बालू से तेल निकालने के मुहावरे को भले ही किसी असंभव काम के संदर्भ में प्रयुक्त किया जाता हो, लेकिन सचमुच में ऐसा होता है और ख़ूब हो रहा है. ख़ास कर कनाडा के अल्बर्टा प्रांत में.
कनाडा के तेल उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा बालू से निकाले गए तेल का है. वहाँ अल्बर्टा प्रांत का एक बड़ा इलाक़ा बिटुमेन या टार मिश्रित बालू से भरा हुआ है, यानि हाइड्रोकार्बन का खुला भंडार. अभी तक बालू से तेल निकालने की ज़्यादा लागत और अपेक्षाकृत घटिया उत्पाद को देखते हुए इस पर ज़्यादा ज़ोर नहीं दिया जा रहा था. लेकिन कच्चे तेल की लगातार बढ़ती क़ीमत ने कनाडा सरकार को अल्बर्टा के तैलीय बालू के दोहन का अच्छा बहाना दे दिया है.
अल्बर्टा की संवेदनशील पारिस्थिकी की चिंता का त्याग करते हुए कनाडा सरकार ने यहाँ दुनिया भर की तमाम बड़ी तेल कंपनियों को लाइसेंस दे दिया है. शेल, शेवरॉन, एक्सन और टोटल जैसी कंपनियाँ 3000 वर्गकिलोमीटर के इस बलुआही इलाक़े में क़रीब 100 अरब डॉलर का निवेश कर चुकी हैं.
अल्बर्टा के बिटुमेन-बेल्ट को 'न्यू कुवैत' कहा जा रहा है. इस समय यहाँ प्रतिदिन 13 लाख बैरल तेल का उत्पादन होता है. तेल उत्पादक कंपनियाँ यहाँ अगले तीन वर्षों में 100 अरब डॉलर और लगाने वाली हैं, ताकि दैनिक उत्पादन 35 लाख बैरल तक पहुँचाया जा सके. पर्यावरण के मामलों में आमतौर पर 'गुड ब्वॉय' माना जाने वाला कनाडा बालू से तेल का उत्पादन बढ़ाते हुए दुनिया के सबसे बड़े तेल निर्यातकों में शामिल होने को कटिबद्ध दिख रहा है. भले ही 'डर्टी ऑयल' के मोह में उसे 'डर्टीमैन ऑफ़ द वेस्ट' की उपाधि क्यों न झेलनी पड़े.
जब बात एक गंदे उत्पाद की हो तो उसमें राक्षसी मशीनों की भूमिका तो निश्चय ही होगी. अल्बर्टा में सतह से कुछ मीटर नीचे से लेकर 100 मीटर नीचे से निकाले गए तैलीय बालू को पास की कम्प्रेसर फ़ैक्ट्री तक ले जाने के लिए कैटरपिलर 797बी नामक मशीनी दैत्य को लगाया गया है, जोकि दुनिया का सबसे बड़ा ट्रक है. एक 797B डंपर दिन भर में 35,000 टन बालू ढोता है. दो-मंज़िली इमारत जितने बड़े इस ट्रक की एक खेप औसत 350 टन की होती है, यानि अमूमन 200 बैरल तेल की गारंटी. आइए कैटरपिलर 797B की प्रमुख विशेषताओं को देखते हैं-
Empty weight: 623,690 kg
Horse Power: 3550
Fuel capacity: 6,814 L
Max Speed: 67 km/h
Height empty: 24ft 11in
Dumping Height: 50ft 2in
Length: 47ft 5in
Body Width: 32ft
Cost: $5 – 6 million
कैटरपिलर 797B ट्रक में 13-फ़ुट ऊँचे कुल छह टायर होते हैं- दो आगे और चार पीछे. ज़ाहिर है कैटरपिलर अपने डंपर 797B को ऑफ़-हाईवे ट्रकों की श्रेणी में रखता है. इसकी डिलिवरी टुकड़ों में होती है, और कार्यस्थल पर जाकर ये दैत्याकार रूप ग्रहण करता है.
गुरुवार, जुलाई 17, 2008
शुक्रवार, जुलाई 11, 2008
स्वास्थ्यवर्द्धक ब्लॉगिंग
अब से सवा तीन साल पहले जब मैंने ख़ुद का एक ब्लॉग बनाया तो उस समय मेरे लिए इस उद्यम के मुख्य उद्देश्य थे- विभिन्न विषयों पर अपनी राय सामने रखना, तथा उपयोगी/रोचक जानकारियों को सरल भाषा में लोगों तक पहुँचाना. ये सपने में भी नहीं सोचा था कि ब्लॉगिंग के मेरे शौक़ का स्वास्थ्य से भी कोई सीधा संबंध है. इसलिए प्रतिष्ठित विज्ञान पत्रिका 'साइंटिफ़िक अमेरिकन' में पिछले दिनों जब पढ़ा कि ब्लॉगिंग स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है, तो सहज विश्वास नहीं हुआ.
पत्रिका के न्यूरोबॉयोलॉजी खंड में The Healthy Type शीर्षक से छपे लेख की पहली ही पंक्ति कहती है- ब्लॉगिंग के चल निकलने का कारण शायद स्वचिकित्सा है. इसके अनुसार वैज्ञानिकों और लेखकों को विचारों-भावों की अभिव्यक्ति के उपचारी प्रभावों की जानकारी तो बहुत पहले से ही रही है, लेकिन अब जाकर पता चला है कि ये प्रक्रिया तनाव तो घटाती ही है, इसके फ़िज़ियॉल्जिकल फ़ायदे भी हैं. अनुसंधानों से पता चला है कि अपनी भावनाओं को ब्लॉगिंग जैसे माध्यम के ज़रिए व्यक्त करने से यादाश्त सुधरती है, नींद बेहतर आती है, प्रतिरक्षण कोशिकाएँ ज़्यादा सक्रिय रहती हैं, एड्स के मरीज़ों में HIV वायरस की मात्रा कम होती है और यहाँ तक कि ऑपरेशन के बाद घाव भरने की प्रक्रिया में भी तेज़ी आती है.
'साइंटिफ़िक अमेरिकन' का लेख मेडिकल जर्नल 'Oncologist' में छपे एक शोध पर आधारित है. ये शोध कैंसर के रोगियों पर किया गया था. इसमें पाया गया कि उपचार से पहले लेखन के ज़रिए ख़ुद को अभिव्यक्त करते रहे कैंसर रोगी, उपचार के बाद उन रोगियों से मानसिक और शारीरिक दोनों ही तरह से बेहतर स्थिति में थे जो कि ऐसी रचना प्रक्रिया से दूर थे.
अब ब्लॉगों की संख्या में लगातार होती वृद्धि को देखते हुए वैज्ञानिकों ने लेखन के ज़रिए विचारों की अभिव्यक्ति के स्वास्थ्यकारी प्रभावों को तंत्रिका विज्ञान के ज़रिए समझने की कोशिश शुरू की है. हार्वर्ड विश्वविद्यालय और मैसच्यूसेट जेनरल हॉस्पिटल की न्यूरोसाइंटिस्ट एलिस फ़्लैहर्टि का मानना है कि ब्लॉगिंग के स्वास्थ्यकारी असर के अध्ययन की शुरुआत पीड़ा संबंधी प्लेसीबो सिद्धांत से की जा सकती है. प्लेसीबो यानि मरीज़ को दी गई झूठी दवा जिसमें असल दवाई नाम मात्र की भी नहीं होती. प्लेसीबो सिर्फ़ मरीज़ पर सकारात्मक मानसिक असर के लिए दी जाती है, क्योंकि उसे लगता है कि उसका इलाज चल रहा है.
फ़्लैहर्टि का कहना है एक सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य दर्द से जुड़े तरह-तरह के ऐसे व्यवहारों से संबद्ध है, जो कि संतुष्टि प्राप्ति में प्लेसीबो की भूमिका निभाते हैं. तनावपूर्ण अनुभवों के बारे में ब्लॉगिंग करना इसका एक उदाहरण माना जा सकता है.
तंत्रिकाविज्ञानी फ़्लैहर्टि ने हाइपरग्रैफ़िया(लिखने की बेलगाम चाहत) और राइटर्स ब्लॉक(कुछ नया लिखने या अधूरी रचना को पूरा करने की मानसिक दशा नहीं बना पाना) जैसी स्थितियों का अध्ययन किया है. उन्होंने कुछ बीमारियों के मॉडल पर भी इन चीज़ों को समझने की कोशिश की है. उदाहरण के लिए सनकी लोगों की बात करें तो उनके बकबक करने के पीछे मस्तिष्क के बीचोंबीच स्थित तंत्रिका प्रणाली Limbic System की किसी तरह की अतिसक्रियता का कारण हो सकता है. दरअसल मस्तिष्क का यह हिस्सा हर तरह की ललक के लिए ज़िम्मेवार होता है. अब चाहे वो खाने की ललक हो, सेक्स की या फिर समस्याओं के समाधान की. फ़्लैहर्टि का कहना है कि ब्लॉगिंग में भी मस्तिष्क के लिम्बिक सिस्टम की कोई भूमिका हो सकती है. उनका कहना है कि ब्लॉगिंग मस्तिष्क में डोपामीन स्राव बढ़ाने का कारण भी हो सकता है, जैसा कि संगीत सुनने, दौड़ने या कलाकृतियों को निहारने के दौरान होता है.
लेकिन उपचारी लेखन के पीछे के तंत्रिका-तंत्र संबंधी राज़ को खोलने का दावा करना अभी जल्दबाज़ी होगी. दरअसल लेखन कार्य से पहले और उसके बाद मस्तिष्क की अलग-अलग अवस्थाओं का चित्रण ही संभव नहीं हो पाया है. ऐसा इसलिए क्योंकि मस्तिष्क के जिन हिस्सों की इसमें भूमिका होती है, वो सिर में बहुत भीतर हैं. हाँ, एमआरआई चित्रण के ज़रिए इतना ज़रूर मालूम पड़ा है कि लेखन से पहले, लेखन करते समय और उसके बाद, दिमाग़ की छवियाँ अलग-अलग होती हैं. लेकिन इन अलग-अलग छवियों को बार-बार हूबहू दोहराते हुए देखा जाना मुश्किल है. और, जब तक ऐसे दोहरावों को रिकॉर्ड नहीं किया जाता, इस मामले में सटीक अध्ययन संभव नहीं हो सकेगा.
ऐसे में वैज्ञानिकों के पास ठोस परिणाम पाने के लिए दो उपाय रह जाते हैं, जिन पर काम करने पर विचार किया जा रहा है. पहला उपाय है लेखन के ज़रिए भावनाओं की अभिव्यक्ति को लेकर समुदाय केंद्रित व्यापक अध्ययन. दूसरा उपाय है ऐसे लेखन और जैविक परिवर्तनों(जैसे नींद) के बीच संबंधों की पहचान.
ब्लॉगिंग के फ़ायदों के तंत्रिका-तंत्र संबंधी आधार की स्पष्ट पहचान भले ही अभी नहीं हो पाई हो, लेकिन कैंसर जैसी बीमारियों से जूझ रहे रोगियों पर इसके सकारात्मक असर पर लोगों का भरोसा लगातार बढ़ रहा है. शायद इसी लिए Oncologist में छपे शोध से जुड़ी अग्रणी वैज्ञानिक नैन्सी मॉर्गन ने कैंसर रोगियों के उपचार के बाद की देखभाल के कार्यक्रमों में ब्लॉगिंग को भी शामिल करने का फ़ैसला किया है.
पत्रिका के न्यूरोबॉयोलॉजी खंड में The Healthy Type शीर्षक से छपे लेख की पहली ही पंक्ति कहती है- ब्लॉगिंग के चल निकलने का कारण शायद स्वचिकित्सा है. इसके अनुसार वैज्ञानिकों और लेखकों को विचारों-भावों की अभिव्यक्ति के उपचारी प्रभावों की जानकारी तो बहुत पहले से ही रही है, लेकिन अब जाकर पता चला है कि ये प्रक्रिया तनाव तो घटाती ही है, इसके फ़िज़ियॉल्जिकल फ़ायदे भी हैं. अनुसंधानों से पता चला है कि अपनी भावनाओं को ब्लॉगिंग जैसे माध्यम के ज़रिए व्यक्त करने से यादाश्त सुधरती है, नींद बेहतर आती है, प्रतिरक्षण कोशिकाएँ ज़्यादा सक्रिय रहती हैं, एड्स के मरीज़ों में HIV वायरस की मात्रा कम होती है और यहाँ तक कि ऑपरेशन के बाद घाव भरने की प्रक्रिया में भी तेज़ी आती है.
'साइंटिफ़िक अमेरिकन' का लेख मेडिकल जर्नल 'Oncologist' में छपे एक शोध पर आधारित है. ये शोध कैंसर के रोगियों पर किया गया था. इसमें पाया गया कि उपचार से पहले लेखन के ज़रिए ख़ुद को अभिव्यक्त करते रहे कैंसर रोगी, उपचार के बाद उन रोगियों से मानसिक और शारीरिक दोनों ही तरह से बेहतर स्थिति में थे जो कि ऐसी रचना प्रक्रिया से दूर थे.
अब ब्लॉगों की संख्या में लगातार होती वृद्धि को देखते हुए वैज्ञानिकों ने लेखन के ज़रिए विचारों की अभिव्यक्ति के स्वास्थ्यकारी प्रभावों को तंत्रिका विज्ञान के ज़रिए समझने की कोशिश शुरू की है. हार्वर्ड विश्वविद्यालय और मैसच्यूसेट जेनरल हॉस्पिटल की न्यूरोसाइंटिस्ट एलिस फ़्लैहर्टि का मानना है कि ब्लॉगिंग के स्वास्थ्यकारी असर के अध्ययन की शुरुआत पीड़ा संबंधी प्लेसीबो सिद्धांत से की जा सकती है. प्लेसीबो यानि मरीज़ को दी गई झूठी दवा जिसमें असल दवाई नाम मात्र की भी नहीं होती. प्लेसीबो सिर्फ़ मरीज़ पर सकारात्मक मानसिक असर के लिए दी जाती है, क्योंकि उसे लगता है कि उसका इलाज चल रहा है.
फ़्लैहर्टि का कहना है एक सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य दर्द से जुड़े तरह-तरह के ऐसे व्यवहारों से संबद्ध है, जो कि संतुष्टि प्राप्ति में प्लेसीबो की भूमिका निभाते हैं. तनावपूर्ण अनुभवों के बारे में ब्लॉगिंग करना इसका एक उदाहरण माना जा सकता है.
तंत्रिकाविज्ञानी फ़्लैहर्टि ने हाइपरग्रैफ़िया(लिखने की बेलगाम चाहत) और राइटर्स ब्लॉक(कुछ नया लिखने या अधूरी रचना को पूरा करने की मानसिक दशा नहीं बना पाना) जैसी स्थितियों का अध्ययन किया है. उन्होंने कुछ बीमारियों के मॉडल पर भी इन चीज़ों को समझने की कोशिश की है. उदाहरण के लिए सनकी लोगों की बात करें तो उनके बकबक करने के पीछे मस्तिष्क के बीचोंबीच स्थित तंत्रिका प्रणाली Limbic System की किसी तरह की अतिसक्रियता का कारण हो सकता है. दरअसल मस्तिष्क का यह हिस्सा हर तरह की ललक के लिए ज़िम्मेवार होता है. अब चाहे वो खाने की ललक हो, सेक्स की या फिर समस्याओं के समाधान की. फ़्लैहर्टि का कहना है कि ब्लॉगिंग में भी मस्तिष्क के लिम्बिक सिस्टम की कोई भूमिका हो सकती है. उनका कहना है कि ब्लॉगिंग मस्तिष्क में डोपामीन स्राव बढ़ाने का कारण भी हो सकता है, जैसा कि संगीत सुनने, दौड़ने या कलाकृतियों को निहारने के दौरान होता है.
लेकिन उपचारी लेखन के पीछे के तंत्रिका-तंत्र संबंधी राज़ को खोलने का दावा करना अभी जल्दबाज़ी होगी. दरअसल लेखन कार्य से पहले और उसके बाद मस्तिष्क की अलग-अलग अवस्थाओं का चित्रण ही संभव नहीं हो पाया है. ऐसा इसलिए क्योंकि मस्तिष्क के जिन हिस्सों की इसमें भूमिका होती है, वो सिर में बहुत भीतर हैं. हाँ, एमआरआई चित्रण के ज़रिए इतना ज़रूर मालूम पड़ा है कि लेखन से पहले, लेखन करते समय और उसके बाद, दिमाग़ की छवियाँ अलग-अलग होती हैं. लेकिन इन अलग-अलग छवियों को बार-बार हूबहू दोहराते हुए देखा जाना मुश्किल है. और, जब तक ऐसे दोहरावों को रिकॉर्ड नहीं किया जाता, इस मामले में सटीक अध्ययन संभव नहीं हो सकेगा.
ऐसे में वैज्ञानिकों के पास ठोस परिणाम पाने के लिए दो उपाय रह जाते हैं, जिन पर काम करने पर विचार किया जा रहा है. पहला उपाय है लेखन के ज़रिए भावनाओं की अभिव्यक्ति को लेकर समुदाय केंद्रित व्यापक अध्ययन. दूसरा उपाय है ऐसे लेखन और जैविक परिवर्तनों(जैसे नींद) के बीच संबंधों की पहचान.
ब्लॉगिंग के फ़ायदों के तंत्रिका-तंत्र संबंधी आधार की स्पष्ट पहचान भले ही अभी नहीं हो पाई हो, लेकिन कैंसर जैसी बीमारियों से जूझ रहे रोगियों पर इसके सकारात्मक असर पर लोगों का भरोसा लगातार बढ़ रहा है. शायद इसी लिए Oncologist में छपे शोध से जुड़ी अग्रणी वैज्ञानिक नैन्सी मॉर्गन ने कैंसर रोगियों के उपचार के बाद की देखभाल के कार्यक्रमों में ब्लॉगिंग को भी शामिल करने का फ़ैसला किया है.
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