अब से सवा तीन साल पहले जब मैंने ख़ुद का एक ब्लॉग बनाया तो उस समय मेरे लिए इस उद्यम के मुख्य उद्देश्य थे- विभिन्न विषयों पर अपनी राय सामने रखना, तथा उपयोगी/रोचक जानकारियों को सरल भाषा में लोगों तक पहुँचाना. ये सपने में भी नहीं सोचा था कि ब्लॉगिंग के मेरे शौक़ का स्वास्थ्य से भी कोई सीधा संबंध है. इसलिए प्रतिष्ठित विज्ञान पत्रिका 'साइंटिफ़िक अमेरिकन' में पिछले दिनों जब पढ़ा कि ब्लॉगिंग स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है, तो सहज विश्वास नहीं हुआ.
पत्रिका के न्यूरोबॉयोलॉजी खंड में The Healthy Type शीर्षक से छपे लेख की पहली ही पंक्ति कहती है- ब्लॉगिंग के चल निकलने का कारण शायद स्वचिकित्सा है. इसके अनुसार वैज्ञानिकों और लेखकों को विचारों-भावों की अभिव्यक्ति के उपचारी प्रभावों की जानकारी तो बहुत पहले से ही रही है, लेकिन अब जाकर पता चला है कि ये प्रक्रिया तनाव तो घटाती ही है, इसके फ़िज़ियॉल्जिकल फ़ायदे भी हैं. अनुसंधानों से पता चला है कि अपनी भावनाओं को ब्लॉगिंग जैसे माध्यम के ज़रिए व्यक्त करने से यादाश्त सुधरती है, नींद बेहतर आती है, प्रतिरक्षण कोशिकाएँ ज़्यादा सक्रिय रहती हैं, एड्स के मरीज़ों में HIV वायरस की मात्रा कम होती है और यहाँ तक कि ऑपरेशन के बाद घाव भरने की प्रक्रिया में भी तेज़ी आती है.
'साइंटिफ़िक अमेरिकन' का लेख मेडिकल जर्नल 'Oncologist' में छपे एक शोध पर आधारित है. ये शोध कैंसर के रोगियों पर किया गया था. इसमें पाया गया कि उपचार से पहले लेखन के ज़रिए ख़ुद को अभिव्यक्त करते रहे कैंसर रोगी, उपचार के बाद उन रोगियों से मानसिक और शारीरिक दोनों ही तरह से बेहतर स्थिति में थे जो कि ऐसी रचना प्रक्रिया से दूर थे.
अब ब्लॉगों की संख्या में लगातार होती वृद्धि को देखते हुए वैज्ञानिकों ने लेखन के ज़रिए विचारों की अभिव्यक्ति के स्वास्थ्यकारी प्रभावों को तंत्रिका विज्ञान के ज़रिए समझने की कोशिश शुरू की है. हार्वर्ड विश्वविद्यालय और मैसच्यूसेट जेनरल हॉस्पिटल की न्यूरोसाइंटिस्ट एलिस फ़्लैहर्टि का मानना है कि ब्लॉगिंग के स्वास्थ्यकारी असर के अध्ययन की शुरुआत पीड़ा संबंधी प्लेसीबो सिद्धांत से की जा सकती है. प्लेसीबो यानि मरीज़ को दी गई झूठी दवा जिसमें असल दवाई नाम मात्र की भी नहीं होती. प्लेसीबो सिर्फ़ मरीज़ पर सकारात्मक मानसिक असर के लिए दी जाती है, क्योंकि उसे लगता है कि उसका इलाज चल रहा है.
फ़्लैहर्टि का कहना है एक सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य दर्द से जुड़े तरह-तरह के ऐसे व्यवहारों से संबद्ध है, जो कि संतुष्टि प्राप्ति में प्लेसीबो की भूमिका निभाते हैं. तनावपूर्ण अनुभवों के बारे में ब्लॉगिंग करना इसका एक उदाहरण माना जा सकता है.
तंत्रिकाविज्ञानी फ़्लैहर्टि ने हाइपरग्रैफ़िया(लिखने की बेलगाम चाहत) और राइटर्स ब्लॉक(कुछ नया लिखने या अधूरी रचना को पूरा करने की मानसिक दशा नहीं बना पाना) जैसी स्थितियों का अध्ययन किया है. उन्होंने कुछ बीमारियों के मॉडल पर भी इन चीज़ों को समझने की कोशिश की है. उदाहरण के लिए सनकी लोगों की बात करें तो उनके बकबक करने के पीछे मस्तिष्क के बीचोंबीच स्थित तंत्रिका प्रणाली Limbic System की किसी तरह की अतिसक्रियता का कारण हो सकता है. दरअसल मस्तिष्क का यह हिस्सा हर तरह की ललक के लिए ज़िम्मेवार होता है. अब चाहे वो खाने की ललक हो, सेक्स की या फिर समस्याओं के समाधान की. फ़्लैहर्टि का कहना है कि ब्लॉगिंग में भी मस्तिष्क के लिम्बिक सिस्टम की कोई भूमिका हो सकती है. उनका कहना है कि ब्लॉगिंग मस्तिष्क में डोपामीन स्राव बढ़ाने का कारण भी हो सकता है, जैसा कि संगीत सुनने, दौड़ने या कलाकृतियों को निहारने के दौरान होता है.
लेकिन उपचारी लेखन के पीछे के तंत्रिका-तंत्र संबंधी राज़ को खोलने का दावा करना अभी जल्दबाज़ी होगी. दरअसल लेखन कार्य से पहले और उसके बाद मस्तिष्क की अलग-अलग अवस्थाओं का चित्रण ही संभव नहीं हो पाया है. ऐसा इसलिए क्योंकि मस्तिष्क के जिन हिस्सों की इसमें भूमिका होती है, वो सिर में बहुत भीतर हैं. हाँ, एमआरआई चित्रण के ज़रिए इतना ज़रूर मालूम पड़ा है कि लेखन से पहले, लेखन करते समय और उसके बाद, दिमाग़ की छवियाँ अलग-अलग होती हैं. लेकिन इन अलग-अलग छवियों को बार-बार हूबहू दोहराते हुए देखा जाना मुश्किल है. और, जब तक ऐसे दोहरावों को रिकॉर्ड नहीं किया जाता, इस मामले में सटीक अध्ययन संभव नहीं हो सकेगा.
ऐसे में वैज्ञानिकों के पास ठोस परिणाम पाने के लिए दो उपाय रह जाते हैं, जिन पर काम करने पर विचार किया जा रहा है. पहला उपाय है लेखन के ज़रिए भावनाओं की अभिव्यक्ति को लेकर समुदाय केंद्रित व्यापक अध्ययन. दूसरा उपाय है ऐसे लेखन और जैविक परिवर्तनों(जैसे नींद) के बीच संबंधों की पहचान.
ब्लॉगिंग के फ़ायदों के तंत्रिका-तंत्र संबंधी आधार की स्पष्ट पहचान भले ही अभी नहीं हो पाई हो, लेकिन कैंसर जैसी बीमारियों से जूझ रहे रोगियों पर इसके सकारात्मक असर पर लोगों का भरोसा लगातार बढ़ रहा है. शायद इसी लिए Oncologist में छपे शोध से जुड़ी अग्रणी वैज्ञानिक नैन्सी मॉर्गन ने कैंसर रोगियों के उपचार के बाद की देखभाल के कार्यक्रमों में ब्लॉगिंग को भी शामिल करने का फ़ैसला किया है.
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6 टिप्पणियां:
जरा ब्लागिंग के शरीर पर अस्वास्थ्यकर और बुरे प्रभावों के बारे में भी बताएँ।
१. मैं यह मानता हूं कि ब्लॉग आपको अभिव्यक्त करा कर आपकी पेण्ट-अप कुण्ठाओं को कम करता है।
२. प्वॉइण्टलेस इनसेसेन्ट बार्किंग तो ब्लॉग पर भी की जा सकती है - यह इस श्वान-ब्लॉगर को बताया जा सकता है। :)
सही है। दिनेशजी की बात पर गौर किया जाए।
वाह महोदय..., क्या खूब कही....आपकी रचना ने सुबह की ताजगी दुगुनी कर दी.... अगले पोस्ट की तीव्र प्रतीक्षा में..... धन्यवाद
तनाव में ही सबसे अच्छी अभिव्यक्ति होती है। यदि कोई अभिव्यक्ति न कर पाए तो मानसिक रोगी या नशेड़ी हो सकता है।
सही है मैंने भी एक बार ब्लॉगिंग से स्वस्थ रहने का नुस्खा खोजा था। खैर, आजकल नहीं हो पा रहा है सुबह उठकर पोस्ट करना।
इसे पढ़कर बताइए
http://batangad.blogspot.com/2007/11/blog-post_03.html
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