इस आलेख का शीर्षक हो सकता है बहुतों को अटपटा लगे. ख़ास कर उन लोगों को जो हिंदी से प्रेम तो करते हैं, लेकिन इसकी स्वीकार्यता को लेकर चिंतित भी हैं. लेकिन विश्वास कीजिए, अमरीकी रक्षा विभाग पेंटागन को हिंदी से प्यार हो गया है.
हालाँकि इस आशय की ख़बर भारत के अंग्रेज़ीदाँ मीडिया की उपेक्षा का शिकार बन गई. कोई आश्चर्य भी नहीं, जो उन्होंने हिंदी के अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बढ़ते महत्व को रेखांकित करती इस ख़बर की ज़्यादा चर्चा नहीं की. गूगल करने से पता चलता है कि अमरीकी मीडिया ने इसे ख़ासा महत्व दिया.
आपको शायद याद हो कि कुछ महीने पहले अपने एक भाषण में अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने अमरीकियों से अंग्रेज़ी के अलावा जिन गिनीचुनी विदेशी भाषाओं में दक्षता हासिल करने की अपील की थी, उनमें हिंदी का भी नाम था. बुश ने इस घोषणा के साथ हिंदी को 'राष्ट्रीय सुरक्षा भाषा पहल' में शामिल करने की घोषणा भी की थी.(उस समय भी भारत के अंग्रेज़ीदाँ मीडिया टीकाकारों ने बुश के इस भाषण को ज़्यादा गंभीरता से नहीं लिया था.)
लेकिन बुश ने वास्तव में बहुत गंभीरता से अपनी बात रखी थी. इसका प्रमाण है बुश के गृह प्रांत के विश्वविद्यालय यूनीवर्सिटी ऑफ़ टेक्सस की घोषणा कि वह हिंदी(और उर्दू) भाषा के एक चार-वर्षीय कोर्स की शुरूआत करने जा रहा है. इस 'Hindi and Urdu Flagship Program' नामक विशेष कोर्स(विश्वविद्यालय में इन भाषाओं के सामान्य कोर्स चार दशकों से जारी हैं) के तहत हिंदी के छात्रों को तीन साल अमरीका में और एक साल भारत में रह कर पढ़ाई करनी होगी.
लेकिन पूरी ख़बर का मूल तत्व ये है कि यूनीवर्सिटी ऑफ़ टेक्सस के इस विशेष हिंदी-उर्दू कार्यक्रम के लिए सात लाख डॉलर का पूरा बजट अमरीकी रक्षा मंत्रालय की तरफ़ से आएगा. अमरीका में पेंटागन संचालित कार्यक्रमों में से एक है- राष्ट्रीय सुरक्षा शिक्षा कार्यक्रम. इस कार्यक्रम के तहत अमरीकियों को राष्ट्रीय और वैश्विक सुरक्षा की दृष्टि से अहम विदेशी भाषाओं में दक्षता प्राप्त करने के अवसर उपलब्ध कराए जाते हैं. (अमरीकी सरकार कहे या नहीं, उसकी इस पहल के पीछे एक उद्देश्य भारत के सुपरफ़ास्ट आर्थिक विकास का ज़्यादा से ज़्यादा फ़ायदा उठाना भी है.)
कहने की ज़रूरत नहीं कि भारत और पाकिस्तान दोनों के परमाणु ताक़त के रूप में स्थापित होने, और दोनों के अमरीका से निकट संबंध होने के कारण अमरीका के लिए हिंदी और उर्दू की अहमियत बहुत बढ़ जाती है. (भारत के आर्थिक ताक़त के रूप में उभरने के कारण भी सामरिक दृष्टि से हिंदी का महत्व बढ़ा है. दूसरी ओर पाकिस्तान के अल-क़ायदा का अभ्यारण्य होने के कारण सुरक्षा की दृष्टि से उर्दू का महत्व बढ़ा है.)
यूनीवर्सिटी ऑफ़ टेक्सस ने अगले सत्र से शुरू अपने विशेष हिंदी कोर्स के प्रचार के लिए टेक्सस के विद्यालयों में हिंदी भाषा की कार्यशालाएँ लगाने की शुरुआत भी कर दी है. विशेष कोर्स का पहला सत्र भले ही दस छात्रों से शुरू किया जाएगा, लेकिन निश्चय ही यह एक अहम शुरुआत होगी.
रविवार, नवंबर 26, 2006
गुरुवार, नवंबर 16, 2006
रोमाँचकारी होगा आने वाला कल
दुनिया के ज्ञानियों-ध्यानियों की मानें तो आने वाला कल बड़ा ही रोमाँचकारी होगा. प्रतिष्ठित विज्ञान जर्नल न्यू साइंटिस्ट ने अपने प्रकाशन के 50 साल पूरे होने का जश्न भविष्य की कल्पना करते हुए एक विशेष अंक निकाल कर मनाया है. इस विशेषांक में मौजूदा वैज्ञानिक समुदाय के कुछ बड़े नामों का योगदान है, जिन्होंने पाँच दशक बाद की दुनिया की रूपरेखा खींची है.
न्यू साइंटिस्ट के स्वर्णजयंती अंक में सबसे रोमाँचक लेख इस पुराने सवाल के ऊपर है कि क्या हम ब्रह्मांड में अकेले हैं? इस सवाल के जवाब में वैज्ञानिकों का कहना है कि अब तक धरती से परे जीवन की खोज नहीं होने पाने का साफ़ मतलब है कि जीवन बड़ा ही विरल है. लेकिन इसका मतलब ये बिल्कुल ही नहीं है कि ब्रह्मांड में धरती के अलावा कहीं और जीवन नहीं है.
इंस्टीट्यूट ऑफ़ एडवांस्ड स्टडी के फ़्रीमैन डायसन का मानना है कि एक बार हमें धरती से दूर जीवन के अस्तित्व का सबूत मिल जाए तो आगे की खोजें अपेक्षाकृत जल्दी हो सकेंगी. क्योंकि तब वैज्ञानिकों को पता रहेगा कि वो आख़िर ढूँढ क्या रहे हैं.
एरिज़ोना स्टेट यूनीवर्सिटी के पॉल डेवीज़ कहीं ज़्यादा आशावादी हैं. उनका कहना है कि एलियन्स को ढूँढने में रेडियो टेलीस्कोपों के ज़रिए ही सफलता मिले ये कोई ज़रूरी नहीं है. उनका कहना है कि ज़्यादातर जीव सूक्ष्म रूप में यानि जीवाणु या विषाणु के रूप में हैं. ऐसे में क्या पता बाहर का कोई सूक्ष्म जीव धरती पर हमारे ही बीच पल रहा हो!
यदि धरती से दूर जीवन का कोई रूप मिल भी गया तो वो कितना अलग होगा? नासा के क्रिस मैकके की मानें तो ये अंतर अंग्रेज़ी और चीनी भाषाओं के अंतर जितना हो सकता है.
जहाँ तक 50 साल बाद के चिकित्सा जगत की बात है तो वैज्ञानिकों का मानना है कि आज की दवाइयों को तब उसी रूप में देखा जाएगा जैसाकि अभी ओझा-गुनी के सुझाए उपचारों को देखते हैं. यूनीवर्सिटी ऑफ़ शिकागो के ब्रुस लान के अनुसार पाँच दशक बाद प्रत्यारोपण के लिए अंग किसी ज़िंदा या मुर्दा व्यक्ति से लेने की ज़रूरत नहीं होगी, बल्कि अंगों की फ़ार्मिंग की जाएगी. सूअर जैसे जंतुओं में मनुष्यों के लिए अंग उगाए जाएँगे. यानि, अंग प्रत्यारोपण की ज़रूरत पड़ने पर डॉक्टर किसी व्यावसायिक अंग उत्पादन कंपनी को ऑर्डर कर मरीज़ के 'इम्युनोलॉजिकल प्रोफ़ाइल' के अनुरूप टेलरमेड अंग मँगा सकेगा.
हालाँकि वैज्ञानिकों ने स्पष्ट किया है कि अंगों की फ़ार्मिंग के आने वाले युग में भी मस्तिष्क या दिमाग़ को कृत्रिम रूप से बनाए जाने की संभावना दूर-दूर तक नज़र नहीं आती है. मतलब, कृत्रिम दिमाग़ के नाम पर आगे भी सुपरकंप्यूटरों से काम चलाते रहिए!
चिकित्सा जगत में आने वाले दिनों में एक और बड़ी प्रगति होगी छिपकली की पूँछ की तरह मानव अंग को भी दोबारा उगाने के क्षेत्र में. फ़िलाडेल्फ़िया में वाइस्टर इंस्टीट्यूट की एलेना हेबर-कैट्ज़ की मानें तो जल्दी ही ऐसी दवाएँ आने वाली हैं जिनके ज़रिए कमज़ोर दिल अपनी मरम्मत ख़ुद कर सकेगा. उनका मानना है कि पाँच से दस साल के भीतर उँगलियों जैसे अंगों को दोबारा उगाना संभव हो सकेगा.
अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में भी मानव लंबी छलाँग लगाने वाला है. प्रिंसटन यूनीवर्सिटी के जे रिचर्ड गॉट के अनुसार कुछ दशकों के भीतर मानव मंगल ग्रह पर अपनी स्वपोषित कॉलोनी बसा सकेगा. उनके अनुसार इसका सबसे बड़ा फ़ायदा ये होगा कि प्रलय या महाविभीषिका की किसी स्थिति में भी धरती से दूर मानव जीवन का अस्तित्व बना रहेगा.
यूनीवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन के रिचर्ड मिलर की मानें तो 2056 आते-आते ऐसे लोगों की बड़ी संख्या होगी जो सौ साल या उससे भी बड़ी उम्र में कामकाज़ी जीवन बिता रहे होंगे. ये चमत्कार होगा मोलेक्युलर बायोलॉजी के क्षेत्र में लगातार हो रही प्रगति के कारण.
...और अंत में एक भविष्यवाणी यूनीवर्सिटी ऑफ़ ब्रिटिश कोलंबिया के डेनियल पॉली की. इनका कहना है कि कुछ दशकों के बाद पूरी दुनिया शाकाहारी होनेवाली है. दरअसल पॉली साहब एक ऐसे यंत्र की कल्पना साकार होते देख रहे हैं, जिसके ज़रिए हम जंतुओं की भावनाओं और विचारों को जान सकेंगे, महसूस कर सकेंगे. ऐसे में किसी विचारवान जीव को मार कर खाने की अनैतिकता भला कितने लोगों को पचेगी!
न्यू साइंटिस्ट के स्वर्णजयंती अंक में सबसे रोमाँचक लेख इस पुराने सवाल के ऊपर है कि क्या हम ब्रह्मांड में अकेले हैं? इस सवाल के जवाब में वैज्ञानिकों का कहना है कि अब तक धरती से परे जीवन की खोज नहीं होने पाने का साफ़ मतलब है कि जीवन बड़ा ही विरल है. लेकिन इसका मतलब ये बिल्कुल ही नहीं है कि ब्रह्मांड में धरती के अलावा कहीं और जीवन नहीं है.
इंस्टीट्यूट ऑफ़ एडवांस्ड स्टडी के फ़्रीमैन डायसन का मानना है कि एक बार हमें धरती से दूर जीवन के अस्तित्व का सबूत मिल जाए तो आगे की खोजें अपेक्षाकृत जल्दी हो सकेंगी. क्योंकि तब वैज्ञानिकों को पता रहेगा कि वो आख़िर ढूँढ क्या रहे हैं.
एरिज़ोना स्टेट यूनीवर्सिटी के पॉल डेवीज़ कहीं ज़्यादा आशावादी हैं. उनका कहना है कि एलियन्स को ढूँढने में रेडियो टेलीस्कोपों के ज़रिए ही सफलता मिले ये कोई ज़रूरी नहीं है. उनका कहना है कि ज़्यादातर जीव सूक्ष्म रूप में यानि जीवाणु या विषाणु के रूप में हैं. ऐसे में क्या पता बाहर का कोई सूक्ष्म जीव धरती पर हमारे ही बीच पल रहा हो!
यदि धरती से दूर जीवन का कोई रूप मिल भी गया तो वो कितना अलग होगा? नासा के क्रिस मैकके की मानें तो ये अंतर अंग्रेज़ी और चीनी भाषाओं के अंतर जितना हो सकता है.
जहाँ तक 50 साल बाद के चिकित्सा जगत की बात है तो वैज्ञानिकों का मानना है कि आज की दवाइयों को तब उसी रूप में देखा जाएगा जैसाकि अभी ओझा-गुनी के सुझाए उपचारों को देखते हैं. यूनीवर्सिटी ऑफ़ शिकागो के ब्रुस लान के अनुसार पाँच दशक बाद प्रत्यारोपण के लिए अंग किसी ज़िंदा या मुर्दा व्यक्ति से लेने की ज़रूरत नहीं होगी, बल्कि अंगों की फ़ार्मिंग की जाएगी. सूअर जैसे जंतुओं में मनुष्यों के लिए अंग उगाए जाएँगे. यानि, अंग प्रत्यारोपण की ज़रूरत पड़ने पर डॉक्टर किसी व्यावसायिक अंग उत्पादन कंपनी को ऑर्डर कर मरीज़ के 'इम्युनोलॉजिकल प्रोफ़ाइल' के अनुरूप टेलरमेड अंग मँगा सकेगा.
हालाँकि वैज्ञानिकों ने स्पष्ट किया है कि अंगों की फ़ार्मिंग के आने वाले युग में भी मस्तिष्क या दिमाग़ को कृत्रिम रूप से बनाए जाने की संभावना दूर-दूर तक नज़र नहीं आती है. मतलब, कृत्रिम दिमाग़ के नाम पर आगे भी सुपरकंप्यूटरों से काम चलाते रहिए!
चिकित्सा जगत में आने वाले दिनों में एक और बड़ी प्रगति होगी छिपकली की पूँछ की तरह मानव अंग को भी दोबारा उगाने के क्षेत्र में. फ़िलाडेल्फ़िया में वाइस्टर इंस्टीट्यूट की एलेना हेबर-कैट्ज़ की मानें तो जल्दी ही ऐसी दवाएँ आने वाली हैं जिनके ज़रिए कमज़ोर दिल अपनी मरम्मत ख़ुद कर सकेगा. उनका मानना है कि पाँच से दस साल के भीतर उँगलियों जैसे अंगों को दोबारा उगाना संभव हो सकेगा.
अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में भी मानव लंबी छलाँग लगाने वाला है. प्रिंसटन यूनीवर्सिटी के जे रिचर्ड गॉट के अनुसार कुछ दशकों के भीतर मानव मंगल ग्रह पर अपनी स्वपोषित कॉलोनी बसा सकेगा. उनके अनुसार इसका सबसे बड़ा फ़ायदा ये होगा कि प्रलय या महाविभीषिका की किसी स्थिति में भी धरती से दूर मानव जीवन का अस्तित्व बना रहेगा.
यूनीवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन के रिचर्ड मिलर की मानें तो 2056 आते-आते ऐसे लोगों की बड़ी संख्या होगी जो सौ साल या उससे भी बड़ी उम्र में कामकाज़ी जीवन बिता रहे होंगे. ये चमत्कार होगा मोलेक्युलर बायोलॉजी के क्षेत्र में लगातार हो रही प्रगति के कारण.
...और अंत में एक भविष्यवाणी यूनीवर्सिटी ऑफ़ ब्रिटिश कोलंबिया के डेनियल पॉली की. इनका कहना है कि कुछ दशकों के बाद पूरी दुनिया शाकाहारी होनेवाली है. दरअसल पॉली साहब एक ऐसे यंत्र की कल्पना साकार होते देख रहे हैं, जिसके ज़रिए हम जंतुओं की भावनाओं और विचारों को जान सकेंगे, महसूस कर सकेंगे. ऐसे में किसी विचारवान जीव को मार कर खाने की अनैतिकता भला कितने लोगों को पचेगी!
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