सोमवार, जून 13, 2005

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की दुविधा

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या आरएसएस आमलोगों के लिए सदा की तरह अब भी एक पहेली बनी हुई है. संघ एक राष्ट्रवादी संगठन है इसमें कोई शक नहीं, लेकिन उसके इरादे कभी भी स्पष्ट नहीं रहे हैं.

आरएसस प्रमुख सुदर्शन के ताज़ा बयान ने एक बार फिर साबित किया है कि संघ भारत में धर्मनिरपेक्ष(उसकी शब्दावली में तथाकथित धर्मनिरपेक्ष) ताक़तों का अवसान नहीं होने के तथ्य को पचा नहीं पाता है. यह अपच संघ के नेताओं के उलटे-पुलटे बयानों के रूप में जनता के सामने आता है.

अब सुदर्शन जी की ही बात करें. सरसंघचालक हैं, यानी आरएसएस के शीर्ष पुरुष. उन्होंने राजस्थान में कार्यकर्ताओं के एक शिविर में अपने संबोधन में राजनीति को वेश्या बताया. अब उनसे कोई पूछे कि राजनीति जब वेश्या है तो राजनीतिक दल उस वेश्या के दलाल हुए या नहीं. मतलब भारतीय जनता प्रमुख दलालों में से एक हुई. ऐसे में संघ ने राजनीति रूपी वेश्या की दलाली करने वाले को अपने परिवार में शामिल क्यों कर रखा है!

हमें नहीं लगता कि सुदर्शन जी इतने भोले हैं कि एक सिरे से राजनीति को ख़ारिज कर दें. ज़रूर वह किसी बात को लेकर आहत या कुपित या फिर आहत और कुपित दोनों होंगे. और अभी कुछ दिनों में लालकृष्ण आडवाणी के भाजपा अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा देने और फिर इस्तीफ़ा वापस लेने के हास्यास्पद प्रसंग को छोड़कर ऐसा कुछ तो हुआ नहीं कि सुदर्शन जी आपा खो बैठें.

राजनीति दिन-प्रतिदिन गंदी ज़रूर होती जा रही है, लेकिन भाजपा के माध्यम से विभिन्न स्तर पर शासन करने वाले संघ को कम से कम राजनीति को गाली देने का ढोंग नहीं करना चाहिए.

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