शुक्रवार, अगस्त 26, 2005

होम्योपैथी...क्या है सच?


इनसे मिलिए- ये हैं जेम्स रैण्डी. अमरीका के हैं. जादूगर हैं. कलाकार हैं. लेकिन इनकी असल ख़्याति होम्योपैथी से जुड़ी हुई है. दरअसल जेम्स रैण्डी ने खुला ऑफ़र दे रखा है कि वैज्ञानिक विधि से यह साबित कर दिखाओ कि होम्योपैथिक उपचार सचमुच में बीमारी दूर करता है, और ले जाओ 10 लाख डॉलर का पुरस्कार.

होम्योपैथिक दवाएँ वास्तव में दवाएँ हैं, या मात्र छलावा?- ये सवाल मेडिकल रिसर्च में लगे लोगों को एक अरसे से बहस में उलझाता रहा है. यह सवाल एक बार फिर नए सिरे से उछला है. उछले भी क्यों नहीं, जब प्रतिष्ठित मेडिकल जर्नल लान्सेट इस पर सवाल उठा रहा हो.

अपने ताज़ा अंक में लान्सेट पत्रिका ने ब्रिटेन और स्विटज़रलैंड के विशेषज्ञों की एक संयुक्त टीम द्वारा किए गए 110 परीक्षणों की रिपोर्ट प्रकाशित की है.

अध्ययन टीम ने ये परीक्षण अस्थमा, एलर्जी और माँसपेशियों से जुड़ी बीमारियों समेत विभिन्न बीमारियों पर किए हैं. छोटे नमूने वाले सामान्य परीक्षणों में तो होम्योपैथिक और सामान्य अंग्रेज़ी दवाओं को ज़्यादा या कम असरदार पाया गया, लेकिन उच्च कोटि के परीक्षण में होम्योपैथिक दवाओं का वही असर देखा गया जो कि अक्रिय नकली गोलियों का था.

अध्ययन से जुड़े बर्न विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर मैथियस एगर के अनुसार कुछ लोगों ने होम्योपैथिक दवाओं के असरदार होने की बात की है वो इलाज़ के पूरे अनुभव के कारण ऐसा कहते होंगे क्योंकि होम्योपैथ डॉक्टर रोगी को पूरा समय देते हैं, उन पर ध्यान देते हैं.

सोसायटी ऑफ़ होम्योपैथ्स ने न सिर्फ़ लान्सेट की रिपोर्ट पर बल्कि अक्रिय नकली गोलियों के मुक़ाबले किसी दवा के असर के परीक्षण की प्रक्रिया पर ही सवाल उठा दिया है.

उल्लेखनीय है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट में होम्योपैथिक दवाओं को गुण-रहित गोलियों से बेहतर माना गया है. लेकिन लान्सेट की मानें तो विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट का आधार पुराने और आसान परीक्षण हैं. मतलब उस पर पूरी तरह यक़ीन नहीं किया जा सकता है.

लेकिन सवाल यह भी है कि लान्सेट की रिपोर्ट को ही हूबहू क्यों स्वीकार किया जाए! यानी सवाल बना ही रहेगा कि होम्योपैथी एक चिकित्सा प्रणाली है या मात्र आस्था का एक रूप?

रविवार, अगस्त 14, 2005

रिलीज़ होते ही 'द राइज़िंग' को पुरस्कार


प्रस्तुत है जर्मन रेडियो को आमिर ख़ान के इंटरव्यू का ऑडियो.

फ़िल्म मंगल पांडे-द राइज़िंग पर दर्शकों की आरंभिक राय से तो यही लगता है कि आमिर ख़ान एक बार फिर आम लोगों की अपेक्षाओं पर खरे उतरे हैं. और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहला पुरस्कार तो रिलीज़ होने के एक दिन बाद ही मिल गया. लोकार्नो में द राइज़िंग को एशियाई फ़िल्म वर्ग में ज्यूरी का विशेष पुरस्कार दिया गया है.

फ़िल्म की जो भी आलोचनाएँ सामने आई हैं वो उसमें ज़बरदस्ती ठूँसे गए मसाले को लेकर ही. मसलन लटके-झटके वाले गाने. हीरा नामक वेश्या का किरदार. सती बनाई जा रही महिला और उसे बचाने वाले अंग्रेज़ अधिकारी के बीच प्रेम-संबंध.

लेकिन यदि फ़िल्म के संदेश की बात करें तो ऊपर उल्लिखित मसाले के बावज़ूद निर्देशक केतन मेहता साफ संदेश देने में सफल रहे हैं. उन्होंने दिखा दिया कि ग्लोबलाइज़ेशन और मुक्त व्यापार व्यवस्था का दुष्परिणाम किस हद तक हो सकता है. उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त जाति-प्रथा जैसी कई कुरीतियों पर भी चोट की है.

इसमें कोई शक नहीं कि फ़िल्म का मुख्य आकर्षण है आमिर ख़ान की सधी हुई अदाकारी. टोबी स्टीवेंस के अभिनय को भी खुल कर सराहना मिली है.

गुरुवार, अगस्त 11, 2005

हॉलीवुड स्तर का भारतीय कलाकार

आमिर ख़ान हिंदी सिनेमा या बॉलीवुड के मौजूदा कलाकारों में से सबसे अलग हैं. उनसे हाल ही में ही मिलने का मौक़ा मिला. बिल्कुल सीधे-सरल और सच्चे व्यक्ति लगे. किसी तरह का बनावटीपन नहीं.

काम के प्रति उनके समर्पण की बात करें तो उसकी मिसाल कम-से-कम भारत में तो नहीं ही है. अब जैसे 12 अगस्त 2005 को रिलीज़ हो रही द राइज़िंग (दो अलग-अलग नामों से प्रदर्शित) को ही लें. मंगल पांडे के किरदार से न्याय करने के लिए उन्होंने न सिर्फ़ डेढ़ साल तक बाल और मूँछ बढ़ाई(पहेली में शाहरूख़ की तरह नकली मूँछ नहीं) बल्कि बदन को डंड-बैठक टाइप(सलमान की तरह दवाई-पोषित माँसपेशियाँ नहीं) बनाने के लिए उन्होंने ख़ूब कसरतें भी कीं(ऊपर की तस्वीर में ख़ुद देखें). ये तो हुई किरदार के शारीरिक रूप की बात. मंगल पांडे के मन में उतरने के लिए उन्होंने दर्जनों किताबें पढ़ीं. (हालाँकि जैसा कि उन्होंने बताया कि मंगल पांडे की ज़िंदगी के बारे ज़्यादा प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है.)

एक बार में एक फ़िल्म में ही काम करने के अपने उसूल पर वह हमेशा ही क़ायम रहे हैं.

रही बात उनके व्यक्तिगत जीवन में पिछले कुछ वर्षों में हुई उथल-पुथल की, तो वो इसे भी ईमानदारी से स्वीकार करते हैं.

ऐसे में द राइज़िंग में टोबी स्टीवेन्स जैसे अंग्रेज़ी के मँजे हुए कलाकार पर भारी साबित हुए हैं तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है. अधिकतर फ़िल्म समीक्षक ही नहीं, आम दर्शक भी मानते हैं कि आमिर ख़ान पहले भारतीय अभिनेता हैं जो हॉलीवुड के बड़े से बड़े पेशेवर कलाकारों को टक्कर देने में सक्षम हैं.

काश हॉलीवुड के किसी निर्माता को आमिर ख़ान की क्षमताओं का अंदाज़ा लग पाए. तब दुनिया सॉफ़्टवेयर और ऑफ़शोरिंग के अलावा अभिनय के क्षेत्र में भी भारतीय प्रतिभा का लोहा मान सकेगी.