
जिओआई की वेबसाइट पर वाशिंग्टन डीसी की ही नहीं, बल्कि अमरीका के अधिकतर बड़े स्टेडियमों, विश्वविद्यालयों, बाँधों के साथ-साथ सैनिक-असैनिक हवाईअड्डों की भी तस्वीरें मिल जाती हैं. अमरीका के अलावा दुनिया के अन्य हिस्सों की रोचक तस्वीरें भी उपलब्ध हैं. कुछ साल-दो साल पुरानी तस्वीरें, तो कुछ बस हफ़्ते-महीने भर पुरानी. जिओआई ने पिछले साल नवंबर में सोमालिया के तट पर बंधकों के क़ब्ज़े में खड़े सुपर टैंकर सीरियस स्टार का काफ़ी स्पष्ट चित्र जारी किया था.
जिओआई की तरह की ही एक और कंपनी है- डिजिटल ग्लोब. दोनों कंपनियाँ 'गूगल अर्थ' जैसे वेबटूल के साथ-साथ तमाम तरह के उपयोगों के लिए उपग्रहीय चित्र उपलब्ध कराती हैं. इनमें से हर एक की मौजूदा क्षमता प्रतिदिन औसत 10 लाख वर्गकिलोमीटर ज़मीन को स्कैन करने की है.
गूगल अर्थ को लेकर रह-रह कर विवाद उठता रहता है. भारत में ये विवाद कुछ ज़्यादा ही होता है. कुछ साल पहले राष्ट्रपति भवन की तस्वीर गूगल अर्थ पर पहली बार देखे जाने के बाद भारत में बहस छिड़ गई थी कि आतंकवादी उस चित्र विशेष का इस्तेमाल हमले की योजना बनाने के लिए कर सकते हैं. मुंबई पर हुए हमले में शामिल चरमपंथियों के गूगल अर्थ की सहायता लेने की बात सामने आने के बाद तो इस वेबटूल को लेकर डर का माहौल बनाने की ज़ोरदार कोशिशें की गईं. जबकि आतंकवादियों ने इस वेबटूल के अलावा जीपीएस और ब्लैकबेरी जैसे कई हाईटेक उपकरणों का भी इस्तेमाल किया था. तो क्या इन उपकरणों पर भी रोक न लगा दी जाए! गूगल अर्थ पर निशाना साधने वालों ने ये सोचने की ज़रूरत नहीं समझी कि यदि कुछ साल पुरानी तस्वीरें दिखाने वाले गूगल अर्थ पर रोक लगा दी भी जाए, तो जिओआई और डिजिटल ग्लोब जैसी कंपनियों का क्या करेंगे जिनका मुख्य धंधा है- ताज़ा उपग्रहीय तस्वीरें बेचना?
आतंकवादियों और अपराधियों के डर से विज्ञान प्रदत्त सुविधाओं पर रोक लगाना समस्या का स्थायी समाधान हो ही नहीं सकता है. याद कीजिए उस समय को जब 'फ़ोटो खींचना मना है' वाले निषेधात्मक बोर्ड का कोई मतलब होता था. पहले कॉम्पैक्ट कैमरे ने उक्त बोर्ड पर लिखी चेतावनी की गंभीरता को कम किया, फिर डिजिटल कैमरे ने उसे और हल्का बनाया, अंतत: मोबाइल फ़ोनों में लगे कैमरे ने उसे बिल्कुल ही अप्रासंगिक बना दिया.
उपग्रहीय चित्रों पर प्रतिबंध की कोशिशें तो अभी ही लगभग बेअसर है, इसलिए आने वाले दिनों में ऐसी कोशिशों का बिल्कुल अप्रासंगिक होना तय है. आँकड़े भी यही कहते हैं- पिछले दशक में दुनिया की तस्वीरें खींचने के लिए सात निजी उपग्रह छोड़े गए, अगले 10 वर्षों में ऐसे 30 उपग्रह छोड़े जाने हैं. इसके अलावा विभिन्न देशों के जासूसी उपग्रहों की संख्या भी तो लगातार बढ़ती जा रही है.
ये सच है कि हर सार्वजनिक सुविधा या औजार में सदुपयोग और दुरुपयोग दोनों तरह की संभावनाएँ होती हैं. अधिकतर मामलों में सदुपयोग की संभावनाएँ, दुरुपयोग की संभावनाओं से कई-कई गुना ज़्यादा होती हैं. इसलिए उन पर रोक नहीं लगाई जा सकती है.
टेलीफ़ोन के आविष्कार के समय से ही अपराधी इसका इस्तेमाल कर रहे हैं- योजनाएँ बनाने में भी, और लोगों को धमकाने या फ़िरौती माँगने में भी. इंटरनेट की सहायता से धोखाधड़ी और जालसाज़ी विश्वव्यापी स्तर पर की जा रही है- नाइजीरिया में बैठा जालसाज़ लॉटरी का सब्ज़बाग दिखा कर भारत के लोगों को ठग रहा है! लेकिन अपराध में इस्तेमाल के आधार पर फ़ोन या इंटरनेट पर रोक की कल्पना भी की जा सकती है?
इंटरनेट पहले-पहल जब विश्वविद्यालयों और विज्ञान संस्थानों से निकल कर आमलोगों के घरों में आया, तो तमाम तरह की आशंकाओं में एक ये भी शामिल थी कि बम और अन्य विस्फोटक अत्यंत सुलभ हो जाएँगे क्योंकि इंटरनेट पर उन्हें बनाने के तरीके आसानी से उपलब्ध हैं. आगे चल कर ये आशंका निराधार निकली. हमेशा से ही आबादी का अत्यंत छोटा अंश अपराधी प्रवृति का रहा है, विस्फोटक बनाने की जानकारी इंटरनेट पर उपलब्ध होने के बाद भी वही स्थिति है.
अपराधियों ने हर काल में नवीनतम जानकारियों का इस्तेमाल किया है, इसलिए ज़ाहिर है आगे भी करते रहेंगे. अच्छी बात ये है कि अपराधियों के हाथों इस्तेमाल की आशंका में विज्ञान ने पहले कभी रास्ता नहीं बदला है. इसलिए आगे भी विज्ञान अपनी राह बढ़ता ही रहेगा, चाहे कितना भी डर फैलाया जाये.