गुरुवार, अप्रैल 30, 2009
स्वास्थ्य संबंधी चेतावनियों के ख़तरे
स्वास्थ्य संबंधी चेतावनियाँ कितनी ख़तरनाक होती हैं, इसका अहसास किसी परिजन या मित्र से ये सुनने पर होता है कि अमुक दवाई, फलाँ साइड-इफ़ेक्ट के कारण बिल्कुल नहीं लेनी चाहिए. किसी दवाई के सर्वविदित या लगभग शत-प्रतिशत सेवनकर्ताओं में होने वाले साइड-इफ़ेक्ट(जैसे कफ़-सिरप पीने के बाद आप नींद महसूस कर सकते हैं) के बारे में दावा किया जा रहा हो तो बात समझी जा सकती है, लेकिन किसी दवाई की पैकिंग पर छपी चेतावनी या फिर डिब्बे के भीतर रखे पर्चे पर छपी बातों के आधार पर कोई ठोस राय बना लेना थोड़ा अटपटा लगता है. ऐसे लोग सुनना नहीं चाहते कि किसी दवा विशेष का कोई साइड-इफ़ेक्ट संभव है लाखों में से एक सेवनकर्ता को झेलना पड़ता हो, या हो सकता है मात्र क़ानूनी झमेलों से बचने के लिए कुछ चेतावनियाँ लिखी गई हों.
इसी मुद्दे पर इस हफ़्ते 'फ़ाइनेंशियल टाइम्स' के पत्रिका खंड में छपा आलेख विचारणीय है. इसका शीर्षक है- 'आख़िर क्यों स्वास्थ्य संबंधी चेतावनियाँ नुक़सानदेह हो सकती हैं?' लेख की शुरुआत ही कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में 25 साल पहले हुए एक अध्ययन की चर्चा से होती है. इस अध्ययन के लिए कुछ वोलंटियर चाहिए थे. इस वास्ते दिए गए विज्ञापन में साफ़ किया गया कि ये मस्तिष्क पर बिजली के प्रभाव से जुड़ा अध्ययन है, जिसमें भाग लेने वालों के सिर पर इलेक्ट्रोड लगा कर उसमें विद्युत प्रवाहित की जाएगी. विज्ञापन में साफ़-साफ़ ये चेतावनी भी दी गई कि अध्ययन में भाग लेने वालों को गंभीर सिरदर्द का सामना करना पड़ सकता है.
स्पष्ट चेतावनी के बाद भी शोधकर्ताओं को ये देख कर ख़ुशी हुई कि कुल 34 छात्र अध्ययन का हिस्सा बनने के लिए सामने आए. अध्ययन की समाप्ति के बाद उनमें से दो तिहाई छात्रों ने सिरदर्द की शिकायत की. हालाँकि सच्चाई ये थी कि उनमें से किसी के सिर पर लगे इलेक्ट्रोडों में बिजली प्रवाहित नहीं की गई थी. दरअसल ये मस्तिष्क पर बिजली के प्रभाव के बारे में अध्ययन था ही नहीं. अध्ययन इस सवाल का जवाब ढूंढने के लिए था कि क्या बीमारी की सोच मात्र ही किसी स्वस्थ व्यक्ति को बीमार बना सकती है? ज़ाहिर है अध्ययन में इसका जवाब 'हाँ' के रूप में सामने आया.
वैज्ञानिकों की भाषा में स्वस्थ व्यक्तियों को अस्वस्थता का भान कराने वाले इस प्रभाव को नोसीबो प्रभाव कहते हैं. Nocebo यानि Placebo का उलट शब्द. दोनों ही लैटिन से आए शब्द हैं, हालाँकि प्लेसीबो जहाँ बहुत पहले से हमारे बीच है वहीं नोसीबो कुछ साल पहले ही चिकित्सा के पेशे से बाहर प्रचलन में आया है. प्लेसीबो का शाब्दिक अर्थ है- 'मैं ख़ुश करूँगा', जबकि नोसीबो का- 'मैं नुक़सान करूँगा'.
प्लेसीबो नए उपचारों, नई दवाओं को परखने के लिए काम में आता है. किसी अध्ययन में कुछ वोलंटियर को सचमुच की दवा दी जाती है, जबकि कुछ को दवारहित गोली या प्लेसीबो. जिन्हें प्लेसीबो दी जाती हैं उन्हें यही बताया जाता है कि अध्ययन में शामिल सभी लोगों को सचमुच की दवा दी जा रही है. बाद में विशेषज्ञ इन दोनों उपसमूहों का अध्ययन कर वास्तविक दवा के असल प्रभाव और साइड-इफ़ेक्ट्स का आकलन कर पाते हैं. (पश्चिम के चिकित्सकों का एक समूह संपूर्ण होम्योपैथी को प्लेसीबो प्रभाव मात्र मानता है.) दूसरी ओर यदि नोसीबो सिद्धांत की व्याख्या एक पंक्ति में की जाए तो वो कुछ इस तरह की होगी- 'बीमार होने की सोचो, बीमार बनो.'
नोसीबो प्रभाव हमारे बीच इतना व्याप्त है कि स्वास्थ्य विशेषज्ञ ये मानने लगे हैं कि खाद्य-पदार्थों से जुड़ी एलर्जी, मोटापा, पीठ का दर्द, थकान और विद्युत-संवेदनशीलता(जैसे-मोबाइल पर देर तक बातें करने के दौरान मस्तिष्क पर विद्युतीय क्षेत्र के कथित असर से सिरदर्द) जैसी इक्कीसवीं सदी की कई चर्चित बीमारियों का काफ़ी कुछ श्रेय इसको देते है. दवाइयों के साथ आने वाली चेतावनियों के साथ-साथ नोसीबो प्रभाव को फैलाने में बीमारी विशेष के ख़तरों के बारे में चलाए जाने वाले जागरुकता अभियानों तथा अपने उत्पाद बेचने के लिए दवा कंपनियाँ द्वारा बनाए जाने वाले डर के माहौल का भी पूरा योगदान होता है. इस समय कई देशों में फैल चुके स्वाइन फ़्लू का ही उदाहरण लें तो ग़ौर करने वाली बात है कि सरकारें अपने नागरिकों को कितना प्रोएक्टिव होकर ऐहतियाती उपायों की घुट्टी पिला रही हैं(सार्वजनिक स्थलों पर जाने से बचें, दरवाज़े का हैंडल छूने के बाद हाथ को धोएँ आदि), या सर्जिकल-मास्क बनाने वाली कंपनियाँ किस तरह अपने उत्पाद को फ़्लू से बचने के कारगर उपाय के रूप में बाज़ार में ठेले जा रही हैं(हालाँकि विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसे मुखावरण फ़्लू वायरस फैलाने से आपको भले ही कुछ हद तक रोक लें, वायरस के आप तक पहुँचने में अवरोध नहीं बन सकेंगे).
बहुत से लोग ये सामान्य-सी बात स्वीकार करने को तैयार नहीं कि कई अस्थाई शारीरिक लक्षण किसी स्वस्थ व्यक्ति की ज़िंदगी का आम हिस्सा होते हैं. मसलन सिरदर्द आते-जाते रहते हैं. किसी रात नींद नहीं आती है, तो किसी दिन आँखें खोले रखना मुश्किल होता है. कभी हम हल्के-फुल्के मूड में होते हैं, तो कभी मिज़ाज ख़राब होता है. इन अनुभवों पर हम ज़्यादा ध्यान नहीं देते, बशर्ते तबीयत ख़राब होने के लक्षण ढूंढने की सनक न चढ़ी हो. परंतु किसी को अपनी तबीयत ठीक होने पर संदेह हुआ नहीं कि वह रात में नींद नहीं आने को अनिद्रा रोग, थकान को कमज़ोरी और ख़राब मूड को अवसाद का नाम देने को बिल्कुल तैयार मिलेगा! एक बार किसी बीमारी की चपेट में आने का झूठा यक़ीन होते ही तरह-तरह की चिंताएँ भी घेर लेती हैं. और ये तो माना हुआ तथ्य है कि अतिशय चिंता(भले ही बेमतलब की क्यों न हो)उच्च रक्तचाप और कमज़ोर प्रतिरक्षण प्रणाली के प्रमुख कारणों में से है.
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