देश-दुनिया के पाठकों और हिंदी ब्लॉग जगत के सभी लेखकों को नए साल की असीम शुभकामनाएँ! नया साल आपके जीवन में नई-नई ख़ुशियाँ लेकर आए...आप सपरिवार स्वस्थ और सानंद रहें...आपको सदैव सफलता मिले!!
मकरसंक्रांति के बाद नियमित पोस्ट लिखने के वायदे के साथ,
-हिंदी ब्लॉगर
गुरुवार, दिसंबर 29, 2005
बुधवार, दिसंबर 21, 2005
वर्ष 2005 के चर्चित शब्दों की बानगी
हमारे जीवन में मीडिया मीडिया की चौबीसों घंटे मौजूदगी के कारण हर साल हमें कुछ नए शब्द सीखने को मिलते हैं. नए शब्दों में कुछ तो बिल्कुल भोलेभाले होते हैं तो कइयों से शरारत की महक आती है. बीते वर्षों से इस तरह के शब्दों के उदाहरण ढूँढे जाएँ तो मिखाइल गोर्वाच्योफ़ के ज़माने के ग्लास्नोस्त(खुलापन) और पेरेस्त्रोइका(पुनर्निर्माण) हमारा ध्यान तुरंत आकर्षित करते हैं. सूचना प्रौद्योगिकी के मौजूदा युग में आउटसोर्सिंग,साइबर वर्ल्ड और ब्लॉग जैसे शब्दों के अवतरित हुए भी ज़्यादा दिन नहीं बीते हैं.
आइए एक नज़र डालें वर्ष 2005 के चर्चित शब्दों और परिभाषाओं पर. मैंने इन्हें वर्षांत पर प्रकाशित रोचक जानकारियों की एक किताब से लिया है. ये शब्द और मुहावरे अंग्रेज़ी के हैं, ज़ाहिर है हर साल विभिन्न भाषाओं से ऐसे सैंकड़ो उदाहरण जुटाए जा सकते हैं.
HAPPY SLAPPING/BANGING OUT: अनजान लोगों के ख़िलाफ़ अकारण की जाने वाली हिंसा की घटना को वीडियो फ़ोन पर रिकॉर्ड करना और ऐसी वीडियो क्लिप दोस्तों को टेक्स्ट करना.
CLEANSKINS: आपराधिक मामले में संदिग्ध वे लोग जिनका अब तक कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं रहा हो. लंदन में सात जुलाई के बम हमलों के लिए ज़िम्मेवार माने जाने वाले चरमपंथियों के लिए इस शब्द का जमकर इस्तेमाल हुआ.
RENDITION: क़ैदियों को अवैध रूप से उन देशों में भेजना जहाँ उन्हें प्रताड़ित किया जाना क़ानून के ख़िलाफ़ नहीं हो. अमरीकी ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए पर आरोप है कि उसने दुनिया भर में पकड़े गए हज़ारों संदिग्ध चरमपंथियों को मिस्र, रोमानिया, पोलैंड जैसे देशों में रखकर प्रताड़ित किया.
SANTO SUBITO: तुरंत संत बनाया जाना. पोप जॉन पॉल द्वितीय की मौत के बाद वेटिकन के सेंट पीटर्स स्क़्वायर में जुटी भीड़ उन्हें संत घोषित किए जाने की माँग करते हुए 'सैंतो सुबितो' का नारा लगा रही थी.
DEFERRED SUCCESS: नाकामी के लिए प्रयोग में लाया जाने वाला आशावादी मुहावरा.
BATHROOM BREAK: संयुक्त राष्ट्र शिखर सम्मेलन के दौरान अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश द्वारा विदेश मंत्री कोंडोलीज़ा राइस के नाम लिखे नोट से लिए गए शब्द. रॉयटर्स के एक फ़ोटोग्राफ़र के कैमरे में क़ैद दो पंक्तियों के इस नोट में बुश ने लिखा है- "मैं समझता हूँ मुझे बाथरूम ब्रेक की ज़रूरत है. क्या ये संभव है?"
ISRAELISATION: इसके तीन प्रमुख उपयोग हैं-(क)अरब-इसराइल संघर्ष का विश्व राजनीति पर प्रभाव. (ख)9/11, मैड्रिड और 7/7 के हमलों के बाद बनी यह मान्यता कि पश्चिमी जगत भी अब आत्मघाती हमलों के ख़तरे के साथ जी रहा है. (ख)आतंकवाद से निपटने के लिए इसराइली तौर-तरीक़ों को अपनाना.
आइए एक नज़र डालें वर्ष 2005 के चर्चित शब्दों और परिभाषाओं पर. मैंने इन्हें वर्षांत पर प्रकाशित रोचक जानकारियों की एक किताब से लिया है. ये शब्द और मुहावरे अंग्रेज़ी के हैं, ज़ाहिर है हर साल विभिन्न भाषाओं से ऐसे सैंकड़ो उदाहरण जुटाए जा सकते हैं.
HAPPY SLAPPING/BANGING OUT: अनजान लोगों के ख़िलाफ़ अकारण की जाने वाली हिंसा की घटना को वीडियो फ़ोन पर रिकॉर्ड करना और ऐसी वीडियो क्लिप दोस्तों को टेक्स्ट करना.
CLEANSKINS: आपराधिक मामले में संदिग्ध वे लोग जिनका अब तक कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं रहा हो. लंदन में सात जुलाई के बम हमलों के लिए ज़िम्मेवार माने जाने वाले चरमपंथियों के लिए इस शब्द का जमकर इस्तेमाल हुआ.
RENDITION: क़ैदियों को अवैध रूप से उन देशों में भेजना जहाँ उन्हें प्रताड़ित किया जाना क़ानून के ख़िलाफ़ नहीं हो. अमरीकी ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए पर आरोप है कि उसने दुनिया भर में पकड़े गए हज़ारों संदिग्ध चरमपंथियों को मिस्र, रोमानिया, पोलैंड जैसे देशों में रखकर प्रताड़ित किया.
SANTO SUBITO: तुरंत संत बनाया जाना. पोप जॉन पॉल द्वितीय की मौत के बाद वेटिकन के सेंट पीटर्स स्क़्वायर में जुटी भीड़ उन्हें संत घोषित किए जाने की माँग करते हुए 'सैंतो सुबितो' का नारा लगा रही थी.
DEFERRED SUCCESS: नाकामी के लिए प्रयोग में लाया जाने वाला आशावादी मुहावरा.
BATHROOM BREAK: संयुक्त राष्ट्र शिखर सम्मेलन के दौरान अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश द्वारा विदेश मंत्री कोंडोलीज़ा राइस के नाम लिखे नोट से लिए गए शब्द. रॉयटर्स के एक फ़ोटोग्राफ़र के कैमरे में क़ैद दो पंक्तियों के इस नोट में बुश ने लिखा है- "मैं समझता हूँ मुझे बाथरूम ब्रेक की ज़रूरत है. क्या ये संभव है?"
ISRAELISATION: इसके तीन प्रमुख उपयोग हैं-(क)अरब-इसराइल संघर्ष का विश्व राजनीति पर प्रभाव. (ख)9/11, मैड्रिड और 7/7 के हमलों के बाद बनी यह मान्यता कि पश्चिमी जगत भी अब आत्मघाती हमलों के ख़तरे के साथ जी रहा है. (ख)आतंकवाद से निपटने के लिए इसराइली तौर-तरीक़ों को अपनाना.
गुरुवार, दिसंबर 15, 2005
ख़ुश पाई गई है मोनालिसा
किसी भी व्यक्ति के मुस्कान के कई अर्थ निकाले जा सकते हैं. और जब मुस्कान सबसे प्रसिद्ध यानि मोनालिसा की मुस्कान हो, तो उसके न जाने कितने अर्थ निकाले जाते रहेंगे. आइए देखें ताज़ा अर्थ क्या निकाला गया है.
विज्ञान पत्रिका न्यू साइंटिस्ट के 17 दिसंबर 2005 के अंक में नीदरलैंड्स के एम्सटर्डम विश्वविद्यालय के नीसू सीबी नामक वैज्ञानिक द्वारा किए गए अध्ययन के बारे में एक रिपोर्ट छपी है.
सीबी साहब ने लियोनार्दो दा विंची की प्रसिद्ध कृति मोनालिसा की मुस्कान से रहस्य का आवरण हटाने के लिए एक विशेष सॉफ़्टवेयर का प्रयोग किया जो कि चेहरे के भावों को पढ़ने के लिए ही प्रोग्रैम किया गया है. इलिनोइस विश्वविद्यालय के सहयोग से विकसित इस सॉफ़्टवेयर में होठों के घुमाव और आँखों के किनारे के संकुचन जैसे चेहरे की कई प्रमुख विशेषताओं की पड़ताल करने की क्षमता है. कंप्यूटर इन विशेषताओं के आधार पर चेहरे की तुलना छह मूल भावों से करता है. इसी के साथ नीसू सीबी ने अनेक युवतियों के चेहरे से जुड़े आँकड़े कंप्यूटर में जमा कर एक औसत 'न्यूट्रल' चेहरे का ख़ाका बनाया. कंप्यूटर द्वारा चिंहित मोनालिसा के चेहरे के भावों का न्यूट्रल चेहरे से मिलान करने पर पाया गया कि लियोनार्दो दा विंची की मोनालिसा बहुत ही ख़ुश है.
इस अध्ययन की पूरी रिपोर्ट को गणितीय भाषा में रखें, तो मोनालिसा के चेहरे के भाव को प्रतिशत में कुछ इस तरह व्यक्त किया जा सकता है:
ख़ुशी- 83
विरक्ति- 9
भय- 6
क्रोध- 2
पेरिस के लूव्र संग्रहालय में बुलेटप्रूफ़ शीशे के पीछे से मुस्करा रही मोनालिसा की मुस्कान 500 वर्षों से एक रहस्य बनी हुई है. मैं तो चाहूँगा यह रहस्य आगे भी बना रहे. अच्छा लगता है कुछ रहस्यों का बेपर्दा न होना!
क्लिक करें. देखें मोनालिसा को मिली नई जगह. सौजन्य:बीबीसी हिंदी
विज्ञान पत्रिका न्यू साइंटिस्ट के 17 दिसंबर 2005 के अंक में नीदरलैंड्स के एम्सटर्डम विश्वविद्यालय के नीसू सीबी नामक वैज्ञानिक द्वारा किए गए अध्ययन के बारे में एक रिपोर्ट छपी है.
सीबी साहब ने लियोनार्दो दा विंची की प्रसिद्ध कृति मोनालिसा की मुस्कान से रहस्य का आवरण हटाने के लिए एक विशेष सॉफ़्टवेयर का प्रयोग किया जो कि चेहरे के भावों को पढ़ने के लिए ही प्रोग्रैम किया गया है. इलिनोइस विश्वविद्यालय के सहयोग से विकसित इस सॉफ़्टवेयर में होठों के घुमाव और आँखों के किनारे के संकुचन जैसे चेहरे की कई प्रमुख विशेषताओं की पड़ताल करने की क्षमता है. कंप्यूटर इन विशेषताओं के आधार पर चेहरे की तुलना छह मूल भावों से करता है. इसी के साथ नीसू सीबी ने अनेक युवतियों के चेहरे से जुड़े आँकड़े कंप्यूटर में जमा कर एक औसत 'न्यूट्रल' चेहरे का ख़ाका बनाया. कंप्यूटर द्वारा चिंहित मोनालिसा के चेहरे के भावों का न्यूट्रल चेहरे से मिलान करने पर पाया गया कि लियोनार्दो दा विंची की मोनालिसा बहुत ही ख़ुश है.
इस अध्ययन की पूरी रिपोर्ट को गणितीय भाषा में रखें, तो मोनालिसा के चेहरे के भाव को प्रतिशत में कुछ इस तरह व्यक्त किया जा सकता है:
ख़ुशी- 83
विरक्ति- 9
भय- 6
क्रोध- 2
पेरिस के लूव्र संग्रहालय में बुलेटप्रूफ़ शीशे के पीछे से मुस्करा रही मोनालिसा की मुस्कान 500 वर्षों से एक रहस्य बनी हुई है. मैं तो चाहूँगा यह रहस्य आगे भी बना रहे. अच्छा लगता है कुछ रहस्यों का बेपर्दा न होना!
क्लिक करें. देखें मोनालिसा को मिली नई जगह. सौजन्य:बीबीसी हिंदी
शनिवार, दिसंबर 10, 2005
हार नहीं माने हैं दिएगो गार्सिया के लोग
इस सप्ताह एक ऐसी ख़बर को मीडिया की उपेक्षा सहनी पड़ी जिसे कि नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ एक लंबी लड़ाई के रूप में प्रमुखता से प्रसारित से किया जाना चाहिए था. डेअर श्पीगल और बीबीसी जैसी गिनीचुनी समाचार संस्थाओं ने ही इस ख़बर को कवर किया. ख़बर थी दिएगो गार्सिया के मूल निवासियों की ब्रितानी सरकार से क़ानूनी लड़ाई की. मुट्ठी भर लोग कैसे सबसे बड़े साम्राज्यवादी देश से लड़ाई लड़ रहे हैं, यह एक मिसाल है.
दिएगो गार्सिया हिंद महासागर का एक द्वीप है. छोटे-बड़े कुल 52 टापूओं वाले चैगोस द्वीप समूह के इस सबसे बड़े द्वीप पर अमरीका का सबसे महत्वपूर्ण सैनिक अड्डा है. हालाँकि यह द्वीप अमरीका के बगल-बच्चे की तरह व्यवहार करने वाले ब्रिटेन का है. दिएगो गार्सिया को उसने अमरीका को पट्टे पर दे रखा है. अमरीका ने 1966 में 50 साल की इस लीज़ के बदले ब्रिटेन को परोक्ष रूप से 1.4 करोड़ डॉलर का भुगतान किया था. अमरीकी सैनिक भाषा में इसे '7.20S, 72.25E' यानि इसकी भौगोलिक स्थिति के नाम से जाता है. इस द्वीप का नाम दिएगो गार्सिया शायद सोलहवीं सदी में इसे खोजने वाले किसी पुर्तगाली अन्वेषक के नाम पर पड़ा होगा.
अमरीका 23 वर्ग मील क्षेत्र वाले छोटे से द्वीप दिएगो गार्सिया से ही भारत और चीन समेत पूरे एशिया और मध्य-पूर्व पर नज़र रखता है. कहने को तो यह इराक़ से 3000 मील दूर है, लेकिन इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान पर हमलों के दौरान अमरीकी बी-52 बमवर्षकों की अधिकतर उड़ान यहीं से हुई थी. (अमरीकी सेना को इसमें कोई कठिनाई नहीं हुई क्योंकि विनाशकारी बी-52 विमानों की क्षमता अपने अड्डे से अधिकतम 8800 मील दूर तक मार करने की है. सच्चाई तो ये है कि अनेक बी-52 विमानों ने इराक़ पर बम बरसाने के लिए अमरीका स्थित अड्डों से भी उड़ान भरी, और मिशन पूरा कर वापस अपने अड्डों पर लौटे- मतलब लगातार 30-35 घंटों तक उड़ते रहे. उड़ते-उड़ते ही उनकी रिफ़िलींग हुई होगी.)दिएगो गार्सिया में अमरीकी नौसेना के दर्जनों बड़े जहाज़ साजो-सामान और रसद के साथ सालों भर लंगर डाले रहते हैं कि पता नहीं कब किस देश को डराने और दबाने की ज़रूरत पड़ जाए.
दिएगो गार्सिया के इस सप्ताह फिर से ख़बरों में आने की वज़ह है यहाँ से बेदखल किए गए मूल निवासियों यानि चैगोसियनों(उनकी मूल क्रेओल भाषा में 'इलोइस' यानि आइलैंडर) के एक संगठन का ब्रितानी सर्वोच्च अदालत में अपील करना कि उन्हें अपनी ज़मीन पर लौटने दिया जाए. दरअसल ब्रिटेन ने जब दिएगो गार्सिया को अमरीका को सौंपा तो अमरीकी आग्रह पर उसने वहाँ से 2000 मूल निवासियों को भी बेदखल कर मारीशस(कुछ को सेशल्स में भी) में ले जाकर पटक दिया. यह घिनौना काम 1971-73 के दौरान किया गया. आज अपनी ज़मीन से दूर लाकर रखे गए चैगोसियन समाज के क़रीब 8000 लोग घोर ग़रीबी और उपेक्षा की ज़िंदगी जी रहे हैं.
चैगोसियोनों की व्यथा पर प्रसिद्ध पत्रकार जॉन पिल्जर की बनाई डॉक्युमेंट्री 'स्टीलिंग ए नेशन' को पिछले साल कई अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं. इस डॉक्यूमेंट्री में दिखाया गया है ब्रितानी सरकार ने दिएगो गार्सिया को खाली कराने के लिए क्या-क्या हथकंडे अपनाए, कैसे-कैसे सफेद झूठों का सहारा लिया. उल्लेखनीय है कि पहले ब्रितानी अधिकारियों ने एक बार दावा किया था कि दिएगो गार्सिया पर कभी कोई मूल निवासी रहे ही नहीं थे, और वहाँ के लोग वास्तव में बगानों में काम करने के लिए मारीशस, सेशल्स और दक्षिण भारत से लाए गए बंधुआ मज़दूर हैं जिन्हें बेदखल करना पूरी तरह वैध है. लेकिन बाद में वैज्ञानिक परीक्षणों से यह साबित होने पर कि चैगोसियन कई पीढ़ियों से वहाँ रहते आए हैं, सरकार ने कभी इस दावे पर ज़ोर नहीं दिया.
चित्र: सुनामी को चकमा देने के बाद का दिएगो गार्सिया
चैगोसियनों के पक्ष में फ़ैसला सुनाते हुए पाँच साल पहले ब्रितानी हाइकोर्ट ने ब्रितानी सरकार की कार्रवाई को अवैध क़रार दिया था. लेकिन इसके जवाब में सरकार ने महारानी की तरफ़ से असाधारण आदेश निकलवा दिया कि चैगोसियनों को उनकी ज़मीन पर लौटने नहीं दिया जाएगा. इस तरह के आदेश पर संसद में बहस की भी गुंज़ाइश नहीं होती.
अब चैगोसियनों के प्रतिनिधि ओलिवर बैन्कोल्ट ने मामले को नए सिरे से ब्रितानी हाई कोर्ट में पेश किया है. उनका कहना है कि जब दिएगो गार्सिया में क़रीब 3500 अमरीकी सैनिक और ठेका कर्मचारी रह सकते हैं तो वहाँ के मूल निवासियों को क्यों नहीं जगह मिल सकती. उनकी करुण प्रार्थना है कि उन्हें दिएगो गार्सिया में नहीं तो कम-से-कम चैगोस द्वीप समूह के बाकी टापूओं पर तो रहने की इजाज़त दी जाए जैसा कि पाँच साल पहले तत्कालीन ब्रितानी विदेश मंत्री रॉबिन कुक ने आश्वासन दिया था. लेकिन ब्रिटेन सरकार और उसके अमरीकी आका को ये भी मंज़ूर नहीं. दुनिया की नज़रों से दूर चैगोसियन कुछ गैरसरकारी संस्थाओं और साहसी पत्रकारों के सहारे ही अपनी लड़ाई लड़े जा रहे हैं.
दिएगो गार्सिया हिंद महासागर का एक द्वीप है. छोटे-बड़े कुल 52 टापूओं वाले चैगोस द्वीप समूह के इस सबसे बड़े द्वीप पर अमरीका का सबसे महत्वपूर्ण सैनिक अड्डा है. हालाँकि यह द्वीप अमरीका के बगल-बच्चे की तरह व्यवहार करने वाले ब्रिटेन का है. दिएगो गार्सिया को उसने अमरीका को पट्टे पर दे रखा है. अमरीका ने 1966 में 50 साल की इस लीज़ के बदले ब्रिटेन को परोक्ष रूप से 1.4 करोड़ डॉलर का भुगतान किया था. अमरीकी सैनिक भाषा में इसे '7.20S, 72.25E' यानि इसकी भौगोलिक स्थिति के नाम से जाता है. इस द्वीप का नाम दिएगो गार्सिया शायद सोलहवीं सदी में इसे खोजने वाले किसी पुर्तगाली अन्वेषक के नाम पर पड़ा होगा.
अमरीका 23 वर्ग मील क्षेत्र वाले छोटे से द्वीप दिएगो गार्सिया से ही भारत और चीन समेत पूरे एशिया और मध्य-पूर्व पर नज़र रखता है. कहने को तो यह इराक़ से 3000 मील दूर है, लेकिन इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान पर हमलों के दौरान अमरीकी बी-52 बमवर्षकों की अधिकतर उड़ान यहीं से हुई थी. (अमरीकी सेना को इसमें कोई कठिनाई नहीं हुई क्योंकि विनाशकारी बी-52 विमानों की क्षमता अपने अड्डे से अधिकतम 8800 मील दूर तक मार करने की है. सच्चाई तो ये है कि अनेक बी-52 विमानों ने इराक़ पर बम बरसाने के लिए अमरीका स्थित अड्डों से भी उड़ान भरी, और मिशन पूरा कर वापस अपने अड्डों पर लौटे- मतलब लगातार 30-35 घंटों तक उड़ते रहे. उड़ते-उड़ते ही उनकी रिफ़िलींग हुई होगी.)दिएगो गार्सिया में अमरीकी नौसेना के दर्जनों बड़े जहाज़ साजो-सामान और रसद के साथ सालों भर लंगर डाले रहते हैं कि पता नहीं कब किस देश को डराने और दबाने की ज़रूरत पड़ जाए.
दिएगो गार्सिया के इस सप्ताह फिर से ख़बरों में आने की वज़ह है यहाँ से बेदखल किए गए मूल निवासियों यानि चैगोसियनों(उनकी मूल क्रेओल भाषा में 'इलोइस' यानि आइलैंडर) के एक संगठन का ब्रितानी सर्वोच्च अदालत में अपील करना कि उन्हें अपनी ज़मीन पर लौटने दिया जाए. दरअसल ब्रिटेन ने जब दिएगो गार्सिया को अमरीका को सौंपा तो अमरीकी आग्रह पर उसने वहाँ से 2000 मूल निवासियों को भी बेदखल कर मारीशस(कुछ को सेशल्स में भी) में ले जाकर पटक दिया. यह घिनौना काम 1971-73 के दौरान किया गया. आज अपनी ज़मीन से दूर लाकर रखे गए चैगोसियन समाज के क़रीब 8000 लोग घोर ग़रीबी और उपेक्षा की ज़िंदगी जी रहे हैं.
चैगोसियोनों की व्यथा पर प्रसिद्ध पत्रकार जॉन पिल्जर की बनाई डॉक्युमेंट्री 'स्टीलिंग ए नेशन' को पिछले साल कई अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं. इस डॉक्यूमेंट्री में दिखाया गया है ब्रितानी सरकार ने दिएगो गार्सिया को खाली कराने के लिए क्या-क्या हथकंडे अपनाए, कैसे-कैसे सफेद झूठों का सहारा लिया. उल्लेखनीय है कि पहले ब्रितानी अधिकारियों ने एक बार दावा किया था कि दिएगो गार्सिया पर कभी कोई मूल निवासी रहे ही नहीं थे, और वहाँ के लोग वास्तव में बगानों में काम करने के लिए मारीशस, सेशल्स और दक्षिण भारत से लाए गए बंधुआ मज़दूर हैं जिन्हें बेदखल करना पूरी तरह वैध है. लेकिन बाद में वैज्ञानिक परीक्षणों से यह साबित होने पर कि चैगोसियन कई पीढ़ियों से वहाँ रहते आए हैं, सरकार ने कभी इस दावे पर ज़ोर नहीं दिया.
चित्र: सुनामी को चकमा देने के बाद का दिएगो गार्सिया
चैगोसियनों के पक्ष में फ़ैसला सुनाते हुए पाँच साल पहले ब्रितानी हाइकोर्ट ने ब्रितानी सरकार की कार्रवाई को अवैध क़रार दिया था. लेकिन इसके जवाब में सरकार ने महारानी की तरफ़ से असाधारण आदेश निकलवा दिया कि चैगोसियनों को उनकी ज़मीन पर लौटने नहीं दिया जाएगा. इस तरह के आदेश पर संसद में बहस की भी गुंज़ाइश नहीं होती.
अब चैगोसियनों के प्रतिनिधि ओलिवर बैन्कोल्ट ने मामले को नए सिरे से ब्रितानी हाई कोर्ट में पेश किया है. उनका कहना है कि जब दिएगो गार्सिया में क़रीब 3500 अमरीकी सैनिक और ठेका कर्मचारी रह सकते हैं तो वहाँ के मूल निवासियों को क्यों नहीं जगह मिल सकती. उनकी करुण प्रार्थना है कि उन्हें दिएगो गार्सिया में नहीं तो कम-से-कम चैगोस द्वीप समूह के बाकी टापूओं पर तो रहने की इजाज़त दी जाए जैसा कि पाँच साल पहले तत्कालीन ब्रितानी विदेश मंत्री रॉबिन कुक ने आश्वासन दिया था. लेकिन ब्रिटेन सरकार और उसके अमरीकी आका को ये भी मंज़ूर नहीं. दुनिया की नज़रों से दूर चैगोसियन कुछ गैरसरकारी संस्थाओं और साहसी पत्रकारों के सहारे ही अपनी लड़ाई लड़े जा रहे हैं.
बुधवार, दिसंबर 07, 2005
तीसरा कौन?
अल-क़ायदा के शीर्ष नेतृत्व ने वर्षों बाद पहली बार खुल कर कहा है कि ओसामा बिल लादेन जीवित हैं. वरिष्ठ अल-क़ायदा नेता अयमन अल-ज़वाहिरी ने कहा कि ओसामा न सिर्फ जीवित हैं बल्कि वह पश्चिम के ख़िलाफ़ धर्मयुद्ध का नेतृत्व कर रहे हैं.
उल्लेखनीय है कि अमरीका सरकार ओसामा को अल-क़ायदा का मुखिया मानती है और अल-ज़वाहिरी को उनका डिप्टी या दाहिना हाथ. मतलब ओसामा और अल-ज़वाहिरी कुख्यात आतंकवादी संगठन में क्रमश: पहले और दूसरे नंबर के नेता हुए. अमरीका सरकार ऐसा कहती है और दुनिया भी इस बात को मानती है.
चित्र: ओसामा और अल-ज़वाहिरी
लेकिन मसला अल-क़ायदा नेतृत्व में तीसरे नंबर के नेता को लेकर है. अल-क़ायदा संगठन में ओसामा और अल-ज़वाहिरी के बाद कौन सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है?
इस सवाल के जवाब में अमरीका पिछले तीन वर्षों के दौरान तीन चरमपंथियों का नाम ले चुका है. तीन साल पहले पाकिस्तान में खालिद शेख़ मोहम्मद की गिरफ़्तारी हुई. अमरीका ने अपनी पीठ थपथपाई कि अल-क़ायदा का नंबर तीन उसके हाथ लग गया है और अब तो उससे मिली जानकारी के आधार पर संगठन को तहस-नहस कर दिया जाएगा. तीन साल बीत गए अल-क़ायदा की गतिविधियाँ बढ़ी ही हैं.
ख़ैर, बात हो रही है अल-क़ायदा के नंबर-थ्री की. इसी साल मई में पाकिस्तान में ही अबू फ़राज अल-लिब्बी नामक आतंकवादी की गिरफ़्तारी हुई. अमरीका ने पूरी दुनिया को बताया कि अल-क़ायदा नेतृत्व का नंबर तीन पकड़ा गया है. दुनिया ने लीबिया के इस आतंकवादी के ख़ूंखार चरित्र के बारे में अमरीकी ब्यौरे को मान भी लिया.
लेकिन नहीं, इसी सप्ताह अमरीकी अधिकारियों ने अल-क़ायदा के एक और तीसरे नंबर के नेता का नाम लिया है. पाकिस्तान में एक विवादास्पद हमले में मारे गए अबू हमज़ा राबिया को अल-क़ायदा लीडरशिप में नंबर तीन बताया गया है.
मतलब अमरीका की माने तो तीन साल के भीतर पाकिस्तान में सक्रिय उसके एजेंटों ने अल-क़ायदा के दो नंबर-थ्री आतंकवादियों को पकड़ा है ओर एक को मारा है.
ऐसे में सीआईए और एफ़बीआई के साहिबान एक ही बार क्यों नहीं बता देते कि अल-क़ायदा के नंबर तीन की पहेली है क्या? क्या अल-क़ायदा में तीसरे नंबर के अनेक नेता हैं? क्या तीसरे नंबर की जगह के लिए अल-क़ायदा ने कोई पैनल बना रखा है? क्या तीसरे नंबर के आतंकवादी के पकड़े जाने या मारे जाने पर ओसामा तुरंत चौथे नंबर वाले को प्रोमोशन दे देते हैं?
उल्लेखनीय है कि अमरीका सरकार ओसामा को अल-क़ायदा का मुखिया मानती है और अल-ज़वाहिरी को उनका डिप्टी या दाहिना हाथ. मतलब ओसामा और अल-ज़वाहिरी कुख्यात आतंकवादी संगठन में क्रमश: पहले और दूसरे नंबर के नेता हुए. अमरीका सरकार ऐसा कहती है और दुनिया भी इस बात को मानती है.
चित्र: ओसामा और अल-ज़वाहिरी
लेकिन मसला अल-क़ायदा नेतृत्व में तीसरे नंबर के नेता को लेकर है. अल-क़ायदा संगठन में ओसामा और अल-ज़वाहिरी के बाद कौन सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है?
इस सवाल के जवाब में अमरीका पिछले तीन वर्षों के दौरान तीन चरमपंथियों का नाम ले चुका है. तीन साल पहले पाकिस्तान में खालिद शेख़ मोहम्मद की गिरफ़्तारी हुई. अमरीका ने अपनी पीठ थपथपाई कि अल-क़ायदा का नंबर तीन उसके हाथ लग गया है और अब तो उससे मिली जानकारी के आधार पर संगठन को तहस-नहस कर दिया जाएगा. तीन साल बीत गए अल-क़ायदा की गतिविधियाँ बढ़ी ही हैं.
ख़ैर, बात हो रही है अल-क़ायदा के नंबर-थ्री की. इसी साल मई में पाकिस्तान में ही अबू फ़राज अल-लिब्बी नामक आतंकवादी की गिरफ़्तारी हुई. अमरीका ने पूरी दुनिया को बताया कि अल-क़ायदा नेतृत्व का नंबर तीन पकड़ा गया है. दुनिया ने लीबिया के इस आतंकवादी के ख़ूंखार चरित्र के बारे में अमरीकी ब्यौरे को मान भी लिया.
लेकिन नहीं, इसी सप्ताह अमरीकी अधिकारियों ने अल-क़ायदा के एक और तीसरे नंबर के नेता का नाम लिया है. पाकिस्तान में एक विवादास्पद हमले में मारे गए अबू हमज़ा राबिया को अल-क़ायदा लीडरशिप में नंबर तीन बताया गया है.
मतलब अमरीका की माने तो तीन साल के भीतर पाकिस्तान में सक्रिय उसके एजेंटों ने अल-क़ायदा के दो नंबर-थ्री आतंकवादियों को पकड़ा है ओर एक को मारा है.
ऐसे में सीआईए और एफ़बीआई के साहिबान एक ही बार क्यों नहीं बता देते कि अल-क़ायदा के नंबर तीन की पहेली है क्या? क्या अल-क़ायदा में तीसरे नंबर के अनेक नेता हैं? क्या तीसरे नंबर की जगह के लिए अल-क़ायदा ने कोई पैनल बना रखा है? क्या तीसरे नंबर के आतंकवादी के पकड़े जाने या मारे जाने पर ओसामा तुरंत चौथे नंबर वाले को प्रोमोशन दे देते हैं?
मंगलवार, दिसंबर 06, 2005
कहानी एक ग्लोबल टूथब्रश की
ग्लोबलाइज़ेशन या भूमंडलीकरण की बात होती है तो सबसे अच्छा उदाहरण होता है चीनी उत्पादों का. भारत में पिछले कुछ वर्षों से जो उदाहरण सबसे ज़्यादा पेश किया जाता रहा है वो यह कि कैसे होली के दौरान उत्तर भारत के कस्बाई बाज़ार चीन में बनी पिचकारियों से पटे पड़े होते हैं, जबकि चीन में होली जैसा कोई त्योहार है भी नहीं. लेकिन हम यहाँ चर्चा करते हैं एक टूथब्रश की.
जर्मनी की प्रतिष्ठित पत्रिका डेअर श्पीगल (द मिरर या दर्पण) ने ग्लोबलाइज़ेशन पर अपना विशेषांक निकाला है. इसने श्रम के विश्वव्यापी वितरण को उजागर करने के लिए एक 'ग्लोबल टूथब्रश' का उदाहरण लिया है.
नीदरलैंड्स की कंपनी फ़िलिप्स निर्मित इलेक्ट्रॉनिक टूथब्रशों में सबसे अच्छे माने जाते हैं सोनीकेयर इलीट सिरीज़ के टूथब्रश- मसलन इलीट 7000, इलीट 7300 और इलीट 7500. इलेक्ट्रॉनिक टूथब्रश के बाज़ार के 8 प्रतिशत हिस्से पर इनका क़ब्ज़ा है, यानि दो करोड़ लोग इनका इस्तेमाल कर रहे हैं.
फ़िलिप्स के सोनीकेयर इलीट टूथब्रश की औसत क़ीमत होती है क़रीब 160 डॉलर. ज़ाहिर है फ़िलिप्स को इसकी बिक्री से बढ़िया मुनाफ़ा होता है. मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए ज़रूरी है बिक्री बढ़ाना. और बिक्री बढ़ाने के लिए आकर्षक प्रचार के अतिरिक्त ज़रूरी होता है क़ीमत को नियंत्रित रखना. ऐसी स्थिति में सामने आता है ग्लोबलाइज़ेशन या भूमंडलीकरण. गुणवत्ता बनाए रखते हुए क़ीमत पर नियंत्रण की गुंज़ाइश हो तो फ़िलिप्स जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनी दुनिया के किसी भी कोने में अपने कारखाने लगा सकती है या फिर अपना काम आउटसोर्स कर सकती है.
सोनीकेयर इलीट टूथब्रश के निर्माण की प्रक्रिया में 10 देशों में 4,500 लोगों को रोज़गार मिला हुआ है. किसी सुपर मार्केट में पहुँचने से पहले लगभग 160 ग्राम वज़न वाला एक टूथब्रश टुकड़ों-टुकड़ों में 28,000 किलोमीटर की यात्रा कर चुका होता है, यानि धरती की परिधि का क़रीब दो तिहाई हिस्सा.
छोटे से सोनीकेयर इलीट टूथब्रश कुल 38 हिस्सों से मिलकर बनता है. आइए देखें कहाँ से क्या आता है, कहाँ क्या होता है-
चीन(शेनझ़ेन)- तांबे के तार
जापान(टोक्यो)- निकेल-कैडमियम सेल
फ़्रांस(रैम्बोइले)- सेल चार्जिंग वाले हिस्से
चीन(झुहाई)- सर्किट-बोर्ड का ख़ाका तैयार करने का काम
ताइवान(ताइपे के पास)- निकेल-कैडमियम सेल और सर्किट-बोर्ड के उपकरण
मलेशिया(कुआलालंपुर)- सर्किट-बोर्ड के हिस्से
फिलिपींस(मनीला)- सर्किट-बोर्ड पर लगे 49 ट्रांजिस्टर और रेज़िस्टर की जाँच
स्वीडन(सैंडविकेन)- टूथब्रश की बॉडी में इस्तेमाल विशेष स्टील
ऑस्ट्रिया(क्लागेनफ़ुर्ट)- विशेष स्टील को उपयुक्त आकार में काटने का काम और प्लास्टिक के हिस्सों का निर्माण
अमरीका(स्नोक़ाल्मी)- प्लास्टिक के हिस्सों को जोड़ने का काम
अमरीका(सिएटल)- पैकेजिंग का काम
ये तो हुई अभी की स्थिति. फ़िलिप्स को अच्छी तरह पता है कि उसके सोनीकेयर इलीट उत्पादों को ब्राउन के 3डी एक्सेल उत्पादों से प्रतियोगिता का सामना करना पड़ रहा है. उसकी नज़र 30 करोड़ उपभोक्ता वाले इलेक्ट्रॉनिक टूथब्रश बाज़ार के पाँच से दस वर्षों के भीतर तीन-गुना फैलने की भविष्यवाणी पर पहले से ही टिकी है. मतलब अपने टूथब्रश की क़ीमत नियंत्रित रखने और ज़्यादा से ज़्यादा ग्राहकों को पकड़ने के लिए डच बहुराष्ट्रीय कंपनी भूमंडलीकरण की प्रक्रिया को और गहराई से आत्मसात करने के लिए तैयार ही बैठी है, विवश है.
जर्मनी की प्रतिष्ठित पत्रिका डेअर श्पीगल (द मिरर या दर्पण) ने ग्लोबलाइज़ेशन पर अपना विशेषांक निकाला है. इसने श्रम के विश्वव्यापी वितरण को उजागर करने के लिए एक 'ग्लोबल टूथब्रश' का उदाहरण लिया है.
नीदरलैंड्स की कंपनी फ़िलिप्स निर्मित इलेक्ट्रॉनिक टूथब्रशों में सबसे अच्छे माने जाते हैं सोनीकेयर इलीट सिरीज़ के टूथब्रश- मसलन इलीट 7000, इलीट 7300 और इलीट 7500. इलेक्ट्रॉनिक टूथब्रश के बाज़ार के 8 प्रतिशत हिस्से पर इनका क़ब्ज़ा है, यानि दो करोड़ लोग इनका इस्तेमाल कर रहे हैं.
फ़िलिप्स के सोनीकेयर इलीट टूथब्रश की औसत क़ीमत होती है क़रीब 160 डॉलर. ज़ाहिर है फ़िलिप्स को इसकी बिक्री से बढ़िया मुनाफ़ा होता है. मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए ज़रूरी है बिक्री बढ़ाना. और बिक्री बढ़ाने के लिए आकर्षक प्रचार के अतिरिक्त ज़रूरी होता है क़ीमत को नियंत्रित रखना. ऐसी स्थिति में सामने आता है ग्लोबलाइज़ेशन या भूमंडलीकरण. गुणवत्ता बनाए रखते हुए क़ीमत पर नियंत्रण की गुंज़ाइश हो तो फ़िलिप्स जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनी दुनिया के किसी भी कोने में अपने कारखाने लगा सकती है या फिर अपना काम आउटसोर्स कर सकती है.
सोनीकेयर इलीट टूथब्रश के निर्माण की प्रक्रिया में 10 देशों में 4,500 लोगों को रोज़गार मिला हुआ है. किसी सुपर मार्केट में पहुँचने से पहले लगभग 160 ग्राम वज़न वाला एक टूथब्रश टुकड़ों-टुकड़ों में 28,000 किलोमीटर की यात्रा कर चुका होता है, यानि धरती की परिधि का क़रीब दो तिहाई हिस्सा.
छोटे से सोनीकेयर इलीट टूथब्रश कुल 38 हिस्सों से मिलकर बनता है. आइए देखें कहाँ से क्या आता है, कहाँ क्या होता है-
चीन(शेनझ़ेन)- तांबे के तार
जापान(टोक्यो)- निकेल-कैडमियम सेल
फ़्रांस(रैम्बोइले)- सेल चार्जिंग वाले हिस्से
चीन(झुहाई)- सर्किट-बोर्ड का ख़ाका तैयार करने का काम
ताइवान(ताइपे के पास)- निकेल-कैडमियम सेल और सर्किट-बोर्ड के उपकरण
मलेशिया(कुआलालंपुर)- सर्किट-बोर्ड के हिस्से
फिलिपींस(मनीला)- सर्किट-बोर्ड पर लगे 49 ट्रांजिस्टर और रेज़िस्टर की जाँच
स्वीडन(सैंडविकेन)- टूथब्रश की बॉडी में इस्तेमाल विशेष स्टील
ऑस्ट्रिया(क्लागेनफ़ुर्ट)- विशेष स्टील को उपयुक्त आकार में काटने का काम और प्लास्टिक के हिस्सों का निर्माण
अमरीका(स्नोक़ाल्मी)- प्लास्टिक के हिस्सों को जोड़ने का काम
अमरीका(सिएटल)- पैकेजिंग का काम
ये तो हुई अभी की स्थिति. फ़िलिप्स को अच्छी तरह पता है कि उसके सोनीकेयर इलीट उत्पादों को ब्राउन के 3डी एक्सेल उत्पादों से प्रतियोगिता का सामना करना पड़ रहा है. उसकी नज़र 30 करोड़ उपभोक्ता वाले इलेक्ट्रॉनिक टूथब्रश बाज़ार के पाँच से दस वर्षों के भीतर तीन-गुना फैलने की भविष्यवाणी पर पहले से ही टिकी है. मतलब अपने टूथब्रश की क़ीमत नियंत्रित रखने और ज़्यादा से ज़्यादा ग्राहकों को पकड़ने के लिए डच बहुराष्ट्रीय कंपनी भूमंडलीकरण की प्रक्रिया को और गहराई से आत्मसात करने के लिए तैयार ही बैठी है, विवश है.
शनिवार, दिसंबर 03, 2005
P57 खाओ, भूख मिटाओ, मोटापा भगाओ
आज चर्चा सुर्खियों में मौजूद एक चमत्कारी औषधि की. कहते हैं P57 नामक यह औषधि भूख को शरीर पर कोई बुरा असर डाले बिना बहुत हद तक ख़त्म करने में सफल रहती है. ज़ाहिर है भुखमरी से जूझ रही दुनिया की एक बड़ी आबादी को तो इससे फ़ायदा होगा ही, ज़्यादा आरामदायक ज़िंदगी के कारण या फिर अनियमित जीवनचर्या के कारण मोटापे की बीमारी झेल रहे लोग भी इससे लाभांवित होंगे.
चित्र: हूदिया गोर्दोनी
ऐसा नहीं है कि P57 को पहली बार मीडिया में छाने का मौक़ा मिला है. दस वर्ष पहले इसका लाइसेंस ब्रिटेन की दवा कंपनी फ़ायटोफ़ार्म को मिलने के बाद से इसे न जाने कितनी बार मीडिया में सुर्खियाँ मिली है.
आश्चर्य की बात तो यह है कि अफ़्रीका के कालाहारी रेगिस्तान में खानाबदोश ज़िंदगी जीने वाली सान जनजाति को हज़ारों वर्षों से इस औषधि की जानकारी रही है. दरअसल इन्हें जब खाने के लिए कुछ नहीं मिलता तो ये हूदिया गोर्दोनी(hoodia gordonii) नामक कैकटस प्रजाति के पौधे को चबाते हैं. इस कँटीले पौधे के कड़वे रस की कुछ बूँदें उदर में गई नहीं कि भूख ग़ायब. बहुत कड़वा स्वाद होने के कारण वे भुखमरी की नौबत आने पर ही इसका सेवन करते हैं.
पहली बार दक्षिण अफ़्रीका के वैज्ञानिकों के एक दल ने जनजातियों द्वारा प्रयुक्त उपचारों पर केंद्रित एक अध्ययन के दौरान हूदिया गोर्दोनी में ऐसे रसायन पाए जिनकी जानकारी पहले से नहीं थी. वैज्ञानिकों ने भूख मिटाने के जादू की वज़ह रसायनों के इसी मिश्रण को माना और इसे नाम दिया गया P57.
दक्षिण अफ़्रीका की सरकारी अनुसंधान संस्था काउंसिल फ़ॉर साइंटिफ़िक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च(CSIR) ने इसका पेटेंट कराने में देर नहीं की, और बाद में ब्रिटेन के फ़ायटोफ़ार्म कंपनी ने P57 के व्यावसायिक उपयोग का एकमात्र लाइसेंस प्राप्त किया. इस सौदे के साथ ही एक अच्छी बात यह हुई कि सान जनजाति का प्रतिनिधित्व करने वाली एक संस्था के साथ भी क़रार किया गया. क़रार इस बात का कि P57 के व्यावसायिक उपयोग का लाइसेंस बाँटने से CSIR जो भी आय होगी उसका एक बड़ा हिस्सा सान जनजाति के हित में ख़र्च किया जाएगा. यह व्यवस्था इसलिए अत्यंत ज़रूरी थी कि आख़िर सान जनजाति की पारंपरिक जानकारी के आधार पर ही P57 का पता चला और इसके उपयोग के लिए हूदिया गोर्दोनी पौधे भी तो उन्हीं की पारिस्थितिकी से उखाड़े जाएँगे.
शुरुआती परीक्षणों में फॉयटोफ़ार्म ने पाया कि P57 के सेवन से शरीर को रोज़ाना की ख़ुराक में 1,000 कैलोरी कम की ज़रूरत रह जाती है. परीक्षण में शरीर पर इसका कोई नकारात्मक असर भी नहीं दिखा.
फ़ायटोफ़ार्म ने P57 उत्पादों के अपने एक्सक्लुसिव लाइसेंस के आधार पर फ़ाइजर कंपनी के साथ क़रार किया ताकि इसे गोलियों के रूप में उत्पादित किया जा सके. लेकिन ढाई करोड़ डॉलर और कई साल की मेहनत ख़र्च करने के बाद फ़ाइजर ने पाया कि P57 के जटिल रसायनों को कृत्रिम रूप से फ़ैक्ट्री में बनाना संभव नहीं है. ऐसे में पिछले साल उपभोक्ता बाज़ार की अगुआ कंपनी यूनीलीवर सामने आई. फ़ॉयटोफ़ार्म के साथ हुए क़रार के मुताबिक यूनीलीवर गोलियों के बजाय P57 का उत्पादन खाद्य-उत्पाद या खाद्य-मिश्रण के रूप में करेगी. ज़ाहिर है यूनीलीवर P57 से कड़वापन निकालने का कोई उपाय खोजने में लगी होगी.
यूनीलीवर का कहना है कि अभी P57 के प्रायोगिक परीक्षण शुरू करने की ही तैयारी हो रही है. मतलब इस उत्पाद के घरों में पहुँचने में कुछ साल लग सकते हैं. लेकिन इंटरनेट पर हूदिया गोर्दोनी और P57 के नाम पर बाज़ार खुला हुआ है, वो क्या बेच रहे हैं? इस सवाल के जवाब में यूनीलीवर के एक प्रवक्ता ने लंदन से प्रकाशित अख़बार गार्डियन को बताया कि ज़्यादातर मामलों में ऐसे किसी उत्पाद के नाम पर लोगों को बेवकूफ़ बनाया जा रहा है, लेकिन यदि किसी उत्पाद में सचमुच में P57 रसायन पाया गया तो यूनीलीवर उसकी निर्माता कंपनी को अदालत में घसीटेगी.
चित्र: सान जनजाति
मतलब सारा मामला मुनाफ़े का है. बहुराष्ट्रीय कंपनियों से और क्या उम्मीद की जा सकती है? सान जनजाति की भलाई और लुप्तप्राय कैकटस प्रजाति हूदिया गोर्दोनी के बगान लगाने के इनके दावे कितने सही होते हैं ये तो वर्षों बाद ही पता चलेगा!
चित्र: हूदिया गोर्दोनी
ऐसा नहीं है कि P57 को पहली बार मीडिया में छाने का मौक़ा मिला है. दस वर्ष पहले इसका लाइसेंस ब्रिटेन की दवा कंपनी फ़ायटोफ़ार्म को मिलने के बाद से इसे न जाने कितनी बार मीडिया में सुर्खियाँ मिली है.
आश्चर्य की बात तो यह है कि अफ़्रीका के कालाहारी रेगिस्तान में खानाबदोश ज़िंदगी जीने वाली सान जनजाति को हज़ारों वर्षों से इस औषधि की जानकारी रही है. दरअसल इन्हें जब खाने के लिए कुछ नहीं मिलता तो ये हूदिया गोर्दोनी(hoodia gordonii) नामक कैकटस प्रजाति के पौधे को चबाते हैं. इस कँटीले पौधे के कड़वे रस की कुछ बूँदें उदर में गई नहीं कि भूख ग़ायब. बहुत कड़वा स्वाद होने के कारण वे भुखमरी की नौबत आने पर ही इसका सेवन करते हैं.
पहली बार दक्षिण अफ़्रीका के वैज्ञानिकों के एक दल ने जनजातियों द्वारा प्रयुक्त उपचारों पर केंद्रित एक अध्ययन के दौरान हूदिया गोर्दोनी में ऐसे रसायन पाए जिनकी जानकारी पहले से नहीं थी. वैज्ञानिकों ने भूख मिटाने के जादू की वज़ह रसायनों के इसी मिश्रण को माना और इसे नाम दिया गया P57.
दक्षिण अफ़्रीका की सरकारी अनुसंधान संस्था काउंसिल फ़ॉर साइंटिफ़िक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च(CSIR) ने इसका पेटेंट कराने में देर नहीं की, और बाद में ब्रिटेन के फ़ायटोफ़ार्म कंपनी ने P57 के व्यावसायिक उपयोग का एकमात्र लाइसेंस प्राप्त किया. इस सौदे के साथ ही एक अच्छी बात यह हुई कि सान जनजाति का प्रतिनिधित्व करने वाली एक संस्था के साथ भी क़रार किया गया. क़रार इस बात का कि P57 के व्यावसायिक उपयोग का लाइसेंस बाँटने से CSIR जो भी आय होगी उसका एक बड़ा हिस्सा सान जनजाति के हित में ख़र्च किया जाएगा. यह व्यवस्था इसलिए अत्यंत ज़रूरी थी कि आख़िर सान जनजाति की पारंपरिक जानकारी के आधार पर ही P57 का पता चला और इसके उपयोग के लिए हूदिया गोर्दोनी पौधे भी तो उन्हीं की पारिस्थितिकी से उखाड़े जाएँगे.
शुरुआती परीक्षणों में फॉयटोफ़ार्म ने पाया कि P57 के सेवन से शरीर को रोज़ाना की ख़ुराक में 1,000 कैलोरी कम की ज़रूरत रह जाती है. परीक्षण में शरीर पर इसका कोई नकारात्मक असर भी नहीं दिखा.
फ़ायटोफ़ार्म ने P57 उत्पादों के अपने एक्सक्लुसिव लाइसेंस के आधार पर फ़ाइजर कंपनी के साथ क़रार किया ताकि इसे गोलियों के रूप में उत्पादित किया जा सके. लेकिन ढाई करोड़ डॉलर और कई साल की मेहनत ख़र्च करने के बाद फ़ाइजर ने पाया कि P57 के जटिल रसायनों को कृत्रिम रूप से फ़ैक्ट्री में बनाना संभव नहीं है. ऐसे में पिछले साल उपभोक्ता बाज़ार की अगुआ कंपनी यूनीलीवर सामने आई. फ़ॉयटोफ़ार्म के साथ हुए क़रार के मुताबिक यूनीलीवर गोलियों के बजाय P57 का उत्पादन खाद्य-उत्पाद या खाद्य-मिश्रण के रूप में करेगी. ज़ाहिर है यूनीलीवर P57 से कड़वापन निकालने का कोई उपाय खोजने में लगी होगी.
यूनीलीवर का कहना है कि अभी P57 के प्रायोगिक परीक्षण शुरू करने की ही तैयारी हो रही है. मतलब इस उत्पाद के घरों में पहुँचने में कुछ साल लग सकते हैं. लेकिन इंटरनेट पर हूदिया गोर्दोनी और P57 के नाम पर बाज़ार खुला हुआ है, वो क्या बेच रहे हैं? इस सवाल के जवाब में यूनीलीवर के एक प्रवक्ता ने लंदन से प्रकाशित अख़बार गार्डियन को बताया कि ज़्यादातर मामलों में ऐसे किसी उत्पाद के नाम पर लोगों को बेवकूफ़ बनाया जा रहा है, लेकिन यदि किसी उत्पाद में सचमुच में P57 रसायन पाया गया तो यूनीलीवर उसकी निर्माता कंपनी को अदालत में घसीटेगी.
चित्र: सान जनजाति
मतलब सारा मामला मुनाफ़े का है. बहुराष्ट्रीय कंपनियों से और क्या उम्मीद की जा सकती है? सान जनजाति की भलाई और लुप्तप्राय कैकटस प्रजाति हूदिया गोर्दोनी के बगान लगाने के इनके दावे कितने सही होते हैं ये तो वर्षों बाद ही पता चलेगा!
शुक्रवार, दिसंबर 02, 2005
CNN और BBC World के बाद CFII
अंतत: फ़्रांसीसी राष्ट्रपति ज्याक़ शिराक का एक सपना पूरा हो रहा है. शिराक न जाने कितने मौक़े पर अपनी हसरत का इज़हार कर चुके हैं कि अमरीकी टेलीविज़न नेटवर्क सीएनएन और ब्रितानी बीबीसी वर्ल्ड की तरह फ़्रांस का भी अपना अंतरराष्ट्रीय न्यूज़ चैनल हो. लेकिन वित्तीय या अन्य कारणों से अब तक उनकी हसरत पूरी नहीं हो पाई थी. इराक़ पर हमले से पहले और इराक़ में लड़ाई के दौरान एंग्लो-अमेरिकी दुष्प्रचार को काउंटर करने के लिए उन्हें फ़्रांसीसी लोकतांत्रिक अवधारणा में भरोसा रखने वाले चैनल की ज़रूरत ख़ास तौर पर महसूस हुई थी.
तो भाइयों और बहनों हो जाइए तैयार, दुनिया को अनवरत समाचार देने वाले एक फ़्रांसीसी चैनल के लिए. नाम होगा- फ़्रेंच इंटरनेशनल न्यूज़ नेटवर्क या फ़्रांसीसी में कहें तो ला शेन फ़्रैंश्चे द'इन्फ़ॉर्मेशन इंतरनाशनेल या CFII.
फ़्रांसीसी संस्कृति मंत्री आरडी द'वैबरे ने कहा है कि सीएफ़आईआई साल भर के भीतर आपके घरों में होगा. उन्होंने कहा कि सीएफ़आईआई के ज़रिए फ़्रांस अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम को मुक्त, आधुनिक और बहुपक्षीय रूप में प्रस्तुत कर सकेगा. द'वैबरे ने कहा कि सीएफ़आईआई की प्रस्तुतियों में फ़्रांसीसी मूल्यों का ख्याल रखा जाएगा. उन्होंने कहा, "कौन ऐसा होगा जिसने लोकतांत्रिक मूल्यों से सराबोर समाचार के फ़्रांसीसी विचार की रक्षा करने की ज़रूरत नहीं महसूस की हो?"
सीएफ़आईआई सरकार यानि जनता के पैसे से चलेगा. हालाँकि इसके प्रबंधन में सरकारी फ़्रांस टेलीविजन्स और निजी क्षेत्र के सबसे लोकप्रिय फ़्रेंच चैनल टीएफ़1 की बराबर की भागीदारी होगी. दोनों चैनलों के बीच छत्तीस का आँकड़ा रहा है, सो ये देखने वाली बात होगी कि उनका सहयोग कैसा रहता है.
फ़्रांसीसी सरकार ने CFII पर इस साल 1.5 करोड़ यूरो, वर्ष 2006 में 6.5 करोड़ यूरो और उसके बाद हर वर्ष सात करोड़ यूरो ख़र्च करने का मन बनाया है. शुरू में यह यूरोप, मध्य-पूर्व और अफ़्रीका के लिए कार्यक्रमों का प्रसारण करेगा. आरंभ में चार घंटे के अंगरेज़ी स्लॉट को छोड़ कर बाकी कार्यक्रम फ़्रेंच में होंगे. बाद में स्पेनिश और अरबी भाषाओं में कार्यक्रम प्रस्तुत किए जाएँगे.
राष्ट्रपति शिराक का कहना है कि फ़्रांस को छवि की अंतरराष्ट्रीय लड़ाई में अगली पंक्ति में रहना ज़रूरी है. फ़्रांस के हाल के दंगों से दुनिया भर में बिगड़ी फ़्रेंच छवि के लिहाज़ से शिराक का कथन और भी सही लगने लगा है. लेकिन क्या उनकी बात भारत पर भी नहीं लागू होती?
तो भाइयों और बहनों हो जाइए तैयार, दुनिया को अनवरत समाचार देने वाले एक फ़्रांसीसी चैनल के लिए. नाम होगा- फ़्रेंच इंटरनेशनल न्यूज़ नेटवर्क या फ़्रांसीसी में कहें तो ला शेन फ़्रैंश्चे द'इन्फ़ॉर्मेशन इंतरनाशनेल या CFII.
फ़्रांसीसी संस्कृति मंत्री आरडी द'वैबरे ने कहा है कि सीएफ़आईआई साल भर के भीतर आपके घरों में होगा. उन्होंने कहा कि सीएफ़आईआई के ज़रिए फ़्रांस अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम को मुक्त, आधुनिक और बहुपक्षीय रूप में प्रस्तुत कर सकेगा. द'वैबरे ने कहा कि सीएफ़आईआई की प्रस्तुतियों में फ़्रांसीसी मूल्यों का ख्याल रखा जाएगा. उन्होंने कहा, "कौन ऐसा होगा जिसने लोकतांत्रिक मूल्यों से सराबोर समाचार के फ़्रांसीसी विचार की रक्षा करने की ज़रूरत नहीं महसूस की हो?"
सीएफ़आईआई सरकार यानि जनता के पैसे से चलेगा. हालाँकि इसके प्रबंधन में सरकारी फ़्रांस टेलीविजन्स और निजी क्षेत्र के सबसे लोकप्रिय फ़्रेंच चैनल टीएफ़1 की बराबर की भागीदारी होगी. दोनों चैनलों के बीच छत्तीस का आँकड़ा रहा है, सो ये देखने वाली बात होगी कि उनका सहयोग कैसा रहता है.
फ़्रांसीसी सरकार ने CFII पर इस साल 1.5 करोड़ यूरो, वर्ष 2006 में 6.5 करोड़ यूरो और उसके बाद हर वर्ष सात करोड़ यूरो ख़र्च करने का मन बनाया है. शुरू में यह यूरोप, मध्य-पूर्व और अफ़्रीका के लिए कार्यक्रमों का प्रसारण करेगा. आरंभ में चार घंटे के अंगरेज़ी स्लॉट को छोड़ कर बाकी कार्यक्रम फ़्रेंच में होंगे. बाद में स्पेनिश और अरबी भाषाओं में कार्यक्रम प्रस्तुत किए जाएँगे.
राष्ट्रपति शिराक का कहना है कि फ़्रांस को छवि की अंतरराष्ट्रीय लड़ाई में अगली पंक्ति में रहना ज़रूरी है. फ़्रांस के हाल के दंगों से दुनिया भर में बिगड़ी फ़्रेंच छवि के लिहाज़ से शिराक का कथन और भी सही लगने लगा है. लेकिन क्या उनकी बात भारत पर भी नहीं लागू होती?
सदस्यता लें
संदेश (Atom)