चार दिनों के नाटक के बाद आख़िरकार लालकृष्ण आडवाणी भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष पद पर बने रहने को राज़ी हो गए.अपनी पाकिस्तान यात्रा के दौरान मोहम्मद अली जिन्ना को कथित रूप से धर्मनिरपेक्ष होने का सर्टिफ़िकेट देने के कारण आडवाणी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद के कोप का शिकार बने थे.
अपनी जन्मभूमि से वापस भारत लौटने के बाद हवाई अड्डे पर पत्रकारों से बातचीत में उन्होंने अपने को लौहपुरुष साबित करते हुए कहा कि जिन्ना संबंधी उनके बयान को वापस लेने का सवाल ही नहीं उठता, भले ही उनका बयान संघ परिवार की विचारधारा के बिल्कुल उलट क्यों न हो.
लेकिन दो दिनों के मान-मनौव्वल के बाद उन्होंने भाजपा अध्यक्ष पद से इस्तीफ़े को वापस ले लिया.
ऐसे में ये सवाल उठना स्वाभाविक ही है कि क्या आडवाणी ने अपनी कट्टरपंथी छवि में सुधार करने के मक़सद से इस नाटक का आयोजन किया था. इस तरह की भी अटकलें लगाई जा रही हैं कि आडवाणी भारत का प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं और जब तक उनकी छवि नरमपंथी नेता की नहीं बनती है, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए के सभी घटक दलों द्वारा उनके नाम पर सहमति बनने की कोई संभावना नहीं बन सकती.
भाजपा या एनडीए यों तो केंद्र की सत्ता से अभी बहुत-बहुत दूर है लेकिन चूंकि छवि बनाने में समय लगता है, और पुरानी छवि में सुधार करने में कुछ ज़्यादा ही समय लगता है, शायद इसलिए आडवाणी ने इस पूरे ड्रामे में नायक की भूमिका निभाई.
जिस तरह जिन्ना ने सत्ता हथियाने के लिए ख़ुद की कट्टरपंथी छवि बनाई थी, उसी तरह आडवाणी सत्ता पर नज़र रख कर ही अपने कट्टरपंथी समर्थकों के बीच उदारवादी होने का आरोप झेलने को तैयार हुए हैं.
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1 टिप्पणी:
swagat hai bandhuvar
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