दुनिया भर में अंग्रेज़ी के बढ़ते चलन के कारण ये पहले से ही तय माना जा रहा है कि अंग्रेज़ी अब लाट साहबों की भाषा नहीं रह जाएगी. भारत का ही उदाहरण लें तो यहाँ अंग्रेज़ी बोलने वालों की ओर आश्चर्य से देखने वालों की संख्या बहुत कम रह गई है. बल्कि भारतीय भाषाएँ न बोल कर गिटपिट या घसीटामार अंग्रेज़ी बोलने वालों को हिकारत भरी नज़रों से देखा जाने लगा है.
ख़ैर भारत के भूरे साहबों को अंग्रेज़ी का झंडा ढोना बंद करने की समझ कब आएगी ये तो देखने वाली बात होगी, लेकिन असली लाट साहबों को ये बात ज़रूर समझ में आ गई है कि सिर्फ़ अंग्रेज़ी के भरोसे रहे तो लुटिया डूब के ही रहेगी.
ब्रिटिश काउंसिल ने एक व्यापक अध्ययन में पाया है कि ब्रिटेन को आने वाले दिनों में मात्र अंग्रेज़ी भाषा के कारण वो आर्थिक और सांस्कृतिक फ़ायदे नहीं मिलने वाले हैं जो कि पिछले सौ वर्षों से मिल रहे थे. इस अध्ययन के अनुसार आज दुनिया भर में दो अरब लोग अंग्रेज़ी बोल-समझ लेते हैं. ऐसे में ब्रितानी नागरिकों को अपनी भाषा के कारण मिलने वाले 'एक्सक्लुसिव' फ़ायदे नहीं मिल पा रहे हैं. दरअसल रोज़गार के मामले में अंग्रेज़ अपनी भाषा पर निर्भरता के कारण पिछड़ने लगे हैं. अंग्रेज़ मात्र अंग्रेज़ी से काम चलाना चाहते हैं, जबकि ग़ैर-अंग्रेज़ी भाषी देशों के उनके प्रतिद्वंद्वी अंग्रेज़ी के अलावा कम-से-कम एक अन्य भाषा में भी दक्षता रखते हैं.
ब्रिटिश काउंसिल के इस अध्ययन में कहा गया है कि ब्रितानी लोगों को स्पैनिश, चीनी और अरबी जैसी भविष्य की भाषाएँ सीखनी चाहिए. (मुझे इन कथित भविष्य की भाषाओं में हिंदी का नाम नहीं होने का एकमात्र कारण ये नज़र आता है कि जिनको दो सौ साल ग़ुलाम बना कर रखा उनकी भाषा को कैसे वांछनीय भाषा बताएँ!) ख़ैर, ब्रिटिश काउंसिल के अध्ययन में इस तथ्य को ज़रूर महत्व दिया गया है कि भारत और चीन में फ़र्राटे से अंग्रेज़ी बोलने वालों की संख्या दुनिया के किसी भी देश से ज़्यादा है.
इसी साल के शुरू में अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने सामरिक और राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण भाषाओं के शिक्षण के लिए एक राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम शुरू करने की घोषणा की थी. बुश ने इन महत्वपूर्ण भाषाओं में चीनी, रूसी, अरब, फ़ारसी के साथ हिंदी को भी रखा है. लेकिन बुश को ये स्वीकार करने में शायद लज्जा महसूस हुई होगी कि अमरीकियों को दुनिया पर अपना व्यापारिक प्रभुत्व क़ायम रखने के लिए हिंदी और अन्य भाषाएँ सीखने की ज़रूरत है, इसलिए उन्होंने इसे एक सुरक्षा ज़रूरत बताया.
हिंदी के महत्व की बात करें तो एक बात तो स्पष्ट है कि इसे स्वीकार करने में अमरीका सरकार के सामने ब्रितानी सरकार जैसा कोई पूर्वाग्रह आड़े नहीं आता. अमरीका को पता है कि अभी भी भारत के दो प्रतिशत अंग्रेज़ीदाँ लोगों के हाथों में सत्ता केंद्रित होने के बावजूद भारतीय मीडिया की सर्वाधिक प्रभावी भाषा हिंदी ही है. शायद इसी कारण अमरीका सरकार ने दिल्ली स्थित अमेरिकन सेंटर में हिंदी मीडिया की मॉनिटरिंग का एक विशेष प्रकोष्ठ स्थापित करने का फ़ैसला किया है.
यहाँ एक सवाल ये उठता है कि अमरीका को हिंदी इतनी ही महत्वपूर्ण दिखती है तो फिर वॉयस ऑफ़ अमरीका की हिंदी रेडियो प्रसारण सेवा को इस साल सितंबर से बंद करने का प्रस्ताव क्यों? इसका जवाब मेरे ख़्याल से यह है कि अमरीका सरकार को इस बात का अहसास है कि भारतीय मीडिया(हिंदी मीडिया) जनता को इतने सारे विकल्प उपलब्ध करा रही है कि अमरीकी शॉर्टवेब रेडियो प्रसारण को सुनने में बहुत कम लोगों की दिलचस्पी रह गई है. और जब तक भारत में प्राइवेट एफ़एम रेडियो पर समाचार की अनुमति नहीं दी जाती है भारतीय मानस पटल पर सर्वाधिक असर टेलीविज़न मीडिया का ही रहेगा. अमरीका सरकार यह जानती है, तभी तो 'आजतक' चैनल पर वॉयस ऑफ़ अमरीका की आंशिक उपस्थिति को बनाए रखने का भी फ़ैसला किया गया है.
सही मायने में सिर्फ़ अंग्रेज़ी को ही एक वैश्विक भाषा, एक यूनीवर्सल लैंग्वेज माना जा सकता है. अंग्रेज़ी सीखना रोज़गार और तरक्की के लिए एक ज़रूरत है. ये मेरा भी मानना है और दुनिया के अधिकतर लोग भी शायद ऐसा ही मानते हैं. लेकिन भारत के भूरे साहबों को कौन समझाए जो अब भी 'मात्र अंग्रेज़ी..दूसरा कुछ नहीं..भारतीय भाषाएँ तो बिल्कुल ही नहीं!' के सिद्धांत पर चल रहे हैं.
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1 टिप्पणी:
बन्धुवर ! आप ने भाषा के भविष्य का बहुत ही सटीक पडताल किया है | विष्लेषण सही और यथार्थपरक है | कोई भी सिस्टम ज्यादा दिन तक अस्वाभिवक स्थिति में नही रह सकता |
अंगरेजी के शोषणतन्त्र का सर्वनाश हो !
अनुनाद
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