रविवार, मई 21, 2006

अमरीकी स्तंभकार, भारत में असरदार

कहने की ज़रूरत नहीं कि जनसंचार के मौजूदा युग में समाचार का महत्व विचार से कहीं ज़्यादा है. दरअसल सूचना के अधिकार के तमाम नारों के बावजूद सत्ता प्रतिष्ठान और व्यापार जगत के लोग कड़वे सच को आमजनों से दूर रखने की कोशिश करते हैं. ऐसी स्थिति में तथ्यों को ढूँढ निकालने वाले पत्रकारों की नायकों जैसी इज़्ज़त होना स्वाभाविक ही है.

लेकिन समाज पर असर की बात करें तो एक खोजी पत्रकार इस मामले में किसी स्तंभकार से मीलों पीछे छूट जाता है. असल में आज अबाध गति से सूचना प्रवाह हो रहा है, और ऐसे में तथ्यों को सही संदर्भ में रखने वाले समाचार विश्लेषकों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो उठी है. एक प्रभावशाली स्तंभकार न सिर्फ़ किसी व्यक्ति या घटना से जुड़े तथ्यों की बारीकी से पड़ताल करता है, बल्कि उसे आमजनों की समझ में आने लायक भाषा में पेश भी करता है. हर स्तंभकार के विश्लेषण में उसकी अपनी व्यक्तिगत मान्यताओं और पूर्वाग्रहों की छाप देखी जा सकती है. लेकिन किसी स्तंभकार या समाचार विश्लेषक की स्वीकार्यता पूरी तरह इस बात पर निर्भर करती है कि वो व्यापक महत्व के मुद्दों को किस नज़रिये से देखता है और उसका विश्लेषण कितने अकाट्य तर्कों से लैस है.

विश्व जनमत को ढालने में स्तंभकारों की भूमिका का बखान करते हुए फ़ाइनेंशियल टाइम्स अख़बार ने प्रभावशाली स्तंभकारों(कुछ रेडियो-टीवी प्रसारक भी शामिल) की एक अंतरराष्ट्रीय सूची प्रकाशित की है. इस सूची में सबसे चौंकाने वाली बात भारत से जुड़ी है. अख़बार लिखता है कि भारत भाषाई और सांस्कृतिक विविधता के लिहाज से एक अनूठा देश है, और यहाँ सही मायने में राष्ट्रव्यापी प्रभाव वाले किसी स्तंभकार का अस्तित्व संभव नहीं दिखता. फ़ाइनेंशियल टाइम्स के अनुसार हिंदुस्तान टाइम्स के प्रेमशंकर झा, इंडियन एक्सप्रेस के शेखर गुप्ता और एशियन एज के एमजे अकबर के स्तंभ भले ही पढ़े जाते हों, लेकिन भारतीय आभिजात्य वर्ग में इस समय न्यूयॉर्क टाइम्स के स्तंभकार थॉमस फ़्रीडमैन की तूती बोलती है. भारत के कई अख़बार तीन बार पुलित्ज़र पुरस्कार जीत चुके फ़्रीडमैन के न्यूयॉर्क टाइम्स के लेखों को पुनर्प्रकाशित करते हैं.

फ़्रीडमैन को भविष्य में विश्च मंच पर भारत से ढेर सारी उम्मीदें हैं. इस बारे में उन्होंने अपनी हालिया किताब द वर्ल्ड इज़ फ़्लैट में विस्तार से प्रकाश डाला है. वह भारत को सहिष्णुता और स्थायित्व की मिसाल के रूप में प्रस्तुत करते हैं. इन दिनों भारत के बारे में ज़्यादातर अच्छी बातें ही लिखने वाले फ़्रीडमैन कहते हैं, "मुझे पक्षपाती कह लें, लेकिन मेरे दिल में ऐसे देश के लिए विशेष जगह है जहाँ सौ करोड़ लोग हों, सौ से ज़्यादा भाषाएँ हों, अनेक धर्मों का प्रचलन हो और जहाँ नियमित रूप से स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराए जाते हों." फ़ाइनेंशियल टाइम्स ने फ़्रीडमैन का ज़िक्र अमरीका-भारत निकट संबंधों के प्रभावपूर्ण पैरोकार के रूप में भी किया है.

उल्लेखनीय है कि फ़्रीडमैन भारत में सबसे ज़्यादा असरदार स्तंभकार के साथ-साथ अमरीका में प्रभावशाली स्तंभकारों की सूची में भी शामिल हैं. हालाँकि फ़ाइनेंशियल टाइम्स ने अमरीका में सबसे ज़्यादा प्रभावी स्तंभकार वाशिंग्टन पोस्ट के चार्ल्स क्रुथैमर को माना है, और फ़्रीडमैन को दूसरे नंबर पर रखा है. फ़्रीडमैन के बारे में बताया गया है कि वह मध्य-पूर्व से जुड़े विषयों पर कलम तोड़ कर लिखते हैं और ग्लोबलाइजेशन के समर्थन में तर्क देते हुए वह थकते नहीं. हालाँकि अपने लेखन में फ़्रीडमैन कई बार बहुत ही वाहियात और आत्मतुष्ट भी नज़र आते हैं. फ़्रीडमैन पर आरोप लगाया जाता है कि वह यूरोप को समझ नहीं पाए हैं और फ़्रांस की आलोचना में उनका स्वर बड़ा कर्कश हो जाता है.

3 टिप्‍पणियां:

अनूप शुक्ल ने कहा…

फ्रीडमैन के बारे में जानकारी अच्छी लगी।

Pratik Pandey ने कहा…

फ़्रीडमैन और अन्य स्तम्भकारों के विषय में बहुत बढिया लेख है। काफ़ी दिनों से आपके लेख की प्रतीक्षा थी। उम्मीद है कि आपका अगला लेख शीघ्र ही पढ़ने को मिलेगा।

Udan Tashtari ने कहा…

जानकारी अच्छी है.आगे भी इसी तरह की जानकारी देते रहें.

समीर लाल