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ये कहानी है निम चिम्पस्की नामक चिंपांज़ी की. मशहूर भाषाविद नोम चोम्स्की के नाम पर उसे ये पहचान दी गई थी.
बात है 1973 की, जब अमरीका में कोलंबिया विश्वविद्यालय में वानरभाषा पर एक अभूतपूर्व प्रयोग करने का फ़ैसला किया गया. इस प्रयोग को 'प्रोजेक्ट निम' नाम दिया गया, और प्रयोग में शामिल चिंपांज़ी को निम चिम्पस्की नाम देना तय किया गया. दरअसल मनोविज्ञानी प्रोफ़ेसर हर्बर्ट टेरेस नोम चोम्स्की के एक मशहूर सिद्धांत को ग़लत साबित करके दिखाना चाहते थे. चोम्स्की का मानना है कि हमारी भाषाएँ मानव मस्तिष्क में केंद्रित कुछ विशेष नियमों से बंधी होती हैं, इसलिए ये मनुष्य मात्र के लिए ही संभव हैं. वानर जाति में मनुष्यों जैसा भाषा ज्ञान होने की संभावना को चोम्स्की सिरे से ख़ारिज करते हैं. अधिकांश वैज्ञानिकों की राय भी यही है कि दो जीव प्रजातियों के बीच भाषाई संबंध की बात कपोल कल्पना है, न कि अनुसंधान का विषय.
लेकिन प्रोफ़ेसर टेरेस चिंपांज़ी को मूक-बधिर समुदाय की भाषा अमेरिकन साइन लैंग्वेज सिखा कर न सिर्फ़ चोम्स्की को ग़लत साबित करना चाहते थे, बल्कि इस मान्यता के ख़िलाफ़ भी सबूत जुटाना चाहते थे कि मनुष्य और जानवरों के बीच मुख्य अंतर का आधार भाषा ही है.
ओकलाहोमा के Institute for Primate Studies की एक 18 वर्षीय मादा चिंपांज़ीं के एक दुधमुंहें बच्चे को इस प्रयोग के लिए चुना गया. उसे निम चिम्पस्की नाम देकर प्रोफ़ेसर टेरेस की शिष्या रही स्टेफ़नी लाफ़ार्ज नामक महिला को सौंप दिया गया. स्टेफ़नी ओकलाहोमा से चिम्पस्की को अपने घर न्यूयॉर्क ले आई.
स्टेफ़नी, उसके पति और उसकी 12 वर्षीय बेटी के साथ चिम्पस्की पलने लगा. कुछ महीनों के भीतर वह एक शरारती बच्चा साबित होने लगा. डाँटने और पिटाई करने से भी जब चिम्पस्की की शरारत नहीं रुकती, तो सिर्फ़ एक उपाय हमेशा काम करता. चिम्पस्की को किसी कमरे में अकेला छोड़ कर सारे लोग बाहर निकल जाते. इस तरह बहिष्कार किए जाने पर उसे होश आ जाता कि शायद वह कुछ ग़लत कर रहा होगा, और वह शरारत करना बंद कर देता. जल्दी ही उसने साइन लैंग्वेज में 'सॉरी' कहना सीख लिया.
वैसे स्टेफ़नी ने जब चिम्पस्की को विधिवत प्रशिक्षण देना शुरू किया तो उसे साइन लैंग्वेज में पहला शब्द सिखाया- पीना. इस शब्द को सिखाने में मात्र दो सप्ताह लगे. दो महीने के भीतर चिम्पस्की के शब्दकोश में 'लाओ', 'ऊपर', 'मिठाई' और 'ज़्यादा' जैसे कई शब्द जुड़ गए.
इस तरह 'प्रोजेक्ट निम' चल निकला. मीडिया में चिम्पस्की की चर्चा होने लगी. न्यूयॉर्क पत्रिका के कवर पर तस्वीर छपने के बाद तो उसे सब जानने लगे. 'टॉकिंग चिम्प' चिम्पस्की को टीवी शो में आमंत्रित किया जाने लगा, जहाँ वह सेट पर उछलकूद करने के साथ-साथ साइन लैंग्वेज के ज़रिए प्रस्तुतकर्ता से पानी की माँग कर सबको हतप्रभ कर देता.
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ये सब बातें जब चिम्पस्की की पहली शिक्षिका स्टेफ़नी को पता चलीं तो उसने अपना विरोध जताया. उसने कहा कि चिम्पस्की अपने को मनुष्यों के साथ जोड़ कर देखता है, इसलिए उसके साथ जानवर जैसा व्यवहार करना कतई ठीक नहीं है. दरअसल एक बार चिम्पस्की को मनुष्यों और चिंपाज़िंयों की कुछ तस्वीरें देख कर उसे दो समूहों में बाँटने को कहा गया था. उनमें से एक तस्वीर ख़ुद उसकी भी थी. चिम्पस्की ने इस काम को कर दिखाया, लेकिन अपनी तस्वीर मनुष्यों के बीच रखी.
जब स्टीवार्ट के कड़क प्रशिक्षण का ज़्यादा उत्साहजनक परिणाम नहीं निकला, तो उसे परियोजना से बाहर कर दिया गया. अब चिम्पस्की को एक 21 कमरों वाली बड़ी हवेली में स्थानांतरित कर दिया गया. हडसन नदी के किनारे बनी इस हवेली में चिम्पस्की की ज़िंदगी थोड़ी आसान हो गई. नए प्रशिक्षक भी उसके साथ बढ़िया से पेश आते थे. लेकिन माँ(पहली प्रशिक्षक स्टेफ़नी) की कमी उसे यहाँ भी महसूस होती. इस कारण वह चिड़चिड़ा भी हो गया. इसके बाद भी उसने 100 शब्द सीख लिए, जिनके ज़रिए वह हज़ारों तरह के विचार व्यक्त कर लेता था. लेकिन साथ ही वह आसपास मौजूद लोगों को कभी-कभी काट भी खाता. चिम्पस्की ने हद तब पार कर ली जब उसने अपने एक प्रशिक्षक के चेहरे को बुरी तरह नोंच डाला. यही वो वक़्त था जब प्रोफ़ेसर टेरेस ने चिम्पस्की को वापस चिंपांज़ियों के बीच ओकलाहोमा भेजने का फ़ैसला किया. उनका कहना था कि अध्ययन के लिए ज़रूरी आंकड़े वैसे भी जुटाए जा चुके हैं.
वर्षों तक चिम्पस्की लोगों के बीच रहा था. उसकी किसी अन्य चिंपांज़ी से मुलाक़ात तक नहीं हो पाई थी. इसलिए जब उसे चिंपाज़ियों के बाड़े में भेज दिया गया, तो वहाँ वह लोगों से संवाद करने के लिए तरसता. न सिर्फ़ उसकी ज़रूरत को नज़रअंदाज़ किया गया, बल्कि उल्टे उसे चिंपांज़ियों के साथ संवाद करने की ट्रेनिंग दी जाने लगी. इसी दौरान इस ओकलाहामा स्थित इंस्टीट्यूट पर वित्तीय संकट आ गया. इसके निदेशक का स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहता था. ऐसे में उन्होंने चोरी-चुपके चिम्पस्की समेत 20 चिंपांज़ियों को चिकित्सा अनुसंधान प्रयोगशाला Laboratory of Experimental Medicine and Surgery in Primates को बेच दिया. न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय की इस प्रयोगशाला में चिम्पस्की पर हेपटाइटिस से जुड़ा एक अध्ययन किया जाना था. यहाँ चिम्पस्की को बुरी परिस्थितियों में रखा जा रहा था. बाक़ी चिम्पांज़ियों के साथ ही उसे पिंजड़े में बंद रखा जाता. प्रयोगशाला के एक सहायक ने ग़ौर किया कि वहाँ न सिर्फ़ चिम्पस्की बल्कि उसके प्रभाव में अन्य चिंपांज़ी में साइन लैंग्वेज में पानी, सिगरेट आदि की माँग कर रहे होते थे. शायद ज़रूरत के तौर पर नहीं, बल्कि हताशा में.
ये ख़बर बाहर आते ही राष्ट्रीय स्तर पर विरोध शुरू हो गया. अख़बारों और टीवी चैनलों ने एक चिंपांज़ी के मानवीकरण की कोशिश करने और बाद में उसे चिकित्सीय प्रयोग के लिए त्याग देने की नैतिकता पर बहस शुरू कर दी. इस बीच प्रोफ़ेसर टेरेस अपने अध्ययन की रिपोर्ट जारी कर चुके थे, जिसमें उन्होंने अपने शुरुआती विचार से बिल्कुल उल्टा जाते हुए कहा कि चिंपांज़ी मनुष्यों की भाषा नहीं समझ सकते. अपने 'प्रोजेक्ट निम' को नाकाम बताते हुए उन्होंने कहा कि चिम्पस्की जैसे चिंपांज़ी सिर्फ़ नकल भर कर पाते हैं, संवाद करने का नाटक कर वैज्ञानिकों को मूर्ख बनाते हैं. प्रोफ़ेसर टेरेस के इस तरह पलटी मारने से पूरा अमरीका हतप्रभ रह गया.
लेकिन प्रोफ़ेसर टेरेस ने भी न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय की प्रयोगशाला में चिम्पस्की को जानवरों के जैसा रखे जाने पर हो रहे विरोध में बढ़-चढ़ कर भाग लिया. इस दौरान एक वकील ने चिम्पस्की के समर्थन में अदालत का दरवाज़ा खटखटाने की घोषणा की. चौतरफ़ा दबाव की रणनीति काम आई और महीने भर के भीतर न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय ने चिम्पस्की को छोड़ने का फ़ैसला किया. संयोग से उस पर किसी तरह के प्रयोग अभी शुरू नहीं किए गए थे.
अंतत: पशु अधिकारवादी लेखक क्लीवलैंड एमोरि ने चिम्पस्की को ख़रीद कर टेक्सस स्थित अपने पशु अभ्यारण्य में डाल दिया. लेकिन वहाँ भी उसे ज़्यादातर पिंजरे में ही रखा जाता. एमोरि ने अपने अभ्यारण्य में साइन लैंग्वेज जानने वाले किसी कर्मचारी की व्यवस्था नहीं की थी. इसलिए चिम्पस्की वहाँ भी लोगों से संवाद करने के लिए तरसता ही रहा. उसके अकेलेपन पर तरस खाकर एमोरि ने एक मादा चिंपाज़ी सैली को उसके पिंजरे में डाल दिया. इसका ज़्यादा असर नहीं हुआ, लेकिन एमोरि के लिए चिम्पस्की को सैली के साथ खेलते देखना सुखद था.
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एक दिन चिम्पस्की की पहली प्रशिक्षक स्टेफ़नी वहाँ उससे मिलने पहुँची. वह एमोरि की हिदायतों के बावजूद पिंजरे के भीतर जा पहुँची. चिम्पस्की ने कुछ देर अपनी माँ समान स्टेफ़नी को घूर कर देखा, फिर उसे ज़मीन पर गिरा दिया और घसीट कर पिंजरे के एक कोने में लगा दिया. वह ख़ुद दरवाज़ा छेंक कर खड़ा हो गया मानो वह स्टेफ़नी को भागने नहीं देगा. स्टेफ़नी को चोट ज़रूर लगी लेकिन उसका कहना था कि चूंकि उसने आरंभ में अपनाने के बाद चिम्पस्की का परित्याग किया है, इसलिए वह उसके ग़ुस्से को समझ सकती है.
सैली का 1997 में बीमार होने के बाद निधन हो जाने के बाद चिम्पस्की एक बार फिर अकेला पड़ गया. अंतत: उसकी भी 10 मार्च 2000 को दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गई. वह अभी 20 साल और जी सकता था. लेकिन शायद मानव की तरह पलने और जानवर जैसा बर्ताव सहने ने उसकी ज़िंदगी छोटी कर दी!
(निम चिम्पस्की की करुण कथा पिछले दिनों Nim Chimpsky: The Chimp Who Would Be Human के रूप में प्रकाशित हुई है.)