पत्रकारिता जगत में इतनी ज़्यादा प्रतियोगिता है कि एक औसत पत्रकार मात्र एक एक्सक्लुसिव ख़बर के लिए सारे सिद्धांतों को ताक पर रखने को तैयार बैठा रहता है. और यह सच्चाई पत्रकारिता के हर स्तर के बारे में है. मतलब भारत के एक कस्बाई पत्रकार से लेकर लंदन या न्यूयॉर्क में बैठा अंतरराष्ट्रीय स्तर का पत्रकार तक, हर कोई किसी ख़ास ख़बर के बदले अपने तथाकथित सिद्धांतों की पोटली का सौदा करने को तैयार हैं.
लेकिन इस माहौल में भी कुछ पत्रकार ऐसे हैं जिनका ज़िक्र होने पर मन में उनके प्रति सम्मान भाव जाग उठता है. निश्चय ही हर इंसान की तरह इन सच्चे पत्रकारों के भी अपने पूर्वाग्रह होंगे, अपनी पसंद-नापसंद होगी. लेकिन जिन ख़ासियतों के कारण ये कलमघिस्सूओं की जमात में अलग नज़र आते हैं, उनमें शामिल हैं- इनकी निडरता, निष्पक्षता, सम्यक भाव, व्यापक दृष्टि, सच्चाई तक पहुँचने की जिजीविषा, समाज के प्रति जवाबदेही का भाव और मानव मात्र के कल्याण की भावना.
भीड़ से अलग दिखने वाले मुट्ठी भर पत्रकारों में से एक हैं केविन साइट्स. टेलीविज़न पत्रकारिता के क्षेत्र में बड़ा नाम है. अमरीका के दो बड़े टीवी नेटवर्क एनबीसी और सीएनएन के लिए दुनिया के ख़तरनाक क्षेत्रों से साहसिक रिपोर्टिंग करके नाम कमा चुके हैं. ब्लॉग जगत के लिए विशेष ख़ुशी की बात ये है कि अफ़ग़ानिस्तान और इराक़ में अपनी ड्यूटी के दौरान उन्होंने नियमित रूप से ब्लॉगिंग के लिए भी समय निकाला.
लेकिन आज केविन साइट्स का दुनिया भर में जिस कारण नाम है वो है उनका पत्रकारिता की एक नई विधा को अपनाना. यह है मल्टीमीडिया जर्नलिज़्म की विधा. ज़ाहिर है मल्टीमीडिया जर्नलिज़्म सबसे ज़्यादा चुनौतियों वाली पत्रकारिता है. इसमें आपको वीडियो, ऑडियो, फ़ोटो और टेक्स्ट- सब कुछ जुटाना होता है. नए ज़माने की नई विधा होने के कारण मल्टीमीडिया जर्नलिज़्म से जुड़ी कुछ अनजानी दिक्कतें भी हो सकती हैं. और जब पत्रकार केविन साइट्स हो, तो पत्रकारिता की विधा कुछ भी हो वो 'बाइ डिफ़ॉल्ट' ख़तरों के बीच से ही रिपोर्टिंग करना चाहेगा.
केविन साइट्स छह महीने पहले एक ख़तरनाक यात्रा पर निकल पड़े. इस यात्रा में उन्होंने दुनिया के उन सभी इलाक़ों से रिपोर्टिंग करने की ठानी है जो बारूद के ढेर पर माने जाते हैं, संघर्ष के केंद्र माने जाते हैं- अशांत और ख़तरनाक माने जाते हैं. साइट्स ख़ुद को 'सोजो' कहते हैं यानि 'सोलो जर्नलिस्ट', मतलब 'वन मैन आर्मी'.
अपनी साल भर की इस यात्रा का आधा पूरा कर चुके केविन साइट्स सोमालिया, ईरान, लेबनान, उगांडा, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ़ कोंगो और सूडान से गुजर चुके हैं. अभी कश्मीर और नेपाल समेत संघर्ष के कई केंद्रों में उनको पहुँचना है. केविन साइट्स की यह यात्रा संभव हो पाई है याहू! के कारण.
याहू! का पत्रकारिता से कोई सीधा संबंध नहीं है. इतना ही नहीं चीन में कई साहसिक पत्रकारों को जेल भिजवाने में सहायक बन कर उसने साहसिक पत्रकारिता की राह में रोड़े ही अटकाए हैं. लेकिन भला हो याहू! के उन साहबों का जिन्होंने केविन साइट्स की ख़तरनाक परियोजना को हाथ में लेने का साहस किया. आज याहू! के हॉटज़ोन पर केविन की मल्टीमीडिया पत्रकारिता को पूरे प्रभाव के साथ देखा जा सकता है- मतलब दुनिया के ज्ञात संघर्ष केंद्रों से दिल को छू लेने वाली रिपोर्टें- वीडियो, ऑडियो, फ़ोटो और रिपोर्टताज के रूप में. याहू! ने केविन साइट्स की रिपोर्टिंग को बेहतर ढंग से प्रस्तुत करने के लिए अपने लॉस एंज्लिस स्थित मीडिया मुख्यालय में तीन प्रतिभाशाली लोगों की समर्पित टीम तैनात कर रखी है.
टीवी पत्रकारिता से इंटरनेट पत्रकारिता की ओर आने के पीछे केविन साइट्स के एक कड़वे अनुभव की भूमिका मानी जाती है. बात है नवंबर 2004 की. साइट्स इराक़ में चरमपंथियों का गढ़ माने जाने फ़लूजा शहर में थे. अमरीकी सेना के साथ, एक स्वतंत्र पत्रकार के रूप में अमरीकी टीवी नेटवर्क एनबीसी के लिए काम करते हुए. वहाँ से उन्होंने कई स्तब्धकारी दृश्य भेजे. लेकिन एक दृश्य ने उन्हें दक्षिणपंथी अमरीकियों के ग़ुस्से का निशाना बना दिया.
दरअसल सच्चाई दिखाने की अपनी आदत से मज़बूर केविन साइट्स ने ज़ुल्म का वह दृश्य दुनिया को दिखा दिया जिसमें एक अमरीकी मरीन एक बेबस इराक़ी को मौत की नींद सुलाता है, वो भी फ़लूजा की एक मस्जिद के भीतर. साइट्स के इस निष्पक्ष और साहसिक काम के बाद साइट्स के ब्लॉग पर एक से एक घटिया संदेश आने लगे. फ़ॉक्स न्यूज़ जैसे बुश-परस्त मीडिया ने उन्हें खलनायक के रूप में पेश किया और एनबीसी नेटवर्क ने भी उनसे दूरी बनाने में अपनी भलाई समझी.
ख़ुशी की बात है तमाम आलोचनाओं के बावज़ूद केविन साइट्स निराश नहीं हुए, बल्कि उन्होंने पहले से कहीं ज़्यादा उत्साह से पत्रकारिता जारी रखने का फ़ैसला किया.
गुरुवार, फ़रवरी 23, 2006
शुक्रवार, फ़रवरी 17, 2006
खाली अंग्रेज़ी से काम नहीं चलेगा
दुनिया भर में अंग्रेज़ी के बढ़ते चलन के कारण ये पहले से ही तय माना जा रहा है कि अंग्रेज़ी अब लाट साहबों की भाषा नहीं रह जाएगी. भारत का ही उदाहरण लें तो यहाँ अंग्रेज़ी बोलने वालों की ओर आश्चर्य से देखने वालों की संख्या बहुत कम रह गई है. बल्कि भारतीय भाषाएँ न बोल कर गिटपिट या घसीटामार अंग्रेज़ी बोलने वालों को हिकारत भरी नज़रों से देखा जाने लगा है.
ख़ैर भारत के भूरे साहबों को अंग्रेज़ी का झंडा ढोना बंद करने की समझ कब आएगी ये तो देखने वाली बात होगी, लेकिन असली लाट साहबों को ये बात ज़रूर समझ में आ गई है कि सिर्फ़ अंग्रेज़ी के भरोसे रहे तो लुटिया डूब के ही रहेगी.
ब्रिटिश काउंसिल ने एक व्यापक अध्ययन में पाया है कि ब्रिटेन को आने वाले दिनों में मात्र अंग्रेज़ी भाषा के कारण वो आर्थिक और सांस्कृतिक फ़ायदे नहीं मिलने वाले हैं जो कि पिछले सौ वर्षों से मिल रहे थे. इस अध्ययन के अनुसार आज दुनिया भर में दो अरब लोग अंग्रेज़ी बोल-समझ लेते हैं. ऐसे में ब्रितानी नागरिकों को अपनी भाषा के कारण मिलने वाले 'एक्सक्लुसिव' फ़ायदे नहीं मिल पा रहे हैं. दरअसल रोज़गार के मामले में अंग्रेज़ अपनी भाषा पर निर्भरता के कारण पिछड़ने लगे हैं. अंग्रेज़ मात्र अंग्रेज़ी से काम चलाना चाहते हैं, जबकि ग़ैर-अंग्रेज़ी भाषी देशों के उनके प्रतिद्वंद्वी अंग्रेज़ी के अलावा कम-से-कम एक अन्य भाषा में भी दक्षता रखते हैं.
ब्रिटिश काउंसिल के इस अध्ययन में कहा गया है कि ब्रितानी लोगों को स्पैनिश, चीनी और अरबी जैसी भविष्य की भाषाएँ सीखनी चाहिए. (मुझे इन कथित भविष्य की भाषाओं में हिंदी का नाम नहीं होने का एकमात्र कारण ये नज़र आता है कि जिनको दो सौ साल ग़ुलाम बना कर रखा उनकी भाषा को कैसे वांछनीय भाषा बताएँ!) ख़ैर, ब्रिटिश काउंसिल के अध्ययन में इस तथ्य को ज़रूर महत्व दिया गया है कि भारत और चीन में फ़र्राटे से अंग्रेज़ी बोलने वालों की संख्या दुनिया के किसी भी देश से ज़्यादा है.
इसी साल के शुरू में अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने सामरिक और राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण भाषाओं के शिक्षण के लिए एक राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम शुरू करने की घोषणा की थी. बुश ने इन महत्वपूर्ण भाषाओं में चीनी, रूसी, अरब, फ़ारसी के साथ हिंदी को भी रखा है. लेकिन बुश को ये स्वीकार करने में शायद लज्जा महसूस हुई होगी कि अमरीकियों को दुनिया पर अपना व्यापारिक प्रभुत्व क़ायम रखने के लिए हिंदी और अन्य भाषाएँ सीखने की ज़रूरत है, इसलिए उन्होंने इसे एक सुरक्षा ज़रूरत बताया.
हिंदी के महत्व की बात करें तो एक बात तो स्पष्ट है कि इसे स्वीकार करने में अमरीका सरकार के सामने ब्रितानी सरकार जैसा कोई पूर्वाग्रह आड़े नहीं आता. अमरीका को पता है कि अभी भी भारत के दो प्रतिशत अंग्रेज़ीदाँ लोगों के हाथों में सत्ता केंद्रित होने के बावजूद भारतीय मीडिया की सर्वाधिक प्रभावी भाषा हिंदी ही है. शायद इसी कारण अमरीका सरकार ने दिल्ली स्थित अमेरिकन सेंटर में हिंदी मीडिया की मॉनिटरिंग का एक विशेष प्रकोष्ठ स्थापित करने का फ़ैसला किया है.
यहाँ एक सवाल ये उठता है कि अमरीका को हिंदी इतनी ही महत्वपूर्ण दिखती है तो फिर वॉयस ऑफ़ अमरीका की हिंदी रेडियो प्रसारण सेवा को इस साल सितंबर से बंद करने का प्रस्ताव क्यों? इसका जवाब मेरे ख़्याल से यह है कि अमरीका सरकार को इस बात का अहसास है कि भारतीय मीडिया(हिंदी मीडिया) जनता को इतने सारे विकल्प उपलब्ध करा रही है कि अमरीकी शॉर्टवेब रेडियो प्रसारण को सुनने में बहुत कम लोगों की दिलचस्पी रह गई है. और जब तक भारत में प्राइवेट एफ़एम रेडियो पर समाचार की अनुमति नहीं दी जाती है भारतीय मानस पटल पर सर्वाधिक असर टेलीविज़न मीडिया का ही रहेगा. अमरीका सरकार यह जानती है, तभी तो 'आजतक' चैनल पर वॉयस ऑफ़ अमरीका की आंशिक उपस्थिति को बनाए रखने का भी फ़ैसला किया गया है.
सही मायने में सिर्फ़ अंग्रेज़ी को ही एक वैश्विक भाषा, एक यूनीवर्सल लैंग्वेज माना जा सकता है. अंग्रेज़ी सीखना रोज़गार और तरक्की के लिए एक ज़रूरत है. ये मेरा भी मानना है और दुनिया के अधिकतर लोग भी शायद ऐसा ही मानते हैं. लेकिन भारत के भूरे साहबों को कौन समझाए जो अब भी 'मात्र अंग्रेज़ी..दूसरा कुछ नहीं..भारतीय भाषाएँ तो बिल्कुल ही नहीं!' के सिद्धांत पर चल रहे हैं.
ख़ैर भारत के भूरे साहबों को अंग्रेज़ी का झंडा ढोना बंद करने की समझ कब आएगी ये तो देखने वाली बात होगी, लेकिन असली लाट साहबों को ये बात ज़रूर समझ में आ गई है कि सिर्फ़ अंग्रेज़ी के भरोसे रहे तो लुटिया डूब के ही रहेगी.
ब्रिटिश काउंसिल ने एक व्यापक अध्ययन में पाया है कि ब्रिटेन को आने वाले दिनों में मात्र अंग्रेज़ी भाषा के कारण वो आर्थिक और सांस्कृतिक फ़ायदे नहीं मिलने वाले हैं जो कि पिछले सौ वर्षों से मिल रहे थे. इस अध्ययन के अनुसार आज दुनिया भर में दो अरब लोग अंग्रेज़ी बोल-समझ लेते हैं. ऐसे में ब्रितानी नागरिकों को अपनी भाषा के कारण मिलने वाले 'एक्सक्लुसिव' फ़ायदे नहीं मिल पा रहे हैं. दरअसल रोज़गार के मामले में अंग्रेज़ अपनी भाषा पर निर्भरता के कारण पिछड़ने लगे हैं. अंग्रेज़ मात्र अंग्रेज़ी से काम चलाना चाहते हैं, जबकि ग़ैर-अंग्रेज़ी भाषी देशों के उनके प्रतिद्वंद्वी अंग्रेज़ी के अलावा कम-से-कम एक अन्य भाषा में भी दक्षता रखते हैं.
ब्रिटिश काउंसिल के इस अध्ययन में कहा गया है कि ब्रितानी लोगों को स्पैनिश, चीनी और अरबी जैसी भविष्य की भाषाएँ सीखनी चाहिए. (मुझे इन कथित भविष्य की भाषाओं में हिंदी का नाम नहीं होने का एकमात्र कारण ये नज़र आता है कि जिनको दो सौ साल ग़ुलाम बना कर रखा उनकी भाषा को कैसे वांछनीय भाषा बताएँ!) ख़ैर, ब्रिटिश काउंसिल के अध्ययन में इस तथ्य को ज़रूर महत्व दिया गया है कि भारत और चीन में फ़र्राटे से अंग्रेज़ी बोलने वालों की संख्या दुनिया के किसी भी देश से ज़्यादा है.
इसी साल के शुरू में अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने सामरिक और राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण भाषाओं के शिक्षण के लिए एक राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम शुरू करने की घोषणा की थी. बुश ने इन महत्वपूर्ण भाषाओं में चीनी, रूसी, अरब, फ़ारसी के साथ हिंदी को भी रखा है. लेकिन बुश को ये स्वीकार करने में शायद लज्जा महसूस हुई होगी कि अमरीकियों को दुनिया पर अपना व्यापारिक प्रभुत्व क़ायम रखने के लिए हिंदी और अन्य भाषाएँ सीखने की ज़रूरत है, इसलिए उन्होंने इसे एक सुरक्षा ज़रूरत बताया.
हिंदी के महत्व की बात करें तो एक बात तो स्पष्ट है कि इसे स्वीकार करने में अमरीका सरकार के सामने ब्रितानी सरकार जैसा कोई पूर्वाग्रह आड़े नहीं आता. अमरीका को पता है कि अभी भी भारत के दो प्रतिशत अंग्रेज़ीदाँ लोगों के हाथों में सत्ता केंद्रित होने के बावजूद भारतीय मीडिया की सर्वाधिक प्रभावी भाषा हिंदी ही है. शायद इसी कारण अमरीका सरकार ने दिल्ली स्थित अमेरिकन सेंटर में हिंदी मीडिया की मॉनिटरिंग का एक विशेष प्रकोष्ठ स्थापित करने का फ़ैसला किया है.
यहाँ एक सवाल ये उठता है कि अमरीका को हिंदी इतनी ही महत्वपूर्ण दिखती है तो फिर वॉयस ऑफ़ अमरीका की हिंदी रेडियो प्रसारण सेवा को इस साल सितंबर से बंद करने का प्रस्ताव क्यों? इसका जवाब मेरे ख़्याल से यह है कि अमरीका सरकार को इस बात का अहसास है कि भारतीय मीडिया(हिंदी मीडिया) जनता को इतने सारे विकल्प उपलब्ध करा रही है कि अमरीकी शॉर्टवेब रेडियो प्रसारण को सुनने में बहुत कम लोगों की दिलचस्पी रह गई है. और जब तक भारत में प्राइवेट एफ़एम रेडियो पर समाचार की अनुमति नहीं दी जाती है भारतीय मानस पटल पर सर्वाधिक असर टेलीविज़न मीडिया का ही रहेगा. अमरीका सरकार यह जानती है, तभी तो 'आजतक' चैनल पर वॉयस ऑफ़ अमरीका की आंशिक उपस्थिति को बनाए रखने का भी फ़ैसला किया गया है.
सही मायने में सिर्फ़ अंग्रेज़ी को ही एक वैश्विक भाषा, एक यूनीवर्सल लैंग्वेज माना जा सकता है. अंग्रेज़ी सीखना रोज़गार और तरक्की के लिए एक ज़रूरत है. ये मेरा भी मानना है और दुनिया के अधिकतर लोग भी शायद ऐसा ही मानते हैं. लेकिन भारत के भूरे साहबों को कौन समझाए जो अब भी 'मात्र अंग्रेज़ी..दूसरा कुछ नहीं..भारतीय भाषाएँ तो बिल्कुल ही नहीं!' के सिद्धांत पर चल रहे हैं.
बुधवार, फ़रवरी 08, 2006
मक़Bull ने फिर खिलाया गुल
अभी पिछला पोस्ट लिखते वक़्त मैं कितना ख़ुश था ये कह नहीं सकता. ख़ुश इसलिए कि पैगंबद मोहम्मद कार्टून विवाद पर भारत में कोई ख़ास बवाल नहीं हुआ. हालाँकि मेरा पोस्ट छपने के बाद कश्मीर में हड़ताल और दिल्ली में जामिया मिलिया के छात्रों के प्रदर्शन की बात सामने आई. लेकिन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाले देश में इतनी कम मात्रा में उपद्रव होना निश्चय ही संतोष करने वाली बात है. भारत के मुस्लिम बहुल इलाक़ों में लोगों के कार्टून विवाद से कमोबेश बेपरवाह रहने की अदा से पूरी दुनिया अभिभूत है.
पिछले पोस्ट में मैंने चित्रकार मक़बूल फ़िदा हुसैन का भी ज़िक्र किया था कि कैसे प्रचार पाने के उनके सस्ते नुस्ख़ों ने देवी-देवताओं-पैगंबरों की अपमानजनक तस्वीरों के प्रति अधिकांश आबादी की बेरूख़ी का माहौल बनाने में मदद की.
लेकिन कहते हैं कला की दुनिया प्रचार की दुनिया बन गई है. जितना ज़्यादा प्रचार या दुष्प्रचार पाओगे, उतनी ज़्यादा क़ीमती मानी जाएँगी तुम्हारी कृतियाँ! इस फ़ार्मूले को दादा मक़बूल से बेहतर कौन जानेगा. सरस्वती की नग्न तस्वीर बनाने से मिले दुष्प्रचार से मिले फ़ायदे को अभी तक भुना रहे इस बुज़ुर्ग ने एक नया काँड कर डाला है. गज भर की कूँची लेकर नंगे पाँव लेकर चलने वाले इस चित्रकार ने इस बार करोड़ों लोगों की धार्मिक आस्था को नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्वाभिमान को बेचकर अपनी दुकान चमकाने की कोशिश की है. मक़बूल फ़िदा हुसैन ने इस बार भारत माता को नंगा दिखाने की नंगई कर डाली है!
कला, ख़ासकर माडर्न ऑर्ट, की ज़्यादा समझ नहीं होने के बावज़ूद मुझे भी मक़बूल फ़िदा एक बड़ा कलाकार लगते हैं. लेकिन मैं महिला शरीर को घोड़ा, हाथी और बैल जैसे जानवरों के बीच परोसने की उनकी अदा पर मरने वालों में से नहीं हूँ. न ही नग्नता, ख़ास कर महिला शरीर को वस्त्रहीन अवस्था में परोसते रहने की उनकी आदत मुझे समझ में आती है. रही इस बार के विवाद की बात, तो उनकी ताज़ा करतूत तो मेरी समझ से बिल्कुल ही परे है क्योंकि उन्होंने एक अच्छे उद्देश्य से भारत माता की पेंटिंग बनाई थी. मिशन कश्मीर प्रोजेक्ट के तहत भारत माता को चित्रित किया था.
काफ़ी माथापच्ची करने के बाद मुझे तो यही लगता है कि भारत जैसे बड़े देश में अच्छे चित्रकार हज़ारों की संख्या में हैं लेकिन उनमें से अधिकांश को दाल-रोटी के इंतज़ाम की भी जुगत लगानी पड़ती है, दूसरी ओर मक़बूल फ़िदा हुसैन करोड़ों में खेलते हैं. इसका सीधा कारण है विवाद खड़ा कर प्रचार पाने की हुसैन की कला. और प्रचार की इस कला में उन्होंने राष्ट्र की गरिमा पर कालिख पोतने की नाकाम कोशिश की, भारत माता की नग्न पेंटिंग बना कर. हुसैन ने इस बार बिना कोई देरी किए माफ़ी माँग ली क्योंकि इस चालाक बुज़ुर्ग को पता है कि पैगंबर मोहम्मद के कार्टून के विवाद के इस दौर में भारत के स्वनामधन्य बुद्धिजीवियों को भी उनका खुलकर बचाव करने में मुश्किलें पेश आएंगी.
हर कोई जानता है कि नग्नता बिकती है, लेकिन कम से कम लोगों की धार्मिक आस्था और राष्ट्र की गरिमा के मामले में तो बड़े से बड़े से कलाकार को भी अपनी नंगई नहीं दिखानी चाहिए.
पिछले पोस्ट में मैंने चित्रकार मक़बूल फ़िदा हुसैन का भी ज़िक्र किया था कि कैसे प्रचार पाने के उनके सस्ते नुस्ख़ों ने देवी-देवताओं-पैगंबरों की अपमानजनक तस्वीरों के प्रति अधिकांश आबादी की बेरूख़ी का माहौल बनाने में मदद की.
लेकिन कहते हैं कला की दुनिया प्रचार की दुनिया बन गई है. जितना ज़्यादा प्रचार या दुष्प्रचार पाओगे, उतनी ज़्यादा क़ीमती मानी जाएँगी तुम्हारी कृतियाँ! इस फ़ार्मूले को दादा मक़बूल से बेहतर कौन जानेगा. सरस्वती की नग्न तस्वीर बनाने से मिले दुष्प्रचार से मिले फ़ायदे को अभी तक भुना रहे इस बुज़ुर्ग ने एक नया काँड कर डाला है. गज भर की कूँची लेकर नंगे पाँव लेकर चलने वाले इस चित्रकार ने इस बार करोड़ों लोगों की धार्मिक आस्था को नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्वाभिमान को बेचकर अपनी दुकान चमकाने की कोशिश की है. मक़बूल फ़िदा हुसैन ने इस बार भारत माता को नंगा दिखाने की नंगई कर डाली है!
कला, ख़ासकर माडर्न ऑर्ट, की ज़्यादा समझ नहीं होने के बावज़ूद मुझे भी मक़बूल फ़िदा एक बड़ा कलाकार लगते हैं. लेकिन मैं महिला शरीर को घोड़ा, हाथी और बैल जैसे जानवरों के बीच परोसने की उनकी अदा पर मरने वालों में से नहीं हूँ. न ही नग्नता, ख़ास कर महिला शरीर को वस्त्रहीन अवस्था में परोसते रहने की उनकी आदत मुझे समझ में आती है. रही इस बार के विवाद की बात, तो उनकी ताज़ा करतूत तो मेरी समझ से बिल्कुल ही परे है क्योंकि उन्होंने एक अच्छे उद्देश्य से भारत माता की पेंटिंग बनाई थी. मिशन कश्मीर प्रोजेक्ट के तहत भारत माता को चित्रित किया था.
काफ़ी माथापच्ची करने के बाद मुझे तो यही लगता है कि भारत जैसे बड़े देश में अच्छे चित्रकार हज़ारों की संख्या में हैं लेकिन उनमें से अधिकांश को दाल-रोटी के इंतज़ाम की भी जुगत लगानी पड़ती है, दूसरी ओर मक़बूल फ़िदा हुसैन करोड़ों में खेलते हैं. इसका सीधा कारण है विवाद खड़ा कर प्रचार पाने की हुसैन की कला. और प्रचार की इस कला में उन्होंने राष्ट्र की गरिमा पर कालिख पोतने की नाकाम कोशिश की, भारत माता की नग्न पेंटिंग बना कर. हुसैन ने इस बार बिना कोई देरी किए माफ़ी माँग ली क्योंकि इस चालाक बुज़ुर्ग को पता है कि पैगंबर मोहम्मद के कार्टून के विवाद के इस दौर में भारत के स्वनामधन्य बुद्धिजीवियों को भी उनका खुलकर बचाव करने में मुश्किलें पेश आएंगी.
हर कोई जानता है कि नग्नता बिकती है, लेकिन कम से कम लोगों की धार्मिक आस्था और राष्ट्र की गरिमा के मामले में तो बड़े से बड़े से कलाकार को भी अपनी नंगई नहीं दिखानी चाहिए.
रविवार, फ़रवरी 05, 2006
आज़ादी का दायरा
पैगंबर मोहम्मद के कार्टूनों का विवाद लगातार बढ़ता ही जा रहा है. अख़बारों में एक बार फिर सभ्यताओं के टकराव संबंधी टिप्पणियों की बहार आ गई है. विवादित कार्टून और रेखाचित्र पहले डेनमार्क के सबसे बड़े अख़बार युलांस पोस्टेन में छपे थे, इसलिए मुस्लिम जगत के ग़ुस्से का मुख्य लक्ष्य डेनमार्क ही है. मध्य-पूर्व के कुछ देशों में डेनमार्क के दूतावासों को आग लगाई जा चुकी है. मुस्लिम देशों में डेनमार्क के उत्पादों का बहिष्कार तो चल ही रहा है.
विवाद की शुरूआत हुई बच्चों की एक किताब से. डेनमार्क के एक लेखक ने पैगंबर मोहम्मद के जीवन पर एक किताब लिखी. उसे लगा बच्चों के लिए लिखी गई किताब में ड्राइंग होनी चाहिए सो उसने कुछ चित्रकारों से बात की. एक-एक करके कई चित्रकारों ने लेखक को यह कहते हुए मना कर दिया कि उन्हें जान से हाथ नहीं धोना है. अंतत: एक चित्रकार ने मोहम्मद साहब के रेखाचित्र तो बना दिए लेकिन इस शर्त पर कि उसका नाम नहीं सार्वजनिक किया जाएगा.
यह बात जैसे-जैसे फैली, डेनमार्क के समाज में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बहस शुरू हो गई. और यहीं पदार्पण होता है 'युलांस पोस्टेन' का. दक्षिणपंथी माने जाने वाले इस अख़बार ने 12 अलग-अलग कार्टूनिस्टों और चित्रकारों को पैगंबर मोहम्मद को चित्रित करने के लिए तैयार किया. आप इन चित्रों को देखेंग तो साफ़ ज़ाहिर होगा कि इनमें से कुछ अपमानजनक हैं.
ख़ैर, बात ताज़ा विवाद की करें तो कुछ यूरोपीय अख़बारों ने 'युलांस पोस्टेन' के कार्टूनों पर उठे विवाद को प्रेस की आज़ादी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करने की कोशिश के रूप में देखा. जर्मनी, इटली, फ़्रांस और स्पेन के कुछ अख़बारों ने इन कार्टूनों का पुनर्प्रकाशन करते हुए टिप्पणी की कि अभिव्यक्ति की आज़ादी यूरोपीय समाज का अभिन्न अंग है और इसे लेकर कोई समझौता नहीं किया जा सकता. ज़ाहिर उनके इस क़दम से मुस्लिम जगत में विरोध की आग और भड़की.
इस्लाम में पैगंबर मोहम्मद को चित्रित करने की मनाही है. मुख्य तौर पर इसलिए कि इस्लाम में बुतपरस्ती की नौबत नहीं आ जाए. हालाँकि पुराने ज़माने में ईरान में पैगंबर मोहम्मद को बहुत ही ख़ूबसूरती से चित्रित किया जा चुका है. इन तस्वीरों में से कुछ अब भी दुनिया के कई संग्रहालयों में मूल रूप में मौजूद हैं, जबकि इनकी प्रतिकृति अब भी कम से कम ईरान में तो ज़रूर ही खुले रूप में बेची जाती है. दूसरी ओर पैगंबर मोहम्मद को व्यंग्यात्मक और अपमानजनक रूप में चित्रित करने की घटनाएँ भी पहले हो चुकी हैं. अन्य धर्मों के साथ भी ऐसा हुआ है. भारतीय देवी-देवताओं को चड्ढी-बनियान से लेकर जूते-चप्पलों तक पर उकेरने की गुस्ताख़ी कई बार की गई है.
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि पिछले कुछ वर्षों से मुस्लिम जगत के ग़ुस्से का मुख्य निशाना रहे ब्रिटेन और अमरीका ने दोमुँहेपन का उदाहरण पेश करते हुए इस विवाद में ख़ुद को मुसलमानों का हितैषी साबित करने की कोशिश की और यूरोपीय अख़बारों की खुली भर्त्सना कर डाली.
इतना ही नहीं सीएनएन और बीबीसी जैसी प्रसारण संस्थाओं ने भी कार्टून दिखाने से परहेज किया. अमरीका में एक अख़बार ने दो कार्टून पुनर्प्रकाशित किए लेकिन ब्रिटेन के हर अख़बार ने संयम से काम लिया. हालाँकि ब्रिटेन के यही अख़बार थे जिन्होंने सलमान रश्दी की किताब सैटेनिक वर्सेज़ के विवाद में अभिव्यक्ति की आज़ादी का ख़ूब ढिंढोरा पीटा था. दूसरी ओर जॉर्डन के एक अख़बार ने यह कहते हुए विवादित कार्टून छापे कि लोगों को पता तो हो कि वो किस बात पर विरोध कर रहे हैं. ये अलग बात है कि जॉर्डन के संपादक की न सिर्फ़ नौकरी गई, बल्कि गिरफ़्तारी भी हुई.
ख़ुशी की बात है कि भारत में इस विवाद का कोई ख़ास असर नहीं पड़ा. शायद हिंदू देवी-देवताओं को नंगा करने की एमएफ़ हुसैन की करतूत पर हुए विवाद के बाद आम भारतीयों को इस बात का एहसास हो चुका है कि धार्मिक मान्यताओं से खिलवाड़ करने वालों को नज़रअंदाज़ करना ही बेहतर है.
जहाँ तक अभिव्यक्ति की आज़ादी की बात है तो वो भी हर तरह की आज़ादी की तरह किसी न किसी सीमा में होनी चाहिए. हाथ चलाने की आज़ादी के दायरे में सामने वाले की नाक नहीं आनी चाहिए. लेकिन यह भी ज़रूरी है कि आज़ादी का दायरा सबके लिए एक समान हो. ये नहीं कि राम के लिए आज़ादी कुछ हो, और श्याम के लिए कुछ और!
विवाद की शुरूआत हुई बच्चों की एक किताब से. डेनमार्क के एक लेखक ने पैगंबर मोहम्मद के जीवन पर एक किताब लिखी. उसे लगा बच्चों के लिए लिखी गई किताब में ड्राइंग होनी चाहिए सो उसने कुछ चित्रकारों से बात की. एक-एक करके कई चित्रकारों ने लेखक को यह कहते हुए मना कर दिया कि उन्हें जान से हाथ नहीं धोना है. अंतत: एक चित्रकार ने मोहम्मद साहब के रेखाचित्र तो बना दिए लेकिन इस शर्त पर कि उसका नाम नहीं सार्वजनिक किया जाएगा.
यह बात जैसे-जैसे फैली, डेनमार्क के समाज में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बहस शुरू हो गई. और यहीं पदार्पण होता है 'युलांस पोस्टेन' का. दक्षिणपंथी माने जाने वाले इस अख़बार ने 12 अलग-अलग कार्टूनिस्टों और चित्रकारों को पैगंबर मोहम्मद को चित्रित करने के लिए तैयार किया. आप इन चित्रों को देखेंग तो साफ़ ज़ाहिर होगा कि इनमें से कुछ अपमानजनक हैं.
ख़ैर, बात ताज़ा विवाद की करें तो कुछ यूरोपीय अख़बारों ने 'युलांस पोस्टेन' के कार्टूनों पर उठे विवाद को प्रेस की आज़ादी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करने की कोशिश के रूप में देखा. जर्मनी, इटली, फ़्रांस और स्पेन के कुछ अख़बारों ने इन कार्टूनों का पुनर्प्रकाशन करते हुए टिप्पणी की कि अभिव्यक्ति की आज़ादी यूरोपीय समाज का अभिन्न अंग है और इसे लेकर कोई समझौता नहीं किया जा सकता. ज़ाहिर उनके इस क़दम से मुस्लिम जगत में विरोध की आग और भड़की.
इस्लाम में पैगंबर मोहम्मद को चित्रित करने की मनाही है. मुख्य तौर पर इसलिए कि इस्लाम में बुतपरस्ती की नौबत नहीं आ जाए. हालाँकि पुराने ज़माने में ईरान में पैगंबर मोहम्मद को बहुत ही ख़ूबसूरती से चित्रित किया जा चुका है. इन तस्वीरों में से कुछ अब भी दुनिया के कई संग्रहालयों में मूल रूप में मौजूद हैं, जबकि इनकी प्रतिकृति अब भी कम से कम ईरान में तो ज़रूर ही खुले रूप में बेची जाती है. दूसरी ओर पैगंबर मोहम्मद को व्यंग्यात्मक और अपमानजनक रूप में चित्रित करने की घटनाएँ भी पहले हो चुकी हैं. अन्य धर्मों के साथ भी ऐसा हुआ है. भारतीय देवी-देवताओं को चड्ढी-बनियान से लेकर जूते-चप्पलों तक पर उकेरने की गुस्ताख़ी कई बार की गई है.
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि पिछले कुछ वर्षों से मुस्लिम जगत के ग़ुस्से का मुख्य निशाना रहे ब्रिटेन और अमरीका ने दोमुँहेपन का उदाहरण पेश करते हुए इस विवाद में ख़ुद को मुसलमानों का हितैषी साबित करने की कोशिश की और यूरोपीय अख़बारों की खुली भर्त्सना कर डाली.
इतना ही नहीं सीएनएन और बीबीसी जैसी प्रसारण संस्थाओं ने भी कार्टून दिखाने से परहेज किया. अमरीका में एक अख़बार ने दो कार्टून पुनर्प्रकाशित किए लेकिन ब्रिटेन के हर अख़बार ने संयम से काम लिया. हालाँकि ब्रिटेन के यही अख़बार थे जिन्होंने सलमान रश्दी की किताब सैटेनिक वर्सेज़ के विवाद में अभिव्यक्ति की आज़ादी का ख़ूब ढिंढोरा पीटा था. दूसरी ओर जॉर्डन के एक अख़बार ने यह कहते हुए विवादित कार्टून छापे कि लोगों को पता तो हो कि वो किस बात पर विरोध कर रहे हैं. ये अलग बात है कि जॉर्डन के संपादक की न सिर्फ़ नौकरी गई, बल्कि गिरफ़्तारी भी हुई.
ख़ुशी की बात है कि भारत में इस विवाद का कोई ख़ास असर नहीं पड़ा. शायद हिंदू देवी-देवताओं को नंगा करने की एमएफ़ हुसैन की करतूत पर हुए विवाद के बाद आम भारतीयों को इस बात का एहसास हो चुका है कि धार्मिक मान्यताओं से खिलवाड़ करने वालों को नज़रअंदाज़ करना ही बेहतर है.
जहाँ तक अभिव्यक्ति की आज़ादी की बात है तो वो भी हर तरह की आज़ादी की तरह किसी न किसी सीमा में होनी चाहिए. हाथ चलाने की आज़ादी के दायरे में सामने वाले की नाक नहीं आनी चाहिए. लेकिन यह भी ज़रूरी है कि आज़ादी का दायरा सबके लिए एक समान हो. ये नहीं कि राम के लिए आज़ादी कुछ हो, और श्याम के लिए कुछ और!
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