चर्चित स्विस विज्ञापन को देखने के लिए इस पंक्ति को क्लिक करें.
रविवार, अप्रैल 16, 2006
उपग्रहभेदी हथियारों की योजना
दुनिया को अस्थिर बनाने में इकलौते सुपर-पॉवर अमरीका की भूमिका से कोई इनकार नहीं करता. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमरीका की असल ताक़त डॉलर नहीं बल्कि इसकी सेना है. और अमरीका की सेना अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी के बल पर ही सबसे ताक़तवर है. ये अलग बात है कि हर तरह से ताक़तवर होने के बावजूद अमरीकी सेना को वियतनाम में मुँह की खानी पड़ी थी, अफ़ग़ानिस्तान में वो पूरी तरह सफल नहीं रही है, और इराक़ में अमरीकी सेना की मौजूदगी के बावज़ूद क्या कुछ हो रहा है उसके बारे में ज़्यादा कुछ कहने की ज़रूरत नहीं.
बात अमरीकी सेना की ताक़त और उस ताक़त के तकनीकी आधार की करें तो प्रतिष्ठित विज्ञान पत्रिका न्यू साइंटिस्ट के 15 अप्रैल 2006 अंक में एक चौंकाने वाली रिपोर्ट छपी है. इसमें बताया गया है कि कैसे अमरीकी रक्षा विभाग पेंटागन चोरी-चुपके ऐसे हथियारों का विकास कर रहा है जो कि दूसरे देशों के उपग्रहों को मार गिरा सके.
कितना गंभीर ख़तरा हैं ये उपग्रहभेदी या एंटी-सैटेलाइट(ASAT) हथियार? यह जानने के लिए कल्पना कीजिए कि अमरीका भारत को दुश्मन मान लेता है(वास्तव में परमाणु संधि के बाद निकट भविष्य में दोनों देशों की दुश्मनी की कल्पना भी उचित नहीं लगती) और वह भारत में अव्यवस्था फैलाने की ठान लेता है. अमरीका आसानी से यह काम कर सकेगा भारत के स्वदेश में ही विकसित इनसेट पीढ़ी के अत्यंत शक्तिशाली संचार उपग्रहों को निशाना बना कर.
अमरीका उपग्रहभेदी प्रणाली चोरी-चुपके क्यों विकसित कर रहा है? इस बारे में विशेषज्ञों का मानना है कि अंतरिक्ष में लड़ाई की कोई भी प्रणाली विकसित करने पर पूरी दुनिया में विरोध के स्वर उठ सकते हैं. यहाँ तक कि अमरीकी जनता और संसद भी ऐसी किसी योजना पर आसानी से हामी नहीं भरेंगे. इसी कारण इस पर खुल कर कुछ नहीं कहा जा रहा है. पेंटागन ने 2007 के लिए क़रीब 439 अरब डॉलर का रक्षा बजट तैयार किया है माना जाता है कि उसमें एक अरब डॉलर विशेष तौर पर अंतरिक्ष में लड़ाई लड़ने के लिए उपकरणों के विकास और परीक्षण के लिए है. हालाँकि इसे मिसाइल सुरक्षा एजेंसी और वायु सेना के हिस्से के बजट में मिला कर पेश किया जा रहा है.
आश्चर्य नहीं कि सैटेलाइटों को मार गिराने के लिए हथियार विकसित करने की योजना को विवादों में घिरे मौजूदा अमरीकी रक्षा मंत्री डोनल्ड रम्सफ़ेल्ड का पूरा समर्थन मिला हुआ है. इस मामले में भी रम्सफ़ेल्ड ने भयादोहन की नीति अपनाई है, यानि लोगों को अवास्तविक ख़तरों का डर दिखाओ, और भय के माहौल में अपनी विवादास्पद योजनाओं को आगे बढ़ा ले जाओ.
पाँच साल पहले रम्सफ़ेलड की अध्यक्षता वाली एक समिति ने आगाह किया कि अमरीका या तो अंतरिक्ष में अपने हितों की रक्षा के लिए हथियार प्रणाली विकसित करे या फिर धरती से दूर पर्ल हार्बर जैसे किसी बड़े हादसे के लिए तैयार रहे. इस चेतावनी के बाद अमरीकी वायु सेना ने अंतरिक्ष में लड़ाई को भी अपने 'मिशन स्टेटमेंट' में शामिल कर लिया है. अमरीकी वायु सेना के लक्ष्यों में अंतरिक्ष में हावी होने की बात को भी समेट लिया गया है.
सामरिक महत्व के विषयों पर नज़र रखने वाली वाशिंग्टन स्थित संस्थाओं सेंटर फ़ॉर डिफ़ेंस इन्फ़ॉर्मेशन और हेनरी एल स्टिम्सन सेंटर के विशेषज्ञों की मानें तो पेंटागन तीन तरह की अंतरिक्षीय हथियार प्रणाली पर काम कर रहा है. पहली योजना है Multiple Kill Vehicles विकसित करने की, यानि अंतरिक्ष यान के साथ ऐसी मिसाइल भेजने की जो कि एक ही साथ कई उपग्रहों को निशाना बना सके. दूसरी योजना को MicroSat नाम दिया गया है और इसमें ऐसे मारक उपग्रह विकसित करने पर ज़ोर है जो कि दुश्मन उपग्रहों को पहचान कर उसमें टक्कर मार सके. तीसरी योजना लेज़र आधारित हथियारों की है जो कि धरती से ही ताक़तवर लेज़र प्रवाह के ज़रिए उपग्रहों का नाश कर सके.
विशेषज्ञों को आशंका है कि प्रोटोटाइप के परीक्षण के नाम पर पेंटागन उपग्रहभेदी हथियारों को वास्तव में अंतरिक्ष में तैनात भी कर सकता है. ऐसी आशंका के पीछे यह धारणा है कि पेंटागन का मौजूदा असैनिक नेतृत्व औपचारिक रूप से आज अनुमति लेने के बज़ाय कल माफ़ी माँगने को ज़्यादा आसान मानता है. और पेंटागन ने अंतरिक्ष में लड़ाई की योजना पर क़दम बढ़ाया तो भविष्य में माफ़ी माँगने की नौबत ज़रूर ही आएगी.
उपग्रहभेदी हथियारों के विकास के ख़िलाफ़ जो सबसे मज़बूत तर्क दिया जाता है वो है ऐसे हथियारों के इस्तेमाल से पैदा होने वाला मलबे या कचरे का ख़तरा. अंतरिक्षीय कूड़ा कितना ख़तरनाक साबित हो सकता है ये पिछले ही महीने तब सामने आया जब 29 मार्च को किसी अंतरिक्षीय मलबे का एक टुकड़ा रूस के एक संचार उपग्रह की राह में आ गया. टक्कर हुई और उपग्रह को ठंडा रखने वाले द्रव की टंकी में छेद हो गया है. द्रव के तेज़ी से निकलने की प्रतिक्रिया में उपग्रह घिरनी की तरह घूमने लगा. अब उपग्रह किसी काम का नहीं रह गया है, और उसे ऊपर की कक्षा में धकेल कर निष्क्रिय बनाना पड़ेगा.
लेकिन ऐसे ख़तरों के बावज़ूद अमरीका सरकार उपग्रहभेदी हथियारों का विकास करने की ठान चुकी है. पेंटागन इसकी आक्रामक और रक्षात्मक दोनों तरह की उपयोगिता देखता है. आक्रामक उपयोगिता होगी युद्ध की स्थिति में शत्रु देश की संचार व्यवस्था को चौपट करना और रक्षात्मक उपयोगिता होगी शत्रु देशों के संभावित हमले से अपने उपग्रहों को बचाना.
उपग्रहों की युद्ध के दौरान उपयोगिता का ताज़ा उदाहरण है तीन साल पहले इराक़ पर हमला. इराक़ पर हमले के दौरान उपग्रहों से मिली स्पष्ट तस्वीरों के कारण सद्दाम की सेना और ठिकानों को कुछ ही दिनों में नाकाम बनाना संभव हुआ था, इसलिए अमरीका अपने संचार उपग्रहों को हर क़ीमत पर सुरक्षित रखना चाहेगा. लेकिन सवाल यह है कि क्या किसी देश के पास अमरीकी उपग्रहों को निशाना बनाने की क्षमता है भी? पिछले साल अमरीकी रक्षा विभाग ने संसद को सौंपी एक रिपोर्ट में चीन का उल्लेख करते हुए कहा है कि चीन उपग्रहभेदी हथियारों के रूप में एक भूआधारित लेज़र हथियार तंत्र विकसति कर रहा है. अमरीका की माने तो चीन यदि इस प्रणाली के विकास में कामयाब रहा तो कम ताक़त की लेज़र किरणों के बल पर वह किसी भी उपग्रह को अंधा बना सकेगा, वहीं शक्तिशाली लेज़र किरणों के प्रवाह से किसी उपग्रह को नष्ट भी किया जा सकेगा.
पिछले साल इसराइली संसद के विदेशी मामलों और रक्षा से जुड़ी समिति ने सरकार से उपग्रहभेदी हथियार कार्यक्रम शुरू करने की माँग की थी. तेज़ी से एक अंतरराष्ट्रीय ताक़त के रूप में उभर रहा भारत भी अपने कई महत्वपूर्ण सैन्य कार्यक्रमों पर गोपनीयता के आवरण में काम करता रहा है. क्या पता भारत भी प्रौद्योगिकी आधारित लड़ाई के लिए ख़ुद को तैयार कर रहा हो!
बात अमरीकी सेना की ताक़त और उस ताक़त के तकनीकी आधार की करें तो प्रतिष्ठित विज्ञान पत्रिका न्यू साइंटिस्ट के 15 अप्रैल 2006 अंक में एक चौंकाने वाली रिपोर्ट छपी है. इसमें बताया गया है कि कैसे अमरीकी रक्षा विभाग पेंटागन चोरी-चुपके ऐसे हथियारों का विकास कर रहा है जो कि दूसरे देशों के उपग्रहों को मार गिरा सके.
कितना गंभीर ख़तरा हैं ये उपग्रहभेदी या एंटी-सैटेलाइट(ASAT) हथियार? यह जानने के लिए कल्पना कीजिए कि अमरीका भारत को दुश्मन मान लेता है(वास्तव में परमाणु संधि के बाद निकट भविष्य में दोनों देशों की दुश्मनी की कल्पना भी उचित नहीं लगती) और वह भारत में अव्यवस्था फैलाने की ठान लेता है. अमरीका आसानी से यह काम कर सकेगा भारत के स्वदेश में ही विकसित इनसेट पीढ़ी के अत्यंत शक्तिशाली संचार उपग्रहों को निशाना बना कर.
अमरीका उपग्रहभेदी प्रणाली चोरी-चुपके क्यों विकसित कर रहा है? इस बारे में विशेषज्ञों का मानना है कि अंतरिक्ष में लड़ाई की कोई भी प्रणाली विकसित करने पर पूरी दुनिया में विरोध के स्वर उठ सकते हैं. यहाँ तक कि अमरीकी जनता और संसद भी ऐसी किसी योजना पर आसानी से हामी नहीं भरेंगे. इसी कारण इस पर खुल कर कुछ नहीं कहा जा रहा है. पेंटागन ने 2007 के लिए क़रीब 439 अरब डॉलर का रक्षा बजट तैयार किया है माना जाता है कि उसमें एक अरब डॉलर विशेष तौर पर अंतरिक्ष में लड़ाई लड़ने के लिए उपकरणों के विकास और परीक्षण के लिए है. हालाँकि इसे मिसाइल सुरक्षा एजेंसी और वायु सेना के हिस्से के बजट में मिला कर पेश किया जा रहा है.
आश्चर्य नहीं कि सैटेलाइटों को मार गिराने के लिए हथियार विकसित करने की योजना को विवादों में घिरे मौजूदा अमरीकी रक्षा मंत्री डोनल्ड रम्सफ़ेल्ड का पूरा समर्थन मिला हुआ है. इस मामले में भी रम्सफ़ेल्ड ने भयादोहन की नीति अपनाई है, यानि लोगों को अवास्तविक ख़तरों का डर दिखाओ, और भय के माहौल में अपनी विवादास्पद योजनाओं को आगे बढ़ा ले जाओ.
पाँच साल पहले रम्सफ़ेलड की अध्यक्षता वाली एक समिति ने आगाह किया कि अमरीका या तो अंतरिक्ष में अपने हितों की रक्षा के लिए हथियार प्रणाली विकसित करे या फिर धरती से दूर पर्ल हार्बर जैसे किसी बड़े हादसे के लिए तैयार रहे. इस चेतावनी के बाद अमरीकी वायु सेना ने अंतरिक्ष में लड़ाई को भी अपने 'मिशन स्टेटमेंट' में शामिल कर लिया है. अमरीकी वायु सेना के लक्ष्यों में अंतरिक्ष में हावी होने की बात को भी समेट लिया गया है.
सामरिक महत्व के विषयों पर नज़र रखने वाली वाशिंग्टन स्थित संस्थाओं सेंटर फ़ॉर डिफ़ेंस इन्फ़ॉर्मेशन और हेनरी एल स्टिम्सन सेंटर के विशेषज्ञों की मानें तो पेंटागन तीन तरह की अंतरिक्षीय हथियार प्रणाली पर काम कर रहा है. पहली योजना है Multiple Kill Vehicles विकसित करने की, यानि अंतरिक्ष यान के साथ ऐसी मिसाइल भेजने की जो कि एक ही साथ कई उपग्रहों को निशाना बना सके. दूसरी योजना को MicroSat नाम दिया गया है और इसमें ऐसे मारक उपग्रह विकसित करने पर ज़ोर है जो कि दुश्मन उपग्रहों को पहचान कर उसमें टक्कर मार सके. तीसरी योजना लेज़र आधारित हथियारों की है जो कि धरती से ही ताक़तवर लेज़र प्रवाह के ज़रिए उपग्रहों का नाश कर सके.
विशेषज्ञों को आशंका है कि प्रोटोटाइप के परीक्षण के नाम पर पेंटागन उपग्रहभेदी हथियारों को वास्तव में अंतरिक्ष में तैनात भी कर सकता है. ऐसी आशंका के पीछे यह धारणा है कि पेंटागन का मौजूदा असैनिक नेतृत्व औपचारिक रूप से आज अनुमति लेने के बज़ाय कल माफ़ी माँगने को ज़्यादा आसान मानता है. और पेंटागन ने अंतरिक्ष में लड़ाई की योजना पर क़दम बढ़ाया तो भविष्य में माफ़ी माँगने की नौबत ज़रूर ही आएगी.
उपग्रहभेदी हथियारों के विकास के ख़िलाफ़ जो सबसे मज़बूत तर्क दिया जाता है वो है ऐसे हथियारों के इस्तेमाल से पैदा होने वाला मलबे या कचरे का ख़तरा. अंतरिक्षीय कूड़ा कितना ख़तरनाक साबित हो सकता है ये पिछले ही महीने तब सामने आया जब 29 मार्च को किसी अंतरिक्षीय मलबे का एक टुकड़ा रूस के एक संचार उपग्रह की राह में आ गया. टक्कर हुई और उपग्रह को ठंडा रखने वाले द्रव की टंकी में छेद हो गया है. द्रव के तेज़ी से निकलने की प्रतिक्रिया में उपग्रह घिरनी की तरह घूमने लगा. अब उपग्रह किसी काम का नहीं रह गया है, और उसे ऊपर की कक्षा में धकेल कर निष्क्रिय बनाना पड़ेगा.
लेकिन ऐसे ख़तरों के बावज़ूद अमरीका सरकार उपग्रहभेदी हथियारों का विकास करने की ठान चुकी है. पेंटागन इसकी आक्रामक और रक्षात्मक दोनों तरह की उपयोगिता देखता है. आक्रामक उपयोगिता होगी युद्ध की स्थिति में शत्रु देश की संचार व्यवस्था को चौपट करना और रक्षात्मक उपयोगिता होगी शत्रु देशों के संभावित हमले से अपने उपग्रहों को बचाना.
उपग्रहों की युद्ध के दौरान उपयोगिता का ताज़ा उदाहरण है तीन साल पहले इराक़ पर हमला. इराक़ पर हमले के दौरान उपग्रहों से मिली स्पष्ट तस्वीरों के कारण सद्दाम की सेना और ठिकानों को कुछ ही दिनों में नाकाम बनाना संभव हुआ था, इसलिए अमरीका अपने संचार उपग्रहों को हर क़ीमत पर सुरक्षित रखना चाहेगा. लेकिन सवाल यह है कि क्या किसी देश के पास अमरीकी उपग्रहों को निशाना बनाने की क्षमता है भी? पिछले साल अमरीकी रक्षा विभाग ने संसद को सौंपी एक रिपोर्ट में चीन का उल्लेख करते हुए कहा है कि चीन उपग्रहभेदी हथियारों के रूप में एक भूआधारित लेज़र हथियार तंत्र विकसति कर रहा है. अमरीका की माने तो चीन यदि इस प्रणाली के विकास में कामयाब रहा तो कम ताक़त की लेज़र किरणों के बल पर वह किसी भी उपग्रह को अंधा बना सकेगा, वहीं शक्तिशाली लेज़र किरणों के प्रवाह से किसी उपग्रह को नष्ट भी किया जा सकेगा.
पिछले साल इसराइली संसद के विदेशी मामलों और रक्षा से जुड़ी समिति ने सरकार से उपग्रहभेदी हथियार कार्यक्रम शुरू करने की माँग की थी. तेज़ी से एक अंतरराष्ट्रीय ताक़त के रूप में उभर रहा भारत भी अपने कई महत्वपूर्ण सैन्य कार्यक्रमों पर गोपनीयता के आवरण में काम करता रहा है. क्या पता भारत भी प्रौद्योगिकी आधारित लड़ाई के लिए ख़ुद को तैयार कर रहा हो!
सोमवार, अप्रैल 10, 2006
स्विस गार्ड यानि पोप की सेना
रोम के बीचोंबीच एक नन्हें लेकिन अत्यंत प्रभावशाली संप्रभु राष्ट्र के रूप में बसे वैटिकन का बड़ा ही घटनापूर्ण इतिहास रहा है. ये अपने साथ अनेक विचित्र परंपराओं को साथ लेकर चल रहा है.
याद करें मौजूदा पोप बेनेडिक्ट सोलहवें (जोज़फ़ रैत्सिंगर) के चुनाव के दौरान कैसे पूरी दुनिया टेलीविज़न से चिपकी रहती थी ये देखने के लिए कि सिस्टीन चैपल की चिमनी से काला धुआँ निकलता है या सफेद. काला धुआँ यानि कार्डिनल की बैठक में नए पोप के नाम पर सहमति नहीं, और सफेद धुआँ यानि नया पोप चुन लिया गया.
इन्हीं विचित्र परंपराओं में से एक है- वैटिकन की सेना. कहने की ज़रूरत नहीं कि मौज़ूदा काल में वैटिकन को किसी सेना की कोई ज़रूरत नहीं है, लेकिन पुराने दिनों में यानि शताब्दियों पहले ऐसा नहीं था. धर्म के नाम पर आज की तरह तब आतंकवाद हमले नहीं होते थे, बल्कि खुला युद्ध हुआ करता था. ऐसी ही लड़ाइयों के लिए पोप ने भी अपनी सेना बना रखी थी, या यों कहें कि भाड़े के सैनिक जमा कर रखे थे. पोप के भड़ैती सैनिकों को एक संस्थागत रूप दिया गया था आज से ठीक पाँच सौ साल पहले. और आधी सहस्राब्दी बाद भी ये संस्था आज भी मौज़ूद है. आज भी वैटिकन की एक सेना है जिसे स्विस गार्ड के नाम से जाना जाता है.
मुझे पहली बार 2003 में वैटिकन जाने का मौक़ा मिला था. सेंट पीटर्स स्क़्वायर, सेंट पीटर्स गिरजाघर, सिस्टीन चैपल और वैटिकन म्यूज़ियम के बाद सबसे ज़्यादा ध्यान खींचा था सतरंगा ड्रेस पहने स्विस गार्ड्स ने. वैटिकन पहुँचने वाला शायद ही कोई पर्यटक लंबा-सा भाला लिए और खंभे की तरह स्थिर रहने वाले स्विस गार्ड की तस्वीर क्लिक करना भूलता हो.
यदि स्विस गार्ड्स के इतिहास को देखें तो कई बातें चौंकाने वाली लगती हैं. पहली बात ये कि मध्ययुगीन यूरोप में भाड़े के सैनिकों की आपूर्ति मुख्य तौर पर स्विटज़रलैंड से हुआ करती थी. (आज के शांतिपूर्ण और तटस्थ स्विटज़रलैंड से तुलना करें.) स्विस भाड़े के सैनिकों के चलन का मुख्य कारण था स्विटज़रलैंड की ग़रीबी.(उस समय पर्यटन का धंधा शुरू नहीं हो पाया था, और न ही गुप्त खाते वाले बैंकों की शुरुआत हुई थी. आज प्रति व्यक्ति आय की दृष्टि से स्विटज़रलैंड अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ऊपर की पाँत में आता है.) इसके अलावा स्विस भड़ैती सैनिकों को अत्यंत भरोसेमंद भी माना जाता था.(आज दो नंबर के काम से पैसा कमाने वालों के लिए स्विस बैंकों जितना विश्वसनीय कोई और नहीं.) स्विस गार्ड के मौज़ूदा कमांडर-इन-चीफ़ हैं पोप बेनेडिक्ट सोलहवें.
पोप जूलियस द्वितीय ने 1505 में स्विस परिसंघ से कुछ भड़ैती सैनिकों की माँग की. (ग़ौर करें, पाँच सौ साल पहले सैनिकों की आपूर्ति को संस्थागत रूप दिया जा चुका था.) उस साल सितंबर में रवाना हुए 150 स्विस लड़ाके जनवरी 1506 में पोप की नगरी में पहुँचे. तब से लगातार स्विस गार्ड वैटिकन के इतिहास के अभिन्न अंग बने हुए हैं. पोप के प्रति इनके अगाध समर्पण और इनके अदम्य साहस का पहला बड़ा उदाहरण सामने आया 6 मई 1527 को जब रोमन शासक चार्ल्स पंचम की आक्रणकारी सेना से पोप क्लीमेंट सप्तम का सफलतापूर्वक बचाव करते हुए वैटिकन स्विस गार्ड के 189 में से 147 सैनिकों ने अपनी जान दे दी थी.
वैटिकन स्विस गार्ड को कभी-कभार प्रतिबंधित भी किया गया. सैनिकों की संख्या भी कम-ज़्यादा होती रही. अभी इस सेना में कुल 110 सैनिक हैं (पोप षष्ठम के कार्यकाल में 1970 में मात्र 42 रह गए थे).
आज वैटिकन स्विस गार्ड की प्रसिद्धि दुनिया की सबसे पुरानी और सबसे छोटी सेना के रूप में है. ये मत समझें कि चटक नीले, केसरिया और नारंगी रंग के ढीली वर्दी पहने ये गार्ड पर्यटकों के फ़ोटो और वीडियो का हिस्सा बनने मात्र के लिए तैनात हैं. हर गार्ड स्विटज़रलैंड की सेना में नियमित प्रशिक्षण लेने के बाद ही वैटिकन की सेना में स्थान पाता है. उसे स्विस नागरिक और रोमन कैथोलिक होना चाहिए. भर्ती के समय उसकी उम्र 19 से 30 साल की हो. रंगरूट अविवाहित हो, हाई स्कूल पास हो और कम से कम 174 सेंटीमीटर लंबा हो.
स्विस गार्ड को आधुनिक हथियार चलाने का प्रशिक्षण भी दिया जाता है.वैसे वैटिकन में तैनात किसी गार्ड के पास शायद ही आपको कोई बंदूक दिखे. हथियारबंद गार्ड के नाम पर आप एक ख़ास भाला लिए सैनिक को देखते हैं. इसमें भाले के फ़लक के नीच कुल्हाड़ी का फ़लक भी जुड़ा होता है. इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि सदियों पुराने ढर्रे पर चल रहे स्विस गार्ड की अपनी वेबसाइट भी है. (वैटिकन की वेबसाइट पर इस सेना को 'स्विस गार्ड' कहा गया है, लेकिन इनकी अपनी वेबसाइट पर 'स्विस गार्ड्स'.)
स्विस गार्ड के मौज़ूदा कमांडर एल्मर थियोडोर मैडर की मानें तो आज वैटिकन का एक भी सैनिक ऐसा नहीं है जिसने नौकरी के दौरान कभी बंदूक चलानी पड़ी हो. पिछले दिनों न्यूयॉर्क यात्रा के दौरान उन्होंने कहा, "हमारे सैनिक 'मिर्ची स्प्रे' से लैस होते हैं. लेकिन आठ वर्षों के अपने सेवा काल के दौरान मुझे सिर्फ़ एक बार सुनने को मिला कि किसी सैनिक को इस स्प्रे का इस्तेमाल करने की ज़रूरत पड़ी."
पोप की विदेश यात्राओं में कुछ बहुत ही अनुभवी स्विस गार्ड उनके साथ होते हैं, लेकिन सादे कपड़ों में ही. पोप की सुरक्षा की ज़िम्मेवारी ज़ाहिर है मेज़बान देशों पर होती है, लेकिन ऐसे में भी स्विस गार्ड की उपयोगिता है. कमांडर मैडर इस बारे में कहते हैं, "हमें ये पता होता है कि कब कहा जाए कि 'पोप थक गए हैं इसलिए उन्हें आराम दिया जाए', या फिर वो हाथ मिलाना चाहते हैं या नहीं."
वैटिकन की सेना को किसी से ख़तरा नहीं दिखता, लेकिन कई बारे अपनों से भी ख़तरा हो जाता है. अभी कुछ ही साल पहले 1998 में सेना के कमांडर और उनकी पत्नी की हत्या एक स्विस गार्ड ने ही कर दी. बाद में हत्यारे गार्ड ने आत्महत्या कर ली. (वैटिकन की सेना के जवान को सेवा काल के दौरान शादी करने की मनाही है, लेकिन एक अधिकारी ब्याह रचा सकता है.)
हर साल 25 से 30 पुराने गार्ड रिटायर होते हैं और उनकी जगह रंगरूटों की भर्ती की जाती है. इस साल 6 मई को स्विस गार्ड के रंगरूटों की खेप को शपथ दिलाई जाएगी, यानि एक मध्युगीन रोचक परंपरा को जीवंत बनाए रखने की दिशा में एक महत्वपूर्ण क़दम!
याद करें मौजूदा पोप बेनेडिक्ट सोलहवें (जोज़फ़ रैत्सिंगर) के चुनाव के दौरान कैसे पूरी दुनिया टेलीविज़न से चिपकी रहती थी ये देखने के लिए कि सिस्टीन चैपल की चिमनी से काला धुआँ निकलता है या सफेद. काला धुआँ यानि कार्डिनल की बैठक में नए पोप के नाम पर सहमति नहीं, और सफेद धुआँ यानि नया पोप चुन लिया गया.
इन्हीं विचित्र परंपराओं में से एक है- वैटिकन की सेना. कहने की ज़रूरत नहीं कि मौज़ूदा काल में वैटिकन को किसी सेना की कोई ज़रूरत नहीं है, लेकिन पुराने दिनों में यानि शताब्दियों पहले ऐसा नहीं था. धर्म के नाम पर आज की तरह तब आतंकवाद हमले नहीं होते थे, बल्कि खुला युद्ध हुआ करता था. ऐसी ही लड़ाइयों के लिए पोप ने भी अपनी सेना बना रखी थी, या यों कहें कि भाड़े के सैनिक जमा कर रखे थे. पोप के भड़ैती सैनिकों को एक संस्थागत रूप दिया गया था आज से ठीक पाँच सौ साल पहले. और आधी सहस्राब्दी बाद भी ये संस्था आज भी मौज़ूद है. आज भी वैटिकन की एक सेना है जिसे स्विस गार्ड के नाम से जाना जाता है.
मुझे पहली बार 2003 में वैटिकन जाने का मौक़ा मिला था. सेंट पीटर्स स्क़्वायर, सेंट पीटर्स गिरजाघर, सिस्टीन चैपल और वैटिकन म्यूज़ियम के बाद सबसे ज़्यादा ध्यान खींचा था सतरंगा ड्रेस पहने स्विस गार्ड्स ने. वैटिकन पहुँचने वाला शायद ही कोई पर्यटक लंबा-सा भाला लिए और खंभे की तरह स्थिर रहने वाले स्विस गार्ड की तस्वीर क्लिक करना भूलता हो.
यदि स्विस गार्ड्स के इतिहास को देखें तो कई बातें चौंकाने वाली लगती हैं. पहली बात ये कि मध्ययुगीन यूरोप में भाड़े के सैनिकों की आपूर्ति मुख्य तौर पर स्विटज़रलैंड से हुआ करती थी. (आज के शांतिपूर्ण और तटस्थ स्विटज़रलैंड से तुलना करें.) स्विस भाड़े के सैनिकों के चलन का मुख्य कारण था स्विटज़रलैंड की ग़रीबी.(उस समय पर्यटन का धंधा शुरू नहीं हो पाया था, और न ही गुप्त खाते वाले बैंकों की शुरुआत हुई थी. आज प्रति व्यक्ति आय की दृष्टि से स्विटज़रलैंड अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ऊपर की पाँत में आता है.) इसके अलावा स्विस भड़ैती सैनिकों को अत्यंत भरोसेमंद भी माना जाता था.(आज दो नंबर के काम से पैसा कमाने वालों के लिए स्विस बैंकों जितना विश्वसनीय कोई और नहीं.) स्विस गार्ड के मौज़ूदा कमांडर-इन-चीफ़ हैं पोप बेनेडिक्ट सोलहवें.
पोप जूलियस द्वितीय ने 1505 में स्विस परिसंघ से कुछ भड़ैती सैनिकों की माँग की. (ग़ौर करें, पाँच सौ साल पहले सैनिकों की आपूर्ति को संस्थागत रूप दिया जा चुका था.) उस साल सितंबर में रवाना हुए 150 स्विस लड़ाके जनवरी 1506 में पोप की नगरी में पहुँचे. तब से लगातार स्विस गार्ड वैटिकन के इतिहास के अभिन्न अंग बने हुए हैं. पोप के प्रति इनके अगाध समर्पण और इनके अदम्य साहस का पहला बड़ा उदाहरण सामने आया 6 मई 1527 को जब रोमन शासक चार्ल्स पंचम की आक्रणकारी सेना से पोप क्लीमेंट सप्तम का सफलतापूर्वक बचाव करते हुए वैटिकन स्विस गार्ड के 189 में से 147 सैनिकों ने अपनी जान दे दी थी.
वैटिकन स्विस गार्ड को कभी-कभार प्रतिबंधित भी किया गया. सैनिकों की संख्या भी कम-ज़्यादा होती रही. अभी इस सेना में कुल 110 सैनिक हैं (पोप षष्ठम के कार्यकाल में 1970 में मात्र 42 रह गए थे).
आज वैटिकन स्विस गार्ड की प्रसिद्धि दुनिया की सबसे पुरानी और सबसे छोटी सेना के रूप में है. ये मत समझें कि चटक नीले, केसरिया और नारंगी रंग के ढीली वर्दी पहने ये गार्ड पर्यटकों के फ़ोटो और वीडियो का हिस्सा बनने मात्र के लिए तैनात हैं. हर गार्ड स्विटज़रलैंड की सेना में नियमित प्रशिक्षण लेने के बाद ही वैटिकन की सेना में स्थान पाता है. उसे स्विस नागरिक और रोमन कैथोलिक होना चाहिए. भर्ती के समय उसकी उम्र 19 से 30 साल की हो. रंगरूट अविवाहित हो, हाई स्कूल पास हो और कम से कम 174 सेंटीमीटर लंबा हो.
स्विस गार्ड को आधुनिक हथियार चलाने का प्रशिक्षण भी दिया जाता है.वैसे वैटिकन में तैनात किसी गार्ड के पास शायद ही आपको कोई बंदूक दिखे. हथियारबंद गार्ड के नाम पर आप एक ख़ास भाला लिए सैनिक को देखते हैं. इसमें भाले के फ़लक के नीच कुल्हाड़ी का फ़लक भी जुड़ा होता है. इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि सदियों पुराने ढर्रे पर चल रहे स्विस गार्ड की अपनी वेबसाइट भी है. (वैटिकन की वेबसाइट पर इस सेना को 'स्विस गार्ड' कहा गया है, लेकिन इनकी अपनी वेबसाइट पर 'स्विस गार्ड्स'.)
स्विस गार्ड के मौज़ूदा कमांडर एल्मर थियोडोर मैडर की मानें तो आज वैटिकन का एक भी सैनिक ऐसा नहीं है जिसने नौकरी के दौरान कभी बंदूक चलानी पड़ी हो. पिछले दिनों न्यूयॉर्क यात्रा के दौरान उन्होंने कहा, "हमारे सैनिक 'मिर्ची स्प्रे' से लैस होते हैं. लेकिन आठ वर्षों के अपने सेवा काल के दौरान मुझे सिर्फ़ एक बार सुनने को मिला कि किसी सैनिक को इस स्प्रे का इस्तेमाल करने की ज़रूरत पड़ी."
पोप की विदेश यात्राओं में कुछ बहुत ही अनुभवी स्विस गार्ड उनके साथ होते हैं, लेकिन सादे कपड़ों में ही. पोप की सुरक्षा की ज़िम्मेवारी ज़ाहिर है मेज़बान देशों पर होती है, लेकिन ऐसे में भी स्विस गार्ड की उपयोगिता है. कमांडर मैडर इस बारे में कहते हैं, "हमें ये पता होता है कि कब कहा जाए कि 'पोप थक गए हैं इसलिए उन्हें आराम दिया जाए', या फिर वो हाथ मिलाना चाहते हैं या नहीं."
वैटिकन की सेना को किसी से ख़तरा नहीं दिखता, लेकिन कई बारे अपनों से भी ख़तरा हो जाता है. अभी कुछ ही साल पहले 1998 में सेना के कमांडर और उनकी पत्नी की हत्या एक स्विस गार्ड ने ही कर दी. बाद में हत्यारे गार्ड ने आत्महत्या कर ली. (वैटिकन की सेना के जवान को सेवा काल के दौरान शादी करने की मनाही है, लेकिन एक अधिकारी ब्याह रचा सकता है.)
हर साल 25 से 30 पुराने गार्ड रिटायर होते हैं और उनकी जगह रंगरूटों की भर्ती की जाती है. इस साल 6 मई को स्विस गार्ड के रंगरूटों की खेप को शपथ दिलाई जाएगी, यानि एक मध्युगीन रोचक परंपरा को जीवंत बनाए रखने की दिशा में एक महत्वपूर्ण क़दम!
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