वर्षांत के अख़बारों और पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ने का एक अलग ही सुख है. इस सुखद अनुभव के दौरान कई बार कुछ ऐसे लेख भी मिल जाते हैं, जो कि ज़िंदगी को बेहतर बनाने की क्षमता रखते हैं. मुझे ऐसा ही एक लेख पढ़ने को मिला है जिसका लेखक 'ख़ुशी के प्रोफ़ेसर' के नाम से प्रसिद्ध एक विद्वान है. मेरा आशय हार्वर्ड विश्वविद्यालय के Positive Psychology के प्रोफ़ेसर ताल बेन-शहर से है.
लंदन से प्रकाशित अख़बार गार्डियन ने प्रोफ़ेसर बेन-शहर का एक लेख छापा है जिसका शीर्षक है- "आनंद का अनुभव करो. मैं बताता हूँ कैसे..."
अपने लेख में ख़ुशी के प्रोफ़ेसर ने नए साल की शुरुआत के अवसर पर अपने विशेष लेख में वर्ष 2008 को अपने लिए बेहतर बनाने के चार सरल उपाय बताए हैं. प्रो. बेन-शहर बताते हैं कि आमतौर पर हमारी पीढ़ी पिछली पीढ़ियों से ज़्यादा धनी है, लेकिन हम ज़्यादा ख़ुशहाल नहीं हैं. यदि हम पहले से ज़्यादा धनी हैं, तो फिर हम ख़ुश क्यों नहीं हैं? कोई संदेह नहीं कि ख़ुशहाली धन से नहीं आती, न ही प्रतिष्ठा या स्टेटस से. तो फिर 2008 को पिछले वर्ष से ज़्यादा ख़ुशहाल कैसे बनाया जाए?
सकारात्मक मनोविज्ञान के विशेषज्ञों ने इन सवालों का जवाब गहन अनुसंधानों के ज़रिए ढूंढने की कोशिश की है. प्रो. बेन-शहर का कहना है कि इन अनुसंधानों में चार मुख्य विचार उभर कर सामने आए:-
1. मानव बने रहें-
हमारी संस्कृति में पीड़ा से जुड़ी भावनाओं को नकारात्मक मानने की प्रवृत्ति रही है. इसलिए हममें से बहुतों को लगता है कि चिंता, दुख, उदासी, डर या ईर्ष्या के अनुभव का मतलब है आपके अंदर कुछ कमी का होना. जबकि सच्चाई इसके उलट है. दो ही प्रकार के व्यक्ति पीड़ा से जुड़ी भावनाओं से बच सकते हैं- मनोरोगी और मृत व्यक्ति.
यदि हम चिंता, उदासी या डर जैसी भावनाओं से बचने की कोशिश करते हैं, ख़ुद को मानव बने रहने नहीं देते हैं, तो इसका नुक़सान हमें ही उठाना पड़ता है. क्योंकि इन भावनाओं से बचने की कोशिश में ये और ज़ोर मारती हैं, हमें पहले से ज़्यादा बुरा लगता है. दरअसल भावनाओं के तमाम प्रकार मानव प्रकृति का अभिन्न हिस्सा हैं, जैसे गुरुत्वाकर्षण हमारे ब्रह्मांड का अभिन्न हिस्सा है. एक परिपूर्ण स्वस्थ जीवन जीने के लिए ज़रूरी है कि हम अन्य नैसर्गिक चीज़ों की तरह ही अपनी तमाम भावनाओं को भी स्वीकार करें. अगर आप मानवता को पूर्णता से स्वीकार करना सीख सकें, तो आने वाला साल ही नहीं, बल्कि जीवन का हर वर्ष बेहतर ही होता जाएगा.
2. जीवन को सरल बनाएँ-
नोबेल पुरस्कार विजेता मनोविज्ञानी डैनियल कैनेमन और उनके सहयोगियों ने दिन-प्रतिदन की ज़िंदगी में विभिन्न कामों के असर का अध्ययन किया. उन्होंने जीवन के विभिन्न क्षेत्र की महिलाओं को बीते हुए एक दिन के कार्यकलापों की सूची तैयार करने को कहा. उनसे ये भी लिखने को कहा गया कि वो अलग-अलग कार्यकलापों के दौरान कैसा अनुभव करती हैं. कई दिनों तक ये प्रयोग चलाया गया. महिलाओं ने खाने, काम करने, बच्चे संभालने, यात्रा करने, परिवार से अंतरंग संबंधों आदि की बातें दर्ज कीं. इस अध्ययन में सबसे चौंकाने वाला परिणाम ये था कि आम तौर पर महिलाओं ने अपने बच्चों के साथ बिताए समय के दौरान ज़्यादा आनंद का अनुभव नहीं किया.
इसमें कोई शक नहीं कि महिलाएँ अपने बच्चों को बहुत-बहुत प्यार करती हैं. शायद इतना ज़्यादा प्यार, जितना दुनिया में किसी और चीज़ से नहीं. लेकिन फिर भी छोटी-छोटी बातों, छोटे-छोटे कार्यों के कारण ही ज़िंदगी इतनी जटिल हो जाती है, समय का इतना अभाव रहता है, कि हम आनंददायक कार्यों में भी आनंद नहीं महसूस कर पाते हैं.
आइए इस तथ्य को थोड़ा और आसान बनाते हैं. आपसे आपकी पसंद के दो गाने बताने को कहा जाता है. एक-एक कर दोनों गाने आपको सुनाए जाते हैं और 1 से 10 अंक के बीच उन्हें रेट करने को कहा जाता है. पूरी संभावना है कि आप अपनी पहली पसंद को 10/10 की रेटिंग देंगे, और पसंद नंबर दो को भी 10 नहीं तो 9 या कम-से-कम 8 की रेटिंग ज़रूर ही देंगे. अब दोनों गाने एक साथ बजाए जाते हैं और आपको रेटिंग करने को कहा जाता है...पूरी संभावना है कि आप 10 में 2 या 3 से ज़्यादा नहीं दें.
आपके इर्दगिर्द अच्छी चीज़ों की प्रचूरता हो सकती है, लेकिन जब ख़ुशियों की बात आती है तो अक्सर थोड़े ही में ज़्यादा का अहसास होता है. समय का दबाव अवसाद का एक बड़ा कारण है. हम कम समय में ज़्यादा से ज़्यादा क्रियाकलापों को अंज़ाम देने की कोशिश करते हैं....और इस प्रक्रिया में हम ख़ुशियों के मौक़े यों ही गँवा देते हैं. चाहे वह काम की ख़ुशी हो, घूमने-फिरने की, संगीत की, नैसर्गिक छटा देखने की, अपने जीवनसाथी या फिर अपने बच्चों के साथ होने की ख़ुशी.
3. नियमित रूप से व्यायाम करें-
न जाने कितने ही अध्ययनों से ये बात ज़ाहिर हो चुकी है कि शारीरिक कसरत का फ़ायदा मानसिक स्वास्थ्य पर भी दिखता है. व्यायाम करने से आप प्रफ़ुल्लित रह सकते हैं. तो क्या व्यायाम करना अवसादरोधी दवा का काम करता है? बेहतर है इसका जवाब इस तरह दिया जाए कि व्यायाम नहीं करना अवसाद का कारण होता है.
व्यायाम करना हमारी ज़रूरत है, और यदि हम इस ज़रूरत को पूरा नहीं करते हैं, तो हमें ही इसकी क़ीमत चुकानी होती है. मानव शरीर अक्रिय बने रहने के लिए, दिन भर कंप्यूटर या टीवी के सामने बैठे रहने के लिए नहीं बना है. विकास के क्रम में मानव शरीर दौड़ कर हिरण का शिकार करने के लिए तैयार हुआ है, या फिर भाग कर भूखे शेर से अपनी जान बचाने के लिए. जो व्यायाम नहीं करते, वो एक महत्वपूर्ण शारीरिक ज़रूरत को अपूर्ण रखते हैं.
हार्वर्ड मेडिकल स्कूल में मनोचिकित्सा के प्रोफ़ेसर जॉन रैटे बताते हैं कि व्यायाम से हमारे तंत्रिका तंत्र में norepinephrine, serotonin और dopamine का रिसाव होता है, जोकि दवाओं की तरह हैं. हाँ, ये सही है कि व्यायाम को रामबाण औषधि के तौर पर नहीं लिया जा सकता, और कई बार दवाएँ ज़रूरी भी होती हैं. लेकिन अनेक मामलों में व्यायाम, दवाओं से ज़्यादा असरदार होता है. इसलिए क्यों नहीं इस प्राकृतिक चिकित्सा का फ़ायदा उठायें! व्यायाम के सकारात्मक प्रभावों में आप बढ़े आत्मविश्वास, सक्रिय मस्तिष्क, दीर्घायु, बेहतर नींद, बेहतर सेक्स और शरीर के ज़्यादा प्रभावी प्रतिरक्षण तंत्र को भी गिनें.
4. सकारात्मक पक्ष पर ध्यान दें-
ख़ुशियाँ न सिर्फ़ हमारे जीवन से जुड़ी घटनाओं पर निर्भर करती हैं, बल्कि उन घटनाओं को हम किस तरह लेते हैं उस पर भी बहुत कुछ आधारित होता है. तभी जहाँ ज़िंदगी में सब कुछ हासिल करके भी बहुत लोग नाख़ुश रहते हैं, वहीं बहुत कम पर जीने वाले भी ख़ुशहाल ज़िंदगी बिता रहे होते हैं. हमारी ख़ुशियाँ सिर्फ़ इस बात पर निर्भर नहीं करती हैं कि हमारे पास क्या-क्या है, बल्कि इस बात का भी काफ़ी महत्व होता है कि किसी के पास जो कुछ भी है, वह उसकी कितनी क़द्र करता है.
ख़ुशी की राह में एक बड़ी बाधा इस बात से आती है कि हम जीवन की अच्छी बातों को पर्याप्त गंभीरता से नहीं लेते हैं. कभी-कभी ही ऐसा होता है कि हम अपने अच्छे स्वास्थ्य, अच्छे दोस्तों, अच्छे भोजन को लेकर बहुत ज़्यादा उत्साहित रहते हों. जब बुरा वक़्त आता है, तभी हमें महसूस होता है कि अच्छा वक़्त वास्तव में ईश्वर के आशीर्वाद की तरह होता है. बीमार पड़ने के बाद ही पता चलता है कि कितने भाग्यशाली थे जब तंदरुस्त थे. लेकिन एक बार बीमारी गई नहीं कि हमें फिर अच्छे स्वास्थ्य के आनंद की अनुभूति करने का समय नहीं मिलने लगता है.
तो क्या अच्छे वक़्त की अच्छी अनुभूति हासिल करने के लिए हमें बुरे वक़्त का इंतज़ार करना चाहिए? निसंदेह नहीं. तो क्यों न हम जीवन की अच्छी-अच्छी चीज़ों को लेकर आनंद का अनुभव करने की आदत डाल लें. अच्छे स्वास्थ्य, अच्छे खानपान, अच्छे दोस्तों-परिजनों को लेकर यदि हम आनंदित रहने लगें, तो फिर इन अच्छी बातों को गंभीरता से नहीं लेने की बुरी आदत ख़ुद ही छूट जाएगी.
यदि हम कृतज्ञता को अपनी आदतों में शुमार कर लें, तो हमें आनंदित होने के लिए किसी विशेष अवसर का इंतज़ार नहीं रहेगा...नए साल का भी नहीं. यदि हम आँखें खोल कर देखें तो हमारे इर्दगिर्द की चमत्कारिक दुनिया में हर चीज़ अनूठी लगेगी...हर चीज़, हर बात स्मृतियों में संजोने लायक़ मालूम पड़ेगी, क़ाबिलेतारीफ़ लगेगी...आनंद विभोर होने के अवसर बहुतायत में मिलेंगे.
नववर्ष मंगलमय हो!
रविवार, दिसंबर 30, 2007
रविवार, दिसंबर 16, 2007
गूगल नॉल या गूगलपीडिया
अंतत: गूगल ने अपनी विकिपीडिया शुरू करने की घोषणा कर ही दी. गूगल विकिपीडिया को नॉल(Knol) नाम दिया गया है. नॉल यानि नॉलेज का गूगलावतार!
जैसा कि गूगल की इससे पहले की बड़ी परियोजनाओं या टेकओवर के बारे में होता आया है, नॉल के बारे में भी ख़बर हल्के से लीक की गई. गूगल के एक इंजीनियर यूडि मैनबर ने पिछले हफ़्ते The Official Google Blog पर इस परियोजना की जानकारी सार्वजनिक की.
मैनबर ने नॉल शब्द को नॉलेज की इकाई के रूप में परिभाषित किया है. आइए देखें नॉल परियोजना के बारे में वे और क्या-क्या कहते हैं, ख़ुद मैनबर के ही शब्दों में:
'दुनिया में लाखों लोगों के पास उपयोगी ज्ञान है, जिसका फ़ायदा अरबों लोग उठा सकते हैं. अधिकांश लोग अपने ज्ञान को सिर्फ़ इसलिए बाँट नहीं पाते हैं क्योंकि उनके पास इसका कोई सरल तरीका नहीं है. हमें ऐसा ज़रिया ढूंढने के लिए कहा गया जिसके ज़रिए लोग अपना ज्ञान बाँट सकें. यही हमारा मुख्य उद्देश्य है.'
'हमारा लक्ष्य है किसी ख़ास विषय का ज्ञान रखने वाले व्यक्ति को उस विषय पर एक आधिकारिक आलेख लिखने के लिए प्रेरित करना.'
'नॉल परियोजना के पीछे एक प्रमुख विचार लेखक के नाम को रेखांकित करने का भी है. किताबों के कवर पर ही लेखक का नाम होता है, सामयिक लेखों के साथ लेखक का नाम जाता है और विज्ञान लेखों के साथ तो अनिवार्य रूप लेखक का नाम छपता है. लेकिन वेब का विकास कुछ इस तरह हुआ है कि लेखकों के नाम को प्रमुखता देने का प्रचलन स्थापित नहीं हो पाया. हमें लगता है कि लेखक का नाम देने से लोगों को वेब सामग्री के बेहतर उपयोग में मदद मिलेगी.'
'गूगल लेखन, संपादन आदि के लिए आसान टूल्स उपलब्ध कराएगा. ये नॉल की मुफ्त होस्टिंग की भी व्यवस्था करेगा. आप सिर्फ़ लिखें भर, बाक़ी काम हम करेंगे.'
'किसी विषय विशेष पर नॉल की भूमिका वैसे बुनियादी लेख की होगी, जो कि उस विषय की जानकारी पहली बार ढूंढ रहा कोई व्यक्ति पढ़ना चाहता हो.'
'गूगल नॉल लेखों पर किसी तरह का संपादकीय नियंत्रण नहीं रखेगा, न ही किसी नॉल विशेष की तरफ़दारी करेगा. तमाम संपादकीय नियंत्रण और ज़िम्मेदारी ख़ुद लेखक की होगी. लेखक अपनी साख दाँव पर लगाएगा.'
'हम ये अपेक्षा नहीं करते कि सभी लेख उच्च स्तर के होंग. लेकिन जब एक ही विषय पर अलग-अलग नॉल गूगल सर्च में दिखेंगे तो उनकी रैंकिंग गुणवत्ता के हिसाब से होगी. वेब पेज की रैंकिंग का हमारा अच्छा अनुभव है, और हमें पूरा विश्वास है कि हम इस चुनौतीपूर्ण काम को भी ढंग से संभाल सकेंगे.'
ज़ाहिर है, यदि गूगल उपरोक्त बातों को कार्यान्वित कर पाएगा तो एक बिल्कुल ही नए तरह की विकिपीडिया तैयार हो सकेगी. गूगल नॉल में विकिपीडिया जैसा 'संपादन युद्ध' देखने को नहीं मिलेगा, क्योंकि इसमें सामूहिक संपादन की व्यवस्था नहीं होगी.
गूगल नॉल एक अन्य मामले में विकिपीडिया से बिल्कुल अलग होगा. चूँकि गूगल का बिज़नेस मॉडल वेबजाल के हर पन्ने पर विज्ञापन डालने की कोशिशों को बढ़ावा देता है. इसलिए गूगल नॉल के पन्नों पर भी विज्ञापन डालने की भी गुंज़ाइश होगी. हालाँकि अभी गूगल का कहना है कि विज्ञापन उन्हीं नॉल पन्नों पर होंगे जिसका लेखक इसके लिए ख़ुद हामी भरेगा. नॉल के विज्ञापनों से होने वाली आय का एक हिस्सा लेखक को मिलेगा. (कहने की ज़रूरत नहीं कि इस आय का बड़ा हिस्सा गूगल के पास रहेगा!)
सीमित स्तर पर गूगल की नॉल परियोजना शुरू हो चुकी है. और अगले कुछ महीनों में इसे सबके के लिए खोल दिया जाएगा.
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