दुनिया के ज्ञानियों-ध्यानियों की मानें तो आने वाला कल बड़ा ही रोमाँचकारी होगा. प्रतिष्ठित विज्ञान जर्नल न्यू साइंटिस्ट ने अपने प्रकाशन के 50 साल पूरे होने का जश्न भविष्य की कल्पना करते हुए एक विशेष अंक निकाल कर मनाया है. इस विशेषांक में मौजूदा वैज्ञानिक समुदाय के कुछ बड़े नामों का योगदान है, जिन्होंने पाँच दशक बाद की दुनिया की रूपरेखा खींची है.
न्यू साइंटिस्ट के स्वर्णजयंती अंक में सबसे रोमाँचक लेख इस पुराने सवाल के ऊपर है कि क्या हम ब्रह्मांड में अकेले हैं? इस सवाल के जवाब में वैज्ञानिकों का कहना है कि अब तक धरती से परे जीवन की खोज नहीं होने पाने का साफ़ मतलब है कि जीवन बड़ा ही विरल है. लेकिन इसका मतलब ये बिल्कुल ही नहीं है कि ब्रह्मांड में धरती के अलावा कहीं और जीवन नहीं है.
इंस्टीट्यूट ऑफ़ एडवांस्ड स्टडी के फ़्रीमैन डायसन का मानना है कि एक बार हमें धरती से दूर जीवन के अस्तित्व का सबूत मिल जाए तो आगे की खोजें अपेक्षाकृत जल्दी हो सकेंगी. क्योंकि तब वैज्ञानिकों को पता रहेगा कि वो आख़िर ढूँढ क्या रहे हैं.
एरिज़ोना स्टेट यूनीवर्सिटी के पॉल डेवीज़ कहीं ज़्यादा आशावादी हैं. उनका कहना है कि एलियन्स को ढूँढने में रेडियो टेलीस्कोपों के ज़रिए ही सफलता मिले ये कोई ज़रूरी नहीं है. उनका कहना है कि ज़्यादातर जीव सूक्ष्म रूप में यानि जीवाणु या विषाणु के रूप में हैं. ऐसे में क्या पता बाहर का कोई सूक्ष्म जीव धरती पर हमारे ही बीच पल रहा हो!
यदि धरती से दूर जीवन का कोई रूप मिल भी गया तो वो कितना अलग होगा? नासा के क्रिस मैकके की मानें तो ये अंतर अंग्रेज़ी और चीनी भाषाओं के अंतर जितना हो सकता है.
जहाँ तक 50 साल बाद के चिकित्सा जगत की बात है तो वैज्ञानिकों का मानना है कि आज की दवाइयों को तब उसी रूप में देखा जाएगा जैसाकि अभी ओझा-गुनी के सुझाए उपचारों को देखते हैं. यूनीवर्सिटी ऑफ़ शिकागो के ब्रुस लान के अनुसार पाँच दशक बाद प्रत्यारोपण के लिए अंग किसी ज़िंदा या मुर्दा व्यक्ति से लेने की ज़रूरत नहीं होगी, बल्कि अंगों की फ़ार्मिंग की जाएगी. सूअर जैसे जंतुओं में मनुष्यों के लिए अंग उगाए जाएँगे. यानि, अंग प्रत्यारोपण की ज़रूरत पड़ने पर डॉक्टर किसी व्यावसायिक अंग उत्पादन कंपनी को ऑर्डर कर मरीज़ के 'इम्युनोलॉजिकल प्रोफ़ाइल' के अनुरूप टेलरमेड अंग मँगा सकेगा.
हालाँकि वैज्ञानिकों ने स्पष्ट किया है कि अंगों की फ़ार्मिंग के आने वाले युग में भी मस्तिष्क या दिमाग़ को कृत्रिम रूप से बनाए जाने की संभावना दूर-दूर तक नज़र नहीं आती है. मतलब, कृत्रिम दिमाग़ के नाम पर आगे भी सुपरकंप्यूटरों से काम चलाते रहिए!
चिकित्सा जगत में आने वाले दिनों में एक और बड़ी प्रगति होगी छिपकली की पूँछ की तरह मानव अंग को भी दोबारा उगाने के क्षेत्र में. फ़िलाडेल्फ़िया में वाइस्टर इंस्टीट्यूट की एलेना हेबर-कैट्ज़ की मानें तो जल्दी ही ऐसी दवाएँ आने वाली हैं जिनके ज़रिए कमज़ोर दिल अपनी मरम्मत ख़ुद कर सकेगा. उनका मानना है कि पाँच से दस साल के भीतर उँगलियों जैसे अंगों को दोबारा उगाना संभव हो सकेगा.
अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में भी मानव लंबी छलाँग लगाने वाला है. प्रिंसटन यूनीवर्सिटी के जे रिचर्ड गॉट के अनुसार कुछ दशकों के भीतर मानव मंगल ग्रह पर अपनी स्वपोषित कॉलोनी बसा सकेगा. उनके अनुसार इसका सबसे बड़ा फ़ायदा ये होगा कि प्रलय या महाविभीषिका की किसी स्थिति में भी धरती से दूर मानव जीवन का अस्तित्व बना रहेगा.
यूनीवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन के रिचर्ड मिलर की मानें तो 2056 आते-आते ऐसे लोगों की बड़ी संख्या होगी जो सौ साल या उससे भी बड़ी उम्र में कामकाज़ी जीवन बिता रहे होंगे. ये चमत्कार होगा मोलेक्युलर बायोलॉजी के क्षेत्र में लगातार हो रही प्रगति के कारण.
...और अंत में एक भविष्यवाणी यूनीवर्सिटी ऑफ़ ब्रिटिश कोलंबिया के डेनियल पॉली की. इनका कहना है कि कुछ दशकों के बाद पूरी दुनिया शाकाहारी होनेवाली है. दरअसल पॉली साहब एक ऐसे यंत्र की कल्पना साकार होते देख रहे हैं, जिसके ज़रिए हम जंतुओं की भावनाओं और विचारों को जान सकेंगे, महसूस कर सकेंगे. ऐसे में किसी विचारवान जीव को मार कर खाने की अनैतिकता भला कितने लोगों को पचेगी!
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8 टिप्पणियां:
पढ़कर ही रोमांच हो आया!
वाह क्या बात है! ऐसा होगा हमारा भविष्य!
लेकिन इन विज्ञानियों को अगर जगदीश चंद्र बसु का शोध याद आ जाता, जिन्होनें पौधो के भावानायें होने का प्रमाण दिया था तब मनु्ष्य के खाने को क्या बचता?
वाकई रोमांचकारी होगा भविष्य, यह तो तय पाया.आज भी अगर पशुओं को खुद मार कर खाना हो, तो ज्यादातर मांसाहारी शाकाहारी हो जायें, मगर जब खुद मारते नहीं, कटे कटाये जानवार की भावनायें कोई यंत्र क्या बतायेगा. तब उस की कितनी उपयोगिता?? पता नहीं!!!
ऐसे टेम्पल्ट रखने का क्या फ़ायदा जिसकी वजह से इतने सुन्दर लेख पढ़ने का मजा किरकिरा हो जाता है, काले ब्रेकग्राऊन्ड पर काले अक्षर! कैसे पढ़े जाये भैया जी
कम से कम टेम्पलेट बदल दें।
सागर भाई, 'देश-दुनिया' का टेम्पलेट काले बैकग्राउंड वाला तो नहीं रखा है मैंने. टेम्पलेट में मैंने कुछ छेड़छाड़ की है, लेकिन इतना तो तय है कि मुख्य सामग्री के लिए मैंने सादा पृष्ठभूमि पर काले अक्षर सेट किए हैं.
आपकी शिकायत पर(एक और पाठक की भी शिकायत थी) पिछली बार भी मैंने जाँचने की कोशिश की थी. मुझे ज़्यादा तकनीकी जानकारी तो नहीं है, लेकिन जहाँ तक अटकल लगा पाया मुझे ये कारण दिखा: यदि पेज पूरी तरह डाउनलोड नहीं हो, तब शायद पेज काले बैकग्राउंड में दिखता है. पेज डाउनलोड पूरी तरह क्यों नहीं होता ये पता नहीं, क्योंकि डिज़ायन तो ज़्यादा भारी नहीं है!
बहुत उम्दा जानकारी है. बस आप लिखते रहा कीजीये, हमें तो इससे ही आनंद आ जाता है.
HINDI MEI ITNA AAGE KI LIKHNE WALA BAHUT BIRLE HI MILTE HAIN...ABHI PICHLE DINO CONSUMER WORLD PER AUR AB AANE WALA KAL...SACHMUCH AAPKA BLOG KUCHH HATKAR HAI...YA YON KAHEN KI ANOKHI JANKARIYON KA SAGAR HAI...FUTURISTIC LEKH KUCH JYADA HI ACHCHHE HOTE HAIN....
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