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शनिवार, जनवरी 20, 2007

अमरीका को चुनौती, भारत को सीख

उपग्रहभेदी व्यवस्थादोगलेपन के लिए अमरीका को चिढ़ाने का काम कई देश कर सकते हैं और करते भी रहे हैं, लेकिन इस मुद्दे पर चुनौती देने का काम दो देश ही कर सकते हैं- रूस और चीन. अमरीकी सामरिक नीतिकारों के लिए ताज़ा चुनौती चीन के तरफ़ से आई है, जो कि भारत के लिए सीख है.

प्रतिष्ठित पत्रिका एविएशन वीक ने 17 जनवरी को अपनी वेबसाइट पर यह रहस्योदघाटन कर सनसनी फैला दी कि चीन ने सप्ताह भर पहले एक उपग्रहभेदी मिसाइल का सफल परीक्षण किया है. रिपोर्ट में कहा गया है कि चीन ने 11 जनवरी को अपने ही एक बुढ़ा चुके मौसम-उपग्रह को अंतरिक्ष में ही सफलतापूर्वक मार गिराया. चीन ने आधिकारिक रूप से इस बारे में कोई बयान नहीं दिया है, लेकिन अमरीका तथा ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, जापान और दक्षिण कोरिया जैसे उसके पिछलग्गों के खुल कर विरोध जताने से साफ़ है कि चीन स्टार-वॉर्स के क्षेत्र में अमरीका को चुनौती देने की दिशा में पहला क़दम बढ़ा चुका है.

अमरीका को अंतरिक्षीय युद्ध के क्षेत्र में चीन की प्रगति की भनक बहुत पहले लग चुकी थी और पेंटागन ने The Military Power of the People’s Republic of China 2005 नामक अपनी रिपोर्ट में इस बात का खुल का ज़िक्र भी किया था. लेकिन चूँकि रिपोर्ट में कोई ठोस सबूत पेश नहीं किया गया था, इसलिए तब इस बात का अनुमान नहीं लगाया जा सका था कि चीन को इतनी जल्दी सफलता मिल जाएगी.

इससे पहले किसी उपग्रहभेदी हथियार का परीक्षण अंतिम बार 1985 में अमरीका ने किया था. वह परीक्षण राष्ट्रपति रोनल्ड रीगन के स्टार-वॉर्स के सपने को साकार करने के प्रयासों के तहत किया गया था. उसके बाद विभिन्न कारणों से (जिनमें से प्रमुख था आर्थिक कारण) अमरीका की अंतरिक्षीय युद्ध नीति में व्यापक बदलाव किया गया, और स्टार-वॉर्स के अपेक्षाकृत सीमित रूप वाले National Missile Defense(NMD) नामक योजना को आगे बढ़ाया गया. इसमें सारा ज़ोर अमरीकी हितों की ओर बढ़ने वाले किसी मिसाइल को रास्ते में ही मार गिराने पर है.

रक्षात्मक उपाय के रूप में पेश की गई NMD योजना ही लगातार शक्तिशाली बनते जा रहे चीन को चिढ़ाने के लिए काफ़ी थी, क्योंकि अमरीका न सिर्फ़ जापान बल्कि ताइवान को भी अपने मिसाइलरोधी कवच के भीतर रखना चाहता है. ग़ौरतलब है कि चीन की नज़र में ताइवान एक विद्रोही प्रांत भर है, और उसका कहना है कि अंतत: ताइवान को चीन का हिस्सा बनना ही पड़ेगा.

चीन ने रूस के साथ मिल कर अंतरिक्ष को हथियार-रहित बनाने के लिए खुल कर अभियान चलाया है, लेकिन पिछले एक दशक के दौरान जब कभी भी इसके लिए किसी अंतरराष्ट्रीय समझौते की संभावना बनी, अमरीका ने उसमें अड़ंगा लगाने में कोई देर नहीं की. इतना ही नहीं जैसा कि इस ब्लॉग में पिछले साल अप्रैल में विस्तार से ज़िक्र किया गया था, अमरीका ज़्यादा शोर मचाए बिना तरह-तरह के एंटी-सैटेलाइट(एसैट) हथियार बनाने में भी जुटा हुआ है. इन फ़्यूचरिस्टिक हथियारों से हर उस देश को ख़तरा होगा जो कि अमरीका के सुर में सुर मिलाने से इनक़ार करेंगे.

भविष्य में चीन भी निश्चय ही फ़्यूचरिस्टिक अंतरिक्षीय युद्ध लड़ने में सक्षम होगा, लेकिन उसके पहले सफल उपग्रहभेदी हथियार के पीछे बिल्कुल सरल सिद्धांत है- निशाने पर उपग्रह को लो, उसकी सही-सही अवस्थिति सुनिश्चित करो, और उसमें तेज़ गति से बैलिस्टिक मिसाइल टकरा दो. न बारूद, न बम, न लेज़र विकिरण, और न ही कोई आणविक हथियार...सिर्फ़, तेज़ टक्कर मारने वाली मिसाइल यानि Kinetic Kill Vehicle!!

मतलब दुश्मन के उपग्रहों को चकनाचूर करने के लिए चीन को सिर्फ़ अपनी टोही क्षमता पक्की करने की ज़रूरत होगी. इतना भर जानना होगा कि उपग्रह विशेष की अवस्थिति क्या है. बाक़ी, बैलिस्टिक मिसाइल को उपग्रह से टकराने की क्षमता का प्रदर्शन तो उसने कर ही दिया है.

चीन ने धरती से कोई 800 किलोमीटर दूर की कक्षा में स्थापित अपने एक बेकार होते जा रहे उपग्रह को सफलापूर्वक निशाना बनाया स्वविकसित KT-1 बैलिस्टिक मिसाइल से. लेकिन ऐसी ख़बरें भी हैं कि चीन KT-2 और KT-2A पर भी काम कर रहा है. इन बूस्टरयुक्त मिसाइलों के ज़रिए 20,000 किलोमीटर दूर मध्यवर्ती उपग्रहीय कक्षा ही नहीं, बल्कि 36,000 किलोमीटर दूर भूस्थिर कक्षा के उपग्रहों को भी निशाना बनाया जा सकेगा. यदि ऐसा हुआ, तो अमरीका के 40-50 उपग्रहों को निशाना बना कर चीन कुछ ही घंटों के भीतर अमरीकी सैन्य तंत्र को अंधा-गूंगा-बहरा बना सकेगा.

दरअसल हाल के वर्षों में किसी भी लड़ाई में उपग्रहों ने अमरीकी युद्ध मशीनरी के तंत्रिका-तंत्र की भूमिका निभाई है. तस्वीरें उतारने समेत अधिकतर ज़मीनी ख़ुफ़िया जानकारी जुटाने का काम निचली कक्षाओं में स्थापित उपग्रहों के ज़रिए होता है. (चीनी परीक्षण की भेंट चढ़ा उपग्रह ऐसी ही कक्षा में था.) इससे आगे बढ़ें, तो अत्यंत सटीक क्रूज़ मिसाइलों और अन्य Smart Weapons की जान होते हैं GPS उपग्रह, जो कि धरती से 15,000 से 20,000 किलोमीटर दूर की कक्षा में होते हैं. और आगे बढ़ें तो अमरीका के हाईटेक युद्ध में तीन चौथाई से भी ज़्यादा सैनिक संचार 36,000 किलोमीटर दूर भूस्थिर कक्षा के उपग्रहों पर निर्भर करता है.

चीन की ताज़ा सफलता निश्चय ही अमरीका के लिए चुनौती है. संभव है वो एक बार फिर बैलिस्टिक मिसाइलों को सीमित करने और अंतरिक्षीय युद्ध के डर को समाप्त करने के लिए एक नई अंतरराष्ट्रीय या बहुपक्षीय संधि पर बातचीत के लिए तैयार हो जाए. यदि ऐसा नहीं होता है...तो भारत जैसे चीन के पड़ोसी देश के पास एंटी-सैटेलाइट हथियार विकसित करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं रह जाएगा. जैसे, परस्पर विनाश की गारंटी देने वाले परमाणु हथियार भरोसेमंद सुरक्षा का उपाय माने जाते हैं, उसी तरह एंटी-सैटेलाइट मिसाइल भारतीय उपग्रहों की सुरक्षा की गारंटी बन सकेंगे.

रविवार, अप्रैल 16, 2006

उपग्रहभेदी हथियारों की योजना

दुनिया को अस्थिर बनाने में इकलौते सुपर-पॉवर अमरीका की भूमिका से कोई इनकार नहीं करता. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमरीका की असल ताक़त डॉलर नहीं बल्कि इसकी सेना है. और अमरीका की सेना अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी के बल पर ही सबसे ताक़तवर है. ये अलग बात है कि हर तरह से ताक़तवर होने के बावजूद अमरीकी सेना को वियतनाम में मुँह की खानी पड़ी थी, अफ़ग़ानिस्तान में वो पूरी तरह सफल नहीं रही है, और इराक़ में अमरीकी सेना की मौजूदगी के बावज़ूद क्या कुछ हो रहा है उसके बारे में ज़्यादा कुछ कहने की ज़रूरत नहीं.

बात अमरीकी सेना की ताक़त और उस ताक़त के तकनीकी आधार की करें तो प्रतिष्ठित विज्ञान पत्रिका न्यू साइंटिस्ट के 15 अप्रैल 2006 अंक में एक चौंकाने वाली रिपोर्ट छपी है. इसमें बताया गया है कि कैसे अमरीकी रक्षा विभाग पेंटागन चोरी-चुपके ऐसे हथियारों का विकास कर रहा है जो कि दूसरे देशों के उपग्रहों को मार गिरा सके.

कितना गंभीर ख़तरा हैं ये उपग्रहभेदी या एंटी-सैटेलाइट(ASAT) हथियार? यह जानने के लिए कल्पना कीजिए कि अमरीका भारत को दुश्मन मान लेता है(वास्तव में परमाणु संधि के बाद निकट भविष्य में दोनों देशों की दुश्मनी की कल्पना भी उचित नहीं लगती) और वह भारत में अव्यवस्था फैलाने की ठान लेता है. अमरीका आसानी से यह काम कर सकेगा भारत के स्वदेश में ही विकसित इनसेट पीढ़ी के अत्यंत शक्तिशाली संचार उपग्रहों को निशाना बना कर.

अमरीका उपग्रहभेदी प्रणाली चोरी-चुपके क्यों विकसित कर रहा है? इस बारे में विशेषज्ञों का मानना है कि अंतरिक्ष में लड़ाई की कोई भी प्रणाली विकसित करने पर पूरी दुनिया में विरोध के स्वर उठ सकते हैं. यहाँ तक कि अमरीकी जनता और संसद भी ऐसी किसी योजना पर आसानी से हामी नहीं भरेंगे. इसी कारण इस पर खुल कर कुछ नहीं कहा जा रहा है. पेंटागन ने 2007 के लिए क़रीब 439 अरब डॉलर का रक्षा बजट तैयार किया है माना जाता है कि उसमें एक अरब डॉलर विशेष तौर पर अंतरिक्ष में लड़ाई लड़ने के लिए उपकरणों के विकास और परीक्षण के लिए है. हालाँकि इसे मिसाइल सुरक्षा एजेंसी और वायु सेना के हिस्से के बजट में मिला कर पेश किया जा रहा है.

आश्चर्य नहीं कि सैटेलाइटों को मार गिराने के लिए हथियार विकसित करने की योजना को विवादों में घिरे मौजूदा अमरीकी रक्षा मंत्री डोनल्ड रम्सफ़ेल्ड का पूरा समर्थन मिला हुआ है. इस मामले में भी रम्सफ़ेल्ड ने भयादोहन की नीति अपनाई है, यानि लोगों को अवास्तविक ख़तरों का डर दिखाओ, और भय के माहौल में अपनी विवादास्पद योजनाओं को आगे बढ़ा ले जाओ.

पाँच साल पहले रम्सफ़ेलड की अध्यक्षता वाली एक समिति ने आगाह किया कि अमरीका या तो अंतरिक्ष में अपने हितों की रक्षा के लिए हथियार प्रणाली विकसित करे या फिर धरती से दूर पर्ल हार्बर जैसे किसी बड़े हादसे के लिए तैयार रहे. इस चेतावनी के बाद अमरीकी वायु सेना ने अंतरिक्ष में लड़ाई को भी अपने 'मिशन स्टेटमेंट' में शामिल कर लिया है. अमरीकी वायु सेना के लक्ष्यों में अंतरिक्ष में हावी होने की बात को भी समेट लिया गया है.

सामरिक महत्व के विषयों पर नज़र रखने वाली वाशिंग्टन स्थित संस्थाओं सेंटर फ़ॉर डिफ़ेंस इन्फ़ॉर्मेशन और हेनरी एल स्टिम्सन सेंटर के विशेषज्ञों की मानें तो पेंटागन तीन तरह की अंतरिक्षीय हथियार प्रणाली पर काम कर रहा है. पहली योजना है Multiple Kill Vehicles विकसित करने की, यानि अंतरिक्ष यान के साथ ऐसी मिसाइल भेजने की जो कि एक ही साथ कई उपग्रहों को निशाना बना सके. दूसरी योजना को MicroSat नाम दिया गया है और इसमें ऐसे मारक उपग्रह विकसित करने पर ज़ोर है जो कि दुश्मन उपग्रहों को पहचान कर उसमें टक्कर मार सके. तीसरी योजना लेज़र आधारित हथियारों की है जो कि धरती से ही ताक़तवर लेज़र प्रवाह के ज़रिए उपग्रहों का नाश कर सके.

विशेषज्ञों को आशंका है कि प्रोटोटाइप के परीक्षण के नाम पर पेंटागन उपग्रहभेदी हथियारों को वास्तव में अंतरिक्ष में तैनात भी कर सकता है. ऐसी आशंका के पीछे यह धारणा है कि पेंटागन का मौजूदा असैनिक नेतृत्व औपचारिक रूप से आज अनुमति लेने के बज़ाय कल माफ़ी माँगने को ज़्यादा आसान मानता है. और पेंटागन ने अंतरिक्ष में लड़ाई की योजना पर क़दम बढ़ाया तो भविष्य में माफ़ी माँगने की नौबत ज़रूर ही आएगी.

उपग्रहभेदी हथियारों के विकास के ख़िलाफ़ जो सबसे मज़बूत तर्क दिया जाता है वो है ऐसे हथियारों के इस्तेमाल से पैदा होने वाला मलबे या कचरे का ख़तरा. अंतरिक्षीय कूड़ा कितना ख़तरनाक साबित हो सकता है ये पिछले ही महीने तब सामने आया जब 29 मार्च को किसी अंतरिक्षीय मलबे का एक टुकड़ा रूस के एक संचार उपग्रह की राह में आ गया. टक्कर हुई और उपग्रह को ठंडा रखने वाले द्रव की टंकी में छेद हो गया है. द्रव के तेज़ी से निकलने की प्रतिक्रिया में उपग्रह घिरनी की तरह घूमने लगा. अब उपग्रह किसी काम का नहीं रह गया है, और उसे ऊपर की कक्षा में धकेल कर निष्क्रिय बनाना पड़ेगा.

लेकिन ऐसे ख़तरों के बावज़ूद अमरीका सरकार उपग्रहभेदी हथियारों का विकास करने की ठान चुकी है. पेंटागन इसकी आक्रामक और रक्षात्मक दोनों तरह की उपयोगिता देखता है. आक्रामक उपयोगिता होगी युद्ध की स्थिति में शत्रु देश की संचार व्यवस्था को चौपट करना और रक्षात्मक उपयोगिता होगी शत्रु देशों के संभावित हमले से अपने उपग्रहों को बचाना.

उपग्रहों की युद्ध के दौरान उपयोगिता का ताज़ा उदाहरण है तीन साल पहले इराक़ पर हमला. इराक़ पर हमले के दौरान उपग्रहों से मिली स्पष्ट तस्वीरों के कारण सद्दाम की सेना और ठिकानों को कुछ ही दिनों में नाकाम बनाना संभव हुआ था, इसलिए अमरीका अपने संचार उपग्रहों को हर क़ीमत पर सुरक्षित रखना चाहेगा. लेकिन सवाल यह है कि क्या किसी देश के पास अमरीकी उपग्रहों को निशाना बनाने की क्षमता है भी? पिछले साल अमरीकी रक्षा विभाग ने संसद को सौंपी एक रिपोर्ट में चीन का उल्लेख करते हुए कहा है कि चीन उपग्रहभेदी हथियारों के रूप में एक भूआधारित लेज़र हथियार तंत्र विकसति कर रहा है. अमरीका की माने तो चीन यदि इस प्रणाली के विकास में कामयाब रहा तो कम ताक़त की लेज़र किरणों के बल पर वह किसी भी उपग्रह को अंधा बना सकेगा, वहीं शक्तिशाली लेज़र किरणों के प्रवाह से किसी उपग्रह को नष्ट भी किया जा सकेगा.

पिछले साल इसराइली संसद के विदेशी मामलों और रक्षा से जुड़ी समिति ने सरकार से उपग्रहभेदी हथियार कार्यक्रम शुरू करने की माँग की थी. तेज़ी से एक अंतरराष्ट्रीय ताक़त के रूप में उभर रहा भारत भी अपने कई महत्वपूर्ण सैन्य कार्यक्रमों पर गोपनीयता के आवरण में काम करता रहा है. क्या पता भारत भी प्रौद्योगिकी आधारित लड़ाई के लिए ख़ुद को तैयार कर रहा हो!