दक्षिणी पूर्वी यूरोप में बाल्कन के लोगों ने पिछले दिनों राष्ट्र के बँटवारे यानि बाल्कनाइज़ेशन का एक और फ़ैसला किया. इस बार मॉन्टिनीग्रो की जनता ने जनमत संग्रह में सर्बिया से अलग अपना देश बनाने के बारे में जनादेश दिया है. भारी मन से ही सही, सर्बिया ने जनादेश का आदर करने का फ़ैसला किया है. इसी के साथ यूरोप के शक्तिशाली देशों में से एक यूगोस्लाविया की अंतिम निशानी भी ख़त्म हो रही है, क्योंकि अकेले सर्बिया में यूगोस्लाविया का उत्तराधिकारी कहलाने की कोई विशेषता नहीं रह जाएगी.
मॉन्टिनीग्रो के अलग होने के फ़ैसले से सर्बिया की जनता में भारी निराशा है क्योंकि इस बार मुसलमानों या किसी अन्य जातीयता के लोगों ने उससे अलग होने का फ़ैसला नहीं किया है. दरअसल मॉन्टिनीग्रो में भी सर्ब मूल के लोगों की बहुलता है, इसलिए सर्बिया के लोगों को इस विभाजन को स्वीकार करने में बहुत पीड़ा का अनुभव हुआ होगा. लेकिन सर्बियाई नौसेना की पीड़ा कुछ ज़्यादा ही है. इसे समझने के लिए साथ लगे मानचित्र पर एक नज़र डालना ही काफ़ी होगा. बात ये है कि दो स्वायत्त प्रांतों सर्बिया और मॉन्टिनीग्रो के संघ सर्बिया-मॉन्टिनीग्रो राष्ट्र का समुद्र से वास्ता मॉन्टिनीग्रो के तटों के ज़रिए ही था और अब मॉन्टिनीग्रो के अलग होने के बाद सर्बियाई नौसेना के अस्तित्व का कोई कारण ही नहीं बचता है.
इस समय सर्बियाई नौसेना के पास पनडुब्बियों समेत 30 युद्धपोत हैं. समुद्र तक पहुँच या किसी नौसैनिक अड्डे के अभाव में उनका क्या होगा, कहा नहीं जा सकता. सर्बियाई नौसैनिकों के पास दो विकल्प ज़रूर हैं- या तो वे डैन्यूब नदी में कुछ गश्ती नौकाएँ डाल कर ख़ुद को व्यस्त रखें या फिर अलग राष्ट्र के रूप में जन्म ले रहे मॉन्टिनीग्रो में काम करने को तैयार हो जाएँ. मॉन्टिनीग्रो सरकार के एक सलाहकार ने पत्रकारों से बातचीत में सर्बियाई नौसैनिकों को अपने यहाँ आमंत्रित भी किया है, हालाँकि वहाँ भी नौसैनिकों का काम सीमित ही होगा क्योंकि अलग मॉन्टिनीग्रो राष्ट्र नौसेना के बजाय मात्र तटरक्षक बल से ही काम चलाने की सोच रहा है. मॉन्टिनीग्रो की सरकार बंद किए जाने वाले सर्बियाई नौसैनिक अड्डों को पर्यटक केंद्रों के रूप में विकसित करने पर विचार कर रही है.
सर्बिया की सरकार प्रथम विश्व युद्ध में पराजय के साथ अपनी समुद्री सीमा से हाथ धोने वाले ऑस्ट्रिया का उदाहरण अपनाती है या फिर चिली से हार कर समुद्री सीमाएँ खो देने वाले बोलीविया का ये देखने वाली बात होगी. ऑस्ट्रिया ने जहाँ अपनी नौसेना भंग कर दी थी, वहीं बोलीविया ने 1884 में प्रशांत महासागर तट पर स्थित एरिका बंदरगाह चिली के हाथों गँवाने के बाद आज तक अपनी नौसेना भंग नहीं की है. बोलीविया ने टिटिकाका झील में अपनी नौसेना तैनात कर रखी है. उसके पास 4,000 से भी ज़्यादा नौसैनिक हैं. इतना ही नहीं बोलीविया के पास एक युद्धक पोत भी है. स्वतंत्रता सेनानी साइमन बोलिवर के नाम वाले इस युद्धपोत को अर्जेंटीना के रोज़ैरियो बंदरगाह पर तैनात रखा गया है.
समुद्र को लेकर बोलीविया में काफ़ी उन्माद रहा है. अभी भी हर साल 23 मार्च को समुद्र दिवस मनाया जाता है और समुद्र का एक हिस्सा वापस लेने की कसमें खायी जाती हैं. माना जाता है कि चिली से हार का पुराना ज़ख़्म पाले बोलीविया ने 1932 में पारागुए पर यह सोच कर हमला किया, कि हथियाए गए इलाक़े से नदियों के ज़रिए (अर्जेंटीना होते हुए) अटलांटिक महासागर तक पहुँच बनाई जा सके. हालाँकि बोलीविया को पारागुए से भी हार का ही मुँह देखना पड़ा. उल्लेखनीय है कि पारागुए भी एक भूबद्ध राष्ट्र है, लेकिन उसने भी एक नौसेना बना रखी है. (संभवत: बोलीवियाई नौसेना के मुक़ाबले के लिए!)
जब लैटिन अमरीका में पागलपन की हद तक नौसेना की चाहत हो, तो फिर अफ़्रीका के देश क्यों पीछे रहें. जब कुख़्यात ईदी अमीन युगांडा का शासक था तो उसने विक्टोरिया झील में अपनी नौसेना बना रखी थी. हालाँकि सच कहा जाए तो ईदी अमीन की कथित नौसेना में तीन गश्ती नौकाएँ भर ही थीं. मलावी ने तो न्यासा झील में आज भी अपनी नौसेना तैनात कर रखी है जिसके पास मात्र दो गश्ती नौकाएँ हैं. स्वाज़िलैंड के पास हाल तक एक नौसेना थी लेकिन उसके एकमात्र पोत स्वाज़िमार के लापता हो जाने के बाद उसकी नौसेना का अस्तित्व नही रह गया है.
स्विटज़रलैंड के पास झीलों में निगरानी व्यवस्था के लिए 18 गश्ती नौकाएँ हैं लेकिन उसे नौसेना के बज़ाय पुलिस व्यवस्था का ही अंग बताया जाता है.
इसी तरह फ़लस्तीनियों के पास भी एक नौसेना है, लेकिन इसराइल ने उसे समुद्र में नौसैनिकों की तैनाती का कोई मौक़ा ही नहीं दे रखा है. जो भी हो फ़लस्तीनियों की बात अलग है क्योंकि उन बेचारों के पास तो अपना राष्ट्र तक नहीं है, लेकिन राष्ट्रपति है.
शनिवार, मई 27, 2006
रविवार, मई 21, 2006
अमरीकी स्तंभकार, भारत में असरदार
कहने की ज़रूरत नहीं कि जनसंचार के मौजूदा युग में समाचार का महत्व विचार से कहीं ज़्यादा है. दरअसल सूचना के अधिकार के तमाम नारों के बावजूद सत्ता प्रतिष्ठान और व्यापार जगत के लोग कड़वे सच को आमजनों से दूर रखने की कोशिश करते हैं. ऐसी स्थिति में तथ्यों को ढूँढ निकालने वाले पत्रकारों की नायकों जैसी इज़्ज़त होना स्वाभाविक ही है.
लेकिन समाज पर असर की बात करें तो एक खोजी पत्रकार इस मामले में किसी स्तंभकार से मीलों पीछे छूट जाता है. असल में आज अबाध गति से सूचना प्रवाह हो रहा है, और ऐसे में तथ्यों को सही संदर्भ में रखने वाले समाचार विश्लेषकों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो उठी है. एक प्रभावशाली स्तंभकार न सिर्फ़ किसी व्यक्ति या घटना से जुड़े तथ्यों की बारीकी से पड़ताल करता है, बल्कि उसे आमजनों की समझ में आने लायक भाषा में पेश भी करता है. हर स्तंभकार के विश्लेषण में उसकी अपनी व्यक्तिगत मान्यताओं और पूर्वाग्रहों की छाप देखी जा सकती है. लेकिन किसी स्तंभकार या समाचार विश्लेषक की स्वीकार्यता पूरी तरह इस बात पर निर्भर करती है कि वो व्यापक महत्व के मुद्दों को किस नज़रिये से देखता है और उसका विश्लेषण कितने अकाट्य तर्कों से लैस है.
विश्व जनमत को ढालने में स्तंभकारों की भूमिका का बखान करते हुए फ़ाइनेंशियल टाइम्स अख़बार ने प्रभावशाली स्तंभकारों(कुछ रेडियो-टीवी प्रसारक भी शामिल) की एक अंतरराष्ट्रीय सूची प्रकाशित की है. इस सूची में सबसे चौंकाने वाली बात भारत से जुड़ी है. अख़बार लिखता है कि भारत भाषाई और सांस्कृतिक विविधता के लिहाज से एक अनूठा देश है, और यहाँ सही मायने में राष्ट्रव्यापी प्रभाव वाले किसी स्तंभकार का अस्तित्व संभव नहीं दिखता. फ़ाइनेंशियल टाइम्स के अनुसार हिंदुस्तान टाइम्स के प्रेमशंकर झा, इंडियन एक्सप्रेस के शेखर गुप्ता और एशियन एज के एमजे अकबर के स्तंभ भले ही पढ़े जाते हों, लेकिन भारतीय आभिजात्य वर्ग में इस समय न्यूयॉर्क टाइम्स के स्तंभकार थॉमस फ़्रीडमैन की तूती बोलती है. भारत के कई अख़बार तीन बार पुलित्ज़र पुरस्कार जीत चुके फ़्रीडमैन के न्यूयॉर्क टाइम्स के लेखों को पुनर्प्रकाशित करते हैं.
फ़्रीडमैन को भविष्य में विश्च मंच पर भारत से ढेर सारी उम्मीदें हैं. इस बारे में उन्होंने अपनी हालिया किताब द वर्ल्ड इज़ फ़्लैट में विस्तार से प्रकाश डाला है. वह भारत को सहिष्णुता और स्थायित्व की मिसाल के रूप में प्रस्तुत करते हैं. इन दिनों भारत के बारे में ज़्यादातर अच्छी बातें ही लिखने वाले फ़्रीडमैन कहते हैं, "मुझे पक्षपाती कह लें, लेकिन मेरे दिल में ऐसे देश के लिए विशेष जगह है जहाँ सौ करोड़ लोग हों, सौ से ज़्यादा भाषाएँ हों, अनेक धर्मों का प्रचलन हो और जहाँ नियमित रूप से स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराए जाते हों." फ़ाइनेंशियल टाइम्स ने फ़्रीडमैन का ज़िक्र अमरीका-भारत निकट संबंधों के प्रभावपूर्ण पैरोकार के रूप में भी किया है.
उल्लेखनीय है कि फ़्रीडमैन भारत में सबसे ज़्यादा असरदार स्तंभकार के साथ-साथ अमरीका में प्रभावशाली स्तंभकारों की सूची में भी शामिल हैं. हालाँकि फ़ाइनेंशियल टाइम्स ने अमरीका में सबसे ज़्यादा प्रभावी स्तंभकार वाशिंग्टन पोस्ट के चार्ल्स क्रुथैमर को माना है, और फ़्रीडमैन को दूसरे नंबर पर रखा है. फ़्रीडमैन के बारे में बताया गया है कि वह मध्य-पूर्व से जुड़े विषयों पर कलम तोड़ कर लिखते हैं और ग्लोबलाइजेशन के समर्थन में तर्क देते हुए वह थकते नहीं. हालाँकि अपने लेखन में फ़्रीडमैन कई बार बहुत ही वाहियात और आत्मतुष्ट भी नज़र आते हैं. फ़्रीडमैन पर आरोप लगाया जाता है कि वह यूरोप को समझ नहीं पाए हैं और फ़्रांस की आलोचना में उनका स्वर बड़ा कर्कश हो जाता है.
लेकिन समाज पर असर की बात करें तो एक खोजी पत्रकार इस मामले में किसी स्तंभकार से मीलों पीछे छूट जाता है. असल में आज अबाध गति से सूचना प्रवाह हो रहा है, और ऐसे में तथ्यों को सही संदर्भ में रखने वाले समाचार विश्लेषकों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो उठी है. एक प्रभावशाली स्तंभकार न सिर्फ़ किसी व्यक्ति या घटना से जुड़े तथ्यों की बारीकी से पड़ताल करता है, बल्कि उसे आमजनों की समझ में आने लायक भाषा में पेश भी करता है. हर स्तंभकार के विश्लेषण में उसकी अपनी व्यक्तिगत मान्यताओं और पूर्वाग्रहों की छाप देखी जा सकती है. लेकिन किसी स्तंभकार या समाचार विश्लेषक की स्वीकार्यता पूरी तरह इस बात पर निर्भर करती है कि वो व्यापक महत्व के मुद्दों को किस नज़रिये से देखता है और उसका विश्लेषण कितने अकाट्य तर्कों से लैस है.
विश्व जनमत को ढालने में स्तंभकारों की भूमिका का बखान करते हुए फ़ाइनेंशियल टाइम्स अख़बार ने प्रभावशाली स्तंभकारों(कुछ रेडियो-टीवी प्रसारक भी शामिल) की एक अंतरराष्ट्रीय सूची प्रकाशित की है. इस सूची में सबसे चौंकाने वाली बात भारत से जुड़ी है. अख़बार लिखता है कि भारत भाषाई और सांस्कृतिक विविधता के लिहाज से एक अनूठा देश है, और यहाँ सही मायने में राष्ट्रव्यापी प्रभाव वाले किसी स्तंभकार का अस्तित्व संभव नहीं दिखता. फ़ाइनेंशियल टाइम्स के अनुसार हिंदुस्तान टाइम्स के प्रेमशंकर झा, इंडियन एक्सप्रेस के शेखर गुप्ता और एशियन एज के एमजे अकबर के स्तंभ भले ही पढ़े जाते हों, लेकिन भारतीय आभिजात्य वर्ग में इस समय न्यूयॉर्क टाइम्स के स्तंभकार थॉमस फ़्रीडमैन की तूती बोलती है. भारत के कई अख़बार तीन बार पुलित्ज़र पुरस्कार जीत चुके फ़्रीडमैन के न्यूयॉर्क टाइम्स के लेखों को पुनर्प्रकाशित करते हैं.
फ़्रीडमैन को भविष्य में विश्च मंच पर भारत से ढेर सारी उम्मीदें हैं. इस बारे में उन्होंने अपनी हालिया किताब द वर्ल्ड इज़ फ़्लैट में विस्तार से प्रकाश डाला है. वह भारत को सहिष्णुता और स्थायित्व की मिसाल के रूप में प्रस्तुत करते हैं. इन दिनों भारत के बारे में ज़्यादातर अच्छी बातें ही लिखने वाले फ़्रीडमैन कहते हैं, "मुझे पक्षपाती कह लें, लेकिन मेरे दिल में ऐसे देश के लिए विशेष जगह है जहाँ सौ करोड़ लोग हों, सौ से ज़्यादा भाषाएँ हों, अनेक धर्मों का प्रचलन हो और जहाँ नियमित रूप से स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराए जाते हों." फ़ाइनेंशियल टाइम्स ने फ़्रीडमैन का ज़िक्र अमरीका-भारत निकट संबंधों के प्रभावपूर्ण पैरोकार के रूप में भी किया है.
उल्लेखनीय है कि फ़्रीडमैन भारत में सबसे ज़्यादा असरदार स्तंभकार के साथ-साथ अमरीका में प्रभावशाली स्तंभकारों की सूची में भी शामिल हैं. हालाँकि फ़ाइनेंशियल टाइम्स ने अमरीका में सबसे ज़्यादा प्रभावी स्तंभकार वाशिंग्टन पोस्ट के चार्ल्स क्रुथैमर को माना है, और फ़्रीडमैन को दूसरे नंबर पर रखा है. फ़्रीडमैन के बारे में बताया गया है कि वह मध्य-पूर्व से जुड़े विषयों पर कलम तोड़ कर लिखते हैं और ग्लोबलाइजेशन के समर्थन में तर्क देते हुए वह थकते नहीं. हालाँकि अपने लेखन में फ़्रीडमैन कई बार बहुत ही वाहियात और आत्मतुष्ट भी नज़र आते हैं. फ़्रीडमैन पर आरोप लगाया जाता है कि वह यूरोप को समझ नहीं पाए हैं और फ़्रांस की आलोचना में उनका स्वर बड़ा कर्कश हो जाता है.
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