पहली बार कुछ साल पहले सुना था एस्पेरांतो का नाम. अब इस सप्ताह एक नामी अख़बार में भूली-बिसरी ख़बरों के कॉलम में इसके बारे में दोबारा पढ़ा तो सोचा क्यों न इसके बारे में जानकारी जुटाई जाए.
जिन्होंने पहली बार इस इस शब्द एस्पेरांतो(esperanto) के बारे में सुना है, उन्हें पहले बता दें कि ये एक भाषा का नाम है. एक कृत्रिम भाषा यानि कन्सट्रक्टेड लैंग्वेज. एक अनुमान के अनुसार इस समय सौ से ज़्यादा देशों में 16 लाख लोग ढंग से एस्पेरांतो पढ़-लिख-बोल लेते हैं. गूगल में यह शब्द डालें तो क़रीब साढ़े पाँच करोड़ पेज सामने आते हैं.
एस्पेरांतो पोलैंड के एक नेत्र विशेषज्ञ और भाषा विज्ञानी डॉ. लुडविक लाज़ारुस ज़ैमनहॉफ़ की एक दशक के परिश्रम का परिणाम है. उन्होंने एक सार्वभौम उपभाषा या यूनीवर्सल सेकेंड लैंग्वेज के रूप में इसे 1887 में दुनिया के समक्ष पेश किया. वह स्वनिर्मित भाषा को बढ़ाने के लिए डॉ. एस्पेरांतो या डॉ. आशावादी नाम से लेख लिखा करते थे. और इसी से उनकी बनाई अंतरराष्ट्रीय भाषा को नाम मिला. ज़ैमनहॉफ़ ख़ुद नौ भाषाओं के जानकार थे और उनका मानना था कि अगर दुनिया के हर कोने के लोगों की दूसरी भाषा एक ही हो तो इससे शांति और सदभाव को बढ़ावा मिलेगा, और अंतरराष्ट्रीय सहयोग आसान बन सकेगा.
ज़ैमनहॉफ़ ने पश्चिमी यूरोप और अफ़्रीका की कुछ भाषाओं को आधार बनाकर एस्पेरांतो का विकास किया. उनका मुख्य उद्देश्य था इसे सीखने और उपयोग में ज़्यादा से ज़्यादा आसान बनाना. एस्पेरांतो 23 व्यंजन और 5 स्वर वर्णों से बना है. यह हिंदी की तरह ही एक फ़ोनेटिक भाषा है यानि इसमें जो लिखा हुआ है वही बोला जाता है. इसके अतिरिक्त एस्पेरांतो में क्रिया के विभिन्न रूपों और स्त्रीलिंग-पुल्लिंग का भी झमेला नहीं है.
ज़ैमनहॉफ़ का प्रयास शुरू में तो रंग लाते दिखा जब रूस और पूर्वी यूरोप के अन्य देशों में इसे अपनाने का रुझान दिखा. बीसवीं सदी के पहले दशक में पश्चिमी यूरोप के कुछ देशों और अमरीका में भी लोगों ने एस्पेरांतो में दिलचस्पी दिखाई. बाद में चीन और जापान में इसे जानने-समझने वालों की संख्या बढ़ी. लेकिन ज़ैमनहॉफ़ की यूनीवर्सल सेकेंड लैंग्वेज की कल्पना सच्चाई में तब्दील नहीं हो पाई.
एक सार्वभौम द्वितीय भाषा का काम अब तक अंगरेज़ी नहीं कर पाई है तो एस्पेरांतो से कितनी उम्मीद रखी जा सकती है, यह स्पष्ट है. लेकिन सौ से ज़्यादा देशों में इसके चाहने वालों का लाखों की संख्या में मौजूदा होना भी कोई मामूली उपलब्धि नहीं है. चीन, हंगरी और बुल्गारिया में कई स्कूलों में इसे पढ़ाया जाता है. जापान के ऊममोत संप्रदाय के अलावा बहाई संप्रदाय में भी एस्पेरांतो को बढ़ावा दिया जाता है. इस भाषा में हज़ारों किताबें उपलब्ध हैं, और सौ से ऊपर पत्रिकाएँ छपती हैं. एस्पेरांतो के प्रशंसकों की इंटरनेट पर भारी मौजूदगी है.
उल्लेखनीय है कि इतनी लोकप्रियता के बावजूद एस्पेरांतो को किसी भी देश में आधिकारिक भाषा का दर्जा प्राप्त नहीं है. लेकिन सैंकड़ों राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संस्थाएँ एस्पेरांतो को बढ़ावा देने के लिए हर स्तर पर काम कर रही हैं. एस्पेरांतो अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में हर साल दुनिया भर के हज़ारों भाषा प्रेमी भाग लेते हैं. वर्ष 2006 का एस्पेरांतो वर्ल्ड कांग्रेस इटली के फ़्लोरेंस में आयोजित किया जाएगा. और तो और लगातार दो वर्ष 1999 और 2000 में स्कॉटलैंड के एस्पेरांतो कवि विलियम ऑल्ड को साहित्य के नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित किया जा चुका है.
यह बात भी ग़ौर करने की है कि यूनीवर्सल एस्पेरांतो एसोसिएशन का संयुक्त राष्ट्र की यूनेस्को और यूनीसेफ़ जैसी महत्वपूर्ण संस्थाओं के साथ औपचारिक रिश्ता है.
वैज्ञानिकों की राय की बात करें तो कहते हैं एस्पेरांतो को 'स्प्रिंगबोर्ड टू लैंग्वेजेज़' के रूप में इस्तेमाल करना अच्छी बात है. मतलब एक छोटे बच्चे को किसी और भाषा से पहले एस्पेरांतो सिखाई जाए तो वह बाकी भाषाएँ कहीं ज़्यादा आसानी से सीख सकेगा.
<<<एस्पेरांतो का अनुभव पाने के लिए इस पंक्ति को क्लिक करें>>>
बुधवार, नवंबर 30, 2005
गुरुवार, नवंबर 24, 2005
रेल हो तो ऐसी!
देखिए इन तस्वीरों को. आज ही खींची है जर्मनी में फ़्रांकफ़ुर्ट के पास रेल यात्रा के दौरान. यूरोप में बहुत रेल यात्राएँ करने का मौक़ा मिला है लेकिन ब्लॉग जगत में सक्रिय होने के बाद पहली बार कोई लंबी रेल यात्रा कर रहा था तो सोचा कि क्यों न कुछ तस्वीरें खींची जाए. इन तस्वीरों को देख कर यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं कि दुनिया के सबसे बड़े रेल नेटवर्क को यानि भारतीय रेल को अभी शताब्दी एक्सप्रेस और राजधानी एक्सप्रेस से कहीं आगे का सफ़र तय करना है.
ये चारों तस्वीरें जर्मनी की प्रसिद्ध इंटरसिटी एक्सप्रेस में से एक की हैं. इन ट्रेनों को जर्मनी में ICE नाम से जाना जाता है. पहली आईसीई ट्रेन 1991 में जनता की सेवा में आई थी और ऐसी 150 से ज़्यादा ट्रेनें आज औसत 270 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से जर्मनी के कोने-कोने में जाती हैं. तीसरी पीढ़ी की आईसीई ट्रेनों को सिद्धांतत: 330 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से दौड़ाने की इजाज़त है. मैं म्यूनिख़-डोर्टमुंड रूट पर ट्रेन संख्या ICE 612 पर यात्रा कर रहा था. हमारी ट्रेन कभी-कभी ही 250 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से नीचे आती थी वो भी स्टॉप के क़रीब आने पर रूकने की तैयारी में.
जैसा कि आप तस्वीर में पाएँगे आईसीई का सेकेंड क्लास भी आपको फ़र्स्ट क्लास में होने की ग़लतफ़हमी में डाल सकता है. चाहे लेग-रूम की बात हो, सुविधाओं की बात हो या फिर बात हो साज-सज्जा की.
आईसीई ट्रेनों को प्रमुख शहरों के बीच विशेष रूप से तैयार ट्रैक पर पूरी स्पीड से दौड़ाया जाता है. हालाँकि आम ट्रैकों पर भी इन्हें 200 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से चलाया जाता है. जर्मनी से ऑस्ट्रिया, स्विटज़रलैंड और इटली तक की यात्राओं में भी इन ट्रेनों की सेवाएँ ली जा सकती हैं.
जहाँ तक सुरक्षा की बात है तो पिछले पंद्रह साल में मात्र एक दुर्घटना आईसीई ट्रेनों के नाम है. इस दृष्टि से यह फ़्रांस की TGV ट्रेनों से पिछड़ जाती हैं क्योंकि पिछले दो दशकों के दौरान टीजीवी(Train à Grande Vitesse या High Speed Train) ट्रेनें किसी बड़ी दुर्घटना का शिकार नहीं बनी हैं. उल्लेखनीय है कि विशेष पटरियों की व्यवस्था के कारण आईसीई और टीजीवी जैसी ट्रेनों की गति पर ख़राब मौसम यानि कोहरा, हिमपात, बारिश आदि का कोई असर नहीं पड़ता है.
बाकी मामलों में तुलना करें तो ICE और TGV दोनों ही अमूमन अधिकतम 300 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से पटरियों को नापती हैं. लेकिन प्रायोगिक परिस्थितियों में जहाँ आईसीई 400 का आँकड़ा पार कर एक समय दुनिया की सबसे तेज़ ट्रेन घोषित हुई थी, वहीं टीजीवी 515 की गिनती गिन कर आज भी सिद्धांतत: दुनिया की सबसे तेज़ ट्रेन बनी हुई है. ( हालाँकि परीक्षण अवस्था की बात न करते हुए दिन-प्रतिदिन की सेवा में रफ़्तार की बात करें तो यूरोप की ट्रेनों को कहीं पीछे छोड़ती हैं 350 का आँकड़ा छूने वाली जापान की बुलेट ट्रेन और शंघाई के एक छोटे-से रूट पर क़रीब 450 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से पटरी छोड़ कर दौड़ने वाली मैगलेव ट्रेन.)
अपने अनुभव से मैं कह सकता हूँ कि सुविधा और आराम के मामले में आईसीई निश्चय ही टीजीवी से आगे है, और इसे यूरोप की बेहतरीन ट्रेन कहा जा सकता है.
लेकिन यूरोप की रेल यात्राओं में मुझे मिलान-ज़्यूरिख़ रूट पर चार महीने पहले की गई यात्रा की याद सबसे ज़्यादा रोमांचित करती है. दरअसल मैं पहली बार किसी टिल्टिंग ट्रेन की सवारी कर रहा था, हालाँकि यूरोप के कुछ रूट पर ऐसी ट्रेनें पिछले छह-सात साल से चल रही हैं. स्विटज़रलैंड की नैसर्गिक ख़ूबसूरती को निहारते हुए टिल्टिंग ट्रेन की सवारी करने के अनुभव को तो अदभुत कहा ही जा सकता है. इन अत्याधुनिक ट्रेनों के बारे में फिर कभी चर्चा होगी.
अपने अनुभव के आधार पर ही चलते-चलते ये भी बताता चलूँ कि ब्रिटेन की रेल-व्यवस्था बाकी यूरोप से बहुत-बहुत पीछे है,...यों कहें कि भारत से थोड़ा ही आगे!
ये चारों तस्वीरें जर्मनी की प्रसिद्ध इंटरसिटी एक्सप्रेस में से एक की हैं. इन ट्रेनों को जर्मनी में ICE नाम से जाना जाता है. पहली आईसीई ट्रेन 1991 में जनता की सेवा में आई थी और ऐसी 150 से ज़्यादा ट्रेनें आज औसत 270 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से जर्मनी के कोने-कोने में जाती हैं. तीसरी पीढ़ी की आईसीई ट्रेनों को सिद्धांतत: 330 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से दौड़ाने की इजाज़त है. मैं म्यूनिख़-डोर्टमुंड रूट पर ट्रेन संख्या ICE 612 पर यात्रा कर रहा था. हमारी ट्रेन कभी-कभी ही 250 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से नीचे आती थी वो भी स्टॉप के क़रीब आने पर रूकने की तैयारी में.
जैसा कि आप तस्वीर में पाएँगे आईसीई का सेकेंड क्लास भी आपको फ़र्स्ट क्लास में होने की ग़लतफ़हमी में डाल सकता है. चाहे लेग-रूम की बात हो, सुविधाओं की बात हो या फिर बात हो साज-सज्जा की.
आईसीई ट्रेनों को प्रमुख शहरों के बीच विशेष रूप से तैयार ट्रैक पर पूरी स्पीड से दौड़ाया जाता है. हालाँकि आम ट्रैकों पर भी इन्हें 200 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से चलाया जाता है. जर्मनी से ऑस्ट्रिया, स्विटज़रलैंड और इटली तक की यात्राओं में भी इन ट्रेनों की सेवाएँ ली जा सकती हैं.
जहाँ तक सुरक्षा की बात है तो पिछले पंद्रह साल में मात्र एक दुर्घटना आईसीई ट्रेनों के नाम है. इस दृष्टि से यह फ़्रांस की TGV ट्रेनों से पिछड़ जाती हैं क्योंकि पिछले दो दशकों के दौरान टीजीवी(Train à Grande Vitesse या High Speed Train) ट्रेनें किसी बड़ी दुर्घटना का शिकार नहीं बनी हैं. उल्लेखनीय है कि विशेष पटरियों की व्यवस्था के कारण आईसीई और टीजीवी जैसी ट्रेनों की गति पर ख़राब मौसम यानि कोहरा, हिमपात, बारिश आदि का कोई असर नहीं पड़ता है.
बाकी मामलों में तुलना करें तो ICE और TGV दोनों ही अमूमन अधिकतम 300 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से पटरियों को नापती हैं. लेकिन प्रायोगिक परिस्थितियों में जहाँ आईसीई 400 का आँकड़ा पार कर एक समय दुनिया की सबसे तेज़ ट्रेन घोषित हुई थी, वहीं टीजीवी 515 की गिनती गिन कर आज भी सिद्धांतत: दुनिया की सबसे तेज़ ट्रेन बनी हुई है. ( हालाँकि परीक्षण अवस्था की बात न करते हुए दिन-प्रतिदिन की सेवा में रफ़्तार की बात करें तो यूरोप की ट्रेनों को कहीं पीछे छोड़ती हैं 350 का आँकड़ा छूने वाली जापान की बुलेट ट्रेन और शंघाई के एक छोटे-से रूट पर क़रीब 450 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से पटरी छोड़ कर दौड़ने वाली मैगलेव ट्रेन.)
अपने अनुभव से मैं कह सकता हूँ कि सुविधा और आराम के मामले में आईसीई निश्चय ही टीजीवी से आगे है, और इसे यूरोप की बेहतरीन ट्रेन कहा जा सकता है.
लेकिन यूरोप की रेल यात्राओं में मुझे मिलान-ज़्यूरिख़ रूट पर चार महीने पहले की गई यात्रा की याद सबसे ज़्यादा रोमांचित करती है. दरअसल मैं पहली बार किसी टिल्टिंग ट्रेन की सवारी कर रहा था, हालाँकि यूरोप के कुछ रूट पर ऐसी ट्रेनें पिछले छह-सात साल से चल रही हैं. स्विटज़रलैंड की नैसर्गिक ख़ूबसूरती को निहारते हुए टिल्टिंग ट्रेन की सवारी करने के अनुभव को तो अदभुत कहा ही जा सकता है. इन अत्याधुनिक ट्रेनों के बारे में फिर कभी चर्चा होगी.
अपने अनुभव के आधार पर ही चलते-चलते ये भी बताता चलूँ कि ब्रिटेन की रेल-व्यवस्था बाकी यूरोप से बहुत-बहुत पीछे है,...यों कहें कि भारत से थोड़ा ही आगे!
शुक्रवार, नवंबर 18, 2005
इंटरनेट पर अमरीकी निगरानी
कुछ महीनों से अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के विभिन्न मोर्चों पर झटके खाती अमरीकी सरकार को इस सप्ताह एक महत्वपूर्ण सफलता मिली है. दरअसल अमरीकी सरकार इंटरनेट पर अपने परोक्ष नियंत्रण पर विश्व समुदाय की मुहर लगवाने में सफल रही है.
कई महीनों से इस बात की आशंका जताई जा रही थी कि ट्यूनीशिया में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा आयोजित सूचना समाज विश्व शिखर सम्मेलन(WSIS) में सिर्फ़ एक ही मुद्दा हावी रहेगा कि इंटरनेट को अमरीका की निगरानी में छोड़ दिया जाए या फिर उस पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय की निगरानी रहे. विभिन्न देशों, ख़ास कर चीन और यूरोपीय संघ ने दो साल पहले WSIS के जिनीवा सम्मेलन के बाद से ही इंटरनेट को अमरीका के पहलू से दूर ले जाने के प्रयास शुरू कर दिए थे.
इंटरनेट के विकास में अमरीका की भूमिका से कोई इनकार नहीं करता, लेकिन कई देश ये मानने को तैयार नहीं कि सिर्फ़ इस कारण उस पर परोक्ष ही सही, लेकिन मात्र अमरीका का नियंत्रण हो. दरअसल कैलीफ़ोर्निया स्थित अलाभकारी संगठन इंटरनेट कॉर्पोरेशन फ़ॉर असाइन्ड नेम्स एंड नंबर्स(Icann) यानी आइकैन को इंटरनेट के डोमेन नेम प्रबंधन की ज़िम्मेवारी मिली हुई है. आइकैन के पास अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्यापक नियामक अधिकार होने के कारण इसे किसी न किसी सरकार के प्रति जवाबदेह होना ही था. ऐसे में 1998 में आइकैन के गठन के समय ही अमरीका सरकार ने इसे अमरीकी वाणिज्य विभाग के प्रति जवाबदेह बना दिया.
बात इतने तक ही सीमित रहती तब तो कोई विवाद ही नहीं होता क्योंकि हाल तक आइकैन ख़ुद को अमरीकी सरकार या उसकी नीतियों से दूर रखने में सफल रहा था और इसके के प्रबंधन बोर्ड में चार विदेशी निदेशकों की व्यवस्था से दुनिया आश्वस्त थी. लेकिन आइकैन के अमरीका सरकार के प्रभाव में आ जाने की आशंका ने तब ज़ोर पकड़ी जब अमरीकी वाणिज्य विभाग ने आइकैन को लिखा कि वो पोर्नोग्राफ़िक वेबसाइटों के लिए विशेष .xxx डोमेन की अपनी योजना पर पुनर्विचार करे. वाणिज्य विभाग ने रूढ़ीवादी ईसाई गुटों की शिकायत पर यह पहल की थी. और ये किसे नहीं पता कि बुश प्रशासन और रूढ़ीवादी ईसाई गुटों के बीच कितने प्रगाढ़ आत्मीय संबंध हैं. तो आकाओं के आँखें तरेरते ही आइकैन ने अपनी .xxx योजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया, भले ही उसका दावा है कि पहले से ही इस योजना से किनारा किए जाने पर विचार चल रहा था.
निश्चय ही .xxx डोमेन नेम विवाद ने आइकैन पर अमरीकी प्रभुत्व का विरोध करने वालों को एक ठोस आधार दे दिया. इनका कहना है कि अगले साल जब आइकैन अपने 'लाइसेंस' की अवधि समाप्त होने के बाद अमरीकी सरकार के साथ भावी तौर-तरीकों पर बातचीत शुरू करेगा तो बुश प्रशासन अपनी मर्ज़ी घुसेड़ने का कोई भी मौक़ा शायद ही छोड़ेगा.
दूसरी ओर अमरीका सरकार का दावा है कि वो आइकैन के कामकाज़ को प्रभावित करने की कोशिश नहीं करती. आइकैन का भी यही कहना है. न्यू साइंटिस्ट के 12 नवंबर 2005 अंक में एक विशेष लेख में आइकैन के प्रमुख पॉल ट्वोमी कहते हैं, "आइकैन सहयोग और भागीदारी के मौजूदा इंटरनेट मॉडल पर काम करता है. यह ग्लोबल इंटरनेट समुदाय के सभी सदस्यों को इसके विकास में और ज़्यादा भागीदारी करने के लिए प्रोत्साहित करता है. यह व्यवस्था बहुत अच्छे तरीके से काम कर रही है. लेकिन ये मल्टी-स्टेकहोल्डर तरीका कई सरकारों के लिए अब भी अजूबा है. कम से कम इन सरकारों के कूटनीतिक प्रतिनिधियों के बारे में तो ऐसा कहा ही जा सकता है. वो इसे समझने में नाकाम रहे हैं इसका उदाहरण उनके इस बात की रट लगाने से ज़ाहिर हो जाता है कि 'आइकैन को इंटरनेट चलाने देना नहीं चाहिए.' जबकि आइकैन ऐसा कोई काम कर ही नहीं रहा है. न ही आइकैन अमरीकी हितों का प्रतिनिधित्व करता है, जैसाकि आरोप लगाया जाता रहा है."
ट्वोमी आगे लिखते हैं, "आइकैन का अमरीकी वाणिज्य विभाग के साथ क़रार है जो कि इसके काम का ऑडिट करता है. लेकिन वाणिज्य विभाग ने कभी आइकैन के कामकाज़ में दखल देने की कोशिश नहीं की है."
अब ये सवाल उठता है कि जब आइकैन इंटरनेट नहीं चला रहा तो कर क्या रहा है? जवाब इसके प्रमुख पॉल ट्वोमी इन शब्दों में देते हैं- "यदि इंटरनेट की कल्पना एक डाक व्यवस्था के रूप में करें तो आइकैन समुदाय यह सुनिश्चित करता है कि लिफ़ाफ़े पर लिखे पते काम करें. यह इस बात में दखल नहीं देता कि लिफ़ाफ़े में है क्या, या फिर लिफ़ाफ़ा किसे सौंपा जाए या फ़िर चिट्ठी कौन पढ़े. आइकैन के गंभीर काम का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि यह इस बात को सुनिश्चित करता है कि परस्पर जुड़े क़रीब 250,000 निजी नेटवर्क करोड़ों उपयोगकर्ताओं को एकल इंटरनेट के रूप में दिखें."
ट्वोमी चार बातों पर ज़ोर देते हैं- 1. आइकैन की अगुआई में इंटरनेट व्यवस्था भलीभाँति काम कर रही है, 2. हमें इंटरनेट में स्थायित्व, भरोसे व सुरक्षा पर ध्यान देना चाहिए, 3. इंटरनेट को दिन-प्रतिदिन की राजनीति से दूर रखा जाना चाहिए, 4. सरकारों को इस तथ्य को स्वीकार करना चाहिए कि इंटरनेट से जुड़े तकनीकी सहयोग में इस बात की कोई जगह नहीं है कि विश्वव्यापी वेब पर किस तरह की सामग्री प्रसारित होती है.
ये तो हुआ आइकैन प्रमुख का तर्क, लेकिन सवाल उठता है कि इसके विरोध में खड़ी सरकारों ने आख़िर क्यों मौजूदा व्यवस्था को जारी रहने देने की हामी भरी. दरअसल, इंटरनेट प्रबंधन के मुद्दे पर अमरीका और उसके ख़िलाफ़ खड़े देशों के बीच जिस दस्तावेज़ पर सहमति हुई है उसमें संयुक्त राष्ट्र के तत्वाधान में एक अंतरराष्ट्रीय फ़ोरम के गठन की बात है. ये फ़ोरम इंटरनेट प्रबंधन से जुड़े विषयों पर विचार करेगा. आइकैन की मौजूदा व्यवस्था के विरोधी देश दस्तावेज़ में ऐसे वाक्य डलवाने में क़ामयाब रहे जो कि पहली बार इंटरनेट प्रबंधन में सभी राष्ट्रों की बराबर की भूमिका और ज़िम्मेदारी की बात करता है. इसमें स्थायित्व, सुरक्षा और निरंतरता बनाए रखने में भी सभी राष्ट्रों की समान जवाबदेही की भी बात है.
अंतरराष्ट्रीय समुदाय को भरोसा है कि भले ही अमरीका एक बार फिर इंटरनेट पर अपना परोक्ष नियंत्रण बनाए रखने में सफल रहा हो लेकिन 16 नवंबर 2005 को WSIS के ट्यूनिश सम्मेलन के औपचारिक उदघाटन से कुछ घंटे पूर्व जिस दस्तावेज़ पर सहमति बनी वो आगे चल कर यह सुनिश्चत करेगा कि भविष्य में 'इंटरनेट एड्रेसिंग एंड ट्रैफ़िक डायरेक्शन सिस्टम' के विकास में अमरीका के अलावा अन्य राष्ट्रों को भी शामिल होने का मौक़ा मिल सके.
कई महीनों से इस बात की आशंका जताई जा रही थी कि ट्यूनीशिया में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा आयोजित सूचना समाज विश्व शिखर सम्मेलन(WSIS) में सिर्फ़ एक ही मुद्दा हावी रहेगा कि इंटरनेट को अमरीका की निगरानी में छोड़ दिया जाए या फिर उस पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय की निगरानी रहे. विभिन्न देशों, ख़ास कर चीन और यूरोपीय संघ ने दो साल पहले WSIS के जिनीवा सम्मेलन के बाद से ही इंटरनेट को अमरीका के पहलू से दूर ले जाने के प्रयास शुरू कर दिए थे.
इंटरनेट के विकास में अमरीका की भूमिका से कोई इनकार नहीं करता, लेकिन कई देश ये मानने को तैयार नहीं कि सिर्फ़ इस कारण उस पर परोक्ष ही सही, लेकिन मात्र अमरीका का नियंत्रण हो. दरअसल कैलीफ़ोर्निया स्थित अलाभकारी संगठन इंटरनेट कॉर्पोरेशन फ़ॉर असाइन्ड नेम्स एंड नंबर्स(Icann) यानी आइकैन को इंटरनेट के डोमेन नेम प्रबंधन की ज़िम्मेवारी मिली हुई है. आइकैन के पास अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्यापक नियामक अधिकार होने के कारण इसे किसी न किसी सरकार के प्रति जवाबदेह होना ही था. ऐसे में 1998 में आइकैन के गठन के समय ही अमरीका सरकार ने इसे अमरीकी वाणिज्य विभाग के प्रति जवाबदेह बना दिया.
बात इतने तक ही सीमित रहती तब तो कोई विवाद ही नहीं होता क्योंकि हाल तक आइकैन ख़ुद को अमरीकी सरकार या उसकी नीतियों से दूर रखने में सफल रहा था और इसके के प्रबंधन बोर्ड में चार विदेशी निदेशकों की व्यवस्था से दुनिया आश्वस्त थी. लेकिन आइकैन के अमरीका सरकार के प्रभाव में आ जाने की आशंका ने तब ज़ोर पकड़ी जब अमरीकी वाणिज्य विभाग ने आइकैन को लिखा कि वो पोर्नोग्राफ़िक वेबसाइटों के लिए विशेष .xxx डोमेन की अपनी योजना पर पुनर्विचार करे. वाणिज्य विभाग ने रूढ़ीवादी ईसाई गुटों की शिकायत पर यह पहल की थी. और ये किसे नहीं पता कि बुश प्रशासन और रूढ़ीवादी ईसाई गुटों के बीच कितने प्रगाढ़ आत्मीय संबंध हैं. तो आकाओं के आँखें तरेरते ही आइकैन ने अपनी .xxx योजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया, भले ही उसका दावा है कि पहले से ही इस योजना से किनारा किए जाने पर विचार चल रहा था.
निश्चय ही .xxx डोमेन नेम विवाद ने आइकैन पर अमरीकी प्रभुत्व का विरोध करने वालों को एक ठोस आधार दे दिया. इनका कहना है कि अगले साल जब आइकैन अपने 'लाइसेंस' की अवधि समाप्त होने के बाद अमरीकी सरकार के साथ भावी तौर-तरीकों पर बातचीत शुरू करेगा तो बुश प्रशासन अपनी मर्ज़ी घुसेड़ने का कोई भी मौक़ा शायद ही छोड़ेगा.
दूसरी ओर अमरीका सरकार का दावा है कि वो आइकैन के कामकाज़ को प्रभावित करने की कोशिश नहीं करती. आइकैन का भी यही कहना है. न्यू साइंटिस्ट के 12 नवंबर 2005 अंक में एक विशेष लेख में आइकैन के प्रमुख पॉल ट्वोमी कहते हैं, "आइकैन सहयोग और भागीदारी के मौजूदा इंटरनेट मॉडल पर काम करता है. यह ग्लोबल इंटरनेट समुदाय के सभी सदस्यों को इसके विकास में और ज़्यादा भागीदारी करने के लिए प्रोत्साहित करता है. यह व्यवस्था बहुत अच्छे तरीके से काम कर रही है. लेकिन ये मल्टी-स्टेकहोल्डर तरीका कई सरकारों के लिए अब भी अजूबा है. कम से कम इन सरकारों के कूटनीतिक प्रतिनिधियों के बारे में तो ऐसा कहा ही जा सकता है. वो इसे समझने में नाकाम रहे हैं इसका उदाहरण उनके इस बात की रट लगाने से ज़ाहिर हो जाता है कि 'आइकैन को इंटरनेट चलाने देना नहीं चाहिए.' जबकि आइकैन ऐसा कोई काम कर ही नहीं रहा है. न ही आइकैन अमरीकी हितों का प्रतिनिधित्व करता है, जैसाकि आरोप लगाया जाता रहा है."
ट्वोमी आगे लिखते हैं, "आइकैन का अमरीकी वाणिज्य विभाग के साथ क़रार है जो कि इसके काम का ऑडिट करता है. लेकिन वाणिज्य विभाग ने कभी आइकैन के कामकाज़ में दखल देने की कोशिश नहीं की है."
अब ये सवाल उठता है कि जब आइकैन इंटरनेट नहीं चला रहा तो कर क्या रहा है? जवाब इसके प्रमुख पॉल ट्वोमी इन शब्दों में देते हैं- "यदि इंटरनेट की कल्पना एक डाक व्यवस्था के रूप में करें तो आइकैन समुदाय यह सुनिश्चित करता है कि लिफ़ाफ़े पर लिखे पते काम करें. यह इस बात में दखल नहीं देता कि लिफ़ाफ़े में है क्या, या फिर लिफ़ाफ़ा किसे सौंपा जाए या फ़िर चिट्ठी कौन पढ़े. आइकैन के गंभीर काम का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि यह इस बात को सुनिश्चित करता है कि परस्पर जुड़े क़रीब 250,000 निजी नेटवर्क करोड़ों उपयोगकर्ताओं को एकल इंटरनेट के रूप में दिखें."
ट्वोमी चार बातों पर ज़ोर देते हैं- 1. आइकैन की अगुआई में इंटरनेट व्यवस्था भलीभाँति काम कर रही है, 2. हमें इंटरनेट में स्थायित्व, भरोसे व सुरक्षा पर ध्यान देना चाहिए, 3. इंटरनेट को दिन-प्रतिदिन की राजनीति से दूर रखा जाना चाहिए, 4. सरकारों को इस तथ्य को स्वीकार करना चाहिए कि इंटरनेट से जुड़े तकनीकी सहयोग में इस बात की कोई जगह नहीं है कि विश्वव्यापी वेब पर किस तरह की सामग्री प्रसारित होती है.
ये तो हुआ आइकैन प्रमुख का तर्क, लेकिन सवाल उठता है कि इसके विरोध में खड़ी सरकारों ने आख़िर क्यों मौजूदा व्यवस्था को जारी रहने देने की हामी भरी. दरअसल, इंटरनेट प्रबंधन के मुद्दे पर अमरीका और उसके ख़िलाफ़ खड़े देशों के बीच जिस दस्तावेज़ पर सहमति हुई है उसमें संयुक्त राष्ट्र के तत्वाधान में एक अंतरराष्ट्रीय फ़ोरम के गठन की बात है. ये फ़ोरम इंटरनेट प्रबंधन से जुड़े विषयों पर विचार करेगा. आइकैन की मौजूदा व्यवस्था के विरोधी देश दस्तावेज़ में ऐसे वाक्य डलवाने में क़ामयाब रहे जो कि पहली बार इंटरनेट प्रबंधन में सभी राष्ट्रों की बराबर की भूमिका और ज़िम्मेदारी की बात करता है. इसमें स्थायित्व, सुरक्षा और निरंतरता बनाए रखने में भी सभी राष्ट्रों की समान जवाबदेही की भी बात है.
अंतरराष्ट्रीय समुदाय को भरोसा है कि भले ही अमरीका एक बार फिर इंटरनेट पर अपना परोक्ष नियंत्रण बनाए रखने में सफल रहा हो लेकिन 16 नवंबर 2005 को WSIS के ट्यूनिश सम्मेलन के औपचारिक उदघाटन से कुछ घंटे पूर्व जिस दस्तावेज़ पर सहमति बनी वो आगे चल कर यह सुनिश्चत करेगा कि भविष्य में 'इंटरनेट एड्रेसिंग एंड ट्रैफ़िक डायरेक्शन सिस्टम' के विकास में अमरीका के अलावा अन्य राष्ट्रों को भी शामिल होने का मौक़ा मिल सके.
बुधवार, नवंबर 16, 2005
पॉज़िटिव से निगेटिव बनने का मामला
समझ में नहीं आने वाला यह चित्र किसी समकालीन पेंटर का बनाया मॉडर्न आर्ट हो सकता है. लेकिन नहीं, ये तो हाल के वर्षों में मानव जाति के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन कर उभरे वायरस एचआईवी का चित्रण है. एचआईवी यानि जानलेवा बीमारी एड्स का जनक.
...और ये हैं एंड्रयू स्टिम्पसन. लंदन में रहते हैं. उम्र है 25 साल. जनाब पिछले सप्ताह पश्चिमी समाचार जगत में छाए रहे. इनकी उपलब्धि है बिना किसी इलाज के एचआईवी पॉज़िटिव से एचआईवी निगेटिव बन जाना.
एक अनुमान के अनुसार इस वक़्त दुनिया भर में साढ़े तीन करोड़ से ज़्यादा लोग एचआईवी संक्रमित यानि एचआईवी पॉज़िटिव हैं. और स्टिम्पसन का मामला एकमात्र मामला है जिसमें किसी व्यक्ति ने एचआईवी को हराया हो. जड़ी-बूटियों से एचआईवी का सामना करने की ख़बरे दुनिया भर से आती रहती हैं, लेकिन उनका कोई रिकॉर्ड नहीं होता जिससे पता चले कि दावे में कितना दम है. दूसरी ओर स्टिम्पसन का मामला लंदन के एक अस्पताल में होने के कारण पूरे रिकॉर्ड के साथ उपलब्ध है.
एंड्रयू स्टिम्पसन अगस्त 2002 का वो दिन कभी नहीं भूलते जब लंदन के एक अस्पताल ने उन्हें एचआईवी-ग्रसित होने की ख़बर दी. लेकिन डॉक्टरों ने स्टिम्पसन के शरीर पर एचआईवी के किसी नकारात्मक असर को नहीं पाया तो साल भर बाद अक्टूबर 2003 में उनकी फिर से जाँच की गई. और इसमें स्टिम्पसन को एचआईवी निगेटिव पाया गया, मतलब ख़तरनाक वायरस उनके शरीर से ग़ायब हो चुका थे.
स्टिम्पसन ने एचआईवी पॉज़िटिव ठहराने वाले अस्पताल पर मुआवज़े का दावा ठोक दिया. अपने पॉज़िटिव से निगेटिव तक के सफ़र पर सवाल उठाते हुए उन्होंने आशंका जताई कि शायद अस्पताल ने ग़लत रिपोर्ट देते हुए उन्हें एचआईवी ग्रसित क़रार दिया होगा. लेकिन अस्पताल विक्टोरिया क्लिनिक फ़ॉर सेक्सुअल हेल्थ ने उनके दावे को ठुकराते हुए अपने टेस्ट को हर तरह से सही बताया.
ख़ैर, इसी क़ानूनी खेल के कारण ये मामला मीडिया की पकड़ में आया वरना ऐसे मामलों में रोगी को शत-प्रतिशत गोपनीयता की गारंटी होती है. और अब जब मामला दुनिया के सामने है, एचआईवी-एड्स पीड़ितों के लिए काम करने वाले संगठन और ख़ुद ब्रितानी सरकार भी चाहती है कि स्टिम्पसन अपने ऊपर अध्ययन किए जाने की अनुमित दें ताकि इस बात का खुलासा हो सके कि आख़िर कैसे उनके शरीर ने एचआईवी को निकाल बाहर किया. डॉक्टरों का कहना है कि वायरस एचआईवी की चाल-ढाल और उससे लड़ने की मानव शरीर की प्रक्रिया को अब भी पूरी तरह नहीं समझा जा सका है, ऐसे में स्टिम्पसन का शरीर संभव है कोई नई और क्रांतिकारी जानकारी दे दे.
लेकिन स्टिम्पसन भाई साहब अड़ गए हैं कि नहीं, अब कोई टेस्ट नहीं. उनका कहना है कि वो पहले ही पॉज़िटिव-निगेटिव के खेल में अपना चैन गँवा चुके हैं. स्टिम्पसन का दावा है कि उन्होंने भोजन में पौष्टिक आहार की मात्रा बढ़ाने और कुछ अतिरिक्त विटामिन लेने के अलावा इलाज के नाम पर कुछ नहीं किया है. मतलब उन्होंने एचआईवी रोगियों को दी जाने वाली कोई एंटीरेट्रोवाइरल दवाई नहीं ली.
कई मेडिकल जर्नल में स्टिम्पसन के मामले को संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है, जैसा कि ख़ुद स्टिम्पसन भी देखते हैं. इन संदेहियों को लगता है चूक उन्हें पॉज़िटिव ठहराने वाले अस्पताल से हुई होगी. लेकिन अस्पताल है कि सारे टेस्ट को सौ फ़ीसदी सही ठहरा रहा है. क्या पता, लाखों पाउंड का मुआवज़ा चुकाने के डर से अस्पताल ऐसा कर रहा हो.
विशेषज्ञों के अनुसार जाँच में गड़बड़ी आमतौर पर होती नहीं है. हालाँकि एचआईवी की पड़ताल का मूल सिद्धांत ही थोड़ा अटपटा होता है. किसी व्यक्ति को उसके शरीर में एचआईवी से लड़ने वाले तत्वों या एंटीबॉडी की उपस्थिति के आधार एचआईवी पॉज़िटिव बताया जाता है. मतलब ख़ून के नमूने में एचआईवी को नहीं, बल्कि उससे लड़ने वाली ख़ास एंटीबॉडी को ढूंढा जाता है. वो ख़ास एंटीबॉडी उपस्थित है तो व्यक्ति एचआईवी ग्रसित हुआ, नहीं है तो टेस्ट निगेटिव माना जाएगा.
क्या पता स्टिम्पसन के शरीर में वो विशेष एंटीबॉडी किसी अन्य कारण से हो, या क्या पता कि अस्पताल में उनके ख़ून के नमूने की फेरबदल हो गई हो. क्या पता?
...और ये हैं एंड्रयू स्टिम्पसन. लंदन में रहते हैं. उम्र है 25 साल. जनाब पिछले सप्ताह पश्चिमी समाचार जगत में छाए रहे. इनकी उपलब्धि है बिना किसी इलाज के एचआईवी पॉज़िटिव से एचआईवी निगेटिव बन जाना.
एक अनुमान के अनुसार इस वक़्त दुनिया भर में साढ़े तीन करोड़ से ज़्यादा लोग एचआईवी संक्रमित यानि एचआईवी पॉज़िटिव हैं. और स्टिम्पसन का मामला एकमात्र मामला है जिसमें किसी व्यक्ति ने एचआईवी को हराया हो. जड़ी-बूटियों से एचआईवी का सामना करने की ख़बरे दुनिया भर से आती रहती हैं, लेकिन उनका कोई रिकॉर्ड नहीं होता जिससे पता चले कि दावे में कितना दम है. दूसरी ओर स्टिम्पसन का मामला लंदन के एक अस्पताल में होने के कारण पूरे रिकॉर्ड के साथ उपलब्ध है.
एंड्रयू स्टिम्पसन अगस्त 2002 का वो दिन कभी नहीं भूलते जब लंदन के एक अस्पताल ने उन्हें एचआईवी-ग्रसित होने की ख़बर दी. लेकिन डॉक्टरों ने स्टिम्पसन के शरीर पर एचआईवी के किसी नकारात्मक असर को नहीं पाया तो साल भर बाद अक्टूबर 2003 में उनकी फिर से जाँच की गई. और इसमें स्टिम्पसन को एचआईवी निगेटिव पाया गया, मतलब ख़तरनाक वायरस उनके शरीर से ग़ायब हो चुका थे.
स्टिम्पसन ने एचआईवी पॉज़िटिव ठहराने वाले अस्पताल पर मुआवज़े का दावा ठोक दिया. अपने पॉज़िटिव से निगेटिव तक के सफ़र पर सवाल उठाते हुए उन्होंने आशंका जताई कि शायद अस्पताल ने ग़लत रिपोर्ट देते हुए उन्हें एचआईवी ग्रसित क़रार दिया होगा. लेकिन अस्पताल विक्टोरिया क्लिनिक फ़ॉर सेक्सुअल हेल्थ ने उनके दावे को ठुकराते हुए अपने टेस्ट को हर तरह से सही बताया.
ख़ैर, इसी क़ानूनी खेल के कारण ये मामला मीडिया की पकड़ में आया वरना ऐसे मामलों में रोगी को शत-प्रतिशत गोपनीयता की गारंटी होती है. और अब जब मामला दुनिया के सामने है, एचआईवी-एड्स पीड़ितों के लिए काम करने वाले संगठन और ख़ुद ब्रितानी सरकार भी चाहती है कि स्टिम्पसन अपने ऊपर अध्ययन किए जाने की अनुमित दें ताकि इस बात का खुलासा हो सके कि आख़िर कैसे उनके शरीर ने एचआईवी को निकाल बाहर किया. डॉक्टरों का कहना है कि वायरस एचआईवी की चाल-ढाल और उससे लड़ने की मानव शरीर की प्रक्रिया को अब भी पूरी तरह नहीं समझा जा सका है, ऐसे में स्टिम्पसन का शरीर संभव है कोई नई और क्रांतिकारी जानकारी दे दे.
लेकिन स्टिम्पसन भाई साहब अड़ गए हैं कि नहीं, अब कोई टेस्ट नहीं. उनका कहना है कि वो पहले ही पॉज़िटिव-निगेटिव के खेल में अपना चैन गँवा चुके हैं. स्टिम्पसन का दावा है कि उन्होंने भोजन में पौष्टिक आहार की मात्रा बढ़ाने और कुछ अतिरिक्त विटामिन लेने के अलावा इलाज के नाम पर कुछ नहीं किया है. मतलब उन्होंने एचआईवी रोगियों को दी जाने वाली कोई एंटीरेट्रोवाइरल दवाई नहीं ली.
कई मेडिकल जर्नल में स्टिम्पसन के मामले को संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है, जैसा कि ख़ुद स्टिम्पसन भी देखते हैं. इन संदेहियों को लगता है चूक उन्हें पॉज़िटिव ठहराने वाले अस्पताल से हुई होगी. लेकिन अस्पताल है कि सारे टेस्ट को सौ फ़ीसदी सही ठहरा रहा है. क्या पता, लाखों पाउंड का मुआवज़ा चुकाने के डर से अस्पताल ऐसा कर रहा हो.
विशेषज्ञों के अनुसार जाँच में गड़बड़ी आमतौर पर होती नहीं है. हालाँकि एचआईवी की पड़ताल का मूल सिद्धांत ही थोड़ा अटपटा होता है. किसी व्यक्ति को उसके शरीर में एचआईवी से लड़ने वाले तत्वों या एंटीबॉडी की उपस्थिति के आधार एचआईवी पॉज़िटिव बताया जाता है. मतलब ख़ून के नमूने में एचआईवी को नहीं, बल्कि उससे लड़ने वाली ख़ास एंटीबॉडी को ढूंढा जाता है. वो ख़ास एंटीबॉडी उपस्थित है तो व्यक्ति एचआईवी ग्रसित हुआ, नहीं है तो टेस्ट निगेटिव माना जाएगा.
क्या पता स्टिम्पसन के शरीर में वो विशेष एंटीबॉडी किसी अन्य कारण से हो, या क्या पता कि अस्पताल में उनके ख़ून के नमूने की फेरबदल हो गई हो. क्या पता?
शनिवार, नवंबर 12, 2005
साढ़े-सात-सितारा होटल
बात जब आलीशान होटलों की आती है तो सबसे पहले दिमाग़ में कौंधते हैं फ़ाइव-स्टार या पाँच-सितारा होटल. हालाँकि पिछले कुछ वर्षों में कई होटल छह-सितारा होने के दावे के साथ सामने आए हैं. इतना ही नहीं, दो होटलों की दावेदारी सात-सितारा होने की है.
चित्र: बुर्ज अल अरब होटल
लेकिन चर्चा एक ऐसे होटल की हो रही है जिसकी अभी योजना भर ही बनी है, लेकिन अभी से उसके साढ़े-सात-सितारा होने के दावे किए जा रहे हैं.
यहाँ इस बात का ज़िक्र करना उचित होगा कि होटलों की स्टार रेटिंग कोई सर्वमान्य व्यवस्था नहीं है, क्योंकि इसके लिए कोई अंतरराष्ट्रीय संस्था नहीं है. दरअसल विभिन्न देशों में वहाँ की सरकार या फिर किसी एक संगठन की यह ज़िम्मेवारी होती है कि वो सुविधाओं, सेवाओं और रेट के हिसाब से किसी होटल को स्टार या सितारा आवंटित करे. मतलब किसी एक शहर में एक तीन-सितारा और एक चार-सितारा होटल की तुलना की जाए तो आमतौर पर चार-सितारा होटल हर तरह से बेहतर होगा.(हालाँकि लोकेशन या आसपास के माहौल के हिसाब से कई बार एक तीन-सितारा होटल भी किसी पाँच-सितारा होटल से बेहतर स्थिति में मिल सकता है.)
सामान्य तौर पर वन-स्टार होटल में आप साफ़-सुथरे कमरे की अपेक्षा कर सकते हैं. टू-स्टार में कुछ कमरे अटैच्ड बाथ के साथ हो सकते हैं, संभव है होटल परिसर में नाश्ते की भी व्यवस्था हो. थ्री-स्टार में सारे कमरे अटैच्ड बाथ के साथ मिलेंगे, होटल की अपनी रसोई होगी और इस कारण लंच-डिनर की व्यवस्था, साथ ही चौबीसों घंटे कार्यरत रिसेप्शन भी होगा ताकि देर-सबेर लौटने में आपको कोई असुविधा नहीं हो. फ़ोर-स्टार होटल में इन सुविधाओं के अलावा चौबीसों घंटे रूम-सर्विस की भी गारंटी पा सकते हैं, कमरे में मिनी-बार भी होगा, और होटल की लॉबी का आकार अपेक्षाकृत बड़ा होगा. और आगे चलें तो फ़ाइव-स्टार होटल में आपको ज़्यादा बड़े और सजे-सँवरे कमरे मिलेंगे, आधुनिक संचार सुविधाएँ होंगी, कांफ़्रेंस रूम होंगे, स्विमिंग पूल होगा और एक से ज़्यादा रेस्तराँ भी मिल सकते हैं.
फ़ाइव-स्टार से ऊँचे दर्ज़े के होटलों का चलन हाल के वर्षों में ही शुरू हुआ है और आमतौर पर नामी होटल कंपनियाँ ख़ुद से अपने किसी होटल को बढ़ी सुविधाओं के आधार पर सिक्स-स्टार बताया करती हैं. आपको आश्चर्य नहीं होना चाहिए जब किसी ट्रैवल गाइड में आप किसी कथित सिक्स-स्टार होटल को फ़ाइव-स्टार के रूप में अंकित पाएँ. माना जाता है कि स्वघोषित सिक्स-स्टार होटलों में आपका अपना यानि पर्सनल बटलर होगा, पर्सनल पूल होगा और संभव है आपका अपना छोटा-सा जिम भी हो.
चित्र: एमीरैट्स पैलेस होटल
जहाँ एक ओर ट्रैवल इंडस्ट्री कुछ होटलों के सिक्स-स्टार स्टेटस को ही पचा नहीं पा रही हैं, वहीं दो होटलों ने ख़ुद को सेवन-स्टार बता रखा है. दोनों खाड़ी के देशों में हैं. पहला है दुबई स्थित नाव के पाल के आकार का बुर्ज अल अरब होटल, जबकि दूसरा है इसी साल अबू धाबी में खुला महलनुमा एमीरैट्स पैलेस होटल. एक कृत्रिम टापू पर बने बुर्ज अल अरब होटल की बनावट और तड़क-भड़क ऐसी है कि रहना तो दूर मात्र टूर करने के लिए 55 डॉलर वसूले जाते हैं. दूसरी ओर एमीरैट्स पैलेस की चकाचौंध की बात करें तो यहाँ हर गेस्ट को चार-चार पर्सनल स्टॉफ़ दिए जाते हैं और इसके बीस अलग-अलग रेस्तराँ तक आने-जाने के लिए बस सेवा चलाई जाती है. इन दोनों होटलों के किसी कमरे में एक रात बिताने के लिए कम से कम 1,000 डॉलर तो ज़रूर ही ख़र्च करने पड़ेंगे.
लेकिन बात तो शुरू हुई थी साढ़े-सात-सितारा होटल की. तो जनाब, ये होटल बनेगा दुनिया के सबसे ख़तरनाक शहर में. जी, सही सोचा आपने- इराक़ की राजधानी बग़दाद में बनेगा ये होटल. पता नहीं क्या नाम दिया जाएगा इसे. बग़दाद के क़िलेबंद इलाक़े ग्रीन ज़ोन में बनेगा कथित साढ़े-सात-सितारा होटल. सुरक्षा कारणों से अमरीकी सेना कुछ प्राइवेट निवेशकों की इस साढ़े-सात-सितारा होटल की योजना के बारे में संपूर्ण जानकारी बाहर आने नहीं दे रही. हालाँकि इराक़ी निवेश आयोग ने इतना ज़रूर बताया है कि ग्रीन ज़ोन में 23 मंज़िला होटल के निर्माण पर 80 करोड़ डॉलर का ख़र्च आएगा. पता नहीं इसमें क्या-क्या सुविधाएँ होंगी.(कहीं सात से आधा सितारा ज़्यादा करने के चक्कर में हर मंज़िल पर स्विमिंग पूल न बना दें भाई लोग!...और बग़दाद एयरपोर्ट से ग्रीन ज़ोन का रास्ता दुनिया की सबसे ख़तरनाक राह के रूप में बदनाम है तो शायद अमरीका और अन्य पश्चिमी देशों के ठेकेदारों को होटल तक पहुँचाने के लिए कोई हेलीकॉप्टर सेवा भी चलाई जाए!!)
चित्र: नक्शे पर ग्रीन ज़ोन
बात ग्रीन ज़ोन की करें तो, इसे 'बग़दाद में अमरीका' के रूप में जाना जाता है. इसे इंटरनेशनल ज़ोन के नाम से भी प्रचारित करने की नाकाम कोशिशें की जा चुकी हैं. इसी गोपनीय और किलेबंद इलाक़े के भीतर इराक़ को चला रही अमरीकी सेना की कमान और इराक़ की अंतरिम सरकार काम करती है. अंतरराष्ट्रीय मीडिया के लोग भी सद्दाम हुसैन के शासन की हृदयस्थली रहे इस इलाक़े में रह कर ही काम करते हैं. हालाँकि इतना महत्वपूर्ण होने के बावजूद यह पूरी तरह सुरक्षित जगह हो ऐसा भी नहीं कहा जा सकता. ग्रीन ज़ोन में भी आत्मघाती हमले हुए हैं और जब भी मौक़ा मिलता है इराक़ी विद्रोही ग्रीन ज़ोन की ओर रॉकेट भी दागते हैं.
चित्र: बुर्ज अल अरब होटल
लेकिन चर्चा एक ऐसे होटल की हो रही है जिसकी अभी योजना भर ही बनी है, लेकिन अभी से उसके साढ़े-सात-सितारा होने के दावे किए जा रहे हैं.
यहाँ इस बात का ज़िक्र करना उचित होगा कि होटलों की स्टार रेटिंग कोई सर्वमान्य व्यवस्था नहीं है, क्योंकि इसके लिए कोई अंतरराष्ट्रीय संस्था नहीं है. दरअसल विभिन्न देशों में वहाँ की सरकार या फिर किसी एक संगठन की यह ज़िम्मेवारी होती है कि वो सुविधाओं, सेवाओं और रेट के हिसाब से किसी होटल को स्टार या सितारा आवंटित करे. मतलब किसी एक शहर में एक तीन-सितारा और एक चार-सितारा होटल की तुलना की जाए तो आमतौर पर चार-सितारा होटल हर तरह से बेहतर होगा.(हालाँकि लोकेशन या आसपास के माहौल के हिसाब से कई बार एक तीन-सितारा होटल भी किसी पाँच-सितारा होटल से बेहतर स्थिति में मिल सकता है.)
सामान्य तौर पर वन-स्टार होटल में आप साफ़-सुथरे कमरे की अपेक्षा कर सकते हैं. टू-स्टार में कुछ कमरे अटैच्ड बाथ के साथ हो सकते हैं, संभव है होटल परिसर में नाश्ते की भी व्यवस्था हो. थ्री-स्टार में सारे कमरे अटैच्ड बाथ के साथ मिलेंगे, होटल की अपनी रसोई होगी और इस कारण लंच-डिनर की व्यवस्था, साथ ही चौबीसों घंटे कार्यरत रिसेप्शन भी होगा ताकि देर-सबेर लौटने में आपको कोई असुविधा नहीं हो. फ़ोर-स्टार होटल में इन सुविधाओं के अलावा चौबीसों घंटे रूम-सर्विस की भी गारंटी पा सकते हैं, कमरे में मिनी-बार भी होगा, और होटल की लॉबी का आकार अपेक्षाकृत बड़ा होगा. और आगे चलें तो फ़ाइव-स्टार होटल में आपको ज़्यादा बड़े और सजे-सँवरे कमरे मिलेंगे, आधुनिक संचार सुविधाएँ होंगी, कांफ़्रेंस रूम होंगे, स्विमिंग पूल होगा और एक से ज़्यादा रेस्तराँ भी मिल सकते हैं.
फ़ाइव-स्टार से ऊँचे दर्ज़े के होटलों का चलन हाल के वर्षों में ही शुरू हुआ है और आमतौर पर नामी होटल कंपनियाँ ख़ुद से अपने किसी होटल को बढ़ी सुविधाओं के आधार पर सिक्स-स्टार बताया करती हैं. आपको आश्चर्य नहीं होना चाहिए जब किसी ट्रैवल गाइड में आप किसी कथित सिक्स-स्टार होटल को फ़ाइव-स्टार के रूप में अंकित पाएँ. माना जाता है कि स्वघोषित सिक्स-स्टार होटलों में आपका अपना यानि पर्सनल बटलर होगा, पर्सनल पूल होगा और संभव है आपका अपना छोटा-सा जिम भी हो.
चित्र: एमीरैट्स पैलेस होटल
जहाँ एक ओर ट्रैवल इंडस्ट्री कुछ होटलों के सिक्स-स्टार स्टेटस को ही पचा नहीं पा रही हैं, वहीं दो होटलों ने ख़ुद को सेवन-स्टार बता रखा है. दोनों खाड़ी के देशों में हैं. पहला है दुबई स्थित नाव के पाल के आकार का बुर्ज अल अरब होटल, जबकि दूसरा है इसी साल अबू धाबी में खुला महलनुमा एमीरैट्स पैलेस होटल. एक कृत्रिम टापू पर बने बुर्ज अल अरब होटल की बनावट और तड़क-भड़क ऐसी है कि रहना तो दूर मात्र टूर करने के लिए 55 डॉलर वसूले जाते हैं. दूसरी ओर एमीरैट्स पैलेस की चकाचौंध की बात करें तो यहाँ हर गेस्ट को चार-चार पर्सनल स्टॉफ़ दिए जाते हैं और इसके बीस अलग-अलग रेस्तराँ तक आने-जाने के लिए बस सेवा चलाई जाती है. इन दोनों होटलों के किसी कमरे में एक रात बिताने के लिए कम से कम 1,000 डॉलर तो ज़रूर ही ख़र्च करने पड़ेंगे.
लेकिन बात तो शुरू हुई थी साढ़े-सात-सितारा होटल की. तो जनाब, ये होटल बनेगा दुनिया के सबसे ख़तरनाक शहर में. जी, सही सोचा आपने- इराक़ की राजधानी बग़दाद में बनेगा ये होटल. पता नहीं क्या नाम दिया जाएगा इसे. बग़दाद के क़िलेबंद इलाक़े ग्रीन ज़ोन में बनेगा कथित साढ़े-सात-सितारा होटल. सुरक्षा कारणों से अमरीकी सेना कुछ प्राइवेट निवेशकों की इस साढ़े-सात-सितारा होटल की योजना के बारे में संपूर्ण जानकारी बाहर आने नहीं दे रही. हालाँकि इराक़ी निवेश आयोग ने इतना ज़रूर बताया है कि ग्रीन ज़ोन में 23 मंज़िला होटल के निर्माण पर 80 करोड़ डॉलर का ख़र्च आएगा. पता नहीं इसमें क्या-क्या सुविधाएँ होंगी.(कहीं सात से आधा सितारा ज़्यादा करने के चक्कर में हर मंज़िल पर स्विमिंग पूल न बना दें भाई लोग!...और बग़दाद एयरपोर्ट से ग्रीन ज़ोन का रास्ता दुनिया की सबसे ख़तरनाक राह के रूप में बदनाम है तो शायद अमरीका और अन्य पश्चिमी देशों के ठेकेदारों को होटल तक पहुँचाने के लिए कोई हेलीकॉप्टर सेवा भी चलाई जाए!!)
चित्र: नक्शे पर ग्रीन ज़ोन
बात ग्रीन ज़ोन की करें तो, इसे 'बग़दाद में अमरीका' के रूप में जाना जाता है. इसे इंटरनेशनल ज़ोन के नाम से भी प्रचारित करने की नाकाम कोशिशें की जा चुकी हैं. इसी गोपनीय और किलेबंद इलाक़े के भीतर इराक़ को चला रही अमरीकी सेना की कमान और इराक़ की अंतरिम सरकार काम करती है. अंतरराष्ट्रीय मीडिया के लोग भी सद्दाम हुसैन के शासन की हृदयस्थली रहे इस इलाक़े में रह कर ही काम करते हैं. हालाँकि इतना महत्वपूर्ण होने के बावजूद यह पूरी तरह सुरक्षित जगह हो ऐसा भी नहीं कहा जा सकता. ग्रीन ज़ोन में भी आत्मघाती हमले हुए हैं और जब भी मौक़ा मिलता है इराक़ी विद्रोही ग्रीन ज़ोन की ओर रॉकेट भी दागते हैं.
गुरुवार, नवंबर 10, 2005
पड़ोसी देश की नई राजधानी
संभव है बहुत से लोग अब भी पीनमना का नाम पहली बार सुन रहे हों, लेकिन इस बात की पूरी संभावना है कि कुछ महीनों के भीतर यह बच्चे-बच्चे की ज़ुबान पर हो. बात यह है कि भारत के पड़ोसी देश बर्मा की सैनिक सरकार ने अचानक रंगून से अपना डेरा-डंडा उठाना शुरू कर दिया है. सरकारी मशीनरी रंगून से 400 किलोमीटर उत्तर पीनमना को अपना नया ठिकाना बना रही है.
आपको तो पता ही है कि सामान्य ज्ञान के नाम पर भारत के स्कूलों में बच्चों को जो बातें सिखाई जाती है, उनमें से एक है दुनिया के प्रमुख देशों और उनकी राजधानियों के नाम. जहाँ तक मेरी बात है मैं अभी तक इस बात को आत्मसात नहीं कर पाया हूँ कि हमारे पड़ोसी बर्मा का आधिकारिक नाम म्यांमार और उसकी राजधानी रंगून का आधिकारिक नाम यांगून है. भारत में तो म्यांमार-यांगून काफ़ी हद तक प्रचलित भी है, लेकिन पश्चिमी मीडिया में अब भी बर्मा-रंगून का ही प्रयोग होता है.
बर्मा की सैनिक सरकार ने क्यों रंगून छोड़ने का फ़ैसला किया ये बात किसी को समझ नहीं आ रही है. पहले से न तो इस बात के स्पष्ट संकेत दिए गए, न ही पड़ोसी देशों को ख़बर दी गई और न ही अंतरराष्ट्रीय संगठनों को बताया गया. कई मंत्रालयों के कारिंदे फ़ाइलों के साथ जब पीनमना पहुँच गए और बात धीरे-धीरे मीडिया तक पहुँच गई, तब इस सप्ताह एक सैनिक अधिकारी ने स्वीकार किया कि बर्मा की सरकार रंगून छोड़ कर पीनमना को अपना नया ठिकाना बना रही है. अधिकारी ने यह भी कहा कि पीनमना के देश के बीच में होने के कारण शासन की सुविधा के लिए ऐसा किया जा रहा है.
लेकिन बात इतनी सरल लगती नहीं है. सरकार के स्पष्ट कारण नहीं देने के कारण तरह-तरह की चर्चाएँ चल रही हैं. उनमें से एक यह भी है कि हो सकता है कि बर्मा में सत्तारूढ़ सैनिक जुंटा के वरिष्ठ जनरल थान श्वे ने किसी ज्योतिषीय सलाह के अनुरूप यह फ़ैसला किया हो. एक धारणा यह भी है कि जब से अमरीकी विदेश मंत्री कोंडोलीज़ा राइस ने बर्मा को उत्तर कोरिया, क्यूबा, ईरान, ज़िम्बाब्वे और बेलारूस के साथ रखते हुए दुनिया की बचीखुची तानाशाही सरकारों में से एक बताया है, सैनिक सरकार को अमरीकी हमले का डर सता रहा है. और चूँकि बर्मा की नौसेना उसकी थल सेना से कहीं कमज़ोर है, इसलिए समुद्र के पास राजधानी रखना कोई बुद्धिमानी नहीं होगी.
चित्र- जनरल थान श्वे
पीनमना चूँकि जंगलों के बीच है सो किसी भी बाह्य हमले की स्थिति में गुरिल्ला लड़ाई छेड़कर दुश्मनों से लोहा लेना ज़्यादा आसान होगा. वैसे विश्लेषकों को ये नहीं लगता कि अमरीका को बर्मा पर हमला करने में कोई रूचि है. और यदि अचानक बदले सामरिक समीकरणों के कारण कभी अमरीका हमले की सोचता भी है तो ज़ाहिर है अपनी बेजोड़ एयर पॉवर के दम पर वह किसी भी शहर को मरघट में बदल सकता है, अब चाहे वो समुद्र के किनारे का शहर हो, पहाड़ों के बीच बसा शहर हो या फिर जंगलों में बसा कोई सैनिक मुख्यालय.
पीनमना में 10 वर्गकिलोमीटर के एक इलाक़े में पिछले कुछ महीनों से सैनिक सरकार के मुख्यालय के लिए ताबड़तोड़ निर्माण कार्य चल रहा था. देश से बाहर रह कर प्रचार अभियान चलाने वाले बर्मी असंतुष्टों की मानें तो वहाँ सुरंगों और बंकरों का जाल बिछाया गया है. ये बात तो तय है कि पीनमना को चुनने के पीछे इस शहर के ऐतिहासिक महत्व को भी ध्यान में रखा गया होगा क्योंकि इसी स्थान से जनरल आंग सान(पिछले एक दशक से नज़रबंद रखी गईं लोकतंत्रवादी बर्मी नेता आंग सान सू ची के पिता) ने आज़ादी की लड़ाई का बिगुल फूंका था.
पीनमना की मौजूदा स्थिति के बारे में सारी जानकारी शायद तभी मिलेगी जब विदेशी दूतावासों को वहाँ अपने केंद्र खोलने की इजाज़त दी जाएगी. जो भी हो हमारे स्कूलों के सामान्य ज्ञान के पाठ में दो शब्द और जुड़ जाना तय है. पहला शब्द है बर्मा की नई राजधानी पीनमना, और दूसरा शब्द है यांलोन जो कि पीनमना का आधिकारिक नाम होगा. बर्मी भाषा में यांलोन का मतलब होता है संघर्ष से सुरक्षित. (मौजूदा राजधानी के लिए प्रयुक्त नाम यांगून का मतलब है संघर्ष की समाप्ति.)
आपको तो पता ही है कि सामान्य ज्ञान के नाम पर भारत के स्कूलों में बच्चों को जो बातें सिखाई जाती है, उनमें से एक है दुनिया के प्रमुख देशों और उनकी राजधानियों के नाम. जहाँ तक मेरी बात है मैं अभी तक इस बात को आत्मसात नहीं कर पाया हूँ कि हमारे पड़ोसी बर्मा का आधिकारिक नाम म्यांमार और उसकी राजधानी रंगून का आधिकारिक नाम यांगून है. भारत में तो म्यांमार-यांगून काफ़ी हद तक प्रचलित भी है, लेकिन पश्चिमी मीडिया में अब भी बर्मा-रंगून का ही प्रयोग होता है.
बर्मा की सैनिक सरकार ने क्यों रंगून छोड़ने का फ़ैसला किया ये बात किसी को समझ नहीं आ रही है. पहले से न तो इस बात के स्पष्ट संकेत दिए गए, न ही पड़ोसी देशों को ख़बर दी गई और न ही अंतरराष्ट्रीय संगठनों को बताया गया. कई मंत्रालयों के कारिंदे फ़ाइलों के साथ जब पीनमना पहुँच गए और बात धीरे-धीरे मीडिया तक पहुँच गई, तब इस सप्ताह एक सैनिक अधिकारी ने स्वीकार किया कि बर्मा की सरकार रंगून छोड़ कर पीनमना को अपना नया ठिकाना बना रही है. अधिकारी ने यह भी कहा कि पीनमना के देश के बीच में होने के कारण शासन की सुविधा के लिए ऐसा किया जा रहा है.
लेकिन बात इतनी सरल लगती नहीं है. सरकार के स्पष्ट कारण नहीं देने के कारण तरह-तरह की चर्चाएँ चल रही हैं. उनमें से एक यह भी है कि हो सकता है कि बर्मा में सत्तारूढ़ सैनिक जुंटा के वरिष्ठ जनरल थान श्वे ने किसी ज्योतिषीय सलाह के अनुरूप यह फ़ैसला किया हो. एक धारणा यह भी है कि जब से अमरीकी विदेश मंत्री कोंडोलीज़ा राइस ने बर्मा को उत्तर कोरिया, क्यूबा, ईरान, ज़िम्बाब्वे और बेलारूस के साथ रखते हुए दुनिया की बचीखुची तानाशाही सरकारों में से एक बताया है, सैनिक सरकार को अमरीकी हमले का डर सता रहा है. और चूँकि बर्मा की नौसेना उसकी थल सेना से कहीं कमज़ोर है, इसलिए समुद्र के पास राजधानी रखना कोई बुद्धिमानी नहीं होगी.
चित्र- जनरल थान श्वे
पीनमना चूँकि जंगलों के बीच है सो किसी भी बाह्य हमले की स्थिति में गुरिल्ला लड़ाई छेड़कर दुश्मनों से लोहा लेना ज़्यादा आसान होगा. वैसे विश्लेषकों को ये नहीं लगता कि अमरीका को बर्मा पर हमला करने में कोई रूचि है. और यदि अचानक बदले सामरिक समीकरणों के कारण कभी अमरीका हमले की सोचता भी है तो ज़ाहिर है अपनी बेजोड़ एयर पॉवर के दम पर वह किसी भी शहर को मरघट में बदल सकता है, अब चाहे वो समुद्र के किनारे का शहर हो, पहाड़ों के बीच बसा शहर हो या फिर जंगलों में बसा कोई सैनिक मुख्यालय.
पीनमना में 10 वर्गकिलोमीटर के एक इलाक़े में पिछले कुछ महीनों से सैनिक सरकार के मुख्यालय के लिए ताबड़तोड़ निर्माण कार्य चल रहा था. देश से बाहर रह कर प्रचार अभियान चलाने वाले बर्मी असंतुष्टों की मानें तो वहाँ सुरंगों और बंकरों का जाल बिछाया गया है. ये बात तो तय है कि पीनमना को चुनने के पीछे इस शहर के ऐतिहासिक महत्व को भी ध्यान में रखा गया होगा क्योंकि इसी स्थान से जनरल आंग सान(पिछले एक दशक से नज़रबंद रखी गईं लोकतंत्रवादी बर्मी नेता आंग सान सू ची के पिता) ने आज़ादी की लड़ाई का बिगुल फूंका था.
पीनमना की मौजूदा स्थिति के बारे में सारी जानकारी शायद तभी मिलेगी जब विदेशी दूतावासों को वहाँ अपने केंद्र खोलने की इजाज़त दी जाएगी. जो भी हो हमारे स्कूलों के सामान्य ज्ञान के पाठ में दो शब्द और जुड़ जाना तय है. पहला शब्द है बर्मा की नई राजधानी पीनमना, और दूसरा शब्द है यांलोन जो कि पीनमना का आधिकारिक नाम होगा. बर्मी भाषा में यांलोन का मतलब होता है संघर्ष से सुरक्षित. (मौजूदा राजधानी के लिए प्रयुक्त नाम यांगून का मतलब है संघर्ष की समाप्ति.)
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