जिओ-इंजीनियरिंग या भू-यांत्रिकी अभी तक सिद्धांतों तक ही सीमित है. लेकिन पिछले हफ़्ते ब्रिटेन के इंस्टीट्यूशन ऑफ़ मेकेनिकल इंजीनियर्स(आईमेकई) की रिपोर्ट को देखने के बाद लगता है कि अभी से दशक भर के अंतराल में इसे व्यावहारिक धरातल पर उतारा जाना संभव है.
जिओ-इंजीनियरिंग यानि धरती के पर्यावरण को संभालने के लिए और हमें जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से बचाने के लिए बहुत ही बड़े पैमाने पर अपनाए जाने वाले अभियांत्रिकी केंद्रित विकल्प. आईमेकई के अनुसार इन विकल्पों का उद्देश्य होगा- वायुमंडल से बड़ी मात्रा में ग्रीनहाउस गैसों(मुख्यत: कार्बन डाइ ऑक्साइड) को निकालना या फिर धरती की जलवायु प्रणाली में पहुँचने वाले सूर्य के विकिरण की मात्रा में भारी कटौती संभव करना. अभी तक ऐसे किसी विकल्प को बड़े पैमाने पर नहीं अपनाया गया है. सच्चाई तो ये है कि अभी तक जिओ-इंजीनियरिंग को जलवायु परिवर्तन की समस्या से लड़ने के विकल्प के रूप में अपनाने पर व्यापक सहमति तक नहीं बन पाई है.
आईमेकई ने अपनी रिपोर्ट में दलील दी है कि जलवायु परिवर्तन पर हर महीने कहीं न कहीं हो रहे अंतरराष्ट्रीय सेमिनार के बीच कार्बन उत्सर्जन सालाना 3 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है. ऐसे में जिओ-इंजीनियरिंग के विकल्प से बचने की कोशिश ख़तरनाक साबित हो सकती है.
आईमेकई के विशेषज्ञों ने सैंकड़ो जिओ-इंजीनियरिंग प्रस्तावों पर विचार करने के बाद तीन विकल्पों को व्यावहारिक और असरदार माना है- कृत्रिम पेड़ लगाना, छतों को सूर्यातप परावर्तक सतह के रूप में बदलना और शैवाल(अल्गी) आधारित ईंधन को आम प्रचलन में लाना.
कृत्रिम पेड़ देखने में भले ही बदसूरत मशीन जैसा दिखेंगे, लेकिन वायुमंडल के कार्बन डाइ ऑक्साइड को सोखने के काम में वे नैसर्गिक पेड़ों से हज़ार गुना बेहतर होंगे. आईमेकई के डॉ. टिम फ़ॉक्स का दावा है कि एक कृत्रिम पेड़ वायुमंडल से रोज़ 10 टन कार्बन अवशोषित कर सकेगा. यानि यदि ब्रिटेन में एक लाख कृत्रिम पेड़ लगा देने से पूरे देश के परिवहन-तंत्र द्वारा उत्सर्जित कार्बन डाइ ऑक्साइड को न्यूट्रल किया जा सकेगा, उसे वायुमंडल में पहुँचने से रोका जा सकेगा. एक आम सुझाव ये है कि जब कृत्रिम पेड़ लगाने पर सहमति बन जाए तो उन्हें राजमार्ग के दोनों ओर लगाया जाए. ऊपर के चित्र में एक कलाकार ने इसी परिकल्पना को दर्शाया है.
घरों में शैवाल आधारित ईंधनों के प्रयोग से भी वायुमंडल में कार्बन डाइ ऑक्साइड की मात्रा कम होगी, क्योंकि शैवाल प्रकाश संश्लेषण के ज़रिए कार्बन डाइ ऑक्साइड को हरित तत्वों में बदलता है. अल्गी के ईंधन के उपयोग के बाद बचे अवशेष जैव-उर्वरक के रूप में इस्तेमाल किए जा सकेंगे.
जबकि सुझाए गए तीसरे उपाय के ज़रिए ग्लोबल वार्मिंग को सीधे कम किया जाएगा, क्योंकि चमकीली सतह वाली छतें बड़ी मात्रा में सूर्यातप को धरती की जलवायु में घर करने से रोकेंगी.
जिओ-इंजीनियरिंग को अपनाने की अपील करने के साथ ही आईमेकई ने आगाह किया है कि सिर्फ़ इसी के भरोसे नहीं रहा जा सकता. जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव ठीक किए जाने लायक़ स्थिति से आगे चले जाएँ, इससे बचने के लिए ज़रूरी है कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के व्यावहारिक उपायों पर शीघ्र सहमति बनाई जाए. यानि जिओ-इंजीनियरिंग के ज़रिए ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन को बिल्कुल ही ख़तरनाक स्थिति तक पहुँचने में थोड़ी देरी कराई जा सकती है, लेकिन यह उससे बचने की गारंटी बिल्कुल ही नहीं है.
समस्या ये भी है कि जिओ-इंजीनियरिंग पर अभी तक दुनिया भर के पर्यावरणवादी और विशेषज्ञ एकमत नहीं हो पाए हैं. उनकी मुख्य शिकायत ये है है कि ग्लोबल वार्मिंग की विभीषिका को अस्थाई से रूप से टालने में सक्षम कोई भी विकल्प हमें मूल समस्या की भयावहता से आँखें मूँदने की ओर धकेलेगा. उनको इस बात का भी डर है कि सिर्फ़ सैद्धांतिक स्तर पर परखे गए, या सिर्फ़ प्रयोगशाला के नियंत्रित माहौल में परीक्षण कर देखे गए विकल्पों को भूमंडल स्तर पर कार्यान्वित करने से कहीं अनजाने में कोई पर्यावरणनाशी भस्मासुर न पैदा हो जाए!
सोमवार, अगस्त 31, 2009
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